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शनिवार, 5 जून 2021

*Secret of Work *श्री रामकृष्ण दोहावली (55 )~First Bhakti then Karma.* सही मार्ग है ---पहले भक्ति फिर कर्म *

श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(55)

*कर्म का रहस्य*  

* सही मार्ग है ---पहले भक्ति फिर कर्म *

439 प्रभुपद भक्ति प्रथम फिर , तज आसक्ति सब काम। 

819 वृथा करम बिन भक्ति के , भज लो सीताराम।।

ईश्वर में भक्ति हुए बिना कर्म करना बालू की भींत की तरह निराधार है। पहले भक्ति के लिए प्रयत्न करो। फिर तुम चाहो तो ये सब -स्कूल , दवाखाने , आदि आप ही बन जायेंगे। सही मार्ग है ---पहले भक्ति फिर कर्म। भक्ति के बिना कर्म (समाजसुधार आदि ) व्यर्थ है।  

437 हरि को नर इक देत तो , हरि देवत है हजार। 

816 सकल करम फल सौंप हरि , सौप हरि को भार।।

भगवान को तुम एक गुना जो कुछ अर्पित करोगे , उसका हजारगुना पाओगे। इस लिए सब कार्य करने के बाद जलांजलि दी जाती है , श्रीकृष्ण को फल-समर्पण किया जाता है। 

[जितना संभव हो, ईश्वर का ध्यान तथा नाम-जप करते हुए, उन पर निर्भर रहकर अनासक्त भाव से अपने कर्तव्यों का पालन करना ही कर्मयोग का रहस्य है। युधिष्ठिर जब सब पाप श्रीकृष्ण को अर्पण करने जा रहे थे, तब भीम ने उन्हें सावधान करते हुए कहा, ऐसा काम मत करें। श्रीकृष्ण को जो कुछ अर्पित करेंगे, उसका हजार गुना आपको प्राप्त होगा। 

कर्मयोग यानी कर्म के द्वारा ईश्वर के साथ योग। अनासक्त होकर किए जाने पर प्राणायाम, ध्यान-धारणादि अष्टांग योग या राजयोग भी कर्मयोग ही है। संसारी लोग अगर अनासक्त होकर ईश्वर पर भक्ति रखकर उन्हें फल (परिणाम) समर्पण करते हुए संसार के कर्म करें तो वह भी कर्मयोग है। फिर ईश्वर को फल समर्पण करते हुए पूजा, जप आदि करना भी कर्मयोग ही है। ईश्वर लाभ ही कर्मयोग का उद्देश्य है। 

सत्वगुणी व्यक्ति का कर्म स्वभावत: छूट जाता है, प्रयत्न करने पर भी वह कर्म नहीं कर पाता। जैसे, गृहस्थी में बहू के गर्भवती हो जाने पर सास धीरे-धीरे उसके कामकाज घटाती जाती है और जब उसके बच्चा पैदा हो जाता है, तब तो उसे केवल बच्चे की देखभाल के सिवा और कोई काम नहीं रह जाता।]

438 ज्ञान कर्म है कठिन अति , कलियुग भक्तियोग। 

818 भज ले मनवा नाथ को , मिठे सहज भवरोग।।

विशेषकर इस कलियुग में अनासक्त होकर कर्म करना बहुत कठिन है। इसलिए इस युग के लिए कर्मयोग, ज्ञानयोग आदि की अपेक्षा भक्तियोग ही अच्छा है। परन्तु कर्म कोई छोड़ नहीं सकता। मानसिक क्रियाएं भी कर्म ही  हैं। प्रेम-भक्ति के द्वारा कर्म -मार्ग सहज हो जाता है। ईश्वर पर प्रेम-भक्ति बढ़ने से कर्म कम हो जाता है , और जो कर्म रहता है उसे उनकी कृपा से अनासक्त होकर किया किया जा सकता है। भक्तिलाभ होने पर विषयकर्म -धन, मान , यश आदि अच्छे नहीं लगते। मिश्री का शर्बत पी लेने के बाद , गुड़का शर्बत भला कौन पीना चाहेगा ? 

440 भक्तिसहित जो करम करे , हो करके निष्काम। 

822 सहजहि दरसन देवह हि , रामकृष्ण श्री राम।।

एक बार श्रीरामकृष्ण ने ईश्वरचन्द्र विद्यासागर से कहा था - " तुम्हारा कर्म सात्विक कर्म है। तुम दया से प्रेरित होकर परोपकार के कर्म करते हो -यह सत्वगुण की प्रेरणा से सम्पादित कर्म है। अगर दया-दाक्षिण्य , दान आदि भक्तिसहित , निष्काम होकर किया जा सके तो इससे ईश्वरलाभ होता है। " 

441 हिय मँह हरि बैठाई नर , धर ले सुमिरन दीप। 

823 काज करम के बीच नर , नाम तेल तेहि सींच।।

क्या केवल ध्यान करते समय ही ईश्वर का चिंतन करना चाहिए, और दूसरे समय उन्हें भूले रहना चाहिए  ?

मन का कुछ अंश सदा ईश्वर में लगाए रखना चाहिए। तुमने देखा होगा , दुर्गापूजन के समय देवी के पास एक दीप जलाना पड़ता है। उसे सदा जलाये रखा जाता है , कभी बुझने नहीं दिया जाता। उसके बुझ जाने पर गृहस्थ का अमंगल होता है। इसी प्रकार , हृदयकमल में इष्टदेवता को प्रतिष्ठित करने के बाद उनके स्मरण-चिंतनरूपी दीपक को सदा प्रज्ज्वलित रखना चाहिए। संसार के कामकाज करते हुए बीचबीच में भीतर की ओर दृष्टि डालकर देखते रहना चाहिए कि वह विवेक-दीपक जल रहा है या नहीं।

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