मंगलवार, 27 जून 2023

🙏महामण्डल का आदर्श, उद्देश्य और कार्यक्रम !


 धरती पर सत्ययुग लाने की समरनीति है -' चरैवेती,चरैवेति'!  
संक्षिप्त परिचय : परम राष्ट्रभक्त स्वामी विवेकानन्द ने १२ वर्षों के अपने दुःसाध्य परिव्राजक जीवन में,कश्मीर से कन्याकुमारी तक भ्रमण करते हुए तबके "अखण्ड भारत" को अत्यन्त करीब से देखा था। तथा उन्हों ने ह्रदय से यह अनुभव किया था, कि देवताओं और ऋषियों कि करोड़ो संतानें आज पशुतुल्य जीवन जीने को बाध्य हैं! यहाँ लाखों लोग भूख से मर जाते हैं और शताब्दियों से मरते आ रहे हैं। अज्ञान के काले बादल ने पूरे भारतवर्ष को ढांक लिया है। उन्होंने अनुभव किया था कि मेरे ही रक्त-मांसमय देह स्वरूप मेरे देशवासी दिन पर दिन अज्ञान के अंधकार में डूबते चले जा रहे हैं ! 
यथार्थ शिक्षा के आभाव ने इन्हें शारीरिक,मानसिक और आध्यात्मिक रूप से दुर्बल बना दिया है। सम्पूर्ण भारतवर्ष एक ओर "घोर- भौतिकवाद" तो दूसरी ओर इसीके प्रतिक्रियास्वरूप उत्पन्न "घोर-रूढिवाद" जैसे दो विपरीत ध्रुवों पर केंद्रित हो गया है। भारत कि इस दुर्दशा ने उन्हें विह्वल कर दिया। इस असीम वेदना ने उनके ह्रदय में करुणा का संचार किया उन्होंने इसकी अवनति के मूल कारण को ढूंढ़ निकला: वह कारण था -'आत्मश्रद्धा का विस्मरण'। 

आवश्यकता सच्चे अर्थों में महान मनुष्यों की है। इसीलीये उन्हों ने सिंहनाद किया था- " मनुष्य, केवल मनुष्य भर चाहिये !" शेष सबकुछ अपने आप ठीक हो जायगा। आवश्यकता है, ' वीर्यवान, तेजस्वी, श्रद्धासम्पन्न, दृढ़-विश्वासी, निष्कपट - नवयुवकों की।'आवश्यकता है- ' चरित्र ' की और ' इच्छा शक्ति ' को सबल बनाने की।
स्वामी विवेकानन्द का यह मानना था कि भारत का कल्याण करने के लिये सर्वप्रथम युवाओं और तरुणों को मनुष्य के तीन मौलिक अंग (components 3-H's ) को उन्नत बनाने का प्रशिक्षण देना आवश्यक है। अर्थात उन्हें अपनी शारीरिक शक्ति, मानसिक शक्ति तथा आत्मिक शक्ति को विकसित करने की शिक्षा-पद्धति से परिचित करवाना होगा। जिसे वे क्रमशः हाथ (Hand), मस्तिष्क (Head) और ह्रदय (Heart) के विकास की शिक्षा-पद्धति कहते थे। अतः महामण्डल का मुख्य कार्य प्रत्येक युवा में अंतर्निहित इन '3H' की शक्तियों को जाग्रत कर उन्हें अभिव्यक्त करने की शिक्षापद्धति को भारत के गाँव-गाँव तक फैला देना है। विशेषतः युवा वर्ग में स्वामी विवेकानंद के मनुष्य निर्माणकारी तथा चरित्र निर्माण के आदर्शों में सन्निहित मूल्यों का प्रचार-प्रसार  करना महामण्डल का लक्ष्य है । 
स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रदत्त भारत का पुनर्निमाण-मन्त्र है : "Be and Make !  अर्थात तुम स्वयं 
' मनुष्य बनो और दूसरों को भी मनुष्य बनने' में सहायता करो ! स्वयं मनुष्य बनने, तथा दूसरों को मनुष्य बनाने या चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया- को सम्पूर्ण भारतवर्ष में साथ-साथ फैला देना होगा।ताकि देश में एक बेहतर व्यवस्था (भ्रष्टाचार रहित व्यवस्था ) कायम हो सके।
स्वामी विवेकानन्द के नाम से जुड़े समस्त युवा-संगठनों के 'सम्मिलित प्रयास' के द्वारा युवकों को  भारत निर्माण सूत्र -'BE AND MAKE' के प्रति सजग कर, उनमें स्वयं के प्रति ' श्रद्धा- भाव ' को जाग्रत करना तथा 'आत्म-अनुशासन' की भावना एवं 'सामाजिक दायित्व' के निर्वहन की चेतना को प्रतिष्ठित करना महामण्डल का आदर्श है। 
अतः महामण्डल के समस्त कार्यक्रम युवाओं और तरुणों के इन तीनो शक्तियों ( बाहू-बल, बुद्धि-बल और आत्म-बल ) की समुचित ' उन्नति एवं अभिव्यक्ति' को ध्यान में रखते हुए संचालित किये जाते हैं।  
महामण्डल युवाओं और तरुणों में इन तीनों, शारीरिक-मानसिक और आत्मिक शक्तियों के समुचित विकास के लिए "युवा पाठ-चक्र" (Youth Study Circle) तथा "युवा प्रशिक्षण शिविर" (Youth Training Camp) आदि विभिन्न कार्यक्रमों का संचालन करता है। महामण्डल द्वारा आयोजित  (१,२,३,६ दिवसीय) प्रत्येक युवा प्रशिक्षण-शिविर का लक्ष्य होता है, " युवा वर्ग में राष्ट्र-निर्माण के लिए  'निःस्वार्थ-सेवा' की भावना को जाग्रत करा कर युवाशक्ति  का अनुशासित सदुपयोग करना।" 
स्वामी विवेकानन्द जी के ऐसे ही विचारों से प्रेरणा लेकर, २५ अक्टूबर १९६७ ई० में 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामंडल' की स्थापना कलकत्ते में हुई। आज देश के बारह राज्यों में इसकी तीन सौ से भी अधिक शाखाएं हैं। इसके सदस्यों को न तो गृह त्याग करना है,न अपना अध्यन ही छोड़ना है, और न अपने दैनंदिन जीवन के अन्य दायित्वों का ही त्याग करना है। उन्हें केवल अपनी अतिरिक्त शक्ति,समय और यदि सम्भव हो सके तो कुछ धन देना है। महामण्डल में धर्म, जाती, संप्रदाय आदि के आधार पर, मनुष्यों में कोई भेद-भाव नहीं किया जाता है
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " मनुष्य- निर्माण ही मेरे जीवन का व्रत है, ...ज्यों ज्यों मेरी उम्र बढ़ती जा रही है, मुझे यह स्पष्ट होता जा रहा है कि- सबकुछ 'पौरुष'में अर्थात प्रयत्न करने में ही अन्तर्निहित है ! यही मेरा नया धर्म-सिद्धान्त (सुसमाचार) है! "  एवं स्वामीजी के सपनों का नया भारत गढ़ना महामण्डल का व्रत है।"
अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल की आस्था:-  
* "कोई भी राष्ट्र इसलिए महान या अच्छा नहीं होता कि उसकी पार्लियामेन्ट ने ' यह ' या ' वह ' (लोक-पाल बिल आदि ) बिल पास कर दिया है, बल्कि वह इसलिए महान या अच्छा होता कि उस राष्ट्र के नागरिक महान और अच्छे (अर्थात चरित्रवान ) हैं।"
* "संसार चाहता है चरित्र ! संसार को आज ऐसे लोगों कि आवश्यकता है जिनके ह्रदय में निःस्वार्थ प्रेम प्रज्ज्वलित हो रहा हो; उस प्रेम से निसृत प्रत्येक शब्द का प्रभाव बज्रवत पड़ेगा ! "
* सर्वोत्तम शक्ति, युवा शक्ति है- आज के युवा ही हमारे लिए कल की आशायें हैं। इस शक्ति का सदुपयोग करने के लिए सर्वोत्तम कार्य युवा वर्ग के बीच कार्य करना है। 
*सफलता का सम्पूर्ण रहस्य "संगठन" में है, शक्ति संचय में है और इच्छाशक्ति के समन्वय में है। इसी लिए संघ बद्ध हो कर आगे बढो! सम्पूर्ण मानव-जाति में एकत्व की भावना को स्थापित करने वाला 'संघ-मंत्र' इस प्रकार है :-

संगच्ध्वं संग्वदध्वं संग वो मनांसि जानताम् ।
देवा   भागं यथा   पूर्वे   संजानाना उपासते ।।

समानो मन्त्रः समितिः समानी ।
समानं मनः सः चित्त्मेषाम ।।

समानं मन्त्रः अभिम्न्त्रये वः ।
समानेन वो हविषा जुहोमि ।।

समानी व् आकुतिः समाना हृदयानि वः ।
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति ।। 
                                                             
                       (ऋग्वेद :१०/१९१/२-४ )

हिन्दी भाव

एक पथ में चलेंगे ,एक बात बोलेंगे
 हम सबके मन को एक भाव से गढ़ेंगे ।।

देव गण जैसे बाँट हवि लेते हैं |
 हम सब सब कुछ बाँट कर ही लेंगे ।। 

याचना हमारी हो एक अंतःकरण एक हो|
 हमारे विचार में सब जीव एक हैं!

एक्य विचार के मन्त्र को गा कर
देवगण तुम्हें हम आहुति प्रदान करेंगे ||

हमारे संकल्प समान, ह्रदय भी समान
भावनाओं को एक करके परम ऐक्य पायेंगे |  
एक पथ में चलेंगे, एक बात बोलेंगे....... 


 - अर्थात हम अपने सारे निर्णय एक मन हो कर ही करेंगे ,क्योंकि देवता लोग एक मन रहने के कारण ही असुरों पर विजय प्राप्त कर सके थे । अर्थात 'एक मन' बन जाना ही समाज-गठन का रहस्य है ......"
*सबसे महत्वपूर्ण वस्तु है - "उत्तम चरित्र" ! इसीलिए हमारा सर्वोच्च कर्तव्य है  - " अपने चरित्र का निर्माण" " अपना चरित्र-कमल पूर्णरूपेण खिलने दो "- उत्तम परिणाम अवश्य निकलेंगे।

*जब हमारे देश में सच्चे अर्थों में 'मनुष्य' ( चरित्रवान नागरिक ) तैयार हो जायेंगे, तो अपने देश से आकाल
-बाढ़ आदि दैवी विपत्तियों तथा सर्वोपरि ' भ्रष्टाचार ' को दूर करने में -कितना समय लगेगा ?

*हमलोग यदि भारत का सचमुच कल्याण करना चाहते हों, तो हमें " श्री रामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त परम्परा" में जीवन-गठन एवं चरित्र-निर्माण करने वाली "शिक्षा" को ( या महामण्डल द्वारा निर्देशित ५ अभ्यासों को) अपनाना ही पड़ेगा ! हम लोगों ने चाहे किसी भी जाति या धर्म में जन्म क्यों न लिया हो, प्रत्येक भारत-वासी को (अगड़ा-पिछड़ा, दलित-महादलित, चन्द्रवँशी (गुड्ड़ू) -यदुवंशी (कुंदन) , हिन्दू-मुसलमान-सिख-ईसाई-बौद्ध या जैन की भेद-बुद्धि से पहले) स्वयं ब्रह्मविद मनुष्य (चरित्रवान -मनुष्य, इंसान,मनोवैज्ञानिक) बनना होगा, और दूसरों को भी अपने यथार्थ स्वरूप को जानकर यथार्थ मनुष्य (ब्रह्मविद-मनुष्य) बनने में सहायता करनी होगी ! 
इन्हीं सब बातों को- महामण्डल के आदर्श,उद्देश्य और कार्यक्रम को, महामण्डल के प्रतीक-चिन्ह एवं ध्वज, संघ-मन्त्र, स्वदेश-मन्त्र तथा महामण्डल-जयघोष आदि के द्वारा बहुत सूक्ष्म रूप में व्यक्त किया गया है।   
  • महामण्डल का उद्देश्य: भारत का कल्याण ! ['एक भारत, श्रेष्ठ भारत का निर्माण', या हर दृष्टि से समृद्ध भारत का निर्माण। ]  
  • भारत कल्याण का उपाय: चरित्र-निर्माण !
  • महामण्डल के आदर्श: चिरयुवा  स्वामी विवेकानन्द !
  • महामण्डल का 'आदर्श-वाक्य' (Motto): " Be and Make -मनुष्य बनो और बनाओ !" 
  • महामण्डल  चरित्र-निर्माण आन्दोलन का अभियान मन्त्र : " चरैवेति चरैवेति" 
[ महामण्डल का अभियान मन्त्र, समरनीति-  "चरैवेति चरैवेति" ही धरती पर सत्ययुग लाने की योजना  है ! इसीलिये  जगतगुरु श्रीरामकृष्ण, स्वामी विवेकानन्द जैसे मानवजाति के मार्दर्शक नेता का अनुसरण, केवल उनकी स्तुति करने या आरती गाने से की जा सकती ! बल्कि ऐसे युग-नेताओं का अनुसरण अपने जीवन को भी उनके साँचे में ढालकर गढ़ने का अभ्यास करने से किया जा सकता है। १८९५ में अपने गुरुभाई शशि, (स्वामी रामकृष्णानन्द) को लिखित एक पत्र में स्वामी विवेकानन्द कहते हैं-" रामकृष्ण अवतार की जन्मतिथि से- 'सत्ययुग का आरम्भ हुआ है' - उनके इस कथन का तात्पर्य क्या है? [" From the date that the Ramakrishna Incarnation was born, has sprung the Satya-yuga (Golden Age)"  " রামকৃষ্ণবতারের জন্মদিন হইতেই সত্যযুগোত্পত্তি হইয়াছে "'रामकृष्णवतारेर जन्मदिन होइतेइ सत्ययुगोत्पत्ति होइयाछे।'जैसे ऐतरेय ब्राह्मण कहता है-
कलिः शयानो भवति, संजिहानस्तु द्वापरः ।
 उत्तिष्ठँस्त्रेताभवति, कृतं संपद्यते चरन् ।
चरैवेति चरैवेति॥
[http://vivek-jivan.blogspot.in/2016/04/new-youth-movement-20.html]
 उन मार्गदर्शक नेताओं का अनुसरण अपने हृदय की वक्रता सीधी करने  (या हृदय को 'वज्रादपि कठोराणि मृदुनि कुसुमादपि बनाने ) का सहज उपाय है महामण्डल के वार्षिक युवा-प्रशिक्षण शिविर ! महामण्डल में गुरु कोई व्यक्ति नहीं होता, यह 'संगठन' ही हमारा गुरु है,जो हमें श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा में " यथार्थ मनुष्य (ब्रह्मविद नेता) बनने और बनाने" " Be and Make" का प्रशिक्षण देता है। क्योंकि मानवजाति के नेता युगाचार्य श्रीरामकृष्ण एवम उनसे शिक्षा देने का चपरास प्राप्त नेता 'स्वामी विवेकानन्द' का अनुसरण ; महामण्डल द्वारा निर्देशित " विवेक-प्रयोग सहित  ५ अभ्यास को स्वयं करते हुए,अपने आस-पास रहने वाले ५ भाइयों की निःस्वार्थ सेवा -मनुष्य बनो और बनाओ!" का अभ्यास करने में सहायता देकर ही किया जा सकता है। ]  
महामण्डल की प्रमुख विशेषतायें:
* युवा लोग जहाँ कहीं भी एकसाथ एकत्र होते हैं ,महामण्डल वहीं पहुँच कर उनके साथ कार्य करता है। युवाओं के लिए तथा उनके मन पर कार्य करता है।उनमे आत्म-विश्वास जगाता है तथा अपने आप पर श्रद्धा करना सिखाता है। युवाओं को एक विधेयात्मक जीवन-दृष्टि और जीवन-लक्ष्य प्रदान करता है।
* महामण्डल सम्पूर्ण भारत के युवाओं को उन्हीं की भाषा में 'आत्म-विकास' और 'व्यक्तित्व-निर्माण' या ' चरित्र-गठन ' की व्यवहारिक पद्धति से  अवगत कराता है।
* वे युवा, जो स्वामी विवेकानन्द के नेतृत्व में विश्वास रखते हैं, मनुष्य-जाती के प्रति उनके अमर संदेशों में तथा राष्ट्र के नाम उनके आत्मझंकिर्त कर देने वाली उनकी पुकार में आस्था रखते हैं; महामण्डल वैसे युवाओं का आह्वान करता है-कि वे महामण्डल से जुड़ कर " मनुष्य-निर्माणऔर चरित्र-निर्माणकारी आन्दोलन " को भारत के गाँव-गाँव तक ले जा कर , भारत का पुनर्निमाण करने के महान उद्देश्य में जुट जाएँ।

* स्वामी विवेकानन्द कहते हैं-" मेरी आशा,मेरा विश्वास नविन पीढ़ी के नवयुवकों पर है। उन्हीं में से मैं अपने कार्यकर्ताओं का संग्रह करूँगा, वे सिंहविक्रम से देश कि यथार्थ उन्नति सम्बन्धी सारी समस्याओं का समाधान करेंगे।" .....वे एक केन्द्र से दुसरे केन्द्र का विस्तार करेंगे ,और इस प्रकार हम समग्र भारत में फ़ैल जायेंगे।

* " वत्स! मैं चाहता हूँ,'लोहे जैसी मांसपेशियाँ' और 'फौलाद के स्नायु' जिनके अन्दर ऐसे मन का वास हो जो ' वज्र ' के उपादानों (महर्षि दधिची के त्याग और सेवा की भावना) से गठित हो।...तुम्हारे अन्दर पूर्ण शक्ति निहित है ! तुम सब कुछ करने में समर्थ हो ! इस शक्ति को पहिचानो ! 

* मत समझो कि तुम निर्बल हो, तुम बिना किसी कि सहायता लिए सब कुछ करने में समर्थ हो ! सारी शक्ति तो तुम्हारे ही अन्दर विद्यमान है ! उठो ! और अपना अन्तस्थ ब्रह्मभाव अभिवयक्त करो !"
* स्वामी विवेकानन्द का महावाक्य - ' बनो और बनाओ !', " Be and Make " को चरित्र-निर्माण एवं मनुष्य-निर्माणकारी आन्दोलन का रूप देकर, सम्पूर्ण भारतवर्ष में फैला देने के लिये- " संघबद्ध हो कर आगे बढो!" 
महामण्डल का जय-घोष --
* महामण्डल केतन करो दुर्जय ; निवेदिता बज्र हो अक्षय !
* चरैवेति चरैवेति हुँकारों स्माकम, विवेकानन्द नेता नः विभीमः कस्माद वयं ? २ 
* मिलजुलकर एक साथ रहेंगे, और बढ़ेगी एकता ! उद्देश्य हमारा देश की सेवा !  विवेकानन्द हमारे नेता ! विवेकानन्द हमारे नेता ! विवेकानन्द हमारे नेता !!
**Sleep No More, Arise Awake, Call Swamiji Be and Make! 3
स्लीप नो मोर, एराईज अवेक, कॉल स्वामी जी बी ऐंड मेक ! ३ 
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सोमवार, 26 जून 2023

🔱🙏परिच्छेद~121 [ ( 31अगस्त, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-121] 🔱🙏जड़ भरत की कथा और पुनर्जन्म की प्रक्रिया

  *परिच्छेद- १२१*

*पूर्ण आदि भक्तों को उपदेश*

(१)

*पूर्ण, मास्टर,क्षीरोद, निताई आदि भक्तों के संग में*

श्रीरामकृष्ण अपने कमरे में विश्राम कर रहे हैं । रात के आठ बजे होंगे । सोमवार, श्रावण की कृष्णा षष्ठी है, ३१ अगस्त १८८५ । श्रीरामकृष्ण अस्वस्थ रहते हैं । गले की बीमारी का वही हाल है; परन्तु दिनरात भक्तों के लिए शुभ-कामना और ईश्वर-चिन्तन किया करते हैं । कभी कभी बालक की तरह विकल हो जाते हैं, परन्तु वह थोड़ी देर के लिए । उसी क्षण उनका वह भाव बदल जाता है और वे ईश्वर के आनन्द में मग्न हो जाते हैं । भक्तों के प्रति स्नेह और वात्सल्य के आवेश में पागल रहते हैं ।

(Monday, August 31, 1885) Sri Ramakrishna was resting in his room. It was about eight o'clock in the evening. Though ill and suffering, he constantly devoted himself to the welfare of the devotees. Sometimes he felt restless, like a child; but the next moment he forgot all about his illness and became filled with ecstatic love of God. His love for the devotees was like that of a mother for her children.

শ্রীরামকৃষ্ণ সেই পূর্বপরিচিত ঘরে বিশ্রাম করিতেছেন। রাত আটটা। সোমবার ১৬ই ভাদ্র, শ্রাবণ-কৃষ্ণা-ষষ্ঠী, ৩১শে অগস্ট ১৮৮৫।ঠাকুর অসুস্থ — গলায় অসুখের সূত্রপাত হইয়াছে। কিন্তু নিশিদিন এক চিন্তা, কিসে ভক্তদের মঙ্গল হয়। এক-একবার বালকের ন্যায় অসুখের জন্য কাতর। পরক্ষণেই সব ভুলিয়া গিয়া ঈশ্বরের প্রেমে মাতোয়ারা। আর ভক্তদের প্রতি স্নেহ ও বাৎসল্যে উন্মত্তপ্রায়।

दो दिन हुए - पिछले शनिवार की रात को - पूर्ण ने पत्र लिखा है, ‘मुझे खूब आनन्द मिल रहा है । कभी-कभी रात को मारे आनन्द के आँख नहीं लगती ।’

Two days earlier, on Saturday night, he had received a letter from Purna. Puma had written: "I am feeling extremely happy. Now and then I cannot sleep at night for joy."

দুইদিন হইল — গত শনিবার রাত্রে — শ্রীযুক্ত পূর্ণ পত্র লিখিয়াছেন — ‘আমার খুব আনন্দ হয়। মাঝে মাঝে রাত্রে আনন্দে ঘুম হয় না!’

श्रीरामकृष्ण ने पत्र सुनकर कहा – ‘सुनकर मुझे रोमांच हो रहा है । उसके आनन्द की वह अवस्था बाद में भी ज्यों की त्यों बनी रहेगी । अच्छा, देखूँ तो जरा पत्र ।’

After hearing the letter the Master had remarked: "I feel thrilled to hear this. Even later on he will be able to keep this bliss. Let me see the letter." 

ঠাকুর পত্রপাঠ শুনিয়া বলিয়াছিলেন, “আমার গায়ে রোমাঞ্চ হচ্ছে! ওই আনন্দের অবস্থা ওর পরে থেকে যাবে; দেখি চিঠিখানা।”

पत्र को हाथ में लेकर उसे मरोड़ते दबाते हुए कह रहे हैं – ‘दूसरे का पत्र मैं नहीं छू सकता, पर इसकी चिट्ठी बहुत अच्छी है ।’

He had pressed the letter in the palm of his hand and said: "Generally I cannot touch letters. But this is a good letter." 

পত্রখানি হাতে করে মুড়ে টিপে বলিতেছেন, “অন্যের চিঠি ছুঁতে পারি না; এর বেশ ভাল চিঠি।”

उसी रात को वे जरा सोये ही थे कि एकाएक देह से पसीना बह चला । पलंग से उठकर कहने लगे – ‘मुझे जान पड़ता है कि यह बीमारी अब अच्छी न होगी ।’

That same night, while the Master was in bed, he had suddenly become covered with perspiration. He had sat up in bed, saying, "It seems to me that I shall not recover from this illness."

সেই রাত্রে একটু শুইয়াছেন। হঠাৎ গায়ে ঘাম — শয্যা হইতে উঠিয়া বলিতেছেন, “আমার বোধ হচ্ছে, এ-অসুখ সারবে না।”

यह बात सुनकर भक्त सब चिन्ता में पड़ गये ।

 It had worried the devotees very much to hear this.

এই কথা শুনিয়া ভক্তেরা সকলেই চিন্তিত হইয়াছেন।

श्रीमाताजी श्रीरामकृष्ण की सेवा के लिए आयी हुई हैं और बहुत ही एकान्त में नौबतखाने में रहती हैं । वे नौबतखाने में रहती है, यह बात किसी भक्त को भी मालूम न थी । एक भक्त-स्त्री(गोलाप माँ) भी कई दिनों से नौबतखाने में रहती हैं । वे प्राय: श्रीरामकृष्ण के कमरे में आती और दर्शन कर जाया करती हैं ।

The Holy Mother had come to the temple garden to wait on Sri Ramakrishna and was living in a room in the nahabat. The devotees, with the exception of one or two, were not aware of her presence. A woman devotee staying with the Holy Mother had begun to pay frequent visits to Sri Ramakrishna in his room. 

শ্রীশ্রীমা ঠাকুরের সেবা করিবার জন্য আসিয়াছেন ও অতি নিভৃতে নবতে বাস করেন। নবতে তিনি যে আছেন, ভক্তেরা প্রায় কেহ জানিতেন না। একটি ভক্ত স্ত্রীলোক (গোলাপ মা)-ও কয়দিন নবতে আছেন। তিনি ঠাকুরের ঘরে প্রায় আসেন ও দর্শন করেন।

श्रीरामकृष्ण उनसे दूसरे दिन रविवार को कह रहे हैं, ‘तुम बहुत दिनों से यहाँ पर हो, लोग क्या समझेंगे ? बल्कि दस दिन घर में भी जाकर रहो ।’ मास्टर ने इन सब बातों को सुना ।

After a few days, Sri Ramakrishna said to her: "You have been here some time. What will people think about it? You had better go home for a week or so."

आज सोमवार है । श्रीरामकृष्ण अस्वस्थ हैं । रात के आठ बजे होंगे । श्रीरामकृष्ण छोटे तखत पर, पीछे की ओर फिरकर, दक्षिण की ओर सिरहाना करके लेटे हुए हैं । सन्ध्या के बाद मास्टर के साथ गंगाधर कलकत्ते से आये । वे उनके पैरों की ओर एक किनारे बैठे हैं । श्रीरामकृष्ण मास्टर से बातचीत कर रहे हैं ।

Sri Ramakrishna lav in bed, on his side, with his back to the room. After dusk, Gangadhar and M. arrived from Calcutta. Gangadhar sat at the feet of the Master, who was talking to M.

श्रीरामकृष्ण - दो लड़के आये हुए थे । एक तो शंकर घोष के नाती का लड़का है -सुबोध, और दूसरा उसी के टोले का एक लड़का क्षीरोद । दोनों बड़े अच्छे लड़के हैं । उनसे मैंने कहा, ‘मेरी तबीयत इस समय अच्छी नहीं ।’ फिर मैंने तुम्हारे पास आकर उपदेश लेने के लिए कहा । उन्हें जरा देखना ।

MASTER: "Two boys came here the other day. One of them was Subodh. He is Sankar Ghosh's great-grandson. The other, Kshirode, is his neighbor. They are nice boys. I told them I was ill and asked them to go to you for instruction. Please look after them a little."

শ্রীরামকৃষ্ণ — দুটি ছেলে এসেছিল। শঙ্কর ঘোষের নাতির ছেলে (সুবোধ) আর একটি তাদের পাড়ার ছেলে (ক্ষীরোদ)। বেশ ছেলে দুটি। তাদের বললাম, আমার এখন অসুখ, তোমার কাছে গিয়ে উপদেশ নিতে। তুমি একটু যত্ন করো।

मास्टर - जी हाँ, मेरे ही मुहल्ले में वे रहते हैं ।

M: "Yes, sir. They are our neighbors."

মাস্টার — আজ্ঞা, হাঁ, আমাদের পাড়ায় তাদের বাড়ি।

श्रीरामकृष्ण - उस दिन फिर देह से पसीना निकला और नींद उचट गयी । यह क्या बीमारी हो गयी ?

MASTER: "The other day, again, I woke up covered with perspiration. I don't understand this illness."

[ ( 31अगस्त, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-121]

*रोग का प्रारम्भ — भगवान डॉक्टर — निताई डॉक्टर *

[Onset of Disease — Bhagwan Doctor — Nitai Doctor ]

[অসুখের সূত্রপাত — ভগবান ডাক্তার — নিতাই ডাক্তার ]

मास्टर - जी, हम लोगों ने एक बार डा. भगवान रुद्र को दिखलाने का निश्चय किया है । वे एम. डी. ‘पास’ बड़े अच्छे डाक्टर हैं ।

M: "We have decided to ask Bhagavan Rudra to see you once. He is an M.D. and an expert physician."

মাস্টার — আজ্ঞা, আমরা একবার ভগবান রুদ্রকে দেখাব, ঠিক করেছি। এম. ডি. পাশ করা। খুব ভাল ডাক্তার।

श्रीरामकृष्ण - कितना लेगा ? मास्टर - उनकी नियमित फ़ीस बीस-पच्चीस रुपये होती हैं ।

MASTER: "How much will he charge?" M: "His regular fee is twenty or twenty-five rupees."

শ্রীরামকৃষ্ণ — কত নেবে? মাস্টার — অন্য জায়গা হলে কুড়ি-পঁচিশ টাকা নিত।

श्रीरामकृष्ण - तो रहने दो ।

MASTER: "Then don't bother about him."

শ্রীরামকৃষ্ণ — তবে থাক।

मास्टर - जी, हम लोग अधिक से अधिक चार या पाँच रुपये देंगे ।

M: "But we shall pay him four or five rupees at the most."

মাস্টার — আজ্ঞা, আমরা হদ্দ চার-পাঁচ টাকা দেব।

श्रीरामकृष्ण - अच्छा, इतने पर ठीक करके एक बार कहो, ‘कृपा कर उन्हें चलकर देखिये जरा ।’ यहाँ की बात क्या उसने कुछ सुनी नहीं ?

MASTER: "Listen. Suppose you say this to him, 'Sir, please be kind enough to come and see him.' Hasn't he heard anything about this place?" (Referring to himself.)

শ্রীরামকৃষ্ণ — আচ্ছা, এইরকম করে যদি একবার বলো, ‘দয়া করে তাঁকে দেখবেন চলুন।’ এখানকার কথা কিছু শুনে নাই?

मास्टर - शायद सुनी है । एक तरह से कुछ भी न लेने के लिए कहा है । परन्तु हम लोग देंगे, क्योंकि इस तरह वे फिर आयेंगे ।

M: "Perhaps he has. He has almost agreed not to charge any fee. But we shall pay him a little. If we do that, he will come again."

মাস্টার — বোধ হয় শুনেছে। একরকম কিছু নেবে না বলেছে তবে আমরা দেব; কেন না, তাহলে আবার আসবে।

श्रीरामकृष्ण - निताई डाक्टर को ले आओ तो और अच्छा है । दूसरे डाक्टर आकर करते ही क्या है ? घाव दबाकर और बढ़ा देते हैं ।

MASTER: "Ask Dr. Nitai to come. He is a good physician. But what will the doctors do, I wonder? They press my throat and make my illness worse."

শ্রীরামকৃষ্ণ — নিতাইকে (ডাক্তার) আনো তো সে বরং ভাল। আর ডাক্তাররা এসেই বা কি করছে? কেবল টিপে বাড়িয়ে দেয়।

रात के नौ बजे का समय है । श्रीरामकृष्ण सूजी की खीर खाने के लिए बैठे । खाने में कोई कष्ट नहीं हुआ । इसलिए हँसते हुए मास्टर से कह रहे हैं, “कुछ खाया गया, इससे मन को आनन्द है।”

It was nine o'clock in the evening. Sri Ramakrishna ate a little farina pudding and had no difficulty in swallowing it. He said to M. cheerfully: "I was able to eat a little. I feel very happy."

রাত নয়টা — ঠাকুর একটু সুজির পায়স খাইতে বসিলেন।খাইতে কোন কষ্ট হইল না। তাই আনন্দ করিতে করিতে মাস্টারকে বলিতেছেন, “একটু খেতে পারলাম, মনটায় বেশ আনন্দ হল।”

[ ( मंगलवार, 1 सितंबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-121

(२)

*जन्माष्टमी के दिन नरेंद्र, राम, गिरीश आदि भक्तों संग में*

आज जन्माष्टमी है, मंगलवार, १ सितम्बर १८८५

श्रीरामकृष्ण स्नान करेंगे । एक भक्त उनकी देह में तेल लगा रहे हैं । श्रीरामकृष्ण दक्षिण के बरामदे में बैठकर तेल लगवा रहे हैं । गंगास्नान करके मास्टर ने श्रीरामकृष्ण को आकर प्रणाम किया ।

Sri Ramakrishna was about to take his bath. A devotee was rubbing his body with oil on the verandah south of his room. M. came there after finishing his bath in the Ganges and saluted the Master.

আজ জন্মাষ্টমী, মঙ্গলবার। ১৭ই ভাদ্র; ১লা সেপ্টেম্বর, ১৮৮৫। ঠাকুর স্নান করিবেন। একটি ভক্ত তেল মাখাইয়া দিতেছেন। ঠাকুর দক্ষিণের বারান্দায় বসিয়া তেল মাখিতেছেন। মাস্টার গঙ্গাস্নান করিয়া আসিয়া ঠাকুরকে প্রণাম করিলেন।

स्नान करके एक अंगौछा पहनकर श्रीरामकृष्ण ने बरामदे से ही देवताओं को प्रणाम किया । शरीर अस्वस्थ रहने के कारण कालीमन्दिर या विष्णुमन्दिर में नहीं जा सके ।

After bathing, Sri Ramakrishna wrapped himself in a towel and with folded hands saluted the deities in the temples from afar. He could not go to the temples because of his illness.

স্নানান্তে ঠাকুর গামছা পরিয়া দক্ষিণাস্য হইয়া সেই বারান্দা হইতেই ঠাকুরদের উদ্দেশ করিয়া প্রণাম করিতেছেন। শরীর অসুস্থ বলিয়া কালীঘরে বা বিষ্ণুঘরে যাইতে পারিলেন না।

आज जन्माष्टमी है । राम आदि भक्त श्रीरामकृष्ण के लिए आज नया वस्त्र ले आये हैं । श्रीरामकृष्ण ने नया वस्त्र पहना - वृन्दावनी धोती, और ओढ़ने के लिए दुपट्टा । उनका शुद्ध पुण्य शरीर नये वस्त्रों से अपूर्व शोभा दे रहा है । वस्त्र पहनकर उन्होंने देवताओं को प्रणाम किया ।

It was the sacred Janmasthami day, the birthday of Krishna. Ram and other devotees had brought new clothes for Sri Ramakrishna. He put them on and looked charming. Again he saluted the deities.

আজ জন্মাষ্টমী — রামাদি ভক্তেরা ঠাকুরের জন্য নববস্ত্র আনিয়াছেন। ঠাকুর নববস্ত্র পরিধান করিয়াছেন — বৃন্দাবনী কাপড় ও গায়ে লাল চেলী। তাঁহার শুদ্ধ অপাপবিদ্ধ দেহ নববস্ত্রে শোভা পাইতে লাগিল। বস্ত্র পরিধান করিয়াই তিনি ঠাকুরদের প্রণাম করিলেন।

आज जन्माष्टमी है । गोपाल की माँ गोपाल (श्रीरामकृष्ण) को खिलाने के लिए कुछ भोजन कामारहाटी से लेकर आयी हैं । श्रीरामकृष्ण के पास दुःख प्रकट करते हुए वे कह रही हैं – ‘तुम तो खाओगे ही नहीं ।’

Gopal Ma brought her Gopala2 some food that she had prepared at her home at Kamarhati. She said to the Master sorrowfully, "But you won't eat any of it."

আজ জন্মাষ্টমী। গোপালের মা গোপালের জন্য কিছু খাবার করিয়া কামারহাটি হইতে আনিয়াছেন। তিনি আসিয়া ঠাকুরকে দুঃখ করিতে করিতে বলিতেছেন, “তুমি তো খাবে না।”

श्रीरामकृष्ण - यह देखो, मुझे यह बीमारी हो गयी है ।

MASTER: "You see, I am ill."

শ্রীরামকৃষ্ণ — এই দেখো, অসুখ হয়েছে।

गोपाल की माँ - मेरा दुर्भाग्य ! अच्छा, हाथ में थोड़ासा ले लो ।

GOPAL MA: "That is my bad luck. Please take a little in your hand."

গোপালের মা — আমার অদৃষ্ট! — একটু হাতে করো!

श्रीरामकृष्ण - तुम आशीर्वाद दो ।

MASTER: "Please give me your blessing."

শ্রীরামকৃষ্ণ — তুমি আশীর্বাদ করো।

गोपाल की माँ श्रीरामकृष्ण को ही गोपाल कहकर सेवा करती थीं ।भक्तगण मिश्री ले आये हैं । गोपाल की माँ कह रही है, ‘यह मिश्री मैं नौबतखाने में लिये जा रही हूँ ।’ श्रीरामकृष्ण ने कहा, ‘यहाँ भक्तों के लिए खर्च होती है, कौन सौ बार माँगता रहेगा । यहीं रहने दो ।’

A devotee brought some sugar candy. Gopal Ma said, "Let me take it to the Holy Mother in the nahabat." The Master said: "No, keep it here. I give sweets to the devotees. Who wants to send a messenger a hundred times to the nahabat for sugar candy? Let it be kept here."

গোপালের মা ঠাকুরকেই গোপাল বলিয়া সেবা করিতেন।ভক্তেরা মিছরি আনিয়াছেন। গোপালের মা বলিতেছেন, “এ মিছরি নবতে নিয়ে যাই।” শ্রীরামকৃষ্ণ বলিতেছেন, “এখানে ভক্তদের দিতে হয়। কে একশ বার চাইবে, এখানেই থাক।”

दिन के ग्यारह बजे का समय है । क्रमशः भक्तगण कलकते से आते जा रहे हैं । श्रीयुत बलराम, नरेन्द्र, छोटे नरेन्द्र, नवगोपाल, काटवा के एक वैष्णव भक्त, सब क्रमशः आ गये । आजकल राखाल और लाटू यहीं रहते हैं । एक पंजाबी साधु कुछ दिनों से पंचवटी में टिके हुए हैं ।

It was eleven o'clock in the morning. The devotees were gradually arriving from Calcutta. Balaram, Narendra, the younger Naren, Navagopal, and a Vaishnava from Katoa arrived. Rakhal and Latu were staying with Sri Ramakrishna. A Punjabi sadhu had been staying in the Panchavati for some days.

বেলা এগারটা। কলিকাতা হইতে ভক্তেরা ক্রমে ক্রমে আসিতেছেন। শ্রীযুক্ত বলরাম, নরেন্দ্র, ছোট নরেন, নবগোপাল, কাটোয়া হইতে একটি বৈষ্ণব, ক্রমে ক্রমে আসিয়া জুটিলেন। রাখাল, লাটু আজকাল থাকেন। একটি পাঞ্জাবী সাধু পঞ্চবটীতে কয়দিন রহিয়াছেন।

छोटे नरेन्द्र के मत्थे में एक उभरी हुई गुल्थी है । श्रीरामकृष्ण पंचवटी में टहलते हुए कह रहे हैं, ‘तू इस गुल्थी को कटा क्यों नहीं डालता ? वह गले में तो है ही नहीं - सिर पर ही है । इससे कष्ट क्या हो सकता है ? - लोग तो बढ़ा हुआ अण्डकोश तक कटा डालते हैं ।' (हास्य)

The younger Naren had a tumour on his forehead. Sri Ramakrishna was strolling in the Panchavati with the devotees. He said to the younger Naren: "Why don't you have your tumour operated on? It is not in the throat but only on the forehead. That is a simple thing. People have their orchitis operated on."

ছোট নরেনের কপালে একটি আব আছে। ঠাকুর পঞ্চবটীতে বেড়াইতে বেড়াইতে বলিতেছেন, ‘তুই আবটা কাট না, ও তো গলায় নয় — মাথায়। ওতে আর কি হবে — লোকে একশিরা-কাটাচ্ছে।” (হাস্য)

पंजाबी साधु बगीचे के रास्ते से जा रहे हैं । श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं – ‘मैं उसे नहीं खींचता । उसका भाव ज्ञानी का है । देखता हूँ, जैसे सूखी लकड़ी ।’

The Punjabi sadhu was going along the foot-path in the garden. The Master said: "I don't attract him. He has the attitude of a jnani. I find him to be dry as wood."

পাঞ্জাবী সাধুটি উদ্যানের পথ দিয়া যাইতেছেন। ঠাকুর বলিতেছেন, “আমি ওকে টানি না। জ্ঞানীর ভাব। দেখি যেন শুকনো কাঠ!”

श्री रामकृष्ण और भक्त कमरे में लौट आए। बातचीत श्यामपद भट्टाचार्य की ओर मुड़ी।

बलराम - उन्होंने कहा है, ‘नरेन्द्र की छाती पर पैर रखने से नरेन्द्र को जैसा भावावेश हुआ था, वैसा मेरे लिए तो नहीं हुआ ।’

BALARAM: "Shyamapada said, 'When he, the Master, placed his foot on Narendra's chest, Narendra went into bhava; but I didn't have that experience.'"

বলরাম — তিনি বলেছেন যে, নরেন্দ্রের যেমন বুকে পা দিলে (ভাবাবেশ) হয়েছিলো, কই আমার তো তা হয় নাই।

श्रीरामकृष्ण - बात यह कि कामिनी और कांचन में मन के रहने पर विक्षिप्त मन को एकत्र करना बड़ा कठिन हो जाता है । उसने कहा है, उसे ‘सालिसिटर’-पन (वकालत) करनी पड़ती है और घर के बच्चों के लिए भी चिन्ता करनी पड़ती है । नरेन्द्र आदि का मन विक्षिप्त थोड़े ही है ! - उनमें अभी कामिनी और कांचन का प्रवेश नहीं हो पाया ।

MASTER: "Shall I tell you the truth about it? It is very difficult to gather the dispersed mind when it is attached to 'woman and gold'. The pundit told me he was called upon to act as arbiter to settle people's quarrels. Besides, he has to worry about his children. But the minds of Narendra and other youngsters are not scattered like that; they are not yet touched by 'woman and gold'.

শ্রীরামকৃষ্ণ — কি জানো, কামিনী-কাঞ্চনে মন থাকলে ছড়ান মন কুড়ান দায়। ওর সালিসী করতে হয়, বলছে। আবার বাড়ির ছেলেদের বিষয় ভাবতে হয়। নরেন্দ্রাদির মন তো ছড়ানো নয় — ওদের ভিতে এখনো কামিনী-কাঞ্চন ঢোকে নাই।

“परन्तु वह (श्यामपद) है बड़ा चोखा आदमी ।”

"But Shyamapada is a grand person."

“কিন্তু (শ্যামাপদ) খুব লোক!”

[ (मंगलवार, 1 सितंबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-121]

🔱🙏जड़ भरत की कथा और पुनर्जन्म की प्रक्रिया🔱🙏 

[Khapar of Janmantar — Man is born for devotion]

[জন্মান্তরের খপর — ভক্তিলাভের জন্যই মানুষজন্ম ]

[>>>मनुष्य जीवन का उद्देश्य :> देवयान - पितृयान गमन के बाद मनुष्य योनि में पुनर्जन्म की प्रक्रिया केवल उस युग के अवतार वरिष्ठ भक्ति-लाभ के लिए ही होता है। (गुरु,नेता या पैगम्बर C-IN-C ) को पहचानकर गुरुमुख से वर्तमान युग के अवतार वरिष्ठ नाम के में नाम भक्ति-लाभ के लिए ही मिला है !] 

काटवा के वैष्णव श्रीरामकृष्ण से प्रश्न कर रहे हैं । वैष्णवजी कुछ कंजे (squint-eyed) हैं ।

The Vaishnava from Katwa began to ask Sri Ramakrishna questions. He was squint-eyed.

কাটোয়ার বৈষ্ণব ঠাকুরকে প্রশ্ন করিতেছেন। বৈষ্ণবটি একটু ট্যারা।

वैष्णव - महाराज, क्या पुनर्जन्म होता है ?

VAISHNAVA: "Sir, is a man born again?"

বৈষ্ণব — মশায়, আবার জন্ম কি হয়?

श्रीरामकृष्ण - गीता में है, मृत्यु *के समय जिस चिन्ता को लेकर मनुष्य देह छोड़ता है, उसी को लेकर वह पैदा होता है । हरिण की चिन्ता करते हुए देह छोड़ने के कारण महाराज भरत को हरिण होकर जन्म लेना पड़ा था ।

[ हर पल, अभी में रहकर, अंत होते हुए काल में भी, आत्मभाव में रहना ही मुक्ति है, ना कि ऐसा सोचना कि मृत्यु रूपी अंतकाल आएगा तब प्रभु का नाम लेकर मुक्त हो जाएंगे।कुछ गीता के श्लोक जहां इन शब्दों का प्रयोग हुआ है- [अंतकाल – 2/72, 8/5; निधन- 3/35;त्यजन्देह (देह त्याग)- 8/13;त्यक्त्वा देह (देह त्याग )- 4/9,प्रयाण काल -7/30, 8/2 & 10, कलेवर त्याग- 8/5-6, प्रलियन्ते -8/18, प्रलियते -8 /19; प्रयाता -8/23 & 24;प्रयाति -8/5 & 12; मृत्यु – 9/3,19 & 21,10/34, 12/7, 13/8 & 25;

यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।

तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः।।8.6।।

यम यम– जो भी ; वा - या ; अपि– सम ; _ स्मरण – स्मरण ; भावम् - स्मरण ; त्यागति– त्याग देता है ; पूर्व – अंत में ; कलेवरम् - शरीर ; तम् - उस को ; तम् - उस को ; एव– निश्चय ही ; एति– प्राप्त करता है ; कौन्तेय -कुंती के पुत्र अर्जुन ; सदा– सदा ; _ तत्– वह ; _ भाव-भावितः - चिंतन में लीन। 

।।8.6।। हे कौन्तेय ! (यह जीव) अन्तकाल में जिस किसी भी भाव को स्मरण करता हुआ, [यानि गुरु-शिष्य परम्परा में अपने गुरुदेव के मुख से श्रवण किये जिस किसी देवता-विशेष (अवतार विशेष -रामकृष्णो के नाम)] का चिन्तन करता हुआ,  शरीर को त्यागता है, वह सदैव उस भाव के चिन्तन के फलस्वरूप उसी भाव को ही प्राप्त होता है।।

व्याख्या : केवल मेरे (कृष्णावतार के) विषय में ही यह नियम नहीं है किंतु --, हे कुन्तीपुत्र प्राण-वियोग के समय ( यह जीव ) जिस- जिस भी भाव का अर्थात् ( जिस किसी भी ) देवता-विशेष (अवतार विशेष)  का चिन्तन करता हुआ शरीर छोड़ता है उस भावसे भावित हुआ वह पुरुष सदा उस स्मरण किये हुए भावको ही प्राप्त होता है अन्यको नहीं। उपास्य देव (भगवान श्री रामकृष्ण देव ) विषयक भावना का नाम तद्भाव है वह जिसने भावित यानी बारंबार चिन्तन करने के द्वारा अभ्यस्त किया हो उसका नाम तद्भावभावित है ऐसा होता हुआ ( उसीको प्राप्त होता है )। साभार -https://www.holy-bhagavad-gita.org/chapter/8/verse/6]

MASTER: "It is said in the Gita that a man is reborn with those tendencies that are in his mind at the time of his death. King Bharata thought of his deer at the time of death and was reborn as a deer."

শ্রীরামকৃষ্ণ — গীতায় আছে, মৃত্যুসময় যে যা চিন্তা করে দেহত্যাগ করবে তার সেই ভাব লয়ে জন্মগ্রহণ করতে হয়। হরিণকে চিন্তা করে ভরত রাজার হরিণ-জন্ম হয়েছিল।

वैष्णव - यह बात होती है इसे अगर कोई आँख से देखकर कहे तो विश्वास भी हो ।

VAISHNAVA: "I could believe in rebirth only if an eye-witness told me about it."

বৈষ্ণব — এটি যে হয়, কেউ চোখে দেখে বলে তো বিশ্বাস হয়।

श्रीरामकृष्ण - यह मैं नहीं जानता, भाई । मैं अपनी बीमारी ही तो अच्छी नहीं कर सकता, तिसपर मरकर क्या होता है – यह प्रश्न !

MASTER: "I don't know about that, my dear sir. I cannot cure my own illness, and you ask me to tell you what happens after death!

শ্রীরামকৃষ্ণ — তা জানি না বাপু। আমি নিজের ব্যামো সারাতে পারছি না — আবার মলে কি হয়!

“तुम जो कुछ कह रहे हो, ये हीन बुद्धि की बातें हैं । किस तरह ईश्वर में भक्ति हो, यह चेष्टा करो। (ईश्वर के अवतार या C-IN-C को पहचानकर उनकी) भक्ति-लाभ के लिए ही तुम मनुष्य योनि में पैदा हुए हो । बगीचे में आम खाने के लिए आये हो, कितनी हजार डालियाँ हैं, कितने लाख पत्ते हैं, इसकी खबर लेकर क्या करोगे ? - जन्मान्तर की खबर !”

"What you are talking about only shows your petty mind. Try to cultivate the love of God. You are born as a human being only to attain divine love. You have come to the orchard to eat mangoes: what need is there of knowing how many thousands of branches and millions of leaves there are in the orchard? To bother about what happens after death! How silly!"

“তুমি যা বলছো এ-সব হীনবুদ্ধির কথা। ঈশ্বরে কিসে ভক্তি হয়, এই চেষ্টা করো। ভক্তিলাভের জন্যই মানুষ হয়ে জন্মেছ। বাগানে আম খেতে এসেছ, কত হাজার ডাল, কত লক্ষ পাতা, এ-সব খপরে কাজ কি? জন্ম-জন্মান্তরের খপর!”

[ (मंगलवार, 1 सितंबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-121]

🔱🙏गिरीश घोष ने सर्वप्रथम पहचाना कि श्री रामकृष्ण ही माँ काली के अवतार हैं🔱🙏 

[গিরিশ ঘোষ ও অবতারবাদ! কে পবিত্র? যার বিশ্বাস-ভক্তি ]

श्रीयुत गिरीश घोष दो-एक मित्रों के साथ गाड़ी पर चढ़कर आये । कुछ शराब भी उन्होंने पी थी । रोते हुए आ रहे हैं । श्रीरामकृष्ण के पैरों पर मस्तक रखकर रो रहे हैं ।

Girish Ghosh arrived in a carriage with one or two friends. He was drunk. Ha was weeping as he entered the room. He wept as he placed his head on Sri Ramakrishna's feet.

শ্রীযুক্ত গিরিশ ঘোষ দুই-একটি বন্ধু সঙ্গে গাড়ি করিয়া আসিয়া উপস্থিত। কিছু পান করিয়াছেন। কাঁদিতে কাঁদিতে আসিতেছেন ও ঠাকুরের চরণে মাথা দিয়া কাঁদিতেছেন।

श्रीरामकृष्ण सस्नेह उनकी देह में मीठी थपकियाँ मारने लगे । एक भक्त को पुकारकर कहा, - ‘अरे, इसे तम्बाकू पिला ।’

Sri Ramakrishna affectionately patted him on the back. He said to a devotee, "Prepare a smoke for him."

শ্রীরামকৃষ্ণ সস্নেহে তাঁহার গা চাপড়াইতে লাগিলেন। একজন ভক্তকে ডাকিয়া বলিতেছেন — “ওরে একে তামাক খাওয়া।”

गिरीश सिर उठाकर हाथ जोड़ कह रहे हैं –“तुम्ही पूर्ण ब्रह्म हो, यह अगर सत्य न हो तो सब मिथ्या है ।

Girish raised his head and said with folded hands: "You alone are the Perfect Brahman! If that is not so then everything is false.

গিরিশ মাথা তুলিয়া হাতজোড় করিয়া বলিতেছেন, তুমিই পূর্ণব্রহ্ম। তা যদি না হয়, সবই মিথ্যা!

“बड़ा खेद रहा, मैं तुम्हारी सेवा न कर सका । (ये बाते वे एक ऐसे स्वर में कह रहे हैं कि भक्तों की आँखों में आँसू आ गये - वे फूट-फूटकर रो रहे हैं ।)

"It is such a pity that I could not be of any service to you." He uttered these words with a tenderness that made several devotees weep.

“বড় খেদ রইল, তোমার সেবা করতে পেলুম না! (এই কথাগুলি এরূপ স্বরে বলিতেছেন যে, দু-একটি ভক্ত কাঁদিতেছেন!)

“भगवन् ! यह वर दो कि साल भर तुम्हारी सेवा करता रहूँ । मुक्ति क्या चीज है ! - वह तो मारी मारी फिरती है - उस पर मैं थूकता हूँ । कहिये सेवा एक साल के लिए करूँगा ।”

Girish continued: "O Lord! please grant me the boon that I may serve you for a year. Who cares for salvation? One finds it everywhere. I spit on it. Please tell me that you will accept my service for one year."

“দাও বর ভগবন্‌, এক বৎসর তোমার সেবা করব? মুক্তি ছড়াছড়ি, প্রস্রাব করে দি। বল, তোমার সেবা এক বৎসর করব?”

श्रीरामकृष्ण - यहाँ के आदमी अच्छे नहीं हैं । कोई कुछ कहेगा ।

MASTER: "People around here are not good. Some may criticize you."

শ্রীরামকৃষ্ণ — এখানকার লোক ভাল নয় — কেউ কিছু বলবে।

गिरीश - वह बात न होगी, आप कह दीजिये –

GIRISH: "I don't care. Please tell —"

গিরিশ — তা হবে না, বলো —

श्रीरामकृष्ण - अच्छा, तुम्हारे घर जब जाऊँ तब सेवा करना ।

MASTER : "All right. You may serve me when I go to your house —"

শ্রীরামকৃষ্ণ — আচ্ছা, তোমার বাড়িতে যখন যাব —

गिरीश - नहीं, यह नहीं । यहीं करूँगा ।

GIRISH: "No, it is not that. I want to serve you here."

গিরিশ — না, তা নয়। এইখানে করব।

श्रीरामकृष्ण ने हठ देखकर कहा, ‘अच्छा, ईश्वर की जैसी इच्छा ।’

Girish was insistent. The Master said, "Well, that depends on God's will."

শ্রীরামকৃষ্ণ (জিদ দেখিয়া) — আচ্ছা, সে ঈশ্বরের ইচ্ছা।

श्रीरामकृष्ण के गले में घाव है । गिरीश फिर कहने लगे, “कह दीजिये, अच्छा हो जाय । अच्छा, मैं इसे झाड़े देता हूँ – काली ! काली !”

Referring to the Master's throat trouble, Girish said: "Please say, 'Let it be cured.' All right, I shall thrash it out. Kali! Kali!"

ঠাকুরের গলায় অসুখ। গিরিশ আবার কথা কহিতেছেন, “বল, আরাম হয়ে যাক! — আচ্ছা, আমি ঝাড়িয়ে দেব। কালী! কালী!”

श्रीरामकृष्ण - मुझे लगेगा ।

MASTER: "You will hurt me."

শ্রীরামকৃষ্ণ — আমার লাগবে!

गिरीश - अच्छा हो जा (गले पर ओझा जैसा फूक मारते हैं) "क्या अच्छा नहीं हुआ ? - अगर आपके चरणों मे मेरी भक्ति होगी तो अवश्य अच्छा हो जायेगा - कहिये अच्छा हो गया ।”

GIRISH: "O throat, be cured! (He blows at the throat like an exorciser) Are you not all right? If you aren't cured by this time, you certainly will be if I have any devotion to your feet. Say that you are cured."

গিরিশ — ভাল হয়ে যা! (ফুঁ)। ভাল যদি না হয়ে থাকে তো — যদি আমার ও-পায়ে কিছু ভক্তি থাকে, তবে অবশ্য ভাল হবে! বল, ভাল হয়ে গেছে।

श्रीरामकृष्ण (विरक्ति से) - जाओ भाई, ये सब बातें मुझसे नहीं कही जातीं । रोग के अच्छे होने की बात माँ से मैं नहीं कह सकता । “अच्छा, ईवर की इच्छा से होगा ।”

MASTER (sharply): "Leave me alone. I can't say those things. I can't ask the Divine Mother to cure my illness. "All right. I shall be, cured if it is the will of God."

শ্রীরামকৃষ্ণ (বিরক্ত হইয়া) — যা বাপু, আমি ও-সব বলতে পারি না। রোগ ভাল হবার কথা মাকে বলতে পারি না। আচ্ছা ঈশ্বরের ইচ্ছায় হবে।

गिरीश - आप मुझे बहका रहे हैं । आपकी ही इच्छा से होगा ।

GIRISH: "You are trying to fool me. All depends on your will."

গিরিশ — আমায় ভুলোনো! তোমার ইচ্ছায়!

[ (मंगलवार, 1 सितंबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-121]

🔱🙏अपने गुरु को भगवान समझ सकते हो 🔱🙏

श्रीरामकृष्ण - छि:, ऐसी बात नहीं कहनी चाहिए । भक्तवत् न तु कृष्णवत् । तुम्हें जैसा रुचे सोच सकते हो - अपने गुरु को भगवान समझ सकते हो, परन्तु इन सब के कहने से अपराध होता है । ऐसी बातें फिर नहीं कहना ।

MASTER: "Shame! Never say that again. I look at myself as a devotee of Krishna, not as Krishna Himself. You may think as you like. You may look on your guru as God. Nevertheless, it is wrong to talk as you are talking. You must not talk that way again."

শ্রীরামকৃষ্ণ — ছি, ও-কথা বলতে নাই। ভক্তবৎ ন চ কৃষ্ণবৎ। তুমি যা ভাবো, তুমি ভাবতে পারো। আপনার গুরু তো ভগবান — তাবলে ও-সব কথা বলায় অপরাধ হয় — ও-কথা বলতে নাই।

गिरीश - कहिये, अच्छा हो जायेगा ।

GIRISH: "Please say you will be cured."

গিরিশ — বল, ভাল হয়ে যাবে।

श्रीरामकृष्ण - अच्छा, जो कुछ हुआ है वह चला जायेगा ।

MASTER: "Very well, if that pleases you."

শ্রীরামকৃষ্ণ — আচ্ছা, যা হয়েছে তা যাবে।

गिरीश शायद अब भी अपने नशे में हैं । कभी कभी बीच में वे श्रीरामकृष्ण से कहते हैं, “क्या बात है कि इस बार आप अपने दैवी सौन्दर्य को लेकर पैदा नहीं हुए ?”

Girish was still under the influence of drink. Now and then he said to Sri Ramakrishna, "Well, sir, how is it that you were not born this time with your celestial beauty?"

গিরিশ নিজের ভাবে মাঝে মাঝে ঠাকুরকে সম্বোধন করিয়া বলিতেছেন,“হ্যাঁগা, এবার রূপ নিয়ে আস নাই কেন গা?”

[(मंगलवार, 1 सितंबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-121]

🔱🙏केवल बांग्लार माटी,  जल, वायु - पुण्य होक? या समस्त जगत हे भगवान ?🔱🙏  

कुछ देर बाद फिर कह रहे हैं - “अबकी बार जान पड़ता है, बंगाल का उद्धार है ।”

A few moments later he said, "I see, this time it will be the salvation of Bengal."

কিয়ৎক্ষণ পরে আবার বলিতেছেন, ‘এবার বুঝি বাঙ্গালা উদ্ধার!’

एक भक्त अपने आप से कह रहे हैं, “केवल बंगाल का ही क्यों ? समस्त जगत् का उद्धार होगा ।”

A devotee said to himself: "Why Bengal alone? It will be the salvation of the whole world."

কোন কোন ভক্ত ভাবিতেছেন, বাঙ্গালা উদ্ধার, সমস্ত জগৎ উদ্ধার!

गिरीश फिर कह रहे हैं – “ये यहाँ क्यों हैं, इसका अर्थ किसी की समझ में आया ? जीवों के दुःख से विकल होकर आये हैं, उनका उद्धार करने के लिए ।”

Girish said, addressing the devotees: "Does any of you understand why he is here? It is for the liberation of men. Their suffering has moved him to assume a human body."

গিরিশ আবার বলিতেছেন, “ইনি এখানে রয়েছেন কেন, কেউ বুঝেছো? জীবের দুঃখে কাতর হয়ে সেছেন; তাঁদের উদ্ধার করবার জন্যে!”

गाड़ीवान पुकार रहा था । गिरीश उठकर उसके पास जा रहे हैं । श्रीरामकृष्ण मास्टर से कह रहे हैं – “देखो, कहाँ जाता है - गाड़ीवान को मारेगा तो नहीं ?” मास्टर भी साथ जा रहे हैं ।

The coachman was calling Girish. He got up and was going toward the man. The Master said to M.: "Watch him. Where is he going? I hope he won't beat the coachman!" M. accompanied Girish.

গাড়োয়ান ডাকিতেছিল। গিরিশ গাত্রোত্থান করিয়া তাহার কাছে যাইতেছেন। শ্রীরামকৃষ্ণ মাস্টারকে বলিতেছেন, “দেখো, কোথায় যায় — মারবে না তো।” মাস্টারও সঙ্গে সঙ্গে গমন করিলেন।

गिरीश फिर लौटे, श्रीरामकृष्ण की स्तुति करने लगे – “भगवन्, मुझे पवित्रता दो, जिससे कभी थोड़ीसी भी पाप-चिन्ता न हो ।”

Presently Girish returned. He prayed to Sri Ramakrishna and said, "O God, give me purity that I may not have even a trace of sinful thought."

গিরিশ আবার ফিরিয়াছেন ও ঠাকুরকে স্তব করিতেছেন — “ভগবন্‌, পবিত্রতা আমায় দাও। যাতে কখনও একটুও পাপ-চিন্তা না হয়।”

श्रीरामकृष्ण – तुम पवित्र तो हो ही । तुममें इतनी भक्ति और विश्वास जो है !तुम तो आनन्द में हो न ?

MASTER: "You are already pure. You have such faith and devotion! You are in a state of joy, aren't you?"

শ্রীরামকৃষ্ণ — তুমি পবিত্র তো আছ। — তোমার যে বিশ্বাস-ভক্তি! তুমি তো আনন্দে আছ।

गिरीश - जी नहीं, मन खराब रहता है बड़ी अशान्ति रहती है, इसीलिए तो - - शराब पी और खूब पी ।

GIRISH: "No, sir. I feel bad. I have worries. That is why I have drunk so much liquor."

গিরিশ — আজ্ঞা, না। মন খারাপ — অশান্তি — তাই খুব মদ খেলুম।

कुछ देर बाद गिरीश फिर कह रहे हैं – “भगवन्, आश्चर्य हो रहा है, मैं पूर्णब्रह्म भगवान की सेवा कर रहा हूँ ! ऐसी कौनसी तपस्या मैंने की जिससे इस सेवा का अधिकारी हुआ ?”

A few minutes afterwards Girish said: "Lord, I am amazed to find that I, even I, have been given the privilege of serving the Perfect Brahman. What austerities have I practised to deserve this privilege?"

কিয়ৎক্ষণ পরে গিরিশ আবার বলিতেছেন, “ভগবন্‌, আশ্চর্য হচ্ছি যে, পূর্ণব্রহ্ম ভগবানের সেবা করছি! এমন কি তপস্যা করিছি যে এই সেবার অধিকারী হয়েছি!”

दोपहर हो गयी है, श्रीरामकृष्ण ने भोजन किया । बीमारी के होने से बहुत थोड़ासा भोजन किया ।

Sri Ramakrishna took his midday meal. On account of his illness he ate very little.

ঠাকুর মধ্যাহ্নের সেবা করিলেন। অসুখ হওয়াতে অতি সামান্য একটু আহার করিলেন।

श्रीरामकृष्ण की सदैव भावावस्था रहती है - जबरदस्ती उन्हें शरीर की ओर मन को ले आना पड़ता है । परन्तु बालक की तरह वे खुद अपने शरीर की रक्षा नहीं कर सकते । बालक की तरह भक्तों से कह रहे हैं, “जरासा भोजन किया, अब थोड़ी देर के लिए लेटूँगा । तुम लोग जरा बाहर जाकर बैठो ।” श्रीरामकृष्ण ने थोड़ा विश्राम किया । भक्तगण कमरे में फिर आये ।

The Master's natural tendency of mind was to soar into the plane of God- Consciousness. He would force his mind to be conscious of the body. But, like a child, he was incapable of looking after his body. Like a child he said to the devotees: "I have eaten a little. I shall rest now. You may go out for a little while." Sri Ramakrishna rested a few minutes. The devotees returned to the room.

ঠাকুরের সর্বদাই ভাবাবস্থা — জোর করিয়া শরীরের দিকে মন আনিতেছেন। কিন্তু শরীর রক্ষা করিতে বালকের ন্যায় অক্ষম। বালকের ন্যায় ভক্তদের বলিতেছেন, “এখন একটু খেলুম — একটু শোব! তোমরা একটু বাহিরে গিয়ে বসো।”ঠাকুর একটু বিশ্রাম করিয়াছেন। ভক্তেরা আবার ঘরে বসিয়াছেন।

[(मंगलवार, 1 सितंबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-121]

श्री गुरु (नेता-CINC) ही इष्ट हैं । दो प्रकार के भक्त ।

🔱🙏'जीवन नदी के हर मोड़ पर ' में दादा के पितामह की तंत्र-साधना🔱🙏

"से बड़ो कठिन कठिन ठाँई, गुरु-शिष्य देखा नाई। "  

‘ऐ (शिष्य), वह देख (इष्ट को) ।’ 'This is that'- এ (শিষ্য) ওই (তোর ইষ্ট)।]

गिरीश - गुरु और इष्ट । मुझे गुरुरूप बहुत अच्छा लगता है - उसका भय नहीं होता - क्यों भला? मैं भावावेश (ecstasy) से दूर भागता हूँ - उससे मुझे भय लगता है ।

GIRISH: "The guru and the Ishta. I like very much the form of the guru. I am not afraid of him. Why should it be so? I am afraid of ecstasy. At the sight of ecstasy I run away."

গিরিশ — হ্যাঁ গা, গুরু আর ইষ্ট; — গুরু-রূপটি বেশ লাগে — ভয় হয় না — কেন গা? ভাব দেখলে দশহাত তফাতে যাই। ভয় হয়।

श्रीरामकृष्ण - जो इष्ट हैं, वे ही गुरु के रूप में आते हैं । शवसाधना के पश्चात् जब इष्टदेव के दर्शन होते हैं, तब गुरु स्वयं शिष्य से आकर कहते हैं – ‘ऐ (शिष्य), वह देख (इष्ट को) ।’ यह कहकर वे इष्ट के रूप में लीन हो जाते हैं । शिष्य तब गुरु को नहीं देखता जब पूर्ण ज्ञान हो जाता है तब कौन गुरु और कौन शिष्य ? ‘वह बड़ी कठिन अवस्था है; 'वहाँ'  गुरु और शिष्य एक दूसरे को नहीं देख पाते ।’

MASTER: "He who is the Ishta appears in the form of the guru. The aspirant practises meditation on a corpse.3 When he obtains the vision of his Chosen Ideal, it is really the guru who appears to him and says. 'This is that', that is to say, he points out to the disciple his Ishta. Uttering these words, the guru disappears into the form or the Ishta.The disciple no longer sees the guru. In the state of perfect jnana, who is the guru and who is the sishya? That creates a very difficult situation; there the teacher and the disciple do not see each other.'"

(^One of the forms of meditation prescribed in the Tantra.)

শ্রীরামকৃষ্ণ — যিনি ইষ্ট, তিনিই গুরুরূপ হয়ে আসেন। শবসাধনের পর যখন ইষ্টদর্শন হয়, গুরুই এসে শিষ্যকে বলেন — এ (শিষ্য) ওই (তোর ইষ্ট)। এই কথা বলেই ইষ্টরূপেতে লীন হয়ে যান। শিষ্য আর গুরুকে দেখতে পায় না। যখন পূর্ণজ্ঞান হয়, তখন কে বা গুরু, কে বা শিষ্য। ‘সে বড় কঠিন ঠাঁই। গুরুশিষ্যে দেখা নাই।

एक भक्त - गुरु का सिर और शिष्य के पैर ।

A DEVOTEE: "Guru's head and disciple's feet."

একজন ভক্ত — গুরুর মাথা শিষ্যের পা।

गिरीश (आनन्द से) - हाँ, हाँ, सच है ।

GIRISH (joyously): "Yes! Yes! It is true."

গিরিশ — (আনন্দে) হাঁ।

[(मंगलवार, 1 सितंबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-121]

[পূর্বকথা — শিখভক্ত — দুই থাক ভক্ত — বানরের ছা ও বিল্লির ছা ]

🔱🙏सिख भक्त से कहा था :भक्तों की दो श्रेणी बंदर का बच्चा और बिली का बच्चा🔱🙏  

 [ श्रीमाँ सारदा हमारी माँ हैं, श्री रामकृष्ण हमारे पिता हैं, स्वामी जी नवनीदा है ।]

एक ही अनेक बने हैं 

नवगोपाल - इसका अर्थ सुन लो । 'शिष्य का सिर गुरु की वस्तु' है और 'गुरु के पैर शिष्य की वस्तु ।' सुना ?

NAVAGOPAL: "But listen to its meaning. The disciple's head belongs to the guru; and the guru's feet belong to the disciple. Do you understand?"

নবগোপাল — শোনো মানে! শিষ্যের মাথাটা গুরুর জিনিস, আর গুরুর পা শিষ্যের জিনিস। শুনলে?

गिरीश - नहीं, यह अर्थ नहीं है । क्या लड़का बाप के कन्धे पर चढ़ता नहीं ? इसीलिए शिष्य के पैर और गुरु का सिर, ऐसा कहा है ।

GIRISH: "No, that is not the meaning. Haven't you seen the child climbing on the head of the father? That is why the disciple's feet are mentioned."

গিরিশ — না, ও মানে নয়। বাপের ঘাড়ে ছেলে কি চড়ে না? তাই শিষ্যের পা।

नवगोपाल - वह शिष्य अगर वैसा ही छोटासा हो, तब न ?

NAVAGOPAL: "But then the disciple must feel like a young baby."

নবগোপাল — সে তেমনি কচি ছেলে থাকলে তো হয়।

श्रीरामकृष्ण - भक्त दो तरह के हैं - एक वे जिनका भाव बिल्ली के बच्चे जैसा होता है, सारा अवलम्ब माता पर ।“बिल्ली का बच्चा बस ‘मिऊं मिऊँ’ करता रहता है । कहाँ जाना है, क्या करना है, वह कुछ नहीं जानता । माँ कभी उसे कण्डौरे में रखती है और कभी बिस्तरे पर ले जाकर रखती है । इस तरह का भक्त ईश्वर को अपना आममुख्तार बना लेता है । उन्हें मुख्तारी सौंपकर वह निश्चिन्त हो जाता है । “सिक्खों ने कहा था, ‘ईश्वर दयालु है ।’ मैने कहा, 'वे हमारे माँ-बाप हैं; उनका दयालु होना फिर कैसा ? बच्चों को पैदा करके माँ-बाप उनका पालन-पोषण नहीं करेंगे तो क्या पाण्डे -टोले वाले आकर करेंगे ?’ इस तरह के भक्तों को दृढ़ विश्वास है – ‘वे हमारी माँ हैं, हमारे पिता हैं ।’

MASTER: "There are two classes of devotees. One class has the nature of the kitten. The kitten depends completely on its mother. It accepts whatever its mother does for it. The kitten only cries, 'Mew, mew!' It doesn't know what to do or where to go. Sometimes the mother puts the kitten near the hearth, sometimes on the bed. Devotees of this class give God the power of attorney and thus become free of all worry. The Sikhs said to me that God was kind. I said to them: 'How is that? He is our Father and our Mother. Shouldn't parents bring up their children after begetting them? Do you mean to say that the neighbours will look after them?' Devotees of this class have an unwavering conviction that God is our Mother and our Father.

শ্রীরামকৃষ্ণ — দুরকম ভক্ত আছে। একথাকের বিল্লির ছার স্বভাব। সব নির্ভর — মা যা করে। বিল্লির ছা কেবল মিউ মিউ করে। কোথায় যাবে, কি করবে — কিছুই জানে না। মা কখন হেঁশালে রাখছে — কখন বা বিছানার উপরে রাখছে। এরূপ ভক্ত ঈশ্বরকে আমমোক্তারি (বকলমা) দেয়। আমমোক্তারি দিয়ে নিশ্চিন্ত।“শিখরা বলেছিল — ঈশ্বর দয়ালু। আমি বললাম, তিনি আমাদের মা-বাপ, তিনি আবার দয়ালু কি? ছেলেদের জন্ম দিয়ে বাপ-মা লালন-পালন করবে না, তো কি বামুনপাড়ার লোকেরা এসে করবে? এ-ভক্তদের ঠিক বিশ্বাস — তিনি আপনার মা, আপনার বাপ।

[(मंगलवार, 1 सितंबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-121]

🔱🙏‘बढ़ते जाओ’🔱🙏

“एक दर्जे के भक्त और हैं । उनका स्वभाव बन्दर के बच्चे की तरह है । बन्दर का बच्चा खुद किसी तरह माँ को पकड़े रहता है । इस दर्जे के लोगों को कुछ कर्तृत्व का विचार रहता है । मुझे तीर्थ करना है, जप-तप करना है, षोडशोपचार पूजा करनी है तब ईश्वर मिलेंगे, - इनका यह भाव है ।”

"There is another class of devotees. They have the nature of a young monkey. The young monkey clings to its mother with might and main. The devotees who behave like the young monkey have a slight idea of being the doer. They feel: 'We must go to the sacred places; we must practice japa and austerity; we must perform worship with sixteen articles as prescribed by the sastras. Only then shall we be able to realize God ! ' Such is their attitude.

“আর-এক থাক ভক্ত আছে, তাদের বানরের ছার স্বভাব। বানরের ছা নিজে জো-সো করে মাকে আঁকড়ে ধরে। এদের একটু কর্তৃত্ব বোধ আছে। আমায় তীর্থ করতে হবে, জপতপ করতে হবে, ষোড়শোপচারে পূজা করতে হবে, তবে আমি ঈশ্বরকে ধরতে পারব, — এদের এই ভাব।

“भक्त दोनों हैं । (भक्तों से) जितना ही बढ़ोगे, उतना ही देखोगे, वे ही सब कुछ हुए हैं - वे ही सब कुछ करते हैं । वे ही गुरु हैं और वे ही इष्ट भी हैं । वे ही ज्ञान और भक्ति सब दे रहे हैं ।

"The aspirants of both classes are devotees of God. The farther you advance, the more you will realize that God alone has become everything. He alone does everything. He alone is the Guru and He alone is the Ishta. He alone gives us knowledge and devotion.

“দুজনেই ভক্ত (ভক্তদের প্রতি) — যত এগোবে, ততই দেখবে তিনিই সব হয়েছেন — তিনিই সব করছেন। তিনিই গুরু, তিনিই ইষ্ট। তিনিই জ্ঞান, ভক্তি সব দিচ্ছেন।”

[(मंगलवार, 1 सितंबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-121]

🔱🙏प्रवृत्ति मार्गी गृहस्थ राजर्षि केशव सेन (above 70 % Unselfish)
 को उपदेश : चन्दन पेड़ के जंगल से भी -यथासम्भव 'आगे बढ़ते जाओ !'🔱🙏
(ढेंग -पानी खेल के जैसा जीवन जीयो !)

“जितना हो आगे बढ़ोगे उतना ही अधिक पाओगे । देखोगे, चन्दन की लकड़ी फिर आगे और भी बहुत कुछ है - चाँदी सोने की खान, हीरे और मणि की खान; इसीलिए कहता हूँ, ‘आगे बढ़ते जाओ ।’

"The farther you advance, the more you will see that there are other things even beyond the sandal-wood forest — mines of silver and gold and precious gems. Therefore go forward.

“যত এগোবে, দেখবে, চন্দন কাঠের পরও আছে, — রূপার খনি, — সোনার খনি, — হীরে মাণিক! তাই এগিয়ে পড়।

“और ‘बढ़ते जाओ’ यह बात भी किस तरह कहूँ ? संसारी आदमी अगर अधिक बढ़ जायँ तो घर और गृहस्थी सब साफ हो जाय । केशव सेन उपासना कर रहा था, कहा, ‘हे ईश्वर, ऐसा करो जिससे तुम्हारी भक्ति की नदी में हम डूब जायँ ।’ जब उपासना समाप्त हो गयी तब मैंने कहा, ‘क्यों जी, तुम भक्ति की नदी में डूब कैसे जाओगे ? डूब जाओगे तो जो चिक के भीतर बैठी हुई हैं, उनकी क्या दशा होगी ? एक काम करो - कभी कभी डूब जाना और कभी कभी निकलकर फिर किनारे पर सूखे में आ जाना ।’ ” (सब हँसते हैं)

"But how can I [ 100 % Unselfish] ask people ( above 75 % Unselfish) to go forward? If worldly people go too far, then the bottom will drop out of their world. One day Keshab was conducting a religious service. He said, 'O God, may we all sink and disappear in the river of bhakti!' When the worship was over I said to him: 'Look here. How can you disappear altogether in the river of bhakti? If you do, what will' happen to those seated behind the screen? (The Master referred to the ladies.) But do one thing: sink now and then, and come back again to dry land.'" (All laugh.)

“আর ‘এগিয়ে পড়’ এ-কথাই বা বলি কেমন করে! — সংসারী লোকদের বেশি এগোতে গেলে সংসার-টংসার ফক্কা হয়ে যায়! কেশব সেন উপাসনা কচ্ছিল, — বলে, ‘হে ঈশ্বর, তোমার ভক্তিনদীতে যেন ডুবে যাই।’ সব হয়ে গেলে আমি কেশবকে বললাম, ওগো, তুমি ভক্তিনদীতে ডুবে যাবে কি করে? ডুবে গেলে, চিকের ভিতর যারা আছে তাদের কি হবে। তবে এককর্ম করো — মাঝে মাঝে ডুব দিও, আর এক-একবার আড়ায় উঠো।” (সকলের হাস্য)

[(मंगलवार, 1 सितंबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-121]

[বৈষ্ণবের ‘কলকলানি’ — ‘ধারণা করো’! সত্যকথা তপস্যা ]

🔱🙏काटवा के वैष्णव को उपदेश- 'छन-छनाना' (sizzling) छोड़ दो !🔱🙏
 
['व्यावहारिकता क्या है ?' -इसकी धारणा करो, यही सच्ची तपस्या है !] 

 काटवा के वैष्णव तर्क कर रहे थे । श्रीरामकृष्ण उनसे कह रहे हैं - "तुम छन-छनाना "   (कलकलाना) छोड़ो । घी जब तक कच्चा रहता है तभी तक छनछनाया करता है ।  

The Vaishnava from Katoa was arguing. MASTER (to the Vaishnava): "Stop that sizzling noise! When butter containing water is heated over a fire, it makes that sound.

কাটোয়ার বৈষ্ণব তর্ক করিতেছিলেন। ঠাকুর তাঁহাকে বলিতেছেন, “তুমি কলকলানি ছাড়। ঘি কাঁচা থাকলেই কলকল করে।

“एक बार उनका आनन्द मिलने से विचार- बुद्धि दूर हो जाती है । जब मधु-पान का आनन्द मिलने लगता है तो गूँजना बन्द हो जाता है । “किताब पढ़कर कुछ बातों के कह सकने से क्या होगा ? पण्डित कितने ही श्लोक कहते हैं – ‘शीर्णा गोकुलमण्डली’ ^ आदि सब ।

[शीर्णा गोकुलमण्डली पशुकुलं शष्पाय न स्पन्दते, मूका कोकिलसंहतिः शिखिकुलं न व्याकुलं नृत्यति ।सर्वे त्वद्विरहेण हन्त नितरां गोविन्द दैन्यं गताः,किन्त्वेका यमुना कुरङगनयनानेत्राम्बुभिर्वर्धते ॥२२१॥ भगवान के प्रती कथित इस 'श्रीव्रजाङगनासूक्तिः' - सूक्ति में 'मोहन भगवान्' (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण) श्रवण-सुखद नाम को श्रवण-सुखद,सुन्दर शब्दविन्यास और प्रसाद माधुर्य आदि गुणोंसे समन्वित सारभूत श्लोकों का संचय किया गया  है।

If a man but once tastes the joy of God, his desire to argue takes wing. The bee, realizing the joy of sipping honey, doesn't buzz about any more. What will vou achieve by quoting from books? The pundits recite verses and do nothing else.

“একবার তাঁর আনন্দ পেলে বিচারবুদ্ধি পালিয়ে যায়। মধুপানের আনন্দ পেলে আর ভনভনানি থাকে না। “বই পড়ে কতকগুলো কথা বলতে পারলে কি হবে? পণ্ডিতেরা কত শ্লোক বলে — ‘শীর্ণা গোকুলমণ্ডলী!’ — এই সব।

“ ‘भंग-भंग' रटते रहने से क्या होगा ? उसकी कुल्ली करने से भी कुछ न होगा । पेट में पड़ना चाहिए - नशा तभी होगा । निर्जन में और एकान्त में व्याकुल होकर ईश्वर को बिना पुकारे इन सब बातों की धारणा कोई कर नहीं सकता ।”

"What will you gain by merely repeating 'siddhi'? You will not be intoxicated even by gargling with a solution of siddhi. It must go into your stomach; not until then will you be intoxicated. One cannot comprehend what I am saying unless one prays to God in solitude, all by oneself, with a longing heart."

“সিদ্ধি সিদ্ধি মুখে বললে কি হবে? কুলকুচো করলেও কিছু হবে না। পেটে ঢুকুতে হবে! তবে নেশা হবে। ঈশ্বরকে নির্জনে গোপনে ব্যাকুল হয়ে না ডাকলে, এ-সব কথা ধারণা হয় না।” 

डाक्टर राखाल श्रीरामकृष्ण को देखने के लिए आये हैं । श्रीरामकृष्ण व्यस्त भाव से कह रहे हैं – “आइये, बैठिये ।”

Dr. Rakhal arrived to examine Sri Ramakrishna. The Master said to him eagerly, "Come in and sit down."

ডাক্তার রাখাল ঠাকুরকে দেখিতে আসিয়াছেন। তিনি ব্যস্ত হইয়া বলিতেছেন — “এসো গো বসো।” বৈষ্ণবের সহিত কথা চলিতে লাগিল।

काटवा के वैष्णव से पुनः बातचीत होने लगी ।

The conversation with the Vaishnava continued.

[(मंगलवार, 1 सितंबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-121]

🔱🙏जिसको 'अहं ब्रम्हास्मि' की अनुभूति है वही मनुष्य है🔱🙏  

जाग्रत मन और सम्मोहित मन 

Hypnotized mind and Alert Mind 

मानहूंश आर मानुष   

श्रीरामकृष्ण - मनुष्य और 'मन- होश' । जिसे चैतन्य हुआ है, वह 'मन होश' है । बिना चैतन्य के मनुष्य-जन्म वृथा है ।

MASTER: "Man should possess dignity and alertness. Only he whose spiritual consciousness is awakened possesses this dignity and alertness and can be called a man. Futile is the human birth without the awakening of spiritual consciousness.

শ্রীরামকৃষ্ণ — মানুষ আর মানহুঁশ। যার চৈতন্য হয়েছে, সেই মানহুঁশ। চৈতন্য না হলে বৃথা মানুষ জন্ম!

[(मंगलवार, 1 सितंबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-121]

[পূর্বকথা — কামারপুকুরে ধার্মিক সত্যবাদী দ্বারা সালিসী ]

[Preface — Arbitrated by the Righteous Truth in Kamarpukur]

[कामारपुकुर में  धार्मिक और सत्यवादी- वैराग्य सम्प्पन राजर्षि लोगों की मध्यस्थता ]

🔱नत्थूलाल जैसी बड़ी तोंद और बड़ी-बड़ी मूँछों वाले और नेता तो अपने ग्राम में ही हैं, 

फिर प्लेन का टिकट भेजकर बाहर से धार्मिक और वैरागी सत्यवादी नेता को क्यों बुलाते हैं ?🔱 

“हमारे देश (कामारपुकुर) में मोटे पेट और बड़ी बड़ी मूछोंवाले आदमी बहुत हैं; फिर भी वहाँ के लोग दस कोस से अच्छे आदमी को पालकी पर चढ़ाकर क्यों ले आते हैं ? - उन्हें धार्मिक और सत्यवादी देखकर; वे झगड़े का फैसला कर देंगे, इसलिए जो लोग केवल पण्डित हैं, उन्हें नहीं लाते ।

"There are many men at Kamarpukur with big bellies and imposing moustaches. Yet the villagers go with palanquins and bring righteous and truthful persons from twenty miles away to arbitrate their quarrels. They do not bring mere pundits.

“আমাদের দেশে পেটমোটা গোঁফওয়ালা অনেক লোক আছে। তবু দশ ক্রোশ দূর থেকে ভাল লোককে পালকি করে আনে কেন — ধার্মিক সত্যবাদী দেখে। তারা বিবাদ মিটাবে। শুধু যারা পণ্ডিত, তাদের আনে না।

“सत्य बोलना कलिकाल की तपस्या है । सत्य वचन, ईश्वर पर निर्भरता तथा पर-स्त्री को माता के समान देखना - ये सब ईश्वर दर्शन के उपाय हैं ।”

"Truthfulness is tapasya of the Kaliyuga. 'Truthfulness, submission to God, and looking on the wives of other men as one's own mother' — these are the means to realize God."


[(मंगलवार, 1 सितंबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-121]

[Reconciliation of Free Will and God's Will — 

of Liberty and Necessity — ঈশ্বরই মাহুত নারায়ণ ]

[स्वतंत्र इच्छा और ईश्वर की इच्छा, स्वतंत्रता और अनिवार्यता का समन्वय - 

 - ईश्वरी ही महावत नारायण (नेता) हैं ! ]

🔱🙏शुद्ध मन (सर्वव्यापी विराट अहं) और 

शुद्ध आत्मा (माँ जगदम्बा -नेता) एक ही वस्तु है🔱🙏 

श्रीरामकृष्ण बच्चे की तरह डाक्टर से कह रहे हैं – “भाई, इसे अच्छा कर दो ।”

Like a child, Sri Ramakrishna said to the physician, "Sir, please cure my throat."

ঠাকুর বালকের মতো ডাক্তারকে বলিতেছেন — “বাবু আমার এটা ভাল করে দাও।”

डाक्टर - मैं अच्छा करूँगा ?

DOCTOR: "Do you ask me to cure you?"

ডাক্তার — আমি ভাল করব?  

श्रीरामकृष्ण (हंसकर) - डाक्टर नारायण है । मैं सब मानता हूँ ।अगर कहो - सब नारायण हैं, तो चुप मारकर क्यों नहीं रहते ? - तो उत्तर यह है कि मैं महावत नारायण को भी मानता हूँ

MASTER: "The physician is Narayana Himself. I honor everybody. You may say that if I look on all as Naravana then I should keep quiet. But I also accept the words of the 'Mahut Narayana'.

“যদি বলো সব নারায়ণ, তবে চুপ করে থাকলেই হয়, তা আমি মাহুত নারায়ণও মানি।

“शुद्ध मन और शुद्ध आत्मा एक ही वस्तु है ।"शुद्ध मन में जो बात पैदा होती है वह उन्हीं की वाणी है । ‘महावत नारायण’ वे ही हैं ।

"The Pure Mind and the Pure Atman are one and the same thing. Whatever comes up in the Pure Mind is the voice of God. God alone is the 'Mahut Narayana'.

“শুদ্ধমন আর শুদ্ধ-আত্মা একই! শুদ্ধমনে যা উঠে, সে তাঁরই কথা। -তিনিই ‘মাহুত নারায়ণ।’

“उनकी बात फिर क्यों न मानूँ ? वे ही कर्ता हैं । ‘मैं’ को जब तक उन्होंने रखा है, तब तक उनकी आज्ञा को सुनकर काम करूँगा ।”

"Why should I not listen to God? He alone is the Master. As long as He keeps 'I-consciousness' in me, I shall obey His orders."

“তাঁর কথা শুনব না কেন? তিনিই কর্তা। ‘আমি’ যতক্ষণ রেখেছেন, তাঁর আদেশ শুনে কাজ করব।”

अब डाक्टर श्रीरामकृष्ण के गले की बीमारी की परीक्षा करेंगे । श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं – “महेन्द्र सरकार ने जीभ दबायी थी - जैसे (गाय को काँड़ा से दवा पिलाते समय) गाय की जीभ दबायी जाती है !”

The doctor was going to examine Sri Ramakrishna's throat. The Master said, "Dr. Mahendra Sarkar pressed my tongue the way they press a cow's."

ঠাকুরের গলার অসুখ এইবার ডাক্তার দেখিবেন। ঠাকুর বলিতেছেন — “মহেন্দ্র সরকার জিব টিপেছিল, যেমন গরুর জিবকে টিপে।”

श्रीरामकृष्ण बालक की तरह बार-बार डाक्टर के कुर्ते में हाथ लगाते हुए कह हैं – “भाई ! तुम इसे अच्छा कर दो ।” Laryngoscope" (लैरींगोस्कोप- कण्ठ नाली देखने का यंत्र) को देखकर श्रीरामकृष्ण हँसते हुए कह रहे हैं – “इसमें छाया पड़ेगी, समझ गया ।”

Like a child Sri Ramakrishna said to the physician, pulling at his shirt-sleeves again and again, "Sir! My dear sir! Please cure my throat." Looking at the laryngoscope, he said with a smile: "I know it. You will see the reflection in it."

ঠাকুর আবার বালকের ন্যায় ডাক্তারের জামায় বারংবার হাত দিয়ে বলিতেছেন, “বাবু! বাবু! তুমি এইটে ভাল করে দাও!” Laryngoscope দেখিয়া ঠাকুর হাসিতে হাসিতে বলিতেছেন — “বুঝেছি, এতে ছায়া পড়বে।”

नरेन्द्र ने गाया - [*जब मैं 'रहते' की 'रह' जानी ।* काल काया के निकट न आवै, पावत है सुख प्राणी ॥टेक॥*] परन्तु श्रीरामकृष्ण की बीमारी के कारण अधिक संगीत नहीं हुआ ।

(३)

[(मंगलवार, 2 सितंबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-121]

*डॉ. भगवान रुद्र तथा श्रीरामकृष्ण*

दोपहर के भोजन के बाद श्रीरामकृष्ण अपनी चारपाई पर बैठ हुए डाक्टर भगवान रुद्र और मास्टर से वार्तालाप कर रहे हैं । कमरे में राखाल, लाटू आदि भक्त भी हैं । आज बुधवार है, श्रावण की अष्टमी-नवमी तिथि, २ सितम्बर १८८५ । डाक्टर ने श्रीरामकृष्ण की बीमारी का कुल विवरण सुना। श्रीरामकृष्ण जमीन पर उतरकर डाक्टर के पास बैठे हुए हैं ।

After finishing his midday meal Sri Ramakrishna sat on the small couch and talked to Dr. Bhagavan Rudra and M. Rakhal, Latu, and other devotees were in the room. The physician heard all about the Master's illness. Sri Ramakrishna came down to the floor and sat near the doctor.

ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ মধ্যাহ্নে সেবা করিয়া নিজের আসনে বসিয়া আছেন। ডাক্তার ভগবান রুদ্র ও মাস্টারের সহিত কথা কহিতেছেন। ঘরে লাটু প্রভৃতি ভক্তেরাও আছেন। আজ বুধবার, নন্দোৎসব, ১৮ই ভাদ্র; শ্রাবণ অষ্টমী-নবমী তিথি; ২রা সেপ্টেম্বর, ১৮৮৫ খ্রীষ্টাব্দ। ঠাকুরের অসুখের বিষয় সমস্ত ডাক্তার শুনিলেন। ঠাকুর মেঝেতে আসিয়া ডাক্তারের কাছে বসিয়াছেন।

श्रीरामकृष्ण - देखो जी, दवा नहीं सही जाती । मेरी प्रकृति कुछ और है ।

MASTER: "You see, medicine does not agree with me. My system is different.

শ্রীরামকৃষ্ণ — দেখো গা, ঔষধ সহ্য হয় না! ধাত আলাদা।


[(मंगलवार, 2 सितंबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-121]

🔱🙏शरीरधारी होकर भी ठाकुर देह भाव से अलग हैं🔱🙏

(चाँदी का रुपया छूना, संचय , धोती की गाँठ बांधना, ठाकुर के लिए असम्भव )     

[টাকা স্পর্শন, গিরোবান্ধা, সঞ্চয় — এ-সব ঠাকুরের অসম্ভব ]

“अच्छा, यह तुम्हें क्या जान पड़ता है ? रुपया छूने पर हाथ टेढ़ा हो जाता है । और अगर मैं धोती में गाँठ दे दूँ, तो जब तक वह खोल न दी जाय तब तक के लिए साँस बन्द जाती है ।”

"Well, what do you think of this? When I touch a coin my hand gets twisted; my breathing stops. Further, if I tie a knot4 in the corner of my cloth, I cannot breathe. My breathing stops until the knot is untied."

“আচ্ছা, এটা তোমার কি মনে হয়? টাকা ছুঁলে হাত এঁকে বেঁকে যায়। নিঃশ্বাস বন্ধ হয়ে যায়! আর যদি আমি গিরো (গ্রন্থি) বাঁধি যতক্ষণ না গিরো খোলা হয়, ততক্ষণ নিঃশ্বাস বন্ধ হয়ে থাকবে!”

यह कहकर उन्होंने एक रुपया ले आने के लिए कहा । डाक्टर को यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि रुपये को हाथ पर रखते ही हाथ टेढ़ा हो गया और साँस बन्द हो गयी । रुपये को हटा लेने पर तीन बार साँस कुछ जोर से चली तब हाथ कहीं ठीक हुआ । डाक्टर ने मास्टर से कहा, “Action on the nerves.” (स्नायु के ऊपर क्रिया)

The Master asked a devotee to bring a rupee. When Sri Ramakrishna held it in his hand, the hand began to writhe with pain. The Master's breathing also stopped. After the coin had been taken away, he breathed deeply three times and his hand relaxed. The doctor became speechless with wonder to see this strange phenomenon. The doctor said to M., "Action on the nerves."

এই বলিয়া একটি টাকা আনিতে বলিলেন। ডাক্তার দেখিয়া অবাক্‌ যে হাতের উপর টাকা দেওয়াতে হাত বাঁকিয়া গেল; আর নিঃশ্বাস বন্ধ হয়ে গেল। টাকাটি স্থানান্তরিত করিবার পর, ক্রমে ক্রমে তিনবার দীর্ঘনিঃশ্বাস পড়িয়া, তবে হাত পুনর্বার শিথিল হইল।ডাক্তার মাস্টারকে বলিতেছেন, Action on the nerves (স্নায়ুর উপর ক্রিয়া)।

[(मंगलवार, 2 सितंबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-121]

शंभु मल्लिक से अफीम लेना -कामारपुकुर में आम रोपना -संचय असम्भव 

][পূর্বকথা — শম্ভু মল্লিকের বাগানে আফিম সঞ্চয় — 

জন্মভূমি কামারপুকুরে আম পাড়া — সঞ্চয় অসম্ভব ]

श्रीरामकृष्ण डाक्टर से कह रहे हैं- “एक अवस्था और है । कुछ संचय नहीं किया जाता । एक दिन मैं शम्भु मल्लिक के बगीचे में गया था । उस समय पेट में बड़ी पीड़ा थी । शम्भु ने कहा, 'जरा जरा अफीम खाया कीजिये तो ठीक हो जायेगा ।’ मेरी धोती के छोर में जरासी अफीम उसने बाँध दी । जब लौटा आ रहा था तब फाटक के पास चक्कर आने लगा । रास्ता नहीं मिल रहा था । फिर जब अफीम खोलकर फेंक दी गयी तब फिर ज्यों की त्यों अवस्था हो गयी और मैं बगीचे में लौट आया ।

MASTER (to the doctor): "I get into another state of mind. It is impossible for me to lay up anything. One day I visited Sambhu Mallick's garden house. At that time I had been suffering badly from stomach trouble. Sambhu said to me: 'Take a grain of opium now and then. It will help you.' He tied a little opium in a corner of my cloth. As I was returning to the Kali temple, I began to wander about near the gate as if unable to find the way. Then I threw the opium away and at once regained my normal state. I returned to the temple garden.

ঠাকুর আবার ডাক্তারকে বলিতেছেন, ‘আর একটি অবস্থা আছে। কিছু সঞ্চয় করবার জো নাই! শম্ভু মল্লিকের বাগানে একদিন গিছলাম। তখন বড় পেটের অসুখ। শম্ভু বললে — একটু একটু আফিম খেও তাহলে কম পড়বে। আমার কাপড়ের খোঁটে একটু আফিম বেঁধে দিলে। যখন ফিরে আসছি, ফটকের কাছে, কে জানে ঘুরতে লাগলাম — যেন পথ খুঁজে পাচ্ছি না। তারপর যখন আফিমটা খুলে ফেলে দিলে, তখন আবার সহজ অবস্থা হয়ে বাগানে ফিরে এলাম।

“देश में मैं आम तोड़कर लिये आ रहा था, थोड़ी दूर जाने के बाद फिर चल न सका । खड़ा हो गया । फिर आमों को एक गढ़े में जब रख दिया तब कहीं घर आ सका । अच्छा, यह क्या है ?”

"One day at Kamarpukur I picked some mangoes. I was carrying them home. But I could not walk; I had to stay standing in one place. Then I left the mangoes in a hollow. Only after that could I return home. Well, how do you explain that?"

“দেশেও আম পেড়ে নিয়ে আসছি — আর চলতে পারলাম না, দাঁড়িয়ে পড়লাম। তারপর সেগুলো একটা ডোবের মতন জায়গায় রাখতে হল — তবে আসতে পারলাম! আচ্ছা, ওটা কি?”

डाक्टर - इसके पीछे एक शक्ति और है, मन की शक्ति ।

DOCTOR: "There is a force behind it. Will-force."

ডাক্তার — ওর পেছনে আর একটা (শক্তি) আছে, মনের শক্তি।

मणि - ये कहते हैं, यह ईश्वर की शक्ति है और आप बतलाते हैं, मन की शक्ति

M: "He [meaning the Master] says that it is God-force. You say that it is will-force."

মণি — ইনি বলেন, এটি ঈশ্বরের শক্তি (Godforce) আপনি বলছেন মনের শক্তি (Willforce)।

श्रीरामकृष्ण (डाक्टर से) - ऐसी भी अवस्था है - अगर कोई कहता है, ‘पीड़ा घट गयी,’ तो साथ ही साथ कुछ घट भी जाती है । उस दिन ब्राह्मणी ने कहा, ‘आठ आना बीमारी अच्छी हो गयी;’ उसके कहने के साथ ही मैं नाचने लगा ।

MASTER (to the doctor): "Again, I get into such a state of mind that if someone says I am better, I at once feel much better. The other day the brahmani said. 'You are fifty percent better. At once I began to dance."

শ্রীরামকৃষ্ণ (ডাক্তারের প্রতি) — আবার এমনি অবস্থা, যদি কেউ বললে, ‘কমে গেছে’ তো অমনি অনেকটা কমে যায়। সেদিন ব্রাহ্মণী বললে, ‘আট-আনা কমে গেছে’ — অমনি নাচতে লাগলুম!

डाक्टर का स्वभाव देखकर श्रीरामकृष्ण को प्रसन्नता हुई । वे डाक्टर से कह रहे हैं – “तुम्हारा स्वभाव अच्छा है । ज्ञान के दो लक्षण हैं, स्वभाव का शान्त हो जाना और अभिमान का लोप हो जाना ।”

Sri Ramakrishna was much pleased with the physician. He said to him: "You have a very fine nature. There are two characteristics of knowledge: a peaceful nature and absence of pride."

ঠাকুর ডাক্তারের স্বভাব দেখিয়া সন্তুষ্ট হইয়াছেন। তিনি ডাক্তারকে বলিতেছেন, ‘তোমার স্বভাবটি বেশ। জ্ঞানের দুটি লক্ষণ — শান্ত ভাব, আর অভিমান থাকবে না।”

मणि – इन्हें पत्नी-वियोग हो गया है ।

M: "The doctor has lost his wife."

মণি — এঁর (ডাক্তারের) স্ত্রী-বিয়োগ হয়েছে।

श्रीरामकृष्ण (डाक्टर से) - मैं कहता हूँ, इन तीन आकर्षणों के एकत्र होने पर ईश्वर मिलते हैं - माता का बच्चे पर, सती का पति पर तथा विषयी मनुष्य का विषय पर जैसा आकर्षण होता है ।

MASTER (to the doctor): "I say that God can be realized if one feels drawn to Him by the intensity of these three attractions: the child's attraction for the mother, the husband's attraction for the chaste wife, and the attraction of worldly possessions for the worldly man.

শ্রীরামকৃষ্ণ (ডাক্তারের প্রতি) — আমি বলি, তিন টান হলে ভগবানকে পাওয়া যায়। মায়ের ছেলের উপর টান, সতীর পতির উপর টান, বিষয়ীর বিষয়ের উপর টান।

“कुछ भी हो, भाई, मेरी यह बीमारी अच्छी कर दो ।”

"Please cure me of my illness."

“যা হোক, আমার বাবু এটা ভাল করো!”

डाक्टर अब गला देखेंगे । गोल बरामदे में एक कुर्सी पर श्रीरामकृष्ण बैठे । श्रीरामकृष्ण पहले डाक्टर सरकार की बात कह रहे हैं – “उसने खूब जोर से जीभ दबायी - जैसे बैल की हो !”

The doctor was going to examine the Master's throat. Sri Ramakrishna was seated in a chair on the semicircular porch. Referring to Dr. Sarkar, the Master said: "He is a villain. He pressed my tongue as if I were a cow."

ডাক্তার এইবার অসুখের স্থানটি দেখিবেন। গোল বারান্দায় একখানি কেদারাতে ঠাকুর বসিলেন। ঠাকুর প্রথমে ডাক্তার সরকারের কথা বলিতেছেন, “শ্যালা, যেন গরুর জিব টিপলে!”

डाक्टर - उन्होंने इच्छापूर्वक वैसा न किया होगा ।

DOCTOR: "He didn't hurt you purposely."

ভগবান — তিনি বোধ হয় ইচ্ছা করে ওরূপ করেন নাই।

श्रीरामकृष्ण - नहीं, ठीक ठीक जाँच करने के लिए उसने जीभ को दबाया ।

MASTER: "No, he pressed the tongue to make a thorough examination."

শ্রীরামকৃষ্ণ — না, তা নয় খুব ভাল করে দেখবে বলে টিপেছিল।

(४)

[(रविवार, 20 सितम्बर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-121]

अस्वस्थ श्रीरामकृष्ण तथा डाक्टर राखाल । भक्तों के साथ नृत्य ।

श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर मन्दिर में भक्तों के साथ अपने कमरे में बैठे हैं । रविवार, २० सितम्बर, १८८५ ई., शुक्ला एकादशी । नवगोपाल, हिन्दू स्कूल के शिक्षक हरलाल, राखाल, लाटू, कीर्तनकार गोस्वामी तथा अन्य लोग उपस्थित हैं । बड़ा/बहु बाजार के डाक्टर राखाल को साथ लेकर मास्टर आ पहुँचे । डाक्टर से श्रीरामकृष्ण के रोग की जाँच करायेंगे । डाक्टर देख रहे हैं कि श्रीरामकृष्ण के गले में क्या रोग हुआ है । वे मोटे आदमी हैं, उँगलियाँ मोटी मोटी हैं ।

Sri Ramakrishna was sitting in his room, surrounded by devotees. Navagopal, Haralal, Rakhal, Latu, and others were present. A Goswami who was a musician was also there. M. arrived with Dr. Rakhal of Bowbazar. The physician began to examine the Master. He was a stout person and had rather thick fingers.

শ্রীরামকৃষ্ণ দক্ষিণেশ্বর-মন্দিরে ভক্তসঙ্গে নিজের ঘরে বসিয়া আছেন। রবিবার, ২০শে সেপ্টেম্বর, ১৮৮৫ খ্রীষ্টাব্দ; ৫ই আশ্বিন; শুক্লা একাদশী। নবগোপাল, হিন্দু স্কুলের শিক্ষক হরলাল, রাখাল, লাটু প্রভৃতি; কীর্তনীয়া গোস্বামী; অনেকেই উপস্থিত। বহুবাজারের রাখাল ডাক্তারকে সঙ্গে করিয়া মাস্টার আসিয়া উপস্থিত; ডাক্তারকে ঠাকুরের অসুখ দেখাইবেন।ডাক্তারটি ঠাকুরের গলায় কি অসুখ হইয়াছে দেখিতেছেন। তিনি দোহারা লোক; আঙুলগুলি মোটা মোটা।

श्रीरामकृष्ण (हँसते हुए, डाक्टर से) - जो लोग ऐसा ऐसा करते है (अर्थात् कुश्ती लड़ते हैं) उनकी तरह हैं, तुम्हारी उँगलियाँ ! महेन्द्र सरकार ने देखा था, परन्तु जीभ को इतने जोर से दबा दिया था कि बहुत तकलीफ हुई । जैसे गाय की जीभ दबाकर पकड़ी हो !

MASTER (smiling, at the physician): "Your fingers are like a wrestler's. Mahendra Sarkar also examined me. He pressed my tongue so hard that it hurt me. He pressed my tongue the way they press a cow's."

শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে, ডাক্তারের প্রতি) — যারা এমন এমন করে (অর্থাৎ কুস্তি করে) তাদের মতো তোমার আঙুল। মহেন্দ্র সরকার দেখেছিল কিন্তু জিভ এমন জোরে চেপেছিল যে ভারী যন্ত্রণা হয়েছিল; যেমন গরুর জিভ চেপে ধরেছে।

डाक्टर राखाल - जी, मैं देखता हूँ, आपको कुछ कष्ट न होगा ।

DOCTOR: "I shall not hurt you, sir."

রাখাল ডাক্তার — আজ্ঞা, আমি দেখছি আপনার কিছু লাগবে না।

[(रविवार, 20 सितम्बर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-121]

[श्री रामकृष्ण की बीमारी क्यों? ]

[Why Sri Ramakrishna's disease? ]

[শ্রীরামকৃষ্ণের রোগ কেন? ]

डाक्टर द्वारा दवा की व्यवस्था करने के बाद श्रीरामकृष्ण फिर बातचीत कर रहे हैं ।

The physician made out his prescription. Sri Ramakrishna was talking.

ডাক্তার ব্যবস্থা করার পর শ্রীরামকৃষ্ণ আবার কথা কহিতেছেন।

श्रीरामकृष्ण (भक्तों के प्रति) – भला, लोग कहते हैं, ये यदि साधु हैं तो इन्हें रोग क्यों होता है ?

MASTER (to the devotees): "Well, people ask why, if I am such a holy person, I should be ill."

শ্রীরামকৃষ্ণ (ভক্তদের প্রতি) — আচ্ছা, লোকে বলে ইনি যদি এত — (এত সাধু) তবে রোগ হয় কেন?

तारक - भगवानदास बाबाजी बहुत दिनों तक रोग से बिस्तर पर पड़े रहे ।

TARAK: "Bhagavan Das Babaji, too, was ill and bed-ridden a long time."

তারক — ভগবানদাস বাবাজী অনেকদিন রোগে শয্যাগত হয়েছিলেন।

श्रीरामकृष्ण – मधु डाक्टर साठ वर्ष की अवस्था में अपनी 'mistress' (रखनी, गुरुवाइन) के लिए उसके घर पर खाना लेकर जाता है, और इधर उसे कोई रोग नहीं है ।

MASTER: "But look at Dr. Madhu. At the age of sixty, he carries food to the house of his mistress; and he has no illness."

শ্রীরামকৃষ্ণ — মধু ডাক্তার, ষাট বছর বয়সে রাঁড়ের জন্য তার বাসায় ভাত নিয়ে যাবে; এদিকে নিজের কোন রোগ নাই।

गोस्वामी - जी, आपका जो रोग है, यह दूसरों के लिए है । जो लोग आपके यहाँ आते हैं, उनका अपराध आपको लेना पड़ता है । उन्हीं सब अपराध-पापों को लेने से आपको रोग होता है ।

GOSWAMI: "Sir, your illness is for the sake of others. You take upon yourself the sins of those who come to you. You fall ill because you accept their sins."

গোস্বামী — আজ্ঞা, আপনার যে অসুখ সে পরের জন্য; যারা আপনার কাছে আসে তাদের অপরাধ আপনার নিতে হয়, সেই সকল অপরাধ, পাপ লওয়াতে আপনার অসুখ হয়!

एक भक्त - यदि आप माँ से कहें, ‘माँ, इस रोग को मिटा दो’, तो जल्द ही मिट जाय ।

A DEVOTEE: "You will soon be cured if only you say to the Divine Mother, 'Mother, please make me well.'"

একজন ভক্ত — আপনি যদি মাকে বলেন মা, এই রোগটা সারিয়ে দাও, তা হলে শীঘ্র সেরে যায়।

[(रविवार, 20 सितम्बर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-121]

[सेव्य-सेवक भाव कम  - इन दिनों 'मैं' (सेवक) नहीं मिलता]

[সেব্য-সেবকভাব কম — ‘আমি’ খুঁজে পাচ্ছি না ]

श्रीरामकृष्ण - रोग मिटाने की बात कह नहीं सकता; फिर हाल में सेव्य-सेवक भाव कम हो रहा है । एक बार कहता हूँ, ‘माँ, तलवार के खोल की जरा मरम्मत कर दो’, परन्तु उस प्रकार की प्रार्थना कम होती जा रही है । आजकल ‘मैं’ को खोजने पर भी नहीं पाता । देखता हूँ, वे ही इस खोल में विद्यमान हैं

MASTER: "I cannot ask God to cure my disease. My attitude of the servant-master relationship is nowadays less strong in me. Once in a while I say, 'O Mother, please mend the sheath (The Master referred to his body.) of the sword a little.' But such prayers are also becoming less frequent. Nowadays I do not find my 'I'; I see that it is God alone who resides in this sheath."

শ্রীরামকৃষ্ণ — রোগ সারাবার কথা বলতে পারি না; আবার ইদানীং সেব্য-সেবক ভাব কম পড়ে যাচ্ছে। এক-একবার বলি, ‘মা, তরবারির খাপটা একটু মেরামত করে দাও’; কিন্তু ওরূপ প্রার্থনা কম পড়ে যাচ্ছে; আজকাল ‘আমি’টা খুঁজে পাচ্ছি না। দেখছি তিনিই এই খোলটার ভিতরে রয়েছেন।

कीर्तन के लिए गोस्वामी को लाया गया है । एक भक्त ने पूछा, ‘क्या कीर्तन होगा ?’ श्रीरामकृष्ण अस्वस्थ हैं, कीर्तन होने पर भावावस्था आयेगी, यही सब को भय है ।

The Goswami had been invited to sing kirtan. A devotee asked, "Will there be any kirtan?" Sri Ramakrishna was ill, and all were afraid that the kirtan might throw his mind into ecstasy and thus aggravate the illness.

কীর্তনের জন্য গোস্বামীকে আনা হইয়াছে। একজন ভক্ত জিজ্ঞাসা করিলেন, ‘কীর্তন কি হবে?’ শ্রীরামকৃষ্ণ অসুস্থ, কীর্তন হইলে মত্ততা আসিবে; এই ভয় সকলে করিতেছেন।

श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं, “होने दो थोड़ा सा । कहते हैं, मेरा भाव होता है – इसीलिए भय होता है । भाव होने पर गले के उसी स्थान में जाकर लगता है ।”

Sri Ramakrishna said: "Let there be a little singing. All are afraid of my going into ecstasy. Spiritual emotion hurts the throat."

শ্রীরামকৃষ্ণ বলিতেছেন, “হোক একটু। আমার নাকি ভাব হয়, তাই ভয় হয়। ভাব হলে গলার ওইখানটা গিয়ে লাগে।”

कीर्तन सुनते सुनते श्रीरामकृष्ण भाव को सम्हाल न सके । खड़े हो गये और भक्तों के साथ नृत्य करने लगे ।

The Goswami began the kirtan. Sri Ramakrishna could not control himself. He stood up and began to dance with the devotees. The physician watched the whole scene.

কীর্তন শুনিতে শুনিতে ঠাকুর ভাব সম্বরণ করিতে পারিলেন না; দাঁড়াইয়া পড়িলেন ও ভক্ত সঙ্গে নৃত্য করিতে লাগিলেন।

डाक्टर राखाल ने सब देखा, उनकी किराये की गाड़ी खड़ी है । वे और मास्टर उठ खड़े हुए, - कलकत्ता जायेंगे । दोनों ने श्रीरामकृष्णदेव को प्रणाम किया । श्रीरामकृष्ण (स्नेह के साथ, मास्टर के प्रति) - क्या तुमने खाया है ?

A hired carriage was waiting for Dr. Rakhal. He and M. were ready to leave for Calcutta. They saluted the Master. Sri Ramakrishna said to M. affectionately, "Have you had your meal?"

ডাক্তার রাখাল সমস্ত দেখিলেন; তাঁহার ভাড়াটিয়া গাড়ি দাঁড়িয়া আছে। তিনি ও মাস্টার গাত্রোত্থান করিলেন, কলিকাতায় ফিরিয়া যাইবেন। ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণকে উভয়ে প্রণাম করিলেন। শ্রীরামকৃষ্ণ (সস্নেহে মাস্টারের প্রতি) — তুমি কি খেয়েছ?

[(रविवार, 24 सितम्बर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-121]

🙏आत्मविश्वास का उपदेश – ‘देह’ खोल (shell, કોટલુંआवरण, सीपी, शंख) मात्र है !🙏

 Preaching of self-confidence - 'Body' is just a shell!

[মাস্টারের প্রতি আত্ম জ্ঞানের উপদেশ — ‘দেহটা খোলা মাত্র’ ]

बृहस्पतिवार, २४ सितम्बर, पूर्णिमा की रात को श्रीरामकृष्ण अपने कमरे में तख्त पर बैठे हैं । गले के रोग से पीड़ित हैं । मास्टर आदि भक्तगण जमीन पर बैठे हैं ।

It was the night of the full moon. Sri Ramakrishna was sitting on the small couch. He was very ill. M. and some other devotees were sitting on the floor.

বৃহস্পতিবার, ২৪শে সেপ্টেম্বর পূর্ণিমার দিন রাত্রে শ্রীরামকৃষ্ণ তাঁহার ঘরের ছোট খাটটির উপর বসিয়া আছেন। গলার অসুখের জন্য কাতর হইয়াছেন। মাস্টার প্রভৃতি ভক্তেরা মেঝেতে বসিয়া আছেন।

श्रीरामकृष्ण (मास्टर के प्रति) - कभी कभी सोचता हूँ, यह देह केवल खोल है । उस अखण्ड (सच्चिदानन्द) के अतिरिक्त और कुछ नहीं है ।

MASTER (to M.): "Every now and then I think that the body is a mere Shell. The only real substance is the Indivisible Satchidananda.

শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — এক-একবার ভাবি দেহটা খোল মাত্র; সেই অখণ্ড (সচ্চিদানন্দ) বই আর কিছু নাই।

[(रविवार, 24 सितम्बर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-121]

ब्रह्मिवद गुरु को भयंकर शरीरक कष्ट में भी  खुद की लीला पर हँसी आती है  

“भाव का आवेश (divine ecstasy, दिव्यानन्द या दिव्य परमानन्द ) होने पर गले का रोग एक किनारे पड़ा रहता है । अब थोड़ा-थोड़ा वह भाव हो रहा है और हँसी आ रही है ।”

"When I go into divine ecstasy this illness of the throat remains away from me. I am now somewhat in that mood and so I feel like laughing."

“ভাবাবেশ হলে গলার অসুখটা একপাশে পড়ে থাকে। এখন ওই ভাবটা একটু একটু হচ্ছে, আর হাসি পাচ্ছে।”

द्विज की बहन (= श्री म की स्त्री ?) और छोटी दादी श्रीरामकृष्ण की अस्वस्थता का समाचार पाकर देखने के लिए आयी हैं । वे प्रणाम करके कमरे के एक कोने में बैठीं । द्विज की दादी को श्रीरामकृष्ण कह रहे है, “ये कौन हैं ? जिन्होंने द्विज को पाला पोसा है ? अच्छा, द्विज ने एकतारा क्यों खरीदा है ?”

Some ladies of Dwija's family arrived. They saluted the Master and sat on one side. Pointing to one of the ladies, Sri Ramakrishna asked: "Who is this lady? Is it she who brought up Dwija? Why has Dwija bought an ektara?"

দ্বিজর ভগিনী ও ছোট দিদিমা ঠাকুরের অসুখ শুনিয়া দেখিতে আসিয়াছেন; তাঁহারা প্রণাম করিয়া ঘরের একপাশে বসিলেন। দ্বিজর দিদিমাকে দেখিয়া ঠাকুর বলিতেছেন, “ইনি কে? — যিনি দ্বিজকে মানুষ করেছেন? আচ্ছা দ্বিজ এমন এমন (একতারা) কিনেছে কেন?

मास्टर – जी, उसमें दो तार हैं ।

M: "It has two strings, sir."

মাস্টার — আজ্ঞা, তাতে দুইতার আছে।

श्रीरामकृष्ण - उसके पिता उसके विरोधी हैं । सब लोग क्या कहेंगे ? उसको तो गुप्त रूप से ईश्वर को पुकारना ही ठीक है ।

MASTER: "Dwija's father is opposed to his views. Won't other people criticize him? It is wise for him to pray to God secretly."

শ্রীরামকৃষ্ণ — একে ওর বাবা বিরুদ্ধ; সব্বাই কি বলবে? ওর পক্ষে গোপনে (ঈশ্বরকে) ডাকাই ভাল।

श्रीरामकृष्ण के कमरे की दीवाल पर टँगा हुआ गौर-निताई का एक चित्र था । गौर-निताई दल-बल के साथ नवद्वीप में संकीर्तन कर रहे हैं - वह इसी का चित्र है ।

A picture of Gauranga and Nitai hung on the wall of the Master's room. It was a picture of the two brothers singing devotional songs with their companions at Navadvip.

শ্রীরামকৃষ্ণের ঘরে দেয়ালে টাঙ্গানো গৌর নিতাইয়ের ছবি একখানা বেশি ছিল; গৌর নিতাই সাঙ্গোপাঙ্গ লইয়া নবদ্বীপে সংকীর্তন করছেন এই ছবি।

रामलाल (श्रीरामकृष्ण के प्रति) - तो फिर यह चित्र इन्हें ही (मास्टर को) देता हूँ ।

RAMLAL (to the Master): "Then may I give him [meaning M.] the picture?"

রামলাল (শ্রীরামকৃষ্ণের প্রতি) — তাহলে, ছবিখানা এঁকেই (মাস্টারকে) দিলাম।

श्रीरामकृष्ण - बहुत अच्छा, दे दो ।

MASTER: "Yes."

শ্রীরামকৃষ্ণ — আচ্ছা; তা বেশ।

श्रीरामकृष्ण कुछ दिनों से प्रताप की दवा ले रहे हैं । आज रात रहते ही उठ पड़े हैं, इसलिए मन बेचैन है । हरीश सेवा करते हैं, उसी कमरे में हैं, वहीं राखाल भी हैं । श्रीरामलाल बाहर के बरामदे में सो रहे हैं । श्रीरामकृष्ण ने बाद में कहा, ‘प्राण बेचैन होने से हरीश को बाँह में लेने की इच्छा हुई । थोड़ा सिर पर नारायण तेल मालिश करने से अच्छा हुआ, तब फिर नाचने लगा ।’

Sri Ramakrishna was then under Dr. Pratap's treatment. He awoke at midnight and felt extremely restless. Harish, his attendant, was in the room. Rakhal also was there. Ramlal was asleep on the verandah. The Master remarked later on: "I was feeling extremely restless. I felt like embracing Harish. They rubbed a little medicinal oil on my head. Then I began to dance."

ঠাকুর কয়েকদিন প্রতাপের ঔষধ খাইতেছেন। গভীর রাত্রে উঠিয়া পড়িয়াছেন, প্রাণ আই-ঢাই করিতেছে। হরিশ সেবা করেন, ওই ঘরেই ছিলেন; রাখালও আছেন; শ্রীযুক্ত রামলাল বাহিরে বারান্দায় শুইয়া আছেন। ঠাকুর পরে বলিলেন, “প্রাণ আই-ঢাই করাতে হরিশকে জড়াতে ইচ্ছা হল; মধ্যম নারায়ণ তেল দেওয়াতে ভাল হলাম, তখন আবার নাচতে লাগলাম।”

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*राग विलावल ॥२१॥ (गायन समय प्रातः ६ से ९)*

🔱🙏*जब मैं 'रहते' की 'रह' जानी ।*🔱🙏

काल काया के निकट न आवै, पावत है सुख प्राणी ॥टेक॥*

जब मुझे निश्चल परब्रह्म परमात्मा का अभेद ज्ञान प्राप्त हुआ,  तभी से काम क्रोध विकार मुझे स्पर्श भी नहीं कर सकते । किन्तु मैं परम सुखी हूँ । 

*शोक संताप नैन नहिं देखूं, राग द्वेष नहिं आवै ।*

*जागत है जासौं रुचि मेरी, स्वप्नै सोइ दिखावै ॥१॥*

शोक संताप आदि दोष मेरे से दूर ही खड़े रहते हैं। मेरे पास नहीं आते राग द्वेष मद मात्सर्यमोह आदि चित्त के दोष जो ज्ञान के प्रतिबन्धक माने जाते हैं, वे पता नहीं कहां भाग गये । जाग्रत् अवस्था में ब्रह्माकारवृत्ति से जिस ब्रह्म को देखता हूँ उसी का स्वप्न में मुझे भान होता है ।

*भरम कर्म मोह नहिं ममता, वाद विवाद न जानूं ।*

*मोहन सौं मेरी बन आई, रसना सोई बखानूं ॥२॥*

 शुद्ध बोध स्वरूप होने से वाद विवाद तो कभी याद ही नहीं आते । विश्व को मोहित करने वाले (Hypnotized करने वाले)  'मोहन भगवान्' (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण) में मेरा बहुत प्रेम हो रहा है । मैं अपनी वाणी से उसी का यशोगान करता हूँ और उसी का नाम स्मरण करता हूँ । कृतकृत्य होने से मेरे लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं है । जिसको जानना था वह जाना गया अतः मेरे लिये कोई ज्ञातव्य शेष नहीं है मोह ममता रूपी हिरण्यकशिपु महादैत्य को आत्मसाक्षात्कार रूपी नृसिंह देव (सिम्हाचलं पर्वत पर विराजमान नवनीदा) ने नष्ट कर डाला । 

*निशिवासर मोहन तन मेरे, चरण कँवल मन जानै ।*

*निधि निरख देख सचु पाऊँ, दादू और न जानै ॥३॥*

[निशिवासर = रातदिन । सदा । सर्वदा । हमेशा । 

मेरे हृदय में तो विशेष रूप से भगवान् ही विराज रहे हैं । मेरा मन उन्हीं के चरणों में संतुष्ट हो रहा है । अहो मैं उस परमानन्द को हाथ में रखे हुए आवलां की तरह प्रत्यक्ष जान कर कृतकृत्य हो गया हूँ । मैं केवल शुद्ध बोधरूप से स्फुरित हो रहा हूँ । 

निष्कर्ष : योगवासिष्ठ में लिखा है कि – हे वत्स राम ! जैसे सरोवर में गिरे हुए पत्ते, जल, मल (काई आदि) और काष्ठ;  यद्यपि परस्पर संबद्ध रहते हैं तथापि भीतरी संग से (आसक्ति) से रहित होने का कारण, वे कभी दुःखी ही नहीं होते । उसी तरह यद्यपि (आत्मज्ञानी -ब्रह्मविद की) आत्मा-भी देह, इन्द्रियें और मन, परस्पर पूर्णतया संबद्ध है;  तथापि अन्तःकरण में आसक्ति का अभाव होने से,  ज्ञानी (ब्रह्मविद) महात्मा सदा सर्वदा दुःख रहित (वैराग्य सम्पन्न) ही रहता है

साभार > @@https://aneela-daduji.blogspot.com/2023/06/महामण्डलेश्वर स्वामी अर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं । *(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #३४३)*  भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।

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पिबत भागवतं रसमालयं

कुछ लोग शंका करते हैं कि भगवान्‌ को अवतार लेने की क्या जरूरत है ? क्या वे साधुओं की रक्षा, दुष्टों का विनाश और धर्म की स्थापना संकल्पमात्र से नहीं कर सकते ? कर नहीं सकते, यह बात नहीं । वे तो करते ही रहते हैं फिर अवतार लेने में क्या कारण है ?

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।

धर्मसंस्थापनार्थाय    संभवामि   युगे   युगे ॥

                                              (गीता ४ । ८)

दुष्टों का विनाश, भक्तों का परित्राण (रक्षा) और धर्म की अच्छी तरह से स्थापना, इसके लिये भगवान् अवतार लेते हैं । दुष्टों का विनाश करना, भक्तों की रक्षा करना । इसका अर्थ यह नहीं कि दुष्टों को मार देना और भक्तों को न मरने देना, पर भक्त भी तो मर जाते हैं । तो रक्षा का अर्थ उनके शरीरों को ‘है ज्यों कायम रखना’‒यह नहीं है । इसका अर्थ है ‘उनके भावोंकी रक्षा ।’ भक्त की दृष्टि में शरीर नश्वर है, ईश्वर की भक्ति का अवसर है, अवतार वरिष्ठ की भक्ति के सिवा शरीर का कोई मूल्य नहीं है । वहाँ मूल्य है ‘भगवद्‌भक्ति’ का । भगवान्‌ की तरफ चलने वाले मंसूर  आदि ने 'अनल हक ' कहते हुए फाँसी स्वीकार कर ली हँसते-हँसते । शरीर के साथ मोह रखने का, उनकी कोई इच्छा नहीं है । इसको तो ‘एकान्तविध्वंसिषु’ कहा है । यह नष्ट होनेवाला ही है, यह तो नष्ट होनेवाली चीज है‒‘पिण्डेषु नास्था भवन्ति तेषु ।’ 

भगवान् अवतार लेकर अपने पार्षदों की सहायता से लीला करते हैं । उस लीला को गा-गाकर भक्त मस्त होते रहते हैं । यह बिना अवतार के नहीं हो सकता। भगवान्‌ की चर्चा चलती है, कथा चलती है, लीला चलती है । यह सब अवतार होने से ही हो सकता है । तो लोग गा-गाकर संसार से तरते जाते हैं और तरते ही रहते हैं । भगवान् इस तत्त्व को जानते हैं । इस वास्ते अवतार लेकर लीला करते हैं और संत-महात्मा भी इस वास्ते भगवच्चर्चा करते हैं ।

तव कथामृतं तप्तजीवनं कविभिरीडितं कल्मषापहम्।

श्रवणमंगलं श्रीमदाततं भुवि गृणन्ति ते‌ भूरिदा जना:।।

शब्दार्थ : तव—तुम्हारे; कथा-अमृतम्—शब्दों का अमृत; तप्त-जीवनम्—भौतिक जगत में दुखियारों का जीवन (—the life of the afflicted in the material world) ; कविभि:—बड़े बड़े चिन्तकों द्वारा(by great thinkers); ईडितम्—वर्णित; कल्मष-अपहम्—पापों को भगाने वाला(the destroyer of sins) ; श्रवण-मङ्गलम्—सुनने पर आध्यात्मिक लाभ देने वाला (one who gives spiritual benefit on hearing); शृईमत्—आध्यात्मिक शक्ति से पूर्ण(—full of spiritual energy); आततम्—संसार-भर में विस्तीर्ण (pervaded throughout the world); भुवि—भौतिक जगत में; गृणन्ति—कीर्तन तथा प्रसार करते हैं; ये—जो लोग; भूरि-दा:—अत्यन्त उपकारी; जना:—व्यक्ति

अनुवाद>आपके शब्दों का अमृत तथा आपकी लीलाओं का वर्णन इस भौतिक जगत में कष्ट भोगने वालों के जीवन और प्राण हैं। विद्वान मुनियों द्वारा प्रसारित ये कथाएँ मनुष्य के पापों को समूल नष्ट करती हैं और सुनने वालों को सौभाग्य प्रदान करती हैं। ये कथाएँ जगत-भर में विस्तीर्ण हैं और आध्यात्मिक शक्ति से ओतप्रोत हैं। निश्चय ही जो लोग भगवान् (श्रीरामकृष्ण) के जीवन और सन्देश का प्रचार-प्रसार करते हैं, वे सबसे बड़े दाता हैं

जो आप की कथामृत को कहते हैं, सुनते हैं, विचार करते हैं, वे ‘भूरिदाः’ बहुत देने वाले हैं। लेकिन 'Be and Make' साथ-साथ चलने वाली प्रक्रिया है, जो अवतार वरिष्ठ के जीवन और सन्देश प्रचार -प्रसार करने में लगे रहते हैं,  वे तो देने वाले भी हैं और लेने वाले भी हैं । मानो सुनने वालों को देते हैं और सुन-सुन कर स्वयं भी उसका आनन्द लेते हैं । सुनने वालों को लाभ होता है तो क्या कहने वालों को कोई लाभ नहीं होता ? होता ही है । इस वास्ते भगवान् अवतार लेकर लीला करते हैं, तो भक्तों की रक्षा क्या है ? भक्तों का धन हैं भगवान् । उन भगवान्‌ की लीला कहते, सुनते, विचार करते रहें‒यही वास्तव में भक्तों की रक्षा है और इस वास्ते ही हनुमान्‌जी को ‘प्रभु चरित्र  सुनिबे को रसिया’ कहा है । भगवान्‌ का चरित्र सुनने के लिये वे रसिया हैं रसिया । वाल्मीकि रामायण में आता है कि जब भगवान् दिव्य साकेतलोक जाने लगे तो हनुमान्‌जी ने कहा मैं साथ नहीं चलूँगा । जब तक आपकी कथा भूमण्डलपर रहेगी, मैं भूमण्डलपर रहूँगा । जहाँ-जहाँ आपकी कथा होगी, वहाँ-वहाँ सुनूँगा । इस प्रकार हनुमानजी के लिए भगवान्‌ श्रीराम से बढ़कर उनके नाम का प्रचार करना अधिक रुचिकर है ; प्रभु को छोड़कर उनकी लीला कथा का लोभ लगा उनको ।

भगवान्‌ को देखने से गरुड़जी को मोह हो गया । भगवान्‌ को देखने से काकभुशुण्डिजी को मोह हो गया, भगवान्‌ को देखने से नारदजी को मोह हो गया । भगवान्‌ श्रीराम को देखने से सती को मोह हो गया और वह रामायण सुनने से मिट गया । भगवान्‌ को देखने से गरुड़जी को मोह हो गया और चरित्र सुनने से मोह दूर हो गया । यह तो जानते ही हैं आप ! तो भगवान्‌ से बढ़कर भगवान्‌ के चरित्र हैं, उनका जीवन और सन्देश है । यही भक्तों की रक्षा है कि इस चर्चा को करते रहें । अपने भाई लोग जो कि पारमार्थिक मार्ग में चलना चाहते हैं, उनका विचार रहता है कि अच्छे महात्माओं का संग करें । ऊँचे दर्जे के संत-पुरुष हों तो उनका हम संग करें । यह भाव रहता है और यह ठीक ही है उचित ही है ! परन्तु इसी अटकल को महात्मा पुरुष लगा लें अपने लिये तो वे अपने से ऊँचोंका संग करेंगे । वे उनसे ऊँचों का, भगवान्‌ का ही संग करेंगे । फिर हमारे साथ माथा-पच्ची कौन करेगा !

भगवान् अवतार लेते हैं । अवतार का अर्थ होता  है ‘उतरना’ । अवतार तो नीचे उतरने को कहते हैं । तो भगवान् नीचे उतरते हैं, हम जहाँ हैं वहाँ । जैसे बालक को आप पढ़ाओगे तो आप भी ‘क’ ‘क’ कहोगे और हाथसे ‘क’ लिखोगे तो यह क्या हुआ ? आपका बालक की अवस्थामें अवतार हुआ । उस अवस्था में न उतरें तो आप बालक को कैसे सिखायेंगे ? कैसे समझायेंगे ? अब उसको व्याकरण की बात समझाने लगें तो बच्चा क्या समझेगा ? वहाँ तो ‘क’ कहते रहो । हाथसे लिखाते रहो कि ऐसा ‘क’ होता है तो उसके समकक्ष होकर सिखाते हैं । ऐसे भगवान् अवतार लेकर कहते हैं‒कैसे करो ? कि हम करते हैं जैसे करो । ‘रामादिवत् वर्तितव्यं न रावणादिवत्’ ऐसे करना चाहिये, ऐसे नहीं करना चाहिये । जैसे मैं अवतार लेकर लीला करता हूँ । ऐसे तुम भी करो, तुम 5 युवाओं को साथ लेकर साप्ताहिक पाठचक्र और युवा प्रशिक्षण शिविर का आयोजन करो;  और न करो तो सुनो बैठे-बैठे; क्योंकि ‘श्रवणमंगलम्’ भगवान्‌ की कथा श्रवणमात्र से भी मंगल देनेवाली है।

>>>सत्संग (पाठचक्र) की आवश्यकता : महामण्डल के किसी भाई ने एक व्यक्ति से पाठचक्र में चलने को कहा, तो वह व्यक्ति बोला‒‘मैं पाप नहीं करता, अतः मुझे पाठचक्र में या युवा -प्रशिक्षण शिविर में जाने की आवश्यकता नहीं । पाठचक्र में वे जाते हैं, जो पापी होते हैं । वे पाठचक्र में जाकर अपने पाप दूर करते हैं । जिस प्रकार अस्पताल में रोगी जाते हैं और अपना रोग दूर करते हैं । निरोग व्यक्ति को अस्पताल में जानेकी क्या आवश्यकता ? जब हम पाप नहीं करते तो हम सत्संग में क्यों जायें ? ऊपर से देखने पर यह बात ठीक भी दीखती है । अब इस बात को ध्यान देकर समझें । श्रीमद्भागवत में एक श्लोक आता है‒

निवृत्ततर्षैरुपगीयमानाद् वौषधाच्छ्रोत्रमनोऽभिरामात् ।

क उत्तमश्लोकगुणानुवादात्‌ पुमान्‌ विरज्येत विना पशुघ्नात् ॥

(श्रीमद्भा॰१०।१।४)

जो साधारण संसारी मनुष्य हैं, साधन भी नहीं करते‒उनके भी मन को, कानों को, सत्संग की बातें अच्छी लगती हैं‒‘श्रोत्रमनोऽभिरामात्’, सत्संग से एक प्रकार की शान्ति मिलती है, स्वाभाविक मिठास आती है । इसलिये तीन प्रकार के मनुष्यों का वर्णन किया‒

(१) निवृत्ततर्षैरुपगीयमानात् (सिद्ध)

(२) भवौषधात् (साधक)

(३) श्रोत्रमनोऽभिरामात् (विषयी)

भगवान्‌ के गुणानुवाद से (अवतार वरिष्ठ के वचनामृत से) उपराम कौन होते हैं ? जो नहीं सुनना चाहते । वे ‘पशुघ्न’ होते हैं अर्थात् महान् घातक (कसाई) होते हैं । ‘क उत्तमश्लोकगुणानुवादात् पुमान् विरज्येत’ कौन भगवान्‌ के गुणनुवाद सुने बिना रह सकता है ? ‘विना पशुघ्रात्’ पशुघ्रातीके सिवाय ।

पापवंत  कर    सहज  सुभाऊ ।

भजनु मोर तेहि भाव न काऊ ॥

                    (मानस, सुन्दर॰ ४४/३)

महान् पापी अथवा ज्ञान का दुश्मन‒इनके सिवाय हरिकथा से विरक्त कौन होगा ? भगवान्‌ की कथा गरूड़, सती आदि के मोह को दूर करती है, इसका तात्पर्य यह है कि जिनको मोह हो गया, वे भी सत्संग के अधिकारी है तो जिनको मोह नहीं है, वे तत्त्वज्ञ पुरुष भी अधिकारी है तथा घोर संसारी आदमी सुनना चाहें तो वे भी अधिकारी हैं । कोई ज्ञान का दुश्मन ही हो तो उसकी बात अलग है । यदि किसी व्यक्ति की श्रीहरि-कथा में रुचि ही नहीं है, तो भाई ! कहना पड़ेगा कि तुम्हारा अन्तःकरण अभी भी बहुत मैला है । मामूली मैला नहीं है । मामूली मैला होगा तो स्वच्छ हो जायगा, परन्तु ज्यादा मैला होने से सत्संग अच्छा नहीं लग सकता ।  गोस्वामी तुलसीदास कृत विनयपत्रिका (८२) में कहा गया है - साभार @@@ https://sanskritdocuments.org/doc_z_otherlang_hindi/Vinaypatrika_i.html

मोहजनित मल लाग बिबिध बिधि कोटिहु जतन न जाई।

जनम जनम अभ्यास-निरत चित, अधिक अधिक लपटाई ॥ १ ॥ 

महामण्डल साप्तहिक पाठचक्र की सत्संगति सब मैलों को दूर करती है; परन्तु नियमित रूप से ठीक समय पर पाठचक्र में पहुँचकर सत्संग करते रहना पड़ता है। यदि मनुष्य सत्संगति करे ही नहीं तो मैल दूर कैसे हो ? पित्त का बुखार होने से मिश्री कड़वी लगती है, सत्संग कैसे करें ? तो कड़वी लगने पर भी खाते रहो । मिश्री में खुद में ताकत है कि वह पित्त को शान्त कर देगी और मीठी लगने लग जायगी । ऐसे ही सत्संग-भजनमें रुचि न हो तो भी सत्संग-भजन करते रहने से ज्यों-ज्यों पाप नष्ट होने लगेंगे, त्यों-त्यों सत्संग में मिठास आने लगेगा ।

जिस मिठाई को हम चखे ही नहीं, उसका स्वाद हम कैसे जान सकते हैं  ? ऐसे ही जिन्होंने सत्संग किया ही नहीं, वे इसकी विशेषता नहीं जानते, फिर भी कह देते हैं कि हमने बहुत सत्संग सुना है। तो समझ लेना चाहिये कि उन्होंने विशेष सत्संग किया ही नहीं, अन्यथा सत्संग में रुचि अवश्य बढ़ती—

राम चरित जे  सुनत  अघाहीं ।

रस बिसेष जाना तिन्ह नाहीं ॥

(मानस, उत्तर. ५३/१)

जो मनुष्य भगवान्‌के चरित्र सुनते हैं और तृप्त हो जाते हैं, उन्होंने राम-कथाका विशेष रस जाना ही नहीं । अन्यथा—

जिन्ह के श्रवन    समुद्र समाना ।

कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना ॥

भरहिं  निरंतर  होहिं  न पूरे ।

...................................॥

(मानस, अयोध्या॰ १२८/४-५)

आपकी कथाएँ नदियों के समान और उन सत्संग-प्रेमियों के कान ऐसे समुद्र के समान हैं; जो निरन्तर कथारूपी नदियों के गिरने (मिलने)-पर भी कभी पूरे भरते नहीं हैं । राजा पृथु ने भगवान्‌ की कथा सुननेके लिये दस हजार कान माँगे । कोई पागल व्यक्ति जैसे मुँह सँभालकर बात नहीं कर  सकता—ऐसे ही संसारी पुरुष (कौण्डिन्य प्रिंसपल के मित्र ?) सत्संग के बारे में (उसके संस्थापक के बारे में) उलटी-सीधी बातें कहते हैं—

बातुल भूत बिबस मतवारे। ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे॥

जिन्ह कृत महामोह मद पाना। तिन्ह कर कहा करिअ नहिं काना॥

(मानस, बाल॰ ११५/७)

भावार्थ-जिन्हें वायु का रोग (सन्निपात, उन्माद आदि) हो गया हो, जो भूत के वश हो गए हैं और जो नशे में चूर हैं, ऐसे लोग विचारकर वचन नहीं बोलते। जिन्होंने महामोहरूपी मदिरा पी रखी है, उनके कहने पर कान नहीं देना चाहिए।(मानस, बाल॰ ११५/७)

ऐसे लोगोंके पैरोंमें पड़ जाओ । उनसे कहो—‘आप पवित्र हो, बड़ी अच्छी बात है । आप सत्संग में पधारो । अन्य सत्संग में आनेवाले लोगों को पवित्र करो ।’ ऐसे कहकर उन्हें सत्संग में बुलाओ । नहीं आवे तो उनकी मरजी । गाली दें तो सह लो । जो गाली सुनाता है वह तो हमारे पापों को दूर करता है ।

जहाँ भक्तों की चर्चा होती है, वहाँ भगवान्‌ स्वयं पधारते हैं । नाभाजी महाराज ने ‘भक्तमाल’ की रचना की ।  उसके ऊपर प्रियादास जी महाराज ने कविता में टीका लिखी है। ये स्वयं ठाकुर- माँ - स्वामी जी का सिंहासन लगाकर, उन्हें कथा सुनाते थे । उनकी कथा में अनेक धनिक लोग भी आते थे । धनिकों के आने से खतरा होता है । कुछ चोरों ने देखा कि यहाँ इतने धनी आदमी आते हैं, हम भी चलें । और कुछ नहीं मिला तो चोरों ने ठाकुरजी की प्रतिमा ही चोरी कर ली । प्रियादासजी महाराज ने कहा‒‘हमारे मुख्य श्रोता चले गये, अब कथा किसे सुनावें ? कथा बन्द । ठाकुरजी चले गये । अब भोग किसे लगावें ? भोजन बनाना बन्द ! भूखे रहे । कथा भी बन्द रही । उधर चोरों के बड़ी खलबली मची । वे वापस लाकर ठाकुरजी को दे देते हैं । जब ठाकुरजी आ गये तो स्नान किया, ठाकुरजी को स्नान, श्रृंगार कराया । रसोई बनायी, भोग लगाया । उसके बाद कथा चली । जब कथा चली, तो लास्ट Sunday को  प्रसंग कहाँ तक चला था ‒ऐसा किसी को याद नहीं रहा, तब ठाकुर जी स्वयं बोल पड़े कि अमुक प्रसंग तक कथा हुई थी । इस प्रकार स्वयं श्रीभगवान्‌ भक्तों की कथा ध्यानपूर्वक सुनते हैं । सूर्योदय होता है तो अन्धकार दूर हो जाता है, पर वह बाहरी अन्धकार होता है; किन्तु जब सत्संगरूपी सूर्य उदय होता है तो उससे भीतर (अन्तःकरण)-में रहनेवाला अँधेरा दूर हो जाता है । पाप दूर हो जाते हैं । शंकाएँ दूर हो जाती हैं । अन्तःकरण में रहने वाली तरह-तरह की उलझनें सुलझ जाती हैं।

भगवान्‌ और सन्तोंकी जब पूर्ण कृपा होती है तब सत्संगति मिलती है, विभीषण ने हनुमानजी से कहा‒

अब  मोहि भा  भरोस  हनुमंता ।

बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं संता ॥

(मानस, सुन्दर॰७/४)

‘हे हनुमानजी ! अब मुझे पक्का भरोसा हो गया कि भगवान्‌ जरूर मिलेंगे । आप मिल गये, इससे मालूम होता है कि श्रीभगवान्‌ ने मुझपर विशेष कृपा की है ।’ भगवान्‌ विशेष कृपा करते हैं तभी अपने प्यारे भक्तों का संग देते हैं ।

महामण्डल के साप्ताहिक पाठचक्र में नियमित जाते रहने से बहुत शान्ति मिलती है । मुझे कई भाई-बहिन ऐसे  मिले हैं , जिन्होंने स्वीकार किया है कि महामण्डल द्वारा आयोजित साप्ताहिक पाठचक्र में आने से उनका चरित्र पहले से जरूर थोड़ा बेहतर बना है,  उनका बहुत समाधान हुआ है; शान्ति मिली है । सत्संग में सबके लिए उपयोगी बातें मिलती हैं । तत्त्वज्ञ, जीवनमुक्त, साधक, संसारी, विषयी, समस्त आदमी इसके सुनने के पात्र हैं । जब भी, सत्संग मिल जाय तो समझना चाहिये कि भगवान्‌ने विशेष कृपा की है । भगवान्‌ ने मनुष्य-शरीर दिया, यह कृपा की, उसके बाद सत्संग दिया‒यह विशेष कृपा है । ऐसी कृपा का लाभ हमें तो लेना ही चाहिये । दूसरों को भी जो लेना चाहें तो देना चाहिये। 

संत समागम हरि कथा तुलसी दुर्लभ दोय ।

सुत दारा अरु लक्ष्मी  पापी के भी होय ॥

भगवान्‌की कथा और सत्संग‒ये दो दुर्लभ वस्तुएँ हैं । पुत्र-स्त्री और धन तो पापी मनुष्य के भी प्रारब्धानुसार होते ही हैं । रावण का भी बहुत बड़ा राज्य था‒यह कोई बड़ी बात नहीं । बड़ी बात तो यह है कि भगवान्‌ का चिन्तन हो, स्मरण हो, चर्चा हो तथा भगवान्‌ की तरफ लग जायँ । सन्तों ने भी माँगा है‒‘महाराज ! सत्संगति दीजिये, जिससे आपको क्षणभर भी नहीं भूलूँ ।’

सज्जनो ! सत्संग से जो लाभ होता है, वह साधन से नहीं होता । साधन करके जो परमात्मतत्त्व को प्राप्त करना है, वह कमाकर धनी होने के समान है । किन्तु सत्संग सुनना तो गोदमें जाना है । गोद चले जाने से कमाया हुआ धन स्वतः मिल जाता है । सन्तोंने कितने वर्ष लगाये होंगे ? कितना साधन किया होगा ? कितनों का संग किया होगा ? उस सबका सार आपको एक घण्टे में मिल जाता है । गोद जानेमें क्या जोर आवे साहब ? आज कँगला और कल लखपति ! वह तो कमाये हुए धन का मालिक बन जाता है । सत्संग के द्वारा ऐसी-ऐसी चीजें मिलती हैं, जो बरसों तक साधन करनेसे भी नहीं मिलतीं । इसलिये भाई ! सत्संग मिल जावे तो जरूर करना चाहिये । इससे मुफ्त में कल्याण होता है, मुफ्तमें । 

सत्संगकी महिमा कहाँतक कही जाय ? स्वयं भगवान्‌ शंकर श्रीरामजीसे सत्संग माँगते हैं ।

बार  बार  बर  मागउँ  हरषि  देहु  श्रीरंग ।

पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग ॥

(मानस, उत्तर.१४ (क) )

भगवान्‌ शंकरको कौन-सा पाप दूर करना था ? कौन-सी साधना सीखनी थी ? जो सदा सत्संग ही चाहते हैं । भगवान्‌ शंकरको कोई राम-कथा सुनानेवाले मिलते हैं तो सुनते हैं और पार्वतीजी-जैसे सुननेवाले मिलते हैं तो सुनाते हैं ।

गंगा-स्तुति,१७ : राग रामकली

जय जय भगीरथनन्दिनि,मुनि-चय चकोर-चन्दिनि,

          नर-नाग-बिबुध-बन्दिनि जय जह्नु बालिका।



बिस्नु-पद-सरोजजासि,ईस-सीसपर बिभासि,

          त्रिपथगासि,पुन्यरासि,पाप-छालिका ॥ १ ॥ 


बिमल बिपुल बहसि बारि, सीतल त्रयताप-हारि,

          भँवर बर बिभंगतर तरंग-मालिका।

जय जय भगीरथनन्दिनि, ........ 

पुरजन पूजोपहार,सोभित ससि धवलधार,

         भंजन भव-भार, भक्ति-कल्पथालिका ॥ २ ॥ 

जय जय भगीरथनन्दिनि, ........ 

निज तटबासी बिहंग, जल-थल-चर पसु-पतंग,

          कीट,जटिल तापस सब सरिस पालिका।

जय जय भगीरथनन्दिनि, ........ 

तुलसी तव तीर तीर सुमिरत रघुबंस-बीर,

          बिचरत मति देहि मोह-महिष-कालिका ॥ ३ ॥ 

जय जय भगीरथनन्दिनि, ........ 


श्री गंगाजी में स्नान करने से जिनकी तृष्णा दूर हो गयी है, ऐसे जो निवृत्ततर्ष हैं, उनकी कोई इच्छा नहीं, कोई कामना नहीं किंचिन्मात्र भी । वे तो रात-दिन गाते ही रहते हैं, करते ही रहते हैं । सनकादिक निर्लिप्त ही प्रकट हुए और चारों ही समान अवस्थावाले हैं, छोटी अवस्था-पाँच वर्ष की आयुवाले हैं । तीन श्रोता हो जाते हैं, एक वक्ता हो जाते हैं और भगवान्‌ की कथा करते रहते हैं । अब उनके क्या जानना बाकी रह गया ? जिनको ‘निवृत्ततर्ष’ कहते हैं वे भी गाते रहते हैं, वे भी लीला करते रहते हैं।‘चरित सुनहिं तजि ध्यान’, ध्यान को छोड़ करके भगवान्‌ के चरित्र सुनते हैं । ऐसे क्यों करते हैं ? कि भाई ! ‘इत्थं भूतगुणो हरिः’ भगवान् हैं ही ऐसे ।  इस वास्ते भगवान् लीला करते हैं । वह लीला अवतार लिये बिना कैसे करे ? जिसको गा करके संसार के प्राणी अपना उद्धार कर सकें । 

मनुष्य चार प्रकार के होते हैं‒ बद्ध जीव (साधारण संसारी, या विषयी व्यक्ति ), मुमुक्षु,  मुक्त और नित्यमुक्त या जीवनमुक्त । जिनके कोई तृष्णा नहीं रही, कामना नहीं रही, जो पूर्ण पुरुष हैं, जो ‘आत्माराम’ हैं, जिनके भ्रम का भंजन हो गया है, जो d -hypnotized हो गए हैं, जिनका देहात्मबोध चला गया है, देह-मन के साथ तादात्म्य चला गया है, ग्रन्थि-भेदन हो गया है, जो ( 100 % निःस्वार्थी हैं ?) शास्त्र-मर्यादा से ऊपर उठ गये हैं‒ ऐसे ब्रह्माजी के चार मानस पुत्र सनकादि हैं । उनकी अवस्था सदा ही पाँच वर्ष की रहती है । वे जन्मजात सिद्ध हैं । 

रूप धरें जनु चारिउ बेदा। समदरसी मुनि बिगत बिभेदा॥

आसा बसन ब्यसन यह तिन्हहीं। रघुपति चरित होइ तहँ सुनहीं॥3॥

(मानस, उत्तर॰ ३२/३)

मानो चारों वेद ही बालक रूप धारण किए हों। वे मुनि समदर्शी और भेदरहित हैं। दिशाएँ ही उनके वस्त्र हैं। उनके एक ही व्यसन है कि जहाँ श्री रघुनाथजी की चरित्र कथा होती है वहाँ जाकर वे उसे अवश्य सुनते हैं॥3॥ 

ऐसे अनादि सिद्ध सनकादिक‒जिनके दसों दिशाएँ ही वस्त्र हैं,- "आसा बसन ब्यसन यह तिन्हहीं । रघुपति चरित  होई तहँ सुनहीं ॥ऐसे जीवन्मुक्त, तत्त्वज्ञ महापुरुष भी भगवान्‌ की भक्ति करते हैं, भजन करते हैं और भगवान्‌ के गुण सुनते हैं, उनके केवल एक ‘व्यसन’ हैजहाँ भी भगवान्‌की कथा हो, वहाँ वे सुनते हैं । दूसरा कोई कथा करनेवाला न हो तो‒तीन बन जाते हैं श्रोता और एक बन जाते हैं वक्ता । इस प्रकार परमात्म-तत्त्व में निरन्तर लीन रहने वाले जीवनमुक्त-पुरुष भी सत्संग (पाठचक्र) जहाँ होता है, वहाँ पहुँचकर श्री हरि की कथा (भगवान्‌ श्रीरामकृष्ण वचनामृत) सुनते हैं ।  जीवन्मुक्त पुरुष भी  वहाँ सुनते हैं । और जो संसार से उद्धार चाहते हैं‒ऐसे मुमुक्षु साधक भी सत्संग सुनते हैं, ताकि सांसारिक मोह दूर हो जाय, अन्त:करण शुद्ध हो जाय । क्योंकि ‘भवौषधात्’‒अर्थात् यह संसार की दवा है ।

जीवनमुक्त ब्रह्मपर चरित सुनहिं तजि ध्यान।

जे हरि कथाँ न करहिं रति तिन्ह के हिय पाषान॥ 

(मानस, सप्तम सोपान, उत्तर॰ 42, श्रीराम जी का प्रजा को उपदेश)॥

सनकादि मुनि जैसे जीवन्मुक्त और ब्रह्मनिष्ठ पुरुष भी ध्यान (ब्रह्म-समाधि) छोड़कर श्री रामजी के चरित्र सुनते हैं। यह जानकर भी जो श्री हरि की कथा से प्रेम नहीं करते, उनके हृदय (सचमुच ही) पत्थर (के समान) हैं

'जीवनमुक्त ब्रह्मपर चरित सुनहिं तजि ध्यान ।'-- ‘जिनकी तृष्णा की तीनो प्यास (पुत्र ऐषणा, वित्त ऐषणा, लोक ऐषणा) सर्वदा के लिये बुझ चुकी है,  ‘जो निरन्तर भगवान्‌ का ध्यान करते हैं, वे भी ध्यान छोड़कर (निर्विकल्प समाधि के महा आनन्द को त्यागकर)  भगवान्‌ के चरित्र सुनते हैं ।’ वे जीवन्मुक्त शिक्षक (नेता, पैगम्बर)  जिस कथा का पूर्ण  प्रेम से अतृप्त रह कर गान किया करते हैं, जो श्री हरि की कथा (भगवान्‌ श्री राम, श्री कृष्ण और इस युग के अवतार वरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्ण के वचनामृत) मुमुक्षु जनों के लिये भवरोग की रामबाण औषध है तथा विषयी लोगों के लिये भी उनके कान और मन को परम आह्लाद देनेवाला है, श्री हरि के ऐसे सुन्दर, सुखद, रसीले, गुणानुवाद से पशुघाती अथवा आत्मघाती मनुष्य के अतिरिक्त और कौन ऐसा है जो विमुख हो जाय, उससे प्रीति न करे ?’

इनको भगवान की कथा मे कितनी रसानुभूति हो रही है‌, इस पद में भी षड्विध शरणागति के दर्शन हो रहे हैं। आनुकूल्य का संकल्प, प्रतिकूलता को छोड़ना, भगवान की रक्षा का विश्वास, रक्षक के रूप मे भगवान का वरण करना, दीनता और आत्मनिक्षेप ये छहों सिद्धान्त यहाँ इस श्लोक मे‌ भी प्रकट हैं। 

'तव कथामृतं' यही अनुकूलता का संकल्प है, 'तप्तजीवनं' यह तप्तों को जिलाती है अर्थात् आपकी कथा व्यक्ति को संसार के तीनों तापों से तपने नहीं देती है,‌ ये प्रतिकूलता का वर्जन है। 'कविभिरीडितं' कवियों ने इसकी प्रशंसा की है, यही है रक्षा का विश्वास 'कल्मषापहम्' यह संपूर्ण कथा कलिमल शोक को नष्ट कर देती है, इस कथा मे रक्षक के रूप में परमात्मा का वरण होता है। 'श्रवणमंगलम्' यह श्रवण सुनने मे मंगल करता है, यही कार्पण्य है और वस्तुयें तो प्राप्त करने पर मंगल करती हैं, यह सुनने से मंगल कर देती है और 'श्रीमदाततं' श्रीमत् है, शोभा से संपन्न व्याप्त है, यही है आत्मनिक्षेप। इस प्रकार से 'भुवि गृणन्ति ते‌ भूरिदा जना:'।

 एतावता यहाँ भी गोपियों की षड्विध शरणागति का वर्णन उद्धव जी कर रहे हैं। इससे पहले आनुकूल्य की संकल्प की दृष्टि से गोपियों को प्रणाम किया कि अहाहा! इनकी अनुकूलता का हमने संकल्प देखा। धन्य हो गया है इनका जन्म भगवान मे सर्वरूप से इनका भाव आरूढ़ हो गया है और इनका मधुरभाव जिसको सभी मुनिगण और हम भी चाहते हैं पर नहीं प्राप्त होता, यह गोपियों को सुलभ है, यही इनकी अनुकूलता है। अब देखते हैं प्रतिकूलता का वर्जन कितना मनोहर है गोपियों का।

"अब सौंप दिया इस जीवन का,सब भार तुम्हारे हाथों मे।"-और अर्जुन की इसी धारणा ने उन्हें गीता सुनने की पात्रता दे दी।परम भागवतों की पंक्ति मे बिठा दिया और भगवान् की कृपा का एकान्त भाजन ‌भी बना दिया। 

तदेव लग्नं सुदिनं तदेव ताराबलं चन्द्रबलं तदेव।

विद्याबलं दैवबलं तदेव सीतापते तेऽंध्रियुगं स्मरामि।।

वही दिन सुदिन है, वही लग्न सुन्दर लग्न है, वही मुहूर्त सुन्दर मुहूर्त है, उसी समय संपूर्ण नक्षत्रबल और दैवबल उपस्थित हो जाते हैं, उसी समय विद्याबल,दैवबल आ जाता है, जिस समय सीतापति श्रीराम जी किंबा, राधापति श्रीकृष्णचन्द्र जी के पतित पावन श्रीमतचरणारविन्द युगल के स्मरण का सुअवसर प्राप्त होता है।

जिस समय साधक के मन मे यह निश्चित हो जाए कि उसके अभीष्ट की सिद्धि भगवान के अतिरिक्त कहीं भी संभव नहीं है, इस प्रकार निश्चय के साथ जब साधक को अपने प्रभु के ऊपर महाविश्वास हो जाता है और महाविश्वास के साथ जब साधक एकमात्र भगवान से उपाय की याचना करता है तो वही होती है प्रपत्ति। जैसे अर्जुन की प्रपत्ति, अर्जुन ने भगवान से उपाय की याचना की, हे प्रभु! जिसमे मेरा कल्याण हो आप वही कहिए। मैं आपका शिष्य हूंँ आप मुझे अनुशासित कीजिए। अर्जुन को ये विश्वास हो चुका है कि उनका अभीष्ट एकमात्र भगवान श्रीकृष्ण सिद्ध कर सकते हैं और इसकी भूमिका अर्जुन ने पहले ही बना ली। इसलिए युद्ध का आमंत्रण देने गए अर्जुन जब श्रीद्वारका को पधारे और द्वारकाधीश के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त किया, उस समय द्वारकाधीश भगवान शयन कर रहे हैं। अर्जुन विनम्र भाव से जाकर उनके चरणों की और बैठकर प्रभु की भुवनमोहिनी शयन झांँकी को निहार रहे हैं। दुर्योधन भी आमंत्रण देने गया और वह जा करके शिरहाने की ओर आसन पर बैठ गया। भगवान की नीन्द खुली तो पहली दृष्टि मे उनको अर्जुन दिखे, क्योंकि अर्जुन चरणों के पास बैठे थे। भगवान के श्रीचरणारविन्द को निहार रहे थे। अर्जुन भावुक हो रहे थे, आज निरन्ध्र नयन नीर से प्रभु के निर्मल, निर्विकार, निर्दोष, निरूपद्रव, श्रीमतचरणारविन्द का परम पावन अभिषेक कर रहे थे। कुशल प्रश्न पूछने के पश्चात भगवान ने अर्जुन से जब हेतु पूछा, उन्होंने कहा, मैं आपको आमंत्रित करने आया हूँ, युद्ध मे। दुर्योधन ने कहा, मैं भी आपको आमंत्रित करने आया हूंँ। भगवान ने कहा, आये तो दोनों हैं, पर पहली दृष्टि मेरी अर्जुन पर पड़ी है, पहले अर्जुन को मैंने देखा है, इसलिए प्राथमिकता अर्जुन को मिलनी चाहिए। फिर भी मैं दोनों की बातें सुनूँगा। क्या किया? भगवान ने एक विकल्प दिया कि देखिए, महाभारत मे मैं चलूंँगा पर युद्ध नहीं करूंँगा। एक और नि:शस्त्र मैं रहूंँगा अकेले और एक और दस‌ करोड़ मेरी नारायणी सेना रहेगी। दोनों मे किसको क्या लेना है, कह दीजिए। दुर्योधन ने कहा, पहले मैं कहूंँगा। भगवान ने कहा, नहीं पहले अर्जुन को कहने का अवसर मिलेगा। क्या चाहते हो अर्जुन? अर्जुन ने कहा, सरकार! मुझे दस करोड़ सेना नहीं चाहिए। मुझे तो आप चाहिए। दुर्योधन ने कहा, मैं नि:शस्त्र आपको लेकर क्या करूंँगा? आप मुझे सेना दे दीजिए। भगवान ने दोनों को संतुष्ट कर दिया, पर अर्जुन से पूछा, क्यों अर्जुन! मैंने तुमको प्राथमिकता दी थी, तुम मेरी दस करोड़ सेना मांँग लेते। अर्जुन ने कहा, नहीं सरकार! मैं जानता था न, सेना लेकर क्या करूंँगा? जहांँ आप होंगे वहांँ सर्व सेना ही सेना है, क्योंकि आपका नाम 'विश्वक्सेन' है। आपके साथ तो सारी सेनायें रहती ही हैं, कोई देखे या न देखे। मैं आपको भजता हूँ, मैंने अपने जीवन के रथ की डोर आपको सौंप दी है सरकार। ऐसी संसार में व्याप्त आपकी कथा को जो लोग कहते हैं वो बहुत कुछ दे रहे हैं, इसलिए कृपा कीजिए। क्यों?

विरचिताभयं वृष्णिधुर्य ते चरणमीयुषां संसृतेर्भयात्।

करसरोरुहं कान्त कामदं शिरसि धेहि न: श्रीकरग्रहम्।।

प्रभो! अब हम दूसरी प्रकार की याचना आपसे करती हैं। अनुकूलता का तो संकल्प हो गया अब प्रतिकूलता का वर्जन की याचना हम कर रही हैं। प्रभो! आपका यह करकमल कितना प्यारा है। हे वृष्णिधुर्य! आप वृष्णिवंश के धुर्य हैं, वृष्णिवंश की धुरि को धारण करते हैं  हे चन्द्रवंश के धुरन्धर प्रभो! भगवान श्रीकृष्ण  जो आपके चरणों को प्राप्त कर चुके हैं उनके लिए आपके करकमल ने संसार से अभयदान की रचना की है।  'विरचितं अभयं येन तत् विरचिताभयं' आपके श्रीचरणों के सेवकों के लिए जिन्होंने संसार सागर से अभयदान दिया है, और श्री जी का पाणिग्रहण किया है। और "कान्त कामदं" जिन्होंने श्रीचित्रकूट के कामदगिरि को भी सुशोभित कर दिया है 'कान्त: कामद:  येन स तं' ऐसे अपने करकमल को हमारे शिर पर धारण कर दीजिए। हमारे शिर पर रख दीजिए, जिससे हम अभय हो जायें।

"शीर्णागोकुलसंधति: शिखिकुलं न व्याकुलं नृत्यति,

मूका कोकिलमण्डली पशुचय: शष्पाय न स्पन्दते।

सर्वेत्वद् विरहेण हन्त नितरां गोविन्द दैन्यं गता:, 

किन्तेवका यमुना कुरङ्गनयनानेत्राम्बुभिर्बर्धते।।"

महाकवि श्रीसूरदास जी भी गा पड़े

"निशि दिन बरषत नयन हमारे..........

सदा रहत पावस ऋतु हम पर,जब ते श्याम सिधारे।

अंजन थिर न रहत अँखियन में,कर कपोल भे कारे।।  

कंचुक पट सूखत नहीं कबहुँ,ऊर बिच बहत पनारे।  

सूरदास ब्रज अम्बु बढ़यो है,काहे न लेत उबारे।।

"निशि दिन बरषत नयन हमारे…......"

इसीलिए गोपियों ने मुख नीचे कर लिए,"कृत्वा मुखानि अव"।

६२. अथवा, श्रीव्रजांगनाओं ने सोचा कि यदि हम लौट कर जायेगी और मार्ग में हमारी सखियांँ मिलेंगी तो उन्हें हम क्या उत्तर देंगी? इस लज्जा से गोपियों ने मुख नीचे कर लिए "कृत्वा मुखानि अव"।

४९. अथवा, श्रीव्रजांगनायें इस सिद्धान्त से भली भांँति परिचित है कि बिना राधा जी की आराधना किये श्रीराधा जी की चरणचिन्हों से चिन्हित श्रीवृन्दावन के सेवन के बिना श्रीकृष्ण महासिन्धु के परमानन्द रस का आस्वादन नहीं किया जा सकता।

"अनाराध्य राधापदाम्भोजयुग्मं,

अनासेव्य वृन्दावनीं तत्पदाङ्काम्।

असंभाष्य तद्भाव गम्भीर चित्तान्

कथं श्यामसिन्धो रसस्यावगाह:।।"

अतः श्रीराधाजी की आराधना के क्रम मे श्रीवृन्दावन भूमि मे अंकित उन्हीं वृषभानुनन्दिनी के चरण चिन्हों को प्रणाम करने के लिए श्रीव्रजांगनाओं ने मुख नीचे कर लिए, "कृत्वा मुखानि अव"।

३९. अथवा, श्रीव्रजांगनायें यह जानती हैं कि सन्तों की कृपा के बिना भगवान जीव को नहीं स्वीकारेंगे "यमेवैष वृणुते तेन लभ्य:"  अतएव सन्तों की कृपा प्राप्त करने के लिए गोपियों ने पृथ्वी पर प्रणाम करने हेतु मुख नीचे किये, क्योंकि श्रीवृन्दावन की भूमि सन्तजनों के चरण रेणु से सनाथित है, अतः "कृत्वा मुखानि अव"।

४६. अथवा, भगवान को ब्राह्मण प्रिय हैं "भगवान् ब्राह्मणप्रिय:" ब्राह्मण पृथ्वी के देवता हैं इसीलिए ब्राह्मणदेवता का आशीर्वाद लेने हेतु गोपियों ने शिर झुकाने के लिए मुख नीचे कर लिया, "कृत्वा मुखानि अव"।

३५. अथवा, गोपियांँ जानती हैं कि नन्दनन्दन श्रीकृष्णचन्द्र  महाविष्णु हैं, उन्हें नमस्कार बहुत प्रिय है,"नमस्कार प्रियो विष्णु:" गीता जी मे भी भगवान कहते हैं "मां नमस्कुरु" एवं अतएव प्रभु को नमन करने के लिए श्रीव्रजांगनाओं ने शिर नीचे कर लिया, "कृत्वा मुखानि अव"।

२४. अथवा, श्रीव्रजांगनायें जानती हैं कि प्रभु को दैन्य बहुत प्रिय है "दैन्य प्रियत्वाच्च" दैन्य से ही भगवान द्रवित होते हैं "जेहि दीन पियारे वेद पुकारे द्रवउ सो श्रीभगवाना।।" और दीनता का लक्षण है शीष का नवाना अतः प्रभु को अपने पर द्रवित करने के लिए श्रीव्रजांगनाओं ने मुख नीचे कर लिये, "कृत्वा मुखानि अव"।

इस प्रसंग पर रसखान कितनी मधुर अवधारणा प्रस्तुत कर रहे हैं-

शेष महेश गनेश दिनेश सुरेशहुँ जाहि निरन्तर ध्यावैं

जाहि अनादि अनन्त अखण्ड अछेद अभेद सुवेद बतावैं।

नारद से शुक व्यास रटैं पचिहारे तौ पुनि पार न पावैं

ताहि अहीर की छोहरियाँ छछिया भरि छाछ पै नाँच नचावैं।।

इसीलिए हे गोपियों! तुम सब अपने -अपने घरों को लौट जाओ। दूर से ही श्रवण, दर्शन, ध्यान और कीर्तन के माध्यम से मेरा भजन करो। वस्तुतस्तु भगवान कहते हैं, गोपियों! श्रवण, दर्शन और ध्यान और कीर्तन से मुझमे  वह भाव नहीं आता जो मेरे सन्निकर्ष से आता है। "तत: गृहान् न प्रतियात" इसलिए घर को आप मत जाइए। और मेरे साथ श्रीवृन्दावन के महारास मे सम्मिलित होइये। इस प्रकार दसों वाक्यों मे भगवान ने उपेक्षा और अपेक्षा दोनों प्रकार के विचारों को प्रकट किया।  गोपियाँ नहीं समझ सकीं इसलिए शुकाचार्य जी को कहना पड़ा,

"सुनहु उमा ते लोग अभागी।

हरि तजि होहिं विषय अनुरागी।।

वे वृद्ध हैं, क्योंकि जीव होने के कारण उनकी युवावस्था स्थिर नहीं है। वे जड़ हो चुके हैं, इसीलिए मुझ चेतन को पहचानने मे भूल कर रहे हैं। उनमें कामादि सभी रोग हैं। वे धनहीन हैं, क्योंकि उनमें मेरा प्रेमरूप धन नहीं है और तुम जैसी परमभागवतियों पर अत्याचार करके तुम्हारे पति पाप भी कर रहे हैं। जबकि इसके विरुद्ध मुझमे सातों गुण हैं। मैं सुशील हूँ, सुभग हूंँ, नित्यकिशोर हूँ, चेतन हूँ, सारे रोगों से रहित हूँ और लक्ष्मीपति होने से परम धनवान हूँ, मुझमे कोई पाप नहीं है, इसीलिए मैं ही एकमात्र जीव जगत् का पामार्थिक पति हूँ

हे व्रजांगनाओं! 'एषा रजनी अघोररूपा' यह शरद पूर्णिमा की रात्रि बहुत सुन्दर है, इसका रूप अघोर है अर्थात् बहुत ही प्रिय है और 'अघोरसत्वनिषेविता' इसमे 'अघोरसत्व' सुन्दर- सुन्दर भगवद्भक्त जीव विराजमान हो रहे हैं। सुन्दर चातक कोकिल, तोते, चकोर आदि बोल रहे हैं मयूर नाच रहे हैं, इसीलिए 'व्रजं‌ न प्रतियात' आप लोग व्रज को न जायें। हे सुमध्यमाओं! 'इह रत्रीभि: स्थेयं' आप निर्भर होकर के यहाँ हमारे साथ रहें। कोई चिन्ता नहीं है, क्योंकि मेरा व्रत ही है,

"परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुश्कृतां।

धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।"

मैं साधुओं की रक्षा के लिए, दुष्टों के दमन के लिए और धर्म की संस्थापना के लिए युग -युग मे अवतार लेता हूंँ। आप सन्तरूपी हैं, मैं आपकी रक्षा करूंँगा। आपके मन मंदिर मे आनेवाले इस कामासुर का विनाश करूँगा। आपके संरक्षण के माध्यम से मैं भगवदधर्म की संस्थापना करूंँगा, इसलिए आप यही विराजें, वृन्दावन छोड़कर कहीं न जायें। भगवद्धाम छोड़कर अपने धामों में नहीं जाना चाहिए, यही भगवान की व्यंजना है। यह बात भगवान कह रहे हैं उनसे, जो हलुवा बनाने का कार्य छोड़कर भगवान के पास चली आई है। चिन्ता न करें,वहाँ सब व्यवस्था होती होगी। आप तो वहांँ का हविष्य बनाने की चिन्ता न करें। अब तो जीवन मे भजनरस का निर्माण करना चाहिए, भजन रूप हवि का निर्माण करना चाहिए। 

नृणां नि:श्रेयसार्थाय व्यक्तिर्भगवतो नृप।

अव्ययस्याप्रमेयस्य निर्गुणस्य गुणात्मन:।।

भगवान अव्यय हैं उनका व्यय कभी नहीं होता, वे किसी प्रमाण से जाने नहीं जा सकते। वे निर्गुण होते हुए भी गुणात्मा हैं अर्थात् प्राकृत गुणों से दूर होने से भगवान निर्गुण हैं और 'गुणात्मन:' वात्सल्यादि गुणों के प्रेरक हैं भगवान इसलिए वे गुणात्मा भी हैं 'निर्गुणस्य गुणात्मन:' अतएव हे राजन! विनाशरहित प्रत्यक्षादि प्रमाणों से परे हेयगुणों से दूर और वात्सल्यादि समस्तकल्याणगुणगुणों के निधान भगवान श्रीकृष्णचन्द्र का श्रीव्रज मे प्राकट्य सभी प्राणियों के कल्याण के लिए ही हुआ है। अर्थात् यदि भगवान सामान्य प्राणियों का भी कल्याण करते हैं, यदि विष पिलानेवाली पूतना को भी प्रभु गोलोक प्रदान कर सकते हैं,तो जिन श्रीव्रजांगनाओं ने भगवान के श्रीचरणों मे अपना सर्वस्य न्यौछावर कर दिया तो क्या प्रभु उनका कल्याण नहीं करेंगे? यहांँ शुकाचार्य जी ने भगवान श्रीकृष्ण के प्रति पांँच विशेषणों का प्रयोग करके पूर्वोत्त पाँच प्रकार की गोपियों के कल्याण को नि: सन्दिग्ध कहा। 

"देह धरे कर यह फल भाई।भजिय राम सब काम बिहाई।।"

संपूर्ण कामनाओं का त्याग करके भगवान का भजन करना यही तो शरीर धारण का फल है और गोपियांँ यही कर रही है। एकमात्र सबके परमात्मा गोविन्द भगवान श्रीकृष्ण मे अब ये 'रूढ़भावा' हो गई हैं।

 अरे! 'किं ब्रह्मजन्मभिरनन्तकथारसस्य' जिसको भगवान श्रीकृष्णचन्द्र जी की मंगलकथा मे रसानुभूति हो चुकी है, उसके दृष्टि से अनन्त-अनन्त ब्रह्मा का जन्म प्राप्त करके भी, सृष्टि रचना की चातुरी प्राप्त करके भी यदि व्यक्ति को भगवान की कथा मे रसानुभूति न हो रही हो तो क्या लाभ? यहांँ तो गोपियों ने कह दिया -

यं प्रव्रजन्तमनुपेतम पेतकृत्यं द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव।

पुत्रेति तन्मयतया तरवोऽभिनेदुस्तं सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि।।

अर्थात् माता- पिता, मित्र और गुरुजनों को छोड़कर, किसी के निकट न जाकर, संपूर्ण कृत्यों की बाध्यता से मुक्त हुए, जिन शुकाचार्य को जाते हुए देखकर, विरह से व्याकुल होकर द्वैपायन श्रीकृष्ण वेदव्यास जी ने पुत्र- पुत्र कहकर चिल्लाते हुए बुलाया और उनके भाव से तन्मय होकर परम निर्दय प्रकृतिवाले, अपने फलों को निर्दयता से दूसरों को समर्पित कर देनेवाले वृक्षों ने भी जिन शुकाचार्य जी को पुत्र -पुत्र कहकर चिल्लाया, ऐसे संपूर्ण प्राणियों के हृदयों को श्रीकृष्ण जी के चरणारविन्द मे आकर्षित करनेवाले वेदव्यासनन्दन शुकाचार्य जी के प्रति मे आदरपूर्वक नमन कर रहा हूँ। तब वेदव्यास जी ने योगदृष्टि से जान लिया कि शुकाचार्य कुरुजांगलों मे भ्रमण कर रहे हैं वे "उन्मत्तमूकजडवद्विचरन् गजसाह्वये" उन्मत्त,मूक और जड की भांँति भ्रमण कर रहे हैं। समाधि मे हैं, शरीर चल रहा है, पर उनका मन श्रीकृष्णचन्द्र जी के श्रीमतपादारविन्द मकरन्दास्वादन मे ही निश्चल हो चुका है। अनन्तर वेदव्यास जी ने अपने कतिपय शिष्यों को यह कह कर कुरुजांगलों मे भेजा कि यदि वहांँ एक निर्वस्त्र बाबा, कोई षोडश वर्षीय युवक मिले तो उसे 'वर्हापीडं नटवरवपुः' श्लोक को सस्वर सुनाना और फिर उसकी प्रतिक्रिया मुझे बताना। शिष्यों ने कुरुजांगलों मे जाकर देखा एक षोडश वर्षीय युवक अपने शरीर की सुध- बुध भूलकर भगवान की प्रेम मदिरा की नशा मे तन्मय होगा झूमता हुआ आनन्द कर रहा है और वहांँ जाकर उन्होंने, "सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज" संपूर्ण धर्मों में से कर्त्तव्य बुद्धि छोड़कर एकमात्र मेरी शरण मे आ जाओ। अर्जुन ने कहा, कोई पहले का उदाहरण है? भगवान ने कहा, जी। किसका? बोले, व्रज। व्रज का तात्पर्य है 'व्रज इव व्रज' 'व्रज इव आचर' इस सिद्धान्त का व्रजबालाओं के समान ही आचरण करो। जैसे श्रीव्रजांगनायें संपूर्ण धर्मों को छोड़कर मेरी शरण में आ गई।  तो इस प्रकार जैसे व्रजांगनाओं ने संपूर्ण कर्त्तव्यों को छोड़कर मेरी शरणागति स्वीकारी

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