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शनिवार, 5 जून 2021

श्री रामकृष्ण दोहावली (36)~* मनःसंयोग * Practice of Discernment (विवेकदर्शन का अभ्यास)*

श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(36)

* मनःसंयोग ~ Practice of Discernment~विवेकदर्शन का अभ्यास *  

322 बहेलिया जस पंछी महँ , मछुआ बंसी माहिं। 

607 दत्तचित्त तस ध्यान धर , परमात्मा को पाहिं।।

एक दिन एक मैदान पर से चलते हुए अवधूत ने देखा कि सामने से ढोल-नगाड़े बजाते -बजाते , बड़ी धूम-धाम के साथ एक बारात आ रही है। पास ही में एक बहेलिया दत्तचित्त होकर एक चिड़िया पर निशाना साध रहा है। वह अपने लक्ष्य में तल्लीन था कि इतने नजदीक से गुजरने वाली बारात की ओर उसने एक बार भी नजर उठाकर नहीं देखा। अवधूत ने उस बहेलिये को नमस्कार करते हुए कहा , " महाराज , आप मेरे गुरु हैं ! जब मैं एकाग्रता का अभ्यास करने बैठूं तब मेरा मन भी इसी तरह 'ध्येय वस्तु' [स्वामी विवेकानन्द की छवि] पर एकाग्र रहे। 

324 पंछी मारे चोंच सिर , योगी समझ न पाहीं। 

612 जानहु ठीक ठीक ध्यान नर , रामकृष्ण प्रभु गाहिं।।  

तुम चाहे जिस मार्ग से जाओ , मन के स्थिर हुए बिना योग नहीं होता। मन योगी के वश में होता है , योगी कभी मन के वश में नहीं होता।  

जो ध्यान करते हुए इतना मग्न हो जाता है कि सिर पर चिड़ियों के बैठने पर भी समझ नहीं पाता , वही ठीक ठीक ध्यान करता है। 

320 जग में मन ऐसे घुले , जैसे जल में दूध। 

597 निर्जन में मक्खन करे , ज्ञानी भगत और  बुद्ध।।

प्रथम अवस्था में (विद्यार्थी जीवन में) निर्जन स्थान में जाकर एकाग्र चित्त से ईश्वरचिन्तन करना चाहिए ; नहीं तो मन में नाना विक्षेप आते हैं। दूध और पानी को यदि एकत्र कर दो तो दूध पानी में मिल जायेगा ; परन्तु यदि उसी दूध का निर्जन में मक्खन बना लो तो वह पानी में उतराता रहेगा -मिलेगा नहीं। इसी तरह साधना-अभ्यास के द्वारा चित्त की एकाग्रता प्राप्त कर लेने पर मनुष्य चाहे जिस परिस्थिति में रहे , उसका मन उससे ऊपर उठकर ईश्वर में ही लीन रहता है ! 

323 योगी बैठे ध्यान में , बाह्यज्ञान कछु नाहिं। 

611 तन पर चलहिं साँप पर , कण भर समझ न पाहिं।।

गहरे ध्यान में मनुष्य बाह्यज्ञानरहित हो जाता है। ध्यान -अवस्था में इतनी एकाग्रता आ जाती है कि 'ध्येय-वस्तु ' के सिवा दूसरा कुछ भी दिखाई-सुनाई नहीं देता। यहाँ तक कि स्पर्श का भी बोध नहीं रहता। इस समय यदि देह पर से साँप भी चला जाये तो न तो न तो जो ध्यान में लीन  है, उसे पता चलता है और न उस साँप को ही।    

                                    318 मन सरसों की बीज सम, बिखरत लगे न बार। 

595 कर शासन धर धीर नर , हरि को ले पुकार।।

अगर सरसों की पुड़िया में से एक बार सरसों के दाने बिखर गए तो फिर उन्हें चुनकर इकट्ठा करना दूभर हो जाता है , उसी प्रकार मनुष्य का मन यदि एकबार संसार के विषयों में बिखर जाये तो फिर उसे समेटकर एकाग्र करना दूभर हो जाता है। 

(5 विषयों-रूप,रस, गंध , शब्द और स्पर्श आदि के लाखों उप-विषयों में बिखर जाये तो फिर उसे समेटकर एकाग्र करना दूभर हो जाता है।)

319 वन में मन में कोने में , मनुवा धर ले ध्यान। 

596 साध साधना निरंतर , उदित होही तब ज्ञान।।

मनःसंयोग की साधना, मन को एकाग्र की साधना [ या सरसों के बिखरे हुए दानों को समेटने की साधना ?] मन में , वन में या कोने में करनी चाहिए। 

321 मसहरी भीतर ध्यान धरे , सात्विक सन्त सूजान।

603 गहरी रात जब सोत सब , पावत नहिं कोऊ मान।। 

सात्विक मनुष्य किस प्रकार एकाग्रता का अभ्यास करता है , जानते हो ? वह गहरी रात के समय मसहरी के भीतर बिछौने पर बैठकर प्रत्याहार -धारणा का अभ्यास किया करता है , ताकि कोई उसका 'ध्यान' होता हुआ देख नहीं पाये।  

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