श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर
(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली )
(45)
* ज्ञान मार्ग क्या है ?*
392 सकल वेद विचार का , एक ही लक्ष्य महान।
742 मिथ्या जग संसार है , सत्य ब्रह्म भगवान।।
393 ब्रह्मतत्व का श्रवण करो , करो मनन विचार।
742 ध्यान करो इस सत्य का , तज झूठ संसार।
394 मुख से जग को झूठ कहे , मन मन करहिं भोग।
742 पाखण्डी चाण्डाल वे , मिथ्याचारी लोग।।
श्रीरामकृष्ण के एक युवा भक्त एक बार वेदान्त -शास्त्रों के अध्यन में अत्यधिक निमग्न हो गए थे। एक दिन उनसे भेंट होने पर श्रीरामकृष्ण ने कहा , " क्यों जी, सुना है कि तुम आजकल खूब वेदान्त -विचार करने में लगे हुए हो ? बहुत अच्छा है। परन्तु सब विचार का उद्देश्य तो केवल यही है न कि " ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या ' इस सिद्धान्त पर पहुँचना ? या कुछ और ही है ?
युवक भक्त ने श्रीरामकृष्ण के इस कथन का समर्थन किया। उनके इन शब्दों ने मानो वेदान्त पर एक अभिनव प्रकाश डाला। सुनकर भक्त का मन विस्मय से भर गया। उन्होंने विचार किया - 'सचमुच, ह्रदय में केवल इतनी ही धारणा हो गयी तो सम्पूर्ण वेदान्त का ही ज्ञान हो गया ! '
श्रीरामकृष्ण कहने लगे - " श्रवण , मनन , निदिध्यासन। 'ब्रह्म सत्य , जगत मिथ्या ' --इस सत्य को पहले सुना , फिर मनन या विचार करते हुए सब संदेहों का निराकरण करने के बाद , उसे मन में दृढ़ भाव से ग्रहण किया। इसके बाद निदिध्यासन अर्थात मिथ्या वस्तु - जगत (नाम-रूप ) का त्याग कर सत्य वस्तु ब्रह्म (अस्ति -भाति -प्रिय) के ध्यान में मन को निमग्न किया ! यही वेदान्त साधना का क्रम है। "
परन्तु इसके विपरीत अगर इस सत्य को सुना , समझा भी , पर मिथ्या वस्तु (नाम-रूप में आसक्ति ) को त्यागने का प्रयत्न नहीं किया , तो इस ज्ञान से क्या फायदा ?
इस प्रकार का ज्ञान तो संसारासक्त लोगों के ज्ञान की तरह है , ऐसे ज्ञान से वस्तुलाभ नहीं होता। पक्की धारणा चाहिए , त्याग चाहिए --- तभी होगा ! नहीं तो, मुँह से तो कह रहे हो ' काँटा नहीं है ' पर हाथ लगाते ही काँटा चुभता है और 'उफ़ ' कर उठते हो।
मुँह से तो कह रहे हो ,' जगत है ही नहीं , असत है ! --एकमात्र ब्रह्म ही है ' आदि , परन्तु जैसे ही जगत के रूप-रस आदि भोग्य विषय [ मिल्कटॉफी ] सामने आते हैं कि उन्हें सत्य मानकर बंधन में पड़ जाते हो !!
पंचवटी में एक साधु आया था। वह लोगों के सामने खूब वेदान्त -चर्चा करता। एक दिन सुना कि किसी औरत के साथ उसका अनैतिक सम्बन्ध हो गया। फिर शौच के लिए उस ओर जाते समय देखा कि वह बैठा हुआ है। मैंने कहा, ' क्यों जी , तुम इतनी वेदान्त की बातें करते हो , पर यह सब क्या हो रहा है ?
वह बोला , ' उसमें क्या है ? मैं आपको समझा देता हूँ कि कैसे इसमें कोई दोष नहीं है। संसार जब तीन काल में झूठ ही है , तब क्या केवल यही बात सच होगी ? -यह भी झूठ ही है ! '
सुनकर मैं चिढ़कर बोला , ' तेरे ऐसे वेदान्तज्ञान पर मैं थूकता हूँ ! यह सब संसारी , विषयासक्त लोगों का ज्ञान है , इसे ज्ञान नहीं कहा जा सकता। "
390 हिय माँझ शिव वास करे , खोजत भटके जीव।
739 जस अंगार ढूंढे कोई , पकड़ हाथ में दीव।।
एक आदमी आधी रात को उठा और तमाखू पीने की इच्छा से टिकिया सुलगाने के लिए पडोसी के घर जाकर दरवाजा खटखटाने लगा। घर में सभी लोग सोये हुए थे। काफी देर बाद एक व्यक्ति ने दरवाजा खोला और पूछा , " क्योंजी , क्या बात है ? "
इस आदमी ने कहा , " तमाखू पीना है ; टिकिया सुलगाने के लिए थोड़ी अंगार चाहिए थी। " तब पड़ोसी ने कहा , " तुम भी बड़े अजीब आदमी हो ! अंगार के लिए तुम आधी रात को इतनी तकलीफ उठाकर तुम यहाँ आये , इतना दरवाजा खटखटाया , पर तुम्हारे ही हाथ में तो लालटेन जल रही है ! " मनुष्य जो पाना चाहता है वह उसके पास ही है , फिर भी वह उसके लिए नाना जगह भटकता फिरता है।
388 ज्ञान जीव का दीप सम , भक्त चाँद समान।
735 अवतारी का सूरज सम , तुरत नशत अज्ञान।।
सब का ज्ञान एक जैसा नहीं होता , व्यक्ति-व्यक्ति के ज्ञान में तारतम्य होता है। संसारी जीवों का ज्ञान इतना तेज नहीं होता। वह मानो दीपक का प्रकाश है , उसके द्वारा सिर्फ कमरे में ही उजाला होता है। भक्त का ज्ञान मानो चाँदनी है , उससे भीतर और बाहर दोनों दिखाई पड़ता है।
परन्तु अवतार /चपरास प्राप्त नेता -नवनीदा / गुरुदेव आदि का ज्ञान मानो सूर्य का प्रकाश है। वे मानो ज्ञानसूर्य हैं , उनके प्रकाश से युगों का संचित अज्ञानान्धकार दूर हो जाता है।
* ज्ञानयोग की प्रणाली *
389 जब तक भगवान वहां वहां , तब तक है अज्ञान।
737 हिय अन्तर जब यहाँ यहाँ , ज्ञान उदित तब जान।।
जब तक भगवान (माँ काली) 'वहाँ वहाँ ' ( गाँव के श्मशान में है ,अर्थात दूर या बाहर ) है तब तक अज्ञान है ; जब वे 'यहाँ यहाँ ' (अर्थात हृदय रूपी श्मशान में अहंकार का शवदाह हो जाये ) हैं तभी ज्ञान है !
391 ज्ञान फले एकत्व को , नाना रूप अज्ञान।
741 एक सत्य भगवान है , नाना रूप जग जान।।
ज्ञान एकत्व की और ले जाता है , अज्ञान नानत्व की ओर।
*ज्ञानयोग की कठिनाइयाँ*
395 ज्ञान योग कलियुग कठिन , देह बोध नहीं जाय।
743 तिन्ह मह जीवन अलप अति , भोग सकल को भाय।।
इस कलियुग में ज्ञानयोग बहुत कठिन है। एक तो जीव अन्नगत -प्राण है (-उसका जीवन पूरी तरह से अन्न पर ही निर्भर है ) , दूसरे , आयु भी बहुत कम है। फिर देहात्म-बुद्धि भी किसी हालत में (बाल पक जाने के बाद भी ) नहीं जाना चाहती।
ज्ञानी का बोध तो यह होना चाहिए कि " मैं वही ब्रह्म हूँ --नित्य , निर्विशेष। मैं देह नहीं हूँ , मैं क्षुधा -तृष्णा , रोग -शोक , सुख-दुःख आदि सभी देह के धर्मों से परे हूँ ! "
अगर रोग-शोक , सुख-दुःख , आदि सभी देह के धर्मों में आसक्ति बनी ही हुई है , तब फिर वह ज्ञानी कैसा ? इधर तो कांटा लगकर हाथ कट गया है , धर -धर खून बाह रहा है , तकलीफ हो रही है , और उधर मुँह से कह रहा है , ' मेरा हाथ कहाँ कटा है ? मुझे तो कुछ भी नहीं हुआ ! 'सिर्फ इस तरह बकवास करने से क्या होनेवाला है ! पहले देहात्मबोध [Male-female distinction] का कांटा ज्ञानाग्नि में जलकर खाक हो जाना चाहिए।
396 देह बोध मन में रहे , मुख में सोअहं भाव।
745 खुद डूबे डूबाए अरु , अन्य लोग कर नाँव।।
ज्ञानयोगी कहता है -सोsहं। परन्तु जबतक देहात्मबुद्धि बनी हुई है , तब तक यह 'सोहं '-भाव बहुत हानिकारक है। इससे प्रगति नहीं होती , पतन ही होता है। ऐसा व्यक्ति स्वयं को तथा औरों को धोखा देता है।
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