शुक्रवार, 4 जून 2021

श्री रामकृष्ण दोहावली (15) नित्यसिद्ध (नेता) को ईश्वर का लाभ पहले हो जाता है , साधना पीछे से होती है; जैसे लौकी , कुम्हड़े लत्तर में पहले फल और उसके बाद फूल होते हैं।

श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर 

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(15) 

" साधकों की श्रेणी "

140 जस पतंग लाखों मँह , कटत बस दुइ -चार। 

227 तस कोटिन्ह साधक मँह , इक दुइ उतरत पार।।  

पतंगे लाखों में एक-दो ही कटती हैं। इसी तरह सैंकड़ो साधक साधना करते हैं , पर उनमें से एक या दो ही भवबन्धन से मुक्त हो पाते हैं। 

141 प्रथम फले फिर फूलत है , जस लौकी के नार। 

230 नित्य सिद्ध तस दरस प्रथम , पाछल साधन सार।।

पौधों में साधारणतः पहले फूल आते हैं , बाद में फल। परन्तु लौकी , कुम्हड़े आदि की बेल में पहले फल और उसके बाद फूल होते हैं। इसी तरह साधारण साधकों को तो साधना करने के बाद ईश्वर -लाभ होता है; किन्तु जो नित्यसिद्ध (नेता) की श्रेणी के साधक होते हैं, उन्हें पहले ही ईश्वर का लाभ हो जाता है , साधना पीछे से होती है।   

142 कच्चा बाँस झुके सहज , इत उत जित झुकाव। 

233 तस बालक मन सरल सहज , झुकत प्रभु के पाँव।।

जैसे कच्चे बाँस को आसानी से झुकाया जा सकता है , पर पक्का बाँस जबरदस्ती झुकाये जाने पर टूट जाता है। वैसे ही युवकों का मन सरलता से ईश्वर की ओर लाया जा सकता है, परन्तु बड़े-बूढ़ों के मन को उस ओर झुकाने की कोशिश करने पर भाग खड़े होते हैं।  

143 जैसे तोता कण्ठ बिना , पढ़त सहज जो पढ़ाव। 

234 तैसे बालक का मन सरल सहज, धरत प्रभु के पाँव।।  

तोते के गले में कण्ठी निकल जाने पर उसे पढ़ाया नहीं जा सकता , जब तक वह बच्चा रहता है तभी तक आसानी से पढ़ना सीखता है। इसी तरह मनुष्य के बूढ़ा हो जाने पर उसका मन सहज में ईश्वर में स्थिर नहीं होता। बचपन में मन थोड़े ही प्रयत्न से आसानी से स्थिर हो सकता है।  

144 दागी फल नहीं नहिं देव धरे , धरे न द्विज अरु संत। 

235 तस विषयी मन चढ़त कठिन , परमारथ के पंथ।।

पका हुआ साबूत आम भगवान के भोग में और अन्य सभी कामों में आ सकता है ; पर वह अगर कौवों ठुनका हुआ हो तो किसी काम में नहीं आता। ऐसा दागी फल न तो देवता के भोग में चढ़ता है , न ब्राह्मण को दान दिया जा सकता है , और न स्वयं के खाने में आता है। इसीलिए पवित्र हृदय बालकों और युवाओं को धर्ममार्ग पर ले जाने का प्रयत्न करना चाहिए , उन्हें भगवान की सेवा में लगाना चाहिए , क्योंकि उनके मन में विषयवासना की कालिमा नहीं लगी होती। अगर मन में एकबार विषयबुद्धि प्रवेश कर जाये, या विषयभोग रूपी विकराल राक्षस की छाया पड़ जाए , तो फिर परमार्थपथ पर ले जाना अत्यंत दूभर हो जाता है।    

145 सात्विक करे उपासना , मन मन धर हिय ध्यान। 

239 नहिं दिखावा वेशभुषा , जपत सदा भगवान।।

प्रश्न -सात्विक , राजसिक और तामसिक पूजा -उपासना में क्या अंतर है ? 

उत्तर - जो तनिक भी दिखावा या आडम्बर न करते हुए हृदय की गहराई से आंतरिक भक्तिपूर्वक भगवान की उपासना करता है , वह सात्विक उपासक है।

146 राजसिक करे उपासना , नेवते सब संसार। 

239 झमझम पूजा घर करे , महके भोग भंडार।।

जो पूजा -अनुष्ठान के उपलक्ष में घर की सजावट , नृत्य-गीत , धूमधाम , उत्तम भोज आदि आडंबरों की ओर अधिक ध्यान देता है , वह राजसिक उपासक है। 

147 तामसिक करे उपासना , बकरा बलि चढ़ाइ। 

239 रह रह मदिरा पान करे , गावे गाल बजाइ।।  

जो देवता सामने सैकड़ों बकरों की बलि चढ़ाता है , मांस -मदिरा आदि भोग लगाता है और पूजा के नाम पर नाचने -गाने में ही मग्न रहता है , वह तामसिक उपासक है।

============ 

कोई टिप्पणी नहीं: