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शुक्रवार, 4 जून 2021

श्री रामकृष्ण दोहावली (21)* कूपमण्डूक की तरह न बनो* 'शास्त्र -निषिद्ध कर्म' करने को 'पाप' कहते हैं'

श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर 

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(21)   

( साधक जीवन के कुछ विघ्न)

208 परचर्चा परदोष दरस , वृथा समय गावहिं। 

363 जो भगवन चिंतन करें , वह नर शान्ति पाहिं।। 

जो हमेशा दूसरों के गुण-दोषों की चर्चा करते रहता है , वह अपना समय व्यर्थ में बर्बाद करता है। क्योंकि परचर्चा करने से न तो आत्मचर्चा हो पाती है , और न परमात्मचर्चा ही।   

[जब परचर्चा में मग्न हो आत्मचर्चा को भूल जाता हूँ, तो सुन पाता हूँ - उनके उस सुपरिचित किन्नरकण्ठ से उच्चारित उपनिषद्-वाणी की दिव्य गम्भीर घोषणा - "तमेवैकं जानथ आत्मानम्, अन्या वाचो विमुञ्चथ"  - जिसमें द्ध्योलोक, पृथ्वी, अन्तरिक्ष तथा सभी प्राणों के सहित मन ओतप्रोत है उस एकमात्र आत्मा को ही जानो, अन्य सभी बातों को छोड़ दो; यही अमृत का - अमरत्व प्राप्ति का - सेतु है ।   - मुण्डकोपनिषत् २-२-५"

210 कूप मण्डूक के मत सदा , कूप ते बढ़ कछु नाहिं। 

366 तस मतवादी निजहि बड़ , अपरहि लघु बताहिं।। 

कूपमण्डूक की तरह न बनो। कुँए में रहने वाले मेढक को कुएँ से बड़ा और अच्छा कुछ भी दिखाई नहीं देता। इसी तरह जो कट्टर होते हैं , उन्हें अपने मत से बढ़कर कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता।

स्वामी विवेकानन्द ओरिएंटल होटल, याकोहामा 10 जुलाई 1893 को लिखित एक पत्र में कहते हैं-  

आओ, मनुष्य बनो। कूपमण्डूकता छोड़ो और बाहर दृष्टि डालो। देखो, अन्य देश किस तरह आगे बढ़ रहे हैं।

क्या तुम्हें मनुष्य से प्रेम है? यदि ‘हाँ’ तो आओ, हम लोग उच्चता और उन्नति के मार्ग में प्रयत्नशील हों। पीछे मुडकर मत देखो। अत्यंत निकट और प्रिय संबंधी रोते हों, तो रोने दो, पीछे देखो ही मत। केवल आगे बढते जाओ।

भारत माता कम से कम एक हज़ार युवकों का बलिदान चाहती है – मस्तिष्क वाले युवकों का, पशुओं का नहीं। परमात्मा ने तुम्हारी इस निश्चेष्ट सभ्यता को तोड़ने के लिए ही अंग्रेज़ी राज्य को भारत में भेजा है। (वि.स.1/398-99) 


207 लज्जा घृणा और भय , जब तक मन में वास। 

361 तब तक भगवन लाभ नहीं , नहि हृदय प्रकाश।

" लज्जा , घृणा और भय -इन तीनों के रहते भगवान (परम् सत्य) का लाभ नहीं होता। " 

209 मन मँह जब लगी वासना , बन तरंग लहराहिं। 

364 तब लगी प्रभु दरसन नहि , रामकृष्ण प्रभु गाहिं।।

मन के किस प्रकार की अवस्था में भगवान के दर्शन होते हैं ? जब मन पूर्ण रूप से शान्त हो जाता है , तब। मनरूपी समुद्र में जब तक वासना -रूपी तरंगें उठती रहती हैं , तब तक ईश्वर का प्रतिबिम्ब नहीं पड़ता और ईश्वर दर्शन सम्भव नहीं होता। 

{ नावरितो दुश्चरित्रान्नाशान्तो नासमाहितः । नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात् ।। कठ. १ | २ | २४ - जो पापकर्मों से विरत नहीं हुआ है, जिसकी इन्द्रियाँ शान्त नहीं हुईं हैं, जो समाहित-चित्त नहीं है, जिसका मन अशान्त है, वह पुरुष इस आत्मा को प्रज्ञा के द्वारा प्राप्त नहीं कर सकता ।}

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{ 'शास्त्र -निषिद्ध कर्म' करने को 'पाप' कहते हैं , और पाप करने से 'घृणा' करने को ही 'लज्जा' कहते हैं । पराये धन और पराई स्त्री के प्रति सदा निस्पृह रहना चाहिए । दूसरे की धन-संपत्ति छीनने वाला आताताई या डकैत कहलाता है, शास्त्रों में उसके वध का विधान है। परायी स्त्री और पराया धन छीनने वाला नरक गामी-अधोगति को प्राप्त होता है।  मोक्ष मार्ग के सहायक हैं यम और नियम का पालन।

[ As per the non dual Vedanta when a human being tries to understand the Brahma in his mind, then Brahma becomes God, because human beings are entrapped in the magical powers of 'Maya'. That is why he does not see anything more than his opinion.

अद्वैत वेदांत के अनुसार जब कोई मनुष्य अपने मन में ब्रह्म को समझने की कोशिश करता है, तो ब्रह्म 'भगवान' बन जाते हैं ! क्योंकि मनुष्य 'माया' की जादुई शक्तियों में जकड़ा हुआ है। इसीलिये उसे अपने मत से बढ़कर कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। ]

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