भगवान श्री रामकृष्ण देव के उपदेशों का संग्रह - 'अमृतवाणी ' पर आधारित
स्वामी राम'तत्वानन्द द्वारा रचित- 'श्री रामकृष्ण दोहावली' -2
[इस दोहावली में दोहा के पूर्व दी हुई प्रथम नम्बर क्रम संख्या दर्शाती है, और दूसरी नम्बर अमृतवाणी पर सम्बन्धित उपदेश नम्बर।]
*जीव का सच्चा स्वरुप*
18 जादूगर बन श्री प्रभु, करै जादू का खेल।
26 जादूगर ही सत्य सदा , मिथ्या जादू खेल।।
ईश्वर स्वयं ही मनुष्य के रूप में अवतरित होकर लीला करते हैं। वे बड़े जादूगर हैं - यह जीवजगत -रूपी इंद्रजाल उन्हीं के जादू का खेल है। केवल जादूगर ही सत्य है और जादू मिथ्या।
19 आग शक्ति से नाचहहिं , जैसे परवल पानी।
27 तस नाचत हरि शक्ति से , मन बुद्धि जीव रानी।।
मनुष्य की देह मानो एक हाँड़ी है और मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ मानो पानी , चावल और आलू के समान हैं। हांड़ी में पानी, चावल और छोड़कर उसे आग पर रख देने से वे तप्त होकर खदकने लगते हैं। उन्हें हाथ लगाए तो हाथ जल जाता है। वास्तव में जलाने की शक्ति हाँड़ी, पानी ,चावल या आलू -परवल में से किसी में नहीं है , वह तो उस आग में है; फिर भी उनसे हाथ जलता है। इसी प्रकार मनुष्य के भीतर विद्यमान रहने वाली ब्रह्मशक्ति (आत्मा की शक्ति) के कारण ही मन, बुद्धि , इन्द्रियाँ कार्य करती हैं, और जैसे ही इस ब्रह्मशक्ति का अभाव हो जाता है वैसे ही ये मन , बुद्धि , इन्द्रियाँ निष्क्रिय हो जाती हैं।
12 भगवन जानहु अंक सम , जीवहि शून्य समान।
16 अंक बिना शुन शून्य है , अंक रहे दस मान।।
संख्या ' १ ' के बाद शून्य लगाते हुए चाहे जितनी बड़ी संख्या पाई जा सकती है ; पर यदि उस 'एक ' को मिटा दिया जाए तो शून्यों का कोई मूल्य नहीं होता। उसी प्रकार जब तक जीव उस 'एक' -स्वरुप ईश्वर के साथ युक्त नहीं होता तब तक उसकी कोई कीमत नहीं होती। कारण , जगत में सभी वस्तुओं को ईश्वर सहित सम्बन्ध होने पर ही मूल्य प्राप्त होता है। जब तक जीव जगत के पीछे अवस्थित उस मूल्य प्रदान करने वाले ईश्वर के साथ संयुक्त रहते हुए , उन्हीं के लिए कार्य करता रहता है , तब तक तो उसे अधिकाधिक श्रेय प्राप्त होता रहता है; लेकिन इसके विपरीत जब वह ईश्वर की उपेक्षा करते हुए अपने स्वयं के गौरव के लिए बड़े -बड़े कार्य सिद्ध करने में भिड़ जाता है , तब उसे कोई लाभ नहीं मिलता।
14 हरि चुम्बक जीव लोह सम , माया पंक सामान।
18 असुंवन धोवहि पंक जब , तब खींचहि भगवान।।
ईश्वर (माँ काली) और जीव का बहुत ही निकट का सम्बन्ध है -जैसे लोहे और चुम्बक का। किन्तु ईश्वर जीव को आकर्षित क्यों नहीं करता ? जैसे लोहे पर बहुत अधिक कीचड़ लिपटा हो तो वह चुम्बक के द्वारा आकर्षित नहीं होता। वैसे ही जीव मायारुपी कीचड़ से में अत्यधिक लिपटा हो तो उस पर ईश्वर के आकर्षण का असर नहीं होता। फिर जिस प्रकार कीचड़ को जल से धो डालने पर लोहा चुम्बक की ओर खिंचने लगता है , उसी प्रकार जब जीव अविरत प्रार्थना और पश्चाताप के आँसुओं से इस संसार बन्धन में डालने वाली माया के पंक को धो डालता है , तब वह तेजी से ईश्वर की ओर खिंचता जाता है।
13 बिन तेल नहीं दीप जले , तेल दीप का प्राण।
17 तस पल भर नर जीयत नहिं , बिन हरि बिन भगवान।।
जिस प्रकार तेल न हो तो दीप जल नहीं सकता , उसी प्रकार ईश्वर न हों तो मनुष्य जी नहीं सकता।
15 आत्मा मायाबद्ध जो, पराधीन है जीव।
20 पाश मुक्त स्वतन्त्र जो , आनन्दमय शुभ शिव।।
मायापाश में बद्ध आत्मा 'जीव ' है, पाशमुक्त आत्मा ही 'शिव ' (ईश्वर) है। [अर्थात एक ही जीव (मनुष्य) की दो अवस्थायें है -- पाशबद्ध (Hypnotized) और पाशमुक्त (De -Hypnotized)]
17 जीव सिमित शिव अनन्त है , कैसे पावहि थाह।
25 जैसे नमक की गुड़िया , अरु सागर अथाह।।
ईश्वर अनन्त है और जीव सान्त। भला सान्त जीव अनन्त की धारणा कैसे कर सकता है ? यह तो मानो नमक की गुड़िया का समुद्र की गहराई नापने का प्रयास है। नमक की गुड़िया समुद्र की गहराई की थाह लेने ज्यों ही पानी में उतरी त्योंही घुलकर विलीन हो गयी। उसी प्रकार जीव भी ईश्वर की थाह लेने, उन्हें जानने जाकर अपना पृथक अस्तित्व खो बैठता है।
16 जैसे जल अरु बुलबुला , तैसे ब्रह्म अरु जीव।
22 एक पराधीन सीमित है , एक असीम जग नींव।।
पानी और बुलबुला वस्तुतः एक ही हैं । बुलबुला पानी में ही उत्पन्न होता है , पानी में ही रहता है और अन्त में पानी में ही समा जाता है। उसी प्रकार जीवात्मा और परमात्मा वस्तुतः एक ही हैं। उनमें अन्तर केवल उपाधि के तारतम्य का है : एक सान्त -सीमित है तो दूसरा अनन्त -असीम ; एक आश्रित है तो दूसरा स्वतन्त्र।
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1 टिप्पणी:
बहुत ही सुन्दर उपदेश,हमें इन शाश्वत उपदेशों को बार बार स्मरण करते रहना चाहिए तभी हम ईश्वर को प्राप्त करने योग्य हो सकते हैं|
जय भगवान श्री रामकृष्ण|❤|🙏|सभी को आपकी कृपा प्राप्त हो!
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