श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर
(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली )
(16)
" यथार्थ साधक के लक्षण "
148 यथार्थ भगत चकमक सम , बुझे न पाइ कुसंग।
240 सुनतहि गदगद होहि अति , हरि गुण नाम प्रसंग।।
चकमक पत्थर अगर सैकड़ों साल पानी में पड़ा रहे फिर भी उसके भीतर की अग्नि नष्ट नहीं होती। पानी के बाहर निकाल कर उस पर लोहे से चोट मारते ही उसमें से चिनगारियाँ निकलने लगती हैं। यथार्थ विश्वासी भक्त भी इसी तरह का होता है। हजारों अपवित्र विषयी लोगों से घिरा रहने पर भी उसके विश्वास या भक्ति की तनिक भी हानि नहीं होती। भगवान का नाम , भगवत्प्रसङ्ग सुनते ही वह प्रेम में मत्त हो उठता है।
149 जिमि चख चीनी स्वाद नर , करत न गुड़ उपभोग।
243 तिमि चख ब्रह्मानन्द रस , चखहि न विषयन भोग।।
विषयसुखों के प्रति आसक्ति कब नष्ट होती है ? जब मनुष्य समस्त सुखों की समष्टिस्वरुप, अखण्ड सच्चिदानन्द को प्राप्त कर लेता है , तब। जो उस आनन्दस्वरूप का उपभोग कर लेते हैं , उन्हें संसार के तुच्छ विषयसुखों में आसक्ति का त्याग करना नहीं पड़ता , वह आसक्ति (=मूर्खता, सम्मोहित अवस्था , भेंड़त्व की अवस्था) स्वतः चली जाती है। जिसने एक बार ताल मिश्री का स्वाद चखा है, उसे क्या सस्ते गुड़ का स्वाद अच्छा लगेगा? जो एक बार ऊँची अटारी में सो चुका है , क्या उसे गन्दी झोपडी में सोना अच्छा लगेगा? इसी तरह जिसने एक बार ब्रह्मानन्द का स्वाद चख लिया है , वह क्या कभी तुच्छ विषयानन्द में रमा हुआ रह सकता है?
भीतर से विकसित होकर मनुष्यत्व प्राप्त करें ---जब किसी अण्डे को बाहरी बल से तोड़ा जाता है , तो एक जीवन समाप्त हो जाता है। और यदि अण्डा भीतर से विकसित होकर टूट जाये , तब एक नया जीवन प्रारम्भ होता है ! महान मनुष्य (विद्वान्-ब्रह्मविद) का विकास सदैव भीतर से ही प्रारम्भ होता है।
150 बालू चीनी मेल सम , गुण अवगुण जग माहि।
247 संत हंस बिलगाइ तेहि , गुण निज शिस चढ़ाहि।।
अगर शक्कर और बालू मिली हुई हो तो चींटी उसमें से बालू को छोड़कर शक्कर ही ग्रहण करती है। इसी तरह परमहंस और सत्पुरुष गण अच्छे -बुरे के मिश्रण में से अच्छे को ही ग्रहण करते हैं। [ अब प्रश्न होगा कि अच्छा किसे कहेंगे ? इस समझ को 'श्रवण-मनन-निदिध्यासन ' से, श्रेय-प्रेय विवेक , शाश्वत-नश्वर विवेक, सत -असत विवेक ...आदि द्वारा बढ़ाया जा सकता है।]
151 साधन नदी मँह भँवर सम , संशय दुःख निराश।
248 सत साधक अटके नहिं , बढ़त तोड़ सब पाश।।
प्रवाह का जल वेग से बहता हुआ किसी किसी स्थान पर थोड़ी देर भंवर में घूमने लगता है, परन्तु फिर शीघ्र ही वह सीधी गति में वेग के साथ बह निकलता है। पवित्रहृदय , धार्मिक , व्यक्तियों का मन भी कभी- कभी दुःख-निराशा , अविश्वास आदि के भँवर में पड़ जाता है , पर वह अधिक देर तक उसमें अटका नहीं रहता , शीघ्र ही उससे छूटकर आगे निकल जाता है।
152 खुजलावत जस दाद को , पुनः पुनः खुजलाहिं।
250 भजत भजत तस नाम-गुण, भगत कबहुँ न अघाहिं।।
दाद को जितना खुजाओ उतनी ही और खुजाने की इच्छा होती है ; और उतना ज्यादा आराम मिलता है। इसी तरह भक्त भी भगवान का गुणगान करते नहीं अघाते।
153 सुनत नाम अश्रु झरे , रोम रोम पुलकाहिं।
251 जानहु तिन्हके अंत जनम , पुनि जग महँ नहि आहिं।
एक बार भगवान का नाम सुनते ही जिसके शरीर में रोमांच उत्पन्न होता है , और आँखों से प्रेमाश्रु की धार बहने लग जाती है , उसका यह निश्चित ही आखरी जन्म है।
154 लख मोहर उजड़े घर में , उपजे न लालच भाव।
253 यथार्थ धार्मिक का यह , होत न कबहु स्वभाव।
155 लोक दिखावा लोक भय , धरे धरम के पाँव।
253 यथार्थ धार्मिक का यह, होत न कबहु स्वभाव।।
जो व्यक्ति सब की दृष्टि से दूर एकान्त में भी - " भगवान देख रहे हैं " इस भय से कोई अधर्म-आचरण नहीं करता , वही यथार्थ धार्मिक है। निर्जन वन में सुन्दर नवयुवती को अकेली देखकर भी जो धर्म के भय से भीत होकर उस पर कुदृष्टि नहीं डालता , वही यथार्थ धार्मिक है। जो वीरान में , किसी उजाड़ घर में मुहरों से भरी थैली देखकर भी उसे उठाने के मोह को रोक सकता है , वही ठीक ठीक धार्मिक है। जो केवल दिखावे भर के लिए या ' लोग क्या कहेंगे ? ' इस भय से सिर्फ लोगों के सामने धर्म का अनुष्ठान करता है , उसे ठीक ठीक धार्मिक नहीं कहा जा सकता। निर्जन नीरव में अनुष्ठित होने वाला धर्म ही यथार्थ धर्म है , भीड़-भाड़ या और कोलाहल में अनुष्ठित होने वाला धर्म, धर्म नहीं हैं।
[ ईश्वर सर्वत्र व्याप्त है और इस संसार में कुछ भी ऐसा नहीं है जो उसकी निगाह से दूर हो। वह सभी को देख रहा है। उससे छिपाकर कोई काम नहीं किया जा सकता।]
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