शनिवार, 28 जनवरी 2023

🔱🙏परिच्छेद ~114, [( 9 मई , 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-114 ]🔱🙏समाधि के बाद 'सतोगुणी अहं' उदार हो जाता है🔱🙏समाधि के बाद सतोगुणी 'अहं ' ही माँ की भक्ति करता है🔱🙏 >>>सतोगुण क्या है? सात्विक जीवन कैसा होता है?>>>सतोगुण से भी परे निकल जाने वालों का जीवन कैसा होता है?🔱🙏ऐषणाएँ ही मनुष्य जीवन के लक्ष्य को निर्धारित नहीं करने देतीं🔱🙏38 वर्ष तक 5 अभ्यास करने के बाद भी मनुष्य का चरित्र गठन क्यों नहीं होता🔱🙏ईश्वर का स्वभाव बालक जैसा है, माँगने पर नहीं; बिन माँगे देता है।🔱🙏पहले त्याग - तब समाधि🔱🙏 नरेंद्र ने पहले -पहल समाधि को बेहोशी समझा 🔱🙏'संसार मिथ्या है, तू मेरे साथ निकल चल ।' 🔱🙏हठयोगी द्वारा 'पत्नी-प्रेम की जाँच' 🔱🙏श्रीरामकृष्ण माँ काली के अवतार हैं- बिना प्रमाण के विश्वास कैसे करें ?🔱🙏दृष्टिगोचर बाह्य जगत केवल एक अप्रतिरोध्य विश्वास है 🔱🙏क्या देवता अमर होते हैं ?🔱🙏तीन तत्व हैं अनादि….भगवान, जीव और माया।🔱🙏>>>मरणोपरान्त जीव की गति :🔱🙏भगवान-का दर्शन हो जाना क्या मन का भ्रम है?🔱🙏 शास्त्र भी ईश्वर की वाणी - आकाशवाणी या इहलाम है 🔱🙏'ईश्वरासिद्धेः ^***(सांख्य दर्शन 1/92)और -कोडरमा : ईश्वर हैं यह कोई प्रमाणित नहीं कर सकता ।🔱🙏श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा में युवाओं को सौंपा गया कर्म🔱🙏🔱🙏मधुर है तेरा नाम, दीनों के शरण हे !🔱🙏"सुन्दर तोमार नाम- 'नवनी हरन' हे !"🔱🙏"सब भूतों में वही प्रेममय हैं!" मैं इसी सत्य का प्रचार करूँगा।🔱🙏 मनःसंयोग : हरि-रस मदिरा पिये मम मानस मातो रे/ " मनःसंयोग हेतु मूर्त 'हरि-रस मदिरा ' ब्राण्ड का चयन" "गगन मै थालु रवि चंदु दीपक बने" 🔱🙏 ठाकुर देव के ब्रह्मज्ञान की अवस्था 🔱🙏[श्री रामकृष्ण का देश-काल-निमित्त (C) को transcendent करके >जगत (B) से ब्रह्म (A) में या 'समाधि' में पहुँचना ]🔱🙏अर्जुन ने भीष्म पितामह को मारा तो क्या उन्हें पाप नहीं लगा ?🔱🙏[उस अवस्था में पहुँचकर लौटने के बाद प्रेममय की हिंसा ? की जा सकती है !]🔱🙏माँ काली की कृपा से समाधि अवस्था से सामान्य भूमि पर लौटने के बाद किसी पर नाराज होना या 'क्रोध करना'- नामुमकिन है।🔱🙏 🔱🙏 बाद ब्रह्मज्ञान के (Exalted State के) बाद लीला का स्वाद🔱🙏🔱🙏 तुम मुझे मन दो, मैं तुम्हें ज्ञान दूँगा !🔱🙏'Give me your mind and I shall give you Knowledge.' [जीव विज्ञान - आध्यात्मिक जगत में 'प्राकृतिक कानून'][Biology — 'Natural law' in the Spiritual world ]🔱🙏 समाधिस्थ पुरुष उतरकर कह नहीं सकता कि उसने क्या देखा🔱🙏 ईश्वरदर्शन तथा व्याकुलता🔱🙏श्री रामकृष्ण के भक्तों और सत्यार्थीयों को आश्वासन और वचन🔱🙏 ईश्वर ही गुरु/नेता है - जीवों के लिए मोक्ष का एकमात्र साधन 🔱🙏पंच भूतेर फाँदे ब्रह्म पड़े काँदे, किन्तु अवतार जब चाहें मुक्त हो सकते हैं 🔱🙏ईश्वरकोटि और जीवकोटि के नेता में फर्क🔱🙏

*परिच्छेद~ ११४* 

नरेन्द्र आदि भक्तों को उपदेश*

(१)

[(शनिवार, मई 9, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-114] 

🔱🙏नरेन्द्र तथा हाजरा महाशय🔱🙏

নরেন্দ্র ও হাজরা মহাশয়

श्रीरामकृष्ण बलराम के दुमँजले के बैठकखाने में भक्तों के बीच में प्रसन्नतापूर्वक बैठे हुए उनसे वार्तालाप कर रहे हैं । नरेन्द्र, मास्टर, भवनाथ, पूर्ण, पल्टू, छोटे नरेन्द्र, गिरीश, रामबाबू, द्विज, विनोद आदि बहुत से भक्त चारों ओर से घेरकर बैठे हुए हैं ।

It was about three o'clock in the afternoon. Sri Ramakrishna sat in Balaram's drawing-room in a happy mood. Many devotees were present. Narendra, M., Bhavanath, Purna, Paltu, the younger Naren, Girish, Ram, Binode, Dwija, and others sat around him.

ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ বলরামের দ্বিতলের বৈঠকখানায় ভক্তসঙ্গে বসিয়া আছেন। সহাস্যবদন। ভক্তদের সঙ্গে কথা কহিতেছেন। নরেন্দ্র, মাস্টার, ভবনাথ, পূর্ণ, পল্টু, ছোট নরেন, গিরিশ, রামবাবু, দ্বিজ, বিনোদ ইত্যাদি অনেক ভক্ত চতুর্দিকে বসিয়া আছেন।

आज शनिवार है । दिन के तीन बजे होंगे । वैशाख की कृष्णा दशमी है । ९ मई, १८८५ । बलराम घर में नहीं हैं । शरीर अस्वस्थ होने के कारण वायुपरिवर्तन के लिए मुँगेर गये हुए हैं । उनकी बड़ी कन्या ने श्रीरामकृष्ण और भक्तों को बुलाकर महोत्सव किया है । भोजन के पश्चात् श्रीरामकृष्ण जरा विश्राम कर रहे हैं ।

Balaram was not there. He had gone to Monghyr for a change of air. His eldest daughter had invited Sri Ramakrishna and the devotees and celebrated the occasion with a feast. The Master was resting after the meal.

আজ শনিবার (২৭শে বৈশাখ, ১২৯২) — বেলা ৩টা — বৈশাখ কৃষ্ণাদশমী, ৯ই মে, ১৮৮৫। বলরাম বাড়িতে নাই, শরীর অসুস্থ থাকাতে, মুঙ্গেরে জলবায়ু পরিবর্তন করিতে গিয়াছেন। জ্যেষ্ঠা কন্যা (এযন স্বর্গগতা) ঠাকুর ও ভক্তদের নিমন্ত্রণ করিয়া আনিয়া মহোৎসব করিয়াছেন। ঠাকুর খাওয়া-দাওয়ার পর একটু বিশ্রাম করিতেছেন।

[(शनिवार, मई 9, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-114] 

🔱🙏समाधि के बाद 'सतोगुणी अहं' उदार हो जाता है🔱🙏 

श्रीरामकृष्ण मास्टर से बार बार पूछ रहे हैं, 'बताओ तो सही, क्या मैं उदार हूँ ?’ भवनाथ ने हँसकर कहा, 'ये और क्या कहेंगे, चुप रहने के सिवा ?

Again and again the Master asked M.: "Am I liberal-minded? Tell me."

BHAVANATH (smiling): "Why do you ask him? He will only keep quiet."

ঠাকুর মাস্টারকে বারবার জিজ্ঞাসা করিতেছেন, “তুমি বল, আমি কি উদার?” ভবনাথ সহাস্যে বলিতেছেন, “উনি আর কি বলবেন, চুপ করে থাকবেন!”

उत्तरप्रदेश का एक भिक्षुक गाने के लिए आया । भक्तों ने दो गाने सुने । गाने नरेन्द्र को अच्छे लगे। उन्होंने गानेवाले से कहा, 'और गाओ ।'

A beggar entered the room. He wanted to sing. The devotees listened to a song or two. Narendra liked his singing and asked him to sing more.

একজন হিন্দুস্থানী ভিখারী গান গাইতে আসিয়াছেন। ভক্তেরা দুই-একটি গান শুনিলেন। গান নরেন্দ্রের ভাল লাগিয়াছে। তিনি গায়ককে বলিলেন, ‘আবার গাও।’

श्रीरामकृष्ण - बस बस, अब रहने दो, पैसे कहाँ हैं ? - (नरेन्द्र से) - कह तो दिया तूने !

MASTER: "Stop! Stop! We don't want any more songs. Where is the money? (To Narendra) You may order the music, but who will pay?"

শ্রীরামকৃষ্ণ — থাক্‌ থাক্‌, আর কাজ নাই, পয়সা কোথায়? (নরেন্দ্রের প্রতি) তুই তো বললি!

भक्त (हँसकर) - महाराज, आपको इसने अमीर समझा है । आप तकिये के सहारे बैठे हुए हैं न - (सब हँसते हैं)

A DEVOTEE (smiling): "Sir, the beggar may think you are an amir, a wealthy aristocrat, the way you are leaning against that big pillow." (All laugh.)

ভক্ত (সহাস্যে) — মহাশয়, আপনাকে আমীর ঠাওরেছে; আপনি তাকিয়া ঠেসান দিয়া বসিয়া আছেন — (সকলের হাস্য)।

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - यह भी तो सोच सकता है कि बीमार हैं ।

MASTER (smiling): "He may also think I am ill."

শ্রীরামকৃষ্ণ (হাসিয়া) — ব্যারাম হয়েছে, ভাবতে পারে।

हाजरा के अहंकार की बात होने लगी । किसी कारण से दक्षिणेश्वर के कालीमन्दीर से हाजरा को चला जाना पड़ा ।

The conversation drifted to Hazra and his egotism. For some reason he had had to go away from Dakshineswar.

হাজরার অহংকারের কথা পড়িল। কোনও কারণে দক্ষিণেশ্বরের কালীবাটী ত্যাগ করিয়া হাজরার চলিয়া আসিতে হইয়াছিল।

नरेन्द्र - हाजरा अब मानता है कि उसे अहंकार हुआ था !

NARENDRA: "Hazra now admits he was egotistic."

নরেন্দ্র — হাজরা এখন মানছে, তার অহংকার হয়েছিল।

श्रीरामकृष्ण - इस बात पर विश्वास न करना । दक्षिणेश्वर में फिर से आने के लिए उस तरह की बातें कह रहा होगा । (भक्तों से) नरेन्द्र केवल यही कहता है कि हाजरा तो बड़ा अच्छा है

MASTER: "Don't believe him. He says so in order to come back to Dakshineswar. (To the devotees) Narendra always insists that Hazra is a grand person."

শ্রীরামকৃষ্ণ — ও-কথা বিশ্বাস করো না। দক্ষিণেশ্বরে আবার আসবার জন্য ওরূপ কথা বলছে। (ভক্তদিগকে) নরেন্দ্র কেবল বলে, ‘হাজরা খুব লোক।’

नरेन्द्र - मैं अब भी कहता हूँ ।

NARENDRA: "Even now I say so."

নরেন্দ্র — এখনও বলি।

श्रीरामकृष्ण - क्या इतनी बातें सुनने पर भी ?

MASTER: "Why? You have heard so much about him, and still you think so?"

শ্রীরামকৃষ্ণ — কেন? এত সব শুনলি।

नरेन्द्र - दोष कुछ ही हैं, परन्तु गुण उसमें बहुत से हैं ।

NARENDRA: "He has slight defects but many virtues."

নরেন্দ্র — দোষ একটু, — কিন্তু গুণ অনেকটা।

श्रीरामकृष्ण - हाँ, निष्ठा है । उसने मुझसे कहा - अभी तो मैं तुम्हें नहीं सुहाता, परन्तु पीछे से फिर मुझे खोजना होगा । श्रीरामपुर से अद्वैतवंश का एक गोस्वामी आया हुआ था । दक्षिणेश्वर में दो-एक रात रहने की उसकी इच्छा थी । मैंने उसकी खातिर की और उससे रहने के लिए कहा । हाजरा ने कहा, इसे खजांची के पास भेज दो ।

MASTER: "I admit that he has devotion to his ideal. He said to me, 'You don't care for me now, but later you will be seeking my company.' A goswami came from Srerampore. He was a descendant of Advaita Goswami. He intended to spend a night or two at the temple garden. I asked him very cordially to stay. Do you know what Hazra said to me? He said, 'Send him to the temple officer.' 

শ্রীরামকৃষ্ণ — নিষ্ঠা আছে বটে।“সে আমায় বলে, এখন তোমার আমাকে ভাল লাগছে না, — কিন্তু পরে আমাকে তোমায় খুঁজতে হবে। শ্রীরামপুর থেকে একটি গোঁসাই এসেছিল, অদ্বৈত বংশ। ইচ্ছা, ওখানে একরাত্রি দুরাত্রি থাকে। আমি যত্ন করে তাকে থাকতে বললুম। হাজরা বলে কি, ‘খাজাঞ্চীর কাছে ওকে পাঠাও’

उसके इस तरह कहने का मतलब यह था कि कहीं वह गोस्वामी कुछ माँग बैठे तो हाजरा के हिस्से से ही न देना हो ! मैंने कहा - 'क्यों रे साला, उसे गोस्वामी समझकर मैं तो लम्बा दण्डवत करता हूँ और तू संसार में रहकर कामिनी और कांचन लेकर अब कुछ जप करके इतना अहंकार कर रहा है ? - तुझे लज्जा नहीं आती ?'

What was in his mind was that the goswami might ask for milk or food, and that he might have to give him some from his own share. I said to Hazra: 'Now, you rogue! Even I prostrate myself before him because he is a goswami. And you, after leading a worldly life and indulging a great deal in "woman and gold", have so much pride because of a little japa! Aren't you ashamed of yourself?'

এ-কথার মানে এই যে, দুধটুধ পাছে চায়, তাহলে হাজরার ভাগ থেকে কিছু দিতে হয়। আমি বললুম, — তবে রে শালা! গোঁসাই বলে আমি ওর কাছে সাষ্টাঙ্গ হই, আর তুই সংসারে থেকে কামিনী-কাঞ্চন লয়ে নানা কাণ্ড করে — এখন একটু জপ করে এত অহংকার হয়েছে! লজ্জা করে না!

[(शनिवार, मई 9, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-114] 

🔱🙏समाधि के बाद सतोगुणी 'अहं ' ही माँ की भक्ति करता है🔱🙏  

“सतोगुण से ईश्वर मिलते हैं, रजोगुण और तमोगुण ईश्वर से अलग कर देते हैं । सतोगुण की उपमा सफेद रंग से दी गयी है, रजोगुण की लाल और तमोगुण की काले से । मैंने एक दिन हाजरा से पूछा - 'तुम बताओ, किसमें कितना सतोगुण हुआ है ?' उसने कहा, 'नरेन्द्र को सोलह आना और मुझे एक रुपया दो आना ।' मैंने अपने लिए पूछा, 'मुझमें कितना है ?' उसने कहा, 'तुम्हारी तो ललाई अभी हट रही है, - तुम्हें बारह आना है ।' (सब हँसे)

"One realizes God through sattva. Rajas and tamas take one away from Him. The scriptures describe sattva as white, rajas as red, and tamas as black. Once I asked Hazra: Tell me what you think of the people that come here. How much sattva does each one possess?' He said, 'Narendra has one hundred per cent and I have one hundred and ten per cent.' 'What about me?' I asked. And he said: 'You still have a trace of pink. You have only seventy-five per cent, I should say.' (All laugh.)

“সত্ত্বগুণে ঈশ্বরকে পাওয়া যায়; রজঃ, তমোগুণে ঈশ্বর থেকে তফাত করে। সত্ত্বগুণকে সাদা রঙের সঙ্গে উপমা দিয়েছে, রজোগুণকে লাল রঙের সঙ্গে, আর তমোগুণকে কালো রঙের সঙ্গে। আমি একদিন হাজরাকে জিজ্ঞাসা করলাম, তুমি বল কার কত সত্ত্বগুণ হয়েছে। সে বললে, ‘নরেন্দ্রের ষোল আনা; আর আমার একটাকা দুইআনা।’ জিজ্ঞাসা করলাম, আমার কত হয়েছে? তা বললে, তোমার এখনও লালচে মারছে, — তোমার বার আনা। (সকলের হাস্য)

"दक्षिणेश्वर में बैठकर हाजरा जप करता था और उसी के भीतर से दलाली की भी कोशिश करता था । घर में कुछ हजार रुपया कर्ज था - उस कर्ज के अदा करने की फिक्र में था । भोजन पकानेवाले ब्राह्मणों के सम्बन्ध में उसने कहा था, 'इस तरह के आदमियों से क्या हम कभी बातचीत करते हैं ?'

"Hazra used to practise japa at Dakshineswar. While telling his beads, he would also try to do a little brokerage business. He has a debt of a few thousand rupees which he must clear up. About the brahmin cooks of the temple he remarked, 'Do you think I talk with people of that sort?'

“দক্ষিণেশ্বরে বসে হাজরা জপ করত। আবার ওরই ভিতর থেকে দালালির চেষ্টা করত! বাড়িতে কয় হাজার টাকা দেনা আছে — সেই দেনা শুধতে হবে। রাঁধুনী বামুনদের কথায় বলেছিল, ও-সব লোকের সঙ্গে আমরা কি কথা কই!”

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>>>सतोगुण क्या है? सात्विक जीवन कैसा होता है?

(समाधि से लौटने के बाद) मन की वह स्तिथि जब उसे (सात्विक अहं को)  यह ज्ञात हो जाए की प्रकृति (देश -काल -निमित्त) क्या है? और आत्मा क्या है? और जहाँ पहुंचकर उसका मन शांति और अविचलन (निश्चल तत्व -इन्द्रियातीत सत्य ) को प्राप्त करता है उसे ही सतोगुण या सत्वगुण में प्रवेश कहा जाता है।

अतः हम कह सकते हैं एक सतोगुणी अहं रखने वाला व्यक्ति बोधवान पुरुष - 'बुद्ध ' हो जाता  है जो तामसिक और रजोगुणी जीवन का त्याग कर, सदैव लोक-सेवक की भूमिका में रहता है। 

तामसिक अहं वाले व्यक्ति के लिए जहाँ बेहोशी, आलस्य ही प्यारा होता है वहीँ एक राजसिक अहं रखने वाले व्यक्ति की चेतना महत्वाकांक्षी होती है। जो उसे जीवन में शांति की तरफ बढ़ने का सन्देश देता है। किन्तु  राजसिक से सात्विक जीवन की तरफ बढ़ने की प्रक्रिया को बेहद कम लोग पार कर पाते हैं। क्योंकि राजसिक जीवन जीने वाले बेहद कम लोग वास्तव में  यह जानने का प्रयास कर पाते हैं की जीवन में सुख सुविधाएं होने के बावजूद क्यों उनके जीवन में असीम दुःख है जबकि आनन्द बहुत कम है।

जब ऐसे कुछ राजसिक अहं वाले लोग (राजर्षि जनक जैसे)  लोग जो इस मूल प्रश्न का उत्तर गहराई से खोजने का प्रयास करते हैं वे अंततः जान लेते हैं की प्रक्रति (माया-देश-काल -निमित्त के राज्य में ) के अधीन रहकर इन दुखों का जीवन में होना सामान्य बात है। अतः जब वे इस शरीर-मन  को एक जड़-प्रक्रति के रूप में देखते हैं और शरीर-मन  से अधिक चेतना (आत्मा की शक्ति)  को महत्व देते है तो एक नए आयाम का जीवन जीने लगते हैं।

याद रखें सतोगुण जीवन की परम अवस्था नहीं अपितु प्रकृति की श्रेष्टतम अवस्था होती है।  अतः सतोगुणी व्यक्ति भी प्रकृति के इस खेल यानी बन्धनों में (ऐषणाओं के बंधनो में )  फंसा रहता है। उसे इस तल पर अनेक तरह के सुख प्राप्त होते हैं लेकिन उन सुखों के पार जाने में ही परमात्मा का साक्षात्कार हो पाता है।

>>>>सतोगुणी जीवन के कुछ लक्षण होते हैं, जो निम्नलिखित हैं!

1. सतोगुणी व्यक्ति आत्म संतुष्ट रहता है, उसके मन में 'Lust and Lucre' वासना और धन   के प्रति आसक्ति, राग- द्वेष निम्न हो जाती हैं!

2. सतोगुणी व्यक्ति के जीवन में भी अच्छी बुरी घटना बाहरी तौर पर घटती रहती हैं। लेकिन भीतर ही भीतर आत्मबोध के कारण वह शांत रहता है।

3. सांसारिक दुनिया से कुछ पाने की दौड़ जो आम लोगों में होती है वह दौड़ सतोगुणी व्यक्ति के जीवन से समाप्त हो जाती है।

4. सतोगुणी व्यक्ति के लिए माँ जगदम्बा  की भक्ति ही उसे अपार आनंद की अनुभूति करवाती है, भजन कीर्तन (काली -कीर्तन) से दिल को मिलने वाला सुकून बेहद विशेष होता है!

5. सतोगुणी व्यक्ति चूँकि बोधवान होता है लेकिन उसका अहम् जानता है ये बोध 'मुझे' प्राप्त हुआ है, अतः सतोगुणी व्यक्ति में भी अहंकार होता है!

>>>सतोगुणी जीवन कैसे जियें?

सतोगुणी जीवन व्यतीत करने के लिए सर्वप्रथम आपको यह निर्धारित करना होगा की इस समय आप किस तल का जीवन जी रहे हैं? अगर आप बिलकुल निम्नकोटी का यानी तामसिक जीवन व्यतीत कर रहे हैं तो आपको सर्वप्रथम अपनी चेतना को ऊपर उठाकर उसे राजसिक जीवन में लाना होगा। 

अब एक बार आप राजसिक जीवन जीने लगते हैं, तो जीवन में बहुत कुछ ऐसा मिल जाता है जिसे पाने से आपको असीम आनन्द और सुख मिल जाता है, पर आप पाते हैं जो सुख, आनंद की अनुभूति आपको हुई है वो सिर्फ कुछ पलों के लिए है। यह ऐसे ही है जैसे महीने भर बोरियत से भरा कार्य करने के पश्चात व्यक्ति अंत में महीने की सैलरी से कुछ दिन घूमने या फिर रेस्टोरेंट में बढ़िया भोजन खाने की तरफ रवाना हो जाता है। ऐसा करके थोड़ी देर पैसे से उसे सुख तो मिलता है पर वो सुख कुछ समय या दिन ही टीक पाता है! फिर जब आदमी कई वर्ष इसी तरह जीवन व्यतीत करने लगता है और पाता है ऐसा करने पर सुख की अपेक्षा उसे दुःख अधिक मिल रहा है!तो फिर वो अब आगे बढ़ने की सोचता है, और आगे बढ़ने के लिए उसे अपने पुराने सभी बंधन तोड़ने होंगे अर्थात पुराने जीवन को त्यागना होगा।

और जब वह ऐसा करके आगे बढ़ता है और आध्याम्तिक ग्रन्थों या एक अच्छे गुरु की सहायता से उसे जीवन की समस्याओं का मूल कारण और बन्धनों की वजह [तीनो ऐषणाओं में आसक्ति]  पता चलती है। तो उस हकीकत को जानकार उसे जीवन में जो ज्ञान का प्रकाश मिलता है वो अमूल्य होता है फिर उसके लिए वो सभी चीजें लगभग व्यर्थ होती है जो की किसी तामसिक या राजसिक व्यक्ति को बहुत भाँती है और वो उन्हें पाने की लालसा में दौड़ता रहता है। दुसरे शब्दों में कहें तो सतोगुणी होने पर व्यक्ति के जीवन में अन्धकार मिट जाता है, उसकी दुनिया में भाग दौड़ करने की रेस समाप्त हो जाती है।

और इस अवस्था में उसे असीम आनद और शांति मिलती है, ऐसा व्यक्ति फिर यह समझ जाता है कि वैराग्य क्या है ?  इस दुनिया में हम भोगों को नहीं भोगते, भोग ही हमें भोग रहे होते हैं ! पानी की तरंग और बुलबुले के समान इस चंचल और नश्वर जीवन में प्राणियों को भला सुख कहाँ मिल सकता है। वृद्धावस्था में जीर्ण तथा झुर्रियों वाले अंगों से युक्त होकर मनुष्य को सब कुछ छोड़कर काल के गर्त में जाना पड़ता है - भोगों को भोगना समाप्त नहीं होता अपितु व्यक्ति ही समाप्त हो जाता है। कवि ने कितनी गम्भीर बात कही है-

भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः ।।

कालो न यातो वयमेव याताः तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः ।।

अर्थ -हमने भोगों को नहीं भोगा, बल्कि भोगों ने ही हमें भोग लिया है। तपस्या हमने नहीं की, बल्कि त्रिविध (आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक) तापों ने हमें ही तप्त कर दिया (जला डाला) है। (नाना प्रकार के भोगों को भोगते हुये) हम समय को व्यतीत नहीं कर पाये, बल्कि स्वयं ही व्यतीत (शैशव से यौवन और पुनः जरावस्था को प्राप्त) हो गये। हमारी तृष्णा (और अधिक पाने की लालसा) जीर्ण नहीं हुई, बल्कि हम स्वयं ही जीर्ण शीर्ण (वृद्ध) हो गये। 

जितना हम भोगते हैं वस्तुओं को, लोगों को उतना ही अन्दर का दुःख गहरा होता चला जाता है अतः सतोगुणी व्यक्ति का जीवन श्रेष्टतम हो जाता है उसे इश्वर की भक्ति में आनन्द आने लगता है!बाहर बाहर उसके जीवन में कुछ भी घटता है उसे कुछ प्रभाव नहीं पड़ता, अन्दर से चूँकि उसका मन शांत और अविचलित रहता है! इस प्रकार भृतहरि ने यहाँ संसार की आसारता और वैराग्य के महत्त्व का प्रतिपादन किया है।  कवि की तो यही कामना है कि किसी पुण्यमय अरण्य में शिव-शिव का उच्चारण करते हुये उसका समय बीतता जाये।

अतः सतोगुणी व्यक्ति का जीवन श्रेष्टतम हो जाता है उसे इश्वर की भक्ति में आनन्द आने लगता है!बाहर बाहर उसके जीवन में कुछ भी घटता है उसे कुछ प्रभाव नहीं पड़ता, अन्दर से चूँकि उसका मन शांत और अविचलित रहता है!

>>>सतोगुण से भी परे निकल जाने वालों का जीवन कैसा होता है?

क्योंकि सतोगुण परम आनंद की अवस्था होती है, अतः इस गुण पर आने के बाद इससे पार जाने के विषय में बेहद कम लोगों की जिज्ञासा रहती है। क्योंकि इस उच्चतम तल पर आपको जीवन में बोध, शांति मिली रहती है अतः कई लोग इस अवस्था में आकर रुक जाते हैं! 

पर स्वयं कृष्ण भगवान् हमें गीता में इन गुणों से बाहर जाने की बात कहते हैं। (अध्याय-२-श्लोक-४५)

त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।

निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्॥४५॥

।।2.45।। वेद तीनों गुणों के कार्य का ही वर्णन करने वाले हैं; हे अर्जुन! तू तीनों गुणों से रहित हो जा, निर्द्वन्द्व हो जा, निरन्तर नित्य वस्तु परमात्मा में स्थित हो जा, योगक्षेम की चाहना भी मत रख और परमात्मपरायण हो जा।

     ज्ञान, क्रिया और निष्क्रियता ये क्रमश सत्त्व रज और तमोगुण के लक्षण हैं। इस श्लोक की दूसरी पंक्ति में त्रिगुणों के ऊपर उठकर असीम आनन्द में स्थित होने की साधना बतायी गयी है। पूर्व उपदिष्ट समत्व भाव का ही उपदेश यहाँ दूसरे शब्दों में किया गया है।

विभिन्न अनुपातों में सत्त्व रज और तम इन तीन गुणों के संयोग से प्राणियों का निर्माण हुआ है। अन्तःकरण (चित्त-मन- बुद्धि और अहंकार) इन तीन गुणों का ही कार्य है। तीन गुणों के परे जाने का अर्थ है मन (यानि 'द्रष्टा अहं' शरीर के साथ जो मिथ्या तादात्म्य बना हुआ है - M/F भाव बना हुआ है ) के परे जाना। 'Copper-Zinc-Tin (Stannum-Sn) Alloy  -तांबा जस्ता और टिन ( या रांगा लैटिन में इसका नाम स्टैन्नम  है।)  से निर्मित किसी मिश्र धातु का पात्र बना हो और यदि उसमें से इन तीनों धातुओं को विलग करने के लिये कहा जाय तो उसका अर्थ उस पात्र को ही नष्ट करना होगा।

       उपनिषद् (विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर परम्परा में मनःसंयोग का प्रशिक्षण)  साधक को मन के परे जाने का (समाधि में जाने का) उपदेश देते हैं जिससे साधक को अपने आत्मस्वरूप ईश्वर के साथ एकत्व की अनुभूति या  परिचय होगा। उपनिषदों के इस स्पष्ट उपदेश को यथार्थ में नहीं समझने के कारण अनेक हिन्दू लोग अपने धर्म से अलग हो गये।  और इसलिये गीता में पुनर्जागरण का आवाहन किया गया। औपनिषदिक अर्थ को ही यहां दूसरे शब्दों में कहा अर्जुन तुम त्रिगुणातीत बनो

मोह का अर्थ है वस्तु को यथार्थ रूप में न पहचानना (आवरण)। जिसके कारण वस्तु का अनुभव किसी अन्य रूप मे ही होता है जिसे विक्षेप कहते हैं और जिसका परिणाम हैशोक। परस्पर भिन्न एवं विपरीत लक्षणों वाले सुख-दुख शीत-उष्ण लाभ-हानि इत्यादि जीवन के द्वन्द्वात्मक अनुभव हैं। इन सब में समभाव में रहने का अर्थ ही निर्द्वन्द्व होना है इनसे मुक्त होना है। यही उपदेश श्रीकृष्ण अर्जुन को दे रहे हैं। 

"आत्मवान भव" इन शब्दों में किया गया है। द्वन्द्वों तथा योगक्षेम के कारण उत्पन्न दुख और पीड़ा केवल तभी सताते हैं जब हमारा तादात्म्य शरीर मन और बुद्धि के साथ होकर अहंकार और स्वार्थ की अधिकता होती है। इन अनात्म उपाधियों के साथ विद्यमान तादात्म्य को छोड़कर इनसे भिन्न अपने शुद्ध चैतन्य स्वरूप के प्रति सतत जागरूक रहने का अभ्यास ही आत्मवान अर्थात् आत्मस्वरूप में स्थित होने का उपाय है।

 इसकी सिद्धि होने पर अहंकार नष्ट हो जाता है और वह साधक त्रिगुणों के परे आत्मा में स्थित हो जाता है। ऐसे सिद्ध पुरुष को वेदों का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता। वास्तव में ज्ञानी पुरुष के होने के कारण वेदवाक्यों का प्रामाण्य सिद्ध होता है।

अतः  सत्वगुण में स्थित होने का अर्थ विवेकजनित शान्ति में स्थित होना है। सत्त्वस्थ बनने के लिए सतत् सजग प्रयत्न की अपेक्षा है। 'निर्योगक्षेम' यहाँ योग का अर्थ है अप्राप्त वस्तु को प्राप्त करना और प्राप्त वस्तु के रक्षण का नाम है क्षेम। मनुष्य के सभी प्रयत्न योग और क्षेम के लिये होते हैं। अत इन दो शब्दों में विश्व के सभी प्राणियों के कर्म समाविष्ट हैं। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि अहंकार और स्वार्थ से प्रेरित कर्मों का निर्देश योग और क्षेम के द्वारा किया गया है। मनुष्य की चिन्ताओं और विक्षेपों का कारण भी ये दो ही हैं। निर्योगक्षेम बनने का अर्थ है इन दोनों को त्याग देना जिससे चिन्ताओं से मुक्ति तत्काल ही मिलती हैं।

पर प्रकृति के इन तीनों गुणों यानि रजोगुण तमोगुण और सतोगुण के आगे जो व्यक्ति चला जाता है वो त्रिगुणातीत हो जाता है, शान्ति के पार जाना ही गुणातीत हो जाना होता है, गुणातीत व्यक्ति को किसी भी श्रेणी में वर्गीकृत करना बहुत मुश्किल हो जाता है।

गुणातीत व्यक्ति फिर साक्षी मात्र हो जाता है, सतोगुण में तो जो अहंकार कहता है मुझे बोध है ज्ञान है, गुणातीत होने पर व्यक्ति का अहम् यानी अहंकार ही समाप्त हो जाता है। सतोगुण में व्यक्ति के अन्दर ज्ञान अपार होता है, लेकिन गुणातीत होने पर व्यक्ति का अज्ञान तो समाप्त होता ही है उसका ज्ञान भी गायब हो जाता है अब वो फिर इन सब गुणों से ऊपर हो जाता है गुणातीत! ज्ञान नहीं होता तो फिर न व्यक्ति के पास अतीत होता है न भविष्य को लकार योजनायें होती है उसके सभी कर्म वर्तमान में होते हैं, गुणातीत व्यक्ति  जिस पल जो कर्म उचित है केवल वही करता है अतः वह सुख और दुःख के पार हो जाता है! अब ऐसा भी नहीं है की वो इस संसार को ही त्याग देता है;  वो आपको कभी सोया दिखाई देगा, तो कभी किसी कर्म को करने में लिप्त दिखाई देगा, कभी खेलता दिखाई देगा तो कभी शांत बिलकुल अतः बड़ा मुश्कल हो पाता है गुणातीत व्यक्ति को पहचानना

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[(शनिवार, मई 9, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-114] 

🔱🙏ऐषणाएँ ही मनुष्य जीवन के लक्ष्य को निर्धारित नहीं करने देतीं🔱🙏 

[Lust and Lucre -ईश्वर (अन्तर्निहित निःस्वार्थपरता या ब्रह्मत्व) की अभिव्यक्ति में बाधक हैं]

[কামনা ঈশ্বরলাভের বিঘ্ন — ঈশ্বর বালকস্বভাব ]

"बात यह है कि थोड़ी भी कामना के रहते ईश्वर को कोई पा नहीं सकता । धर्म की गति सूक्ष्म है । सुई के छेद में सूत डाल रहे हो, परन्तु अगर जरा भी सूत उकसा हुआ हो तो छेद के भीतर कदापि नहीं जा सकता ।

"The truth is that you cannot attain God if you have even a trace of desire. Subtle is the way of dharma. If you are trying to thread a needle, you will not succeed if the thread has even a slight fibre sticking out.

“কি জানো, একটু কামনা থাকলে ভগবানকে পাওয়া যায় না। ধর্মের সূক্ষ্ম গতি! ছুঁচে সুতা পরাচ্ছ — কিন্তু সুতার ভিতর একটু আঁস থাকলে ছুঁচে ভিতর প্রবেশ করবে না।

[(शनिवार, मई 9, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-114] 

[39 वां राष्ट्रीय युवा दिवस मनाने के बाद भी....या ]  

 🔱🙏38 वर्ष तक 5 अभ्यास करने के बाद भी मनुष्य का चरित्र गठन क्यों नहीं होता🔱🙏

"तीस साल तक लोग माला फेरते रहते हैं, फिर भी कुछ नहीं होता – क्यों ? विषैला घाव (gangrenous sore) होने पर कण्डे की आग से सेंका जाता हैं । साधारण दवा से आराम नहीं होता ।

"There are people who perform japa for thirty years and still do not attain any result. Why? A gangrenous sore requires very drastic treatment. Ordinary medicine won't cure it.

“ত্রিশ বছরর মালা জপে, তবু কেন কিছু হয় না? ডাকুর ঘা হলে ঘুঁটের ভাবরা দিতে হয় না। না হলে শুধু ঔষধে আরাম হয় না।

“कामना के रहते हुए चाहे जितनी साधना करो, सिद्धि नहीं मिल सकती । परन्तु एक बात है, ईश्वर की कृपा होने पर, उनकी दया होने पर क्षण भर में सिद्धि मिलती है; जैसे हजार साल का अन्धेरा कमरा - एकाएक अगर कोई दिया ले जाता है तो क्षण भर में प्रकाशित हो जाता है ।

"No matter how much sadhana you practise, you will not realize the goal as long as you have desire. But this also is true, that one can realize the goal in a moment through the grace of God, through His kindness. Take the case of a room that has been dark a thousand years. If somebody suddenly brings a lamp into it, the room is lighted in an instant.

“কামনা থাকতে, যত সাধনা কর না কেন, সিদ্ধিলাভ হয় না। তবে একটি কথা আছে — ঈশ্বরের কৃপা হলে, ঈশ্বরের দয়া হলে একক্ষণে সিদ্ধিলাভ করতে পারে। যেমন হাজার বছরের অন্ধকার ঘর, হঠাৎ কেউ যদি প্রদীপ আনে, তাহলে একক্ষণে আলো হয়ে যায়!

“जैसे गरीब का लड़का बड़े आदमी की दृष्टि में पड़ गया हो; उसके साथ उसने अपनी लड़की का विवाह कर दिया । एक साथ ही चरचकवा- गाड़ी (equipage) -घोड़े, दास-दासी, माल-असबाब, घर-द्वार, सब कुछ हो गया ।"

"Suppose a poor man's son has fallen into the good graces of a rich person. He marries his daughter. Immediately he gets an equipage, clothes, furniture, a house, and other things."

[( 9 मई  , 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-114 ]

🔱🙏ईश्वर का स्वभाव बालक जैसा है, माँगने पर नहीं; बिन माँगे देता है।🔱🙏    

एक भक्त - महाराज, कृपा किस तरह होती है ?

A DEVOTEE: "Sir, how does one receive God's grace?"

একজন ভক্ত — মহাশয়, কৃপা কিরূপে হয়?

श्रीरामकृष्ण - ईश्वर बालस्वभाव हैं, जैसे कोई लड़का अपनी धोती के पल्ले में रत्न भरे बैठा हो । कितने ही आदमी रास्ते से चले जा रहे हैं । उससे बहुतेरे रत्न माँग रहे हैं, परन्तु वह कपड़े में हाथ डाले हुए कहता है, 'नहीं, मैं न दूँगा ।' पर किसी एक ने चाहा ही नहीं, अपने रास्ते चला जा रहा है । उसके पीछे दौड़कर उसने उसकी स्वयं खुशामद करके उसे रत्न दे दिये

MASTER: "God has the nature of a child. A child is sitting with gems in the skirt of his cloth. Many a person passes by him along the road. Many of them pray to him for gems. But he hides the gems with his hands and says, turning away his face, 'No, I will not give any away.' But another man comes along. He doesn't ask for the gems; and yet the child runs after him and offers him the gems, begging him to accept them.

শ্রীরামকৃষ্ণ — ঈশ্বর বালকস্বভাব। যেমন কোন ছেলে কোঁচড়ে রত্ন লয়ে বসে আছে! কত লোক রাস্তা দিয়ে চলে যাচ্ছে। অনেকে তার কাছে রত্ন চাচ্ছে। কিন্তু সে কাপড়ে হাত চেপে মুখ ফিরিয়ে বলে, না আমি দেব না। আবার হয়ত যে চায়নি, চলে যাচ্ছে, পেছনে পেছনে দৌড়ে গিয়ে সেধে তাকে দিয়ে ফেলে!

[( 9 मई  , 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-114 ]

🔱🙏पहले त्याग  - तब समाधि🔱🙏 

[ত্যাগ — তবে ঈশ্বরলাভ — পূর্বকথা — সেজোবাবুর ভাব ]

"त्याग के बिना ईश्वर नहीं मिलते ।"मेरी बात कौन लेता है ? मैं आदमी खोज रहा हूँ, - अपने भाव का आदमी । जिसे अच्छा भक्त देखता हूँ, उसके लिए सोचता हूँ कि वह शायद मेरा भाव ले सके । फिर देखता हूँ, वह एक दूसरे ढँग का हो जाता है ।

"One cannot realize God without renunciation. Who will accept my words? I have been seeking a companion, a sympathetic soul who will understand my feelings. When I see a great devotee, I say to myself, 'Perhaps he will accept my ideal.' But later on I find that he behaves in a different way.

শ্রীরামকৃষ্ণ — ত্যাগ না হলে ঈশ্বরকে পাওয়া যায় না।“আমার কথা লবে কে? আমি সঙ্গী খুঁজছি, — আমার ভাবের লোক। খুব ভক্ত দেখলে মনে হয়, এই বুঝি আমার ভাব নিতে পারবে। আবার দেখি, সে আর-একরকম হয়ে যায়!

"एक भूत अपना साथी खोज रहा था । शनिवार या मंगल को अपघात मृत्यु होने पर भूत होता है । भूत जब कभी देखता था कि शनिवार या मंगल को उसी तरह किसी की मृत्यु होनेवाली है तब उसके पास दौड़ जाता था । सोचता था, अब मुझे एक साथी मिला । परन्तु वह उसके पास गया नहीं कि वह आदमी उठकर बैठ जाता था । छत से गिरकर कोई बेहोश हुआ भी किसी तरह होश में आ जाता था ।

"A ghost sought a companion. One becomes a ghost if one dies from an accident on a Saturday or a Tuesday. So whenever the ghost found someone who seemed to be dying from an accident on either of these days, he would run to him. He would say to himself that at last he had found his companion. But no sooner would he run to the man than he would see the man getting up. The man, perhaps, had fallen from a roof and after a few moments regained consciousness.

“একটা ভূত সঙ্গী খুঁছিল। শনি মঙ্গলবারে অপঘাত-মৃত্যু হলে ভূত হয়। ভূতটা, যেই দেখে কেউ শনি মঙ্গলবারে ওইরকম করে মরছে, অমনি দৌড়ে যায়। মনে করে, এইবার বুঝি আমার সঙ্গী হল। কিন্তু কাছেও যাওয়া, আর সে লোকটা দাঁড়িয়ে উঠেছে। হয়তো ছাদ থেকে পড়ে অজ্ঞান হয়েছে, আবার বেঁচে উঠেছে।

"मथुरबाबू को भावावेश (भाव-विभोर)  हुआ । वे सदा मतवाले की तरह रहते थे - कोई काम न कर सकते थे । तब लोग कहने लगे, ‘इस तरह रहोगे तो जायदाद कौन सम्हालेगा ? छोटे भट्टाचार्य (श्रीरामकृष्ण) ने ही कोई यन्त्र-मन्त्र किया होगा ।'

"Once Mathur Babu was in an ecstatic mood. He behaved like a drunkard and could not look after his work. At this all said: 'Who will look after his estate it he behaves like that? Certainly the young priest (Sri Ramakrishna, who was at that time a priest in the Kali temple.) has cast a spell upon him.'

“সেজোবাবুর ভাব হলসর্বদাই মাতালের মতো থাকে — কোনও কাজ করতে পারে না। তখন সবাই বলে, এরকম হলে বিষয় দেখবে কে? ছোট ভট্‌চার্জি নিশ্চয় কোনও তুক্‌ করেছে।”

[( 9 मई  , 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-114 ]

🔱🙏नरेंद्र ने पहले -पहल समाधि को बेहोशी समझा 🔱🙏 

"नरेन्द्र जब पहले-पहल आया था, तब इसकी छाती पर हाथ रखते ही यह बेहोश हो गया । फिर होश में आकर रोते हुए कहने लगा - 'अजी, मुझे तुमने ऐसा क्यों कर दिया ? मेरे बाबूजी हैं - मेरी माँ जो हैं ।' 'मेरा-मेरा' करना, वह अज्ञान से होता है ।

"During one of Narendra's early visits I touched his chest and he became unconscious. Regaining consciousness, he wept and said: 'Oh, why did you do that to me? I have a father! I have a mother!' This 'I' and 'mine' spring from ignorance.

“নরেন্দ্র যখন প্রথম প্রথম আসে, ওর বুকে হাত দিতে বেহুঁশ হয়ে গেল। তারপর চৈতন্য হলে কেঁদে বলতে লাগল, ওগো আমায় এমন করলে কেন? আমার যে বাবা আছে, আমার যে মা আছে গো! ‘আমার’, ‘আমার’ করা, এটি অজ্ঞান থেকে হয়।

[( 9 मई  , 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-114 ]

 गुरु के शिष्य की दो कहानियां

🔱🙏'संसार मिथ्या है, तू मेरे साथ निकल चल ।' 🔱🙏

The world is illusory. Come away with me.'

“गुरु ने शिष्य से कहा, 'संसार मिथ्या है, तू मेरे साथ निकल चल ।' शिष्य ने कहा, 'महाराज, ये सब मुझे इतना चाहते हैं - मेरे बाबूजी, मेरी माँ, मेरी स्त्री - इन्हें छोड़कर मैं कैसे जाऊँ ? गुरु ने कहा, 'तू मेरा-मेरा करता तो है, और कहता है कि ये सब प्यार करते हैं, परन्तु यह सब भूल है । मैं तुझे एक उपाय बतलाता है, उसे करके देख, तो तू समझ जायेगा कि ये लोग तुझे सचमुच प्यार करते हैं या इसमें दिखावट है ।'यह कहकर एक दवा उन्होंने उसके हाथ में दी और कहा, 'इसे खा लेना, खाने पर तू मुर्दे की तरह हो जायेगा तेरा ज्ञान नष्ट न होगा, तू सब देख-सुन सकेगा । फिर मेरे आने पर क्रमश: तेरी पहले की अवस्था हो जायेगी ।'

"A guru said to his disciple: 'The world is illusory. Come away with me.' 'But, revered sir,' said the disciple, 'my people at home — my father, my mother, my wife — love me so much. How can I give them up?' The guru said: 'No doubt you now have this feeling of "I" and "mine" and say that they love you; but this is all an illusion of your mind. I shall teach you a trick, and you will know whether they love you truly or not.' Saying this, the teacher gave the disciple a pill and said to him: 'Swallow this at home. You will appear to be a corpse, but you will not lose consciousness. You will see everything and hear everything. Then I shall come to your house and gradually you will regain your normal state.'

“গুরু শিষ্যকে বললেন, সংসার মিথ্যা; তুই আমার সঙ্গে চলে আয়। শিষ্য বললে, ঠাকুর এরা আমায় এত ভালবাসে — আমার বাপ, আমার মা, আমার স্ত্রী — এদের ছেড়ে কেমন করে যাব। গুরু বললেন, তুই ‘আমার’ ‘আমার’ করছিস বটে, আর বলছিস ওরা ভালবাসে, কিন্তু ও-সব ভুল। আমি তোকে একটা ফন্দি শিখিয়ে দিচ্ছি, সেইটি করিস, তাহলে বুঝবি সত্য ভালবাসে কি না! এই বলে একটা ঔষধের বড়ি তার হাতে দিয়ে বললেন, এইটি খাস, মড়ার মতন হয়ে যাবি! তোর জ্ঞান যাবে না, সব দেখতে শুনতে পাবি। তারপর আমি গেলে তোর ক্রমে ক্রমে পূর্বাবস্থা হবে।

"शिष्य ने ठीक वैसा ही किया । घर में सब रोने लगे । उसकी माता, स्त्री, सब के सब उल्टी पछाड़ें खाने लगी । इसी समय एक ब्राह्मण ने आकर पूछा, 'यहाँ क्या हुआ है ?" उन लोगों ने कहा, "महाराज, इस लड़के को राम ले गये ।' ब्राह्मण ने उस मुर्दे का हाथ देखकर कहा, 'यह क्या - यह तो मरा नहीं है । मैं एक दवा देता हूँ, उसके खाने से यह अभी चंगा हो जायेगा । उस समय डूबते हुए को जैसे सहारा मिल गया, - घरवाले बड़े प्रसन्न हुए । तब ब्राह्मण ने कहा, ‘परन्तु एक बात है, पहले एक दूसरे आदमी को दवा खानी पड़ेगी, फिर इसे । परन्तु पहले जो दवा खायेंगे, उनकी मृत्यु अनिवार्य है । इसके तो अपने आदमी बहुत हैं, कोई न कोई दवा अवश्य ही खा लेगा । इसकी माँ और इसकी स्त्री बहुत रो रही हैं, ये लोग तो अनायास ही दवा खा लेंगी ।'

"The disciple followed the teacher's instructions and lay on his bed like a dead person. The house was filled with loud wailing. His mother, his wife, and the others lay on the ground weeping bitterly. Just then a brahmin entered the house and said to them, 'What is the matter with you?' 'This boy is dead', they replied. The brahmin felt his pulse and said: 'How is that? No, he is not dead. I have a medicine for him that will cure him completely.' The joy of the relatives was unbounded; it seemed to them that heaven itself had come down into their house. 'But', said the brahmin, 'I must tell you something else. Another person must take some of this medicine first, and then the boy must swallow the rest. But the other person will die. I see he has so many dear relatives here; one of them will certainly agree to take the medicine. I see his wife and mother crying bitterly. Surely they will not hesitate to take it.'

“শিষ্যটি ঠিক ওইরূপ করলে। বাড়িতে কান্নাকাটি পড়ে গেল। মা, স্ত্রী, সকলে আছড়া-পিছড়ি করে কাঁদছে। এমন সময় একটি ব্রাহ্মণ এসে বললে, কি হয়েছে গা? তারা সকলে বললে, এ ছেলেটি মারা গেছে। ব্রাহ্মণ মরা মানুষের হাত দেখে বললেন, সে কি, এ তো মরে নাই। আমি একটি ঔষধ দিচ্ছি, খেলেই সব সেরে যাবে! বাড়ির সকলে তখন যেন হাতে স্বর্গ পেল। তখন ব্রাহ্মণ বললেন, তবে একটি কথা আছে। ঔষধটি আগে একজনের খেতে হবে, তারপর ওর খেতে হবে। যিনি আগে খাবেন, তাঁর কিন্তু মৃত্যু হবে। এর তো অনেক আপনার লোক আছে দেখছি, কেউ না কেউ অবশ্য খেতে পারে। মা কি স্ত্রী এঁরা খুব কাঁদছেন, এঁরা অবশ্য পারেন।

"तब वे सब की सब रोना-धोना बन्द करके चुप हो रहीं । माता ने कहा, 'ऐं, यह इतना बड़ा परिवार, मैं अगर मर गयी तो इन सब की देख-रेख के लिए कौन रहेगा ?’ - यह कहकर वे सोचने-विचारने लगीं । उसकी स्त्री कुछ देर पहले रो रही थी - ‘अरी मेरी दीदी, मुझे यह क्या हो गया – री - ' उसने कहा, 'अरे उन्हें जो होना था, सो तो हो चुका, मेरे दो-तीन नाबालिग लड़के-बच्चे हैं, मैं अगर मर गयी तो फिर इन्हें कौन देखेगा ?'

"At once the weeping stopped and all sat quiet. The mother said: 'Well, this is a big family. Suppose I die; then who will look after the family?' She fell into a reflective mood. The wife, who had been crying a minute before and bemoaning her ill luck, said: 'Well, he has gone the way of mortals. I have these two or three young children. Who will look after them if I die?'

“তখন তারা সব কান্না থামিয়ে, চুপ করে রহিল। মা বললেন, তাই তো এই বৃহৎ সংসার, আমি গেলে, কে এই সব দেখবে শুনবে, এই বলে ভাবতে লাগলেন। স্ত্রী এইমাত্র এই বলে কাঁদছিল — “দিদি গো আমার কি হল গো!’ সে বললে, তাই তো, ওঁর যা হবার হয়ে গেছে। আমার দুটি-তিনটি নাবালক ছেলেমেয়ে — আমি যদি যাই এদের কে দেখবে।

"शिष्य सब देख-सुन रहा था । वह उठकर खड़ा हो गया और कहा, 'गुरुजी, चलिये, आपके साथ चलता हूँ ।' (सब हँसते हैं)

"The disciple saw everything and heard everything. He stood up at once and said to the teacher: 'Let us go, revered sir. I will follow you.' (All laugh.)

“শিষ্য সব দেখছিল শুনছিল। সে তখন দাঁড়িয়ে উঠে পড়ল; আর বললে, গুরুদেব চলুন, আপনার সঙ্গে যাই। (সকলের হাস্য)

[( 9 मई  , 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-114 ]

🔱🙏हठयोगी द्वारा 'पत्नी-प्रेम की जाँच' 🔱🙏 

"एक शिष्य और था । उसने अपने गुरु से कहा था, "मेरो स्त्री मेरी बड़ी सेवा करती है, गुरुजी, मैं उसी के लिए संसार नहीं छोड़ सकता ।' वह शिष्य हठयोग करता था । गुरु ने उसे भी 'पत्नी-प्रेम की जाँच' की एक करतब बतलाया । एकाएक उसके घर में खूब रोना-धोना मच गया । पड़ोसवालों ने आकर देखा, घर में आसन लगाकर हठयोगी बैठा हुआ था, - देह के पुर्जे-पुर्जे टेढ़े हो गये थे ।

."Another disciple said to his teacher: 'Revered sir, my wife takes great care of me. It is for her sake that I cannot give up the world.' The disciple practised hathayoga. The teacher taught him, too, a trick to test his wife's love. One day there was a great wailing in his house.

“আর-একজন শিষ্য গুরুকে বলেছিল, আমার স্ত্রী বড় যত্ন করে, ওর জন্য গুরুদেব যেতে পারছি না। শিষ্যটি হঠযোগ করত। গুরু তাকেও একটি ফন্দি শিখিয়ে দিলেন। একদিন তার বাড়িতে খুব কান্নাকাটি পড়েছে। 

सब ने समझा, उसके प्राण निकल गये हैं । स्त्री पछाड़ें खा रही थी - 'अरे, मेरे भाग्य में क्या यही लिखा था रे - हम अनाथों को छोड़कर तुम कहाँ चले गये – राम - अरी मेरी दीदी री - ऐसा होगा यह मैं नहीं जानती थी री –’ इधर उसके आत्मीय और मित्र खाट ले आये । उसे घर से निकालने लगे ।

 The neighbours came running and saw the hathayogi seated in a posture, his limbs paralysed and distorted. They thought he was dead. His wife fell on the ground, weeping piteously: 'Oh, what has befallen me? How have you provided for our future? Oh, friends, I never dreamt I should meet such a fate!'

পাড়ার লোকেরা এসে দেখে হঠযোগী ঘরে আসনে বসে আছে — এঁকে বেঁকে, আড়ষ্ট হয়ে। সব্বাই বুঝতে পারলে, তার প্রাণবায়ু বেরিয়ে গেছে। স্ত্রী আছড়ে কাঁদছে, ‘ওগো আমাদের কি হল গো — ওগো তুমি আমাদের কি করে গেলে গো — ওগো দিদি গো, এমন হবে তা জানতাম না গো!’ এদিকে আত্মীয় বন্ধুরা খাট এনেছে, ওকে ঘর থেকে বার করছে।

"इसी समय एक अड़चन हुई । सब देह टेढ़ी हो जाने के कारण, लाश कोठरी के द्वार से निकलती न थी । तब एक पड़ोसी दौड़कर कटारी लेकर चौखट काटने लगा । स्त्री अधीर होकर रो रही थी । वह काटने की आवाज सुनकर दौड़ी हुई आयी । रोते हुए उसने पूछा - 'यह क्या करते हो – दा - दा –’ उन लोगों ने कहा, 'ये नहीं निकलते इसलिए चौखट काट रहा हूँ ।'

"In the mean time the relatives and friends had brought a cot to take the corpse out. But suddenly a difficulty arose as they started to move it. Since the body was twisted and stiff, it could not be taken out through the door. A neighbour quickly brought an axe and began to chop away the door-frame. The wife was crying bitterly, when she heard the sound of the axe. She ran to the door. 'What are you doing, friends?' she asked, still weeping. The neighbour said, 'We can't take the body out; so we are chopping away the door-frame.'

“এখন একটি গোল হল। এঁকে বেঁকে আড়ষ্ট হয়ে থাকাতে দ্বার দিয়ে বেরুচ্ছে না। তখন একজন প্রতিবেশী দৌড়ে একটি কাটারি লয়ে দ্বারের চৌকাঠ কাটতে লাগল। স্ত্রী অস্থির হয়ে কাঁদছিল, সে দুমদুম শব্দ শুনে দৌড়ে এল। এসে কাঁদতে কাঁদতে জিজ্ঞাসা করলে, ওগো কি হয়েছে গো! তারা বললে, ইনি বেরুচ্ছেন না, তাই চৌকাঠ কাটছি। তখন স্ত্রী বললে, ওগো, অমন কর্ম করো না গো। 

तब स्त्री ने कहा - 'अरे मेरे दादा - ऐसा काम न करो, मैं तो राँड़ अब हो ही गयी हूँ । मेरे घर का सम्हालनेवाला तो अब कोई रहा ही नहीं, कुछ नाबालिग बच्चे हैं, उन्हें पालकर आदमी बनाना है ! यह दरवाजा चला जायेगा तो दूसरा होने का है ही नहीं, उन्हें जो होना था, सो तो हो ही चुका - उन्हीं के हाथ-पैर काट दो ।' तब हठयोगी उठकर खड़ा हो गया । तब दवा का असर जाता रहा था ।

"'Please', said the wife, 'don't do any such thing. I am a widow now; I have no one to look after me. I have to bring up these young children. If you destroy this door, I shall not be able to replace it. Friends, death is inevitable for all, and my husband cannot be called back to life. You had better cut his limbs.' 

— আমি এখন রাঁড় বেওয়া হলুম। আমার আর দেখবার লোক কেউ নাই, কঠি নাবালক ছেলেকে মানুষ করতে হবে! এ দোয়ার গেলে আর তো হবে না। ওগো, ওঁর যা হবার তা তো হয়ে গেছে — হাত-পা ওঁর কেটে দাও! তখন হঠযোগী দাঁড়িয়া পড়ল। তার তখন ঔষধের ঝোঁক চলে গেছে। 

खड़ा होकर उसने कहा - 'क्यों री साली, हाथ-पैर कटाती है ?' यह कहकर घर छोड़ गुरु के पास चला गया । (सब हँसते हैं)

The hathayogi at once stood up. The effect of the medicine had worn off. He said to his wife: 'You evil one! You want to cut off my hands and feet, do you?' So saying, he renounced home and followed his teacher. (All laugh.)

দাঁড়িয়ে বলছে, ‘তবে রে শালী, আমার হাত-পা কাটবে।’ এই বলে বাড়ি ত্যাগ করে গুরুর সঙ্গে চলে গেল। (সকলের হাস্য)

"बड़ा ढोंग करके स्त्रियाँ रोती हैं । रोने की खबर मिलती है, तो पहले नथ खोल डालती हैं, फिर और और गहने खोलकर सन्दूक के अन्दर ताला लगाकर सुरक्षित रख देती हैं फिर पछाड़ खा-खाकर रोती हैं - 'अरी दीदी - मेरा यह क्या हुआ री –’ "

"Many women make a show of grief. Knowing beforehand that they will have to weep, they first take off their nose-rings and other ornaments, put them securely in a box, and lock it. Then they fall on the ground and weep, 'O friends, what has befallen us?'"

“অনেকে ঢং করে শোক করে। কাঁদতে হবে জেনে আগে নৎ খোলে আর আর গহনা খোলে; খুলে বাক্সর ভিতর চাবি দিয়ে রেখে দেয়। তারপর আছড়ে এসে পড়ে, আর কাঁদে, ‘ওগো দিদিগো, আমার কি হল গো’!”

(२)

[( 9 मई  , 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-114 ]

🔱🙏 श्रीरामकृष्ण माँ काली के अवतार हैं- बिना प्रमाण के विश्वास कैसे करें ?🔱🙏

नरेन्द्र - Proof (प्रमाण) के बिना कैसे विश्वास करूँ कि ईश्वर आदमी होकर आते हैं ?

NARENDRA: "How can I believe, without proof, that God incarnates Him self as a man?"

নরেন্দ্র — Proof (প্রমাণ) না হলে কেমন করে বিশ্বাস করি যে, ঈশ্বর মানুষ হয়ে আসেন।

गिरीश - विश्वास ही Sufficient Proof (यथेष्ट प्रमाण) है । यह वस्तु यहाँ है, इसका क्या प्रमाण है ? विश्वास ही इसका प्रमाण है ।

GIRISH: "Faith alone is sufficient. What is the proof that these objects exist here? Faith alone is the proof."

গিরিশ — বিশ্বাসই sufficient proof (যথেষ্ট প্রমাণ)। এই জিনিসটা এখানে আছে, এর প্রমাণ কি? বিশ্বাসই প্রমান।

[( 9 मई  , 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-114 ]

🔱🙏दृष्टिगोचर बाह्य जगत केवल एक अप्रतिरोध्य विश्वास है 🔱🙏

 [The visible external world is only an irresistible belief]

 দৃশ্যমান বাহ্যিক জগত শুধুমাত্র একটি অপ্রতিরোধ্য বিশ্বাস 

एक भक्त - External World (बहिर्जगत्) बाहर है, इस बात को क्या कोई Philosopher ( दार्शनिक) Prove (प्रमाणित) कर सका है ? केवल कहा है - Irresistible Belief (अप्रतिरोध्य विश्वास) ।

A DEVOTEE: "Have philosophers been able to prove that the external world exists outside us? But they say we have an irresistible belief in it."

একজন ভক্ত — External world (বহির্জগৎ) বাহিরে আছে ফিলসফার (দার্শনিকরা) কেউ Prove করতে পেরেছে? তবে বলেছে irresistible belief (বিশ্বাস)।

गिरीश (नरेन्द्र से) - ईश्वर सामने आने पर भी तो तुम विश्वास नहीं करोगे । यदि ईश्वर कहेंगे, 'मैं ईश्वर हूँ, मनुष्य के शरीर में आया हुआ हूँ’, तुम शायद कहोगे कि वे झूठ बोल रहे हैं - धोखा दे रहे हैं ।

GIRISH (to Narendra): "You wouldn't believe, even if God appeared before you. God Himself might say that He was God born as a man, but perhaps you would say that He was a liar and a cheat."

গিরিশ (নরেন্দ্রের প্রতি) — তোমার সম্মুখে এলেও তো বিশ্বাস করবে না! হয়তো বলবে, ও বলছে আমি ঈশ্বর, মানুষ হয়ে এসেছি, ও মিথ্যাবাদী ভণ্ড।

[( 9 मई  , 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-114 ]

🔱🙏क्या देवता अमर होते हैं ?🔱🙏 

अब यह बात चली कि देवता अमर हैं ।

The conversation turned to the immortality of the gods.

দেবতারা অমর এই কথা পড়িল।

नरेन्द्र - इसका प्रमाण क्या है ?

NARENDRA: "What is the proof of their immortality?"

নরেন্দ্র — তার প্রমাণ কই?

गिरीश - पर तुम्हारे सामने आने पर भी तो विश्वास नहीं करोगे ।

GIRISH: "You wouldn't believe it even if the gods appeared before you."

গিরিশ — তোমার সামনে এলেও তো বিশ্বাস করবে না!

नरेन्द्र - अमर, अतीतकाल में थे इसका प्रमाण भी तो चाहिए । मणि फुसफुसाकर पल्टू से कुछ कह रहे हैं ।

NARENDRA: "That the immortals existed in the past requires proof."

নরেন্দ্র — অমর, past-ages-তে ছিল, প্রুফ চাই।

[( 9 मई  , 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-114 ]

🔱🙏तीन तत्व हैं अनादि….भगवान, जीव और माया।🔱🙏 

पल्टू (नरेन्द्र से, हँसकर) - अमर के लिए अनादि की क्या जरूरत है ? होना है तो अनन्त होना चाहिए ।

M. whispered something to Paltu.PALTU (smiling, to Narendra): "What need is there for the immortals to be without beginning? To be immortal one need only be without end."

মণি পল্টুকে কি বলিতেছেন। পল্টু (নরেন্দ্রের প্রতি, সহাস্যে) — অনাদি কি দরকার? অমর হতে গেলে অনন্ত হওয়া দরকার।

[ तीन तत्व हैं अनादि… . भगवान जीव माया।  वेद में यही ज्ञान दिया गया है कि इन्द्रियों से परमात्मा को ग्रहण नहीं कर सकते । ईश्वर को कल्पित कहनेवाले का ज्ञान मिथ्या है । कल्पित तो वह है , जिसकी स्थिति नहीं हो और मन से कुछ गढ़ लिया गया हो , किंतु एक अनादि अनंत तत्त्व अवश्य है । उसकी स्थिति अवश्य है , वह कल्पित कैसा ? जो असीम है , जिसकी शक्ति अपरिमित है , उसको तुम अपनी परिमित बुद्धि से असीम को कैसे माप सकते हो ? कोई यह नहीं कह सकता कि बुद्धि असीम या अपिरमित है । चाहे वह कौन सी भी चीज (matter ) हो आदी और अंत हरेक चीज मे समायी है।  अगर ईश्वर है तो वह आनादी और अनंत ही होगा इसी भावना से इश्वर को अनादी अनंत कहा गया है। 

 ….."एक असीम पदार्थ को नहीं मानो , तो प्रश्न होगा कि सब ससीम पदार्थों के बाद में क्या होगा ? बिना असीम कहे प्रश्न सिर पर से नहीं उतर सकता । इसलिए एक असीम तत्त्व को मानना ही पड़ेगा । यदि कहो कि यह कल्पित है तो अकल्पित क्या है ? अनंत का अर्थ है जिसके न आदि का पता है और न ही अंत का। अर्थात वे स्वयं श्री नारायण ही हैं। शास्त्रों की मान्यता के अनुसार भाद्रपद महीने की शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तिथि के दिन भगवान विष्णु ने सृष्टि की थी ।  शुरुआत में चौदह लोकों तल, अतल, वितल, सुतल, तलातल, रसातल, पाताल, भू, भुवः, स्वः, जन, तप, सत्य, मह की रचना की थी।  एवं  इन लोकों की रक्षा और पालन के लिए भगवान विष्णु स्वयं भी चौदह रूपों में प्रकट हो गए थे, जिससे वे अनंत प्रतीत होने लगे। इसलिए उस  दिन भगवान विष्णु के अनंत रूपों की पूजा की जाती है। शुद्ध रेशम या कपास के सूत से बने और हल्दी से रंगे हुए चौदह गांठ के अनंत सूत्र  को भगवान विष्णु की तस्वीर या प्रतिमा के सामने रखकर पूजा की जाती है। इस शुद्ध अनंत, जिसकी पूजा की गई होती है, को पुरुष दाहिने और स्त्री बांये हाथ में बांधते हैं। यह डोरा भगवान विष्णु को प्रसन्न करने वाला तथा अनंत फल देने वाला माना गया है।इस दिन श्री विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र का पाठ करना बहुत उत्तम माना जाता है। 

जायस्व म्रियस्व ध्रुवं :    " जिन्हें आत्मज्ञान नहीं होता वे आत्मघाती हैं। पाँच इन्द्रिय-विषयों (रूप-रस-शब्द -गंध और स्पर्श आदि) की फाँसी लगकर उनके प्राण निकल जाते हैं। तू भी तो मनुष्य है -चार  दिनों की चांदनी के तुच्छ भोगों की उपेक्षा नहीं कर सकता ? जायस्व म्रियस्व के दल में जायेगा ? 'श्रेय' को ग्रहण कर-'प्रेय' का त्याग कर ! भीतर की आत्मा को जगा और बोल-मैंने अभयपद प्राप्त कर लिया है ! बोल- मैं वही आत्मा हूँ,जिसमें मेरा क्षुद्र 'अहं'- भाव डूब गया है ! इसी तरह 'विवेक-प्रयोग' करके सिद्ध बन जा। उसके बाद जितने दिन यह देह रहे, उतने दिन दूसरों को यह महावीर्यप्रद अभय वाणी चाण्डाल आदि सभी को सुना- तत्वमसि ! उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत !  सुनाते सुनाते तेरी बुद्धि भी निर्मल हो जाएगी।"(6/169-180)]

" मेरी अब एकमात्र इच्छा यही है कि देश को जगा डालूँ -मानो महावीर अपनी शक्तिमत्ता से विश्वास खोकर सो रहे हैं-बेखबर होकर सोये पड़े हैं, कोई स्पंदन नहीं-कोई शब्द नहीं है। सनातन धर्म के भाव में इसे किसी प्रकार जगा सकने से समझूंगा कि श्रीरामकृष्ण तथा हमलोग का आना सार्थक हुआ। केवल यही इच्छा है, मुक्ति-टुक्ति तुच्छ लग रही है।"6/160)"इस सर्वमत-ग्रासिनी,सर्वमत-सामंजस ब्रह्म-विद्या का स्वयं अनुभव कर-और जगत में प्रचार कर, उससे अपना कल्याण होगा, जीव का भी कल्याण होगा। ...असल बात यही है कि ब्रह्मज्ञ (ब्रह्मविद)  बनना ही चरम लक्ष्य है-परम पुरुषार्थ है। परन्तु मनुष्य तो हर समय ब्रह्म में स्थित नहीं रह सकता? व्यूत्थान के समय कुछ लेकर तो रहना होगा ? उस समय ऐसा कर्म करना चाहिये, जिससे लोगों का कल्याण हो। इसीलिये तुम लोग से कहता हूँ अभेद्बुद्धि से जीव की सेवा करो। परन्तु भैया, कर्म के ऐसे दांव-घात हैं कि बड़े बड़े साधू भी इसमें आबद्ध हो जाते हैं। "(6/167) 

>>>मरणोपरान्त जीव की गति :

>>>प्रथम गति: छान्दोग्य उपनिषद् (5.10.1-2) का कथन है कि ब्रह्मनिष्ठ, निष्कामकर्मी योगियों की आत्माएँ ज्योतिर्मय, शृंखला को प्राप्त होती हैं। वे देहावसान पर प्रथम सूर्यकिरण की ज्योति, फिर दिन भर की ज्योति, यथाक्रम एक वर्ष की ज्योति समान, फिर आदित्य ज्योति, चन्द्रज्योति, विद्युत ज्योतिर्मय देदीप्यमान हो कर ‘अमानव’ (Non- Human/ Divine) हो जाते हैं। (सम्भवतः विद्युत ज्योति रूप में उनका भौतिक सूक्ष्म शरीर एवं कारण शरीर प्रकृति में लय हो जाते हैं और वे ‘अमानव’ (No more Human) कहलाते हैं।

तदुपरान्त ब्रह्मलोक में वास करते हैं और अन्य मुमुक्षुओं को ब्रह्ममार्ग पर सहायक होते हैं। इस शक्ति का योगदर्शन (3.32) में भी वर्णन है ‘मूर्धज्योतिषि सिद्धदर्शनम्’ अर्थात् मूर्धा की ज्योति पर ध्यान करने से सिद्ध आत्माओं के दर्शन होते हैं जो साधक का मार्गदर्शन करती हैं। यही देवयान-मार्ग है। गीता (8.24 ) में इसे ‘शुक्लगति’ कहा गया है। इसे ‘सौर गति’ भी कहते हैं।

>>>द्वितीय गति: पितृयाण के विषय में छान्दोग्य उपनिषद (5.10.3-5) में कहा गया है कि सकामकर्मी, कुएँ-बावड़ी बनवा कर दान-पुण्य करते हुए जो ईश्वर की पूजा-उपासना करते हैं, वे मृत्यु के बाद ‘मन्द ज्योति’ की क्रमिक शृंखला में से गुजरते हैं। पहले उनका रूप ‘धूम’ (Smoke) के सदृश होता है, फिर रात्रि के समान, यथाक्रम कृष्णपक्ष, छः मास की ज्योतिविहीनता को प्राप्त होते हैं। तदुपरान्त पितृलोक, आकाश, चन्द्रमा को प्राप्त होते हैं और वहाँ सोम-अन्न का भोग करते हैं। वहाँ अपने पुण्य कर्मों का फल भोग कर पुनः आवागमन में आते हैं। गीता (8.25) में इसे ‘कृष्ण गति’ कहा गया है। इसे ‘चान्द्रमसी गति’ भी कहते हैं।

सकाम कर्मियों के भोगों के विषय में मुण्डक उपनिषद् (3.1.10) का कथन है :

यं यं लोकं मनसा संविभाति विशुद्धसत्त्वः कामयते यांश्च कामान्।

तं तं लोकं जयते तांश्च कामांस्तस्मादात्मज्ञं ह्यर्चयद्भूतिकामः।।

अर्थात् अन्तःकरण से शुद्ध सकामी लोग जिस जिस लोक की कामना करते हैं उस-उस लोक को प्राप्त करते हैं। इस इच्छापूर्ति के लिये उन्हें आत्मज्ञ योगियों की अर्चना करनी चाहिये। (उन से दीक्षा लेनी चाहिये ताकि शुभ कामनाएँ ही करें)

ब्रह्माण्ड में असंख्य सूर्य, असंख्य चन्द्रमा, असंख्य पृथ्वियाँ हैं। जिस-जिस लोक की, जिस-जिस पदार्थ की कामना करता है, वहाँ-वहाँ पितृयाण की आत्माएँ पहुँच जाती हैं। यह कोई स्वर्ग विशेष नहीं; केवल इच्छाओं, कामनाओं की पूर्ति के पृथ्वी की भान्ति लोक हैं।

>>>तृतीय गति:छान्दोग्य उपनिषद् (5.10.8)  में तीसरी गति के विषय में कहा हैः अथैतयोः पथोर्न कतरेणचन तानीमानि क्षुद्राण्यसकृदावर्तीनि भूतानि भवन्ति जायस्व म्रियस्वेत्येतत्तृतीयंस्थानं तेनासौ लोको न सम्पूर्यते तस्माज्जुगुप्सेत तदेष श्लोकः ॥ ५.१०.८ ॥

अर्थात् देवयान और पितृयाण - इन दोनों मे से जो किसी एक से भी नहीं जाते, वे छोटे-छोटे जन्तु, कीट पतङ्ग की तरह- बार-बार जन्म लेने वाले बनते हैं - उनका ‘जायस्व-म्रियस्व’ - जन्म-मरण होता है, यह तीसरी गति है।

ब्रह्मनिष्ठ योगी, निष्काम कर्मी देवयान द्वारा परान्तकाल तक ब्रह्मलोक में रहते हैं। पितृयाण द्वारा गये सकाम-कर्मी पुण्य-फल समाप्ति तक इष्टलोकों में रहते हैं।

सामान्य जीव भी मृत्यु के पश्चात् कुछ काल तक दिव्य भुवनों का भ्रमण करते हैं और तद्पश्चात जन्म लेते हैं। इस विषय में यजुर्वेद का मन्त्र (39.6) है :

सविता प्रथमेहन्नग्निर्द्वितीये वायुस्तृतीयेsआदित्यश्चतुर्थे चन्द्रमाः

पञ्चमs ऋतुः षष्ठे मरुतः सप्तमे बृहस्पतिरष्टमे।

मित्रे नवमे वरुणो दशमsइन्द्रsएकादशे विश्वेदेवा द्वादशे।।

हे मनुष्यो! यह जीव-पहले दिन सूर्य, दूसरे दिन अग्नि, तीसरे दिन वायु, चौथे दिन आदित्य, पांचवे दिन चन्द्रमा, छठे दिन ऋतु, सातवें दिन मरुत (मनुष्यादि) आठवें दिन बृहस्पति (बड़ो का पालक सूक्ष्म वायु) नौवें दिन मित्र (प्राण) दसवें दिन वरुण (उदान) ग्यारहवें दिन इन्द्र (विद्युत) और बाहरवें दिन विश्वे (सब) देवाः (दिव्य गुणों) को प्राप्त होते हैं।  सम्भवतः वेद के इस मन्त्र के कारण मृतक की 13वीं (13वें दिन को श्रृद्धांजलि देने ) की प्रथा चल पड़ी है। भाव यह है कि दिवंगत जीव सूर्यप्रकाश आदि दिव्य पदार्थों को प्राप्त कर के, कुछ काल भ्रमण कर के अपने कर्मों के अनुसार गर्भाशय को प्राप्त होते हैं। शरीर को धारण करके उत्पन्न होते हैं और पुण्य-पाप कर्म के द्वारा सुख-दुःख रूप फलों को भोगते हैं।(स्वामी दयानन्द सरस्वती कृत यजुर्वेद भाष्य)

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - नरेन्द्र वकील का लड़का है, पल्टू डिप्टी का लड़का है । (सब हँसते हैं)

MASTER (smiling): "Narendra is the son of a lawyer, but Paltu of a deputy magistrate." (All laugh.)

শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — নরেন্দ্র উকিলের ছেলে, পল্টু ডেপুটির ছেলে। (সকলের হাস্য)

सब कुछ देर चुप हो रहे ।

All kept silent awhile.

সকলে একটু চুপ করিয়া আছেন।

योगीन्द्र (गिरीश आदि भक्तों से, सहास्य) - नरेन्द्र की बातों में ये (श्रीरामकृष्ण) अब नहीं आते ।

JOGIN (smiling): "He [meaning the Master] doesn't accept Narendra's words any more."

যোগীন (গিরিশাদি ভক্তদের প্রতি সহাস্যে) — নরেন্দ্রের কথা ইনি (ঠাকুর) আর লন না।

श्रीरामकृष्ण (हँसकर) - मैंने एक दिन कहा था, चातक आकाश के पानी के सिवा और पानी नहीं पीता । नरेन्द्र ने कहा, 'चातक यह पानी भी पीता है ।' तब मैंने माँ से कहा, 'माँ, ये सब बातें क्या झूठ हो गयीं ?' मुझे बड़ी चिन्ता थी । एक दिन नरेन्द्र आया । कमरे के भीतर कुछ चिड़ियाँ उड़ रही थीं । देखकर उसने कहा, 'यही है - यही है !' मैंने पूछा, ‘क्या ?' उसने कहा, 'यही चातक है ।' मैंने देखा, कुछ चमगीदड़ उड़ रहे थे ! तभी से मैं उसकी बातों को ग्रहण नहीं करता । (सब हँसते हैं)

MASTER (smiling): "One day I remarked that the chatak bird doesn't drink any water except that which falls from the sky. Narendra said, 'The chatak drinks ordinary water as well.' Then I said to the Divine Mother, 'Mother, then are my words untrue?' I was greatly worried about it. Another day, later on, Narendra was here. Several birds were flying about in the room. He exclaimed, 'There! There!' 'What is there?' I asked. He said, 'There is your chatak!' I found they were only bats. Since that day I don't accept what he says. (All laugh.)

শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — আমি একদিন বলছিলাম, চাতক আকাশের জল ছাড়া আর কিছু খায় না। নরেন্দ্র বললে, চাতক এ-জলও খায়। তখন মাকে বললুম, মা এ-সব কথা কি মিথ্যা হয়ে গেল! ভারী ভাবনা হল। একদিন আবার নরেন্দ্র এসেছে। ঘরের ভিতর কতকগুলি পাখি উড়ছিল দেখে বলে উঠল, ‘ওই! ওই!’ আমি বললাম, কি? ও বললে, ‘ওই চাতক! ওই চাতক!’ দেখি কতকগুলো চামচিকে। সেই থেকে ওর কথা আর লই না। (সকলের হাস্য)

[( 9 मई  , 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-114 ]

🔱🙏भगवान-का दर्शन हो जाना क्या मन का भ्रम है?🔱🙏

 Is seeing God an illusion of the mind? 

[ঈশ্বর-রূপদর্শন কি মনের ভুল? ]

"यदु मल्लिक के बगीचे में नरेन्द्र ने कहा, 'तुम ईश्वर के रूप जितने देखते हो, सब तुम्हारे मन का भ्रम है ।' तब आश्चर्य में आकर मैंने उससे कहा, 'क्यों रे, वे बातचीत जो करते हैं ।' नरेन्द्र ने कहा, 'मनुष्य ऐसा ही सोचता है ।' तब माँ के पास आकर मैं रोने लगा । कहा, 'माँ, यह क्या हुआ ? - क्या सब झूठ है ? नरेन्द्र ऐसी बातें कहता है ।'

"At Jadu Mallick's garden house Narendra said to me, 'The forms of God that you see are the fiction of your mind.' I was amazed and said to him, 'But they speak too!' Narendra answered, 'Yes, one may think so.' I went to the temple and wept before the Mother. 'O Mother,' I said, 'what is this? Then is this all false? How could Narendra say that?'

শ্রীরামকৃষ্ণ — যদু মল্লিকের বাগানে নরেন্দ্র বললে, তুমি ঈশ্বরের রূপ-টুপ যা দেখ, ও মনের ভুল। তখন অবাক্‌ হয়ে ওকে বললাম, কথা কয় যে রে? নরেন্দ্র বললে, ও অমন হয়। তখন মার কাছে এসে কাঁদতে লাগলাম! বললাম, মা, এ কি হল! এ-সব কি মিছে? নরেন্দ্র এমন কথা বললে! 

तब माँ ने दिखलाया, चैतन्य - अखण्ड चैतन्य - चैतन्यमय रूप । और उन्होंने कहा, 'अगर ये बातें झूठ होगी, तो ये सब मिलती किस तरह हैं ?' तब मैंने नरेन्द्र से कहा, 'साला, तूने अविश्वास पैदा कर दिया था । तू साला अब यहाँ मत आना ।’"

 Instantly I had a revelation. I saw Consciousness — Indivisible Consciousness — and a divine being formed of that Consciousness. The divine form said to me, 'If your words are untrue, how is it that they tally with the facts?' Thereupon I said to Narendra: 'You rogue! You created unbelief in my mind. Don't come here any more.'"

তখন দেখিয়ে দিলে — চৈতন্য — অখণ্ড চৈতন্য — চৈতন্যময় রূপ। আর বললে, ‘এ-সব কথা মেলে কেমন করে যদি মিথ্যা হবে!’ তখন বলেছিলাম, ‘শালা, তুই আমায় অবিশ্বাস করে দিছলি! তুই আর আসিস নি!’

[( 9 मई  , 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-114 ]

🔱🙏 शास्त्र भी ईश्वर की वाणी  - आकाशवाणी या इहलाम है 🔱🙏

[ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ — শাস্ত্র ও ঈশ্বরের বাণী — Revelation ]

फिर विचार होने लगा । नरेन्द्र तर्क कर रहे हैं । नरेन्द्र की उम्र इस समय बाईस वर्ष चार मास की है ।

The discussion continued. Narendra was arguing. He was then slightly over twenty-two years of age.

আবার বিচার হইতে লাগিল। নরেন্দ্র বিচার করিতেছেন! নরেন্দ্রের বয়স এখন ২২ বৎসর চার মাস হইবে।

नरेन्द्र (गिरीश, मास्टर आदि से) - शास्त्रों पर भी कैसे विश्वास करूँ ? महानिर्वाण-तन्त्र एक बार तो कहता है, ब्रह्मज्ञान के बिना नरक होगा । फिर कहता है, पार्वती की उपासना को छोड़ और उपाय नहीं है । मनुसंहिता में मनुजी कुछ लिखते हैं - वे उन्हीं की अपनी बातें हैं । Moses (मूसा) लिखते हैं Pentateuch (पेन्टट्यूच-या पंचग्रंथ बाइबिल में मूसा की पांच पुस्तकें हैं), - उसमें भी उन्होंने अपनी ही मृत्यु का वर्णन लिखा है ।

[>>>पेन्टट्यूच-या पंचग्रंथ : बाइबल के प्रथम पाँच पुस्तकों के नाम हैं, जिन्हें बाइबल के रूढ़ीवादी धर्मविज्ञानी मूसा के द्वारा लिखा हुआ मानते हैं।  जबकि पंचग्रन्थ में ऐसे कई वचन पाए जाते हैं, जो ऐसा प्रतीत होता है कि मूसा के अतिरिक्त किसी अन्य के द्वारा जोड़े गए हैं — उदाहरण के लिए, व्यवस्थाविवरण 34:5-8, जो मूसा की मृत्यु और उसके गाड़े जाने का विवरण देता है — तथापि, अधिकांश विद्वान इन पुस्तकों में से अधिकांश भागों को मूसा के द्वारा ही लिखे हुआ होना मानते हैं।  इसमें निहित शिक्षा और प्रकाशन मूसा के द्वारा परमेश्‍वर की ओर से आया हुआ होना प्रमाणित होता है, और यह विषय कोई अर्थ नहीं रखता कि किसने इन्हें लिखा, तौभी अन्तिम रूप से लेखक परमेश्‍वर ही है, और यह पुस्तकें अभी भी प्रेरणा प्रदत्त हैं।] 

NARENDRA (to Girish, M., and the others): "How am I to believe in the words of scripture? The Mahanirvana Tantra says, in one place, that unless a man attains the Knowledge of Brahman he goes to hell; and the same book says, in another place, that there is no salvation without the worship of Parvati, the Divine Mother. Manu writes about himself in the Manusamhita; Moses describes his own death in the Pentateuch.

আবার বিচার হইতে লাগিল। নরেন্দ্র বিচার করিতেছেন! নরেন্দ্রের বয়স এখন ২২ বৎসর চার মাস হইবে।নরেন্দ্র (গিরিশ, মাস্টার প্রভৃতিকে) — শাস্ত্রই বা বিশ্বাস কেমন করে করি! মহানির্বাণতন্ত্র একবার বলছেন, ব্রহ্মজ্ঞান না হলে নরক হবে। আবার বলে, পার্বতীর উপাসনা ব্যতীত আর উপায় নাই! মনুসংহিতায় লিখছেন মনুরই কথা। মোজেস লিখছেন পেন্ট্যাটিউক্‌, তাঁরই নিজের মৃত্যুর কথা বর্ণনা!

“सांख्यदर्शन लिखते हैं, 'ईश्वरासिद्धेः ^***(सांख्य दर्शन 1/92)', ईश्वर हैं यह कोई प्रमाणित नहीं कर सकता । फिर कहते हैं, वेद मानना चाहिए, वेद नित्य हैं ।

"इससे मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि ये सब नहीं हैं । मैं समझ नहीं सकता, मुझे समझा दो । शास्त्रों का अर्थ जिसके जी में जैसा आया उसने वैसा ही किया है । अब मैं किस-किसका ग्रहण करूँ ? White light (सफेद रोशनी) red medium (लाल शीशे) के भीतर से आती है तो लाल दीख पड़ती है और green medium (हरे शीशे) के भीतर से आती है तो हरी दीख पड़ती है !"

"The Samkhya philosophy says that God does not exist, because there is no proof of His existence. Again, the same philosophy says that one must accept the Vedas and that they are eternal.

"But I don't say that these are not true. I simply don't understand them. Please explain them to me. People have explained the scriptures according to their fancy. Which explanation shall we accept? White light coming through a red medium appears red, through a green medium, green."

“সাংখ্য দর্শন বলছেন, ‘ঈশ্বরাসিদ্ধেঃ’। ঈশ্বর আছেন, এ প্রমাণ করবার জো নাই। আবার বলে, বেদ মানতে হয়, বেদ নিত্য।

“তা বলে এ-সব নাই, বলছি না! বুঝতে পারছি না, বুঝিয়ে দাও! শাস্ত্রের অর্থ যার যা মনে এসেছে তাই করেছে। এখন কোন্‌টা লব? হোয়াইট লাইট (শ্বেত আলো) রেড মীডিয়ম-এর (লাল কাচের) মধ্য দিয়ে এলে লাল দেখায়। গ্রীন্‌ মীডিয়ম-এর মধ্য দিয়ে এলে গ্রীন দেখায়।”

['ईश्वरासिद्धेः ^***(सांख्य दर्शन 1/92) और कोडरमा : कर्दम ऋषि की उत्पत्ति सृष्टि की रचना के समय ब्रह्मा जी की छाया से हुई थी। ब्रह्मा जी ने उन्हें प्रजा में वृद्धि करने की आज्ञा दी। उनके आदेश का पालन करने के लिये कर्दम ऋषि ने स्वयंभुव मनु के द्वितीय कन्या प्रसूति से विवाह कर नौ कन्याओं तथा एक पुत्र की उत्पत्ति की। कन्याओं के नाम कला, अनुसुइया, श्रद्धा, हविर्भू, गति, क्रिया, ख्याति, अरुन्धती और शान्ति थे तथा पुत्र का नाम कपिल था। कपिल के रूप में देवहूति के गर्भ से स्वयं भगवान विष्णु अवतरित हुये थे।]

'साँख्य शास्त्र के साथ कर्दम ऋषि के पुत्र 'कपिल' का नाम आदि काल से जुडा हुआ है।   इस बात में समस्त भारतीय दर्शन निर्विवाद रूप से एकमत है की साँख्य के प्रवक्ता आदि विद्वान परम ऋषि कपिल है। उसके पश्चात उक्त विचार के प्रभाव में मध्य-कालिक विद्वानों द्वारा साँख्य के "ईश्वरासिद्धेः" सूत्र के वास्तविक आर्थ समझने में भ्रान्ति हो जाने के कारण इस विचार को काफी हवा दी गयी और इस आधार पर कपिल को अनीश्वरवादी मान लिया गया।

वस्तुतः कपिल इस साँख्य सूत्र में जड़ प्रकृति को जगत का मूल उपादान स्वीकार करने के कारण ईश्वर को जगत का केवल अधिष्ठाता व नियंता मानते हैं। इसी कारण प्रकृति के अतिरिक्त ईश्वर तथा अन्य किसी तत्व को जगत के उपादान होने का निषेध किया गया है। ईश्वरासिद्धेः सूत्र में भी जगत के उपादानभूत ईश्वर को असिद्ध बताया है। सर्वजगतनियंता ईश्वर का यहाँ निषेध नहीं हैसाँख्य के अन्य प्रसंगों में भी ईश्वर के जगतनियंता व अधिष्ठाता होने तथा प्रकृति के जगादुत्पादन होने का विस्तृत वर्णन है।

जिस प्रकार किसी घड़े के निर्मित होने में 3 कारण होते हैं, पहला उपदान कारण जोकि यहाँ मिटटी है।  दूसरा निमित्त कारण जोकि यहाँ कुम्भकार है अथवा ज्ञान या चेतन है।  और तीसरा कारण है घड़े का प्रयोजन अथवा निर्माण का उद्देश्य।  जोकि यहाँ अन्य घड़े के उपयोगकर्ता हैं। इन ३ मुख्य कारणों के अलावा सहायकभूत कारण जोकि यहाँ चाक, पानी आदि हैं और उनके भी 3 ही मुख्य कारण होते हैं उपादान, निमित्त और प्रयोजन। उसी प्रकार जगत का एक कारण प्रकृति-उपादान दूसरा सर्वज्ञ ईश्वर-निमित्त और प्रयोजन - अनंत आत्माएं हैं और आत्मा को अविवेक होने के कारण ईश्वर आत्माओं के लिए प्रकृति से जगत निर्मित कर देता है किन्तु स्वयं इन सबसे मुक्त होता है।

सत्व , रजस् और तमस् ये ३ प्रकार के मूल तत्व हैं इनकी साम्यवस्था का नाम प्रकृति है।  अर्थात जब ये तत्व कार्यरूप में परिणित नहीं होते, प्रत्युत मूल कारण रूप में अवस्थित रहते हैं तब इनका नाम प्रकृति है। समस्त कार्य की कारणरूप अवस्था का नाम प्रकृति है। इस प्रकार कार्यमात्र का मूल उपादान होने से गौण रूप में भले इसे एक कहा जाये ,पर प्रकृति नाम का एक व्यक्ति रूप में कोई तत्व नहीं है। कार्यमात्र के उपादान कारण की मूल भूत स्तिथि 'प्रकृति'है। 

जब चेतन की प्रेरणा से उसमें क्षोभ होता है तब वे मूल तत्व कार्योन्मुख हो जाते हैं । अर्थात कार्यरूप में परिणित होने के लिए तत्पर हो जाते हैं। तब उनकी अवस्था साम्य न रह कर वैषम्य की और अग्रसर होती है तब उनका जो प्रथम परिणाम है उसका नाम महत् होता है। इसीको बुद्धि या प्रधान कहते हैं। यहाँ से सर्ग/सृष्टि का आरम्भ होता है महत् से अंहकार आदि और तत्व बनते चले जाते हैं । इनमें मूल प्रकृति केवल उपादान, तथा महत् आदि तेईस पदार्थ उसके विकार हैं। ये चौबीस अचेतन जगत है। इसके अतिरिक्त पुरुष अर्थात चेतन तत्व है। इस प्रकार चौबीस अचेतन और पच्चीसवां पुरुष चेतन है। चेतन तत्व भी २ वर्गों में विभक्त है, एक परमात्मा दूसरा जीवात्मा। परमात्मा एक है जीवात्मा अनेक, अर्थात संख्या की द्रष्टि से अनंत हैं। ये हैं वे समस्त तत्व जिनके वास्तविक स्वरुप को पहचान कर अचेतन तथा चेतन के भेद का साक्षात्कार करना है।

बहुत लोग साँख्ययोग को एक साथ जोड़ कर देखते हैं और उसको एक ही पुस्तक या दर्शन समझते हैं। साँख्य के साथ योग का नाम इसलिए लिया जाता है जैसे हम भौतिक-रसायन, जीव-वनस्पति विज्ञानं आदि विषयों को जोड़ी में रखते हैं अन्यथा साँख्य दर्शन एवं योग दर्शन दोनों अलग पुस्तकें हैं और एक दुसरे की पूरक हैं।  इसी प्रकार हम न्याय-वैशेषिक (न्याय दर्शन , वैशेषिक दर्शन ) और वेदांत-मीमांसा (वेदांत दर्शन अथवा ब्रह्मसूत्र , मीमांसा दर्शन ) का नाम लेते हैं पर वो सभी हैं अलग -अलग पुस्तकें। 

साँख्य योग में जगत के उन मूल तत्वों की संख्यात्मक विवेचना की है जो नेत्रों से दिखाई नहीं देते किन्तु जगत के मूल कारण में वो ही तत्व मुख्य होते हैं। और मोक्ष क्या है और उसकी प्राप्ति कैसे होती है इन सब बातो का भी उसमें उत्तर है । साँख्य को पढने मात्र से ही यह तत्व भेद्ज्ञान नहीं होता जब तक योग दर्शन के अनुरूप सबीज और निर्बीज समाधि तक नहीं पंहुचा जाये। इन तत्वों, आत्मा और इश्वर का साक्षात्कार केवल पढने मात्र या साधारण ज्ञान प्राप्त करने से नहीं होता है इसके लिए उच्च कोटि का पुरषार्थ चाहिए।] 

एक भक्त - गीता भगवान की उक्ति है ।

A DEVOTEE: "The Gita contains the words of God."

একজন ভক্ত — গীতা ভগবান বলেছেন।

श्रीरामकृष्ण - गीता सब शास्त्रों का सार है । संन्यासी के पास और चाहे कुछ न रहे, परन्तु एक छोटी-सी गीता जरूर रहेगी ।

MASTER: "Yes, the Gita is the essence of all scriptures. A sannyasi may or may not keep with him another book, but he always carries a pocket Gita."

শ্রীরামকৃষ্ণ — গীতা সব শাস্ত্রের সার। সন্ন্যাসীর কাছে আর কিছু না থাকে, গীতা একখানি ছোট থাকবে।

एक भक्त - गीता श्रीकृष्ण की उक्ति है ।

A DEVOTEE: "The Gita contains the words of Krishna."

একজন ভক্ত — গীতা শ্রীকৃষ্ণ বলেছেন!

नरेन्द्र - श्रीकृष्ण की उक्ति है या दूसरे किसी की ।

NARENDRA: "Yes, Krishna or any fellow for that matter!"

নরেন্দ্র — শ্রীকৃষ্ণ বলেছেন, না ইয়ে বলেছেন! —

श्रीरामकृष्ण निर्वाक् रहकर नरेन्द्र की ये सब बातें सुन रहे हैं ।

Sri Ramakrishna was amazed at these words of Narendra.

ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ অবাক্‌ হইয়া নরেন্দ্রের এই কথা শুনিতেছেন।

श्रीरामकृष्ण - ये सब अच्छी बातें हो रही हैं । "शास्त्रों के दो अर्थ हैं, एक शब्दार्थ और दूसरा मर्मार्थ । ग्रहण मर्मार्थ का ही करना चाहिए, जो अर्थ ईश्वर की वाणी के साथ मिलता हो । चिट्ठी की बातों में, और जिसने चिट्ठी लिखी है उसकी बातों में बड़ा अन्तर है । शास्त्र हैं - चिट्ठी की बातें । ईश्वर की वाणी है - उनके मुख की बातें । मैं उस बात को ग्रहण नहीं करता जो माँ की बात से नहीं मिलती ।"

MASTER: "This is a fine discussion. There are two interpretations of the scriptures: the literal and the real. One should accept the real meaning alone — what agrees with the words of God. There is a vast difference between the words written in a letter and the direct words of its writer. The scriptures are like the words of the letter; the words of God are direct words. I do not accept anything unless it agrees with the direct words of the Divine Mother."

শ্রীরামকৃষ্ণ — এ-সব বেশ কথা হচ্ছে।“শাস্ত্রের দুইরকম অর্থ — শব্দার্থ ও মর্মার্থ। মর্মার্থটুকু লতে হয়; যে ঈশ্বরের বাণীর সঙ্গে মিলে। চিঠির কথা, আর যে ব্যক্তি চিঠি লিখেছে তার মুখের কথা, অনেক তফাত। শাস্ত্র হচ্ছে চিঠির কথা; ঈশ্বরের বাণী মুখের কথা। আমি মার মুখের কথার সঙ্গে না মিললে কিছুই লই না।”

अब पुनः अवतार की बात होने लगी ।

The conversation again turned to Divine Incarnation.

नरेन्द्र - ईश्वर पर विश्वास होने से ही होगा । फिर वे कहाँ झूल रहे हैं, या क्या कर रहे हैं इससे हमें क्या काम ? ब्रह्माण्ड अनन्त है और अवतार भी अनन्त है ।

NARENDRA: "It is enough to have faith in God. I don't care about what He is doing or what He hangs from. Infinite is the universe; infinite are the Incarnations."

আবার অবতারের কথা পড়িল।নরেন্দ্র — ঈশ্বরে বিশ্বাস থাকলেই হল। তারপর তিনি কোথায় ঝুলছেন বা কি করছেন এ আমার দরকার নাই। অনন্ত ব্রহ্মাণ্ড! অনন্ত অবতার!

नरेन्द्र की यह बात सुनकर श्रीरामकृष्ण ने हाथ जोड़ उन्हें नमस्कार करके कहा – ‘अहा !’

As Sri Ramakrishna heard the words, "Infinite is the universe; infinite are the Incarnations", he said with folded hands, "Ah!"

‘অনন্ত ব্রহ্মাণ্ড’, ‘অনন্ত অবতার’ শুনিয়া শ্রীরামকৃষ্ণ হাতজোড় করিয়া নমস্কার করিলেন ও বলিতেছেন, ‘আহা!’

मणि भवनाथ से कुछ कह रहे हैं ।

भवनाथ - ये कहते हैं, हाथी को जब हमने नहीं देखा तो वह सुई के छेद के अन्दर से जा सकता है या नहीं, यह हमें कैसे विश्वास हो ? ईश्वर को हम जानते नहीं, फिर वे आदमी के रूप में अवतार ले सकते हैं या नहीं, किस तरह हम इसका विचार करके समझें ?

M. whispered something to Bhavanath.BHAVANATH: "M. says: 'As long as I have not seen the elephant, how can I know whether it can pass through the eye of a needle? I do not know God; how can I understand through reason whether or not He can incarnate Himself as man?"

মণি ভবনাথকে কি বলিতেছেন।ভবনাথ — ইনি বলেন, ‘হাতি যখন দেখি নাই, তখন সে ছুঁচের ভিতর যেতে পারে কিনা কেমন করে জানব? ঈশ্বরকে জানি না, অথচ তিনি মানুষ হয়ে অবতার হতে পারেন কিনা, কেমন করে বিচারে দ্বারা বুঝব!’

श्रीरामकृष्ण - सब कुछ है । वे जादू चला देते हैं । बाजीगर गले में छूरी मार लेता है, उसे फिर निकाल लेता है । कंकड़-पत्थर खा जाता है ।

MASTER: "Everything is possible for God. It is He who casts the spell. The magician swallows the knife and takes it out again; he swallows stones and bricks."

শ্রীরামকৃষ্ণ — সবই সম্ভব। তিনি ভেলকি লাগিয়ে দেন! বাজিকর গলার ভিতর ছুরি লাগিয়ে দেয়, আবার বার করে। ইট-পাটকেল খেয়ে ফেলে!

(३)

[( 9 मई  , 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-114 ]

🔱🙏श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा में युवाओं को सौंपा गया कर्म🔱🙏

 "The Task" entrusted to youth 

in Sri Ramakrishna-Vivekananda Vedanta tradition .

শ্রী রামকৃষ্ণ-বিবেকানন্দ বেদান্ত ঐতিহ্যে যুবকদের হাতে অর্পিত "দ্য টাস্ক"।

भक्त - ब्राह्मसमाज के आदमी कहते हैं, संसार में कर्म करना ही अपना कर्तव्य है । इस कर्म के त्याग करने से कुछ न होगा ।

A DEVOTEE: "The Brahmos say that a man should perform his worldly duties. He must not renounce them."

ভক্ত — ব্রাহ্মসমাজের লোকেরা বলেন, সংসারের কর্ম করা কর্তব্য। এ-কর্ম ত্যাগ করলে হবে না।

गिरीश - मैंने देखा, 'सुलभसमाचार' में यही बात लिखी है । परन्तु ईश्वर को जानने के लिए जो कर्म हैं, ^*  वे ही तो पूरे नहीं हो पाते, फिर ऊपर से दूसरे कर्म !

GIRISH: "Yes, I saw something like that in their paper, the Sulabha Samachar. But a man cannot even finish all the works that are necessary for him in order to know God, and still he speaks of worldly duties."

গিরিশ — সুলভ সমাচারে ওইরকম লিখেছে, দেখলাম। কিন্তু ঈশ্বরকে জানবার জন্য যে সব কর্ম — তাই করে উঠতে পারা যায় না, আবার অন্য কর্ম!

[ ईश्वर को जानने के लिए जो 'कर्म ' हैं,^*  अर्थात ईश्वर को जानने के लिए पहले, " रामकृष्ण- विवेकानन्द वेदान्त परम्परा " में  जो -3'H' विकास की पद्धति सीखकर " शरीर से कर्मठ, मन से ज्ञानवान (ब्रह्मविद) और ह्रदय से प्रेममय" मनुष्य बनने या जीवन-गठन का, जो कर्म या जो टास्क भारत के युवाओं को सौंपा गया है, वे ही तो पूरे नहीं हो पाते। फिर ऊपर से 'तीनों ऐषणाओं' को पूरे किये जाने के पंचभूतों को तुष्ट करने के कर्म में आजीवन फंसे ब्रह्म रो रहे हैं , उनको 'C' (देश-काल-निमित्त को -'transcendent' - जाग्रत-स्वप्न -सुषुप्ति का अतिक्रमण कर, अन्तःकरण का अतिक्रमण कर, तुरीय , चतुर्थ या इन्द्रियातीत अवस्था में जाने (समाधि में जाने) और फिर माँ जगदम्बा की कृपा /दया से लौटकर दूसरों को वह मार्ग -'रटन्ति काली पूजा के पंचमुण्ड के आसन' का परिचय वाला मार्ग या माँ काली की भक्ति का सरल मार्ग से मन की चहारदीवारी को लांघकर कर - इस शरीर को इसी 'B' या जगत (The Universe) में रखते हुए, 'A' (ब्रह्म या The Absolute) में पहुँच जाने का जो मार्ग है। ]               

श्रीरामकृष्ण जरा मुस्कराकर मास्टर की ओर देखकर इशारा कर रहे हैं - 'वह जो कुछ कहता है, वही ठीक है ।'

Sri Ramakrishna smiled a little, looked at M., and made a sign with his eye, as if to say, "What he says is right."

শ্রীরামকৃষ্ণ ঈষৎ হাসিয়া মাস্টারের দিকে তাকাইয়া নয়নের দ্বারা ইঙ্গিত করিলেন, ‘ও যা বলছে তাই ঠিক’।

मास्टर समझ गये, कर्मकाण्ड बड़ा ही कठिन है ।

M. understood that this question of performing duties was an extremely difficult one.

মাস্টার বুঝিলেন, কর্মকাণ্ড বড় কঠিন।

पूर्ण आये हैं । [पूर्ण=100 % Unselfishness नर रूप में आये हैं !] 

Purna arrived.

পূর্ণ আসিয়াছেন।

श्रीरामकृष्ण - किसने तुम्हें खबर दी ?

MASTER: "Who told you about our being here?"

শ্রীরামকৃষ্ণ — কে তোমাকে খবর দিলে!

पूर्ण - शारदा ने ।

PURNA: "Sarada."

পূর্ণ — সারদা

श्रीरामकृष्ण - (पास की स्त्री-भक्तों से) - इसे कुछ जलपान करने के लिए देना ।

MASTER (to the woman devotees): "Give him some refreshments."

শ্রীরামকৃষ্ণ (উপস্থিত মেয়ে ভক্তদের প্রতি) — ওগো একে (পূর্ণকে) একটু জলখাবার দাও তো।

*            *          *

 [( 9 मई  , 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-114 ]

🔱🙏मधुर है तेरा नाम, दीनों के शरण हे !🔱🙏

"सुन्दर तोमार नाम- 'नवनी हरन' हे !"

Sweet is Thy name, O Refuge of the humble! 

अब नरेन्द्र का गाना होगा । श्रीरामकृष्ण तथा भक्तों की सुनने की इच्छा है । नरेन्द्र गा रहा हैं – 

Narendra was preparing to sing. The Master and the devotees were eager to hear his music. Narendra sang:

He sang :  

(१)

 “परवत पाथार । 

व्योमे जागो रुद्र उद्यत बाजो । 

देव-देव महादेव, काल-काल महाकाल, 

धर्मराज शंकर शिव, तारो हरो पाप ।"

*        *       *

Siva, Thy ready thunderbolt rules over 

meadows, hills, and sky! 

O God of Gods! O Slayer of Time! 

Thou the Great Void, the King of Dharma!

 Siva, Thou Blessed One, redeem me;

 take away my grievous sin. 

"And make me a man ! "

এইবার নরেন্দ্র গান গাইবেন। ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ ও ভক্তেরা শুনিবেন। নরেন্দ্র গাইতেছেন:

গান  —  

পরবত পাথার।

ব্যোমে জাগো রুদ্র উদ্যত বাজ।

দেব দেব মহাদেব, কাল কাল মহাকাল,

ধর্মরাজ শঙ্কর শিব তার হর পাপ।

(२)   

सुन्दर तोमार नाम 'दीनशरण' हे ,

सुन्दर तोमार नाम 'नवनी हरन' हे ! 

बहिछै अमृत धार, जुड़ाय श्रवण, प्राणरमण हे।   

 "हे दीनों को शरण देनेवाले ! तुम्हारा नाम 'नवनी हरन' बड़ा मधुर है । बड़ा सुन्दर है।  ऐ प्राणों में रमण करनेवाले ! अमृत की धारा बह रही है, श्रवण शीतल हो जाते हैं ।"

He sang again:

Sweet is Thy name, O Refuge of the humble! It falls like sweetest nectar on our ears And comforts us, Beloved of our souls! . . .

সুন্দর তোমার নাম দীনশরণ হে,

বহিছে অমৃতধার, জুড়ায় শ্রবণ, প্রাণরমণ হে।

*               *               *

(३) 

"जो विपत्ति और भय से परित्राण करनेवाले हैं, ऐ मन, तुम उन्हें क्यों नहीं पुकारते ? मिथ्या भ्रम में पड़े हुए इस घोर संसार में डूब रहे हो, यह बड़े दुःख की बात है ।"

बिपदभय बारन , जे करे ओरे मन , तांरे केन डाक ना , 

मिछे भ्रमे भूले सदा , रयेछे, भवघोरे मजि, एकि बिडंबना।  

 हे मेरे मन ! तुम उन्हें (सच्चिदानन्द प्रेममय को) क्यों कभी नहीं पुकारते ? जिनका नाम तत्क्षण मृत्यु- भय को भी दूर कर देता है? माया (नाम-रूप) के छलावे में तुम अपने सच्चे स्वरुप को क्यों भूल जाते हो ? तुम क्यों दुनिया के (तीनों ऐषणाओं के) द्वारा मोहित (hypnotized/ enamoured)  होकर कई जन्मों से - जल भँवर या 'water vortex' में चक्कर काट रहे हो ? अजर -अमर -अविनाशी आत्मा के साथ यह कैसा 'मजाक' (mockery-उपहास) चल रहा है ! 

Why, O mind, do you never call on Him, Who takes away all fear of danger? Tricked by delusion you forget yourself, Enamoured of the world's bleak wilderness. Alas, what mockery is here!

ए धन जन, ना रबे हेन तांरे जेन भूलो  ना,

छाड़ि असार , भजह सार, जाबे भव यातना।  

मित्रमण्डली (परिवार -कुटुम्ब) और दौलत (Lust and Lucre) तुम हमेशा नहीं रख सकते; खयाल रखना कि कहीं तुम उसे (नवनी हरन को) कहीं बिलकुल ही न भूल जाओ ? असत्य को (कामिनी -कांचन में आसक्ति को) त्यागो, 'O mind! Adore the Real' और हे मन! तुरीय सत्य, असली सत्य (परम् सत्य -इन्द्रियातीत सत्य) की पूजा करो; और देखोगे कि तुम्हारे  जीवन से सारे दुख दूर हो जाएंगे। मेरी नेक सलाह को अपने दिल में रख।

Comrades and wealth you cannot always keep; Take care lest you forget Him quite. Give up the false, O mind! Adore the Real; And all the grief will vanish from your life. Keep my good counsel in your heart.

एखन हित बचन शोन , जतने करि धारणा। 

बदन भरी ,नाम हरि , सतत करो घोषणा। 

यदि ए -भवे पार होबे , छाड़ विषय वासना ;

संपिये तनु ह्रदय मन, तांर करो साधना।   

अब भी गुरुदेव के कल्याणकारी उपदेश - " सर्व भूते सेई प्रेममय !" को सुनो और उसकी पक्की धारणा बना लो। और गूँजती हुई वाणी से भगवान 'हरि' के नाम (नवनी हरन) की घोषणा कर दो! और अपनी झूठी ऐषणाओं को दूर हटा दो, यदि तुम इस भव-सागर, जन्म-मृत्यु के सागर को पार करना चाहते हो तो ; तन, मन और आत्मा (3H) को उनके चरणों में समर्पित कर दो, और सारे संशय हटाकर पूरे विश्वास और प्रेम से उनकी (कमाण्डर वरिष्ठ,C-IN-C नवनी हरन स्वरुप सच्चिदानन्द की) आराधना करो।

With sounding voice proclaim Lord Hari's name, And cast away your false desires, If you would cross the ocean of this life; Surrender to Him body, mind, and soul, And worship Him with trusting love.

বিপদভয় বারণ, যে করে ওরে মন, তাঁরে কেন ডাক না;

মিছে ভ্রমে ভুলে সদা, রয়েছ, ভবঘোরে মজি, একি বিড়ম্বনা।

এ ধন জন, না রবে হেন তাঁরে যেন ভুল না,

ছাড়ি অসার, ভজহ সার, যাবে ভব যাতনা।

এখন হিত বচন শোন, যতনে করি ধারণা;

বদন ভরি, নাম হরি, সতত কর ঘোষণা।

যদি এ-ভবে পার হবে, ছাড় বিষয় বাসনা;

সঁপিয়ে তনু হৃদয় মন, তাঁর কর সাধনা।

*               *               *

(४) 

[( 9 मई  , 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-114 ]

🔱🙏"सब भूतों में वही प्रेममय हैं!" मैं इसी सत्य का प्रचार करूँगा।🔱🙏 

पल्टू - यह गाना आप गाइयेगा ?

PALTU: "Won't you sing that one?"

পল্টু — এই গানটি গাইবেন?

नरेन्द्र - कौनसा ?

NARENDRA: "Which one?"

নরেন্দ্র — কোন্‌টি?

पल्टू -

"देखिले तोमार सेई अतुल प्रेम-आनने ।

कि भय संसार शोक घोर विपद शासने ।”

- अर्थात "'जब मैं आपके अतुलनीय चेहरे को निहारता हूं।' तो फिर संसार का दुःख , घोर विपदायें भी वशीभूत हो जाती हैं। 

PALTU: "'When I behold Thy peerless face.'"

পল্টু —দেখিলে তোমার সেই অতুল প্রেম-আননে,

কি ভয় সংসার শোক ঘোর বিপদ শাসনে।

नरेन्द्र गा रहे हैं –

"देखिले तोमार सेई अतुल प्रेम-आनने ।

कि भय संसार शोक घोर विपद शासने ॥

जब मैं आपके प्रेम से मुस्कराता हुआ अनुपम चेहरे को देखता हूँ,हे प्रभु, फिर मेरा सांसारिक दुःख  या विपदाओं की भृकुटी का डर न जाने कहाँ गायब हो जाता है ?

When I behold Thy peerless face, beaming with love, O Lord,What fear have I of earthly woe or of the frown of sorrow?

দেখিলে তোমার সেই অতুল প্রেম-আননে,কি ভয় সংসার শোক ঘোর বিপদ শাসনে।

अरुण उदये आँधार जेमन जाय जगत् छाड़िये ।

तेमनि देव तोमार ज्योति मंगलमय विराजिले ।

भगत-हृदय वीतशोक तोमार मधुर सान्त्वने ॥

जिस प्रकार उदित होते हुए सूर्य की पहली किरण अन्धकार को दूर कर देती है, उसी प्रकार हे प्रभु, जब तुम्हारी मंगलमयी ज्योति ह्रदय में प्रस्फुटित होती है, तब यह हमारे सारे दुःख और दर्द पर मधुर मलहम सा बिखेर देती है।

As the first ray of the dawning sun dispels the dark, So too, Lord, when Thy blessed light bursts forth within the heart, It scatters all our grief and pain with sweetest balm.

অরুণ উদয়ে আঁধার যেমন যায় জগৎ ছাড়িয়ে,তেমনি দেব তোমার জ্যোতিঃ মঙ্গলময় বিরাজিলে,ভকত হৃদয় বীতশোক তোমার মধুর সান্ত্বনে।

तोमार करुणा तोमार प्रेम हृदये प्रभु भाविले।

उथले हृदये नयनवारि राखे के निवारिये ॥

जब मैं अपने हृदय की गहराइयों में, तुम्हारे प्रेम और अनुग्रह पर विचार करता हूँ, तब मेरे गालों पर खुशी के आंसू स्वतः बह निकलते हैं जो रोके नहीं रुकते।

When on Thy love and grace I ponder, in my heart's deepest depths,Tears of joy stream down my cheeks beyond restraining.

তোমার করুণা, তোমার প্রেম, হৃদয়ে প্রভু ভাবিলে,উথলে হৃদয় নয়ন বারি রাখে কে নিবারিয়ে?

जय करुणामय, जय करुणामय, तोमार प्रेम गाहिये ।

जाय यदि जाक प्राण तोमार कर्म साधने ॥"

जय हो, दयामय प्रभु! जय हो, प्रेममय ! तुम्हारे 'कर्म साधन में', तुम्हारे द्वारा सौंपे हुए कार्य -   'प्रेम' का सन्देश - "सब भूतों में वही प्रेममय हैं!" मैं इसी सत्य का प्रचार करूँगा। अब मेरी यही कामना है कि न राजसिक, न तामसिक केवल सात्विक इच्छा-"बहुजन हिताय , बहुजन सुखाय - चरैवेति, चरैवेति" चलते रहो, चलते रहो, करते हुए मेरे प्राण निकलें। 

Hail, Gracious Lord! Hail, Gracious One! I shall proclaim Thy love. May my life-breath depart from me as I perform Thy works!  

জয় করুণাময়, জয় করুণাময় তোমার প্রেম গাইয়ে,যায় যদি যাক্‌ প্রাণ তোমার কর্ম সাধনে।   

==========

 [(9 मई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-114 ]

🔱🙏मनःसंयोग : हरि-रस मदिरा पिये मम मानस मातो रे 🔱🙏

" मनःसंयोग हेतु मूर्त 'हरि-रस मदिरा ' ब्राण्ड का चयन"  

मास्टर के अनुरोध से नरेंद्रनाथ फिर गा रहे हैं । मास्टर और भक्तगण हाथ जोड़े हुए गाना सुन रहे हैं –

At M.'s request Narendra sang again, M. and many of the devotees listening with folded hands:

মাস্টারের অনুরোধে আবার গাইতেছেন। মাস্টার ও ভক্তেরা অনেকে হাতজোড় করিয়া গান শুনিতেছেন।

(१) “ऐ मेरे मन ! हरि-रस मदिरा का पान करके तुम मत्त हो जाओ । पृथ्वी पर लोटते हुए तुम उनका नाम ले लेकर रोओ ।"

Be drunk, O mind, be drunk with the Wine of Heavenly Bliss! Roll on the ground and weep, chanting Hari's sweet name! . . .प्रेममय हरि (नवनीहरण) के  प्रेम-रस मदिरा रूपी सन्देश की मदिरा- 'सर्व भूते सेई प्रेममय' घोषणा की मदिरा' का पान करके तुम मत्त हो जाओ ! 

[मनःसंयोग हेतु मूर्त 'हरि' (वैक्तिक प्रेममय श्री नवनीहरण) का चयन करो !  मानसिक एकाग्रता का अभ्यास करने के लिए, पहले खुली आँखों से ध्यान करने के लिए 'हरि' के अवतार का (व्यक्तिगत रूप से तुम्हारे लिए प्रेममय श्री नवनीहरन जैसे किसी प्यार करने वाले का) चयन  अवतार का चयन करो!Before practicing Mental Concentration, first Choose the embodiment of 'Hari' (personally loving Shri Navaniharan) for Open eyed meditation ! मनःसंयोग या समाधि की अनुभूति करने हेतु किसी मूर्त 'हरि-रस मदिरा ' (वैक्तिक प्रेममय श्री नवनीहरण) का चयन करो !  मानसिक एकाग्रता का अभ्यास करने के लिए, पहले खुली आँखों से ध्यान करने के लिए 'हरि' के अवतार का (व्यक्तिगत रूप से तुम्हारे लिए प्रेममय श्री नवनीहरन जैसे किसी प्यार करने वाले का) चयन  अवतार का चयन करो!

"सर्व भूते सेई प्रेममय"- "সর্ব ভূতে সেই প্রেমময় "- अर्थात  समस्त जीवों में 'वही' -प्रेममय 'हरि' विराजमान हैं ! अतएव,  मनःसंयोग हेतु मूर्त 'हरि-रस मदिरा ' का चयन  ("अवतारवरिष्ठ श्रीरामकृष्ण - विवेकानन्द निवृत्ति मार्गी वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा " प्रशिक्षित मेरे गुरुदेव श्रीमत स्वामी भूतेशानन्द जी महाराज का,  तथा " स्वामी विवेकानन्द - कैप्टन सेवियर  'Be and Make'  प्रवृत्ति मार्गी लीडरशिप ट्रेनिंग ट्रेडिशन के ' विवेक-दर्शन अभ्यास' में 'प्रशिक्षित और समाधि से लौटे हुए", (स्वामी जी, मास्टर आदि भक्तों के लिए जैसे अवतार वरिष्ठ हैं) वैसे ही मेरे वैक्तिक प्रेममय  'हरि' नवनीदा, अर्थात 'ईश्वरकोटि के साधक  "C-IN-C श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय रूपी "हरि-रस मदिरा " पीकर मेरे मन मतवाले हो जाओ !]   

हरि-रस मदिरा पिये मम मानस मातो रे, 

एक बार लुटोई अवनीतल, हरि हरि बोली काँद रे।  

(गति कर कर बोले।)    

গান   —   হরিরসমদিরা পিয়ে মম মানস মাতোরে।

একবার লুটহ অবনীতল, হরি হরি বলি কাঁদ রে।

             (গতি কর কর বলে)।

Meditate, O my mind, on the Lord Hari, The Stainless One, Pure Spirit through and through.

भगवान हरि (प्रेममय -नवनीदा -श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय) पर, एकाग्रता का अभ्यास करो!  हे मेरे मन, निष्कलंक स्वरुप  स्टेनलेस वन, शुद्ध आत्मा के माध्यम से और उसके माध्यम से।

Meditate, O my mind, on the Lord Hari, The Stainless One, Pure Spirit through and through.

গভীর নিনাদে হরিনামে গগন ছাও রে,

নাচো হরি বলে দুবাহু তুলে, হরিনাম বিলাও রে।

            (লোকের দ্বারে দ্বারে)।

হরিপ্রেমানন্দরসে অনুদিন ভাস রে,

গাও হরিনাম, হও পূর্ণকাম, নীচ বাসনা নাশ রে।।

(२) स्वामी विवेकानन्द द्वारा गाई हुई - गुरुवाणी :

[Aarti – “गगन मै थालु” – Gagan Mein Thaal/ साभारhttps://wholisticwellnessspace.wordpress.com/2022/11/28/aarti-gagan-mein-thaal/] 

"गगन मै थालु रवि चंदु दीपक बने" 

धनासरी महला १ आरती ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

गगन मै थालु रवि चंदु दीपक बने तारिका मंडल जनक मोती ॥

धूपु मलआनलो पवणु चवरो करे सगल बनराइ फूलंत जोती ॥१॥

गगन मै थालु रवि चंदु दीपक बने

तारिका मंडल जनक मोती ॥

अर्थ: गगन = आकाश। गगन मै = गगनमय,आकाशरूप, सारा आकाश। रवि = सूरज।दीपक = दीप, दीया। जनक = जैसा, जानो, मानो।अर्थ: सारा आकाश (जैसे कि) थाल है।सूरज और चाँद (उस थाल में) दिये बने हुए हैं।तारों के समूह, जैसे, थाल में मोती रखे हुए हैं।

धूपु मलआनलो पवणु चवरो करे,

सगल बनराइ फूलंत जोती ॥१॥

अर्थ: मलआनलो = (मलय+अनलो,अनल = हवा, पवन)मलय पर्वत की ओर से आने वाली हवा।सगल = सारी। बनराइ = बनस्पति।फुलंत = फूल रही है।जोती = ज्योति-रूप प्रभु।1।

मलय पर्वत पर चंदन के पौधे, होने की वजह से उधर से, आनी वाली हवा भी सुगंध भरी होती है।[मलय पहाड़ भारत के दक्षिण में है।]हवा चौर कर रही है। सारी बनस्पति ज्योति-रूप (प्रभु की आरती) वास्ते फूल दे रही है।1।

कैसी आरती होइ ॥

भव खंडना तेरी आरती ॥

अर्थ: भव खंडन = हे जनम मरन काटने वाले। अर्थ: हे जीवों के जनम,मरन, नाश करने वाले!(कुदरति में) कैसी सुंदर तेरी आरती हो रही है!(सभ जीवों में चल रहीं) एक ही जीवन तरंगें,मानों तेरी आरती के वास्ते नगारे बज रहे है।1।

अनहता सबद वाजंत भेरी ॥१॥

सहस तव नैन नन नैन हहि तोहि कउ। 

अर्थ: अनहता = अन+हत, जो बिना बजाए बजे, एक रस। शबद = आवाज़, जीवन लहर।भेरी = डफ, नगारा।1। नोट: शब्द ‘हहि’ ‘है’ का बहुवचन है।

अर्थ: (सभ जीवों में व्यापक होने के कारण) हजारों तेरी आँखें हैं,  (पर, निराकार होने की वजह से, हे प्रभु) तेरी कोई आँख नहीं।

"आसमान थाली है, उसमें सूर्य और चन्द्र दिये जल रहे हैं, नक्षत्र मोतियों की तरह चमक रहे हैं । मलयानिल धूप है । पवन चमर डुला रहा है । वन-राजियाँ उसकी जीती-जागती ज्योति हैं । हे भवखण्डन, यह तुम्हारी कैसी सुन्दर आरती हो रही है ! अनाहत नाद के द्वारा तुम्हारी भेरी बज रही है ।"

Upon the tray of the sky blaze bright, The lamps of sun and moon; Like diamonds shine the glittering starsTo deck Thy wondrous form. . . .

सहस मूरति नना एक तूोही ॥

सहस पद बिमल नन एक पद गंध बिनु

सहस तव गंध इव चलत मोही ॥२॥

अर्थ: सहस = हजारों।तव = तेरे।नैन = आँखें।नन = कोई नहीं।तोहि कउ = तेरे, तुझे, तेरे वास्ते।मूरति = शकल ना = कोई नहीं। तूोही = तेरी। पद = पैर। बिमल = साफ। गंध = नाक। तिव = इस तरह। चलत = कौतक, आश्चर्यजनक खेल।2। नोट: असल शब्द ‘तुही’ है जिसे ‘तोही’ पढ़ना है।

अर्थ: हजारों तेरी शक्लें हैं, पर तेरी कोई भी शक्ल नहीं है। हजारों तेरे सुंदर पैर हैं, (पर निराकार होने के कारण) तेरा एक भी पैर नहीं। हजारों तेरे नाक हैं,पर तू नाक के बिना ही सुगंध लेता है। तेरे ऐसे चमत्कारों ने , मुझे हैरान किया हुआ है।

कैसी आरती होइ भव खंडना तेरी आरती ॥

अनहता सबद वाजंत भेरी ॥१॥ रहाउ ॥



सिध समाधि अंतु नही पाइआ

लागि रहे सरनाई ॥१॥

लेहु आरती हो पुरख निरंजन

सतिगुर पूजहु भाई ॥

ठाढा ब्रहमा निगम बीचारै

अलखु न लखिआ जाई ॥१॥ रहाउ ॥

तुरीय अवस्था , इन्द्रियतीत सत्य के साथ एकत्व की अनुभूति अर्थात 'समाधि' में पहुँचकर  भी सिद्धों ने आपकी सीमा नहीं पाई है। वे आपके अभयारण्य की सुरक्षा को ही कस कर पकड़ते हैं। ||1|| महानतम योगी भी  आपको समझ नहीं पाए हैं, जो लोग अव्यक्त (निर्गुण-निराकार ब्रह्म) की पूजा करते हैं, वे आपकी अनुभूति  करने में विफल रहते हैं।

The Siddhas in Samaadhi have not found Your limits.They hold tight to the Protection of Your Sanctuary. ||1||The Greatest of Yogis have not been able to comprehend You, Those who worship the Unmanifest, Fail to realize You.

लेहु आरती हो पुरख निरंजन

सतिगुर पूजहु भाई ॥

ठाढा ब्रहमा निगम बीचारै

अलखु न लखिआ जाई ॥१॥ रहाउ ॥

शुद्ध, अनादि-अनंत भगवान की पूजा और आराधना सच्चे गुरु, हे भाग्य के भाई-बहनों की पूजा करने से होती है। हे प्रिय भगवान! भले ही वे अपनी खोज में लगे रहे हों। उनके द्वार पर खड़े होकर, ब्राह्मण लोग वेदों का अध्ययन करते हैं, लेकिन वे भी अदृश्य भगवान को नहीं देख सकते। ||1||रोकें||

Worship and adoration of the Pure, Primal Lord comes by worshipping, the True Guru, O Siblings of Destiny.Dear Lord! Even though they have persevered in their quest. Standing at His Door, Brahman  studies the Vedas, but he cannot,see the Unseen Lord. ||1||Pause||

ततु तेलु नामु कीआ बाती

दीपकु देह उज्यारा ॥

जोति लाइ जगदीस जगाइआ

बूझै बूझनहारा ॥२॥

ब्रह्म-ज्ञान के तेल से, परम् सत्य के सार से, और नाम की बत्ती से, भगवान के नाम से, यह दीपक मेरे शरीर को प्रकाशित करता है। मैंने ब्रह्मांड के स्वामी के प्रकाश को लागू किया है, और इस दीपक को जलाया है। ईश्वर कौन है.... जानने वाला ही जानता है। ||2||

With the oil of knowledge, about the essence of reality, and the wick of the Naam, the Name of the Lord, this lamp illuminates my body.I have applied the Light of the Lord of the Universe, and lit this lamp. Who is God .... only the Knower knows. ||2||

पंचे सबद अनाहद बाजे

संगे सारिंगपानी ॥

कबीर दास तेरी आरती कीनी

निरंकार निरबानी ॥३॥५॥

पंच शबद की अखंड धुन, पांच मूल ध्वनियां, कंपन और गूंजती हैं। मैं विश्व के भगवान के साथ रहता हूं। कबीर, आपका दास, यह आरती करता है, यह दीप जलाकर आपके लिए पूजा करता है, हे निर्वाण के निराकार भगवान। ||3||5||कबीरदास ने 'विवरण से परे' और 'बिना रूप' की आरती उतारी। 

The Unstruck Melody of the Panch Shabad, the Five Primal Sounds, vibrates and resounds.I dwell with the Lord of the World. Kabeer, Your slave, performs this Aartee, this lamp-lit worship service for You,O Formless Lord of Nirvaanaa. ||3||5||Kabirdas performs the Aartiof the ‘Beyond Description’and the ‘Without Form’

सभ महि जोति जोति है सोइ ॥

तिस कै चानणि सभ महि चानणु होइ ॥

गुर साखी जोति परगटु होइ ॥

जो तिसु भावै सु आरती होइ ॥३॥

अर्थ: जोत = प्रकाश, रोशनी।सोइ = उस प्रभु।तिस दै चानणि = उस परमेश्वर के प्रकाश से।साखी = शिक्षा के साथ।3।

अर्थ:सारे जीवों में एक वही परमात्मा की ज्योति बरत रही है। उस ज्योति के प्रकाश से सारे जीवों में प्रकाश (सूझ-बूझ) है।पर, इस ज्योति का ज्ञान गुरु की शिक्षा से ही होता है। (गुरु के द्वारा ही ये समझ पड़ती है कि हरेक के अंदर परमात्मा की ज्योति है) (इस सर्व-व्यापक ज्योति की) आरती ये है कि जो कुछ भी उसकी रजा में हो रहा है,वह जीव को अच्छा लगे (प्रभु की रजा में रहना ही प्रभु की आरती करना है)।3।

Your Light enlightens all!  The Divine Light is within every one; You are that Light. Yours is that Light which shines within every one. That which pleases the Lord is the true worship service. ||3||By the Guru’s Teachings, this Divine Light is revealed.

हरि चरण कमल मकरंद लोभित मनो अनदिनो मोहि आही पिआसा ॥

क्रिपा जलु देहि नानक सारिंग कउ होइ जा ते तेरै नामि वासा ॥४॥१॥७॥९॥ 

मकरंद = फूलों के बीच की धूल (Pollen Dust), फूलों का रस।मनो = मन।अनदिनुों = हर रोज।मोहि = मुझे।आही = है, रहती है।सारंगि = पपीहा।कउ = को। जा ते = जिस से, जिसके साथ।तेरे नाइ = तेरे नाम में।4। नोट: ‘असल शब्द ‘अनदिनु’ है जिसे ‘अनदिनो’ पढ़ना है।

अर्थ: हे हरि! तुम्हारे चरण-रूपी कमल फूलों के लिए मेरा मन ललचाता है,हर रोज मुझे इस रस की प्यास लगी हुई है।मुझ नानक पपीहे को अपनी मेहर का जल दे,जिस (की इनायत) से मैं तेरे नाम में टिका रहूँ।4।3।

I yearn for Your Lotus feet, Night and day, My soul is enticed by the honey-sweet lotus feet of the Lord; night and day, I thirst for them. Nanak is like the thirsty bird that asks, For a drop of water, From You O Lord!  Bless Nanak, the pied cuckoo, with the Nectar of Thine mercy, so that he may have an abode in Thy Name, O Lord. That drop (Grace) will make Nanak find comfort, In the uttering of Your Name.

गगन मै थालु, रवि चंदु दीपक बने,

तारका मंडल, जनक मोती।

धूपु मलआनलो, पवण चवरो करे,

सगल बनराइ फुलन्त जोति॥

कैसी आरती होइ॥

भवखंडना तेरी आरती॥

अनहत सबद बाजंत भेरी॥

धूपु मलआनलो पवणु चवरो करे,

सगल बनराइ फूलंत जोती ॥१॥

अर्थ: 

मलआनलो = (मलय+अनलो,

अनल = हवा, पवन)

मलय पर्वत की ओर से आने वाली हवा।

सगल = सारी।

बनराइ = बनस्पति।

फुलंत = फूल रही है।

जोती = ज्योति-रूप प्रभु।1।

मलय पर्वत पर चंदन के पौधे, होने की वजह से उधर से, आनी वाली हवा भी सुगंध भरी होती है।

[मलय पहाड़ भारत के दक्षिण में है।]

हवा चौर कर रही है। सारी बनस्पति ज्योति-रूप (प्रभु की आरती) वास्ते फूल दे रही है।1।

कैसी आरती होइ ॥

भव खंडना तेरी आरती ॥

अर्थ: 

भव खंडन = हे जनम मरन काटने वाले। अर्थ: हे जीवों के जनम,मरन, नाश करने वाले!(कुदरति में) कैसी सुंदर तेरी आरती हो रही है!(सभ जीवों में चल रहीं) एक ही जीवन तरंगें,मानों तेरी आरती के वास्ते नगारे बज रहे है।1।

अनहता सबद वाजंत भेरी ॥१॥

सहस तव नैन नन नैन हहि तोहि कउ। 

अर्थ: अनहता = अन+हत, जो बिना बजाए बजे, एक रस। शबद = आवाज़, जीवन लहर।भेरी = डफ, नगारा।1।नोट: शब्द ‘हहि’ ‘है’ का बहुवचन है।

अर्थ: (सभ जीवों में व्यापक होने के कारण) हजारों तेरी आँखें हैं,  (पर, निराकार होने की वजह से, हे प्रभु) तेरी कोई आँख नहीं।

सहस मूरति नना एक तूोही ॥

सहस पद बिमल नन एक पद गंध बिनु

सहस तव गंध इव चलत मोही ॥२॥

अर्थ: सहस = हजारों।तव = तेरे।नैन = आँखें।नन = कोई नहीं।तोहि कउ = तेरे, तुझे, तेरे वास्ते।मूरति = शकल ना = कोई नहीं। तूोही = तेरी। पद = पैर।

बिमल = साफ। गंध = नाक। तिव = इस तरह। चलत = कौतक, आश्चर्यजनक खेल।2। नोट: असल शब्द ‘तुही’ है जिसे ‘तोही’ पढ़ना है।

अर्थ: हजारों तेरी शक्लें हैं, पर तेरी कोई भी शक्ल नहीं है। हजारों तेरे सुंदर पैर हैं, (पर निराकार होने के कारण) तेरा एक भी पैर नहीं। हजारों तेरे नाक हैं,पर तू नाक के बिना ही है। तेरे ऐसे चमत्कारों ने , मुझे हैरान किया हुआ है।2।

सभ महि जोति जोति है सोइ ॥

तिस कै चानणि सभ महि चानणु होइ ॥

गुर साखी जोति परगटु होइ ॥

जो तिसु भावै सु आरती होइ ॥३॥

अर्थ: जोत = प्रकाश, रोशनी।सोइ = उस प्रभु। तिस दै चानणि = उस परमेश्वर के प्रकाश से। साखी = शिक्षा के साथ।3।

अर्थ:सारे जीवों में एक वही,परमात्मा की ज्योति बरत रही है। उस ज्योति के प्रकाश से सारे, जीवों में प्रकाश (सूझ-बूझ) है। पर, इस 'ज्योति का ज्ञान' गुरु की शिक्षा से ही होता है।(गुरु के द्वारा ही ये समझ पड़ती है कि हरेक के अंदर परमात्मा की ज्योति है)(इस सर्व-व्यापक ज्योति की) आरती ये है कि जो कुछ भी उसकी रजा में हो रहा है,वह जीव को अच्छा लगे (प्रभु की रजा में रहना ही प्रभु की आरती करना है)।3।

हरि चरण कवल मकरंद लोभित मनो

अनदिनुो मोहि आही पिआसा ॥

क्रिपा जलु देहि नानक सारिंग कउ

होइ जा ते तेरै नाइ वासा ॥४॥३॥

अर्थ:  मकरंद = फूलों के बीच की धूल (Pollen Dust),फूलों का रस।मनो = मन।अनदिनुों = हर रोज। मोहि = मुझे।आही = है, रहती है।सारंगि = पपीहा। कउ = को।जा ते = जिस से, जिसके साथ।तेरे नाइ = तेरे नाम में।4। नोट: असल शब्द ‘अनदिनु’ है जिसे ‘अनदिनो’ पढ़ना है।

अर्थ: हे हरि! तुम्हारे चरण-रूपी कमल फूलों के लिए मेरा मन ललचाता है, किसी पपीहे की तरह हर रोज मुझे इस हरि- रस मदिरा की प्यास लगी हुई है। मुझ नानक पपीहे को अपनी मेहर का जल दे,जिस (की इनायत) से मैं तेरे नाम में टिका रहूँ।4।3।

आरती के अगले भाग की रचना भगत रवि दास ने की है, जो एक मोची थे।

The next part of the Aarti has been composed by Bhagat Ravi Das, who was a cobbler.

नामु तेरो आरती मजनु मुरारे ॥

हरि के नाम बिनु झूठे सगल पासारे ॥१॥ रहाउ ॥

अर्थ: हे मुरारी ! तुम्हारा नाम जपना ही मेरे लिए आपकी आरती और आपको स्नान करवाने के समान है । हरि के नाम बिना सभी सांसरिक सुख झूठे हैं ।

Thy Name Is My Aarti And Ablution, O Lord. Without God’s Name All Religious Paraphernalia Are False.

नामु तेरो आसनो नामु तेरो उरसा

नामु तेरा केसरो ले छिटकारे ॥

अर्थ: हे मुरारी ! तुम्हारा नाम ही पूजा का आसन है और तुम्हारा नाम ही सिल ( उरसा ) है जिस पर मैं चन्दन धिसता हूँ । तुम्हारा नाम ही केसर है,जो मैं सदैव तुम्हारे ऊपर छिड़कता हूँ ।

Thy Name Is My Prayer-Mat, Thy Name My Saffron-Grater, And Thy Name Is The Saffron, Which I Sprinkle On Thee. Your name is the Flower, the saffron, and the sandalwood That is offered to You. 

नामु तेरा अ्मभुला

नामु तेरो चंदनो

घसि जपे नामु ले

तुझहि कउ चारे ॥१॥

अर्थ: तुम्हारा नाम ही जल है,और तुम्हारा नाम ही चन्दन है। जो तुम्हारे नाम-जाप से घिसकर, तुम्हारे ऊपर ही लगाता हूँ ।

Thy Name Is The Water, Thy Name The Sandal-Wood, And The Repetition Of The Name Is The Rubbing Thereof; This Is The Sandal Paste, Which I Take To Anoint Thee.

नामु तेरा दीवा नामु तेरो बाती

नामु तेरो तेलु ले माहि पसारे ॥

अर्थ: हे मुरारी ! तुम्हारा नाम ही दीपक है और तुम्हारा नाम ही बाती है ।तुम्हारा नाम ही तेल है जो मैंने नाम रूपी दीपक में डाला है। 

Thy Name Is The Lamp, Thy Name The Wick, Thy Name Is The Oil, Which I Pour Therein.

नाम तेरे की जोति लगाई

भइओ उजिआरो

भवन सगलारे ॥२॥

अर्थ: और मैंने तुम्हारे नाम की ही ज्योति जलाई है, जिससे समस्त भवनों अर्थात् संसार में आपके नाम का प्रकाश हो गया है ।

With Thy Name I Have Kindled The Light, With It’s Illumination My Entire Home Is Bright. With the Light that Your Name gives out, The whole world is brightened. 

नामु तेरो तागा नामु फूल माला

भार अठारह सगल जूठारे ॥

अर्थ: हे मुरारी ! तुम्हारा नाम ही धागा है और तुम्हारा नाम ही फूलों की माला है ।‘अठारह भार’ वनस्पति के सारे फूल जूठे हैं ।

Thy Name Is The String, Thy Name The Garland Of Flowers, Defiled Are All The Eighteen Loads Of Leaves, Offerings Of Ours. Your Name is the Thread and Your Name is also The Flowers that are strung into that thread. All that I offer to You is Yours. 

तेरो कीआ तुझहि किआ अरपउ

नामु तेरा तुही चवर ढोलारे ॥३॥

अर्थ: हे प्रभु ! जब सब कुछ तुम्हारा ही किया हुआ है / बनाया हुआ है,तो मैं तुम्हारे आगे क्या अर्पित करूँ !मैं तुम्हारा नाम रूपी चँवर ही तुम्हारे ऊपर झुलाता हूँ ।

Why Should I Offer Thee What Thou Thyself Has Created? Thy Name Is The Whisk (Chawar) Which I Wave Over Thee. Your Name is the flywhisk, that you use, The (Chant of Your) True Name, We offer to You, All is false except Your Name!

दस अठा अठसठे चारे खाणी

इहै वरतणि है सगल संसारे ॥

अर्थ: अठारह पुराणों, अढ़सठ तीर्थों एवं चारों ख़नियों, (भूमज, अण्डज, जेरज और स्वेदज) व्यवहार में समस्त संसार लिप्त है ।

The Whole World Is Involved In The Eighteen Puranas, And The Sixty-Eight Places Of Pilgrimage, It Rotates Within The Four Forms Of Species.

कहै रविदासु नामु तेरो आरती

सति नामु है हरि भोग तुहारे ॥४॥३॥

अर्थ: गुरू रविदास जी कहते हैं कि हे हरि ! तुम्हारा नाम ही मेरे लिए सच्ची ‘आरती’ है और मैं आपको आपके ही सच्चे नाम का भोग लगाता हूँ ।

Thy Name Is The Aarti, Says Ravidass, And Thy True Name Itself Is Offered, O Lord, As The Ceremonial Food To Thee.

आरती के निम्नलिखित भाग की रचना रीवा के राजा राजा राम के दरबार में एक नाई संत सेन ने की है। (धनश्री भगत सैन आंग 695)

The following part of the Aarti is composed Sant Sain, a barber in the court of Raja Ram, King of Rewa.(Dhanasri Bhagat Sain Ang 695)

धूप दीप घ्रित साजि आरती ॥

वारने जाउ कमला पती ॥१॥

अर्थ: धूप, दीप, घृत की आरती सजाकर कमलापति की आरती करने जाता हूँ।

The Aarti is adorned by the lighted lamp, And the fragrance of the incense. 

मंगला हरि मंगला ॥

नित मंगलु राजा राम राइ को ॥१॥ रहाउ ॥

ऊतमु दीअरा निरमल बाती ॥

अर्थ: सदा मंगल रहे, राजा राय का मंगल रहे। सर्वमंगल रहे। आरती में उत्तम दीपक और उत्तम बाती सँजोई है।

All is Auspicious. Thou art the Supreme and Pure Light. Thou art the Lord of the Goddess of Wealth. My obeisance to Thee.

तुही निरंजनु कमला पती ॥२॥

रामा भगति रामानंदु जानै ॥

पूरन परमानंदु बखानै ॥३॥

अर्थ: हे कँवलापति! तू ही निरंजन है। राम की भक्ति रामानंद जानते हैं।वे उसे पूर्ण परमानंद का बखान कर सकते हैं। 

And to the Lord Rama, Beautiful Govinda, Who is described as Replete Pure Bliss! 

मदन मूरति भै तारि गोबिंदे ॥

सैनु भणै भजु परमानंदे ॥४॥२॥

अर्थ: भव तारनहार गोविंद ही मंगलमूर्ति हैं। सर्वमंगल और शुभ करने वाले हैं। सैन कहते हैं उस परमानंद का भजन करो।

Madana Moorata Bhay Taarey Govindey ,Sain Bhanay Bhaj Paramaananda, Sain prays to Thee, Who obliterates all Fear.

सुंन संधिआ तेरी देव देवाकर

अधपति आदि समाई ॥

सिध समाधि अंतु नही पाइआ

लागि रहे सरनाई ॥१॥

मेरी प्रार्थना सुन, हे प्रभु; आप परमात्मा के दिव्य प्रकाश हैं, आदि, सर्वव्यापी गुरु हैं।

Hear my prayer, Lord; You are the Divine Light of the Divine, the Primal, All-pervading Master.

भगत धन्ना जाट :  निम्नलिखित भाग की रचना राजस्थान के एक साधारण जाट किसान भगत धन्ना ने की थी। (धनश्री भगत धना अंग। 695)

The following part was composed by Bhagat Dhanna,a simple Jat farmer from Rajasthan.(Dhanasri Bhagat Dhana Ang. 695)

गोपाल तेरा आरता ॥

जो जन तुमरी भगति करंते

तिन के काज सवारता ॥१॥ रहाउ ॥

अर्थ: हे पृथ्वी के पालनहार प्रभो ! मैं तेरे दर का भिखारी हूँ, मेरी ज़रूरतें पूरी कर, जो–जो मनुष्य तेरी भक्ति करते हैं तूँ उनके काम पूरे करता है। हे गोपाल, (स्वीकार करें) अपनी आरती! जो आपकी पूजा करते हैं, आप उनकी इच्छा पूरी करते हैं! आप उन दीन प्राणियों के शरण हैं के व्यवस्थापक हैं जो आपकी भक्ति पूजा सेवा करते हैं। ||1||रोकें||

O Gopaala, (Accept) your Aarti! You grant the wishes of those who worship You! You are the Arranger of the affairs of those humble beings who perform Your devotional worship service. ||1||Pause||

दालि सीधा मागउ घीउ ॥

हमरा खुसी करै नित जीउ ॥

अर्थ: मैं तेरे दर से दाल, आटा और घी माँगता हूँ,  जो मेरी ज़िंदगी को नित सुखी रख सके। 

पन्हीआ छादनु नीका ॥

अनाजु मगउ सत सी का ॥१॥

अर्थ: जूती और सुंदर कपड़ा भी माँगता हूँ और सात सीओं का अन्न भी माँगता हूँ।

Shoes, fine clothes, and grain of seven kinds – I beg of You. ||1||

गऊ भैस मगउ लावेरी ॥

इक ताजनि तुरी चंगेरी ॥

अर्थ: हे गोपाल! मैं दूध देने वाली गाय और भैंस भी माँगता हूँ , और एक अरबी घोड़ी भी मुझे देना। 

I also pray for a good wife, good clothes, good grain, a fine Turkestani horse, a cow.

घर की गीहनि चंगी ॥

जनु धंना लेवै मंगी ॥२॥४॥

गोपाल तेरा आरता ॥

अर्थ: मैं तेरा दास धन्ना, तुम से घर के लिए एक अच्छी स्त्री भी माँगता हूँ।मैं एक अच्छी पत्नी, अच्छे कपड़े, अच्छा अनाज, एक बढ़िया तुर्केस्तानी घोड़ा, एक गाय के लिए भी प्रार्थना करता हूँ।

I also pray for a good wife, good clothes, good grain,a fine Turkestani horse, a cow. A good wife to care for my home! O Lord of the world,this is Your lamp-lit worship service.

सवैया ॥

अंतिम भाग की रचना गुरु गोबिंद सिंह जी ने की थी

The final part was composed by Guru Gobind Singh Ji

याते प्रसंनि भए है महां मुनि

देवन के तप मै सुख पावैं ॥

वे भगवान तपस्या, प्रार्थना, शास्त्रों के अनुष्ठान, ध्यान, संगीत, देवियों के नृत्य, सिंदूर से सजी, विभिन्न संगीत वाद्ययंत्रों, घंटियों की आवाज और फूलों की वर्षा और आरती की धुन से प्रसन्न होते हैं। लौकिक दुनिया आनन्दित होती है और दिव्य नाम का जाप करती है।

The Lord is pleased by the penance, prayers, rituals recitation of the Scriptures,Meditation, music, dance of the Celestial Beings, adorned with vermilion, various musical instruments,Ringing of bells and the showering of flowers, and the tune of the Aarti.The cosmic worlds rejoice and chant the Divine Name.

जग करै इक बेद ररै,

भवताप हरै मिलि धिआनहि लावैं ॥

यज्ञ हो रहे हैं, वेदों का पाठ हो रहा है और दुखों के निवारण के लिए मिल-जुलकर चिंतन हो रहा है।The sacrifices are being performed, the Vedas are being recited,and contemplation is being done together for the removal of suffering.

झालर ताल म्रिदंग उपंग

रबाब लीए सुर साज मिलावैं ॥

झांझ, तुरही, ढोल, नगाड़े और वीणा जैसे विभिन्न वाद्य यंत्रों की सुरीली धुन बजाई जा रही है।

The harmonious tunes of, various musical instruments like,the cymbals, trumpet, kettledrum, and lute are being played.

किंनर गंध्रब गान करै गनि

जॱछ अपॱछर निरत दिखावैं ॥५४॥

कहीं घोड़े के सिर वाले पुरुष और दिव्य गायक गा रहे हैं और कहीं योद्धा-परिचारक, प्रकृति-आत्माएं और अप्सराएं नृत्य कर रही हैं। (गुरु गोबिंद सिंह, चंडी चरित्र, श्री दसम ग्रंथ साहिब, अंग 79)

Somewhere the horse-headed men and celestial singers are singing and, elsewhere the warrior-attendents, nature-spirits and the nymphs are dancing.(Guru Gobind Singh, Chandi Charitra, Sri Dasam Granth Sahib, ang 79)

संखन की धुन घंटनि की करि

फूलन की बरखा बरखावैं ॥

शंख और घड़ियाल बज रहे हैं और पुष्प बरस रहे हैं।

The conches and gongs sound, and the flowers are raining down.

आरती कोट करै सुर सुंदर

पेख पुरंदर के बलि जावैं ॥

करोड़ों देवता सुशोभित हैं, आरती कर रहे हैं और इन्द्र को देखकर तीव्र भक्ति दिखाते हैं।

Millions of gods beautifully decorated, are performing Arati and seeing Indra, they show intense devotion.

दानव दॱछन दै कै प्रदॱछन

भाल मै कुंकम अॱछत लावैं ॥

उपहार देना और प्रदर्शन करना, उसके चारों ओर परिक्रमा करना, वे अपने माथे पर केसर और चावल का सिंदूर लगाती हैं।

Giving gifts and performing, circumambulation around him, they are apply the vermilion –mark of saffron and rice on their foreheads.

होत कुलाहल देवपुरी मिलि

देवन के कुलि मंगलि गावै ॥५५॥

देवताओं की नगरी में सभी उत्साहित हैं और देवताओं के परिवार बधाई के गीत गा रहे हैं। [जैसा कि इंद्र का राज्य उसे  लौटा दिया गया है, देवी के बाद, राक्षसों को पराजित करने के बाद, इंद्र देवताओं के राजा थे। (सिरी दशम ग्रंथ पृष्ठ। 1015)

In the city of gods,all are excited, and the families, of gods are singing, songs of congratulations.

[As Indra’s Takht has been returned, to him after the Goddess, defeats the demons, Indra was the King of the gods.(Siri Dasam Granth Page. 1015)

He rav(i) he sas(i) he karunaanidh

meri abai binti sun(i) leejai||

हे सूर्य! हे चन्द्र ! हे दयालु प्रभु! मेरी एक विनती सुनो,

O Surya! O Chandra! O merciful Lord! listen to a request of mine,

और न मांगत हूं तुम ते कच्छू,

चाहत हूं चित मैं सोई कीजै॥

मैं और कुछ नहीं माँग रहा तुमसे; मैं जो कुछ भी चाहता हूं, मेरे मन में, आपकी कृपा से;

I am not asking for anything, else from you; whatever I wish, in my mind, by that with Thy Grace;

शत्रुं सियो (i) दौड़ा भीतर

जूझ मारो कह(i) साच पत्तीजाई||

Shattran sio at(i) ran bheetar

joojh maro kah(i) saach patteejai||

यदि मैं अपने शत्रुओं से युद्ध करते हुए शहीद हो जाऊं, तो मैं समझूंगा कि मुझे सत्य का बोध हो गया, हे जगत के पालनहार!I

f I fall a martyr while fighting, with my enemies then I shall, think that I have realized Truth;O Sustainer of the Universe !

संत सहाय सदा जग माए

कृपा कर स्याम इहे बर दीजे।  

मैं इस संसार में संतों की हमेशा मदद कर सकता हूं और अत्याचारियों को नष्ट कर सकता हूं, मुझे यह वरदान दें। 1900। (सिरी दशम ग्रंथ पृष्ठ। 642)

I may always help the saints, in this world and destroy the tyrants;bestow this boon on me.1900.(Siri Dasam Granth Page. 642)

पाइ गहे जब ते तुमरे तब ते

कोऊ आंख तरे नही आनयो ॥

हे भगवान ! जिस दिन मैंने पकड़ लिया, अपने पैर पकड़ लो, मैं किसी और को अपनी दृष्टि में नहीं लाता;

O God ! the day when I caught, hold of your feet, I do not, bring anyone else in my sight;none other is liked by me now;

राम रहीम पुरान कुरान

अनेक कहैं मत एक न मानयो ॥

पुराण और कुरान आपको राम और रहीम के नाम से जानने की कोशिश करते हैं और कई कहानियों के माध्यम से आपके बारे में बात करते हैं,

the Puranas and the Quran try to know, Thee by the names of Ram and Rahim and, talk about you through several stories,

सिम्रिति सासत्र बेस सबै

बहु भेद कहै हम एक न जानयो ॥

स्मृतियों, शास्त्रों और वेदों में तुम्हारे अनेक रहस्यों का वर्णन है, पर उनमें से एक भी मेरी समझ में नहीं आता। हे तलवार चलाने वाले भगवान!

The Simritis, Shastras and Vedas, describe several mysteries of yours,but I do not understand any, of them. O sword-wielder God!

स्री असपान क्रिपा तुमरी करि

मै न कहयो सभ तोहि बखानयो ॥

तेरी कृपा से यह सब वर्णित हो गया है, मैं किस शक्ति से कह सकता हूँ, यह सब लिखना है? 863। (श्री दशम ग्रंथ पृष्ठ। 189)

This all has been described, by Thy Grace, what power can I have to write all this?.863.(Siri Dasam Granth Page. 189)

दोहिरा ॥

सगल दुआर को छाडि कै

गहिओ तुहारो दुआर ॥

बांहि गहै की लाज अस

गोबिंद दास तुहार ॥

हे भगवान ! मैंने अन्य सभी द्वारों को त्याग दिया है और पकड़ लिया है, केवल आपके द्वार को पकड़ लो। हे भगवान! तुमने मेरी बांह पकड़ ली है; मैं, गोविन्द, तेरा दास हूँ, कृपया (मेरी देखभाल करें और) मेरे सम्मान की रक्षा करें। 864.(श्री दशम ग्रन्थ पृष्ठ। 190)

O Lord ! I have forsaken, all other doors and have caught, hold of only Thy door. O Lord !Thou hast caught hold of my arm; I, Govind, am Thy serf,kindly take (care of me and) protect my honour. 864.(Siri Dasam Granth Page. 190)

ऐसे चंड प्रताप ते

देवन बढिओ प्रताप ॥

तीन लोक जै जै करै

ररै नाम सति जापि ॥

इस प्रकार चण्डी के तेज से देवताओं का तेज बढ़ गया। लौकिक संसार आनन्दित होते हैं और आपके दिव्य नाम का जाप करते हैं। तीनों लोक आनन्दित होते हैं, जीत और सच्चे नाम के पाठ की गड़गड़ाहट सुनाई देती है। 56। (गुरु गोबिंद सिंह, चंडी चरित्र, श्री दशम ग्रंथ साहिब, अंग 79) दशम ग्रन्थ पृष्ठ 32)

In this way, through the, splendour of Chandi, the splendour of the gods increased. The cosmic worlds rejoice and chant thy Divine Name.The three worlds rejoiced, the victory and the hum of the recitation of the True Name is heard.56.(Guru Gobind Singh, Chandi Charitra,Sri Dasam Granth Sahib, ang 79)(Siri Dasam Granth Page. 32)

चॱत्र चक्र वरती

चत्र चक्र भुगते ॥

सुयंभव सुभं सरब

दा सरब जुगते ॥

आपको नमस्कार है, हे व्याप्तर और भोक्ता, चारों दिशाओं में भगवान! आपको नमस्कार, हे स्वयंभू, परम सुंदर, और सभी प्रभु के साथ संयुक्त!

Salutation to Thee, O Pervader and Enjoyer in, all the four directions Lord! Salutation to Thee, O Self-Existent, Most Beautiful, and United with all Lord!

दुकालं प्रणासी

दइआलं सरूपे ॥

सदा अंग संगे

अभंगं बिभूते ॥

हे कठिन समय के नाश करने वाले और दया के अवतार प्रभु, आपको नमस्कार है! आपको नमस्कार है, हे सर्वदा उपस्थित, अविनाशी और महिमामय प्रभु! 199.

Salutation to Thee, O Destroyer of hard times and, Embodiment of Mercy Lord! Salutation to thee, O Ever present with all,Indestructible and Glorious Lord! 199.

(३) हे मनुष्यों , "उसी एक पुरुषपुरातन - निरंजन पर तुम अपने चित्त को समाहित करो, जो सभी कारणों का कारण है, जो निर्मल है, अनादि सत्य है। प्राण के रूप में वह अनंत ब्रह्मांड में व्याप्त है; श्रद्धावान व्यक्ति आदमी उसे देखता है, जीवित, देदीप्यमान (resplendent), सभी का मूल। . . .

Fasten your mind, O man, on the Primal Purusha, Who is the Cause of all causes, The Stainless One, the Beginningless Truth. As Prana He pervades the infinite universe; The man of faith beholds Him, Living, resplendent, the Root of all. . . .

नारायण के अनुरोध करने पर नरेन्द्र ने फिर गाया ।

(भावार्थ) “ऐ हृदयरमा माँ - प्राणों की पुतली ! आओ, तुम हृदय के आसन पर आसीन हो जाओ, मैं दृष्टि को तृप्त करता हुआ तुम्हें देखूँ । जन्म से ही मैं तुम्हारा मुँह जोह रहा हूँ । ऐ माँ, तुम जानती हो, मैं कितना दुःख भोग चुका हूँ । ऐ आनन्दमयी, एक बार तो हृदय-पद्म को विकसित करके वहाँ अपना प्रकाश दिखा दो ।"

At Narayan's request Narendra sang:

Come! Come, Mother! Doll of my soul! My heart's Delight! In my heart's lotus come and sit, that I may see Thy face. Alas! sweet Mother, even from birth I have suffered much; But I have borne it all. Thou knowest, gazing at Thee. Open the lotus of my heart, dear Mother! Reveal Thyself there.

এসো মা এসো মা, ও হৃদয়-রমা, পরাণ-পুতলী গো।

হৃদয়-আসনে, হও মা আসীন, নিরখি তোরে গো ॥

আছি জন্মাবধি তোর মুখ চেয়ে,

জান মা জননী কি দুখ পেয়ে,

একবার হৃদয়কমল বিকাশ করিয়ে,

প্রকাশ তাহে আনন্দময়ী ॥

 [( 9 मई  , 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-114 ]

🔱🙏 ठाकुर देव के ब्रह्मज्ञान की अवस्था 🔱🙏

[श्री रामकृष्ण का देश-काल-निमित्त (C) को transcendent करके  

 जगत (B) से ब्रह्म (A) में या 'समाधि' में पहुँचना ]

[শ্রীরামকৃষ্ণ সমাধিমন্দিরে — তাঁহার ব্রহ্মজ্ঞানের অবস্থা ]

फिर नरेंद्र ने अपनी पसंद का गाना [soul-enthralling, या आत्मविश्लेषण गीत -soul-searching  song) गाया –[स्वामी विवेकानन्द का प्रिय काली-कीर्तन]  



निविड़ आँधरे माँ तोर चमके ओ रूपराशि। 

ताई योगी ध्यान धरे होय गिरि-गुहावासी।। 

अनन्त आंधार कोले , महानिर्वाण हिल्लोले। 

चिरशान्ति परिमल , अविरल जाय भासि।। 

महाकाल रूपो धरि , आँधारो वसन पोरी। 

समाधी -मन्दिरे ओ माँ, के तुमि गो एका बोसि।।

अभयपद-कमले प्रेमेर बिजोली ज्वले।  

चिन्मय मुख-मण्डले शोभे अट्ट -अट्ट हाँसी।। 

ताई योगी ध्यान धरे होय गिरि-गुहावासी।। ..... 


(भावार्थ) "माँ, तेरा अपरूप रूप घोर अँधेरे में चमक रहा है । इसीलिए गिरि-गुहाओं में योगीजन तुम्हारा ध्यान करते हैं ।"

[ 2022 गंगाधरपुर कैम्प का अनुभव : घोर अन्धकार में  (मृत्यु के अंधकार में - माँ काली -का 'निराकार रूप' -अर्थात मूर्ति या चित्र का जीवन्त हो उठना, पलक झपकाना या सांसे लेना), हे माँ, तेरा निराकार सौन्दर्य जगमगाता है;  इसलिए योगी एक अंधेरी पहाड़ी गुफा में ध्यान करते हैं।

Then Narendra sang a song of his own choice: In dense darkness, O Mother, Thy formless beauty sparkles; Therefore the yogis meditate in a dark mountain cave. . . .

লিরিক্স:

নিবিড় আঁধারে মা তোর চমকে ও রূপরাশি ৷

তাই যোগী ধ্যান ধরে হয়ে গিরিগুহাবাসী ৷৷

অনন্ত আঁধার কোলে, মহার্নিবাণ হিল্লোলে ৷

চিরশান্তি পরিমল, অবিরল যায় ভাসি ৷৷

মহাকাল রূপ ধরি, আঁধার বসন পরি ৷

সমাধিমন্দিরে মা কে তুমি গো একা বসি ৷৷

অভয়-পদ-কমলে প্রেমের বিজলী জ্বলে ৷

চিন্ময় মুখমণ্ডলে শোভে অট্ট অট্ট হাসি ৷৷

[(भावार्थ) - "माँ, घने अन्धकार में तेरा रूप चमकता है । इसीलिए योगी पर्वत की गुफा में निवास करता हुआ ध्यान लगाता है । तुम्हारे अभय चरणकमलों में प्रेम की जो बिजली चमकती हैं, वही  तुम्हारे चिन्मय मुखमण्डल पर हास्य बन कर शोभायमान है । महाकाल का रूप धारण कर, अन्धकार का वस्त्र पहन, माँ, समाधिमन्दिर में अकेली बैठी हुई तुम कौन हो ? अनन्त अन्धकार की गोदी में, महानिर्वाण के हिल्लोल में चिर शान्ति का परिमल लगातार बहता जा रहा है ।  "

In dense darkness, O Mother, Thy formless beauty sparkles; Therefore the yogis meditate in a dark mountain cave. From the Lotus of Thy fear-scattering Feet flash Thy love's lightnings; Thy Spirit-Face shines forth with laughter terrible and loud! Taking the form of the Void, in the robe of darkness wrapped, Who art Thou, Mother, seated alone in the shrine of samadhi? In the lap of boundless dark, on Mahanirvana's waves upborne, Peace flows serene and inexhaustible.

जैसे ही श्री रामकृष्ण ने इस आत्म-मोहक (आत्मविश्लेषण गीत -soul-searching  song) गीत को सुना, वे समाधि में चले गए।

As Sri Ramakrishna heard this soul-enthralling (आत्म-विश्लेषण गीत,soul-searching song) , he went into samadhi (A) .

সমাধির এই গান শুনিতে শুনিতে ঠাকুর সমাধিস্থ হইতেছেন।

नरेंद्र ने फिर गाया:

'मत्त ' हो जाओ, हे मन, 'हरि-रस (आनंद) की मदिरा'  पीकर मदहोश हो जाओ! . . .

Narendra again sang:Be drunk, O mind, be drunk with the Wine of Heavenly Bliss! . . .

নরেন্দ্র আর একবার সেই গানটি গাইতেছেন —

হরিরসমদরিরা পিয়ে মম মানস মাতোরে।

श्रीरामकृष्ण को भावावेश है । उत्तरास्य हो, दीवार के सहारे, पैर लटकाये हुए तकिये पर बैठे हुए हैं । चारों ओर भक्तगण बैठे हैं ।

The Master was in samadhi. He was sitting on a pillow, dangling his feet, facing the north and leaning against the wall. The devotees were seated around him.

শ্রীরামকৃষ্ণ ভাবাবিষ্ট। উত্তরাস্য হইয়া দেওয়ালে ঠেসান দিয়া পা ঝুলাইয়া তাকিয়ার উপর বসিয়া আছেন। ভক্তেরা চতুর্দিকে উপবিষ্ট।

भावावेश में श्रीरामकृष्ण माँ जगदम्बा से बातें कर रहे हैं । कह रहे हैं - "भोजन करके इस समय चला जाऊँगा । तू आयी ? पोटली बाँधकर, जहाँ रहेगी वह घर ठीक करके तू आयी है क्या ?"अब मुझे कोई नहीं सुहाता । "माँ, मैं संगीत क्यों सुनूँ ? उससे तो मन कुछ बाहर चला जाता है ।"

"In an ecstatic mood Sri Ramakrishna talked to the Divine Mother. He said: "I shall take my meal now. Art Thou come? Hast Thou found Thy lodging and left Thy baggage there and then come out?" He continued: "I don't enjoy anybody's company now. Why should I listen to the music, Mother? That diverts part of mv mind to the outside world."

ভাবাবিষ্ট হইয়া ঠাকুর মার সঙ্গে একাকী কথা কহিতেছেন। ঠাকুর বলিতেছেন — “এই বেলা খেয়ে যাব। তুই এলি? তুই কি গাঁট্‌রি বেঁধে বাসা পাকড়ে সব ঠিক করে এলি?” 

ঠাকুর কি বলিতেছেন, মা তুই কি এলি? ঠাকুর আর মা কি অভেদ?“এখন আমার কারুকে ভাল লাগছে না।”“মা, গান কেন শুনব? ওতে তো মন খানিকটা বাইরে চলে যাবে!”

 [( 9 मई  , 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-114 ]

🔱🙏अर्जुन ने भीष्म पितामह को मारा तो क्या उन्हें पाप नहीं लगा ?🔱🙏

[उस अवस्था में पहुँचकर लौटने के बाद प्रेममय की हिंसा ? की जा सकती है !]   

क्रमश: श्रीरामकृष्ण को बाह्य संसार का ज्ञान हो रहा है । भक्तों की ओर देखकर उन्होंने कहा, - "हण्डी में पानी भरकर किसी को उसमें मछलियों को रखते हुए देख पहले मुझे बड़ा आश्चर्य होता था । मैं सोचता था, ये लोग बड़े हत्यारे हैं, अन्त में इन मछलियों को मार डालेंगे । अवस्था जब बदलने लगी, तब मैंने देखा, यह शरीर ऊपर का ढक्कन है । न इसके रहने से कुछ बनता-बिगड़ता है, न जाने से ।"

The Master was gradually regaining consciousness of the outer world. Looking at the devotees he said: "Years ago I used to be amazed to see people keeping kai fish alive in a pot of water. I would say: 'How cruel these people are! They will finally kill the fish.' But later, as changes came over my mind, I realized that bodies are like pillow-cases. It doesn't matter whether they remain or drop off."

ঠাকুর ক্রমে ক্রমে আরও বাহ্যজ্ঞান লাভ করিতেছেন। ভক্তদের দিকে তাকাইয়া বলিতেছেন, ‘আগে কইমাছ জীইয়ে রাখা দেখে আশ্চর্য হতুম; মনে করতুম এরা কি নিষ্ঠুর, এদের শেষকালে হত্যা করবে! অবস্থা যখন বদলাতে লাগল তখন দেখি যে, শরীগুলো খোল মাত্র! থাকলেও এসে যায় না, গেলেও এসে যায় না!”

भवनाथ - तो क्या मनुष्यों की हिंसा करने से पाप नहीं होगा ? हिंसा की जा सकती है ? हत्या की जा सकती है ?

BHAVANATH: "Then may one injure a man without incurring sin? Kill him?"

ভবনাথ — তবে মানুষ হিংসা করা যায়! — মেরে ফেলা যায়?

श्रीरामकृष्ण - हाँ, 'उस अवस्था' ^* में की जा सकती है । वह अवस्था [प्रतिबन्धकों के कारण]   सब की नहीं होती । वह ब्रह्मज्ञान की अवस्था है ।

MASTER: "Yes, it is permissible if one has achieved that state of mind, But not everyone has it. It is the state of Brahmajnana.

শ্রীরামকৃষ্ণ — হাঁ, এ-অবস্থায় হতে পারে১। সে অবস্থা সকলের হয় না। — ব্রহ্মজ্ঞানের অবস্থা।

[किसी जीव को कभी ब्रह्म की प्राप्ति नहीं होती, प्रत्युत जीव-भाव मिटने पर 'ब्रह्म' (आत्मा)  को ही ब्रह्म (परमात्मा) की प्राप्ति होती है। 

संन्यास का अर्थ है 'त्याग' अर्थात अहंकार और स्वार्थ को पूर्णरूप से परित्याग करके वैराग्य का जीवन जीना वास्तविक संन्यास है।  सब इच्छाओं के त्याग का अर्थ है अहंकार का त्याग।  जिससे वह साधक सतत अपने पूर्ण दिव्य स्वरूप (100 % Unselfishness) की अनुभूति में रह सकता है। अपने हृदय में स्थित आत्मा को पहचानने का ही अर्थ है उसी समय सर्वत्र व्याप्त नित्य ब्रह्म को पहचानना। जीवन से पलायन करने अथवा गेरुये वस्त्र धारण करने को संन्यास समझने की जो गलत धारणा समाज में फैल गई है, उसनेे उपनिषदों के महान् तत्त्वज्ञान पर एक अमिट सा धब्बा लगा दिया है।  आत्मसाक्षात्कार होने का समय युवावस्था में (या 42 years में) ही हो जाए  आवश्यक नहीं हैं। वृद्धावस्था अथवा जीवन के अन्तिम क्षणों में भी यदि मनुष्य अपने स्वयंसिद्ध नित्य स्वरूप को पहचान लेता है तब भी वह अनुभव ब्राह्मी स्थिति के लिए पर्याप्त है।

वास्तव में हिन्दू धर्म केवल उसी को संन्यासी स्वीकार करता है जिसने विवेक-प्रयोग द्वारा अहंकार और स्वार्थ को त्याग कर स्फूर्तिमय जीवन "बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय  'चरैवेति, चरैवेति', का जीवन जीना सीखा है। जो संन्यासी अहंकार से रहित है अर्थात् विद्वत्ता आदि के सम्बन्ध से होने वाले आत्माभिमान से भी रहित है। वह ऐसा स्थितप्रज्ञ ब्रह्मवेत्ता ज्ञानी संसार के सर्वदुःखों की निवृत्तिरूप मोक्ष नामक परम शान्ति को पाता है अर्थात् ब्रह्मरूप हो जाता है। हे पार्थ यह ब्राह्मी स्थिति है। इसे प्राप्त कर पुरुष मोहित नहीं होता। अन्तकाल में भी इस निष्ठा में स्थित होकर ब्रह्मनिर्वाण (ब्रह्म के साथ एकत्व) को प्राप्त होता है।।अहंकार के नष्ट होने पर नित्य चैतन्य आत्मा का अनुभव उससे भिन्न रहकर नहीं होता वरन् उसके साथ एकत्व का अनुभव ही होता है। अत इस साक्षात्कार को ब्राह्मी स्थिति कहा गया है। 

 ‒एक देशीय सत्ता (व्यष्टि अहं) को अनन्त सत्ता (माँ जगदम्बा के मातृहृदय के 'सर्वव्यापी विराट अहं')  में मिलाने से अहंकार सर्वथा नहीं रहेगा । कारण कि अनन्त सत्ता मानी हुई नहीं है, प्रत्युत वास्तविक है । जीव और ब्रह्मकी एकता आजतक न कभी हुई है, न होगी और न हो ही सकती है । कारण कि जीव में ब्रह्मभाव नहीं है और ब्रह्म में जीवभाव नहीं है । अतः जीव और ब्रह्म की एकता न करके जीवभाव अर्थात् अहम् (मैं-पन) को मिटाना है । अहम्‌के मिटते ही केवल ब्रह्म रह जाता है । भगवान्‌ने अहम् मिटनेके बाद ही ब्राह्मी स्थिति होनेकी बात कही है‒

निर्ममो  निरहंकारः स  शान्तिमधिगच्छति ॥

एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति ।

   (गीता २ । ७१-७२)

जो पुरुष सब कामनाओं को त्यागकर स्पृहारहित, ममभाव रहित और निरहंकार हुआ विचरण करता है,  वह शान्ति प्राप्त करता है। ब्राह्मी स्थिति प्राप्त होने पर फिर कभी अहम्‌ से मोहित (अहंकारविमूढात्मा) होने की सम्भावना नहीं रहती ।

इस द्वितीय अध्याय में सम्पूर्ण गीता का सार सन्निहित है। तत्त्वज्ञान से पूर्ण इस अध्याय को संकल्प वाक्य में 'सांख्ययोग' कहा गया है। यदि मनुष्य जीवन का लक्ष्य निर्धारित करना हो तो पहले नश्वर देह और मन से अविनाशी आत्मा का पृथक होना को समझ लेना आवश्यक है। जब तक हमारा तादात्म्य शरीर या नाम-रूप (M/F) के साथ रहेगा तब तक जीवन उद्देश्य बहुत धन कमाकर बहुत भोग करना ही रहेगा !   

अर्जुन के व्यक्तित्व के विघटन का कारण अहंकार और ममभाव अथवा अहंकार से प्रेरित इच्छायें थीं जिन्होंने उसके मन और बुद्धि को विलग कर दिया था। भगवान् श्रीकृष्ण सब प्रकार की युक्तियाँ देने के बाद रोग के मुख्य कारण की ओर अर्जुन का ध्यान आकर्षित करते हैं। इस श्लोक का निष्कर्ष यह है कि जीवन में हमारे समस्त दुखों का कारण अहंकार और उससे उत्पन्न ममभाव स्वार्थ और असंख्य कामनायें हैं। 

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्‌ ।

           उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।।2.19।।

भावार्थ: अर्जुन यदि तू ऐसा मानता है कि मेरे द्वारा युद्ध में भीष्मादि मारे जायँगे और मैं ही उनका मारने वाला हूँ तो, तेरी यह बुद्धि ( भावना ) सर्वथा मिथ्या है। कैसे ? ....जो मरता है वह शरीर है और मैं मारने वाला हूँ यह भाव अहंकारी जीव का है। शरीर और अहंकार को प्रकाशित करने वाली चैतन्य आत्मा दोनों से भिन्न है। संक्षेप में इसका तात्पर्य यह है कि आत्मा न किसी क्रिया का कर्त्ता है और न किसी क्रिया का विषय अर्थात् उस पर किसी प्रकार की क्रिया नहीं की जा सकती।

इस आत्मा को जो मारने वाला समझता है अर्थात् हनन-क्रिया का कर्ता मानता है और जो दूसरा ( कोई ) इस आत्मा को देह के नाश से मैं नष्ट हो गया ऐसे नष्ट हुआ मानता है अर्थात् हनन-क्रिया का कर्म मानता है।वे दोनों ही अहं-प्रत्यय के विषयभूत आत्मा को अविवेक के कारण नहीं जानते। अभिप्राय यह कि जो शरीर के मरने से आत्मा को मैं मारने वाला हूँ, या  मैं मारा गया हूँ इस प्रकार जानते हैं वे दोनों ही आत्म-स्वरूप से अनभिज्ञ हैं।क्योंकि यह आत्मा विकार-रहित होनेके कारण न तो किसी को मारता है और न मारा जाता है अर्थात् न तो हनन-क्रिया का कर्ता होता है और न कर्म होता है। जो इस आत्मा को (अविनाशी  शरीरी को) मारने वाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते क्योंकि यह आत्मा (जो शरीरी है) वास्तव में न तो किसी को मारता है और न किसी द्वारा मारा जाता है॥१९॥ 

आत्मा किस प्रकार अविकारी (प्रजनन क्रिया से रहित) है इसका उत्तर अगले श्लोक में दिया गया है।

न जायते म्रियते वा कदाचि,

न अयं भूत्वा भविता वा न भूयः। 

अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो,

            न हन्यते हन्यमाने शरीरे।। 2.20।।  

[न-जायते जन्म नहीं लेता; म्रियते-मरता है; वा-या; कदाचित् किसी काल में भी; न कभी नहीं; अयम् यह; भूत्वा होकर; भविता-होना; वा–अथवा; न कहीं; भूयः-आगे होने वाला; अजः-अजन्मा; नित्यः-सनातन; शाश्वतः-स्थायी; अयम्-यह; पुराणः-सबसे प्राचीन; न-नहीं; हन्यते-अविनाशी; हन्यमाने नष्ट होना; शरीरे-शरीर में।]

BG 2.20: आत्मा का न तो कभी जन्म होता है न ही मृत्यु होती है और न ही आत्मा किसी काल में जन्म लेती है, और न ही कभी मृत्यु को प्राप्त होती है। आत्मा अजन्मा, शाश्वत, अविनाशी और चिर-नूतन है। शरीर का विनाश होने पर भी इसका विनाश नहीं होता।

इस श्लोक में आत्मा की शाश्वतता (eternality) को सिद्ध किया गया है जो सनातन है तथा जन्म और मृत्यु से परे है। परिणामस्वरूप आत्मा के स्वरूप को छः श्रेणियों में विभक्त किया गया है-"अस्ति (अस्तित्व), जायते (जन्म), वर्धते (वृद्धि), विपरिणामते (reproduction,प्रजनन), अपक्षीयते (क्षय)और विनिश्यति (नाश)" अर्थात गर्भावस्था में आना, जन्म, विकास, प्रजनन, हास और मृत्यु। ये सब शरीर के बदलते स्वरूप हैं न कि आत्मा के। जिसे हम मृत्यु कहते हैं, वह केवल शरीर का विनाश है।  किन्तु शाश्वत आत्मा शरीर के सभी परिवर्तनों से अछूती रहती है अर्थात शरीर में समय-समय पर होने वाले परिवर्तनों का आत्मा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। 

   वेदों में भी इस दृष्टिकोण को बार-बार दोहराया गया है। कठोपनिषद् में निहित मंत्र भी लगभग गीता के उपर्युक्त श्लोक के समान उपदेश देते हैं --

न जायते म्रियते वा विपश्चिन्नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित्। 

अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।

(कठोपनिषद्-1.2.18)

"आत्मा का न तो जन्म होता है और न ही यह मरती है, न ही किसी से यह (आत्मा का माँ -बाप) प्रकट होती है, न ही इससे कोई (आत्मज-पुत्र,कामदेव या रक्त) प्रकट होता है। यह आत्मा अजन्मा अविनाशी और चिर-नूतन (यविष्ठ -चिर युवा) है। शरीर का विनाश हो जाने पर भी यह अविनाशी है।" बृहदारण्यकोपनिषद् में भी वर्णन किया गया है- ब्रह्मविद ब्रह्मैव भवति 

स वा एष महानज आत्माजरोऽमरोऽमृतोऽभयो। 

ब्रह्माभयं वै ब्रह्माभय हि वै ब्रह्म भवति य एवं वेद॥

 (बृहदारण्यकोपनिषद्-4.4.25) 

"वह आत्मा महान (बृहद-आनन्दमय), अजन्मा, अविनाशी, वृद्धावस्था से मुक्त, अमर और निर्भय -अर्थात भय मुक्त है"।  यह ब्रह्म (अनंत) है। वास्तव में ब्रह्म निर्भय है। जो इसे इस रूप में जानता है (जो आत्मसाक्षात्कार के बाद माँ जगदम्बा की कृपा से वापस शरीर में लौट आता है) वह निर्भय ब्रह्म (अभिः) बन जाता है। वस्तुतः वह जो कि उस 'परम ब्रह्म' को जानता है वह स्वयं 'ब्रह्म' बन जाता है; उसके कुल में 'ब्रह्म' को न मानने वाला पैदा नहीं होता। वह शोक से पार हो जाता है, वह पापों से तर जाता है, वह हृद्गुहा की ग्रंथियों से मुक्त होकर अमर हो जाता है। 

That great, unborn Self is undecaying, immortal, undying, fearless; It is Brahman (infinite). Brahman is indeed fearless. He who knows It as such becomes the fearless Brahman.

'स यो ह वै तत्‌ परमं ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति'  (मुण्डकोपनिषद् ३.२.९): ” ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति ” ” ब्रह्मवेत्ता ब्रह्म ही होता है ”  हे श्वेतकेतु ! ” तत्त्वमसि ” तू , अर्थात् तेरा आत्मा ” तत्त्व ” है , तेरा शरीर ” तत्त्व – वस्तु ” नहीं ।  ” तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः ” एकत्व देखनेवाले को मोह कहाँ और शोक कहाँ? याज्ञवल्क्य कहते हैं – ” अभयं वै जनक प्राप्तोऽसि तदाऽऽत्मानमेवावेदहं ब्रह्मास्मि तस्मातत्सर्वमभवत् ” हे जनक ! निश्चय है तू अभय पदको प्राप्त हुआ है , मैं ब्रह्म हूँ , ऐसा अपने को जान ऐसा जानने से वह सब ब्रह्म हुआ । ” 

      शरीर के समान आत्मा का जन्म नहीं होता क्योंकि वह तो सर्वदा ही विद्यमान है। तरंगों की (नाम-रूप की)  उत्पत्ति होती है और उनका नाश होता है।  परन्तु उनके साथ न तो समुद्र की (अस्ति -भाति -प्रिय की) उत्पत्ति होती है और न ही नाश। जिसका (मिथ्या अहं का) आदि है उसी का अन्त भी होता है। उत्ताल तरंगे (शरीर के साथ अहं का तादात्म्य) ही मृत्यु की अन्तिम श्वांस लेती हैं। सर्वदा विद्यमान आत्मा के जन्म और नाश का प्रश्न ही नहीं उठता। अतः यहाँ कहा है कि आत्मा अज और नित्य है।
विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः
निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति ॥71॥

(विहाय, कामान्, यः, सर्वान्, पुमान्, चलति, निःस्पृहः । निर्ममः, निरहङ्कारः, सः, शान्तिम्, अधिगच्छति ॥) 
विहाय-त्याग कर; कामान्–भौतिक इच्छाएँ; यः-जो; सर्वान्–समस्त; पुमान्-पुरुष; चरति-रहता है; निःस्पृहः-कामना रहित; निर्ममाः-स्वामित्व की भावना से रहित; निरहंकारः-अहंकार रहित; सः-वह; शान्तिम्-पूर्ण शान्ति को; अधिगच्छति-प्राप्त करता है।
BG 2.71: जिस मुनष्य ने अपनी सभी भौतिक इच्छाओं का (तीनो ऐषणाओं का ) परित्याग कर दिया हो और इन्द्रिय तृप्ति की लालसा, स्वामित्व के भाव और अंहकार से रहित (100 % Unselfish) हो गया हो, वह पूर्ण शांति प्राप्त कर सकता है।
सांसारिक इच्छाएँ (आहार-निद्रा -भय -मैथुन) : जिस क्षण हम अपनी इच्छाओं को (घोर स्वार्थपरता को) मन में प्रश्रय देते हैं तब हम लोभ और काम-क्रोध के जाल में फंस जाते हैं। इसलिए आंतरिक शांति का मार्ग कामनाओं की तुष्टि करने के स्थान पर उनका उन्मूलन करने से प्राप्त होता है। 
लोभः अपने को M/F मानने के कारण,स्वयं को नश्वर शरीर से पृथक, अविनाशी आत्मा नहीं मानने के कारण, या देहध्यास के कारण मनुष्य खूब धन-दौलत कमाने के लोभ में फँस जाता है। क्लास 3 का बच्चा भी बोलता है - बड़ा होकर मैं बहुत पैसा कमाना चाहता हूँ। आवश्यकता से अधिक भौतिक उन्नति की लालसा सर्वप्रथम मनुष्य-जीवन के बहुमूल्य समय को व्यर्थ करने जैसा है। यह कभी न समाप्त होने वाली दौड़ है। विकसित देशों के, या अब भारत के अमीर लोग जिनके बच्चे अमेरिका में हैं, उनमें से बहुत कम लोग उत्तम रहन-सहन  और खान पान से वंचित रहते हैं। (गोआ तीर्थ हर साल जाते हैं) किन्तु फिर भी वे विक्षुब्ध रहते हैं क्योंकि उनकी लालसाएँ तुष्ट नहीं हुई हैं। अतः जो संतोष का धन पा लेता है वह जीवन की अनमोल निधि पा लेता है।
गो-धन, गज-धन, वाजि-धन और रतन-धन खान। 
जब आवत संतोष-धन, सब धन धूरि समान ॥६॥
तुलसीदास जी कहते हैं कि मनुष्य के पास भले ही गौ रूपी धन हो, गज (हाथी) रूपी धन हो, वाजि (घोड़ा) रूपी धन हो और रत्न रूपी धन का भंडार हो, वह कभी संतुष्ट नहीं हो सकता। जब उसके पास सन्तोष रूपी धन आ जाता है, तो बाकी सभी धन उसके लिए धूल या मिट्टी के बराबर है। अर्थात् सन्तोष ही सबसे बड़ी सम्पत्ति है।
लोभः सर्वप्रथम भौतिक उन्नति की लालसा मनुष्य-जीवन के बहुमूल्य समय को व्यर्थ करने जैसा है। यह कभी न समाप्त होने वाली दौड़ है। विकसित देशों के बहुत कम लोग उत्तम रहन-सहन और खान पान से वंचित रहते हैं किन्तु फिर भी वे विक्षुब्ध रहते हैं क्योंकि उनकी लालसाएँ तुष्ट नहीं हुई हैं। अतः जो संतोष का धन पा लेता है वह जीवन की अनमोल निधि पा लेता है।
 अहंकारः लोगों के बीच होने वाले अधिकतर विवाद अहंकार से उत्पन्न होते हैं। 'Harvard Business School'  के विद्वान और ' What They Don't Teach You at Harvard' नामक पुस्तक के लेखक  ' Mark H. McCormack ' लिखते हैं- "अधिकतर 'Business Executives' अपनी भुजाओं और पैरों को फैलाए हुए दैत्य के समान अहंकारी होते हैं।" 
'मैं और मेरा ' या स्वामित्व की भावना :  अज्ञानता के कारण मन में स्वामित्व की भावना उत्पन्न होती है। हम संसार में खाली हाथ आए थे और खाली हाथ जाएंगे, तब ऐसे में हम सांसारिक पदार्थों को अपना कैसे मान सकते हैं

एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति ।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ॥72॥

(एषा, ब्राह्मी, स्थितिः, पार्थ, न, एनाम्, प्राप्य, विमुह्यति । स्थित्वा, अस्याम्, अन्तकाले, अपि, ब्रह्मनिर्वाणम्, ऋच्छति ॥)  

एषा-ऐसे; ब्राह्मी-स्थितिः- भगवदप्राप्ति की अवस्थाः पार्थ-पृथापुत्र, अर्जुन; न कभी नहीं; एनाम्-इसको; प्राप्य-प्राप्त करके; विमुह्यति-मोहित होता है; स्थित्वा-स्थित होकर; अस्याम्-इसमें; अन्तकाले-मृत्यु के समय; अपि-भी; ब्रह्म-निवाणम्-माया से मुक्ति; ऋच्छति-प्राप्त करता है।

BG 2.72: हे पार्थ! ऐसी अवस्था में रहने वाली प्रबुद्ध आत्मा जब ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर लेती है, वह फिर कभी भ्रमित (Hypnotized) नहीं होती।  तब मृत्यु के समय (निविड़-अंधकार में) भी इस दिव्य चेतना में स्थित सिद्ध पुरुष जन्म और मृत्यु के बंधन से मुक्त हो जाता है और भगवान के परम धाम में प्रवेश करता है।
 ब्रह्म का अर्थ भगवान तथा स्थिति का अर्थ भगवद्प्राप्ति की अवस्था (समाधि की अवस्था) है। जब निष्काम कर्म के द्वारा आत्मा चित्त को ( या अन्त:करण को शुद्ध कर लेती है) तब भगवान (माँ सारदा) अपनी दिव्य कृपा प्रदान करते हैं। जैसा कि श्लोक संख्या 2.64 में वर्णित है। अपनी कृपा द्वारा वे आत्मा को दिव्य ज्ञान, दिव्य आनन्द और दिव्य प्रेम प्रदान करते हैं। भगवान ये सब दिव्य शक्तियाँ आत्मा को भगवद्प्राप्ति करने के समय (देश-काल -निमित्त को transcend करने के समय)  प्रदान करते हैं। 
      उसी क्षण भगवान आत्मा को माया के बंधनों से मुक्त कर देते हैं। फिर संचित कर्म अर्थात अनन्त जन्मों के संचित कर्म समाप्त हो जाते हैं तथा अविद्या अर्थात भौतिक संसार के अनन्त जन्मों की अज्ञानता दूर हो जाती है। 'त्रिगुणों का प्रभाव' प्राकृत शक्ति के तीन गुण समाप्त हो जाते हैं, त्रिदोष अर्थात सांसारिक बंधनों के तीन दोषों का भी अंत हो जाता है। पंच क्लेश अर्थात मायिक बुद्धि के पांच विकार (अविद्या-स्मिता -राग -द्वेष -अभिनिवेश) नष्ट हो जाते हैं।  पंच कोष अर्थात माया शक्ति के पांच आवरण भी जल जाते हैं। 
    इससे आगे के क्रम में आत्मा सदा के लिए माया के बंधनों से मुक्त हो जाती है। भगवद्प्राप्ति की अवस्था (समाधि की अवस्था) प्राप्त करने पर आत्मा को जीवनमुक्त कहा जाता है। अर्थात शरीर में वास करते हुए भी आत्मा मुक्त रहती है। फिर मृत्यु के समय जब मुक्त आत्मा भौतिक शरीर से अलग होती है, तब वह भगवान के परम धाम में प्रवेश करती है। 
ऋग्वेद में वर्णित है। 
तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः।
दिवीव चक्षुराततम्।। 

(ऋग्वेद-1.22.20)

सर्वव्यापक परमेश्वर के उस परमपद को वेदवेत्ता योगी लोग सदा इस प्रकार देखते है, जैसे सूर्य के प्रकाश में नेत्र की दर्शनशक्ति व्याप्त होकर समस्त ब्रह्माण्ड का दर्शन करती है। भाव यह है कि उस परमेश्वर को समाधि द्वारा योगी और ज्ञानी लोग ही देख सकते है। 
"एक बार जब आत्मा भगवान को पा लेती है, तब वह सदा के लिए उससे एकनिष्ठ हो जाती है। इसके पश्चात माया का अंधकार उस पर कभी हावी नहीं हो पाता"। माया से सर्वदा मुक्ति को निर्वाण, मोक्ष इत्यादि कहा जाता है। फलस्वरूप मुक्ति ही भगवद्प्राप्ति का वास्तविक परिणाम है।साभार / https://www.holy-bhagavad-gita.org/chapter/2/verse/70/hi]
यत् पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः ।
प्रिये ! इस प्रकार अण्डकोष जुड़ जानेपर वह बकरा फिर कूएँसे निकली हुई बकरीके साथ बहुत दिनोंतक विषयभोग करता रहा, परंतु आजतक उसे सन्तोष न हुआ ॥ ११ ॥ सुन्दरी ! मेरी भी यही दशा है। तुम्हारे प्रेमपाशमें बँधकर मैं भी अत्यन्त दीन हो गया। तुम्हारी मायासे मोहित होकर मैं अपने-आपको भी भूल गया हूँ ॥ १२ ॥‘प्रिये ! पृथ्वीमें जितने भी धान्य (चावल, जौ आदि), सुवर्ण, पशु और स्त्रियाँ हैं—वे सब-के-सब मिलकर भी उस पुरुषके मनको सन्तुष्ट नहीं कर सकते, जो कामनाओंके प्रहारसे जर्जर हो रहा है ॥ १३ ॥
साभार / https://asuriks.blogspot.com/2020/04/blog-post_14.html

[प्राच्य और पाश्चत्य:-  क्लॉडियस और डेनमार्क का राजा हैमलेटतो दूसरी और भरत और अयोध्या के राजा श्रीराम का उदाहरण। क्लॉडियस का बड़ा भाई था डेनमार्क का राजा हैमलेट, जिसकी हत्या षडयंत्र में जिसने हैमलेट ने हैमलेट पत्नी अर्थात अपनी भाभी गरट्रूड को भी शामिल कर लिया था। यहाँ हम पाते है कि प्रिन्स हैमलेट भी नचिकेता की तरह श्रद्धावान युवा है। नचिकेता की तरह   वह हेमलेट भी  मृत्यु के बाद क्या होता है, यह जानना चाहता है। ब्रह्म की तुलना वह एक ऐसे  "undiscovered country" 'अज्ञात देश ' या अनोखे देश से कर रहा है , जहाँ पहुँच जाने के बाद कोई लौटता नहीं है। अर्थात मृत्यु के बाद, या देश-काल -निमित्त का अतिक्रमण करके आत्मसाक्षात्कार करने के बाद कोई व्यक्ति जीवित नहीं लौटता ? केवल ईश्वरकोटि का मनुष्य माँ काली की कृपा से ही वापस लौट सकता है।

     "To Be or Not to Be","होना या न होना" में, शेक्सपियर सुषुप्ति अवस्था की धारणा को मृत्यु के विकल्प के रूप में उपयोग करता है जब हेमलेट कहता है, "क्या मरना भी, गाढ़ी नींद में सो जाने जैसा है ?" क्योंकि सुषुप्ति की अवस्था भी बहुत कुछ मृत्यु के समान मालूम पड़ती है। हम लोग अक्सर मृत्यु को "शाश्वत नींद" या "eternal slumber" के रूप में वर्णित करते हैं। अन्त में उसे यह पता चलता है कि मृत्यु की तुलना स्वप्नावस्था से करना बेहतर होगा , क्योंकि हम यह नहीं जानते कि हमारा अगला जन्म किस रूप में होगा ? .... यदि पुनर्जन्म होता हो , या जीवन शाश्वत होता हो। 

     राजा भर्तृहरि, रानी अनंगसेना, राजा का साईस चंद्रचूड़, सेनापति, नगरवधू रूपलेखा सब वे ही हुए हैं। चंद्रचूड़ और सेनापति ये दोनों भी निष्ठाहीन प्रेमी थे, दोनों का रानी अनंगसेना और रूपलेखा दोनों से प्रणय-सम्बन्ध था।योगी गोरखनाथ को पहले से ही पता था कि राजा भर्तृहरि पूर्वजन्म का योगी है और आगे भी उसको योगी ही बनना है, बस पूर्व जन्मों के कर्मों (प्रतिबन्धकों) के कारण कुछ दिनों तक का राज और भोग है. उन्होंने जब ये सारी बातें जानीं, तो उन्होंने जानकर ही किसी जयंत नामक ब्राह्मण के साथ अमरफल भेजा। राजा ने वह अमरफल रानी अनंगसेना को दिया। रानी ने वह अमरफल अश्वपाल चंद्रचूड़ को दे दिया। चंद्रचूड़ ने भी वह अमरफल स्वयं न खाया, उसने उसे गणिका रूपलेखा को देने का निर्णय किया। रूपलेखा ने वह फल राजा को दे दिया.भर्तृहरि के वैराग्य के पीछे स्त्री के विश्वासघात की कहानी का आधार उनका यह श्लोक है-

यां चिन्तयामि सततं मयि सा विरक्ता, 

साप्यन्यमिच्छति जनं स जनोऽन्यसक्तः। 

अस्मत्कृते च परितुष्यति काचिदन्या, 

धिक् तां च तं च मदनं च इमां च मां च॥ 

अर्थ है-जिसका मैं निरंतर स्मरण करता रहा, वह किसी और का स्मरण करती रही, वह भी किसी और को ही प्रेम करता रहा, उसकी चाही भी फिर मुझे चाहती रही, धिक्कार है, उसे भी, उसके चाहे को भी, उसको चाहने वाले को भी, मुझको चाहने वाले को भी और सबसे बढ़कर प्रीति के समस्त व्यापार को भी. पहले पौष मध्य से लेकर मकर संक्रांति तक के शीतकालीन मलमास में कई जोगी घूम-घूमकर राजा भरथरी की कथा सुनाते थे. गोरखनाथ जी की वैरागी नाथ परंपरा के अनेक योगी सींगवाद्य रखते हैं। भर्तृहरि ने श्रृंगार, वैराग्य और नीति के तीन शतक लिखे, जो "भर्तृहरि शतकत्रय" के नाम से प्रसिद्ध हैं.]  

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 [( 9 मई  , 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-114 ]

🔱🙏माँ काली की कृपा से समाधि अवस्था से सामान्य भूमि पर लौटने के बाद 

उस ब्रह्मविद (नवनीदा) के लिए

 [Secular (worldly-सांसारिक) and Sacred (Divine-दिव्य, ईश्वरीय )]

 में कोई भेद नहीं  रह जाता , इसीलिए -

 किसी पर नाराज होना  या 'क्रोध करना'- नामुमकिन है।🔱🙏 

"दो-एक स्तर उतरने पर भक्ति और भक्त अच्छे लगते हैं ।“ईश्वर में विद्या और अविद्या दोनों हैं । यह विद्या-माया जीव को ईश्वर की ओर ले जाती है, अविद्या-माया ईश्वर से जीव को दूर बहकाकर ले जाती है । विद्या की क्रीड़ा ज्ञान, भक्ति, दया और वैराग्य हैं । इनका आश्रय लेने पर मनुष्य ईश्वर के पास पहुँच सकता है । ‘‘एक सीढ़ी और चढ़ने पर ईश्वर मिलते हैं - ब्रह्मज्ञान होता है । इस अवस्था में सच्चा ज्ञान होता है - तब वास्तव में समझ पड़ता है कि मैं ठीक देख रहा हूँ, वे ही सब कुछ [^*हाजरा और नरेन्द्र भी?] उस समय त्याज्य और ग्राह्य (Secular and Sacred)नहीं रहते किसी पर क्रोध करने की जगह नहीं रहती।

"By coming down a step or two from samadhi I enjoy bhakti and bhakta. "There exist in God both vidya and avidya. Vidyamaya leads one to God, and avidyamaya away from Him. Knowledge, devotion, compassion; and renunciation belong to the realm of vidya. With the help of these a man comes near God. One step more and he attains God, Knowledge of Brahman. In that state he clearly feels and sees that it is God who has become everything. He has nothing to give up and nothing to accept. It is impossible tor him to be angry with anyone.

ঈশ্বরেতে বিদ্যা-অবিদ্যা দুই আছে। এই বিদ্যা মায়া ঈশ্বরের দিকে লয়ে যায়, অবিদ্যা মায়া ঈশ্বর থেকে মানুষকে তফাত করে লয়ে যায়। বিদ্যার খেলা — জ্ঞান, ভক্তি, দয়া, বৈরাগ্য। এই সব আশ্রয় করলে ঈশ্বরের কাছে পৌঁছানো যায়। “আর-একধাপ উঠলেই ঈশ্বর — ব্রহ্মজ্ঞান! এ-অবস্থায় ঠিক বিধ হচ্চে — ঠিক দেখছি — তিনিই সব হয়েছেন। ত্যাজ্য-গ্রাহ্য থাকে না! কারু উপর রাগ করবার জো থাকে না।

 [( 9 मई  , 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-114 ]

🔱🙏 बाद ब्रह्मज्ञान के (Exalted State के) बाद लीला का स्वाद🔱🙏

समाधि के बाद व्युत्थान में लीला का स्वाद  

ব্রহ্মজ্ঞানের পর লীলা-আস্বাদন! সমাধির পর নিচে নামা!

मैं बग्धी पर चला जा रहा था । एक जगह बरामदे के ऊपर देखा, दो वेश्याएँ खड़ी थीं । देखा - साक्षात् भगवती । देखकर मैंने प्रणाम किया ।

"One day I was riding in a carriage. I saw two prostitutes standing on a verandah. They appeared to me to be embodiments of the Divine Mother Herself. I saluted, them.

“গাড়ি করে যাচ্ছি — বারান্দার উপর দাঁড়িয়ে রয়েছে দেখলাম দুই বেশ্যা! দেখলাম সাক্ষাৎ ভগবতী — দেখে প্রণাম করলাম!

"जब पहले-पहल यह परम् अवस्था (Exalted State- समाधि से लौटने के बाद की अवस्था)  हुई तब काली माई की न मैं पूजा कर सका और न उन्हें भोग ही दे सका । हलधारी और हृदय ने कहा, 'खजांची कह रहा है – भट्टाचार्यजी भोग नहीं देंगे तो और कौन देगा ?' उसने कटूक्ति की, यह सुनकर मैं हँसने लगा, मुझे क्रोध नहीं आया । यह ब्रह्मज्ञान प्राप्त करके फिर लीला का स्वाद लेते रहो
"When I first attained this Exalted State I could not worship Mother Kali or give Her the food offering. Haladhari and Hriday told me that on account of this the temple officer had slandered me. But I only laughed; I wasn't in the least angry. Attain Brahmajnana and then roam about enjoying God's lila.
“যখন এই অবস্থা প্রথম হল, তখন মা-কালীকে পূজা করতে বা ভোগ দিতে আর পারলাম না। হলধারী আর হৃদে বললে, খাজাঞ্চী বলেছে, ভট্‌চাজ্জি ভোগ দিবেন না তো কি করবেন? আমি কুবাক্য বলেছে শুনে কেবল হাসতে লাগলাম, একটু রাগ হল না। “এই ব্রহ্মজ্ঞান লাভ করে তারপর লীলা আস্বাদন করে বেড়াও।

कोई साधु एक शहर में तमाशा देखता हुआ घूम रहा था । उसी समय एक दूसरे परिचित साधु से भेंट हो गयी । उसने पूछा, 'तुम मौज से घूम रहे हो, तुम्हारा सामान कहाँ है ? उधर सामान लेकर कोई नौ-दो ग्यारह तो नहीं हो गया ?" पहले साधु ने कहा, 'नहीं महाराज, पहले डेरे की तलाश करके, डेरा-डण्डा वहाँ रखकर, ताला बन्द करके फिर शहर का रंग-ढंग देखने के लिए निकला हूँ ।’ "(सब हँसते हैं)
 A holy man came to a town and went about seeing the sights. He met another sadhu, an acquaintance. The latter said: 'I see you are gadding about. Where is your baggage. I hope no thief has stolen it.' The first sadhu said: 'Not at all. First I found a lodging, put my things in the room in proper order, and locked the door. Now I am enjoying the fun of the city.'" (All laugh.)
সাধু একটি শহরে এসে রঙ দেখে বেড়াচ্চে। এমন সময়ে তার এক আলাপী সাধুর সঙ্গে দেখা হল। সে বললে ‘তুমি যে ঘুরে ঘুরে আমোদ করে বেড়াচ্চো, তল্পিতল্পা কই? সেগুলি তো চুরি করে লয়ে যায় নাই?’ প্রথম সাধু বললে, ‘না মহারাজ, আগে বাসা পাকড়ে গাঁট্‌রি-ওঠরি ঠিকঠাক করে ঘরে রেখে, তালা লাগিয়ে তবে শহরের রঙ দেখে বেরাচ্চি’।” (সকলের হাস্য)

[( 9 मई  , 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-114 ]

🔱🙏 तुम मुझे मन दो, मैं तुम्हें ज्ञान दूँगा !🔱🙏

'Give me your mind and I shall give you Knowledge.' 

তুমি আমায় মন দাও, আমি তোমায় জ্ঞান দিচ্ছি।  

भवनाथ - यह बहुत ऊँची बात है ।
BHAVANATH: "These are very lofty words."
ভবনাথ — এ খুব উঁচু কথা।
मणि - (स्वगत) ब्रह्मज्ञान के बाद लीला का स्वाद लेना, - समाधि के बाद नीचे उतरना ।
M. (to himself): "Tasting God's lila after Brahmajnana! Climbing down to the ordinary plane of consciousness after the attainment of samadhi!"
মণি (স্বগত) — ব্রহ্মজ্ঞানের পর লীলা-আস্বাদন! সমাধির পর নিচে নামা!

श्रीरामकृष्ण (मास्टर आदि से) – अजी ! ब्रह्मज्ञान क्या ऐसे सहज ही हो जाता है ? मन का नाश बिना हुए नहीं होता । गुरु ने शिष्य से कहा था, तुम मुझे मन दो, मैं तुम्हे ज्ञान देता हूँ । नागा कहता था, ‘अरे मन इधर-उधर न लगाना चाहिए ।’
MASTER (to M. and the others): "Is it an easy thing to obtain the Knowledge of Brahman? It is not possible unless the mind is annihilated. The guru said to the disciple, 'Give me your mind and I shall give you Knowledge.'
শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারাদির প্রতি) — ব্রহ্মজ্ঞান কি সহজে হয় গা? মনের নাশ না হলে হয় না। গুরু শিষ্যকে বলেছিল, তুমি আমায় মন দাও, আমি তোমায় জ্ঞান দিচ্ছি। ন্যাংটা বলত, ‘আরে মন বিলাতে নাহি’!
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[असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः।।6.36।।

BG ।।6.36।। जिसका मन पूरा वश में नहीं है, उसके द्वारा योग प्राप्त होना कठिन है। परन्तु उपाय पूर्वक यत्न करने वाले वश्यात्मा को [गुरु-शिष्य परम्परा में यम-नियम (24X7) और आसन, प्रत्याहार -धारणा (संधि-बेला में दो बार) का अभ्यास करने वाले को।] योग प्राप्त हो सकता है, ऐसा मेरा मत है।
योग की सिद्धि में मन का वश में न होना जितना बाधक है उतनी मन की चञ्चलता बाधक नहीं है। जैसे पतिव्रता स्त्री मन को तो वशमें तो रखती है पर उसे एकाग्र करने का अभ्यास नहीं करती। अतः ध्यानयोगी को अपना मन वश में करना चाहिये। मन वश में होने पर वह मन को जहाँ लगाना चाहे वहाँ लगा सकता है जितनी देर लगाना चाहे उतनी देर लगा सकता है और जहाँ से हटाना चाहे वहीँ से हटा सकता है।
आहारशुद्धि : केवल मुख नहीं आंख और स्पर्श इन्द्रियों से लिया जाने वाला आहार ज्यादा भयंकर है ! मांस-मदिरा आदि सर्वथा निषिद्ध वस्तु खाने से पतन तो होता ही है,  पर उससे भी ज्यादा पतन होता है रागपूर्वक विषयभोगों को भोगने से। कारण कि मांस आदि में तो यह निषिद्ध वस्तु है ऐसी भावना रहती है पर भोगों को भोगने से यह निषिद्ध है ऐसी भावना नहीं रहती। इसलिये भोगों के जो संस्कार भीतर बैठ जाते हैं वे बड़े भयंकर होते हैं। तात्पर्य है कि साधक के अन्तःकरण में विषय-भोगों की रुचि रहने के कारण ही वह संयतात्मा नहीं हो पाता मन -इन्द्रियों को अपने वशमें नहीं कर पाता। इसलिये उसको योगकी प्राप्तिमें अर्थात् ध्यानयोगकी सिद्धिमें कठिनता होती है।
 >>>वश्यात्मा होने का उपाय-Work more than paid for--सबसे पहले अपने-आपको यह समझे कि 'मैं भोगी नहीं हूँ। मैं जिज्ञासु हूँ !  तो केवल तत्त्व को जानना ही मेरा काम है; मैं स्वामीजी का दास हूँ तो केवल भगवान के अर्पित होना ही मेरा काम है।  मैं सेवक हूँ तो केवल सेवा करना ही मेरा काम है। किसी से कुछ भी चाहना मेरा काम नहीं है'--इस तरह अपनी अहंता का परिवर्तन कर दिया जाय तो मन बहुत जल्दी वश में हो जाता है। जब मन शुद्ध हो जाता है, तब वह स्वतः वश में हो जाता है। 
कहीँ नौकरी, मजदूरी करे, तो जितने पैसे मिलते हैं, उससे अधिक काम करे। व्यापार करे तो वस्तु का तौल नाप या गिनती औरों की अपेक्षा ज्यादा भले ही हो जाय, पर कम न हो। मजदूर आदि को पैसे दे तो उसके काम के जितने पैसे बनते हों, उससे कुछ अधिक पैसे उसे दे। इस प्रकार व्यवहार करने से मन शुद्ध हो जाता है।
>>>समाधि शब्द - 'सम' यानी एक जैसा होना और 'धी' का मतलब है बुद्धि। लोग समाधि को मृत्यु ( सुषुप्ति या गहरी नींद जैसी) कोई परिस्थिति मान लेते हैं।  अगर आप बुद्धि के एक समान स्तर पर पहुँच जायें, जहाँ आप बुद्धि से कोई फर्क नहीं करते, हरेक चीज़ को एक जैसा देखते हैं, तो उसे समाधि कहते हैं। साधारण बोलचाल में, कब्र को या मरे हुए व्यक्ति के स्मारक को समाधि कहते हैं। आपको लग सकता है कि कोई व्यक्ति तीन दिनों से समाधि में है, पर, उनके लिये, ये बस कुछ ही पलों की बात है - ये इसी तरह से गुज़र जाता है। जो है और जो नहीं है, ये उनके लिये दो बातें नहीं रह जातीं, वे इससे परे चले जाते हैं। वे सीमा से परे चले गये हैं और उन्होंने उस स्थिति का अनुभव कर लिया है जो नहीं है - जिसका कोई आकार, रूप, परिचय, गुण नहीं है, कुछ भी नहीं है। पर वास्तव में, समाधि मानवीय चेतना की वो सबसे ऊँची अवस्था है, जहाँ कोई योगी या ईश्वर-कोटि का मनुष्य ही  पहुँच सकता है।
उस अवस्था में कोई देश-काल (समय या स्थान) नहीं रहता। देश-काल (समय और स्थान) ये आपके मन की रचनायें हैं। जब आप मन की सीमितता के परे चले जाते हैं तो समय और स्थान, आपके लिये, अस्तित्व में ही नहीं रहते। जो यहाँ है, वो वहाँ है। जो अब है, वो तब भी था। आपके लिये कोई भूत या भविष्य नहीं रह जाता, सब कुछ यहीं है, इसी पल में। सारा अस्तित्व, सूर्य-चंद्र -पृथ्वी -तारे सृष्टिरचना के कई सारे प्रकार तभी तक हाज़िर हैं, जब तक फर्क करने वाली बुद्धि है। जिस पल आप अपनी बुद्धि को विसर्जित कर देते हैं, सब कुछ उस एक में ही लीन हो जाता है।
>>>समाधि के आठ प्रकार : समाधि के अलग-अलग प्रकार हैं। मनुष्य को आठ प्रकार की समाधियाँ उपलब्ध हैं। इनमें से, मोटे तौर पर जिन्हें सविकल्प कहा गया है, उनमें गुण हैं - वे बहुत सुखद, आनंदपूर्ण और उल्लासपूर्ण हैं और वे जिन्हें निर्विकल्प कहा गया है, वे सुखद और दुखद अवस्थाओं से परे हैं, उनमें कोई गुण या गुणवत्ता नहीं हैं।आत्मज्ञान पाने की दृष्टि से समाधि की अवस्था का कोई खास महत्व नहीं है
जो निर्विकल्प समाधि की अवस्था में जाते हैं, उन्हें हमेशा सुरक्षित वातावरण में रखना पड़ता है क्योंकि अपने शरीर के साथ उनका संपर्क बहुत ही कम रहता है। छोटी सी भी गड़बड़ी, जैसे कोई आवाज़ या सुई का चुभोना भी उन्हें उनके शरीर से अलग कर सकता है। ऐसी अवस्थायें कुछ खास समय तक रखनी पड़ती हैं जिससे उनमें और उनके शरीर में अंतर, अलगाव बना रहे। किसी के आध्यात्मिक विकास में ये एक महत्वपूर्ण कदम है, पर ये अंतिम अवस्था नहीं है। आत्मज्ञान पाने की दृष्टि से समाधि की अवस्था का कोई खास महत्व नहीं है।
समाधि के निश्चित तौर पर लाभ हैं। किसी व्यक्ति को देने के लिये, इसके पास बहुत सारी चीजें हैं, पर, ये आपको आत्मज्ञान के पास बिल्कुल भी नहीं ले जाती। किसी व्यवस्थित आदमी की तुलना में, थोड़े पिये हुए आदमी के अनुभव का स्तर अलग होता है, पर किसी समय पर तो उसे व्यवस्थित होना ही पड़ता है। मैं तो कहूँगा कि किसी भी प्रकार की समाधि, एक तरह से, कोई बाहरी नशा लिये बिना थोड़ा बहका हुआ होने की अवस्था ही है। इन अवस्थाओं में जाने से आपके लिये एक नया आयाम खुलता है, पर, इससे, आप में कोई बड़ा बदलाव नहीं आता। आप किसी नयी वास्तविकता में नहीं पहुँचते। बात बस ये है कि उसी एक वास्तविकता में आपके अनुभव का स्तर ज्यादा गहरा हो गया है। आपने उसी चीज़ का अनुभव ज्यादा गहराई में लिया है। आप अपने मन से मुक्त नहीं हुए हैं।
>>>अस्तित्व दो चीजों से मिल कर बना है -सत्य और नृत,  'वह, जो है', और, 'वह, जो नहीं है'! 'वह जो है' उसमें आकार, रूप, गुण और सुंदरता है पर 'वह जो नहीं है', उसमें इनमें से कुछ भी नहीं है पर ये स्वतंत्र है। देश और काल का बंधन भी 'वह, जो है' का एक भ्रम ही है। 'वह, जो नहीं है' न तो देश और न काल को समझता है, क्योंकि वह स्वरूपतः असीम और अनंत हैं, जिसे कभी देश-काल की सीमा में कभी जकड़ा नहीं जा सकता। 

आध्यात्मिकता का वास्तविक अर्थ मात्र शारीरिक स्तर पर जीवित रहने के भाव से परे जाना है। शरीर और मन के परे शाश्वत जीवन की अनुभूति होती है। (लेकिन वह अनुभूति जीवात्मा को नहीं आत्मा या ब्रह्म को ही होती है, तुम्हें या तुम्हारे मिथ्या अहं को नहीं। )  समाधि,  हर चीज़ को एक जैसा देखने की वो अवस्था है, जिसमें बुद्धि अपने फर्क करने के समान्य काम के परे चली जाती है। इसके कारण व्यक्ति अपने शरीर से थोड़ा पृथक , थोड़ा अलग पड़ जाता है। आपका शरीर, और आप वास्तव में जो हैं, आपके नाम-रूप और आपके स्वरुप का  अंतर स्पष्ट रूप से समझ में आ जाता है। 
बुद्धि का मूल स्वभाव है- विवेकप्रयोग : शरीर -मन - आत्मा को पृथक-पृथक रूप से अंतर बनाना, फर्क करना, तीनों चीजों को अलग-अलग देखना।  पृथक  करने का गुण वो साधन है जो आप के शरीर की हर कोशिका में मौजूद जीवित रहने की इच्छा को सहयोग देता है और उसे चलाता है। अगर आप इस मन-बुद्धि के परे चले जाते हैं तो आप समबुद्धि वाले हो जाते हैं। इसका मतलब ये नहीं है कि आपकी फर्क करने की काबिलियत खत्म हो जाती है। अगर ये खत्म हो जाये तो आप पागल हो जायेंगे। समाधि की अवस्था में भी आपकी फर्क करने वाली बुद्धि अपनी सही अवस्था में होती है पर साथ ही, आप इसके परे चले गये होते हैं। आप कोई फर्क, कोई अंतर नहीं कर रहे, आप बस वहाँ हैं और जीवन को उसका सही काम करते हुए देखते हैं।
  जिस क्षण  में आप मन-बुद्धि को छोड़ देते हैं या उससे परे चले जाते हैं, तो फिर कोई फर्क नहीं रह जाता। हर चीज़ एक हो जाती है, पूर्ण (परम् सत्य) बन जाती है, जो एक वास्तविकता है। इस तरह की अवस्था आपको अस्तित्व की एकात्मकता का, यानी हर चीज़ के एकीकरण का अनुभव देती है।
>>>महासमाधि : जब तक आप शरीर में हैं, जो भी मुक्ति आप पा लें, आपका शरीर तो एक सीमितता रहेगा ही। ये पूरी मुक्ति नहीं होती। जब कोई अपना शरीर पूरी जागरूकता में छोड़ता है, तो हम उसे महासमाधि कहते हैं क्योंकि उसने अपना शरीर भी छोड़ दिया है। महासमाधि का मतलब है कि न केवल आप उसे उस तरह से देखते हैं, बल्कि आप पूरी तरह से वैसे ही हो गये हैं - फर्क खत्म हो गया है। आपके लिये सब कुछ एक ही है। व्यक्तिगत अस्तित्व खत्म हो गया है। "आप कौन हैं", ये बात अब है ही नहीं। अभी जो जीवन व्यक्तिगत जीवन की तरह चल रहा है, वह पूरी तरह से ब्रह्मांडीय या असीमित हो जाता है। अगर इसे पारंपरिक रूप से कहा जाये तो आप ईश्वर के साथ या हर चीज़ के साथ एक हो गये हैं।

>>>निर्वाण - अस्तित्व के परे जाना :  महासमाधि वो अवस्था है, जिसमें व्यक्ति अपनी इच्छा से अपना शरीर छोड़ देता है। जीवन-चक्र पूरा हो जाता है। अब पुनर्जन्म का कोई सवाल ही नहीं उठता। ये पूरी तरह से विसर्जन है। आप कह सकते हैं कि ये व्यक्ति वास्तव में अब नहीं है। हम जब मुक्ति, निर्वाण या मोक्ष की बात करते हैं, तो यही होता है - अस्तित्व के बोझ से ही मुक्ति। वो आखिरी आज़ादी है, अंतिम मुक्ति, क्योंकि जब तक आपका अस्तित्व है, तब तक आप एक या दूसरी तरह से बंधे हुए होते हैं। अगर आप भौतिक रूप से, शारीरिक रूप से हैं, तो ये एक तरह का बंधन है। अगर आप भौतिक शरीर छोड़ देते हैं और किसी दूसरी तरह से रहते हैं तो ये फिर भी दूसरी तरह का बंधन है। हर वो चीज़ जो अस्तित्व में है, वो किसी न किसी नियम से बंधी है। मुक्ति का मतलब है कि आपने सभी नियमों को, कायदों को तोड़ दिया है, और सभी नियम तभी तोड़े जा सकते हैं जब आपका अस्तित्व ही नहीं रहता। 
महासमधि में जीवन बस एक स्तर से दूसरे पर पहुँच जाता है। वास्तव में मृत्यु  नाम की कोई चीज़ नहीं है। मृत्यु  सिर्फ उनके लिये है जिन्हें जीवन के बारे में कोई जागरूकता नहीं है। यहाँ बस जीवन है, जीवन है और जीवन ही है। पर, महासमाधि का मतलब है वास्तविक अंत। ये हरेक आध्यात्मिक जिज्ञासु का मकसद है। आखिर तो, वे स्त्री हों या पुरुष, वे M/F अस्तित्व के परे जाना चाहते हैं
पातञ्जल-योगदर्शन के अनुसार चित्त-वृत्तियों का निरोध अभ्यास से ही हो सकता है। एकाग्रता के बाद जब चित्त की निरुद्ध-अवस्था आती है, तब समाधि होती है। समाधि कारण-शरीर में होती है और समाधि से भी व्युत्थान होता है। जब तक समाधि और व्युत्थान--ये दो अवस्थाएँ हैं, तब तक प्रकृति के साथ सम्बन्ध है। प्रकृति से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होने पर तो सहजावस्था होती है, जिससे व्युत्थान होता ही नहीं। अतः चित्त की चञ्चलता को रोकने के विषयमें भगवान् ज्यादा नहीं बोले; क्योंकि चित्त को निरुद्ध करना भगवान का  ध्येय नहीं है अर्थात् भगवान ने जिस ध्यान का वर्णन किया है, वह ध्यान साधन है, ध्येय नहीं। 
भगवान के  मत में संसार में जो राग है, यही खास बाधा है और इसको दूर करना ही भगवान का उद्देश्य है। जो केवल ईश्वर को (परमात्म-तत्त्व) को चाहता है,  उसको मन को एकाग्र करने की इतनी आवश्यकता नहीं है, जितनी आवश्यकता प्रकृति के कार्य मन (अहं) से सम्बन्ध-विच्छेद करने की, मन (अहं) से अपनापन हटाने की है। अतः जब समाधिसे भी उपरति हो जाती है, तब सर्वातीत तत्त्व की प्राप्ति होती है। तात्पर्य है कि जब तक समाधि-अवस्था की प्राप्ति नहीं होती, तब तक उसमें एक आकर्षण रहता है। जब वह अवस्था प्राप्त हो जाती है, तब उसमें आकर्षण न रहकर सच्चे जिज्ञासु को उससे उपरति हो जाती है। उपरति होने से अर्थात् अवस्थामात्र से सम्बन्ध-विच्छेद होने से अवस्थातीत चिन्मय-तत्त्वकी अनुभूति स्वतः हो जाती है। यही योगकी सिद्धि है। चिन्मय-तत्त्वके साथ स्वयंका नित्ययोग अर्थात् नित्य-सम्बन्ध है।
>>>कामुक मन के गाये मृत्यु-गीत की शोक-धुन पर नृत्य :  जो व्यक्ति शारीरिक सुखों में आसक्त होकर विषयों का दास बन जाता है,  अथवा कामुक मन के गाये मृत्यु-गीत की शोक-धुन पर नृत्य करता रहता है। अथवा मदोन्मत्त बुद्धि की विकृत दुष्ट और अन्तहीन इच्छाओं को पूर्ण करने हेतु इतस्तत भ्रमण करता रहता है , उस पुरुष में न वह शान्ति होती है और न स्फूर्ति जो उसे अन्तरात्मा के मन्दिर तक पहुँचाने के लिए उद्यत कर सके।
>>>आवरण और विक्षेप ये क्रमश तमोगुण और रजोगुण के कार्य हैं। हम देख चुके हैं कि इन दो गुणों को वश में किये बिना सत्वगुण का प्रभाव साधक में दृष्टिगोचर नहीं होता। इन्द्रियों को उनके विषयों से पराङमुख करना आध्यात्मिक जीवन का प्रथम सोपान है जो मन (बुद्धि) को सत्याभिमुख किये बिना संभव नहीं हो सकता। लौकिक जीवन में भी त्याग और तप के बिना कोई भी लक्ष्य प्राप्त नहीं होता ।  हम देखते हैं कि विद्यार्थी हों या कलाकार, ओलम्पिक के पहलवान  अपने-अपने कार्य क्षेत्रों में सफलता पाने के लिए ये सभी लोग सामान्य भोगमय जीवन को त्यागकर कठिन परिश्रम करते हैं। यदि केवल सामान्य और अनित्य लौकिक वस्तु या ओलम्पिक में पदक-कीर्ति प्राप्त करने के लिए भी इतने बड़े त्याग तप और संयम की आवश्यकता होती है तब नित्य अनन्त अखण्ड आत्मानन्द की प्राप्ति के लिए कितने अधिक आत्मसंयम की आवश्यकता होगी इसकी कोई भी व्यक्ति सहज ही कल्पना कर सकता है।
इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि साधक को सभी विषयों को पूर्णतया त्याग देना चाहिए। धर्म या साधना के नाम पर अनेक साधक कुछ काल तक अत्यन्त कठोर तप का जीवन जीते हैं जिसमें शरीर को क्लेश देना शारीरिक आवश्यकताओं एवं प्रवृत्तियों का सर्वथा त्याग और दमन करना सम्मिलित है। इस प्रकार स्वयं पर आसुरी और आत्मघातक अत्याचार करने पर निश्चय ही एक समय यही दमित प्रवृत्तियां भयंकर रूप में फूटकर बाहर निकल पड़ती हैं।
 केवल सिनेमा देखने न जाने अथवा स्पोर्ट्स  को त्याग ने से ही कोई विद्यार्थी परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं हो सकता क्योंकि उसके साथ ही अध्ययन में समय का सदुपयोग करना नितान्त आवश्यक होता है। एक बात और भी है कि गणित की परीक्षा हो और विद्यार्थी भूगोल का अध्ययन कर रहा हो, या चुनाव गुजरात में हो और नेता केरल में यात्रा कर रहा हो, तो उसे कोई विशेष सफलता नहीं मिल सकती। उचित प्रयत्न के द्वारा ही सफलता प्राप्त की जा सकती है। इसी प्रकार वैषयिक भोग के त्यागरूप तप के द्वारा संचित शक्ति का उपयोग साधक को निदिध्यासन में करना चाहिए जिसका फल आत्मसाक्षात्कार अर्थात् स्वस्वरूप की पहचान है।  ऐसा साधनसम्पन्न व्यक्ति इस योग को प्राप्त कर सकता है आनन्दकन्द भगवान् श्रीकृष्ण का यह आशावादी तत्त्वज्ञान है। 
         गौतम बुद्ध के कई शिष्य लंबे समय तक ध्यान करते थे। कई-कई सालों तक वे बाहर नहीं आये। पर खुद बुद्ध ने ऐसा कभी नहीं किया क्योंकि उन्होंने जान लिया था कि ऐसा करना ज़रूरी नहीं था। अपने आत्मज्ञान से पहले उन्होंने आठों तरह की समाधियों का अनुभव लिया था, और फिर उन्हें छोड़ दिया था। उन्होंने जान लिया कि इनसे वे आत्मज्ञान के पास नहीं पहुँचेंगे। ये सिर्फ अनुभव के ज्यादा ऊँचे स्तर पर जाना ही है और आप इसमें ज्यादा फँस सकते हैं क्योंकि यह अवस्था आपकी अभी की वास्तविकता से ज्यादा सुंदर होती है। अभी, जब आप ध्यान में बैठते हैं तो, कम से कम, आपके पैरों में होने वाला दर्द आपको अभी की वास्तविकता की याद कराता है। समाधि की अवस्था में, आपको याद कराने के लिये, कोई दर्द नहीं होता, और ये एक तरह से ज्यादा खतरनाक है।]

[( 9 मई  , 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-114 ]

[जीव विज्ञान - आध्यात्मिक जगत में 'प्राकृतिक कानून']

[Biology — 'Natural law' in the Spiritual world ]

'One has become many' - imbibe this knowledge
 by mixing it in the blood of every vein. 

🔱🙏'एक ही अनेक बने हैं'-इस ज्ञान को रगरग के खून में मिलाकर आत्मसात करो🔱🙏  

[मानव की परिवर्तनीय प्रकृति में निहित और मानव समाज के लिए अपरिवर्तनीय या बाध्यकारी नियम या नियमों का निकाय। a rule or body of rules of conduct inherent in human nature and necessary or binding on human society] 

"इस अवस्था में (Exalted State of Mind ) केवल ईश्वर की बाते सुहाती हैं और भक्तों का संग ।
In this state (Exalted State of Mind ) one enjoys only spiritual talk and the company of devotees.
“এ অবস্থায় কেবল হরিকথা লাগে; আর ভক্তসঙ্গ।
(राम से) "तुम तो डाक्टर हो, दवा जब खून के साथ मिलकर एक हो जाती है, तभी फायदा करती है - है न ? उसी तरह इस अवस्था में (Exalted State में) भीतर और बाहर ईश्वर ही ईश्वर हैं । वह देखेगा, वे (प्रेममय प्रभु) ही देह, मन, प्राण और आत्मा सब कुछ बने हुए है
MASTER (To Ram) "You are a physician. You know that medicine works only when it mixes with the patient's blood and becomes one with it. Likewise, in the state of Brahmajnana one sees God both within and without. One sees that it is God Himself who has become the body, mind, life, and soul."
শ্রীরামকৃষ্ণ (রামের প্রতি) — “তুমি তো ডাক্তার, — যখন রক্তের সঙ্গে মিশিয়ে এক হয়ে যাবে তখনই তো কাজ হবে। তেমনি এ অবস্থায় অন্তরে-বাহিরে ঈশ্বর। সে দেখবে তিনিই দেহ মন প্রাণ আত্মা!”

मणि (यानि श्रीम मन ही मन सोच रहे हैं): क्या इसी को अद्वैत ज्ञान का "आत्मसातीकरण" करना कहते हैं ?
M. (to himself): "Assimilation!"
মণি (স্বগত) — Assimilation!
श्री रामकृष्ण -"मन (अहं) का नाश होने से ही ब्रह्मज्ञान की अवस्था (समाधि) होती है । मन का नाश होने ही से 'अहं' का नाश होता है, - उस 'अहं' का, जो 'मैं-मैं' कर रहा है । यह अवस्था भक्ति के मार्ग से भी होती है और ज्ञान-मार्ग या विचार मार्ग से भी । 'नेति नेति' अर्थात् यह सब माया है, स्वप्नवत् है, इस तरह का विचार ज्ञानी करते हैं । ज्ञानी लोग 'नेति नेति’ की प्रक्रिया ('यह नहीं, यह नहीं' की प्रक्रिया) के माध्यम से जगत के सभी नम-रूपों का विश्लेषण करके देखते हैं कि सब कुछ माया है।  यह संसार 'नेति नेति’ – माया है । संसार जब न रहा, तब बाकी रह गये कुछ जीव - 'मैं' रूपी घट के भीतर । 
MASTER: "A man attains Brahmajnana as soon as his mind is annihilated. With the annihilation of the mind dies the ego, which says 'I', 'I'. One also attains the Knowledge of Brahman by following the path of devotion. One also attains It by following the path of knowledge, that is to say, discrimination. The jnanis discriminate, saying, 'Neti, neti', that is, 'All this is illusory, like a dream.' They analyse the world through the process of 'Not this, not this'; it is maya. When the world vanishes, only the jivas, that is to say, so many egos, remain.
শ্রীরামকৃষ্ণ — ব্রহ্মজ্ঞানের অবস্থা! মনের নাশ হলেই হয়। মনের নাশ হলেই ‘অহং’ নাশ, — যেটা ‘আমি’ ‘আমি’ করছে। এটি ভক্তি পথেও হয়, আবার জ্ঞানপথে অর্থাৎ বিচারপথেও হয়। ‘নেতি নেতি’ অর্থাৎ ‘এ-সব মায়া, স্বপ্নবৎ’ এই বিচার জ্ঞানীরা করে। এই জগৎ ‘নেতি’ ‘নেতি’ — মায়া। জগৎ যখন উড়ে গেল, বাকী রইল কতকগুলি জীব — ‘আমি’ ঘট মধ্যে রয়েছে!

[नेति -नेति की प्रक्रिया से जब संसार मिट जाता है, तो अब मित्र-शत्रु , हिन्दू-मुसलमान नहीं; केवल जीव रह जाते हैं, यानि देहाध्यास में फंसे कुछ  'M/F' वाले 'अहं ' रह जाते हैं। 1.3.5/
>>>अरण्य काण्ड : राम का दंडकवन प्रवेश, पंचवटी निवास और श्री राम-लक्ष्मण संवाद : * लक्ष्मण जी पूछते हैं -  हे प्रभो! ईश्वर और जीव का भेद भी सब समझाकर कहिए, जिससे आपके चरणों में मेरी प्रीति हो और शोक, मोह तथा भ्रम नष्ट हो जाएँ॥14॥ तब (श्री रामजी ने कहा-) हे तात ! मैं थोड़े ही में सब समझाकर कहे देता हूँ। तुम मन, चित्त और बुद्धि लगाकर सुनो! 'मैं और मेरा' , 'तू और तेरा' - यही माया है, जिसने समस्त जीवों को वश में कर रखा है॥1॥

 चौपाई :
थोरेहि महँ सब कहउँ बुझाई। सुनहु तात मति मन चित लाई।।
मैं अरु मोर तोर तैं माया। जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया।। 1
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानेहु भाई॥
तेहि कर भेद सुनहु तुम्ह सोऊ। बिद्या अपर अबिद्या दोऊ॥2॥
इंद्रियों के विषयों को और जहाँ तक मन जाता है, हे भाई! उन सबको माया जानना। उसके भी एक विद्या और दूसरी अविद्या, इन दोनों भेदों को तुम सुनो-॥2॥
एक दुष्ट अतिसय दुखरूपा। जा बस जीव परा भवकूपा।।
एक रचइ जग गुन बस जाकें। प्रभु प्रेरित नहिं निज बल ताकें।।
भावार्थ : एक (अविद्या) दुष्ट (दोषयुक्त) है और अत्यंत दुःखरूप है, जिसके वश होकर जीव संसार रूपी कुएँ में पड़ा हुआ है, और एक (विद्या) जिसके वश में गुण है और जो जगत्‌ की रचना करती है, वह प्रभु से ही प्रेरित होती है, उसके अपना बल कुछ भी नही है॥३॥
ग्यान मान जहँ एकउ नाहीं। देख ब्रह्म समान सब माही।।
कहिअ तात सो परम बिरागी। तृन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी।।४।।   
भावार्थ : ज्ञान वह है, जहाँ (जिसमें) मान आदि एक भी (दोष) नहीं है और जो सभी में समान रूप से ब्रह्म को देखता है। हे तात! उसी को परम वैराग्यवान्‌ कहना चाहिए, जो सारी सिद्धियों को और तीनों गुणों को तिनके के समान त्याग चुका हो॥4॥
(जिसमें मान, दम्भ, हिंसा, क्षमाराहित्य, टेढ़ापन, आचार्य सेवा का अभाव, अपवित्रता, अस्थिरता, मन का निगृहीत न होना, इंद्रियों के विषय में आसक्ति, अहंकार, जन्म-मृत्यु-जरा-व्याधिमय जगत्‌ में सुख-बुद्धि, स्त्री-पुत्र-घर आदि में आसक्ति तथा ममता, इष्ट और अनिष्ट की प्राप्ति में हर्ष-शोक, भक्ति का अभाव, एकान्त में मन न लगना, विषयी मनुष्यों के संग में प्रेम- ये अठारह न हों और नित्य अध्यात्म (आत्मा) में स्थिति तथा तत्त्व ज्ञान के अर्थ (तत्त्वज्ञान के द्वारा जानने योग्य) परमात्मा का नित्य दर्शन हो, वही ज्ञान कहलाता है। देखिए गीता अध्याय 13/ 7 से 11)साभार/https://hindi.webdunia.com/religion/religion/hindu/ramcharitmanas/AranyaKand/7.htm] 

 [( 9 मई  , 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-114 ]

🔱🙏 समाधिस्थ पुरुष उतरकर कह नहीं सकता कि उसने क्या देखा🔱🙏   

[प्रत्येक जिज्ञासु अहं की तुलना पानी से भरे एक- एक घड़े से करो] 

श्रीरामकृष्ण -- "सोचो कि पानी से भरे हुए दस घड़े हैं, उनमें सूर्य का बिम्ब पड़ रहा है । कितने सूर्य दिखलायी देते हैं ?"
["प्रत्येक अहंकार (M/F अहं में फंसे देहाध्यास) की तुलना पानी से भरे एक-एक घड़े से की जा सकती है, जिसमें सूर्य प्रतिबिंबित हो रहा है। मान लो कि पानी से भरे दस घड़े हैं, और उन दसों घड़ों में सूर्य प्रतिबिम्बित होता है। तब तुम कितने सूर्य देखते हो ?"]
"Each ego may be likened to a pot. Suppose there are ten pots filled with water, and the sun is reflected in them. How many suns do you see?"
“মনে কর দশটা জলপূর্ণ ঘট আছে, তার মধ্যে সূর্যের প্রতিবিম্ব হয়েছে। কটা সুর্য দেখা যাচ্ছে?”
भक्त - दस प्रतिविम्ब; और एक यथार्थ सूर्य तो है ही ।
A DEVOTEE: "Ten reflections. Besides, there certainly exists the real sun."
ভক্ত — দশটা প্রতিবিম্ব। আর একটা সত্য সূর্য তো আছে।
श्रीरामकृष्ण - सोचो, तुमने एक घड़ा फोड़ डाला, अब कितने सूर्य दीख पड़ते हैं ?
MASTER: "Suppose you break one pot. How many suns do you see now?"
শ্রীরামকৃষ্ণ — মনে কর, একটা ঘট ভেঙে দিলে, এখন কটা সূর্য দেখা যায়?
भक्त – नौ, और एक सत्य सूर्य तो है ही ।
DEVOTEE: "Nine reflected suns. But there certainly exists the real Sun."
ভক্ত — নয়টা; একটা সত্য সূর্য তো আছেই।
श्रीरामकृष्ण - आठ और घड़े फोड़ डाले गये । अब कितने सूर्य हैं ?
MASTER : "All right. Suppose you break eight pots. How many suns do you see now?"
শ্রীরামকৃষ্ণ — আচ্ছা, আট  ঘট ভেঙে দেওয়া গেল, কটা সূর্য দেখা যাবে?
भक्त - एक प्रतिबिम्ब सूर्य और एक सत्य सूर्य ।
DEVOTEE: "One reflected sun. But there certainly exists the real sun."
ভক্ত — একটা প্রতিবিম্ব সূর্য। একটা সত্য সূর্য তো আছেই।
श्रीरामकृष्ण - (गिरीश से) - उस रहे-सहे घट को भी फोड़ डालो, अब क्या रह जाता है ?
MASTER (to Girish): "What remains when the last pot is broken?"
শ্রীরামকৃষ্ণ (গিরিশের প্রতি) — শেষ ঘট ভাঙলে কি থাকে?
गिरीश - जी, वही सत्य सूर्य ।
GIRISH: "That real sun, sir."
গিরিশ — আজ্ঞা, ওই সত্য সূর্য।
श्रीरामकृष्ण - नहीं, क्या रहता है, वह कोई मुख से नहीं बता सकता । जो है, वही है । प्रतिबिम्बों के बिना रहे, सत्य सूर्य है यह बात मनुष्य कैसे जान सकता है ? समाधि के होने पर अहं-तत्त्व का नाश हो जाता है । समाधिस्थ पुरुष उतरकर कह नहीं सकता कि उसने क्या देखा
MASTER: "No. What remains cannot be described. What is remains. How will you know there is a real sun unless there is a reflected sun? 'I- consciousness' is destroyed in samadhi. A man climbing down from samadhi to the lower plane cannot describe what he has seen there."
শ্রীরামকৃষ্ণ — না। কি থাকে তা মুখে বলা যায় না। যা আছে তাই আছে। প্রতিবিম্ব সূর্য না থাকলে সত্য সূর্য আছে কি করে জানবে! সমাধিস্থ হলে অহং তত্ত্ব নাশ হয়। সমাধিস্থ ব্যক্তি নেমে এলে কি দেখেছে মুখে বলতে পারে না!
[स्वामी विवेकानन्द राजयोग की अवतरणिका में उस परम् अवस्था (समाधि अवस्था :Exalted State) का वर्णन करते हुए कहते हैं - " जब मनुष्य अपने मन का विश्लेषण करते करते ऐसी एक वस्तु के साक्षात् दर्शन कर लेता है, जिसका किसी काल में नाश नहीं, जो स्वरूपतः नित्य-पूर्ण और नित्य-शुद्ध है, तब उसको फ़िर दुःख नहीं रह जाता, उसका सारा विषाद न जाने कहाँ गायब हो जाता है। भय और अपूर्ण वासना ही समस्त दुखों का मूल है। पूर्वोक्त अवस्था के प्राप्त होने पर मनुष्य समझ जाता है कि उसकी मृत्यु किसी काल में नहीं है, तब उसे फ़िर मृत्यु-भय नहीं रह जाता। अपने को पूर्ण समझ सकने पर असार वासनाएं फ़िर नहीं रहतीं। पूर्वोक्त कारणद्वय का आभाव हो जाने पर फ़िर कोई दुःख नहीं रह जाता। उसकी जगह इसी देह में परमानन्द की प्राप्ति हो जाती है।"(१:४० ) "  
When by analysing his own mind, man comes face to face, as it were, with something which is never destroyed, something which is, by its own nature, eternally pure and perfect, he will no more be miserable, no more unhappy. All misery comes from fear, from unsatisfied desire. Man will find that he never dies, and then he will have no more fear of death. When he knows that he is perfect, he will have no more vain desires, and both these causes being absent, there will be no more misery — there will be perfect bliss, even while in this body.] 

(४)

 [( 9 मई  , 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-114 ]

ईश्वरदर्शन तथा व्याकुलता

🔱🙏श्री रामकृष्ण के भक्तों और सत्यार्थीयों को आश्वासन और वचन🔱🙏

শ্রীরামকৃষ্ণের ভক্তদিগকে আশ্বাস প্রদান ও অঙ্গীকার

सन्ध्या हुए बड़ी देर हो गयी । बलराम के बैठकखाने में दिये जल रहे हैं । श्रीरामकृष्ण अब भी भावमग्न हैं । भावावेश में कह रहे हैं –“यहाँ और कोई नहीं है, इसीलिए तुम लोगों से कह रहा हूँ, आन्तरिकता के साथ जो मनुष्य ईश्वर को जानना चाहेगा, उसका उद्देश्य अवश्य सफल होगा । जो व्याकुल है, ईश्वर के सिवा और कुछ नहीं चाहता, वह उन्हें अवश्य ही पायेगा ।
It was late in the evening. Lamps were burning in the drawing-room. Sri Ramakrishna was in a spiritual mood. The devotees sat around him.MASTER (in the ecstatic mood): "There is no one else here; so I am telling you this. He who from the depth of his soul seeks to know God will certainly realize Him. He must. He alone who is restless for God and seeks nothing but Him will certainly realize Him.
অনেকক্ষণ সন্ধ্যা হইয়া গিয়াছে। বলরামের বৈঠকখানায় দীপালোক জ্বলিতেছে। ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ এখনও ভাবস্থ, ভক্তজন পরিবৃত হইয়া আছেন। ভাবে বলিতেছেন —“এখানে আর কেউ নাই, তাই তোমাদের বলছি, — আন্তরিক ঈশ্বরকে যে জানতে চাইবে তারই হবে, হবেই হবে! যে ব্যকুল, ঈশ্বর বই আর কিছু চায় না, তারই হবে।
“यहाँ के जितने आदमी थे – जिन्हें-जिन्हें आना था, वे सब आ चुके । इसके बाद जो आयेंगे वे बाहर के आदमी हैं । ऐसे लोग कभी कभी आ जाया करेंगे । माँ उन्हें बता दिया करेंगी कि तुम यह करो, वह करो, इस तरह ईश्वर को पुकारो आदि ।
"Those who belong to this place (The inner circle of the Master's devotees.) have already come. Those who will come from now on are outsiders. Such people will come now and then. The Divine Mother will tell them: 'Do this. Call on God in this way.'
“এখানকার যারা লোক (অন্তরঙ্গ ভক্তেরা) তারা সব জুটে গেছে। আর সব এখন যারা যাবে তারা বাহিরের লোক। তারাও এখন মাঝে মাঝে যাবে। (মা) তাদের বলে দেবে, ‘ই করো, এইরকম করে ঈশ্বরকে ডাকো’।”

[( 9 मई  , 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-114 ]

🔱🙏ईश्वर ही गुरु/नेता है - जीवों के लिए मोक्ष का एकमात्र साधन 🔱🙏

[ঈশ্বরই গুরু — জীবের একমাত্র মুক্তির উপায় ]

"ईश्वर की ओर मन क्यों नहीं जाता ? ईश्वर से उनमें (महामाया में-प्रभु की आवरण-बिक्षेप शक्ति में) बल अधिक है । जज से उसके चपरासी में शक्ति अधिक है । (सब हँसते हैं)
"Why doesn't man's mind dwell on God? You see, more powerful than God is His Mahamaya, His Power of Illusion. More powerful than the judge is his orderly. (All laugh.)
“কেন ঈশ্বরের দিকে (জীবের) মন যায় না? ঈশ্বরের চেয়ে তাঁর মহামায়ার আবার জোর বেশি। জজের চেয়ে প্যায়দার ক্ষমতা বেশি। (সকলের হাস্য)
"नारद से राम ने कहा, 'नारद, तुम्हारी स्तुति से मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है, तुम कोई वर लो ।' नारद ने कहा, 'राम ! यह करो, तुम्हारे पादपद्मों में मेरी श्रद्धा-भक्ति रहे और तुम्हारी भुवनमोहिनी माया में न पड़ जाऊँ ।' राम ने कहा, 'तथास्तु, कोई वर और लो ।’ नारद ने कहा, ‘राम ! और कोई वर मुझे नहीं चाहिए ।'
"Rama said to Narada: 'I am very much pleased with your prayer. Ask a boon of Me.' Narada replied, 'O Rama, may I have pure devotion to Your Lotus Feet, and may I not be deluded by Your world-bewitching maya!' Rama said, 'Be it so: ask for something else.' Narada replied, 'No, Rama, I do not want any other boon.'
“নারদকে রাম বললেন, নারদ, আমি তোমার স্তবে বড় প্রসন্ন হয়েছি; আমার কাছে কিছু বর লও! নারদ বললেন, রাম! তোমার পাদপদ্মে যেন আমার শুদ্ধাভক্তি হয়, আর যেন তোমার ভুবনমোহিনী মায়ায় মুগ্ধ না হই। রাম বললেন, তথাস্তু, আর কিছু বর লও! নারদ বললেন, রাম আর কিছু বর চাই না।

🔱🙏पंच भूतेर फाँदे ब्रह्म पड़े काँदे, किन्तु अवतार जब चाहें मुक्त हो सकते हैं 🔱🙏

 'पंचभूत के पिंजड़े में पड़कर ब्रह्म को रोना पड़ता है ।' 

 'Brahman weeps entangled in the snare of the five elements.' 

"इस भुवनमोहिनी माया में सभी मुग्ध हो रहे हैं । ईश्वर जब देह धारण करते हैं, तो वे भी मुग्ध [Hypnotized]  हो जाते हैं । सीता के लिए राम कितना रोये थे । 'पंचभूत के पिंजड़े में पड़कर ब्रह्म को रोना पड़ता है ।'
"Everyone is under the spell of this world-bewitching maya. When God assumes a human body, He too comes under the spell. Rama wandered about weeping for Sita. 'Brahman weeps entangled in the snare of the five elements.' But you must remember this: God, by His mere will, can liberate Himself from this snare."
“এই ভুবনমোহিনী মায়ায় সকলে মুগ্ধ। ঈশ্বর দেহধারণ করেছেন — তিনিও মুগ্ধ হন। রাম সীতার জন্য কেঁদে কেঁদে বেড়িয়েছিলেন। ‘পঞ্চভূতের ফাঁদে ব্রহ্ম পড়ে কাঁদে।
"परन्तु एक बात है - ईश्वर जब चाहें तभी मुक्त हो सकते हैं ।"
But you must remember this: God, by His mere will, can liberate Himself from this snare."
“তবে একটি কথা আছে, — ঈশ্বর মনে করলেই মুক্ত হন!’
भवनाथ - Guard(गार्ड) अपनी इच्छा से रेलगाड़ी के भीतर अपने को कैद करता है । परन्तु वह जब चाहे तब उतर सकता है ।
BHAVANATH: "The guard of a railway train shuts himself of his own will in a carriage; but he can get out whenever he wants to."
ভবনাথ — গার্ড (রেলের গাড়ির) নিজে ইচ্ছা করে রেলের গাড়ির ভিতর আপনাকে রুদ্ধ করে; আবার মনে করলেই নেমে পড়তে পারে!

[(9 मई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-114]

🔱🙏ईश्वरकोटि और जीवकोटि के नेता में फर्क🔱🙏 
 
श्रीरामकृष्ण – ईश्वरकोटि - जैसे अवतार आदि - जब चाहें तब मुक्त हो सकते हैं । जो जीवकोटि हैं, वे नहीं हो सकते । जीव कामिनी और कांचन में बद्ध हैं । कमरे के द्वार और झरोखे स्क्रू (पेंच) से कसे हुए हैं । कैसे निकल सकते हैं ?
MASTER: "The Isvarakotis — Divine Incarnations, for instance — can liberate themselves whenever they want to; but the jivakotis cannot. Jivas are imprisoned by 'woman and gold'. When the doors and windows of a room are fastened with screws, how can a man get out?"
শ্রীরামকৃষ্ণ — ঈশ্বরকোটি — যেমন অবতারাদি — মনে করলেই মুক্ত হতে পারে। যারা জীবকোটি তারা পারে না। জীবরা কামিনী-কাঞ্চনে বদ্ধ। ঘরের দ্বার-জানলা, ইস্‌কুরু দিয়ে আঁটা, বেরুবে কেমন করে?
भवनाथ - (सहास्य) जैसे रेल के तीसरे दर्जें के मुसाफिर, दरवाजे में चाभी लगा देने पर फिर नहीं निकल सकते ।
BHAVANATH (smiling): "Ordinary men are like the third-class passengers on a railway train. When the doors of their compartments are locked, they have no way to get out."
ভবনাথ (সহাস্যে) — যেমন রেলের থার্ডক্লাস্‌ প্যাসেঞ্জার-রা (তৃতীয় শ্রেণীর আরোহীরা) চাবিবন্ধ, বেরুবার জো নাই!
गिरीश - जीव अगर इस तरह बँधा हुआ है तो उसके लिए कोई उपाय है ?
GIRISH: "If a man is so strongly tied hand and foot, then what is his way?"
গিরিশ — জীব যদি এইরূপ আষ্টেপৃষ্ঠে বদ্ধ, তার এখন উপায়?
श्रीरामकृष्ण - हाँ, गुरु के रूप से ईश्वर (C-IN-C नवनीदा जैसे प्रेममय जीवनमुक्त नेता /शिक्षक)  अगर स्वयं ही मायापाशों का छेदन करें तो फिर भय की कोई बात नहीं ।
क्या ठाकुरदेव यह कह रहे हैं कि वे स्वयं ही जीवों के भ्रम को काटने के लिए शरीर धारण कर गुरुरूप बन गए हैं? 
[और श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित निवृत्ति मार्ग के गुरु और विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर Be and Make ' लीडरशिप ट्रेनिंग परम्परा में प्रशिक्षित प्रवृत्ति मार्ग के नेता C-IN-C नवनीदा गुरु-शिष्य परम्परा में मनःसंयोग का प्रशिक्षण चलता ही रहेगा।)]    
MASTER: "He has nothing to fear if God Himself, as the guru, cuts the chain of maya."
শ্রীরামকৃষ্ণ — তবে গুরুরূপ হয়ে ঈশ্বর স্বয়ং যদি মায়াপাশ ছেদন করেন তাহলে আর ভয় নাই।
ঠাকুর কি ইঙ্গিত করিতেছেন যে, তিনি নিজে জীবের মায়াপাশ ছেদন করতে দেহধারণ করে, গুরুরূপ হয়ে এসেছেন?
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