शुक्रवार, 18 जून 2021

$$$$ श्री रामकृष्ण दोहावली (20-A):-* मूर्ति पूजा का महत्व * [देवी मंत्र ( बंद/ खुली आँखों से ध्यान के लिए) -" ॐ आनन्दमयी चैतन्यमयी सत्यमयी परमे।"]

 श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर 

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(20-A ) 

*साधक जीवन के लिए कुछ सहायक बातें *

"  मूर्ति पूजा का महत्व 

 [देवी मंत्र (ध्यान के लिए) -" ॐ आनन्दमयी चैतन्यमयी सत्यमयी परमे।"] 

196 माटी समझ मूर्ति पूजे , होत न फल कछु आन। 

330 जो पूजे चिन्मय समझ , देत दरस भगवान।। 

यदि मूर्तियों के बारे में चिन्मय -बोध रखकर पूजा किया जाये , तो उनकी पूजा करते हुए , पूजक को ईश्वरदर्शन तक हो जाते हैं ; परन्तु मिट्टी या पत्थर समझकर मूर्ति की पूजा करता है , उसकी पूजा का कोई फल नहीं होता। 

श्रीरामकृष्ण ने एक बार ब्रह्मसमाजी केशवचन्द्रसेन * से , जो कि उनदिनों मूर्तिपूजा के कट्टर विरोधी थे, कहा था " मूर्तियों को देखने पर तुम्हारे मन में भला मिट्टी , पत्थर या लकड़ी की बात ही क्यों उठती है ? तुम इनमें सच्चिदानन्दमयी माँ का आविर्भाव क्यों अनुभव नहीं करते ? "

 महर्षि अरबिन्दो रचित देवी मंत्र (बंद/ खुली  आँखों से ध्यान के लिए) -
" ॐ आनन्दमयी चैतन्यमयी सत्यमयी परमे।" 
अर्थात -समस्त सुखों की समष्टिस्वरुप हे सच्चिदानन्दमयी माँ, तुम आनन्द का स्रोत (विवेक-स्रोत)  हो, तुम चेतना का स्रोत हो,और तुम सत्य का स्रोत हो, तुम ही सर्वोच्च हो।
 इस देवी-मंत्र के द्वारा संस्कृत शब्द  'सच्चिदानन्द' का भी ध्यान हो जाता है; सच्चिदानंद का अर्थ “सत”, “चित”, “आनन्द” (अस्ति -भाति -प्रिय) होता है। सत का अर्थ सत्य, अस्तित्व होता है। चित का अर्थ चेतना (Consciousness, आपा , होश , जागृति, awareness, जागरूकता, हमेशा सतर्क, मान-हूश -मान का होश ) होता है। और आनंद (Bliss) मतलब प्रियतम से प्राप्त परम आनंद, आंतरिक आनंदजब देवी (माँ जगदम्बा) के उपासक को इस आंतरिक आनन्द (Bliss-विवेकानन्द) की प्राप्ति हो जाती है ,तब विषय-सुखों के प्रति उसकी आसक्ति स्वतः नष्ट हो जाती है।  
{ पतंजलि-योगसूत्र पर महर्षि व्यास के भाष्य  विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्घाट्यत इत्युभयाधीनश्चित्तवृत्तिनिरोधः।" का उल्लेख करते हुए नवनीदा कहते थे, "5000 साल पहले व्यासदेव को मालूम था , कि एक दिन विवेकानन्द नामक सुदर्शन पुरुष आयेगा , जिसकी मूर्ति या छवि पर मन को एकाग्र करने का अभ्यास करने से विवेक-स्रोत (Bliss, परमानन्द का स्रोत) उद्घाटित हो जायेगा और तब विषय-सुखों के प्रति आसक्ति स्वतः नष्ट हो जाएगी ! } 

महर्षि वेदव्यास ने श्रीमद्भागवतपुराण ( स्कन्धः ११/अध्यायः ९/२२-२३॥) में मूर्तिपूजा के महत्व को " भृङ्ग- कीट न्याय" * की उपमा द्वारा समझाया है -

यत्र यत्र मनो देही धारयेत् सकलं धिया ।

 स्नेहाद् द्वेषाद् भयाद् वापि याति तत् तत्स्वरूपताम् ॥ २२ ॥

        यहाँ राजा यदु को दत्तात्रेयजी बता रहे हैं " कि हे राजन् ! मैंने इस भृङ्गी कीट (wasp - भँवरा ) से यह शिक्षा ली है कि यदि कोई व्यक्ति अपने मन को स्नेह से, द्वेष से अथवा भय से तीनों में से किसी भी भाव से अनुप्रेरित होकर किसी मूर्ति या छवि पर निरंतर एकाग्र रखने का अभ्यास करे , तो वह उसी के स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। " 

 [In Vedanta " the idea of constant contemplation of 'X' by 'Y', will result in 'Y ' becoming 'X' " , is taught by the analogy of 'Bhramara KeeTa Nyaaya'.

194 बड़ी निशाना भेद प्रथम , फिर छोटी आसान। 

324 तस प्रथम साकार पुनि , निराकार भगवान।।

बाण से लक्ष्य वेधना सीखना हो , तो पहले बड़ी वस्तुओं पर निशाना लगाना सीखा जाता है , इसके बाद छोटी वस्तुओं पर भी आसानी से निशाना लगाया जा सकता है। इसी प्रकार , पहले यदि साकार मूर्तियों पर मन स्थिर किया जाये , तो फिर बाद में निराकार पर भी मन सरलता से स्थिर किया जा सकता है। 

195 हाथी मूर्ति देख जस , होवत हाथी भान। 

325 तस हरिप्रतिमा देख नर , सुमिरन श्री भगवान।।

जिस प्रकार मिट्टी का शरीफा या हाथी देखने पर सचमुच का शरीफा या हाथी की याद आती है। उसी प्रकार ईश्वर की प्रतिमा देखने पर ईश्वर (माँ काली के अवतार वरिष्ठ ) का ही स्मरण होता है!  

शिष्य -अच्छा , मानो यह विश्वास हुआ कि ईश्वर साकार है।  पर पूजी जाने वाली मिट्टी की मूर्ति तो वे हैं नहीं।

श्रीरामकृष्ण - मिट्टी की मूर्ति क्यों कहते हो ? वह चिन्मयी (pure consciousness) प्रतिमा  हैं।   

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आध्यात्म-विद्या  में कीट-भृंग न्याय * की बड़ी चर्चा है; आख़िर यह कीट-भृंग न्याय  है क्या यह वेदान्त मनोविज्ञान का साहचर्य का सिद्धांत (principle of association) है कि " ' Y ' के द्वारा ' X ' के निरंतर चिंतन (विवेकदर्शन का अभ्यास) करते रहने के परिणामस्वरूप 'Y' ही 'X' में रूपान्तरित हो जाता है! " 
भृङ्गी (भँवरा को कुम्हार-कीट भी कहते हैं , क्योंकि यह प्रायः दीवार के कोनों पर गीली मिट्टी से अपना छत्ता बनाता है। इस मिट्टी को घिसकर लगाने से आँख की बिलनी (गुहौरि) अच्छी हो जाती है।) ऐसी मान्यता है कि भृंगी अपने घर में किसी भी कीट को पकड़ ले जाता है । और उस कीड़े को छत्ते के अन्दर डालकर वहां वह उसकी पांव की ठोकर से स्वागत करता है । अर्थात खूब पिटाई करता है, इस स्वागत से वह कीट बेहोश हो जाता है । फिर,भृंगी बाहर आकर छिद्र बन्द करके उस कीट को राग भ्रमर गा कर सुनाता है, यानि बाहर से पंख फ़ङफ़ङाता हुआ तेज भूँ भूँ हूँ हूँ की ध्वनि करता है । छोटा कीड़ा मारे भय के उस भ्रमर कीट का निरंतर चिंतन करता रहता है। इस भ्रमर गीत को सुन कर इतना तन्मय हो जाता है कि बेहोश कीट में चैतन्यता आ जाती है । जिसके फलस्वरूप उसकी आंतरिक तथा बाह्य संरचना भी परिवर्तित होकर भृंगी कीट जैसी ही हो जाती है । वह कीट भृंगी जैसा आचरण करने लगता है । जब वह उस घर से विदा लेता है तो वह खुद ही भृंगी का रुप धारण कर लेता है । 
[समस्त सुखों की समष्टिस्वरुप सच्चिदानन्दमयी माँ जगदम्बा के स्वरुप का चिंतन (या विवेकदर्शन का अभ्यास) करते -करते  जब कोई जीवात्मा, स्वयं  सच्चिदानन्द में रूपांतरित हो जाता है, (या श्रवण-मनन -निदिध्यासन करते-करते, भ्रमर-कीट न्याय के अनुसार - झींगुर जब स्वयं भृंगी बन जाता है तब विषय-सुखों के प्रति उसकी आसक्ति स्वतः नष्ट हो जाती है।  यह आंतरिक परम् आनन्द (विवेकानन्द) की प्राप्ति ही विवेक-स्रोत का उद्घाटित होना  है !]
संत कबीर ने अपनी एक साखी में अपरा विद्या (Physics ) पराविद्या (Metaphysics, अध्यात्मविद्या ) दोनों विद्याओं में पारदर्शी  गुरु (प्रशिक्षक, नेता 'CINC'-विवेकानन्द) के महत्व को उजागर करते हुए,  गुरु को बार -बार प्रणाम करने के लिए कहा है - 

गुरु को कीजे दंडवत, कोटि कोटि परनाम ।

कीट न जानै भृंग को, गुरु कर लें आप सामान ॥ १ ॥

     सतगुरु (नेता) को प्रीत सहित और दंडवत और बारम्बार प्रणाम करना चाहिए अर्थात दीनतापूर्वक उन्हें हृदय बसाए रखना चाहिए, क्यों‍कि सद्गुरु अपने प्रिय शिष्य को अपने समान बना लेते हैं। 

साधारण कीड़ा भृङ्ग (भ्रमर) की क्षमता को तो नहीं जानता पर भौंरा, जो की क्षमतावान है, कीड़े को पकड़ कर अपने छत्ते में ले जाता है; वहाँ बार बार उसको डंक मारता है और अपनी गुंजार सुनाता है। और कीड़ा मृतप्राय होकर सब सुनता है और सहता है जिसके फलस्वरूप कीड़ा भी भृंगी का रूप ले लेता है ।

इसी प्रकार पूरे गुरु (नेता या जीवनमुक्त शिक्षक), अपने सेवक को, अपना सत्संग बख्श करके, बचन बानी सुना कर, धीरे धीरे उनकी गढ़त और सफाई करते हुए; शिष्य को ईश्वर प्राप्ति के मार्ग पे ले जाते हैं, और एक दिन उनको अपने सामान ही बना लेते है । ऐसे समर्थ सतगुरु को कोटि - कोटि प्रणाम। 

आचार्य शंकर के द्वारा भी इस  'भ्रमर -कीट न्याय'  का उपयोग  अपने निम्नलिखित रचनाओं में किया गया है -  'विवेक-चूड़ामणि ' ग्रंथ में वे कहते है -  

                          " सति सक्तो नरो याति सद्भावं ह्येकनिष्ठया ।

                            कीटको भ्रमरं ध्यायन् भ्रमरत्वाय कल्पते ॥ ३५९ ॥" 

सत्-स्वरुप ब्रह्म (स्वामी विवेकानन्द के रूपदर्शन ) में आसक्त मनुष्य, अपनी अनन्य निष्ठा के द्वारा निश्चय ही अपने ब्रह्म-स्वरुप को प्राप्त हो जाता है, ( उसी प्रकार जैसे कि) भ्रमर का ध्यान करता हुआ कीट भ्रमर ही हो जाता है। 

(The man who is attached to the Real becomes Real, through his one-pointed devotion. Just as the cockroach thinking intently on the Bhramara is transformed into a Bhramara.)अपने दूसरे ग्रन्थ 'अपरोक्षानुभूति ' में आचार्य शंकर कहते हैं -  

 भावितं तीव्रवेगेन यद्वस्तु निश्चयात्मना । 

पुमांस्तद्धि भवेच्छीघ्रं ज्ञेयं भ्रमरकीटवत् ॥ १४०॥ 

दृढ विश्वास के साथ तीव्र वेग से मनुष्य जिस वस्तु के बारे चिन्तन करने में अपने मन को नियोजित कर लेता है, वह शीघ्र ही उस वस्तु में परिणत हो जाता है, जैसे कोई कीड़ा भ्रमर में परिणत हो जाता है। आचार्य शंकर अपने 'आत्मबोध' नामक ग्रन्थ में कहते हैं - 

जीवन्मुक्तस्तु तद्विद्वान् पूर्वोपाधिगुणांस्त्यजेत् । 

 सच्चिदानन्दरूपत्वात् भवेद् भ्रमरकीटवत् ॥ (आत्मबोध:  -४८)

The liberated soul endowed with knowledge of Self drops his traits of previous equipments (gross-subtle-causal body) to become Self just as worm drops his limiting existence to become wasp .  

आत्म-ज्ञान से संपन्न एक जीवनमुक्त शिक्षक / नेता, जाग्रत, स्वप्न , सुषुप्ति की उपाधियों (upaadhis) के साथ अपने पुराने तादात्म्य को त्याग देता है, और अपने सत-चित-आनंद स्वरुप का निदिध्यासन करते रहने के कारण, वह वास्तव में ब्रह्म ही हो जाता है जैसे कि कोई झींगुर भँवरे का निरंतर ध्यान करते करते स्वयं भँवरा (भवेद) बन जाता है। 

'आत्मबोध' का शाब्दिक अर्थ है, 'स्वयं को जानना'। आत्मबोध कोई ज्ञान नहीं बल्कि एक अवस्था है जिसमे यह बोध हो जाता है कि मैं क्या हूँ , संसार क्या है । प्राचीन भारत की शिक्षा में इसका बहुत बड़ा प्रभाव था। 

 यह तथ्य कि - 'मैं यह मन (उपाधि) नहीं हूँ', -- तब ज्ञात होता है जब व्यक्ति आत्म-ज्ञान प्राप्त कर लेता है।  लेकिन अपेक्षाकृत परिष्कृत और सुस्थिर मन प्राप्त करने के लिए निरंतर निदिध्यासन (विवेक-दर्शन)  की आवश्यकता होती है। अपने को इन्द्रिय विषयों से विरत करने का सर्वोत्कृष्ट साधन यही है कि मन को सदैव "विवेकदर्शन " में निरत रखा जाय। यह समझ लेना  कि, "  मैं मन नहीं हूँ ', एक बात है। (मैं नित्य-परिवर्तनशील, उपाधि या दृश्य नहीं हूँ , मैं इसका द्रष्टा हूँ; यह समझ लेना एक बात है।)  किन्तु  मन (अहं) का भी परित्याग कर देना (disowning the mind) तथा अपने वास्तविक स्वरूप (सच्चिदानन्द स्वरूप) में स्थित रहना एक और बात है।

 अमृतबिन्दु उपनिषद् में (२) कहा भी गया है –

मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः। 

बन्धाय विषयासंगो मुक्त्यै निर्विषयं मनः।।

“मन ही मनुष्य के बन्धन और मोक्ष का भी कारण है।  इन्द्रियविषयों में लीन मन बन्धन का कारण है और विषयों से विरक्त मन मोक्ष का कारण है। ” अतः जो मन निरन्तर विवेकदर्शन में लगा रहता है, वही परम मुक्ति का कारण है। 

 The fact that - 'I am not this mind ', is known when one attains Self-Knowledge, but getting a relatively refined and composed mind requires a lot of thinking (nidhidhyaasanam- निध्यासनं). Understanding that I am not the mind is one thing and disowning the mind and owning up to one’s real nature is another. 

 (Place of good things . . . If an egg is broken by an outside force, a life ends. If it breaks from within, a life begins. Great things always begin from within.}

उपरोक्त तीनों श्लोक  में, शंकराचार्य उसी प्राचीन भारतीय गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा के " Be and Make " के  सटीक प्रक्रिया (exact process) का वर्णन करते हैं,  जिसके द्वारा कोई व्यक्ति, जिसने आत्म-ज्ञान प्राप्त कर लिया है, वह अपने अवचेतन मन में इसे कैसे आत्मसात करे , ताकि वह अपने ज्ञान से परीक्षण के समय भी व्यावहारिक लाभ प्राप्त कर सके। यहाँ 'Be and Make ' के सटीक प्रक्रिया (exact process) की व्याख्या करने के लिए, वे भ्रमर और कीड़े का उदाहरण देते हैं । 

लेकिन जीवन-गठन की प्रथम साधना में निराकार ब्रह्म का ध्यान करने के अपेक्षा चरित्र के 24 गुणों से सम्पन्न किसी महापुरुष या देवी-देवता की साकार मूर्ति या चित्र पर मन को एकाग्र करने का अभ्यास करना अधिक सरल होता है। क्योंकि सामान्य मनुष्य भी साकार उपासना (मूर्तिपूजा) को आसानी से समझ सकते हैं।

जीवन को सूंदर रूप से गठित करने के लिए पहले मन का शुद्धि-करण अत्यन्त आवश्यक है। ऐसा निर्मल और शुद्ध मन किस प्रकार बनायेंगे? उसके लिए मन के रंग को बदलना पडेगा, मन जहाँ से आया है वहाँ यानी भगवान में जोड देने से, उसका रंग बदल जाएगा। हमारे पूर्वज ऋषियों ने, आचार्यों ने इस प्रकार जीवन-विकास के लिए मन का शुद्धिकरण, या मन का रंग बदलने के लिए मूर्तिपूजा (अर्थात विवेकदर्शन का अभ्यास) की आवश्यकता भ्रमर- कीट न्याय (bhramara keeTa nyaaya.) के सिद्धान्त के अनुसार समझायी है। 

तुलसी दास जी ने भी कहा हैं - "भई गति कीट भृंग की नाई , जंह देखो तंह रघुराई ।" मारीच का कहना है कि मेरी  दशा तो भृंगी के कीड़े की सी हो गई है। अब मैं जहाँ-तहाँ श्री राम-लक्ष्मण दोनों भाइयों को ही देखता हूँ। और हे तात! यदि वे मनुष्य हैं, तो भी बड़े शूरवीर हैं। उनसे विरोध करने में पूरा न पड़ेगा (सफलता नहीं मिलेगी)॥4॥ मारीच कहता है कि उसकी गति तो राम लक्ष्मण को देखते ही भृंग के सामने कीट सी हो जाती है -वह बेबस और लाचार है।  उसे ताड़का वध के समय राम के उस बाण की याद आती है जिसने उसे सौ योजन दूर जा पटका था ।     

दत्तात्रेय ने भी इस कीट से यह सीखा है कि अच्छी हो या बुरी हो हम जहां जैसी सोच में अपना मन लगाएंगे मन वैसा हीं हो जाता है । 

 मनोविज्ञान कहता है - कि मन ग्रहणशील ( Receptive ) है। मन जिसमें लगता है वैसा ही होता है। वेदान्त के कीट-भ्रमर न्याय के अनुसार भी मनुष्य का मन जिसका चिंतन करता है, उसके समान ही हो जाता है ।

“उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।

                  आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।। गीता ६.५।। 

-- मनुष्य को चाहिए कि अपने मन की सहायता से अपना उद्धार करे और अपने को नीचे न गिरने दे।  यह मन बद्धजीव का मित्र भी है और शत्रु भी। अतः मनुष्य को इन्द्रियविषयों से आकृष्ट होकर अपने को पतित नहीं करना चाहिए। 

 मीरा बाई ने स्नेह से अपने मन को श्री कृष्ण में लगाया और विष का प्याला भी अमृत बन गया , तथा वे उन्हीं में समा गई। रावण ने सदैव द्वेष पूर्वक प्रभु श्री राम को याद करता रहा, इससे उसका मन सदैव राम में लगा रहा, परिणाम हमारे सामने है। मृत्यु के बाद उनको परमात्मा का धाम ही मिला।

     कहने का अर्थ है कि सबसे अधिक महत्वपूर्ण है, एकाग्रचित्त होकर परमात्मा का स्मरण करना और सबसे अच्छा है, प्रेम पूर्वक परमात्मा (सच्चिदानन्द स्वरुप गुरु विवेकदर्शन का अभ्यास ) या अपने जीवनमुक्त शिक्षक/नेता (C-IN-C) 'नवनीदा' द्वारा सुनाई एक श्लोक का स्मरण : 

वृतं यत्नेन संरक्षेद् वित्तमेति च याति च।

अक्षीणो वित्ततः क्षीणो वृत्ततस्तु हतो हतः।।

अर्थात्  मनुष्य के जीवन में धन तो आता और जाता रहता है,परन्तु चरित्र के साथ ऐसा नहीं होता अर्थात् चरित्र बार - बार आने और जाने वाली कोई वस्तु नहीं है। धन के क्षीण हो जाने पर मनुष्य का केवल धन जाता है इसके अलावा उसे कोई अन्य हानि नहीं होती; पर यदि किसी कुकृत्य से उसका चरित्र नष्ट हो गया तो वह व्यक्ति पूरी तरह से नष्ट हो जाता है। 

संदेश :हमें भली प्रकार से सभी ओर से अपने चरित्र की रक्षा करनी चाहिए, ऐसा करने से हमारे अंदर सात्विक भावना का विकास होगा, और यदि सभी लोग ऐसा करते हैं तो निश्चित ही सभ्य और सुंदर समाज का निर्माण होगा। इस श्लोक के द्वारा चरित्र की महत्ता को विधिवत समझाया गया है।  

पुस्तकस्था तु या विद्या, परहस्तगतं च धनम्। 

कार्यकाले समुत्तपन्ने न सा विद्या न तद् धनम्।। 

अर्थात :-  अर्थात पुस्तक में रखी विद्या तथा दूसरे के हाथ में गया धन—ये दोनों ही ज़रूरत के समय हमारे किसी भी काम नहीं आया करते।

 दूरतः शोभते  मूर्खो लम्बशाटपटावृतः।

तावच्च शोभते मूर्खो यावत्किञ्चिन्न भाषते ।।

अर्थात:- एक मूर्ख व्यक्ति महँगे वस्त्र पहनकर दूर से ज्ञानवान प्रतीत होता है, परन्तु जब किसी विषय पर वह अपना मुँह खोलता है तो उसकी अज्ञानता प्रकट हो जाती है । 

स्वामी विवेकानन्द ने कहा था , " बाहरी गुरु केवल रास्ता (श्रवण-मनन का तरीका) बतला देते हैं, किन्तु तुम्हें स्वयं ही विकसित होना होता है। इसीलिए ठाकुर देव कहते थे - मेरा वीर भाव नहीं, सन्तान भाव है ! 

Place of good things . . . If an egg is broken by an outside force, a life ends. If it breaks from within, a life begins. Great things always begin from within.

     (The man who is attached to the Real becomes Real, through his one-pointed devotion. Just as the cockroach thinking intently on the Bhramara is transformed into a Bhramara.)

(साभार - http://knramesh.blogspot.com/2020/04/)

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साहचर्य का सिद्धान्त (Law of Association)  के अनुसार  वेदांत में ' Y ' के द्वारा ' X ' के निरंतर चिंतन करने (श्रवण -मनन ) का सिद्धान्त को ही आधुनिक मनोविज्ञान की भाषा में स्व-सम्मोहन (Autosuggestion) कहा जाता है। 

{उसी प्रकार  गुरु (विवेकानन्द = भ्रमर ) का मानसिक सुमिरण करने से ( विवेक-दर्शन का अभ्यास करने, या  विवेकानन्द की छवि पर मन को एकाग्र करने से ) वे अपने शिष्य (कैप्टन सेवियर) को अपने समान ईश्वर -प्राप्ति (अवतार वरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्ण की प्राप्ति) के मार्ग पर ले जाते हैं।  और एक दिन (कैप्टन सेवियर का विवेक-श्रोत उद्घाटित हो जाने के बाद)  उनको अपने समान (CINC नवनीदा) बना लेते हैं। इसलिए सद्गुरु स्वामी विवेकानन्द को कोटि-कोटि प्रणाम है। }

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