श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर
(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली )
(19)
* संन्यासी का आदर्श *
" निवृत्ति मार्ग का अधिकारी कौन है ? "
185 ताड़ से निर्भय कूद सके , त्याग सके संसार।
296 सोइ संन्यासी हो सके , कह श्री गुणागार।।
संन्यास -ग्रहण का अधिकारी कौन है ? जो संसार को पूर्णरूपेण त्याग देता है, " कल क्या खाऊँगा, क्या पहनूँगा " -इसकी बिल्कुल फ़िक्र नहीं करता , वही ठीक-ठीक संन्यासी बनने लायक है।" जो ताड़ के पेड़ पर से निर्भय होकर नीचे कूद सकता है' वही ठीक ठीक संन्यास ग्रहण करने का योग्य अधिकारी है।
[जो व्यक्ति 10 लाख का F.D. करा लेने के बाद, संन्यासी बनता है, उसे निवृत्ति मार्ग का योग्य अधिकारी नहीं कह सकते !]
186 सन्यासी अरु साँप , दोउ न बनावत निज गृह।
297 रहत सदा पर गृह में , हो निरभय निस्पृह।।
योगी और संन्यासी सर्प के समान होते हैं। सर्प अपना बिल कभी नहीं बनाता , वह सदा चूहे के बिल में रहता है। एक बिल नष्ट हो जाये , तो दूसरे में चला जाता है। योगी-संन्यासी लोग भी , इसी तरह , अपने लिये घर नहीं बनाते। वे दूसरों के यहाँ रहते हैं - आज यहाँ तो कल वहाँ , इस तरह दिन बिताते हैं।
187 कल की चिन्ता जिसे नहीं , नहिं जिसका निज गृह।
297 सोइ सन्यासी हो सके , जो सदा निस्पृह।।
जिसे किसी प्रकार का लोभ या लालसा न हो, उसे ही निस्पृह कहते हैं , सच्चे साधु-संत निस्पृह होते हैं। संन्यासी कल के बारे में कुछ नहीं सोचता , कल के लिए कुछ भी नहीं बचाता। जैसे वृक्ष अपना सबकुछ परहित में दान कर देता है , साधु भी क्या होगा कल ? इस बारे में कुछ कभी नहीं सोचता है ।
188 जैसे सफेद वस्त्र में , छोटे काला जंग।
299 तस साधु के दोष लघु , दिखे बड़ा बेढंग।।
सफ़ेद धोती , सफ़ेद कुर्ता पर अगर थोड़ा सा भी काला लग जाये तो वह बहुत भद्दा दीखता है। साधुओं का या धर्मप्रचारक "नेता " का छोटा सा दोष भी बड़ा भारी मालूम होता है।
189 देखहि नारिहि मातु सम , कांचन माटी समान।
305 जीव हिय शिव देखहहिं , साधु कर पहचान।।
भक्त - सच्चे साधु की क्या पहचान है ?
श्रीरामकृष्ण - जिसका मन, प्राण , अन्तरात्मा पूरी तरह ईश्वर (जनता जनार्दन की सेवा ) में ही समर्पित हो , वही सच्चा साधु/नेता है। सच्चा साधु कामिनी-कांचन का सम्पूर्ण त्याग कर देता है। वह स्त्रियों की ओर ऐहिक दृष्टि से नहीं देखता। वह सदा स्त्रियों से दूर रहता है , और यदि उसके पास कोई स्त्री आ जाये , तो वह उसे माता के समान देखता है। वह सदा ईश्वर-चिंतन में मग्न रहता है। और सर्वभूतों में ईश्वर विराजमान हैं , यह जानकर , सब की सेवा करता है। ये सच्चे साधुओं के कुछ साधारण लक्षण हैं।
जो साधु/नेता मंतर पढ़ के दवाई देता हो , झाड़- फूँक करता हो , पैसे लेता हो और भभूत रमाकर या माला-तिलक आदि बाह्य चिन्हों का आडम्बर रचकर, मानो 'साईनबोर्ड ' लगाकर लोगों के सामने अपने साधुगिरी/गुरुगिरि/ नेतागिरी का प्रदर्शन करता हो , उस पर कभी विश्वास मत करना।
190 परहित में जो रत रहे, करे न एक अहित।
307 क्षमाशील स्वभाव है , सन्यासी का गीत।।
'क्षमाशीलता' ही संन्यासी का स्वभाव है !
===========
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें