रविवार, 15 मई 2022

🔆🙏 🔆🙏 🔆🙏 परिच्छेद~ 102 [ November 9, 1884; श्रीरामकृष्ण वचनामृत-102 ] जगतगुरु श्रीरामकृष्ण की शिक्षा पद्धति :

 *परिच्छेद 102.

(१)

 [ November 9, 1884;  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-102 ]

🔆🙏 संन्यासी तथा संचय । पूर्ण ज्ञान तथा प्रेम के लक्षण🔆🙏  

श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर के काली-मन्दिर में विराजमान हैं । अपने कमरे में छोटी खाट पर पूर्व की ओर मुँह किये हुए बैठे हैं । भक्तगण जमीन पर बैठे हैं । आज कार्तिक की कृष्णा सप्तमी है, ९ नवम्बर १८८४ । दोपहर का समय है । श्रीयुत मास्टर आये, दूसरे भक्त भी धीरे धीरे आ रहे हैं । श्रीयुत विजयकृष्ण गोस्वामी के साथ कई ब्राह्म भक्त आये हुए हैं । पुजारी राम चक्रवर्ती भी आये हैं । क्रमशः महिमाचरण, नारायण और किशोरी भी आये । कुछ देर बाद और भी कई भक्त आये।

[ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ দক্ষিণেশ্বরে কালীমন্দিরে আছেন। তিনি নিজের ঘরে ছোট খাটটিতে পূর্বাস্য হইয়া বসিয়া আছেন। ভক্তগণ মেঝের উপর বসিয়া আছেন। আজ কার্তিক মাসের কৃষ্ণা সপ্তমী, ২৫শে কার্তিক, ইংরেজী ৯ই নভেম্বর, ১৮৮৪ খ্রীষ্টাব্দ (রবিবার)। বেলা প্রায় দুই প্রহর। মাস্টার আসিয়া দেখিলেন, ভক্তেরা ক্রমে ক্রমে আসিতেছেন। শ্রীযুক্ত বিজয়কৃষ্ণ গোস্বামীর সঙ্গে কয়েকটি ব্রাহ্মভক্ত আসিয়াছেন। পূজারী রাম চক্রবর্তীও আছেন। ক্রমে মহিমাচরণ, নারায়ণ, কিশোরী আসিলেন। একটু পরে আরও কয়েকটি ভক্ত আসিলেন।

Sri Ramakrishna was in his room, seated on the small couch and facing the east. The devotees were sitting on the floor. It was about midday when M. arrived and took a seat after saluting the Master. Gradually other devotees began to gather. Vijaykrishna Goswami was there with several Brahmo devotees. The priest Ram Chakravarty was present also. Mahimacharan, Narayan, and Kishori arrived a few minutes later.

जाड़ा पड़ने लगा है । श्रीरामकृष्ण को कुर्तें की जरूरत है । मास्टर से ले आने के लिए कहा था । वे नैनगिलाट के कुर्तों के सिवा एक और जीन का कुर्ता भी ले आये हैं; परन्तु इसके लिए श्रीरामकृष्ण ने नहीं कहा था ।
[শীতের প্রারম্ভ। ঠাকুরের জামার প্রয়োজন হইয়াছিল, মাস্টারকে আনিতে বলিয়াছিলেন। তিনি লংক্লথের জামা ছাড়া একটি জিনের জামা আনিয়াছিলেন; কিন্তু ঠাকুর জিনের জামা আনিতে বলেন নাই।
It was the beginning of winter. Sri Ramakrishna had felt the need of some shirts and had asked M. to bring them. Besides two broadcloth shirts, M. had brought another of a heavy material, for which Sri Ramakrishna had not asked.

श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) – तुम बल्कि इसे लेते जाओ तुम्हीं पहनना । इसमें दोष है । अच्छा, तुमसे मैंने किस तरह के कुर्तों ले लिए कहा था ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — তুমি বরং একটা নিয়ে যাও। তুমিই পরবে। তাতে দোষ নাই। আচ্ছা, তোমায় কিরকম জামার কথা বলেছিলাম?

MASTER (to M.): "You had better take that one back with you. You can use it yourself. There is nothing wrong in that. Tell me, what kind of shirt did I ask you to bring?"

मास्टर – जी आपने सादे कुर्तों की बात कही थी । जीन का कुर्ता ले आने के लिए नहीं कहा था ।

[মাস্টার — আজ্ঞা, আপনি সাদাসিদে জামার কথা বলেচিলেন, জিনের জামা আনিতে বলেন নাই।

M: "Sir, you told me to get you plain ones. You didn't ask me to buy the heavier one."

श्रीरामकृष्ण – तो जीन वाले को ही लौटा ले जाओ ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — তবে জিনেরটা ফিরিয়ে নিয়ে যাও।

MASTER: "Then please take that one back. 

(विजय आदि से) 'देखो द्वारका बाबू ने एक शाल दिया था । मारवाड़ी भक्तों ने भी एक लाया था, पर मैंने नहीं लिया ।' श्रीरामकृष्ण और भी कहना चाहते थे, उसी समय विजय बोल उठे –

[(বিজয়াদির প্রতি) — “দেখ, দ্বারিক বাবু বনাত দিছল। আবার খোট্টারাও আনলে। নিলাম না। — [ঠাকুর আর কি বলিতে যাইতেছিলেন। এমন সময় বিজয় কথা কহিলেন।]

(To Vijay and the others) You see, Dwarika Babu gave me a shawl. The Marwari devotees also brought one for me. I couldn't accept —"

 [ November 9, 1884;  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-102 ]

🔆🙏 अपने सच्चे भक्त की आवश्यकतायें, स्वयं ईश्वर ही पूर्ण करते हैं। 🔆🙏

विजय – जी हाँ ठीक तो है । जो कुछ चाहिये और जितना चाहिये, उतना ही ले लिया जाता है । किसी एक को तो देना ही होगा । मनुष्य को छोड़ और देगा भी कौन ?

বিজয় — আজ্ঞা — তা বইকি! যা দরকার কাজেই নিতে হয়। একজনের তো দিতেই হবে। মানুষ ছাড়া আর কে দেবে?

[Vijay interrupted the Master, saying: "That is right, sir. If a man needs a thing, he must accept it. And there must be a man to give it. Who but a man will give?"

श्रीरामकृष्ण – देनेवाले वही ईश्वर हैं । सास ने कहा, बहू, सब की सेवा करने के लिए आदमी हैं परन्तु तुम्हारे पैर दबाने वाला कोई नहीं है ।’ कोई होता तो अच्छा होता । बहू ने कहा, 'माँ, मेरे पैर भगवान दबायेंगे, मुझे किसी की जरूरत नहीं है ।’ उसने भक्तिपूर्वक यह बात कही थी ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — দেবার সেই ঈশ্বর! শাশুড়ী বললে, আহা বউমা, সকলেরই সেবা করবার লোক আছে, তোমার কেউ পা টিপে দিত বেশ হত। বউ বললে, ওগো! আমার পা হরি টিপবেন, আমার কারুকে দরকার নাই। সে ভক্তিভাবে ওই কথা বললে।

MASTER: "The giver is the Lord Himself. The mother-in-law said to her daughter-in-law: 'My child, I see that everybody has someone to render him a little personal service. It would be so nice if you could find someone to massage your feet.' The daughter-in-law said: 'Mother, God Himself will massage my feet. I don't need anyone else.' She spoke thus because she was a sincere lover of God.

  [ November 9, 1884;  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-102 ]

🔆🙏माँगना ही पड़े तो भगवान से भीख मांगो, भिखारी राजा से क्यों माँगे ?🔆🙏 

[যদি চাইতে হয়, ভিখারীর কাছে কেন? খোদার কাছে চাইব!

[ beg of God and not of a beggar.]

"एक फकीर अकबरशाह के पास कुछ भेंट लेने गया था । बादशाह उस समय नमाज पढ़ रहा था और कह रहा था, ऐ खुदा मुझें दौलतमन्द कर दे । फकीर ने अब बादशाह की याचनाएँ सुनी तो उठकर वापस जाना चाहा । परन्तु अकबरशाह ने उससे बैठने के लिए इशारा किया । नमाज समाप्त होने पर उन्होंने पूछा, तुम क्यों वापस जा रहे थे ? उसने कहा, 'आप खुद ही याचना कर रहे हैं, ऐ खुदा, मुझे दौलतमन्द कर दे । इसलिए मैंने सोचा, अगर माँगना ही है तो भिक्षुक से क्यों माँगू, खुदा से ही क्यों न माँगू ?

[“একজন ফকির আকবর শার কাছে কিছু টাকা আনতে গিছল। বাদশা তখন নমাজ পড়ছে আর বলছে, হে খোদা! আমায় ধন দাও, দৌলত দাও। ফকির তখন চলে আসবার উপক্রম করলে। কিন্তু আকবর শা তাকে বসতে ইশারা করলেন। নমাজের পর জিজ্ঞাসা করলেন, তুমি কেন চলে যাচ্ছিলে। সে বললে, আপনিই বলছিলেন ধন দাও, দৌলত দাও। তাই ভাবলাম, যদি চাইতে হয়, ভিখারীর কাছে কেন? খোদার কাছে চাইব!”

'Once a fakir went to the Emperor Akbar to ask for money. The Emperor was saying his prayers. He prayed, 'O Lord, give me money; give me wealth.' The fakir started to leave the palace, but the Emperor motioned to him to wait. After finishing his prayers, Akbar came to the holy man and said, 'Why were you going away?' The fakir replied, You yourself were begging for money and wealth; so I thought that if I must beg, I would beg of God and not of a beggar.'"

  [ November 9, 1884;  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-102 ]

🔆🙏उत्तम श्रेणी के साधु अजगर-वृत्ति के होते हैं । उन्हें बैठे हुए ही आहार मिलता है🔆🙏 

संचय और तीन श्रेणी के संन्यासी

[সঞ্চয় ও তিন শ্রেণীর সাধু ]

विजय - गया में मैंने एक साधु देखा था । वे स्वयं कुछ प्रयत्न नहीं करते थे । एक दिन इच्छा हुई, भक्तों को खिलाऊँ । देखा, न जाने कहाँ से मैदा और घी आ गया । फल भी आये ।

[বিজয় — গয়াতে সাধু দেখেছিলাম, নিজের চেষ্টা নাই। একদিন ভক্তদের খাওয়াবার ইচ্ছা হল। দেখি কোথা থেকে, মাথায় করে ময়দা ঘি এসে পড়ল। ফলটলও এল।

VIJAY: "I saw a sadhu at Gaya. He did not take the initiative in anything. One day he wanted to feed some devotees. Suddenly we found that butter, flour, fruits, and other food-stuff had arrived from no one knew where."

श्रीरामकृष्ण - (विजय आदि से) - साधुओं के तीन दर्जे हैं, उत्तम, मध्यम और अधम । जो उत्तम श्रेणी (विवेकानन्द ?) के हैं, वे भोजन की खोज में नहीं फिरते । मध्यम और अधम दण्डियों की तरह के होते हैं । मध्यम जो हैं, वे नमोनारायण ^* करके खड़े हो जाते हैं । जो अधम हैं वे न देने पर झगड़ा करते हैं । (सब हँसे ।)

[नमोनारायण ^* ^"भगवान को नमस्कार।"  इन शब्दों के साथ एक साधु दूसरे व्यक्ति का अभिवादन करता है। (Salutations to God.--- With these words a sadhu greets another person.)]

[শ্রীরামকৃষ্ণ (বিজয়াদির প্রতি) — সাধুর তিন শ্রেণী। উত্তম, মধ্যম অধম। উত্তম যারা খাবার জন্যে চেষ্টা করেন না। মধ্যম ও অধম যেমন দণ্ডী-ফণ্ডী। মধ্যম, তারা ‘নমো নারায়ণ’! বলে দাঁড়ায়। যারা অধম তারা না দিলে ঝগড়া করে। (সকলের হাস্য)

MASTER (to Vijay and the others): "There are three classes of sadhus: good, mediocre, and bad. The good sadhu makes no effort to get his food. The dandis, among others, belong to the mediocre and bad classes. To get food the mediocre sadhu will knock at the door of a house and say, 'Namo Narayana'.6 The bad sadhu starts a quarrel if he doesn't get his alms.

"उत्तम श्रेणी के साधु अजगर-वृत्ति के होते हैं । उन्हें बैठे हुए ही आहार मिलता है । अजगर हिलता-डुलता नहीं । एक छोकरा साधु था - बाल ब्रह्मचारी । वह कहीं भिक्षा लेने के लिए गया । एक लड़की ने आकर भिक्षा दी । उसके स्तन देखकर उसने सोचा, इसकी छाती पर फोड़ा हुआ है । जब उसने पूछा तो घर की पुरखिन ने आकर उसे समझाया । इसके पेट में बच्चा होगा, उसके पीने के लिए ईश्वर इनमें दूध भर दिया करेंगे इसीलिए पहले से इसका बन्दोबस्त कर रखा है । यह बात सुनकर उस साधु को बड़ा आश्चर्य हुआ । तब उसने कहा, 'तो अब मुझे भिक्षा माँगने की क्या जरूरत है ? ईश्वर मेरे लिए भी भोजन तैयार कर दिया करेंगे ।

[“উত্তম শ্রেণীর সাধুর অজগরবৃত্তি। বসে খাওয়া পাবে। অজগর নড়ে না। একটি ছোকরা সাধু — বাল-ব্রহ্মচারী — ভিক্ষা করতে গিছিল, একটি মেয়ে এসে ভিক্ষা দিলে। তার বক্ষে স্তন দেখে সাধু মনে করলে বুকে ফোঁড়া হয়েছে, তাই জিজ্ঞাসা করলে। পরে বাড়ির গিন্নীরা বুঝিয়ে দিলে যে, ওর গর্ভে ছেলে হবে বলে ঈশ্বর স্তনেতে দুগ্ধ দিবেন; তাই ঈশ্বর আগে থাকতে তার বন্দোবস্ত করছেন। এই কথা শুনে ছোকরা সাধুটি অবাক্‌। তখন সে বললে, তবে আমার ভিক্ষা করবার দরকার নেই; আমার জন্যও খাবার আছে।”

"The good sadhu behaves like a python. He sits in one place and the food comes to him. The python doesn't move from where it is. A young sadhu, who had been a brahmachari from his boyhood, went out to beg. A young girl offered him alms. The sadhu saw her breasts and thought she had abscesses. He asked about them. The elderly women of the family explained that she would some day be a mother and that God had given her breasts to give milk to her children; God had provided for all this beforehand. At these words the sadhu was struck with wonder. He said: 'Then I don't need to beg. God must have provided for me too."

`भक्तरा केहू केहू मने करीतेचेन , तबे आमादेर ओ तो चेष्टा ना कोरले होय। "कुछ भक्त मन में सोचते हैं कि तब तो हम लोग भी यदि चेष्टा न करें, तो चल सकता है ।

[ভক্তেরা কেহ কেহ মনে করিতেছেন, তবে আমাদেরও তো চেষ্টা না করলে হয়।

Some of the devotees thought that in that case they should not take any initiative either.

श्रीरामकृष्ण -  "जिसके मन में यह है कि चेष्टा करनी चाहिए, उसे चेष्टा करनी होगी ।”

শ্রীরামকৃষ্ণ — যার মনে আছে চেষ্টা দরকার, তার চেষ্টা করতেই হবে।

MASTER: "But those who think that an effort is needed must make the effort."

विजय - भक्तमाल में एक बड़ी अच्छी कहानी है ।

[বিজয় — ভক্তমালে একটি বেশ গল্প আছে।

VIJAY: "There is a nice story about that in the Bhaktamala."

श्रीरामकृष्ण - कहो, जरा सुनें तो ।"

[শ্রীরামকৃষ্ণ — তুমি বলো না।

MASTER: "Tell it to us."

विजय - आप कहिये ।

[বিজয় — আপনিই বলুন না।

VIJAY: "Please tell us yourself."

श्रीरामकृष्ण - नहीं, तुम्हीं कहो, मुझे पूरी याद नहीं है । पहले पहल सुनना चाहिए, इसीलिए मैं सुना करता था ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — না তুমিই বলো! আমার অত মনে নাই। প্রথম প্রথম শুনতে হয়। তাই আগে আগে ও-সব শুনতাম।

MASTER: "No, you tell it. I don't remember it very well.

[ November 9, 1884;  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-102 ]

🔆🙏 चातक के लिए जैसे स्वाति का जल, काली-भक्त के लिये अवतार की भक्ति 🔆🙏 

[ঠাকুরের অবস্থা — এক রামচিন্তা — পূর্ণজ্ঞান ও প্রেমের লক্ষণ] 

"मेरी अब वह अवस्था नहीं है । हनुमान ने कहा था, वार, तिथि, नक्षत्र, इतना सब मैं नहीं जानता, मैं तो बस श्रीरामचन्द्रजी के बारे में चिन्तन करता रहता हूं।'।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — আমার এখন সে অবস্থা নয়। হনুমান বলেছিল, আমি তিথি-নক্ষত্র জানি না, এক রামচিন্তা করি।

"One should hear these things at the beginning. That is why I listened to them years ago. But now I am no longer in that mood. Hanuman said: 'I don't know the position of the stars or the phase of the moon. I only think of Rama.'

"चातक को बस स्वाति के जल (बंगला फटिक जल)  की चाह रहती है । मारे प्यास के जी निकल रहा है, परन्तु गला उठाये वह आकाश की बूँदों की ही प्रतिक्षा करता है । गंगा-यमुना और सातों समुद्र इधर भरे हुए हैं, परन्तु वह पृथ्वी का पानी नहीं पीता ।

[“চাতক চায় কেবল ফটিক জল। পিপাসায় প্রাণ যায়, উঁচু হয়ে আকাশের জল পান করতে চায়। গঙ্গা-যমুনা সাত সমুদ্র জলে পূর্ণ। সে কিন্তু পৃথিবীর জল খাবে না।

"The chatak bird craves only rain-water. Even when it is dying of thirst, it turns its beak upward and wants only water from the sky. The Ganges, the Jamuna, and the seven oceans are filled to the brim, but still it will not touch the water of the earth.

 [ November 9, 1884;  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-102 ] 

🔆🙏ज्ञानी पुरुष के लिये पूर्णिमा और अमावस में भेद नहीं रहता🔆🙏

যখন অমাবস্যা-পূর্ণিমা ভুল হবে তখন পূর্ণজ্ঞান হয়।

 (MAN of Perfect Knowledge  cannot distinguish 

between the full moon and the new moon. )  

"राम और लक्ष्मण जब पम्पा सरोवर पर गये तब लक्ष्मण ने देखा, एक कौआ व्याकुल होकर बार बार पानी पीने के लिए जा रहा था, परन्तु पीता न था । राम से पूछने पर उन्होंने कहा 'भाई, यह कौआ परम भक्त है । दिनरात यह रामनाम जप रहा है । इधर मारे प्यास के छाती फटी जा रही है, परन्तु पानी पी नहीं सकता । सोचता है, पानी पीने लगूँगा तो जप छूट जायेगा ।' मैंने पूर्णिमा के दिन हलधर से पूछा, दादा, आज क्या अमावस है ? (सब हँसते हैं ।)

[“রাম-লক্ষ্মণ পম্পা সরোবরে গিয়েছেন। লক্ষ্মণ দেখিলেন, একটি কাক ব্যাকুল হয়ে বারবার জল খেতে যায়, কিন্তু খায় না। রামকে জিজ্ঞাসা করতে তিনি বললেন, ভাই, এ কাক পরমভক্ত। অহর্নিশি রামনাম জপ করছে! এদিকে জলতৃষ্ণায় ছাতি ফেটে যাচ্ছে, কিন্তু খেতে পারছে না। ভাবছে খেতে গেলে পাছে রামনাম জপ ফাঁক যায়! হলধারীকে পূর্ণিমার দিন বললুম, দাদা! আজ কি অমাবস্যা? (সকলের হাস্য)

"Rama and Lakshmana visited Pampa Lake. Lakshmana saw a crow very eager for water. Again and again it went to the edge of the water but would not drink. Lakshmana asked Rama about it. Rama said: 'Brother, this crow is a great devotee of God. Day and night it repeats the name of Rama. Its throat is parched with thirst, but still it won't drink for tear of missing a repetition of Rama's name.' 

"On a full-moon night I said to Haladhari, 'Brother, is it the night of the new moon?' (All laugh.)

(सहास्य) “हाँ जी यह सच्ची बात है। मैंने सुना था कि ज्ञानी पुरुष की पहचान यह है कि वह पूर्णिमा और अमावस में भेद नहीं पाता । परन्तु हलधारी को इस विषय में कौन विश्वास दिला सकता है ? उसने कहा 'यह निश्चय ही कलिकाल है । वे (श्रीरामकृष्ण) पूर्णिमा और अमावस में भेद नहीं जानते और फिर भी लोग उनका आदर करते हैं ।" (इसी समय महिमाचरण आ गये ।)

[(সহাস্যে) — “হ্যাঁগো! শুনেছিলাম, যখন অমাবস্যা-পূর্ণিমা ভুল হবে তখন পূর্ণজ্ঞান হয়। হলধারী তা বিশ্বাস করবে কেন, হলধারী বললে, এ কলিকাল! একে আবার লোকে মানে! যার অমাবস্যা-পূর্ণিমাবোধ নাই”। ঠাকুর এ-কথা বলিতেছিলেন, এমন সময় মহিমাচরণ আসিয়া উপস্থিত।

(Smiling) "Yes, it is true. Once I was told that a characteristic of a man of Perfect Knowledge is that he cannot distinguish between the full moon and the new moon. But how could one convince Haladhari of that? He said: 'This is certainly the dark Kaliyuga. He cannot distinguish the full moon from the new moon! And people respect him!' (Mahimacharan entered the room.)

श्रीरामकृष्ण - (आदरपूर्वक) - आइये, आइये, बैठिये । (विजय आदि से) इस अवस्था में (मन की आनंदमय अवस्था में) दिन और तिथि का ख्याल नहीं रहता । उस दिन वेणीपाल के बगीचे में उत्सव था - मैं दिन भूल गया । ‘अमुक दिन संक्रान्ति है (मोहिनी एकादशी?),अच्छी तरह ईश्वर का नाम लूँगा’, यह अब याद नहीं रहता । (कुछ देर विचार करने के बाद) परन्तु अगर कोई आने को होता है तो उसकी याद रहती है ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (সসম্ভ্রমে) — আসুন, আসুন। বসুন! (বিজয়াদি ভক্তের প্রতি) — “এ অবস্থায় ‘অমুক দিন’ মনে থাকে না। সেদিন বেণী পালের বাগানে উৎসব; দিন ভুল হয়ে গেল। ‘অমুক দিন সংক্রান্তি ভাল করে হরিনাম করব’ — এ-সব আর ঠিক তাকে না। (কিয়ৎক্ষণ চিন্তার পর) তবে অমুক আসবে বললে মনে থাকে।”

MASTER (respectfully): "Come in. Come in, sir. Please take a seat.(To Vijay and the other devotees) "In the ecstatic state of mind I cannot remember a date. The other day there was a religious festival at Beni Pal's garden. I forgot the date. I can no longer remember the last day of the month, when it is very auspicious to repeat the name of God. "Sri Ramakrishna remained thoughtful a few minutes. MASTER: "But I remember if a man makes an engagement to visit me.

 [ November 9, 1884;  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-102 ] 

🔆🙏 यमराज करे क्या ? लंका में सीता का शरीर तो है, उसमें मन-प्राण नहीं हैं🔆🙏 

{ यमराज भी पास में था, परन्तु वह करे क्या ? सीता का शरीर तो लंका में है , लेकिन मन, प्राण (आत्मा- एक अंतर्निहित शक्ति) या जीवन तो अयोध्यावासी श्रीराम में लगा हुआ है ! [3H >Body, Mind and Soul >शरीर, मन और प्राण (जीवन या आत्मा, Life or Soul ]

[শ্রীরামকৃষ্ণের মন-প্রাণ কোথায় — ঈশ্বরলাভ ও উদ্দীপন ]

"ईश्वर पर सोलहों आने मन जाने पर यह अवस्था होती है । जब हनुमान सीता का पता लगा कर लंका से लौटे तब राम ने पूछा, 'हनुमान, तुम सीता की खबर तो ले आये, अच्छा, तो उन्हें कैसा देखा ? कहो, मेरी सुनने की इच्छा है ।' 

हनुमान ने कहा, 'राम, मैंने देखा, सीता का शरीर मात्र पड़ा हुआ है । उसमें मन, प्राण नहीं है । आप के ही पादपद्मों में उन्होंने वे समर्पण कर दिये हैं । इसलिए केवल शरीर ही पड़ा हुआ है । और मैंने देखा काल (यमराज) पास ही था, परन्तु वह करे क्या ? वहाँ तो शरीर ही है, मन और प्राण तो हैं ही नहीं ।'

[ঈশ্বরে ষোল আনা মন গেলে এই অবস্থা। রাম জিজ্ঞাসা করলেন, হনুমান, তুমি সীতার সংবাদ এনেছ; কিরূপ তাঁকে চেখে এলে আমায় বল। 

হনুমান বললে রাম, দেখলাম সীতার শুধু শরীর পড়ে আছে। তার ভিতরে মন প্রাণ নাই। সীতার মন-প্রাণ যে তিনি তোমার পাদপদ্মে সমর্পণ করেছেন! তাই শুধু শরীর পড়ে আছে। আর কাল (যম) আনাগোনা করছে! কিন্তু কি করবে, শুধু শরীর; মন-প্রাণ তাতে নাই।

["A man attains this state when his mind is one hundred per cent absorbed in God. When Hanuman returned from Ceylon, Rama said to him: 'You have seen Sita. Tell me, how did you find her?' 

Hanuman said: 'O Rama, I saw that only the body of Sita lay there; it held neither her mind nor her soul. She has indeed consecrated her mind and soul to Your Lotus Feet. Therefore I saw only her body in Ceylon. Further, I saw the King of Death prowling about. But what could he do? It was only a body; it had neither mind nor soul.'

[ November 9, 1884;  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-102 ]

 [पुस्तकों या शास्त्रों का उद्देश्य क्या है ? – ईश्वरलाभ (जगदीशत्व प्राप्ति !)]  

🔆🙏मन से जो चाह लोगे वही (जगदीश) बन जाओगे ! नमक पुतला समुद्र की थाह🔆🙏 

“যাঁকে চিন্তা করবে তার সত্তা পাওয়া যায়। 

[If you meditate on an ideal you will acquire its nature.]

{विवेक-दर्शन का अभ्यास करने से -विवेकस्रोत उद्घाटित होगा और तुम उनके (गुरु-विवेकानन्द के) स्वभाव को प्राप्त कर लोगे। अर्थात अवतार वरिष्ठ को अवश्य पहचान लोगे।" पुस्तकों या शास्त्रों का उद्देश्य क्या है ? – ईश्वरलाभ । अर्थात जगदीशत्व लाभ -मन का गुलाम Bh का गुलाम , मैं और मेरा का गुलाम नहीं रहोगे ! ^*अर्थात गीता, उपनिषद और ब्रह्मसूत्र अध्यन का उद्देश्य है अवतार-वरिष्ठ को पहचानने और उनके दास तथा डिवाइन माँ सारदा देवी का पुत्र और स्वामी जी का अनुज, नवनीदा का अनुज बनने की क्षमता अर्जित करना  !}  

"जिसकी चिन्ता की जाती है, उसकी सत्ता आ जाती है । दिनरात ईश्वर की चिन्ता करते रहने पर ईश्वर की सत्ता आ जाती है । नमक का पुतला समुद्र की थाह लेने गया तो गलकर खुद वही हो गया ।

" पुस्तकों या शास्त्रों का उद्देश्य क्या है ? – ईश्वरलाभ । ^* साधु की पौथी को एक ने खोलकर देखा, उसमें सिर्फ रामनाम लिखा हुआ था, और कुछ भी नहीं । 

[“যাঁকে চিন্তা করবে তার সত্তা পাওয়া যায়। অহর্নিশ ঈশ্বরচিন্তা করলে ঈশ্বরের সত্তা লাভ হয়। লুনের পুতুল সমুদ্র মাপতে গিয়ে তাই হয়ে গেল।

“বই বা শাস্ত্রের কি উদ্দেশ্য? ঈশ্বরলাভ। সাধুর পুঁথি একজন খুলে দেখলে, প্রত্যেক পাতাতে কেবল ‘রাম’ নাম লেখা আছে। আর কিছু নাই।

If you meditate on an ideal you will acquire its nature. If you think of God day and night, you will acquire the nature of God. A salt doll went into the ocean to measure its depth. It became one with the ocean.   

      " What is the goal of books or scriptures? The attainment of God. A man opened a book belonging to a sadhu. He saw the word Rama written on every page. There was nothing else.

"ईश्वर पर प्रोति होने पर थोड़े ही में उद्दीपन हुआ करता है । तब एक बार रामनाम करने पर कोटि सन्ध्योपासन का फल होता है ।

[“ঈশ্বরের উপর ভালবাসা এলে একটুতেই উদ্দীপন হয়। তখন একবার রামনাম করলে কোটি সন্ধ্যার ফল হয়।"

If a man loves God, even the slightest thing kindles spiritual feeling in him. Then, repeating the name of Rama but once, he gets the fruit of ten million sandhyas

"मेघ देखकर मयूर को उद्दीपन होता है । आनन्द से पंख फैलाकर नृत्य करता है । श्रीमती राधा को भी ऐसा ही हुआ करता था । मेघ देखकर उन्हें कृष्ण की याद आती थी ।

[“মেঘ দেখলে ময়ূরের উদ্দীপন হয়, আনন্দে পেখম ধরে নৃত্য করে। শ্রীমতীরও সেইরূপ হত। মেঘ দেখলেই কৃষ্ণকে মনে পড়ত।

At the sight of a cloud the peacock's emotion is awakened: he dances, spreading his tail. Radha had the same experience. Just the sight of a cloud recalled Krishna to her mind.

"चैतन्यदेव मेड़गाँव के पास ही से जा रहे थे । उन्होंने सुना इस गाँव की मिट्टी से ढोल बनता है । बस भावावेश में विह्वल हो गये - क्योंकि संकीर्तन के समय ढोल का ही वाद्य होता है ।

[“চৈতন্যদেব মেড়গাঁর কাছ দিয়ে যাচ্ছিলেন। শুনলেন, এ-গাঁয়ের মাটিতে খোল তৈয়ার হয়। অমনি ভাবে বিহ্বল হলেন, — কেননা হরিনাম কীর্তনের সময় খোল বাজে।

 "Chaitanyadeva was passing a village. He heard that drums were made from the earth of that place. At once he was overwhelmed with ecstasy because drums are used in kirtan.

[ November 9, 1884;  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-102 ] 

🔆🙏कामिनी-कांचन में आसक्ति का त्याग करने से ही आध्यात्मिक जागृति होती है🔆🙏

"उद्दीपन किसे होता है ? जिसकी विषयबुद्धि दूर हो गयी है, जिसका विषयरस सूख जाता है, उसे ही थोड़े में उद्दीपन होता है । दियासलाई भीगी हुई हो तो चाहे कितना ही क्यों न घिसो, वह जल नहीं सकती, पानी अगर सूख जाय तो जरा सा घिसने से ही वह जल जाती है ।

[“কার উদ্দীপন হয়? যার বিষয়বুদ্ধি ত্যাগ হয়েছে। বিষয়রস যার শুকিয়ে যায় তারই একটুতেই উদ্দীপন হয়। দেশলাই ভিজে থাকলে হাজার ঘষো, জ্বলবে না। জলটা যদি শুকিয়ে যায়, তাহলে একটু ঘষলেই দপ্‌ করে জ্বলে উঠে।”

"But who can have this spiritual awakening? Only he who has renounced his attachment to worldly things. If the sap of attachment is totally dried up in a man, the slightest suggestion kindles, his spiritual emotion. Though you strike a wet match a thousand times, it will not produce a spark. But if it is dried, the slightest rubbing will set it aflame.

[नवनीदा के संस्मरण : `उस परम् पुरुष (अवतार वरिष्ठ-जगतगुरु श्रीरामकृष्ण) के प्राप्ति मार्ग में सब से पहले अपने अहंकार को प्रभु के समर्पण करना चाहिये, तब ही परम पद परमात्मा की प्राप्ति होती है । उस प्रभु की प्राप्ति के लिये यदि आवश्यकता हो तो प्राणों का मोह त्यागकर मृत्यु का भी आलिंगन करना चाहए । भविष्य में आगे क्या होगा और पीछे से स्त्री-पुत्रादिकों का तथा सम्पत्ति का क्या होगा, ऐसा विचार नहीं करना चाहिये । क्योंकि मंगलमय भगवान् जो करेंगे वह सब ठीक ही होगा ।"  राजू भगिना के अपहरण के बाद/पेपर कटिंग-शिक्षा/रजतोन्माद  के बाद दादा के उपदेश ---सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता परो ददाति इति कुबुध्दिरेषा ।अहं करोमीति वृथाभिमानः स्वकर्मसूत्रग्रथितो हि लोकः ॥ सुख और दुःख देनेवाला कोई नहीं है । दूसरा आदमी हम को वह देता है यह विचार भी गलत है । "मैं करता हूँ" एसा अभिमान व्यर्थ है । सभी लोग अपने अपने पूर्व कर्मों के सूत्र से बंधे हुए हैं । (निषादराज गृहक जब रामवनवास के लिए कैकेयी और मंथराको दोष देता है तब लक्षमण की उक्ति)

पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया।

यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्।। गीता 8.22।।

[पुरुषः सः परः पार्थ भक्त्या लभ्यः तु अनन्यया यस्य अन्तस्थानि भूतानि येन सर्वम् इदं ततम् ॥ २२ ॥8.22।।]

हे पार्थ ! जिस (परमात्मा) के अन्तर्गत समस्त भूत हैं और जिससे यह सम्पूर्ण (जगत्) व्याप्त है, वह परम पुरुष अनन्य भक्ति से ही प्राप्त करने योग्य है।

जो पुरुष आत्मस्वरूप का साक्षात् अनुभव कर लेता है वह यह समझ लेता है कि इस नानाविध सृष्टि का एक ही अधिष्ठान है जिसके अज्ञान से ही इस जगत् का प्रत्यक्ष हो रहा है। जीव अज्ञान के वश इस नामरूप मय जगत को ही सत्य समझ कर संसार के मिथ्या दुःखों से पीड़ित रहता है।   

 [ November 9, 1884;  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-102 ]

🔆🙏ईश्वर-प्राप्ति~ आत्मसमर्पण~ शोक-मृत्यु के समक्ष भी बुद्धि निहाई जैसी कूटस्थ🔆🙏 

[ঈশ্বরলাভের পর দুঃখে-মরণে স্থিরবুদ্ধি ও আত্মসমর্পণ ]

`तेरी इच्छा ही पूर्ण होगी, जैसे स्वर्ग में वैसे ही पृथ्वी पर भी !'(मत्ती 6:10)

 “Thy will be done on earth as it is in Heaven” (Matthew 6:10)

"देह में सुख और दुःख लगे ही हैं । जिसे इश्वरलाभ हो चुका है, वह मन, प्राण, आत्मा, सब उन्हें दे देता है । पम्पा सरोवर में नहाते समय राम और लक्ष्मण ने सरोवर के तट की मिट्टी में धनुष गाड़ दिये । स्नान करके लक्ष्मण ने धनुष निकालते हुए देखा, धनुष में खून लगा हुआ था

“দেহের সুখ-দুঃখ আছেই। যার ঈশ্বরলাভ হয়েছে সে মন, প্রাণ, দেহ, আত্মা সমস্ত তাঁকে সমর্পণ করে। পম্পা সরোবরে স্নানের সময় রাম-লক্ষ্মণ সরোবরের নিকট মাটিতে ধনুক গুঁজে রাখলেন। স্নানের পর উঠে লক্ষণ তুলে দেখেন যে, ধনুক রক্তাক্ত হয়ে রয়েছে। 

"Pain and pleasure are inevitable in a body. He who has realized God dedicates his mind and life, his body and soul, to God. When Rama and Lakshmana went to take their bath in Pampa Lake, they thrust their bows into the ground. Coming out of the water, Lakshmana took out his bow and found its tip stained with blood.

राम ने देखकर कहा, भाई, जान पड़ता है, कोई जीव-हिंसा हो गयी । लक्ष्मण ने मिट्टी खोदकर देखा तो एक बड़ा मेंढ़क था, वह मरणासन्न हो गया था । राम ने करुणापूर्ण स्वर में कहा, 'तुमने आवाज क्यों नहीं दी ? हम लोग तुम्हें बचा लेते । जब साँप पकड़ता है, तब तो खूब चिल्लाते हो ।'

রাম দেখে বললেন, ভাই দেখ দেখ, বোধ হয় কোন জীবহিংসা হল। লক্ষ্মণ মাটি খুঁড়ে দেখেন একটা বড় কোলা ব্যাঙ। মুমূর্ষ অবস্থা। রাম করুণস্বরে বলতে লাগলেন, ‘কেন তুমি শব্দ কর নাই, আমরা তোমাকে বাঁচাবার চেষ্টা করতাম! যখন সাপে ধরে, তখন তো খুব চিৎকার কর।’

 Rama said to him: 'Look, brother! Look. Perhaps we have hurt some creature.' Lakshmana dug in the earth and found a big bullfrog. It was dying. Rama said to the frog in a sorrowful voice: 'Why didn't you croak? We should have tried to save you. You croak lustily enough when you are in the jaws of a snake.'

 मेंढ़क ने कहा, 'राम, जब साँप पकड़ता है, तब मैं चिल्लाता हूँ, राम, रक्षा करो - राम, रक्षा करो। पर अब देखता हूँ, राम स्वयं मुझे मार रहे हैं, इसीलिए मुझे चुपचाप रह जाना पड़ा।'”

ভেক বললে, ‘রাম! যখন সাপে ধরে তখন আমি এই বলে চিৎকার করি — রাম রক্ষা করো, রাম রক্ষা করো। এখন দেখছি রামই আমায় মারছেন! তাই চুপ করে আছি’।”

 The frog said: 'O Lord, when I am attacked by a snake I croak, saying: "O Rama, save me! O Rama, save me!" This time I found that it was Rama who was killing me; so I kept still.'"

(२)

 [ November 9, 1884;  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-102 ]

गुरु-महिमा । ज्ञानयोग

🔆🙏स्वयं के स्वरुप में स्थित कैसे रहें ? -ज्ञानयोग बड़ा कठिन पथ है।🔆🙏 

[স্ব-স্বরূপে থাকা কিরূপ — জ্ঞানযোগ বড় কঠিন]

श्रीरामकृष्ण चुपचाप बैठे हुए महिमाचरण आदि भक्तों को देख रहे हैं । श्रीरामकृष्ण ने सुना है कि महिमाचरण गुरु नहीं मानते । इस विषय पर वे कहने लगे –

[ঠাকুর একটু চুপ করিলেন ও মহিমাদি ভক্তদের দেখিতেছেন।ঠাকুর শুনিয়াছিলেন যে, মহিমাচরণ গুরু মানেন না। এইবার ঠাকুর আবার কথা কহিতেছেন।

Sri Ramakrishna remained silent a few moments watching the devotees. He had heard that Mahimacharan did not believe in following a guru. He began the conversation again.

श्रीरामकृष्ण - गुरु की बात पर विश्वास करना चाहिए । गुरु के चरित्र की ओर देखने की आवश्यकता नहीं । 'मेरे गुरु यद्यपि शराबवाले की दूकान जाते हैं, फिर भी मैं उन्हें नित्यानन्द राय (अर्थात शाश्वत आनंद का अवतार,Embodiment of Eternal Bliss-) मानता हूँ  ', यह भाव रखना चाहिए ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — গুরুবাক্যে বিশ্বাস করা উচিত। গুরুর চরিত্র দিকে দেখবার দরকার নাই। ‘যদ্যপি আমার গুরু শুঁড়ি বাড়ি যায়, তথাপি আমার গুরু নিত্যানন্দ রায়।’

MASTER: "A man should have faith in the words of his guru. He doesn't have to look into his guru's character. 'Though, my guru visits the grog-shop, still he is the Embodiment of Eternal Bliss.'

"एक आदमी चण्डी भागवत सुनाता था । उसने कहा, झाडू स्वयं तो अस्पृश्य है, परन्तु स्थान को पवित्र करता है ।"

[“একজন চন্ডী ভাগবত শোনাতো। সে বললে, ঝাড়ু অস্পৃশ্য বটে কিন্তু স্থানকে শুদ্ধ করে।”

"A man who used to give recitals of the Chandi and the Bhagavata once said, 'A broomstick is itself unclean, but it cleans dirty places.'"

महिमाचरण वेदान्त की चर्चा किया करते हैं । उद्देश्य ब्रह्मज्ञान है । उन्होंने ज्ञानी का मार्ग ग्रहण किया है और सदा ही विचार करते रहते हैं ।

[মহিমাচরণ বেদান্তচর্চা করেন। উদ্দেশ্য ব্রহ্মজ্ঞান। জ্ঞানীর পথ অবলম্বন করিয়াছেন ও সর্বদা বিচার করেন।

Mahimacharan studied the Vedanta. His aim was to attain Brahmajnana. He followed the path of knowledge and was always reasoning.

श्रीरामकृष्ण - (महिमा से) - ज्ञानी का उद्देश्य है, वह स्वरूप को समझे; यही ज्ञान है और इसे ही मुक्ति कहते हैं । परब्रह्म जो हैं, वे ही सब के स्वरूप हैं । मैं और परब्रह्म दोनों एक ही सत्ता हैं । माया समझने नहीं देती ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (মহিমার প্রতি) — জ্ঞানীর উদ্দেশ্য স্ব-স্বরূপকে জানা; এরই নাম জ্ঞান, এরই নাম মুক্তি। পরমব্রহ্ম, ইনিই নিজের স্বরূপ। আমি আর পরমব্রহ্ম এক, মায়ার দরুন জানতে দেয় না।

MASTER (to Mahima): "The aim of the jnani is to know the' nature of his own Self. This is Knowledge; this is liberation. The true nature of the Self is that It is the Supreme Brahman: I and the Supreme Brahman are one. But this Knowledge is hidden on account of maya.

हरीश से मैंने कहा, 'और कुछ नहीं - सोने पर कुछ टोकरी मिट्टी पड़ गयी है, उसी मिट्टी को निकाल देना है ।'

[“হরিশকে বললুম, আর কিছু নয়, সোনার উপর ঝোড়া কতক মাটি পড়েছে, সেই মাটি ফেলে দেওয়া।"

I said to Harish, 'This is the whole thing: the gold is hidden under a few basketfuls of earth, and you must remove the earth.'

[ November 9, 1884;  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-102 ] 

🔆🙏श्री तोतापुरी पद्धति -'मन (अहं) को बुद्धि में लीन करो और बुद्धि को आत्मा में'🔆🙏

“भक्तगण ‘मैं’ रखते हैं, ज्ञानी नहीं रखते । किस तरह स्वरूप में रहना चाहिए, 'न्यांगटा' (तोतापुरी) इसका उपदेश देता था, कहता था, 'मन को बुद्धि में लीन करो और बुद्धि को आत्मा में, तब स्वरूप में रह सकोगे ।’

[“ভক্তেরা ‘আমি’ রাখে, জ্ঞানীরা রাখে না। কিরূপে স্ব-স্বরূপে থাকা যায় ন্যাংটা উপদেশ দিত, — মন বুদ্ধিতে লয় কর, বুদ্ধি আত্মাতে লয় কর, তবে স্ব-স্বরূপে থাকবে।

"The bhaktas retain 'I-consciousness'; the jnanis do not. Nangta used to teach how to establish oneself in the true Self, saying, 'Merge the mind in the buddhi and the buddhi in the Atman; then you will be established in your true Self.'

 [ November 9, 1884;  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-102 ]

🔆🙏जलपूर्ण कुम्भ ही ~ 'मैं' रूपी कुम्भ है।🔆🙏 

"परन्तु 'मैं' रहेगा ही, वह नहीं जाता । जैसे अनन्त जल राशि, ऊपर-नीचे, सामने-पीछे, दाहिने-बायें पानी भरा हुआ है । उसी जल के भीतर एक जलपूर्ण कुम्भ है । 'मैं' रूपी कुम्भ ।

[जल में कुंभ कुंभ में जल है , बाहर भीतर पानी। 

फूटा कुंभ जल जल ही समाया , यही तथ्य कथ्यो ज्ञानी।।

 [ आत्मा (अहं नहीं) -परमात्मा दो नहीं एक हैं – आत्मा परमात्मा में और परमात्मा आत्मा में विराजमान है।  अंतत: परमात्मा की ही सत्ता है –  जब देह विलीन होती है – वह परमात्मा का ही अंश हो जाती है – उसी में समा जाती है।  एकाकार हो जाती है। -- दास कबीर ] 

“কিন্তু ‘আমি’ থাকবেই থাকবে; যায় না। যেমন অনন্ত জলরাশি, উপরে নিচে, সম্মুখে পিছনে, ডাইনে বামে, জল পরিপূর্ণ! সেই জলের মধ্যে একটি জলপূর্ণ কুম্ভ আছে। ভিতরে বাহিরে জল, কিন্তু তবু ও কুম্ভটি আছে। ‘আমি’ রূপ কুম্ভ।”

"But the 'I' persists. It cannot be got rid of. Imagine a limitless expanse of water: above and below, before and behind, right and left, everywhere there is water. In that water is placed a jar filled with water. There is water inside the jar and water outside, but the jar is still there. The 'I' is the jar.

 [ November 9, 1884;  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-102 ]

🔆🙏कालीबाड़ी पर वज्रपात  -  ज्ञानाग्नि में कामादि रिपु दग्ध हो जाते हैं 🔆🙏

"ज्ञानी का शरीर ज्यों का त्यों ही रहता है; [=ईश्वरकोटि के ब्रह्मविद नेता का शरीर आत्म- साक्षात्कार के बाद भी ज्यों का त्यों ही रहता है।]; परन्तु इतना होता है कि ज्ञानाग्नि में कामादि रिपु दग्ध हो जाते हैं । कालीमन्दिर में बहुत दिन हुए आँधी और पानी दोनों एक साथ आये, फिर मन्दिर पर बिजली गिरी । हम लोगों ने जाकर देखा, कपाट ज्यों के त्यों ही थे, नुकसान नहीं हुआ था, परन्तु स्क्रू जितने थे उनका सिर टूट गया था । कपाट मानो शरीर है और कामादि आसक्तियाँ जैसे स्क्रू ।

[“জ্ঞানীর শরীর যেমন তেমনই থাকে; তবে জ্ঞানাগ্নিতে কামাদিরিপু দগ্ধ হয়ে যায়। কালীবাড়িতে অনেকদিন হল ঝড়-বৃষ্টি হয়ে কালীঘরে বজ্রপাত হয়েছিল। আমরা গিয়ে দেখলাম, কপাটগুলির কিছু হয় নাই; তবে ইস্ক্রুগুলির মাথা ভেঙে গিছিল। কপাটগুলি যেন শরীর, কামাদি আসক্তি যেন ইস্ক্রুগুলি।

"Even after attaining Knowledge, the jnani keeps his body as before. But the fire of Knowledge burns away his lust and other passions. Many days ago, during an electric storm, a thunderbolt struck the Kali temple. We saw that no injury had been done to the doors; only the points of the screws were broken. The doors are the body, and the passions — lust and so forth — are the screws.

“ज्ञानी केवल ईश्वर की बात चाहता है । विषय की बातें होने पर उसे बड़ा कष्ट होता है । विषयी और दर्जे के हैं । उनकी अविद्या की पगड़ी नहीं उतरती; इसीलिए घूम घामकर वही विषय की बात ले आते हैं ।

[“জ্ঞানী কেবল ঈশ্বরের কথা ভালবাসে। বিষয়ের কথা হলে তার বড় কষ্ট হয়। বিষয়ীরা আলাদা লোক। তাদের অবিদ্যা-পাগড়ি খসে না। তাই ফিরে-ঘুরে ওই বিষয়ের কথা এনে ফেলে।

"A jnani loves to talk only about God. He feels pained if one talks about worldly things. But a worldly man belongs to a different class. He always has the turban of ignorance on his head. He always comes back to worldly topics.

"वेदों में सप्त भूमियों की बातें हैं, पंचम भूमि पर जब ज्ञानी चढ़ता है, तब ईश्वरी बात के सिवा न तो कुछ और सुन सकता है, न कह सकता है; तब उसके मुँह से केवल ज्ञान का उपदेश निकलता है ।" 

[इन सब शब्दों में क्या विवेकानन्द के गुरु श्री रामकृष्ण अपनी ही दशा का वर्णन तो नहीं कर रहे हैं?] 

[“বেদেতে সপ্তভূমির কথা আছে। পঞ্চমভূমিতে যখন জ্ঞানী উঠে, তখন ঈশ্বরকথা বই শুনতেও পারে না, আর বলতেও পারে না। তখন তার মুখ থেকে কেবল জ্ঞান উপদেশ বেরোয়।” এই সমস্ত কথায় শ্রীরামকৃষ্ণ কি নিজের অবস্থা বর্ণনা করিতেছেন? ঠাকুর আবার বলিতেছেন — 

"The Vedas speak of the 'seven planes' of mind. When the jnani's mind ascends to the fifth plane, he cannot listen to anything or talk of anything but God. At that stage only words of wisdom come from his lips.

[ November 9, 1884;  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-102 ] 

🔆🙏 'विवेकज ज्ञान' ~ ब्रह्म न एक है, न दो, एक और दो के बीच में है🔆🙏

"वेदों में सच्चिदानन्द ब्रह्म की बात है । ब्रह्म न एक है, न दो, एक और दो के बीच में है । उसे न तो कोई अस्ति कह सकता है, न नास्ति । वह अस्ति और नास्ति के बीच की वस्तु है।

[“বেদে আছে ‘সচ্চিদানন্দ ব্রহ্ম।’ ব্রহ্ম একও নয়, দুইও নয়। এক-দুয়ের মধ্যে। অস্তিও বলা যায় না, নাস্তিও বলা যায় না। তবে অস্তি-নাস্তির মধ্যে।”

"The Vedas speak of Satchidananda Brahman. Brahman is neither one nor two; It is between one and two. It cannot be described either as existence or as non-existence; It is between existence and non-existence.

[ November 9, 1884;  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-102 ] 

🔆🙏 वैधी से नहीं ,रागभक्ति (passionate love) से ईश्वर प्राप्ति होती है 🔆🙏   

“राग भक्ति ^* के आने पर अर्थात् ईश्वर पर आवेशपूर्ण प्यार (passionate love) होने पर मनुष्य उन्हें (ब्रह्म श्रीरामकृष्ण को)  पाता है । वैधी भक्ति जिस तरह होती है, उसी तरह चली भी जाती है। इतना जप करना है, इतना ध्यान करना है, इतना याग यज्ञ और होम करना है, इन उपचारों से पूजा करनी है, पूजा के समय इन मन्त्रों का पाठ करना है, ये सब वैधी भक्ति के लक्षण हैं । यह होती है जैसे, जाती भी है वैसे ही । कितने आदमी कहते हैं, 'अरे भाई, कितना हविष्यान्न किया, कितनी बार घर में पूजा की, परन्तु क्या हुआ ?"

[শ্রীরামকৃষ্ণ — রাগভক্তি এলে, অর্থাৎ ঈশ্বরে ভালবাসা এলে তবে তাঁকে পাওয়া যায়। বৈধীভক্তি হতেও যেমন যেতেও তেমন। এত জপ, এত ধ্যান করবে, এত যাগ-যজ্ঞ-হোম করবে, এই এই উপচারে পূজা করবে, পূজার সময় এই এই মন্ত্র পাঠ করবে — এই সকলের নাম বৈধীভক্তি। হতেও যেমন, যেতেও তেমন! কত লোকে বলে, আর ভাই, কত হবিষ্য করলুম, কতবার বাড়িতে পূজা আনলুম, কিন্তু কি হল?

"When the devotee develops raga-bhakti, passionate love of God, he realizes Him. But one loses vaidhi-bhakti, formal devotion, as easily as one gains it. This is formal devotion: so much japa, so much meditation, so much sacrifice and homa, so many articles of worship, and the recitation of so many mantras before the Deity. Such devotion comes in a moment and goes in a moment. Many people say: 'Well, friend, we have lived on havishya for so many days! How many times we have worshipped the Deity at our home! And what have we achieved?'

[भक्ति शब्द की व्युत्पत्ति 'भज्' धातु से हुई है, जिसका अर्थ 'भजना' या सेवा करना है। अर्थात् भक्ति, भजन है। किसका भजन करना है ? ब्रह्म का, महान् का। महान् वह है जो एक होता हुआ भी अनेक का शासक, कर्मफलप्रदाता तथा भक्तों की आवश्यकताओं को पूर्ण करनेवाला काली का अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण है। {ईश्वर पर  “राग भक्ति" अर्थात गुरु विवेकानन्द  पर 12 जनवरी , 1985 वाला  आवेशपूर्ण प्यार (=passionate love !!) विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर परम्परा में पूर्वजन्म की कमाई होती है।`विवेकानन्द के ऊपर मेरा 12 जनवरी , 1985 वाला आवेशपूर्ण प्यार, रजत का और गजानन को भी हुआ है।विवेकानन्द के फोटो के आलावा कोई फोटो नहीं रहेगा ! ' यह होने पर मनुष्य उन्हें (1986 के कुम्भ मेला में) दीवाना के जैसा खोजता है , फिर 14 अप्रैल , 1992 में मृत्यु को सामने देखकर भी बिना भयभीत हुए जब ठान लेता है कि, यदि मैं (आत्मा) ही शिव है तो अभी मरेगा कौन ?....नामरूपात्मक विश्व-ब्रह्माण्ड का प्रलय। ..... तब ब्रह्म श्रीरामकृष्ण को  पाता है।} 

[ November 9, 1884;  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-102 ] 

🔆🙏🔆🙏 🔆🙏राग भक्ति का होना पूर्व जन्म की कमाई है !🔆🙏 🔆🙏🔆🙏

रागभक्ति का कभी पतन नहीं होता । रागभक्ति उन्हें होती है जिनका बहुत सा काम पूर्व जन्म से किया हुआ है;  अथवा जो लोग नित्य-सिद्ध (जैसे विवेकानन्द) हैं । जैसे किसी गिरी हुई इमारत का ढेर साफ करते हुए लोगों को एक नलदार फव्वारा मिल गया । उसके ऊपर मिट्टी और सुरखी पड़ी हुई थी, ज्योंही सब कूड़ा हटा दिया गया कि जोरों से पानी निकलने लगा ।

[“রাগভক্তির কিন্তু পতন নাই! কাদের রাগভক্তি হয়? যাদের পূর্বজন্মে অনেক কাজ করা আছে। অথবা যারা নিত্যসিদ্ধ। যেমন একটা পোড়ো বাড়ির বনজঙ্গল কাটতে কাটতে নল-বসানো ফোয়ারা একটা পেয়ে গেল! মাটি-সুরকি ঢাকা ছিল; যাই সরিয়ে দিলে অমনি ফরফর করে জল উঠতে লাগল!

But there is no falling away from raga-bhakti. And who gets this passionate love for God? Those who have performed many meritorious deeds in their past births, or those who are eternally perfect. Think of a dilapidated house, for instance: while clearing away the undergrowth and rubbish one suddenly discovers a fountain fitted with a pipe. It has been covered with earth and bricks, but as soon as they are removed the water shoots up.

[ November 9, 1884;  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-102 ] 

 🔆🙏खानदानी किसान अर्थात निरन्तर विवेक-प्रयोग करने में सक्षम नेता🔆🙏 

"जिन्हें रागभक्ति होती है, वे यह बात नहीं कहते कि भाई इतना हविष्यान्न ^*  किया, परन्तु कहीं कुछ न हुआ । जो लोग पहले पहल किसानी करते हैं, अगर उपज नहीं होती तो वे किसानी छोड़ देते हैं। [खानदानी किसान ] जिसके पुश्त-दरपुश्त से खेती हो रही है, वह यह काम नहीं छोड़ता, चाहे दो-एक बार पैदावार अच्छी न भी हो । वे जानते है कि खेती से ही उनका जीवन-निर्वाह होगा।

[हविष्यान्न ^* विशिष्ट सात्विक भोजन~ आहार  शुद्धौ  सत्त्व  शुद्धिः  सत्त्व शुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः।  ('सत्त्व' ^ अर्थात सत्ता से युक्त होने की अवस्था या भाव। अस्तित्व। प्रकृति का वह गुण जो हमें अच्छे कर्मों की ओर प्रवृत्त करता है।)'आहार की शुद्धि से सत्त्व ^ की शुद्धि होती है। सत्त्व की शुद्धि से बुद्धि निर्मल और निश्चयी बन जाती है। पवित्र और दृढ़ निश्चयी बुद्धि से मुक्ति (अहं और आत्मा के भ्रम से मुक्ति) भी सुलभता से प्राप्त होती है।' -अर्थात आहार शुद्ध होने से बुद्धि (विवेक) शुद्ध होती और निरन्तर विवेक-प्रयोग करते रहने से ही स्मरण शक्ति अर्थात वैचारिक एकाग्रता (conceptual concentration ~ शिवोहं की भावना) अत्यंत प्रबल बलवान हो जाती है। स्मृति लम्भे सर्व ग्रन्थीनां विप्र मोक्षः।। [Chandogya Upanishad 7.26.2] इसी वैचारिक एकाग्रता की प्राप्ति होने पर विप्र अर्थात विवेक-प्रयोग विधि के विशिष्ट जानकर संपूर्ण ग्रंथियों से मुक्त हो जाते हैं। वह ग्रंथि चाहे शारीरिक और मानसिक हो या आध्यात्मिक अथवा जीव-ब्रह्म नामक ग्रंथि हो। इसीलिए 'विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर Be and Make परम्परा ' के युवा प्रशिक्षण शिविर में एक दिन गाय का दूध, घी, गुड़ , सेंधा नमक, काली मिर्च, जीरा, मेवा, ताजे फल एवं देवता का नैवेद्य (प्रसाद) हविष्यान्न के रूप में परोसा जाता है। अतः पूजा, पाठ एवं व्रत में एक बार यह  हविष्यान्न अवश्य  ग्रहण करना चाहिए। ]   

[“যাদের রাগভক্তি তারা এমন কথা বলে না, ‘ভাই, কত হবিষ্য করলুম — কিন্তু কি হল!’ যারা নূতন চাষ করে তাদের যদি ফসল না হয়, জমি ছেড়ে দেয়। খানদানি চাষা ফসল হোক আর না হোক, আবার চাষ করবেই। তাদের বাপ-পিতামহ চাষাগিরি করে এসেছে, তারা জানে যে চাষ করেই খেতে হবে।

"Those who have passionate love for God do not say any such thing as: 'O brother, how strict I have been about food! But what have I achieved?' New farmers give up cultivating if their fields do not yield any crops. But hereditary farmers will continue to cultivate their fields whether they get a crop or not. Their fathers and grandfathers were farmers; they know that they too must accept farming as their means of livelihood.

[ November 9, 1884;  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-102 ] 

🔆🙏जिसमें रागभक्ति (आवेशपूर्ण प्रेम) जग जरती है, उसका भार माँ लेती हैं🔆🙏    

"जिनमें रागभक्ति है, उनका भाव आन्तरिक है, उनका भार ईश्वर लेते हैं । अस्पताल में नाम लिखाने पर जब तक रोगी अच्छा नहीं हो जाता तब तक डाक्टर छोड़ता नहीं । ईश्वर जिन्हें पकड़े हुए हैं उनके लिए किसी भय की बात नहीं । खेत की मेंड़ पर से चलते हुए जो लड़का अपने बाप का हाथ पकड़े रहता है, वह चाहे भले ही गिर जाय - सम्भव है वह किसी दूसरे ख्याल में डूबकर बाप का हाथ छोड़ दे, परन्तु जिस लड़के को बाप खुद पकड़े रहता है, वह कभी नहीं गिर सकता।

“যাদের রাগভক্তি, তাদেরই আন্তরিক। ঈশ্বর তাদের ভার লন। হাসপাতালে নাম লেখালে — আরাম না হলে ডাক্তার ছাড়ে না। “ঈশ্বর যাদের ধরে আছেন তাদের কোন ভয় নাই। মাঠের আলের উপর চলতে চলতে যে ছেলে বাপকে ধরে থাকে সে পড়লেও পড়তে পারে — যদি অন্যমনস্ক হয়ে হাত ছেড়ে দেয়। কিন্তু বাপ যে ছেলেকে ধরে থাকে সে পড়ে না।”

"Only those who have developed raga-bhakti for God may be called His sincere devotees. God becomes responsible for them. If you enter your name in a hospital register, the doctor will not discharge you until you are cured. Those who are held by God have nothing to fear. The son who holds to his father, while walking along the narrow ridge of a paddy-field, may slip if he absent-mindedly lets go his father's hand; but if the father holds the son by the hand, there is no such danger.

[ November 9, 1884;  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-102 ] 

🔆🙏 साकार, निराकार, राम, कृष्ण, भगवती -हनुमान सब पर विश्वास 🔆🙏

[রাগভক্তি হলে কেবল ঈশ্বরকথা — সংসারত্যাগ ও গৃহস্থ ]

"विश्वास ^* से क्या नहीं हो सकता ? जो सच्चे मार्ग पर है, वह सब पर विश्वास करता है - साकार, निराकार, राम, कृष्ण, भगवती - सब पर ।

[“বিশ্বাসে কি না হতে পারে? যার ঠিক, তার সব তাতে বিশ্বাস হয়, — সাকার-নিরাকার, রাম, কৃষ্ণ, ভগবতী।

"Is there anything that is impossible for faith? And a true devotee has faith in everything: the formless Reality, God with form, Rama, Krishna, and the Divine Mother.

"उस देश (कामरपुकुर) में मैं जा रहा था, एकाएक रास्ते में आँधी और पानी एक साथ आये । बीच मैदान में डाकुओं का भी भय था । तब मैंने सब कुछ कह डाला - राम, कृष्ण, भगवती, फिर मैंने हनुमानजी की याद की ! अच्छा मैंने सभी देव मूर्तियों का नाम लिया, इसका क्या अर्थ है?

[“ও-দেশে যাবার সময় রাস্তায় ঝড়-বৃষ্টি এলো। মাঠের মাঝখানে আবার ডাকাতের ভয়। তখন সবই বললুম — রাম, কৃষ্ণ, ভগবতী; আবার বললুম, হনুমান! আচ্ছা সব বললুম — এর মানে কি?

"Once, while, going to Kamarpukur, I was overtaken by a storm. I was in the middle of a big meadow. The place was haunted by robbers. I began to repeat the names of all the deities: Rama, Krishna, and Bhagavati. I also repeated the name of Hanuman. I chanted the names of them all. What does that mean? 

“बात यह है जब कि नौकर या नौकरानी बाजार करने को पैसे लेती है तब हर चीज के पैसे अलग अलग लेती है, कहती है - ये आलू के पैसे हुए, ये बैंगन के, ये मछली के, इस तरह सब पैसे अलग अलग लेती है । सब हिसाब करके फिर पैसे मिला देती है ।

[“কি জানো, যখন চাকর বা দাসী বাজারের পয়সা লয় তখন বলে বলে লয়, এটা আলুর পয়সা, এটা বেগুনের পয়সা, এগুলো মাছের পয়সা। সব আলাদা। সব হিসাব করে লয়ে তারপর দেয় মিশিয়ে।

Let me tell you. While the servant is counting out the money to purchase supplies, he says, These pennies are for potatoes, these for egg-plants, these for fish.' He counts the money separately, but after the list is completed, he puts the coins together.

[ "विश्वास - विश्वास अपने-आप पर विश्वास , ईश्वर के ऊपर विश्वास -साकार, निराकार, राम, कृष्ण, भगवती - हनुमान सब पर विश्वास । यही उन्नति करने का एकमात्र उपाय है। 'तुम जो कुछ सोचोगे, तुम वही हो जाओगे ; 'तूँ जउन सोंच लेब, -चाह लेब; उ हो जाई! विश्वास से का ना हो सकेला?']  

[ November 9, 1884;  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-102 ] 

🔆🙏विवेकानन्द से सच्चा प्यार होने पर केवल ठाकुर,माँ स्वामीजी की चर्चा सुहाती है🔆🙏 

"ईश्वर पर प्यार होने पर केवल उन्हीं की बात कहने को जी चाहता है । जो जिससे सच्चा प्यार  करता है (passionate love-जुनूनी प्यार करता है।), उसे केवल उसी के विषय में बातें करना और सुनना अच्छा लगता है । 

[“ঈশ্বরের উপর ভালবাসা এলে কেবল তাঁরই কথা কইতে ইচ্ছা করে। যে যাকে ভালবাসে তার কথা শুনতে ও বলতে ভাল লাগে।

"When one develops love of God, one likes to talk only of God. If you love a person, you love to talk and hear about him.

[ November 9, 1884;  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-102 ] 

🔆🙏सांसारिक गृहस्थ और सद्गृहस्थ (आध्यात्मिक व्यक्ति) में अन्तर 🔆🙏

संसारी आदमियों (सामान्य गृहस्थ जो आध्यात्मिक नहीं हैं) के मुँह से अपने बच्चे की बातें करते हुए लार टपक पड़ती है । अगर कोई उसके बच्चे की तारीफ करता है तो वह अपने बच्चे से उसी समय कहता है, अरे देख अपने चाचा को पैर धोने के लिए पानी तो ले आ ।

[“সংসারী লোকদের ছেলের কথা বলতে বলতে লাল পড়ে। যদি কেউ ছেলের সুখ্যাত করে তো অমনি বলবে, ওরে তোর খুড়োর জন্য পা ধোবার জল আন।

A worldly person's mouth waters while he talks about his son. If someone praises his son, he will at once say to the boy, 'Go and get some water for your uncle to wash his feet.'

"कबूतरों पर जिनकी रुचि है, उनके पास कबूतरों की तारीफ करो तो खुश हो जाते है । अगर कोई उनकी निन्दा करता है, तो वह कहता है, तुम्हारे बाप-दादे ने भी कभी कबूतरों को पाला है?

[“যারা পায়রা ভালবাসে, তাদের কাছে পায়রার সুখ্যাত করলে বড় খুশি। যদি কেউ পায়রার নিন্দা করে, তাহলে বলে উঠবে, তোর বাপ-চৌদ্দ পুরুষ কখন কি পায়রার চাষ করেছে?”

"Those who love pigeons are highly pleased if you praise pigeons before them. But if you speak ill of pigeons, they will at once exclaim, 'Has anyone in your line for fourteen generations ever raised pigeons?'"

[ November 9, 1884;  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-102 ] 

🔆🙏चाहे आप झोपड़ी में रहते हों, या महल में-आप आध्यात्मिक हो सकते हैं🔆🙏 

ठाकुर महिमाचरण को समझा रहे हैं। क्योंकि महिमा संसारी व्यक्ति हैं। 

[क्योंकि 47 वर्ष बाद इन्हीं के 100 नंबर काशीपुर रोड वाले मकान में महामण्डल के संस्थापक सचिव नवनीदा का जन्म होने वाला है, इसीलिए महिमाचरण जी नाम-यश में आसक्त एक धनी और विद्वान् सामन्य संसारी गृहस्थ की भूमिका में हैं।  फॉर कोर बैंकिंग ओल्ड or new ईमेल पुराना ? पासवर्ड ?जो गृहस्थ आध्यात्मिक नहीं है, सांसारिक है वह अपने मुर्ख बच्चे के मोह में किसी-को भी धोखा दे सकता है। में क्या अंतर है? उससे हमेशा सावधान रहो जो एकबार धोखा दे सकता है, वह मेरा कौन है ? उसमें भी ठाकुर हैं, वह अपना रोल कर रहा है, मैं उसका दास हूँ   

[ঠাকুর মহিমাচরণকে বলিতেছেন। কেননা মহিমা সংসারী।

Sri Ramakrishna now addressed Mahimacharan, who was a householder.

(महिमाचरण से) "संसार को एकदम छोड़ देने की क्या जरूरत है ? आसक्ति के जाने ही से हुआ, परन्तु साधना चाहिए । इन्द्रियों के साथ लड़ाई करनी पड़ती है। 

[শ্রীরামকৃষ্ণ (মহিমার প্রতি) — সংসার একেবারে ত্যাগ করবার কি দরকার? আসক্তি গেলেই হল। তবে সাধন চাই। ইন্দ্রিয়দের সঙ্গে যুদ্ধ করতে হয়।

MASTER: "What need is there of renouncing the world altogether? It is enough if you can rid yourself of attachment. But you must have sadhana; you have to fight the sense-organs.

“किले के भीतर से लड़ने में और सुविधाएँ हैं । वहीं बड़ी सहायता मिलती है । संसार भोग की जगह है । एक-एक चीज का भोग करके उसी समय उसे छोड़ देना चाहिए । मेरी इच्छा थी कि सोने की करधनी पहनूँ । अन्त में वह मिली भी । मैंने सोने की करधनी पहनी । पहनने के बाद उसे उसी समय खोल डाला ।

[“কেল্লার ভিতর থেকে যুদ্ধ করাই আরও সুবিধা — কেল্লা থেকে অনেক সাহায্য পাওয়া যায়। সংসার ভোগের স্থান, এক-একটি জিনিস ভোগ করে অমনি ত্যাগ করতে হয়। আমার সাধ ছিল সোনার গোট পরি। তা শেষে পাওয়াও গেল, সোনার গোট পরলুম; পরবার পর কিন্তু তৎক্ষণাৎ খুলতে হবে।

"It is a great advantage to fight from inside a fort. You get much help from the fort. The world is the place for enjoyment. After enjoying different things, you should give them up one by one. Once I had a desire to put a gold chain around my waist. I obtained one at last and put it on, but I had to take it off immediately.

 [ November 9, 1884;  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-102 ] 

🔆🙏प्याज राजसिक भोजन है और आध्यात्मिक जीवन के लिए अनुकूल नहीं है🔆🙏

"प्याज खाया और उसी समय विचार करने लगा । कहा, रे मन, यही प्याज है ।' फिर मुँह में एक बार इधर, एक बार उधर, इस तरह चबाकर उसे फेंक दिया ।"

[“পেঁয়াজ খেলুম আর বিচার করতে লাগলুম, — মন, এর নাম পেঁয়াজ। তারপর মুখের ভিতর একবার এদিক-ওদিক, একবার সেদিক করে তারপর ফেলে দিলুম।”

"Once I ate some onion.^ While eating it I discriminated, 'O mind, this is onion.' Then I moved it to different places in my mouth and at last spat it out."

[^The onion is considered a rajasic food and not conducive to spiritual life.]

(३)

[ November 9, 1884;  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-102 ]

🔆🙏संकीर्तनानन्द -संगीत के आनन्द में🔆🙏

आज एक गानेवाले आयेंगे, अपनी मण्डली के साथ कीर्तन करेंगे । श्रीरामकृष्ण बार बार अपने शिष्यों से पूछ रहे हैं, 'कीर्तनिया (musician या संगीतज्ञ) कहाँ है ?' 

[আজ একজন গায়ক আসবে, সম্প্রদায় লইয়া কীর্তন করিবে। ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ মাঝে মাঝে ভক্তদের জিজ্ঞাসা করিতেছেন, কই কীর্তন কই?

A musician was expected. He was to sing with his party. Sri Ramakrishna asked the devotees every now and then, "Where is the musician?"

महिमाचरण ने कहा, "हम लोग ऐसे ही अच्छे हैं ।"

[মহিমা বলিতেছেন — আমরা বেশ আছি। 

MAHIMA: "We are quite all right as we are."

श्रीरामकृष्ण - नहीं जी, हम लोगों का मिलना तो बारहों महीने लगा है ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — না গো, এতো আমাদের বারমাস আছে।

MASTER: "No, sir. You get this all through the year."

बाहर से किसी ने कहा, "कीर्तनिया आ गया ।"

[নেপথ্যে একজন বলিতেছেন, ‘কীর্তন এসেছে।’

A devotee outside the room said, "The musician has come."

श्रीरामकृष्ण ने आनन्द के उच्छ्वास में इतना ही कहा - "क्या आ गया ?"

[শ্রীরামকৃষ্ণ আনন্দে পূর্ণ হয়ে কেবল বললেন, “অ্যাঁ, এসেছে?”

Sri Ramakrishna was filled with joy and said, "Ah! Has he?"

कमरे के दक्षिण-पूर्व के लम्बे बरामदे में शतरंजी बिछायी गयी । श्रीरामकृष्ण ने कहा - "इस पर थोड़ा सा गंगाजल छिड़क देना । न जाने कितने विषयी मनुष्यों ने इसे रौंदा है ।”

[ঘরের দক্ষিণ-পূর্বে লম্বা বারান্দায় মাদুর পাতা হইল। শ্রীরামকৃষ্ণ বলিতেছেন, “গঙ্গাজল একটু দে, যত বিষয়ীরা পা দিচ্ছে।”

Mats were spread on the floor of the long verandah northeast of the Master's room. Sri Ramakrishna said: "Sprinkle a little Ganges water on the mats. Many worldly people have sat on them."

बाली के प्यारी बाबू की स्त्रियाँ और लड़कियाँ काली का दर्शन करने के लिए आयी हुई हैं । कीर्तन होने का आयोजन देखकर उन्हें भी सुनने की इच्छा हुई । एक ने श्रीरामकृष्ण से आकर कहा, 'वे सब पूछती हैं - क्या कमरे में जगह होगी ? क्या वे भी बैठें ?" श्रीरामकृष्ण कीर्तन सुनते हुए ही कह रहे हैं - 'नहीं नहीं, जगह कहाँ है ?' 

[বালীনিবাসী প্যারীবাবুর পরিবারেরা ও মেয়েরা কালীমন্দির দর্শন করিতে আসিয়াছে, কীর্তন হইবার উদ্যোগ দেখিয়া তাহাদের শুনিবার ইচ্ছা হইল। একজন ঠাকুরকে আসিয়া বলিতেছে, “তারা জিজ্ঞাসা করছে ঘরে কি জায়গা হবে, তারা কি বসতে পারে?” ঠাকুর কীর্তন শুনিতে শুনিতে বলিতেছেন, “না, না।” (অর্থাৎ ঘরে) জায়গা কোথায়?

The ladies of Pyari Babu's family, from Bali, had come to visit the temples. They wanted to listen to the kirtan. A devotee said to Sri Ramakrishna: "These ladies have been inquiring whether there would be any place in the room for them. Can they have seats?" The kirtan had already begun. The Master said, "No, no! Where is any room here?"

इसी समय नारायण ^* आये और उन्होंने श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया ।

[এমন সময় নারায়ণ আসিয়া উপস্থিত হইলেন ও ঠাকুরকে প্রণাম করিলেন।

Narayan arrived and saluted Sri Ramakrishna. 

[नारायण (Narayan)^* - कलकत्ता के एक ब्राह्मण परिवार के सन्तान थे । ठाकुर उनके सरल और पवित्र स्वभाव के कारण उन्हें बहुत प्यार करते थे। नारायण श्रीरामकृष्ण वचनामृत के रचयिता श्री महेंद्रनाथ गुप्त के छात्र थे। वे अपने परिवार के कड़े विरोध के बावजूद शारीरिक यातना सहकर भी ठाकुर के पास दक्षिणेश्वर आया करते थे। घर में नारायण को मिलने वाली शारीरिक प्रताड़ना का दर्द ठाकुर को अपने जैसा अनुभव होता था। कम उम्र में ही नारायण का निधन हो गया था।]

श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं, 'तू क्यों आया ? घरवालों ने तुझे इतना मारा !'नारायण श्रीरामकृष्ण के कमरे की ओर जा रहे थे; श्रीरामकृष्ण ने बाबूराम को इशारे से कह दिया - इसे खाने के लिए देना।

[ঠাকুর বলিতেছেন, “তুই কেন এসেছিস? অত মেরেছে — তোর বাড়ির লোক।” নারাণ ঠাকুরের ঘরের দিকে যাইতেছেন দেখিয়া ঠাকুর বাবুরামকে ইঙ্গিত করিলেন, “ওকে খেতে দিস।”

The latter said tenderly: "Why have you come? Your people at home have beaten you so much!" He signed to Baburam to give Narayan something to eat. 

नारायण कमरे के अन्दर गये । एकाएक श्रीरामकृष्ण ने उठकर कमरे में प्रवेश किया, नारायण को अपने हाथों भोजन करायेंगे । खिलाने के बाद फिर वे कीर्तन में आकर बैठे ।

[নারাণ ঘরের মধ্যে গেলেন। হঠাৎ ঠাকুর উঠিয়া ঘরে প্রবেশ করিলেন। নারাণকে নিজের হাতে খাওয়াইবেন। খাওয়াইবার পর আবার কীর্তনের স্থানে আসিয়া বসিলেন।

Narayan entered the Master's room. Suddenly Sri Ramakrishna followed him. He wanted to feed Narayan with his own hands. Afterwards he returned to the verandah.

(४)

[ November 9, 1884;  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-102 ]

🔆🙏 भक्तों के साथ संकीर्तनानन्द में श्रीरामकृष्ण🔆🙏  

बहुत से भक्त आये हुए है, श्रीयुत विजय गोस्वामी, महिमाचरण, नारायण, अधर, मास्टर, छोटे गोपाल आदि । राखाल, बलराम इस समय वृन्दावन में है । दिन के ३-४ बजे का समय होगा । श्रीरामकृष्ण बरामदे में कीर्तन सुन रहे हैं, पास में नारायण आकर बैठे । चारों ओर दूसरे भक्त बैठे हुए हैं । इसी समय अधर आये । अधर को देखकर श्रीरामकृष्ण में कुछ उद्दीपना हो गयी । अधर के प्रणाम करके आसन ग्रहण करने पर श्रीरामकृष्ण ने उन्हें और निकट बैठने के लिए इशारा किया ।

[অনেক ভক্তেরা আসিয়াছেন। শ্রীযুক্ত বিজয় গোস্বামী, মহিমাচরণ, নারায়ণ, অধর, মাস্টার, ছোট গোপাল ইত্যাদি। রাখাল, বলরাম তখন শ্রীবৃন্দাবনধামে আছেন।বেলা ৩-৪টা বাজিয়াছে। ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ বারান্দায় কীর্তন শুনিতেছেন। কাছে নারাণ আসিয়া বসিলেন। অন্যান্য ভক্তেরা চতুর্দিকে বসিয়া আছেন।

Many devotees were present, including Vijay, Mahimacharan, Narayan, M., and the younger Gopal. Soon Narayan came back to the verandah and took his seat by the Master. About three o'clock Adhar arrived. At the sight of him Sri Ramakrishna appeared excited. The devotee saluted the Master and sat on the floor. Sri Ramakrishna beckoned to him to come nearer.

कीर्तनियों ने कीर्तन समाप्त किया । सभा उठ गयी । बगीचे में भक्तगण इधर-इधर टहल रहे हैं । कोई कोई काली और राधाकान्तजी की आरती देखने के लिए गये ।

[কীর্তনিয়া কীর্তন সমাপ্ত করিলেন। আসর ভঙ্গ হইল। উদ্যানমধ্যে ভক্তেরা এদিক-ওদিক বেড়াইতেছেন। কেহ কেহ মা কালীর ও রাধাকান্তের মন্দিরে আরতি দর্শন করিতে গেলেন।

When the music was over the gathering of devotees broke up. Some began to stroll in the garden and some went to the temples to watch the evening service.

सन्ध्या के बाद श्रीरामकृष्ण के कमरे में भक्तगण फिर आये । उनके कमरे में कीर्तन का आयोजन फिर होने लगा । उनमें खूब उत्साह है । कहते हैं, एक बत्ती इधर भी देना । दो बत्तियों जला दी गयीं, खूब रोशनी होने लगी । श्रीरामकृष्ण विजय से कह रहे हैं - 'तुम ऐसी जगह क्यों बैठे ? इधर आकर बैठो ।'
[সন্ধ্যার পর ঠাকুরের ঘরে আবার ভক্তেরা আসিলেন। ঠাকুরের ঘরের মধ্যে আবার কীর্তন হইবার উদ্যোগ হইতেছে। ঠাকুরের খুব উৎসাহ, বলিতেছেন যে, “এদিকে একটা বাতি দাও।” ডবল বাতি জ্বালিয়া দেওয়াতে খুব আলো হইল। ঠাকুর বিজয়কে বলিতেছেন, “তুমি অমন জায়গায় বসলে কেন? এদিকে সরে এস।

In the evening arrangements were made for kirtan inside the Master's room. Sri Ramakrishna eagerly asked a devotee to have an extra lamp. The two lamps lit the room brightly. Sri Ramakrishna said to Vijay: "Why are you sitting there? Come nearer to me."

अब की बार कीर्तन खूब जमा । श्रीरामकृष्ण मस्त होकर नृत्य कर रहे हैं । भक्तगण उन्हें घेर-घेरकर खूब नाच रहे हैं । विजय नाचते हुए दिगम्बर हो गये । होश कुछ भी नहीं हैं ।

[এবার সংকীর্তন খুব মাতামাতি হইল। ঠাকুর মাতোয়ারা হইয়া নৃত্য করিতেছেন। ভক্তেরা তাঁহাকে খুব বেড়াইয়া বেড়াইয়া নাচিতেছেন। বিজয় নৃত্য করিতে করিতে দিগম্বর হইয়া পড়িয়াছেন। হুঁশ নাই।

This time the kirtan created an intense atmosphere. The Master danced in an ecstasy of joy; the devotees also danced encircling him. While Vijay was dancing his cloth dropped. He was unconscious.

कीर्तन के बाद विजय चाभी खोज रहे हैं । कहीं गिर गयी है । श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं, "अब भी एक बार 'बोल वृन्दावन बिहारी की जय' होनी चाहिए !" यह कहकर हँस रहे हैं, विजय से और भी कह रहे हैं, "अब यह सब क्यों ?" (अर्थात् अब चाभी के साथ क्यों सम्बन्ध रखते हो ?)

[কীর্তনান্তে বিজয় চাবি খুঁজিতেছেন, কোথায় পড়িয়া গিয়াছে। ঠাকুর বলিতেছেন, “এখানেও একটা হরিবোল খায়।” এই বলিয়া হাসিতেছেন। বিজয়কে আরও বলিতেছেন, “ও সব আর কেন” (অর্থাৎ তার চাবির সঙ্গে সম্পর্ক রাখা কেন)! 

When the music was over, Vijay began to look for his key, which had fallen somewhere. The Master said to him with a laugh, "Why bother about it any more?" He meant that Vijay should have nothing more to do with boxes and keys.

किशोरी प्रणाम करके बिदाई ले रहे हैं । श्रीरामकृष्ण स्नेहार्द्र हो उनकी देह पर हाथ फेरने लगे और बोले, 'अच्छा आओ ।' बातों में करुणा मिली हुई है । कुछ देर बाद मणि और गोपाल ने आकर प्रणाम किया - वे लोग भी चलने वाले हैं । श्रीरामकृष्ण की करुणापूर्ण बातें ! कहा, कल सुबह को उठकर जाना, कहीं ओस लगकर तबीयत न खराब हो जाय ।

[কিশোরী প্রণাম করিয়া বিদায় লইতেছেন। ঠাকুর যেন স্নেহে আর্দ্র হইয়া তাঁহার বক্ষে হাত দিলেন আর বলিলেন, “তবে এসো।” কথাগুলি যেন করুণামাখা। কিয়ৎক্ষণ পরে মণি ও গোপাল কাছে আসিয়া প্রণাম করিলেন — তাঁহারা বিদায় লইবেন। আবার সেই স্নেহমাখা কথা। কথাগুলি হইতে যেন মধু ঝরিতেছে। বলিতেছেন, “কাল সকালে উঠে যেও, আবার হিম লাগবে?”

Kishori saluted Sri Ramakrishna and was about to take his leave. The Master blessed him, touching his chest tenderly, and bade him good-bye. His words were full of love. M. and Gopal saluted the Master. They too were about to take their leave. He said to them with the same affection: "Couldn't you go tomorrow morning? You may catch cold at night."

[ November 9, 1884;  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-102 ]

🔆🙏भक्तों के साथ - भक्ति की बातें🔆🙏 

[ভক্ত সঙ্গে – ভক্ত কথা প্রসঙ্গে ]

मणि और गोपाल फिर नहीं गये । वे आज रात को यहीं रहेंगे । वे तथा और भी दो-एक भक्त जमीन पर बैठे हुए हैं । कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण श्रीयुत राम चक्रवर्ती से कह रहे हैं, "राम, यहाँ एक पाँवपोश और था, क्या हो गया ?''

[মণি এবং গোপালের আর যাওয়া হইল না, তাঁহারা আজ রাত্রে থাকিবেন। তাঁহারা ও আরও ২/১ জন ভক্ত মেঝেতে বসিয়া আছেন। কিয়ৎক্ষণ পরে ঠাকুর শ্রীযুক্ত রাম চক্রবর্তীকে বলিতেছেন, “রাম, এখানে যে আর-একখানি পাপোশ ছিল। কোথায় গেল?”

M. and Gopal decided to spend the night with Sri Ramakrishna. They sat on the floor with a few other devotees.

श्रीरामकृष्ण को दिन भर अवकाश नहीं मिला कि जरा विश्राम करते । भक्तों को छोड़कर जाते भी कहाँ ? अब एक बार बाहर की ओर जाने लगे । कमरे में लौटकर उन्होंने देखा, मणि रामलाल से सुनकर गाना लिख रहे हैं-“तारो तारिणी! एबार त्वरित कोरिये तपन-तनय त्रासित .... ” — इत्यादि।  श्रीरामकृष्ण ने मणि से पूछा, 'क्या लिखते हो ?' गाने का नाम सुनकर कहा, यह तो बहुत बड़ा गाना है ।

[ঠাকুর সমস্ত দিন অবসর পান নাই — একটু বিশ্রাম করিতে পান নাই। ভক্তদের ফেলিয়া কোথায় যাইবেন! এইবার একবার বর্হিদেশে যাইতেছেন। ঘরে ফিরিয়া আসিয়া দেখিলেন যে, মণি রামলালের নিকট গান লিখিয়া লইতেছেন —“তার তারিণি! এবার ত্বরিত করিয়ে তপন-তনয়-ত্রাসিত” — ইত্যাদি। ঠাকুর মণিকে জিজ্ঞাসা করিতেছেন, “কি লিখছো?” গানের কথা শুনিয়া বলিলেন, “এ যে বড় গান।”

Sri Ramakrishna had had no rest the whole day: the devotees had been with him all the time. He went out for a few minutes. Returning to the room he saw M. taking down a song from Ramlal.MASTER: "What are you doing?"M. said that he was writing down a song. On being told what the song was, the Master remarked that it was a rather long song. M. wrote a line or two and then stopped writing.

रात को श्रीरामकृष्ण जरा सी सूजी की खीर और दो-एक पूड़ियाँ खाते हैं । उन्होंने रामलाल से पूछा, 'क्या सूजी है ?’

[রাত্রে ঠাকুর একটু সুজির পায়েস ও একখানি কি দুখানি লুচি খান। ঠাকুর রামলালকে বলিতেছেন, “সুজি কি আছে?”

A little later Sri Ramakrishna took his supper of farina pudding and one or two luchis

गाना दो-एक लाइन लिखकर मणि ने लिखना बन्द कर दिया ।

[গান এক লাইন দু’লাইন লিখিয়া মণি লেখা বন্ধ করিলেন।

श्रीरामकृष्ण जमीन पर बिछे हुए आसन पर बैठकर सूजी की खीर खा रहे हैं ।

[ঠাকুর মেঝেতে আসনে বসিয়া সুজি খাইতেছেন।

भोजन करके आप छोटी खाट पर बैठे । मास्टर खाट की बगल में तख्त पर बैठे हुए श्रीरामकृष्ण से बातचीत कर रहे हैं । नारायण की बात करते हुए श्रीरामकृष्ण को भावावेश हो रहा है ।

[ঠাকুর আবার ছোট খাটটিতে বসিলেন। মাস্টার খাটের পার্শ্বস্থিত পাপোশের উপর বসিয়া ঠাকুরের সহিত কথা কহিতেছেন। ঠাকুর নারায়ণের কথা বলিতে বলিতে ভাবযুক্ত হইতেছেন।

After finishing his supper, Sri Ramakrishna sat on the small couch and M. seated himself on the foot-rug. The Master, talking about Narayan, was overcome with emotion.

श्रीरामकृष्ण - आज नारायण को मैंने देखा ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — আজ নারায়ণকে দেখলুম।

MASTER: "I saw Naran today."

मास्टर - जी हाँ, आँखे डबडबाई हुई थी । उसका मुँह देखकर रुलाई आती थी ।

[মাস্টার — আজ্ঞা হাঁ, চোখ ভেজা। মুখ দেখে কান্না পেল।

M: "Yes, sir. His eyes were moist. When I looked at his face I felt like weeping."

श्रीरामकृष्ण - उसे देखकर वात्सल्य भाव का उद्रेक होता है । यहाँ आता है, इसीलिए घरवाले उसे मारते हैं । उसकी ओर से कहनेवाला कोई नहीं है । [ `कुब्जा तोमाय कू बोझाये, राई पक्षे बुझाये एमोन केउ नाई '  युवा काल से ही धर्मशील रहना या ईश्वर की भक्ति करना बुरा नहीं है, यह कहकर उसका बचाव करने वाला घर में कोई नहीं है ? ]

[শ্রীরামকৃষ্ণ — ওকে দেখলে যেন বাৎসল্য হয়। এখানে আসে বলে ওকে বাড়িতে মারে। ওর হয়ে বলে এমন কেউ নাই। ‘কুব্জা তোমায় কু বোঝায়। রাইপক্ষে বুঝায় এমন কেউ নাই।’

MASTER: "The sight of him arouses a mother's love in me, as it were. His relatives beat him at home because he comes here. There is none to defend him."

मास्टर - (सहास्य) - हरिपद के घर में पुस्तकें रखकर वह यहाँ भाग आया ।

[মাস্টার (সহাস্যে) — হরিপদর বাড়িতে বই রেখে পলায়ন।

M: "The other day he left his books at Haripada's house and fled to you."

श्रीरामकृष्ण - यह अच्छा नहीं किया ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — ওটা ভাল করে নাই।

MASTER: "It was not good for him to do that."

श्रीरामकृष्ण चुप हैं । कुछ देर बाद बोले –"देखो, उसमें (नारायण नामक लड़के में ?) बड़ी शक्ति है । नहीं तो कीर्तन सुनते हुए मुझे क्या कभी आकर्षित भी कर सकता था ? मुझे कमरे के भीतर आना पड़ा । कीर्तन छोड़कर आना - ऐसा कभी नहीं हुआ ।

[ঠাকুর চুপ করিয়াছেন। কিয়ৎক্ষণ পরে কথা কহিতেছেন।শ্রীরামকৃষ্ণ — দেখ, ওর খুব সত্তা। তা না হলে কীর্তন শুনতে শুনতে আমায় টানে! ঘরের ভিতর আমার আসতে হল। কীর্তন ফেলে আসা — এ কখনও হয় নাই।

Sri Ramakrishna was silent. After a few minutes he continued.MASTER: "You see, he has much substance in him. Otherwise, how could I be attracted to him even though I was listening to the kirtan at the time? I had to leave the music and go into the room. That never happened before."

"उससे मैंने भावावेश में पूछा था, उसने एक ही वाक्य में कहा - मैं आनन्द में हूँ । (मास्टर से) तुम उसे कभी कभी कुछ मोल लेकर खिलाया करो - वात्सल्य भाव से ।”

শ্রীরামকৃষ্ণ — ওকে ভাবে জিজ্ঞাসা করেছিলুম। তা এককথায় বললে — “আমি আনন্দে আছি।” (মাস্টারের প্রতি) তুমি ওকে কিছু কিনে মাঝে মাঝে খাইও — বাৎসল্যভাবে।

MASTER: "In an ecstatic state I asked him how he was feeling. He just said he was happy. (To M.) Feed him now and then—as parents do their child."

श्रीरामकृष्ण ने फिर तेजचन्द्र की बात निकाली । (मास्टर से) "एक बार उससे पूछना तो सही, एक शब्द में वह मुझे क्या बतलाता है ? – ज्ञानी या कुछ और सुना, तेजचन्द्र अधिक बातचीत नहीं करता । (गोपाल से) देख, तेजचन्द्र से शनि या मंगल के दिन आने के लिए कहना ।"

[तेजचंद्र [तेजचंद्र मित्र] (1863 - 1912)  वे वे श्री म के छात्र थे और ठाकुर के एक गृहस्थ भक्त थे। तेजचंद्र बोस पाड़ा , बागबजार अंचल के निवासी थे। श्री म की अनुप्रेरणा से उन्हें बचपन में ही श्री श्री ठाकुर का दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था।  श्रीश्री माँ की शरण में आकर वे उनकी कृपा से भी धन्य हुए थे। वे नियमित रूप से जप-ध्यान किया करते थे,और  मितभाषी थे। ठाकुर उन्हें 'शुद्ध आधार' कहा करते थे, और उन्हें अपना सगा मानकर उससे बहुत प्यार करते थे। ]

[ November 9, 1884;  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-102 ]

🔆🙏 दक्षिणेश्वर-मंदिर में - गोस्वामी, महिमाचरण आदि के साथ 🔆🙏

[দক্ষিণেশ্বর-মন্দিরে — গোস্বামী, মহিমাচরণ প্রভৃতি সঙ্গে ]

श्रीरामकृष्ण जमीन पर बैठे हुए सूजी की खीर खा रहे हैं । पास ही एक दीपदान पर दिया जल रहा है । श्रीरामकृष्ण के पास मास्टर बैठे हुए हैं । श्रीरामकृष्ण ने पूछा, 'क्या कुछ मिठाई है ?' मास्टर नये गुड़ के सन्देश ले आये थे । रामलाल ने कहा, ताक पर सन्देश रखे हुए हैं । श्रीरामकृष्ण - कहाँ है ? जरा ले आओ । मास्टर फुर्ती से उठकर ताक पर खोजने लगे । वहाँ सन्देश न थे । भक्तों की सेवा में गये होंगे ।  मास्टर संकुचित होकर श्रीरामकृष्ण के पास आकर बैठे । श्रीरामकृष्ण (नारायण के विषय में भावुक होकर) बातचीत कर रहे हैं

[মেঝেতে আসনের উপর ঠাকুর উপবিষ্ট। সুজি খাইতেছেন। পার্শ্বে একটি পিলসুজের উপর প্রদীপ জলিতেছে। ঠাকুরের কাছে মাস্টার বসিয়া আছেন। ঠাকুর বলিতেছেন, “কিছু মিষ্টি কি আছে?” মাস্টার নূতন গুড়ের সন্দেশ আনিয়াছিলেন। রামলালকে বলিলেন, সন্দেশ তাকের উপর আছে।শ্রীরামকৃষ্ণ — কি, আন না।মাস্টার ব্যস্ত হইয়া তাক খুঁজিতে গেলেন। দেখিলেন, সন্দেশ নাই, বোধহয় ভক্তদের সেবায় খরচ হইয়াছে। অপ্রস্তুত হইয়া ঠাকুরের কাছে ফিরিয়া আসিয়া বসিলেন। ঠাকুর কথা কহিতেছেন।

[A lighted lamp stood on a stand by his side. M. sat near him. The Master asked if there were any sweets in the room. M. had brought some sandesh which he had put on the shelf. Sri Ramakrishna asked M. to give him a sweet. M. searched for the sweets but could not find them. He was embarrassed. They had been given to the devotees.After finishing his supper, Sri Ramakrishna sat on the small couch and M. seated himself on the foot-rug. The Master, talking about Narayan, was overcome with emotion.

श्रीरामकृष्ण - अच्छा, अबकी बार अगर तुम्हारे स्कूल में जाकर देखूँ –

[শ্রীরামকৃষ্ণ — আচ্ছা একবার তোমার স্কুলে গিয়ে যদি দেখি — 

(To M.) Suppose I go to your school and look for —"

मास्टर ने सोचा, ये नारायण को देखने के लिए स्कूल जाने की बात कह रहे हैं । उन्होंने कहा, हमारे घर में चलकर बैठिये तो भी काम हो जायेगा ।

[মাস্টার ভাবিতেছেন, উনি নারায়ণকে স্কুলে দেখিতে যাইবার ইচ্ছা করিতেছেন।মাস্টার — আমাদের বাসায় গিয়ে বসলে তো হয়।

M. thought that Sri Ramakrishna wanted to go to his school to see Narayan. He said to the Master, "You might as well wait at our house."

श्रीरामकृष्ण - एक इच्छा है । वह यह कि वहाँ और कोई लड़का उस तरह का है या नहीं, जरा देखूँ चलकर ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — না, একটা ভাব আছে। কি জানো, আর কেউ ছোকরা আছে কিনা একবার দেখতুম।

MASTER: "No, I have something else in mind. I should like to see whether there are other worth-while boys in the school."

मास्टर - आप अवश्य चलिये । दूसरे आदमी देखने जाया करते हैं, उसी तरह आप भी जाइयेगा ।

[মাস্টার — অবশ্য আপনি যাবেন। অন্য লোক দেখতে যায়, সেইরূপ আপনিও যাবেন।

M: "Of course you can go. Other visitors come to the school. You can come too."

श्रीरामकृष्ण भोजन करके छोटी खाट पर बैठे । इस बीच में मास्टर और गोपाल ने बरामदे में बैठकर भोजन किया - रोटी और दाल । उन लोगों ने नौबतखाने में सोने का निश्चय किया । भोजन करके मास्टर श्रीरामकृष्ण के पाँवपोश पर आकर बैठे ।

[ঠাকুর আহারান্তে ছোট খাটটিতে গিয়া বসিলেন। একটি ভক্ত তামাক সাজিয়া দিলেন। ঠাকুর তামাক খাইতেছেন। ইতিমধ্যে মাস্টার ও গোপাল বারান্দায় বসিয়া রুটি ও ডাল ইত্যাদি জলখাবার খাইলেন। তাঁহারা নহবতে ঘরে শুইবেন ঠিক করিয়াছেন। খাবার পর মাস্টার খাটের পার্শ্বস্থ পাপোশে আসিয়া বসিলেন।

Ramakrishna was smoking. M. and Gopal finished their supper. They decided to sleep in the nahabat. M. again sat on the floor near Sri Ramakrishna.

श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - नौबतखाने में हंडियाँ-बर्तन न रखे हों, यहाँ सोओगे – इस कमरे में ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — নহবতে যদি হাঁড়িকুড়ি থাকে? এখানে শোবে? এই ঘরে?

MASTER (to M.): 'There may be some pots and pans in the nahabat. Why not sleep here in this room?"

मास्टर - जी हाँ ।

মাস্টার — যে আজ্ঞে।

M: "Very well, sir."

(५)

[ November 9-10, 1884;  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-102 ]

🔆🙏जगतगुरु उपदेशों के संबंध में छात्रों की प्रतिक्रिया जानने को उत्सुक रहते थे 🔆🙏 

रात के १०-११ बजे होंगे । श्रीरामकृष्ण छोटी खाट पर तकिये के सहारे विश्राम कर रहे हैं । मणि जमीन पर बैठे हैं । मणि के साथ श्रीरामकृष्ण बातचीत कर रहे हैं । कमरे की दीवार के पास उसी दीपदान पर दिया जल रहा है । [जगत गुरु श्रीरामकृष्ण के ह्रदय में अपने शिष्यों  के प्रति बहुत करुणा थी। वे श्री म की निजी सेवा को स्वीकार कर उन्हें आशीर्वाद देना चाहते थे। ]

श्रीरामकृष्ण - मेरे पैर सुहारते हैं, जरा हाथ फेर दो ।

[রাত ১০টা-১১টা হইল। ঠাকুর ছোট খাটটিতে তাকিয়া ঠেসান দিয়া বিশ্রাম করিতেছেন। মণি মেঝেতে বসিয়া আছেন। মণির সহিত ঠাকুর কথা কহিতেছেন। ঘরের দেওয়ালের কাছে সেই পিলসুজের উপর প্রদীপে আলো জ্বলিতেছে। ঠাকুর অহেতুক কৃপাসিন্ধু। মণির সেবা লইবেন।

শ্রীরামকৃষ্ণ — দেখ, আমার পাঞ্চটা কামড়াচ্ছে। একটু হাত বুলিয়া দাও তো।

It was ten or eleven o'clock at night. Sri Ramakrishna was sitting on the small couch, resting against a pillow. M. sat on the floor. The Master was conversing with him. A lamp burnt on a stand near the wall. The Master felt great compassion for his devotees. He wanted to bless M. by accepting his personal service.

MASTER: "My feet ache. Please rub them gently."

मणि श्रीरामकृष्ण के पैरों की ओर छोटी खाट पर बैठे हुए धीरे धीरे पैरों पर हाथ फेर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण रह-रहकर बातचीत कर रहे हैं ।

[মণি ঠাকুরের পাদমূলে ছোট্ট খাটটির উপর বসিলেন ও কোলে তাঁহার পা দুখানি লইয়া আস্তে আস্তে হাত বুলাইতেছেন। ঠাকুর মাঝে মাঝে কথা কহিতেছেন।

M. seated himself on the small couch and took the Master's feet on his lap. He stroked them. Now and then Sri Ramakrishna would ask his disciple a question.

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - अकबर बादशाह की बात कैसी रही ?

[जगतगुरु श्री रामकृष्ण अपनी कक्षाओं के संबंध में छात्रों की प्रतिक्रिया जानने को उत्सुक रहते थे और म से उनकी प्रतिक्रिया ले रहे हैं। /student feedback regarding classes]

শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — আকবর বাদশাহের কেমন কথা হল?

MASTER (smiling): "How I spoke about the Emperor Akbar!"

[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — আজ সব কেমন কথা হয়েছে?

MASTER (smiling): "How did you like today's conversation?"

मणि - जी हाँ, काफी अच्छी थीं ।

[মণি — আজ্ঞা খুব ভাল।

M: "Very much indeed."

श्रीरामकृष्ण - कौन सी बात, कहो तो जरा ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — কি বলো দেখি?

MASTER: "Repeat it to me."

मणि - फकीर बादशाह से मिलने आया था । अकबर बादशाह उस समय नमाज पढ़ रहे थे । नमाज पढ़ते हुए ईश्वर से धनदौलत की प्रार्थना करते थे । यह सुनकर फकीर धीरे से अपने घर चल दिया । बाद में अकबर बादशाह के पूछने पर उसने कहा 'अगर माँगना ही है तो भिखारी से क्या माँगू ?’

[মণি — ফকির আকবর বাদশাহের সঙ্গে দেখা করতে এসেছিল। আকবর শা তখন নমাজ পড়ছিল। নমাজ পড়তে পড়তে ঈশ্বরের কাছে ধন-দৌলত চাচ্ছিল, তখন ফকির আস্তে আস্তে ঘর থেকে চলে যাবার উপক্রম করলে। পরে আকবর জিজ্ঞাসা করাতে বললে, যদি ভিক্ষা করতে হয় ভিখারীর কাছে কেন করব!

M: "A fakir came to visit Akbar. The Emperor was saying his prayers. In his prayers he was asking God to give him wealth and riches. Thereupon the fakir was about to leave the room quietly. Later, when the Emperor asked him about it, the fakir said, 'It I must beg, why should I beg of a beggar?'"

श्रीरामकृष्ण - और कौन कौन सी बातें हुई थीं ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ — আর কি কি কথা হয়েছিল?

MASTER: "What else did we talk about?"

मणि - संचय की बातें खूब हुई ।

[মণি — সঞ্চয়ের কথা খুব হল।

M: "You told us a great deal about saving up for the future."

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - कौन-कौन सी ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ — (সহাস্যে) — কি কি হল?

MASTER (smiling): "What did I say?"

[ November 9-10, 1884;  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-102 ]

🔆🙏जब तक विवेक कहता हो कि अभी प्रयत्न करते रहो तब तक प्रयत्न करना चाहिए🔆🙏

[ The child doesn't fall if the father leads him and holds his hand."यदि पिता उसका मार्गदर्शक (Leader) हो और उसका हाथ थामे रहे, तो बच्चा ठोकर खाकर  भी नहीं गिरता, फिर से उठखड़े होने में बच्चे को खुद प्रयत्न नहीं करना पड़ता !]

मणि - जब यह ज्ञान रहता है कि हमें प्रयत्न करना चाहिए तब तक प्रयत्न करना चाहिए । संचय की बात सींती में कैसी कही आपने ?

[মণি — চেষ্টা যতক্ষণ করতে হবে বোধ থাকে, ততক্ষণ চেষ্টা করতে হয়। সঞ্চয়ের কথা সিঁথিতে কেমন বলেছিলেন!

M: "As long as a man feels that he must try, he should make an effort. How well you told us about it at Sinthi!"

श्रीरामकृष्ण - कौन सी बात ? [जब तक यह अनुभव न हो जाये कि ठाकुरदेव ने हाथ पकड़ लिया है तब तक प्रयत्न करो।]    

[শ্রীরামকৃষ্ণ — কি কথা?

MASTER: "What did I say?"

मणि - जो पूर्ण रूप से उन पर अवलम्बित है, उसका भार वे लेते भी हैं - नाबालिग का भार जैसे वली लेता है । एक बात और सुनी थी, वह यह कि जिस घर में घरभोज का न्योता रहता है, वहाँ अकेला पहुँचा कोई छोटा लड़का खुद स्थान ग्रहण नहीं कर सकता, खाने के लिए दूसरे लोग जब उसे खाने की अनुमति देकर बैठाते हैं, तभी उसे भोजन परोसा जाता है।

[মণি — যে তাঁর উপর সব নির্ভর করে, তার ভার তিনি লন। নাবালকের যেমন অছি সব ভার নয়। আর-একটি কথা শুনেছিলাম যে, নিমন্ত্রণ বাড়িতে ছোট ছেলে নিজে বসবার জায়গা নিতে পারে না। তাকে খেতে কেউ বসিয়া দেয়।

M: "God takes upon Himself complete responsibility for one who totally depends upon Him. It is like a guardian taking charge of a minor. You also told us that at a feast a child cannot by himself find a place to eat his meal; someone finds a place for him."

श्रीरामकृष्ण – नहीं । यह ठीक नहीं हुआ । बाप अगर लड़के का हाथ पकड़कर ले जाता है तो वह लड़का नहीं गिरता ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — না। ও হলো না, বাপে ছেলের হাত ধরে লয়ে গেলে সে ছেলে আর পড়ে না।

MASTER: "No, that is not quite to the point. I said that the child doesn't fall if the father leads him and holds his hand."

मणि - और आज आपने तीन तरह के संन्यासियों (साधुओं) की बात कही थी । उत्तम संन्यासी (साधु) को बैठे हुए ही भोजन मिलता है । आपने उस बालक साधु की बात कही । उसने लड़की के स्तन देखकर पूछा था, इसकी छाती पर ये फोड़े कैसे हुए ? और भी बहुत सी सुन्दर सुन्दर बातें आपने कही थी, सब बातें कैसे ऊँचे लक्ष्य की थीं !

[মণি — আর আজ আপনি তিনরকম সাধুর কথা বলেছিলেন। উত্তম সাধু সে বসে খেতে পায়। আপনি ছোকরা সাধুটির কথা বললেন, মেয়েটির স্তন দেখে বলেছিল, বুকে ফোঁড়া হয়েছে কেন? আরও সব চমৎকার চমৎকার কথা বললেন, সব শেষের কথা।

M: "You also described the three classes of sadhus. The best sadhu does not move about to get his food; he lives in one place and gets his food there. You told us about that young sadhu who said, when he saw the breasts of a young girl, 'Why has she those abscesses?' You told us many other things."

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - कौन कौन सी बातें ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — কি কি কথা?

MASTER (smiling): "What else?"

मणि - पम्पा सरोवर के उस कौए की बात । दिन-रात रामनाम जपता है, इसीलिए पानी के पास पहुँचकर भी पानी पी नहीं सकता । और उस साधु की पोथी की बात जिसमें केवल 'श्रीराम' लिखा हुआ था । और हनुमान ने श्रीरामजी से जो कुछ कहा –

[মণি — সেই পম্পার কাকের কথা। রামনাম অহর্নিশ জপ করছে, তাই জলের কাছে যাচ্ছে কিন্তু খেতে পারছে না। আর সেই সাধুর পুঁথির কথা, — তাতে কেবল “ওঁ রামঞ্চঞ্চ এইটি লেখা। আর হনুমান রামকে যা বললেন —

M: "About the crow of Pampa Lake. He repeated the name of Rama day and night. That is why he couldn't drink the water though he went to its edge. And about the holy man in whose book was written only 'Om Rama'. And what Hanuman said to Rama."

श्रीरामकृष्ण - क्या कहा ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ — কি বললেন?

MASTER: "What did he say?"

मणि - 'लंका (Ceylon) में मैंने सीता को देखा, केवल उनकी देह पड़ी हुई है, मन और प्राण सब तुम्हारे श्रीचरणों में उन्होंने अर्पित कर दिये हैं ।'

[মণি — সীতাকে দেখে এলুম, শুধু দেহটি পড়ে রয়েছে, মন-প্রাণ তোমার পায়ে সব সমর্পণ করেছেন!

M: "Hanuman said to Rama: 'I saw Sita in Ceylon; but it was only her body. Her mind and soul were lying at Your feet.'

"और चातक की बात - स्वाति की बूँदों को छोड़ और दूसरा पानी नहीं पीता । " और ज्ञानयोग और भक्तियोग (ठाकुर नाम केवलं !) की बातें ।"

[“আর চাতকের কথা, — ফটিক জল বই আর কিছু খাবে না। “আর জ্ঞানযোগ আর ভক্তিযোগের কথা।”

"And about the chatak bird. He will not drink anything but rainwater. And about jnana yoga and bhakti yoga." 

श्रीरामकृष्ण - कौन सी ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ — কি?MASTER: "What did I say about them?"

[ November 9-10, 1884;  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-102 ]

🔆🙏 जब तक देह है , तब तक मैं शरीर (M/F) हूँ यह भाव रहेगा ही🔆🙏   

मणि - जब तक 'कुम्भ' का ज्ञान है, तब तक 'मैं कुम्भ हूँ' (मैं मिट्टी का घड़ा हूँ ) यह भाव रहेगा ही । जब तक 'मैं' है, तब तक 'मै भक्त हूँ, तुम भगवान हो' यह भाव भी रहेगा ।

[মণি — যতক্ষণ ‘কুম্ভ’ জ্ঞান, ততক্ষণ “আমি কুম্ভ” থাকবেই থাকবে। যতক্ষণ ‘আমি’ জ্ঞান, ততক্ষণ “আমি ভক্ত, তুমি ভগবান।”

M: "As long as one is conscious of the 'jar', the ego will certainly remain. As long as one is conscious of 'I', one cannot get rid of the idea, 'I am the devotee and Thou art God'."

 [ November 9-10, 1884;  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-102 ]

🔆🙏मिट्टी का घड़ा मिट नहीं सकता उसी तरह 'मैं' भी नहीं मिटता 🔆🙏  

[जब तक प्रभु जी चाहते हैं तब तक ही यह शरीर रहता है । अतः हे जीव जागो अज्ञान से निकलो। और ज्ञान द्वारा स्मरण रुपी अमृतजल पान करो ।

श्रीरामकृष्ण - नहीं, 'कुम्भ' का ज्ञान रहे या न रहे, 'कुम्भ' मिट नहीं सकता । उसी तरह 'मैं' भी नहीं मिटता । चाहे लाख विचार करो, वह नहीं जाता ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — না, ‘কুম্ভ’ জ্ঞান থাকুক আর না থাকুক, ‘কুম্ভ’ যায় না। ‘আমি’ যাবার নয়। হাজার বিচার কর, ও যাবে না।

MASTER: "No, it is not that; the 'jar' doesn't disappear whether one is conscious of it or not. One cannot get rid of the 'I'. You may reason a thousand times; still it will not go."

मणि कुछ देर चुप हो रहे; फिर बोले –“काली-मन्दिर में ईशान मुखर्जी से आपकी बातचीत हुई थी – भाग्यवश उस समय हम लोग भी वहाँ थे और सब बातें सुनी थीं ।

[মণি খানিকক্ষণ চুপ করিয়া রহিলেন। আবার বলিতেছেন —মণি — কালীঘরে ঈশান মুখুজ্জের সঙ্গে কথা হয়েছিল — বড় ভাগ্য তখন আমরা সেখানে ছিলাম আর শুনতে পেয়েছিলাম।

M. remained silent a few moments.M: "You had that talk with Ishan Mukherji in the Kali temple. We were very lucky to be there."

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - हाँ, कौन-कौन सी बातें हुई थीं, जरा कहो तो सही ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — হাঁ, কি কি কথা বল দেখি?

MASTER (smiling): "Yes, yes. Tell me, what did I say?"

 [ November 9-10, 1884;  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-102 ]

Work is only the first step.

🔆🙏कर्मकाण्ड तो आदिकाण्ड है -प्रथम अवस्था की क्रिया है🔆🙏

मणि - आपने कहा था, कर्मकाण्ड प्रथम अवस्था की क्रिया है; शम्भू मल्लिक से आपने कहा था, 'अगर ईश्वर तुम्हारे सामने आयें तो क्या तुम उनसे कुछ अस्पतालों और दवाखानों की प्रार्थना करोगे ?"

[মণি — সেই বলেছিলেন, কর্মকাণ্ড। আদিকাণ্ড। শম্ভু মল্লিককে বলেছিলেন, যদি ঈশ্বর তোমার সামনে আসেন, তাহলে কি কতকগুলো হাসপাতাল ডিস্পেনসারি চাইবে?

M: "You said that work is only the first step. You told us that you said to Sambhu Mallick, 'If God appears before you, will you ask Him for a number of hospitals and dispensaries?'

"एक बात और हुई थी । वह यह कि जब तक कर्मों में आसक्ति रहती है, तब तक ईश्वर दर्शन नहीं देते । केशव सेन से इसी सम्बन्ध की बातें आपने कही थीं ।"

[“আর-একটি কথা হয়েছিল, — যতক্ষণ কর্মে আসক্তি থাকে ততক্ষণ ঈশ্বর দেখা দেন না। কেশব সেনকে সেই কথা বলেছিলেন।”

You said another thing: God does not reveal Himself to a person as long as he is attached to work. You said that to Keshab Sen."

श्रीरामकृष्ण - कौन-कौन सी बातें ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ — কি?

MASTER: "What did I say?"

मणि - जब तक लड़का खिलौने पर रीझा रहता है, तब तक माँ रोटी-पानी में लगी रहती है, पर खिलौना फेंककर जब लड़का चिल्लाता रहता है तब माँ तव उतारकर बच्चे के लिए दौड़ती है ।

[মণি — যতক্ষণ ছেলে চুষি নিয়ে ভুলে থাকে ততক্ষণ মা রান্নাবান্না করেন। চুষি ফেলে যখন ছেলে চিৎকার করে, তখন মা ভাতের হাঁড়ি নামিয়ে ছেলের কাছে যান।

M: "As long as the baby plays with the toy and forgets everything else, its mother looks after her cooking and other household duties; but when the baby throws away the toy and cries, then the mother puts down the rice-pot and comes to the baby.

  [ November 9-10, 1884;  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-102 ]

🔆🙏'ईश्वर के दर्शन कहाँ कहाँ हो सकते हैं ?’🔆🙏

“एक बात और उस दिन हुई थी । लक्ष्मण ने पूछा था, 'कहाँ कहाँ ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं ?’ राम ने बहुत सी बातें कहकर फिर कहा, “ एक और है - उर्जिता भक्ति (ecstatic love, उन्मत्त प्रेम)। मानो भक्ति उमड़ रही है ।  ऐसी भक्ति कि वह भाव में हँसता है, रोता है, - नाचता - गाता है, मारे प्रेम के मतवाला हो रहा है, जैसे चैतन्य देव। 'भाई, जिस मनुष्य में उर्जिता भक्ति देखोगे, वहाँ समझना, मै अवश्य हूँ ।’

“আর-একটি কথা সেদিন হয়েছিল। লক্ষ্মণ জিজ্ঞাসা করেছিলেন — ভগবানকে কোথা কোথা দর্শন হতে পারে। রাম অনেক কথা বলে তারপর বললেন — ভাই, যে মানুষে ঊর্জিতা ভক্তি দেখতে পাবে — হাঁসে কাঁদে নাচে গায়, — প্রেমে মাতোয়ারা — সেইখানে জানবে যে আমি (ভগবান আছি)।”

"You said another thing that day: Lakshmana asked Rama where one could find God; after a great deal of explanation, Rama said to him, 'Brother, I dwell in the man in whom you find ecstatic love — a love which makes him laugh and weep and dance and sing.'"

श्रीरामकृष्ण – आहा – आहा ! (श्री 'म' की स्मरण शक्ति को देखकर आनन्द और विस्मय सूचक उद्गार) 

শ্রীরামকৃষ্ণ — আহা! আহা! 

MASTER: "Ah me! Ah me!" [seeing the memory power of Shri 'M', exclamations of joy and astonishment)]

श्रीरामकृष्ण कुछ देर चुप रहे ।

[ঠাকুর কিয়ৎক্ষণ চুপ করিয়া রহিলেন।

Sri Ramakrishna sat in silence a few minutes.

  [ November 9-10, 1884;  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-102 ]

🔆🙏लङ्काय रावण मरलो , बेहुला केंदे आकुल होलो🔆🙏

[कर्तव्य कर्मों को घटाते जाओ-किसी दूसरे की बला अपने सिर क्यों लादी जाय ?]   

मणि - ईशान से तो आपने केवल निवृत्ति की बातें कही थीं । उसी दिन से बहुतों की अक्ल दुरुस्त हो गयी । अब हम लोगों का रुझान कर्तव्यकर्मों के घटाने की ओर है । आपने कहा था किसी दूसरे की बला अपने सिर क्यों लादी जाय ? श्रीरामकृष्ण यह बात सुनकर बड़े जोर से हँसे ।

[মণি — ঈশানকে কেবল নিবৃত্তির কথা বললেন। সেই দিন থেকে অনেকের আক্কেল হয়েছে। কর্তব্য কর্ম কমাবার দিকে ঝোঁক। বলেছিলেন — ‘লঙ্কায় রাবণ মলো, বেহুলা কেঁদে আকুল হলো!’ ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ এই কথা শুনিয়া উচ্চহাস্য করিলেন।

M: "That day you spoke only words of renunciation to Ishan. Since then many of us have come to our senses. Now we are eager to reduce our duties. You said that day, 'Ravana died in Ceylon and Behula wept bitterly for him.'--Sri Ramakrishna laughed aloud."

  [ November 9-10, 1884;  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-102 ]

🔆🙏न दैन्यं न पलायनम्🔆🙏

मणि - (बड़े विनय-भाव से) - अच्छा, कर्तव्य-कर्म, यह जंजाल घटाना तो अच्छा है न ?

[মণি (অতি বিনীতভাবে) — আচ্ছা, কর্তব্য কর্ম — হাঙ্গাম — কমানো তো ভাল?

M. (humbly): "Sir, isn't it desirable to reduce the number of one's duties and entanglements?"

श्रीरामकृष्ण – हाँ, परन्तु सामने कोई पड़ गया, वह और बात है । साधु या गरीब आदमी अगर सामने आया, तो उनकी सेवा करनी चाहिए ।

{कर्तव्य के पुनीत पथ को

हमने स्वेद से सींचा है,

कभी-कभी अपने अश्रु और—

प्राणों का अर्ध्य भी दिया है।

किंतु, अपनी ध्येय-यात्रा में—

हम कभी रुके नहीं हैं।

किसी चुनौती के सम्मुख

कभी झुके नहीं हैं।

आज,

जब कि राष्ट्र-जीवन की

समस्त निधियाँ,

दाँव पर लगी हैं,

और,

एक घनीभूत अंधेरा—

हमारे जीवन के

सारे आलोक को

निगल लेना चाहता है;

हमें ध्येय के लिए

जीने, जूझने और

आवश्यकता पड़ने पर—

मरने के संकल्प को दोहराना है।

आग्नेय परीक्षा की

इस घड़ी में—

आइए, अर्जुन की तरह

उद्घोष करें: `न दैन्यं न पलायनम्।" – अटल बिहारी वाजपेयी

[শ্রীরামকৃষ্ণ — হাঁ, তবে সম্মুখে কেউ পড়ল, সে এক। সাধু কি গরিব লোক সম্মুখে পড়লে তাদের সেবা করা উচিত।

MASTER: "Yes. But it is a different thing if you happen to come across a sadhu or a poor man. Then you should serve him."

मणि - और उस दिन ईशान मुखर्जी से चाटुकार लोगों की बात भी आपने खूब कही । मुर्दे पर जैसे गीध टूटते हैं । यही बात आपने पण्डित पद्मलोचन से भी कही थी । श्रीरामकृष्ण - नहीं, उलो के वामनदास से कही थी ।

[মণি — আর সেদিন ঈশান মুখুজ্জেকে খোসামুদের কথা বেশ বললেন। মড়ার উপর যেমন শকুনি পড়ে। ও-কথা আপনি পণ্ডিত পদ্মলোচনকে বলেছিলেন। শ্রীরামকৃষ্ণ — না, উলোর বামনদাসকে।

M: "And that day you spoke very rightly to Ishan about flatterers. They are like vultures on a carcass. You once said that to Padmalochan also."MASTER: "No, to Vamandas of Ulo."


[उलो के वामनदास (श्री वामनदास मुखोपाध्याय ) - नदिया जिले के बीरनगर या उलो में उनका निवास स्थान था। उन्होंने उत्तरी कलकत्ता के काशीपुर में माँ-काली का एक बड़ा मंदिर स्थापित किया था । एक बार दक्षिणेश्वर में एक भक्त के घर पर रहते समय, ठाकुर देव ह्रदय को अपने साथ लेकर,उनसे मिलने गए थे । उस दिन, श्रीरामकृष्ण के मधुर स्वर में श्यामा संगीत सुनकर वामनदास मुग्ध हुए थे। और अप्रत्याशित रूप से अवतार वरिष्ठ  को अपने घर में पधारे देखकर खुद को धन्य माना था ।
উলোর বামনদাস (শ্রীবামনদাস মুখোপাধ্যায়) — নিবাস নদীয়া জেলার বীরনগর বা উলোতে। উত্তর কলিকাতার কাশীপুরে তিনি মা-কালীর এক বৃহৎ মন্দির প্রতিষ্ঠা করিয়াছিলেন। একদা দক্ষিণেশ্বরে জনৈক বিশ্বাসদের বাড়িতে অবস্থানকালে ঠাকুর হৃদয়কে সঙ্গেলইয়া তাঁহার সহিত দেখা করিতে যান। সেদিন ঠাকুরের কণ্ঠে শ্যামাসংগীত শুনিয়া বামনদাস মুগ্ধ হন এবং অপ্রত্যাশিতভাবে ঠাকুরের দর্শন লাভ হওয়াতে তিনি নিজেকে ধন্য মনে করেন।} 

  [ November 9-10, 1884;  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-102 ]

 "ठाकुर का शयन, जागरण और माँ काली की पूजा" 

🔆🙏काली ही ब्रह्म है~ वे अरूपा हैं और अनन्तरूपिणी भी है !🔆🙏

श्रीरामकृष्ण को नींद आ रही है । उन्होंने मणि से कहा - "तुम अब सोओ जाकर । गोपाल कहाँ गया ? तुम दरवाजा बन्द कर लो, पर जंजीर न चढ़ाना ।”

[কিয়ৎপরে মণি ছোট খাটের পার্শ্বে পাপোশের নিকট বসিলেন। ঠাকুরের তন্দ্রা আসিতেছে, — তিনি মণিকে বলিতেছেন, তুমি শোওগে। গোপাল কোথায় গেল? তুমি দোর ভেজিয়ে রাখ।

After a while M. sat on the floor near the small couch. Sri Ramakrishna felt sleepy; he said to M.: "Go to sleep. Where is Gopal? Please shut the door."

दूसरे दिन (10 नवंबर) सोमवार था । श्रीरामकृष्ण बिस्तरे से प्रातः काल उठकर देवताओं के नाम ले रहे हैं । रह-रहकर गंगा-दर्शन कर रहे हैं । उधर काली और श्रीराधाकान्त के मन्दिर में मंगलारती हो रही है । मणि श्रीरामकृष्ण के कमरे में जमीन पर लेटे हुए थे । वे भी बिस्तर से उठकर सब देख और सुन रहे हैं ।

[পরদিন (১০ই নভেম্বর) সোমবার। শ্রীরামকৃষ্ণ বিছানা হইতে অতি প্রতূষ্যে উঠিয়াছেন ও ঠাকুরদের নাম করিতেছেন, মাঝে মাঝে গঙ্গাদর্শন করিতেছেন। এদিকে মা-কালীর ও শ্রীশ্রীরাধাকান্তের মন্দিরে মঙ্গলারতি হইতেছে। মণি ঠাকুরের ঘরের মেঝেতে শুইয়াছিলেন। তিনি শয্যা হইতে উঠিয়া সমস্ত দর্শন করিতেছেন ও শুনিতেছেন।

The next day (November 10) is Monday.Sri Ramakrishna left his bed very early. As usual, he chanted the holy names of the different gods and goddesses. Now and then he looked at the sacred river. The morning worship began in the temples of Radhakanta and Mother Kali. M. had spent the night on the floor of the Master's room. He left his bed and watched the worship in the different temples.

प्रातःकृत्य समाप्त करके वे श्रीरामकृष्ण के पास आकर बैठे । श्रीरामकृष्ण स्नान करके काली-मन्दिर जा रहे हैं । उन्होंने मणि से कमरे में ताला बन्द कर लेने के लिए कहा

[ঠাকুর আজ স্নান করিলেন। স্নানান্তে ৺কালীঘরে যাইতেছেন। মণি সঙ্গে আছেন। ঠাকুর তাঁহাকে ঘরে তালা লাগাইতে বলিলেন।

Sri Ramakrishna finished his bath and went with M. to the Kali temple. He asked the disciple to lock the door of his room.

काली-मन्दिर में जाकर श्रीरामकृष्ण आसन पर बैठे और फूल लेकर कभी अपने मस्तक पर और कभी श्रीकाली के पादपद्यों पर चढ़ा रहे हैं । फिर चामर लेकर व्यजन करने लगे । श्रीरामकृष्ण अपने कमरे की ओर लौटे । मणि से ताला खोलने के लिए कहा । कमरे में प्रवेश कर छोटी खाट पर बैठे । इस समय भाव में मग्न होकर नाम ले रहे हैं । मणि जमीन पर अकेले बैठे हुए हैं । श्रीरामकृष्ण गाने लगे । भाव में मस्त हुए आप मणि को गीतों से क्या यह शिक्षा दे रहे हैं कि--

“काली ही ब्रह्म है; काली निर्गुण हैं और सगुण भी हैं, 

अरूपा हैं और अनन्तरूपिणी भी है ।"

गाना १ - के जाने काली केमन , षड्दर्शने। 

गाना-३  (भावार्थ) - यहाँ कौन ऐसा मनुष्य है, जो यह समझ सकता हो  कि माँ काली क्या है? वे तो अरूपा हैं और साथ ही साथ अनन्त रूपिणी भी हैं !! यहां तक कि छह दर्शन भी उसका भेद प्रकट करने में असमर्थ हैं!  शास्त्र कहते हैं, यह (माँ काली )  वह है, जो किसी योगी का वह 'सच्चा  स्व' (Inner Self)  है, जो सभी प्रकार के आनंद (भूमा)  की खोज अपने ह्रदय में ही करती  है ! और वह स्वयं अपनी मधुर इच्छा से , हर जीवित वस्तु में निवास करती है। 

गाना २ -ए सब खेपा मेयेर खेला। 

गाना २ (भावार्थ) :  यह सम्पूर्ण सृष्टि मेरी पागल माँ काली का खेल ही तो है !!  उसकी माया से (आवरण और विक्षेप शक्ति से) तीनों लोक मोहित हो जाते हैं। ..... 

 . . .All creation is the sport of my mad Mother Kali; By Her maya the three worlds are bewitched. . . .

गाना ३ - 

काली के जाने तोमाय माँ (तुमि अनन्तरूपिणी !)  

तुमि महाविद्या , अनादि अनाद्या , भवबन्धेर बन्धनहारिणि तारिणी !     

गिरिजा , गोपजा , गोविन्द-मोहिनी , सारदे वरदे नगेन्द्र नन्दिनी , 

ज्ञानदे मोक्षदे , कामाख्या कामदे , श्रीराधा श्रीकृष्णहृदि-विलासिनी।  

गाना ३-(भावार्थ) :  हे काली, तुझे कौन जान सकता है? अगणित तेरे रूप हैं।

 . . .O Kali, who can know Thee? Numberless are Thy forms. . . .

गाना ४  - 

तारो तारिणी ! एबार त्वरित कोरिये ,  

तपन -तनय -त्रासे -त्रासित प्राण जाय।  

जगत अम्बे जनपालिनी , जन मोहिनी जगत जननी , 

यशोदा जठरे जनम लोइये , सहाय हरि लीलाय।।    

वृन्दावने राधाविनोदिनी , व्रजबल्ल्भ बिहारिनि , 

रासरङ्गिनी रसमयी होये , रास कोरिले लीलाप्रकाश।।  

गिरिजा गोपजा गोविन्दमोहिनी, तुमि माँ गङ्गे गतिदायिनी ,  

गान्धार्विके गौरवर्णी गाउये गोलोके गुण तोमार।।  

शिवे सनातनी सर्वाणि ईशानी , सदानन्दमयी , सर्वस्वरूपिणी ,

सगुणा निर्गुणा सदाशिव प्रिया , के जाने महिमा तोमार।।

गाना -४ (भावार्थ) -

हे तारिणी (माँ तारा) !  माँ मुझे जन्म-मृत्यु के बन्धन से यथाशीघ्र मुक्त (redeem-भ्रममुक्त) कर दे ! मृत्यु के देवता यमराज के भय से, अपने अविनाशी स्वरुप का दर्शन करने से पहले ही, कहीं मेरे प्राण तो नहीं निकल जायेंगे ?  

. . .O Mother, redeem me speedily! From terror of the King of Death I am about to die. . . .

  "ऐ तारिणी, मेरा त्राण कर । तू जल्दी कर, इधर यम-त्रास से मेरा जी निकल रहा है । तू जगदम्बा है, तू लोकों का पालन करती है, मनुष्यों को मुग्ध भी तू ही करती है, तू संसार की जननी है, यशोदा के गर्भ से जन्म लेकर कृष्ण की लीला में तू ही ने सहायता दी थी । वृन्दावन में तू विनोदिनी राधा थी, व्रजवल्लभ कृष्ण के साथ तूने विहार किया था । रासरंगिनी और रसमयी होकर रास में तूने अपनी लीला का प्रकाशन किया था । .... तू शिवानी है, सनातनी है, ईशानी है, सदानन्दमयी है, सगुणा भी है, निर्गुणा भी है, सदा ही तू शिव की प्यारी है, तेरी महिमा कहने के योग्य ऐसा कौन है ?''

 [কালীঘরে যাইয়া ঠাকুর আসনে উপবিষ্ট হইলেন ও ফুল লইয়া কখনও নিজের মস্তকে কখনও মা-কালীর পাদপদ্মে দিতেছেন। একবার চামর লইয়া ব্যজন করিলেন। আবার নিজের ঘরে ফিরিলেন। মণিকে আবার চাবি খুলিতে বলিলেন। ঘরে প্রবেশ করিয়া ছোট খাটটিতে বসিলেন। এখন ভাবে বিভোর — ঠাকুর নাম করিতেছেন। মণি মেঝেতে একাকী উপবিষ্ট। এইবার ঠাকুর গান গাহিতেছেন। ভাবে মাতোয়ারা হইয়া গানের ছলে মণিকে কি শিখাইতেছেন যে, 

`কালীই ব্রহ্ম, কালী নির্গুণা, আবার সগুণা,

 অরূপ আবার অনন্তরূপিণী।'

গান - কে জানে কালী কেমন, ষড় দর্শনে।

     গান - এ সব ক্ষেপা মেয়ের খেলা।

গান - কালী কে জানে তোমায় মা (তুমি অনন্তরূপিণী!)

তুমি মহাবিদ্যা, অনাদি অনাদ্যা, ভববন্ধের বন্ধনহারিণী তারিণী!

গিরিজা, গোপজা, গোবিন্দমোহিনী, সারদে বরদে নগেন্দ্রনন্দিনী,

জ্ঞানদে মোক্ষদে, কামাখ্যা কামদে, শ্রীরাধা শ্রীকৃষ্ণহৃদিবিলাসিনী।

গান - তার তারিণী! এবার ত্বরিত করিয়ে,

তপন-তনয়-ত্রাসে ত্রাসিত প্রাণ যায়।

জগত অম্বে জনপালিনী, জন-মিহিনী জগত জননী,

যশোদা জঠরে জনম লইয়ে, সহায় হরি লীলায়।।

বৃন্দাবনে রাধাবিনোদিনী, ব্রজবল্লভ বিহারকারিণী,

রাসরঙ্গিনী রসময়ী হ’য়ে, রাস করিলে লীলাপ্রকাশ।।

গিরিজা গোপজা গোবিন্দমোহিনী, তুমি মা গঙ্গে গতিদায়িনী,

গান্ধার্বিকে গৌরবরণী গাওয়ে গোলকে গুণ তোমার।।

শিবে সনাতনী সর্বাণী ঈশানী, সদানন্দময়ী, সর্বস্বরূপিণী,

সগুণা নির্গুণা সদাশিব প্রিয়া, কে জানে মহিমা তোমার।।

In the temple he took the seat in front of the image of Kali and offered flowers, sometimes at Her feet and sometimes on his own head. He fanned the Deity. Then he returned to his room and asked M. to unlock the door. Entering the room, he sat on the small couch. He was completely overwhelmed with divine fervour and began to chant the name of God. M. sat alone on the floor. Sri Ramakrishna began to sing about the Divine Mother:

Song 1 .  Who is there that can understand what Mother Kali is? Even the six darsanas are powerless to reveal Her. It is She, the scriptures say, that is the Inner Self Of the yogi, who in Self discovers all his joy; She that, of Her own sweet will, inhabits every living thing. . . .

   [ November 9-10, 1884;  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-102 ]

🔆🙏माँ काली के अवतार अन्तर्यामी होकर हर जीवित वस्तु में निवास करते हैं🔆🙏

मणि मन ही मन सोंच रहे हैं - क्या ठाकुर वह गाना एक बार और सुनायेंगे...... ?.... 

`आर भुलाले भूलबो ना माँ , (आमि) देखेचि तोमार राँगा चरण ! '  

 माँ , मैं अब और तुम्हारे भुलावे में नहीं आ सकता (माँ अब चुसनी देकर, तुम मुझे और ठग नहीं सकती!) , क्योंकि मैंने तुम्हारे रक्तवर्ण (crimson-गहरा लाल) चरणकमलों का दर्शन कर लिया है !     

क्या आश्चर्य है ! मणि के मन में जैसे ही यह विचार उठा कि ...क्या ठाकुर देव उस गाने को गायेंगे ? श्री रामकृष्ण देव ने उसी गाने को अपने मधुर स्वर में गाना शुरू कर दिया !!    

[মণি মনে মনে করিতেছেন ঠাকুর যদি একবার এই গানটি গান —“আর ভুলালে ভুলবো না মা, দেখেছি তোমার রাঙ্গা চরণ।” কি আশ্চর্য! মনে করিতে না করিতে ওই গানটি গাহিতেছেন।

M. said to himself, "I wish he would sing: Mother, Thou canst not trick me any more, For I have seen Thy crimson Lotus Feet. "Strangely enough, no sooner had the thought passed through M.'s mind than Sri Ramakrishna sang the song. 

कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण ने पूछा 'अच्छा, इस समय मेरी कैसी अवस्था तुम देख रहे हो ?"

[কিয়ৎক্ষণ পরে ঠাকুর জিজ্ঞাসা করিতেছেন — আচ্ছা, আমার এখন কিরকম অবস্থা তোমার বোধ হয়!

A few minutes later he said to M., "What do you think of the present state of my mind?"

मणि - (सहास्य) - यह आपकी सहजावस्था है ।

[মণি (সহাস্যে) — আপনার সহজাবস্থা।

M. (smiling): "It is your simple and natural state."

श्रीरामकृष्ण बहुत धीमे स्वर में गाने का एक चरण अलाप रहे हैं - " सहज मानुष ना होले सहजके ना जाय चेना। "

-- अर्थात जब तक कोई व्यक्ति स्वयं सरल नहीं है, वह ईश्वर (परम् सत्य)  को नहीं पहचान सकता, क्योंकि परम् सत्य बहुत सरल है ! (Highest truth are very simple)

[ঠাকুর আপন মনে গানের ধুয়া ধরিলেন, — “সহজ মানুষ না হলে সহজকে না যায় চেনা।”

Sri Ramakrishna sang to himself the following refrain of a song:Unless a man is simple, he cannot recognize God, the Simple One.


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‘भूमा’ विज्ञान

" मृत्यु आत्मा को छू नहीं सकती। मृत्यु शरीर की होती है, देहाध्यास की होती है , नाम-रूप को मैं समझने वाले मिथ्या 'अहंकार' की होती है, न कि उस दिव्य आत्मा (द्रष्टा या साक्षी ब्रह्म) की होती है; वह साक्षी चैतन्य तो हमेशा भीतर और बाहर एक सी चमकती रहती है।" [8 मई, 2022]  

"प्रभु जी तुम चंदन हम पानी। जाकी अंग-अंग बास समानी॥

प्रभु जी 'तुम- हम, दीपक-बाती' । जाकी जोति बरै दिन राती॥

प्रभु जी तुम मोती हम धागा। जैसे सोनहिं मिलत सोहागा।।

प्रभु जी तुम स्वामी (गुरु)  हम दासा (शिष्य)। ऐसी भक्ति करै ~ 'रैदासा'

(Gospel of The Holy Mother - p. 104)

इसका हिन्दी अनुवाद पढ़कर देखो : परम् दयालु, जगत गुरु श्रीरामकृष्ण देव ने अपने गले में बीमारी को धारण करके, भावी नेताओ (जिवनमुक्त शिक्षकों) के समक्ष अपने जीवन से उदाहरण प्रस्तुत किया है :  श्री श्री माँ सारदा देवी ने कहा था  ~ "जगत गुरु श्रीरामकृष्ण देव की बीमारी दूसरों के पापों को स्वीकार करने के कारण थी। वे कहा करते थे, 'यह गिरीश के पापों के कारण है; वह इतना ज्यादा कष्ट सह नहीं पाता।' गुरु (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण) के पास इच्छानुसार मरने की शक्ति थी। वे यदि चाहते तो अपनी इच्छानुसार समाधि में जाकर बड़ी आसानी से अपने शरीर का त्याग कर सकते थे। लेकिन वे कहते थे, ' यह अच्छा होगा कि जाने से पहले मैं इन सभी युवाओं को (Future leaders , या Would be Leaders, जीवनमुक्त शिक्षकों को) परस्पर गहरे प्रेम के बन्धन में जोड़ दूँ। ' उस समय तक (जब तक ठाकुर काशीपुर उद्यान बाड़ी में रहने के लिए नहीं गए थे, तब तक) सभी युवाओं के बीच केवल औपचारिक (formal, शिष्टाचार के अनुकूल) सम्बन्ध ही विद्यमान था। एक-दूसरे से भेंट होने पर कहते थे-'नरेन बाबू, कैसे हैं ' आप?', या 'राखल बाबू, आप कैसे हैं?', इत्यादि।(लेकिन एक ही कक्षा में पढ़ने वाले छात्रों में परस्पर प्रेम का जो बंधन रहता है -वैसा कोई छीन कर खा लेने वाला सम्बन्ध नहीं था।) इसलिए इतने कष्टों के बाद भी श्री गुरुदेव (भगवान श्री रामकृष्ण) ने अपने शरीर का शीघ्र त्याग नहीं किया ।" कैसा लगा ?

“The Master’s (Sri Ramakrishna's) disease was due to accepting the sins of others. He used to say, ‘It is due to Girish’s sins; He would not have been able to bear all this suffering.’ The Master had the power to die at will. He could have easily given up the body in Samadhi. But he would say, ‘It will be nice if I unite all these youngsters together in a close bond of love.’ Until then, merely a ‘how-do-you-do’ relationship existed between them: ‘Naren Babu, how are you?’, ‘Rakhal Babu, how do you do?’, and so on. That is why, the Master did not give up the body early, in spite of so much suffering.”--

महाकाली अवतार:- महामाया या योगमाया के बारे हम अक्सर धार्मिक ग्रंन्थों, धार्मिक पूजापाठ एवं भगवत मै सुनते आ रहे है । इन की शक्ती, माया आदि इत्यादि के वारे मैं चर्चा होती रहती है। आखिर कौन है ये महामाया या योगमाया ? तथा उनका प्रादुर्भाव कैसे हुआ ?" भगवान विष्णु के अन्तः कारण की शक्ति ‘महा-माया या योगमाया’ हैं, इन्हीं की शक्ति से संपन्न होकर भगवान श्री हरी जनार्दन विष्णु नाना प्रकार के उत्पातों का विनाश करते हैं । परमात्मा की पराशक्ति भगवती निराकार होकर भी देवताओं का दु:ख दूर करने के लिये युग-युग में साकार रूप धारण करके अवतार लेती हैं। उनका शरीर ग्रहण उनकी इच्छा का वैभव कहा गया है। सनातन शक्ति जगदम्बा ही महामाया कही गयी हैं। वे ही सबके मन को खींच कर मोह में डाल देती हैं।

 ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा ।

बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति ॥ 

वे भगवती महामाया देवी ज्ञानियों के भी चित्त को बल पूर्वक खींचकर मोह में डाल देती हैं । उनकी माया से मोहित होने के कारण ब्रह्मादि समस्त देवता भी परम तत्त्व को नहीं जान पाते, फिर मनुष्यों की तो बात ही क्या है? वे परमेश्वरी आदि शक्ति ही सत्व, रज तथा तम गुणों का आश्रय लेकर, इस चराचर ब्रह्माण्ड के समस्त जीवित तथा अजीवित तत्वों का सृष्टि, पालन तथा संहार करती हैं । देवी की कृपा के बिना, मोह के घेरे कोई नहीं लाँघ पाता हैं ।  उन्हीं की माया से मोहित होने के परिणामस्वरूप, सभी पृथ्वी-वासी मनुष्य एवं जानवर के विवेक-प्रयोग शक्ति को  हर लेती हैं । ब्रह्मा आदि समस्त देवता भी उनके परम-तत्व को नहीं जान पाते हैं तो मनुष्यों की बात ही क्या है? भगवान द्वारा निवेदन पर ‘देवी बगलामुखी’ ने प्रलय को शांत किया था या प्रलय का स्तंभन किया था । कल्प के आदि में दैत्य मधु तथा कैटभ के संहार हेतु भगवान विष्णु ने इन्हीं आदि शक्ति की सहायता ली थीं । जिसके परिणामस्वरूप दैत्यों की बुद्धि भ्रमित हो गई तथा भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से मधु तथा कैटभ का संहार किया । शिव पुराण के अनुसार उनके काली रूप में अवतार की कथा इस प्रकार है-

एक समय जब सम्पूर्ण जगत एकार्णवके जल में डूबा हुआ था तथा भगवान श्री हरी विष्णु शेष नाग की शय्या पर योग-निद्रा मग्न थे । उस समय सम्पूर्ण सृष्टि का प्रलय हो चुका था,चारों ओर जल ही जल व्याप्त था। भगवान श्री हरि विष्णु शेष शैय्या पर सोये हुए थे। उनके कान के मैल से मधु और कैटभ नामक दो दैत्य उत्पन्न हुए जो समुद्र में ही युवा हो गए। तब वे दोनों आपस में विचार करने लगे कि बिना आधार के किसी भी वस्तु का स्थिर (ठहर) हर पाना पूर्णतया: असंभव है। तो फिर यह आगाध जल किस आधार पर ठहरा हुआ है ? यह जानने की इच्छा उनके मन में जागृत हुई और अपने उत्पन्नकर्ता के विषय में भी उन दोनों ने भी विचार किया, लेकिन चारों ओर उन्हें जल ही जल दिखाई दिया।

तब मधु नामक दैत्य ने अपने भाई को सम्बोधित करके कहा - हे भाई ! हम दोनों ने अपने सृष्टिकर्ता के नियम को जानने का बहुत प्रयत्न किया परन्तु हमें जल के सिवा और कुछ नहीं दिखाई दिया। और जल के आधार को भी जानने का प्रयास किया, लेकिन असफल रहे।  जिससे यह सिद्ध होता है कि जल में ही निहित हमारी सत्ता बनाये रखने वाली परम आराध्या शक्ति (देवी भगवती) ही हमारी उत्पत्ति की कारण हैं।

वे दोनों दैत्य जिस समय इस प्रकार आपस में विचार कर रहे थे, उसी समय आकाश सुंदर वाग्बीज मंत्र (अर्थात वाणी का बीज या सरस्वती का बीज) की ध्वनि से गूंज उठा,  और एक सुंदर ज्योति पुंज (beautiful beam of light ) दिखाई देकर लुप्त हो गया। तब वे दोनों दैत्य उस  मंत्र का जप करने लगे। मन और इन्द्रियों को वश में करके एक हजार वर्षों तक कठिन तपस्या की। उसकी कठिन तपस्या से देवी प्रसन्न हुईं। तत्पश्चात आकाशवाणी हुई- हे दैत्यों ! तुम्हारी उग्र तपस्या से मैं अति प्रसन्न हूं अत: मनोवांछित वर मांगों। आकाशवाणी सुनकर मधु और कैटभ के प्रसन्नता की सीमा न रही- वे उस समय बोले- हे देवी। यदि आप हमारी तपस्या से प्रसन्न हैं तो हमें यह वर दें कि हम दोनों की मृत्यु हमारी इच्छानुसार हो। अर्थात जब हम स्वयं मरना चाहें तभी हमारी मृत्यु हो। हमें स्वेच्छा-मरण का वर प्रदान करें। आकाशवाणी ने कहा- हे दैत्यों मेरी कृपा से तुम्हारी इच्छा के बिना देवता, दैत्य अथवा कोई भी नहीं मार सकता। देवी से वर प्राप्त कर मधु और कैटभ महाअभिमानी हो गए। 

तत्पश्चात वे समुद्र के जल में रहने वाले विशाल जीवों से क्रीडा करने लगे। इस प्रकार कुछ काल के पश्चात एक दिन श्री विष्णु के नाभि  कमल से उत्पन्न कमल पुष्प पर विराजमान ब्रह्मा जी पर उनकी दृष्टि पड़ी। उन दोनों भाइयों ने  ब्रह्मा जी को मार डालने का प्रयास किया । उस समय श्री हरि, देवी योगमाया के वशीभूत (वश में होकर) गहरी नींद में सो रहे थे। 

 ब्रह्मा जी कमल की डंडी पकड़कर संतापहारी श्री हरि विष्णु के सम्मुख पहुंचकर उनकी स्तुति करते हुए जगाने का प्रयास करने लगे किन्तु देवी योगमाया के वश में होने के कारण उनकी निद्रा भंग न हुई। वे पूर्ववत गहरी निद्रा में सोते रहें।  यह देखकर ब्रह्मा जी को अत्यंत चिंता हुई। मधु और कैटभ भी उन्हें ढूंढते हुए उसी ओर आ रहे थे। चिंता एवं भय से व्याकुल ब्रह्मा जी ने विचार किया कि इस समय एक मात्र देवी की शरण ही इस अभिमानी दैत्यों से मेरी रक्षा कर सकती हैं।

 ब्रह्मा जी ने देखा कि ! जनार्दन भगवान श्री विष्णु योग-निद्रा मग्न हैं, तब उन्होंने उनकी योगमाया शक्ति, महामाया (भगवान विष्णु के योग-निद्रा मग्न रहने पर उनसे उदित होती हैं।) का स्तवन किया तथा उनसे प्रार्थना की ! "आप इन दोनों दुर्जय असुरों को मोहित करें तथा भगवान विष्णु को योग-निद्रा से जगा दें ।"  तब उन्होंने अपना ध्यान केन्द्रीय तरते देवी की स्तुति आरम्भ कर दी- हे देवी मैं जान गया हूं कि निश्चय ही तुम इस जगत की कारण स्वारूपा हो। तुम ही समस्त चर-अचरप्राणियों के अंतकरण में विनाश करती हो और सगुण रूप धारण करके अपनी दिव्य लीला से सम्पूर्ण जगत को भी मोहित करती हो। तुम ही मन, विद्या, बुद्धि और ज्ञान हो। ऋषि मुनि साध्या नाम से तुम्हारी वंदना करते हैं। हे मातेश्वरी सम्पूर्ण सृष्टि में कीर्ति घृति, कान्ति, रति एवं श्रद्धा रूप में विराजती हो। हे सकल जगत की जननी तुम्हे बारम्बार प्रणाम है। वेद भी तुम्हारे मर्म को नहीं जानते। क्योंकि उनकी उत्पत्ति भी तुमसे से ही है।

 वैदिक परम्परा में हवन करते समय यज्ञ में तुम्हारे स्वाहा का नाम का उच्चारण करते हुए आहूति डालते हैं। यदि स्वाहाका उच्चारण न करें तो देवतागण यज्ञ भाग से वंछित रह जाएं। हे माता- हे वर देने वाली देवी भगवती! हे असुरों का संहार करने वाली जगजननी। भगवान श्री हरि इस घड़ी तुम्हारे माया के आधीन हैं। हे कल्याणी, हे साधुजनों को अभय देने वाली देवी। रक्षा करो। रक्षा करो।तुम्हारी माया से भगवान श्री हरि जड़वत पड़े हैं। 

ब्रह्मा जी द्वारा स्तुति किये जाने पर तामसी निद्रा देवी भगवान विष्णु के श्री विग्रह से निकलकर बगल में खड़ी हो गईं तब वे हिलने डुलने लगे। इस प्रकार मधु और कैटभ से अपनी रक्षा हेतु, ब्रह्मा जी के द्वारा प्रार्थना करने पर सम्पूर्ण विद्याओं की अधिश्वरी देवी ने फाल्गुन शुक्ल द्वादशी को त्रैलोक्य मोहिनी शक्ति रूप में अवतार धारण किया तथा काली के नाम से विख्यात हुई । उनकी निद्रा भंग होते देख ब्रह्मा जी का मुख मंडल प्रसन्नता से खिल उठा उन्होंने श्री हरि को प्रणाम किया। उन्हें देखकर विष्णुजी ने पूछा-हे पद्म  योगि (कमल आसनधारी) आप जप तप त्यागकर यहां किस उद्देश्य से आए तथा आपके मुख मंडल पर मलिनता क्यों छायी हुई है। आप भय से आक्रान्त (घबराए) दिखाई दे रहे हैं। अतिशीघ्र कारण स्पष्टï करें। तब ब्रह्मा जी ने कहा- हे पालन हार! आपकी कान के मैल से मधु और कैटभ नामक दो दैत्य उत्पन्न हुए हैं जो अत्यन्त पराक्रमी और बलशाली हैं। बहुत ही भयानक रूप वाले वे दोनों दैत्य मुझे मारने के लिए मेरे पीछे आ रहे हैं। हे जगत्प्रभो! उन दैत्यों से मेरी रक्षा करो।

जिस समय ब्रह्मा जी, श्री विष्णु से मधु और कैटभ के विषय में बतला रहे थे उसी समय वे दोनों वहां आ पहुंचे और ब्रह्मा जी को ललकारते हुए बोले- सर्प के फन पर बैठने वाले इस विष्णु के पास तू भाग कर चला आया क्या यह तेरी रक्षा कर सकेगा? पहले तू मुझसे युद्ध कर अथवा अपने प्राणों की भिक्षा मांगते हुए यह कह कि मैं तुम्हारा दास हूं। बल के अभिमान में चूर मधु-कैटभ की वाणी सुनकर श्री विष्णु जी बोले हे दानव श्रेष्ठï तुम दोनों महा बली हो, इसमें तनिक भी संदेह नही है किन्तु इस प्रकार के वचनों का उच्चारण करना अशोभनीय है। तुम युद्ध करना चाहते हो तो मैं युद्ध करने के लिए तैयार हूं। तत्पश्चात श्री हरि युद्ध करने के लिए आगे बढ़े। वे बिना किसी सहारे के ही जल में खड़े थे। विष्णु जी के मुख से युद्ध करने की बात सुनकर मधु उसी क्षण आंखें लाल-लाल किए हुए आगे बढ़ा और ताल ठोककर उनसे मल्ल युद्ध करने लगा जबकि कैटभ वहीं ठहर गया।

विष्णु जी से लड़ते-लड़ते जब मधु थक गया तब कैटभ उनके युद्ध करने लगा। इस प्रकार वे दोनों दैत्य बारी-बारी से भगवान श्री विष्णु से मल्ल युद्ध करने लगे। दैत्यों के श्री हरि का मल्ल युद्ध आकाश में स्थिर होकर देवी भगवती और ब्रह्मा जी देखने लगे। युद्ध करते हुए उन्हें पांच हजार वर्ष व्यतीत हो गए। किन्तु मधु और कैटभ को तनिक भी भ्रम न हुआ। अर्थात युद्ध से विचलित न हुए। 

तब भगवान ने विचार किया कि पांच हजार वर्षों तक निरंतर लड़ते रहने से मैं थक गया किन्तु यह दानव पूर्ववत हैं। यह बड़े आश्चर्य की बात है। ये दानव सदा स्वस्थ्य कैसे रहते हैं? मेरा बल और पराक्रम कहां गया? इनकी मृत्यु कैसे होगी? शान्त मन से विचार करने के लिए उन्होंने दैत्यों से कहा- हे दैत्य श्रेष्ठï तुम कदापि यह मत सोचना कि मैं हार गया हूं। सत्य तो यह है कि निरंतर पांच हजार वर्षों तक युद्ध करते रहने से थक गया हूं जबकि तुम दोनों भाइयों ने बारी-बारी से युद्ध किया। अत: मैं कुछ घड़ी विश्राम कर लूं तत्पश्चात पुन: युद्ध करूंगा। पुन: युद्ध करने की बात सुनकर वे दैत्य अति प्रसन्न होकर कुछ दूर जाकर खड़े हो गए। जब भगवान ने देखा कि वे कुछ दूर चले गए हैं तब उन्होंने उनकी मृत्यु क्यों नहीं हुई, इसका कराण जानने के लिए ध्यान लगाया।  तो ज्ञात हुआ की देवी से इन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त है। देवी इन्हें वर दे चुकी हैं, अतः वे  उसे टाल भी नहीं सकती और अपनी इच्छा से दुखी व्यक्ति भी मृत्यु का आवाहन नहीं करता। असाध्य रोग से ग्रस्त प्राणी भी मरना नहीं चाहता। अत: मैं किस प्रकार इन दानवों का वध करूं?  ये  जीवित रहेंगे तो वर के घमंड में चूर होकर साधुजनों पर निश्चित ही अत्याचार करेंगे।  भगवान श्री हरि विष्णु जिस घड़ी विचार कर रहे थे उसी समय मन को मुग्ध करने वाली कल्याणमयी देवी के दर्शन हुए। वे आकाश में विराजमान थीं। योग से ज्ञात होने वाले भगवान विष्णु ने भगवती की स्तुति की। उनकी स्तुति से प्रसन्न होकर आदि शक्ति महामाया ने भगवान विष्णु को सलाह दी कि ! "मैं उन दोनों भ्राताओं के बुद्धि को भ्रम में डाल दूंगी, तब आप उन दैत्यों से आपके हाथों से मारे जाने का वर मांग लेना ।" तदनंतर, आदि शक्ति महामाया ने दोनों की बुद्धि को भ्रमित कर दिया, दोनों भाई भगवान विष्णु से कहने लगे कि ! "वे दोनों उनके पराक्रम से बहुत संतुष्ट हैं, वे उन दोनों से इच्छित वर मांग ले ।" भगवान विष्णु ने उन दोनों दैत्यों से कहा ! "अगर तुम मुझ पर प्रसन्न हो तो मेरे हाथों मारे जाओ, तुम दोनों मुझे यह वर प्रदान करो, मुझे और दूसरा वर नहीं चाहिये ।" 

 देवी के वचन का तात्पर्य श्री हरि जान गए और उसी क्षण युद्ध के लिए मधु-कैटभ के समक्ष उपस्थित हुए। पुन: भीषण युद्ध आरंभ हो गया। इस तरह कुछ समय व्यतीत हुआ तब भगवान विष्णु ने कातर दृष्टि से भगवती की ओर देखा जो आकाश में विराजमान थीं। उस समय भगवती देवी का रूप अत्यंत सुंदर दिखायी दे रहा था। दानवों ने देखा तो उनकी दृष्टि वहीं ठहर गयी। युद्ध करते हुए बार-बार वे देवी की ओर निहारने लगे। देवी की माया के वश में होकर वे प्रेम और मोह के पाश में बंध गए। मद से उनका शरीर व्यथित हो उठा। उधर विष्णु जी देवी के अभिप्राय को समझ चुके थे। अत: अपनी गंभीरवाणी से मधु-कैटभ को सम्बोधित करते हुए बोले हे दानव श्रेष्ठ तुम दोनों अतुलित पराक्रमी और महाबली वीर हो। तुम्हारे युद्ध कौशल से मैं अति प्रसन्न हूं। वर मांगों।

श्री विष्णु के इस प्रकार कहने पर अहंकार के मद में चूर मधु और कैटभ ने भयंकर अटटाहस किया तत्पश्चात कहने लगे हे-विष्णु, हम याचक नहीं बल्कि हम उदारदाता हैं। तुम हमें क्या दे सकते हो। हम तुम्हे वर देने को तत्पर हैं- मांगों, क्या मांगते हो? उस समय उचितअवसर जानकर भगवान विष्णु ने कहा हे महावीरों यदि तुम हमें वर देना चाहते हो तो मेरे हाथ से अपनी मृत्यु स्वीकार करो।देवी की वक्र दृष्टि से माया के वशीभूत दैत्यों ने विष्णु भगवान को वर प्रदान करने की बात कही। लेकिन जब उन्होंने वर मांगा तो दोनों दैत्य ठगे रह गए। किन्तु वचन दे चुके थे तब उन दोनों ने विचार किया कि हम ठगे गए हैं। उनके मुख मंडल पर शोक की घटा घिर आयी। तत्पश्चात उन्होंने दृष्टि घुमाकर अपने चारों ओर देखा सर्वत्र जल ही जल दिखायी दे रहा था। 

दोनों भाइयों ने देखा सारी पृथ्वी जल में निमग्न हैं, तब वे भगवान विष्णु से बोले-हे विष्णु तुमने भी वर देने की बात कही है। तुम कभी असत्य नहीं बोलते, हम दोनों ने तुम्हारे हाथों अपनी मृत्यु स्वीकार कर ली लेकिन हमें आप उस स्थान पर मारो, जहां पर जल न हो। दानवों ने इस विचार से ऐसा कहा था कि चारों ओर जल ही जल है सूखी धरती तो है ही नहीं अत: यह किस प्रकार हमारा वध करेंगे ? मधु-कैटभ को वर प्रदान करते हुए श्री विष्णु जी ने कहा- हे दैत्यों तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो हम तुम्हे उस स्थान पर मारेंगे जहां जल का आभाव होगा। ऐसा कहकर भगवान विष्णु ने दोनों दैत्यों को अपने जंघा पर रखा तथा अपने सुदर्शन चक्र से उनके मस्तक को देह से अलग कर दिया । 

     इस प्रकार भगवान श्री हरी विष्णु की योग माया शक्ति महाकाली' ही थीं जो मधु-कैटभ के वध का कारण बनी । भगवान विष्णु के योगमाया शक्ति काली ने ही अप्रत्यक्ष रूप से मधु-कैटभ का वध किया,वह  योगमाया ही साक्षात शिव पत्नी सती-पार्वती हैं, आदि शक्ति हैं । इन्हीं महामाया या योगमाया ने अपने माया से अनगिनत रूप धारण किया है । इस पृथ्वी पर पहले या अब तक जीतनी भी अवतार -लिलाये हूई है या हो रही है ये सब करवाने वाली शक्ती ही महामाया या योगमाया है । इन की शक्ति के बीना कूछ भी कर पाना असंभव है । ये शक्तीओं मे सर्वश्रेष्ठ है। 

   कामिनी -कांचन में आसक्ति अर्थात भोग की कामना और अधिक से अधिक संपत्ति जोड़ लेने की चाहत हमें क्या देती है? इस संसार से अंत में कुछ भी हाथ नहीं आना है। न हाथी है न घोड़ा है वहां पैदल ही जाना है।  तो फिर अंधकार की काली गुफा तो ये संसार है न, जहाँ से अंत में कुछ भी हाथ नहीं आना है। मेरे देहाध्यास (मिथ्या अहं) की  मृत्यु निश्चित है। ये जो मैं फलां कंपनी का मालिक हूं, या मेरी एक अदा पर लाखों लोग मर जाते हैं, ये सब खत्म हो जाएगा। तो क्या जो मेरा अस्तित्व या वजूद है , मेरी जो पहचान है वह भी खत्म हो जाएगी?और तभी एक वैदिक ऋषि प्रचंड स्वर में जयघोष करते हैं-

शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा आ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः॥

वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्‌।

तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय॥

-- (श्वेताश्वतरोपनिषद् ॥ २।५, ३।८ ॥)

हे अमृत के पुत्रों ! सुनो ! हे दिव्यधामवासी देवगण !! तुम भी सुनो ! मैं उस परम पुरुष  (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण) को जान गया हूँ जो सूर्य के समान देदीप्यमान है और अज्ञान-अन्धकार तथा  माया से परे है।  जो उसे अनुभूति द्वारा जान जाता है वह मृत्यु से मुक्त हो जाता है। जन्म-मरण के चक्कर से छुटकारा पाने का कोई अन्य मार्ग नहीं है। -- श्वेताश्वतरोपनिषद् ॥ २।५, ३।८ ॥

Hear me, O children of Immortal Bliss, those that dwell in this Universe, those that dwell in the worlds beyond, 'Hear Me'  I have realized that Supreme Being, the Self-effulgent One, beyond all darkness, resplendent like the glorious SUN. By knowing HIM alone, one goes beyond death. There is no other way out of Death. [Svetaswar Upanishad. II:5; III:8]

No Eye can see Him, nor has He a face to be seen:

उनका सच्चा स्वरुप प्रकृति की सीमा के भीतर मौजूद नहीं है (पंचेन्द्रिय ग्राह्य नहीं है।); कोई उन्हें अपनी इन चर्म चक्षुओं से नहीं देख सकता। `न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्गच्छति नो मनः - “नेत्र, वाणी, मन वहाँ नहीं जा पाते ।" मन के साथ वाणी जिसे न पाकर जहाँ से वापिस लौट आती है । (केनोपनिषत् १-३) 

विज्ञानसारथिर्यस्तु मनः प्रग्रहवान्नरः।

सोऽध्वनः पारमाप्नोति तद्विष्णोः परमं पदम्‌ ॥

[अन्वय- यः तु विज्ञानसारथि प्रग्रहवान् नरः सः अध्वनः पारम् आप्नोति तद् विष्णोः परं पदम् ॥

''जो मनुष्य मन को लगाम की तरह प्रयोग करता है तथा 'विज्ञानसारथि' अर्थात विज्ञान (विवेकज  ज्ञान) को सारथी (the driver)  बनाता है, वह अपने मार्ग के अन्त को, विष्णु के परम-पद (अमृतत्व) को अपने ह्रदय में ही अन्तर्ज्ञान से (अनुभव से) प्राप्त करता है। [ कठोपनिषद: मंत्र-2.3.9:]

"अतःसर्वप्रथम विवेकज ज्ञान के साथ अपनी बुद्धि को प्रकाशित करो, और फिर प्रकाशित बुद्धि से अनियंत्रित मन को वश में करके, संसार रूपी महासागर को पार करो और विष्णु के परम-पद (अमृतत्व) को प्राप्त करो।"

His Form does not exist within the range of vision; none can behold Him with eyes(senses). But, through Meditation, by controlling the mind with the Intellect, He can be found in the Heart (By intuition is He revealed). Those who know this become Immortal. [ Katha Upanishad: Mantra-2.3.9:]

`स्मृतिलम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्षः'

[स्मृति प्राप्त हो जाने से हृदय की अविद्या जनित सभी गाँठे खुल जाती हैं।]

यो वै भूमा तत्सुखं नाल्पे सुखमस्ति -  सुख विज्ञान के प्रति अभिमुख हुए नारदजी को सनत्कुमार जी ‘भूमा’ विज्ञान का उपदेश करते है । भूमा दृष्टि रखने वाले मनुष्य को ही पुष्टि एवं तुष्टि मिलती है और अति उच्च आनंद प्राप्त होता है । सृष्टि के हर एक वस्तुमात्र में एक ही परमात्मा का साक्षात्कार करना वो ही भूमा दृष्टि है ।

लेकिन हम इस भूमा के ज्ञान को प्राप्त कैसे करें? शुद्ध आहार ग्रहण करना चाहिए। शुद्ध आहार शरीर और मन को शुद्ध बनाता है, और तब हम अपने मन को नियंत्रण में रखने में सक्षम हो जाते हैं। और मन को वश में कर लेने से हम अज्ञान (अविद्या) के पार जाकर मन की गुलामी से मुक्त हो जाते हैं। सनत्कुमार का शब्दशः अर्थ ‘जीवनमुक्त’ होता है । तब सनत्कुमार की तरह, हम भी 'स्कंद' (C-IN-C) मार्गदर्शक जीवनमुक्त शिक्षक या नेता की उपाधि को अर्जित करने की पात्रता अर्जित करते हैं। 

धर्म और आहार- कहा गया है- 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' धर्म का प्रथम साधन शरीर को निरोग रखना है। इसलिये कौन-सा अन्न सेवन किया जाय और कौन-सा नहीं यह ध्यान में रखना चाहिए।अर्थात जब शरीर स्वस्थ होगा तभी मनुष्य अपने धर्म का पालन करेगा और अपने दायित्वों को पूर्ण करेगा।  `प्रथम सुख निरोगी काया' यदि हम कहें कि शरीर और मन दोनों की सृष्टि अन्न से ही होती है तो यह कथन अतिश्योक्ति नहीं होगी। इसीलिए हमारे ऋषि-मुनि सात्विक आहार पर बल देते थे, कहा गया है  तेरहवीं ,  बरसी और भंडारा का भोजन नहीं ग्रहण करना चाहिए।   इससे शरीर पुष्ट होता है और मन में सद् विचारों की अधिकता होती है। शुद्ध आहार स्वस्थ्य रखने का सबसे बड़ा हथियार है। भगवान् व्यास जी का मत है कि--`अन्नं ब्रह्मा रसो विष्णु र्भोक्ता देवो महेश्वर:।' "अन्न ब्रह्मा हैं, रसोवैसः 'रस' विष्णु हैं और ग्रहण करनेवाले महेश्वर हैं--यदि ऐसा समझकर अन्न सेवन किया जाये तो समूचे विश्वचक्र में संतुलन बना रहेगा।"

सर्वेषामेव शौचानामन्नशौचं विशिष्यते। (बृहस्पति -गरुड़ पुराण.१.११३.३७) अर्थात्  सब प्रकार की शुद्धि में अन्नशुद्धि सर्वश्रेष्ठ है। इसका कारण यह है कि अन्न से शरीर, मन और प्रज्ञा उत्पन्न होती है; इसलिये अन्न शुद्धि और आहारशुद्धि आवश्यक मानी गयी है। भोजनके तीन भाग होते हैं, स्थूल भाग मल बनता है, मध्यमसे रक्त, रस, मांस और सूक्ष्मसे मन बनता है ।  सच्चाई व ईमानदारी की कमाई में जो बरकत होती है उसका कोई मुकाबला नहीं हो सकता। इसी कमाई से घर-परिवार व स्वयं मनुष्य सुखी रहता है। संतान भी योग्य, आज्ञाकारी व संस्कारी होती है। इसलिए कहा गया है ‘जैसा खाए अन्न वैसे रहे मन!’ मन में जैसे विचार आते हैं,वैसा ही वाणी से बोला जाता है और वैसा काम भी होता है। हमारे मन पर ही सब कुछ निर्भर है; और हमारा यह मन आहार-शुद्धि पर टिका हुआ है  —-सूर्य प्रणाम,सूर्योपासना हरेक मनुष्य के स्वास्थ्य व आत्मबल हेतु एक अत्यंत लाभदायक कृत्य है। सूर्य से हमारी आत्मा को बल मिलता है। “कार्तिक-महात्म्य” नामक ग्रन्थ में लिखा है कि स्वस्थ्य रहने के लिए उपवास से बढ़कर कोई तपस्या नहीं है।

एक  बार ऋषियों की शरण में जाकर किसी ने जिज्ञासा की और तीन बार प्रश्न किया कि रोग रहित पूर्ण स्वस्थ कौन रहता है ?प्रश्न - “कोऽ‍रुक्, कोऽरुक्, कोऽरुक्” /कौन नीरोग रहता है ? कौन नीरोग रहता है ? कौन नीरोग रहता है ? उत्तर - “ऋतभुक्, हितभुक्, मितभुक्”/ उत्तर (१) जो धर्मानुसार भोजन करता है, (२) हितकारी भोजन करता है, (३) और जो मितभोजन - भूख रखकर अल्पाहार करता है, वह सर्वथा रोगरहित और पूर्ण स्वस्थ वा सुखी रहता है।  

" तदेष श्लोको ( तत् एषः श्लोकः)। न पश्यो मृत्युं पश्यति न रोगं नोत  दुःखतां। सर्वं ह पश्यः पश्यति सर्वमाप्नोति सर्वश इति।। स एकधा भवति त्रिधा भवति पञ्चधा। सप्तधा नवधा चैव पुनश्चैकादशः स्मृतः। शतं च दश चैकश्च सहस्राणि च विंगशति:।। आहार शुद्धौ सत्त्वशुद्धिः सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः। स्मृतिलम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्र मोक्षः।। तस्मै मृदितकषायाय तमसः पारं दर्शयति भगवान्सनत्कुमारः स्कन्द इत्याचक्षते त स्कन्द इत्याचक्षते॥"  (छान्दोग्य उपनिषद ७.२६.२॥) 

तदेष श्लोको -यहाँ इस विषय पर एक श्लोक है (Here is a verse on the subject)/ `पश्यः मृत्युं न पश्यति' न रोगं नोत दुःखताꣳ-  - जिस द्रष्टा को आत्मसाक्षात्कार हो गया है, वह द्रष्टा (आत्मा ही साक्षी है - तुम या अहं नहीं) इसलिए साक्षी मृत्यु को नहीं देखता। उसके लिए कोई रोग या दुःख नहीं होता। ' ‘He who has realized the Self (परमात्मा) does not see death. (For him there is no disease or sorrow.'/ na uta duḥkhatam, nor suffering.) पश्यः सर्वं ह पश्यति -ऐसा द्रष्टा (ऋषि या ब्रह्मविद) जो सब कुछ को इस प्रकार आत्मरूप में ही देखता है। [Such a seer sees everything (as it is)]सर्वमाप्नोति सर्वश इति सः एकधा भवति - और जो कुछ भी [वह चाहता है] सब कुछ प्राप्त करता है। `वह सृष्टि से पहले एक (अद्वैत) है '[लेकिन सृजन के बाद], [and also attains everything in whatever way (he wants) . Saḥ ekadhā bhavati, he is one before the creation. (but after creation)]त्रिधा भवति पञ्चधा सप्तधा नवधा चैव पुनश्चैकादशः स्मृतः शतं च दश चैकश्च सहस्राणि च विशतिरा -वह जो सृष्टि से पहले एक है, 'वही'  (सृष्टि के बाद) तीन गुना (3-dimensional, त्रिआयामी) , पांच गुना, सात गुना और नौ गुना हो जाता है। फिर, उसे ग्यारह गुना, और सौ गुना, फिर सौ ग्यारह गुना, बीस हजार गुना आदि अनन्त भेद प्रकारों वाला हो जाता है। "पुनः संहारकाले मूलमेव स्वं पारमार्थिकम् एकधाभावं प्रतिपद्यते स्वतन्‍त्र एव — इति विद्यां फलेन प्ररोचयन् स्तौति ।"और फिर प्रलय के समय अपने मूल पारमार्थिक एकधा -भाव को ही प्राप्त हो जाता है। क्योंकि वह स्वतंत्र ही है ; - इस प्रकार विद्या के फल द्वारा रूचि उत्पन्न करते हुए सनत्कुमार जी उसकी स्तुति करते हैं। 

 आहार शुद्धौ सत्त्वशुद्धिः सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः। स्मृतिलम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्र मोक्षः।। अर्थात आहार शुद्ध होने से अंत:करण शुद्ध होता है। इससे ईश्वर में स्मृति दृढ़ होती है। स्मृति प्राप्त हो जाने से हृदय की अविद्या जनित सभी गाँठे खुल जाती हैं।

*`अनेकता में एकता, भारत की विशेषता ' अनेक में एक का विश्लेषण >  Analysis of One into Many:[unity in diversity]' सृष्टि से पहले > एक ब्रह्म जो तुरीयं (चतुर्थ) है, सृष्टि के बाद > तीन गुना (त्रिआयामी) : कारण शरीर, सूक्ष्म शरीर ,और स्थूल शरीर ; जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति, भूत, वर्तमान और भविष्य।  [One: Brahman > Three-fold: Causal, subtle, and Gross; Waking, dreaming, and Sleeping, Past, Present, and Future.] पञ्चधा : पांच गुना: पांच तत्व, पांच कोष, पांच प्राण। [Five-fold: Five Elements, Five Koshas, Five Pranas.] सप्तधा : सात गुना: सप्त ऋषि, सप्त दिवस, सप्त स्वर, सप्त भूमि, सात रंग। [Seven-fold:  Sapta rishis, Sapta Divas, sapta Swara, sapta Lokas, Seven colors.]नवधा : नौ गुना: नव दुर्गा , शरीर में नौ दरवाजे। [Nine-fold: Nava Durga, Nine doors in the Body.] पुनश्चैकादशः स्मृतः - माना जाता है कि उनके ग्यारह रूप हैं -5 कर्मेन्द्रिय , 5 ज्ञानेन्द्रियाँ और एक मन।  शतं च दश - एक सौ दस, (a hundred and ten ) सहस्राणि च विशतिरः  -और एक हजार बीस रूप भी। और इसी तरह……(and even a thousand and twenty forms. And so on……)आहार  शुद्धौ  सत्त्व  शुद्धिः  सत्त्व शुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः। स्मृति लम्भे सर्व ग्रन्थीनां विप्र मोक्षः।।-'आहार की शुद्धि से सत्त्व की शुद्धि होती है।  सत्त्व की शुद्धि से बुद्धि निर्मल और निश्चयी बन जाती है। पवित्र और निश्चयी बुद्धि से मुक्ति भी सुलभता से प्राप्त होती है।' 

[ THREE MAJOR STEPS : Pure food creates pure intellect./Pure intellect creates strong memory./Strong memory cuts all the knots of the Heart.

FOOD > Mind > Gross > Subtle 

MIND > Memory > Subtle > Causal 

MEMORY > Realisation > Causal > Absolute 

** Note: Cuts all the knots of the Heart means detaching Ego from Consciousness. This teaching has been seen in Katha Upanishad also [Mantra-2.3.15: Katha Upanishad: – “When the knot of the heart is cut, the mortal becomes Immortal. This alone is the Teaching”.]

नेतृत्व प्राप्ति के तीन प्रमुख चरण : 1. शुद्ध आहार से शुद्ध बुद्धि का निर्माण होता है-आहार  > मन > स्थूल > सूक्ष्म2.  शुद्ध बुद्धि से स्मरण शक्ति प्रबल होती है -मन > स्मृति > सूक्ष्म शरीर > कारण शरीर (प्राज्ञ पुरुष)   3. दृढ़ स्मृति ह्रदय की सारी गांठें काट देती है- स्मृति > आत्मबोध > कारण शरीर > निरपेक्ष सत्य अर्थात अहं को शाश्वत चैतन्य से अलग कर देती है।

** नोट: हृदय की सभी गांठों को काट देना अर्थात अहंकार को चेतना से अलग करना। यह उपदेश कठ उपनिषद में भी देखा गया है।  [यदा सर्वे प्रभिद्यन्ते हृदयस्येह ग्रन्थयः। अथ मर्त्योऽमृतो भवत्येतावद्ध्यनुशासनम्‌ ॥ अन्वय -

यदा सर्वे हृदयस्य  ग्रन्थयः इह प्रभिद्यन्ते। 

अथ मर्त्यः अमृतः भवति, एतावत् हि अनुशासनम् ॥

 (मंत्र-2.3.15: कठ उपनिषद)

 '' जब यहीं, इसी मानव शरीर में (इह - iha - even here in this human birth)  सारी हृदय-ग्रन्थियाँ छिन्न-भिन्न हो जाती हैं, तो यह मर्त्य (नश्वर, मानव) अमर हो जाता है। यही श्रुतियों की सम्पूर्ण शिक्षा है, अनुशासन है।

[प्रसन्नता, आत्मानुभव, परम शान्ति, आत्यन्तिक आनन्द और परमात्मा में स्थिति- ये 'विशुद्ध सत्त्वगुण' के धर्म हैं। इसकी अभिव्यक्ति सुषुप्ति अवस्था में होती है। सुषुप्तावस्था में बुद्धि की सम्पूर्ण वृत्तियाँ लीन हो जाती हैं। अर्थात सब प्रकार का ज्ञान शांत हो जाता है और बुद्धि बीज रुपये ही स्थिर रहती है। व्यष्ट्यभिमानी जीव (सुप्त) की कारण-शरीर के संज्ञा 'प्राज्ञ पुरुष' है। जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाओं का तथा इन अवस्थाओं  के भोक्ताओं के ज्ञान पूर्वक विवेचन से उत्पन्न शुद्ध विद्या के उदय का (ज्ञान का) चमत्कार ही 'तुरीयावस्था' है ।]

शुद्ध भोजन करने (पांचों इन्द्रियों से हविष्यान्न खाने) से मन पवित्र हो जाता है। यदि मन शुद्ध है, तो स्मृति दृढ़ और स्थिर हो जाती है। स्मरणशक्ति अच्छी हो तो मनुष्य सभी बंधनों से मुक्त हो जाता है। [आहार शुद्ध होने से बुद्धि (विवेक) शुद्ध होती और निरन्तर विवेक-प्रयोग करते रहने से ही स्मरण शक्ति अर्थात वैचारिक एकाग्रता (conceptual concentration ~ शिवोहं की भावना) अत्यंत प्रबल बलवान हो जाती है। स्मृति लम्भे सर्व ग्रन्थीनां विप्र मोक्षः।। इसी वैचारिक एकाग्रता की प्राप्ति होने पर `विप्र ' अर्थात विवेकज-ज्ञान प्राप्त करने की विधि के विशिष्ट जानकर संपूर्ण ग्रंथियों से मुक्त हो जाते हैं। वह ग्रंथि चाहे शारीरिक और मानसिक हो या आध्यात्मिक अथवा जीव-ब्रह्म नामक ग्रंथि हो।

'स्कन्द' ~ नेतृत्व का अंतिम सोपान (The Final Stage of Leadership) माँ दुर्गा का पञ्चम रूप है ‘स्कन्दमाता’। स्कन्दस्य माता इति स्कन्दमाता। यह हुआ सरलार्थ। ‘स्कन्द’ कार्त्तिकेय का प्रसिद्ध नाम है और कार्त्तिकेय (षडानन-छः मुखों वाला। मन में छुपे षड-रिपुओं को पराजित करने में समर्थ) की माता होने के कारण गिरिराज किशोरी माँ पार्वती का नाम है ‘स्कन्दमाता’। अब गूढार्थ के लिये छान्दोग्य उपनिषद् की श्रुति - “भगवान्सनत्कुमारस्तँ स्कन्द इत्याचक्षते तँ स्कन्द इत्याचक्षते” का स्मरण करना होगा। । उपनिषद् के अनुसार ‘स्कन्द’ सनत्कुमार का नाम है। जो सनत्कुमार जैसे ज्ञानियों के द्वारा भी माता रूप में स्वीकृत हैं वह हैं ‘स्कन्दमाता’ यह हुआ गूढार्थ। जिन साधकों ने माँ जगदम्बा काली की कृपा से अपने अन्तःकरण (मन,बुद्धि, चित्त,अहंकार) को शुद्ध करके अपने वश में कर लिया है , उन्हें ऋषि सनत्कुमार षडरिपुओं को मनःसंयोग रूपी युद्ध द्वारा अविद्या के अंधकार से (जन्म-मृत्यु के चक्र से),  परे ले जाते हैं। इसलिए लोग उन्हें 'स्कन्द ' अर्थात देव सेनापति (Great commander) कहते हैं। [जैसे 'स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर मनःसंयोग शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा  ('Be and Make' ) द्वारा मन में रहने वाले षड-रिपुओं को पराजित कर मनुष्य बनने और बनानेमें प्रशिक्षित आचार्य नवनीदा को महामण्डल युवा प्रशिक्षण शिविर में  `C-IN-C ' कहते हैं !

अथ श्री “मातृपञ्चकम्” : - आदिगुरु शंकराचार्य जिन्होंने भक्ति ज्ञान और सनातन धर्म की रक्षा में अपना सर्वोच्च योगदान दिया, जब उनके मन मे विरक्ति जगी और उन्होंने सन्यास लेने का मन बनाया। लेकिन उनकी माँ को यह स्वीकार्य नहीं था,  बहुत प्रयास के बाद माँ इस शर्त पे मानी की उनका अंतिम संस्कार शंकराचार्य अपने हाथ से ही करेंगे।  माँ के अंतिम समय जब शंकराचार्य आये तो अपनी माँ की स्तुति की इस प्रकार की , जिसे आज हम “मातृपञ्चकम्” के नाम से जानते हैं ।

मुक्तामणि त्वं नयनं मम इति राज इति जीव इति चिर सुत त्वम् ।

इत्युक्तवत्याः तव वाचि मातः ददामि अहं तण्डुलम् एव शुष्कम् ॥ १॥

मेरे स्वधा मेरे राजकुमार, मेरे आँखों के तारे, तुम चिरायु होओ ,आपने जिस मुख से ये आशीष भारी बातें कही थी माँ, मैं आज उस मुख में सिर्फ चावल के कुछ सूखे दाने ही डाल सकता हूँ ।

(1) "You are the pearl of my eyes, my prince, may you live long, son! In your mouth, that spoke these words, O Mother!, I now offer dry grains of rice. 

अम्बा इति तात इति शिव इति तस्मिन् प्रसूतिकाले यदवोच उच्चैः ।

कृष्णेति गोविन्द हरे मुकुन्द इति जनन्यै अहो रचितोऽयं अञ्जलिः ॥ २॥

माताजी! ! पिता जी! ! हे शिव ! इन शब्दों के साथ आप मुझे जन्म देने के समय जोर-जोर से रो रही थी , कृष्ण! गोविंदा! हरे ! मुकुंद! उस माँ को मैं अब हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूं और अंतिम संस्कार करता हूं।

[(2) Mother!! Father!! Shiva!! with these words You cried out loudly the time of child birth - KrishNa! Govinda! Hare! Mukunda!. To that mother I now bow with folded hands offering funerary libations. 

आस्तं तावद् इयं प्रसूतिसमये दुर्वारशूलव्यथा नैरुच्यं तनुशोषणं मलमयी शय्या च संवत्सरी ।

एकस्यापि न गर्भभार भरण क्लेशस्य यस्य अक्षमः दातुं निष्कृतिं उन्नतोऽपि तनयः तस्यै जनन्यै नमः ॥ ३॥

मुझे जन्म देने के समय, हे माता!, आप असहनीय पीड़ा से पीड़ित थी । लगभग एक साल तक बिस्तर पर लेटे रहने और बिस्तर को खराब करने के दौरान भी आपने न तो अपने शरीर की पीड़ा के बारे में बात की और न ही अपनी दर्दनाक स्थिति के बारे में। गर्भावस्था के दौरान आपको होने वाली पीड़ाओं के लिए, हे माँ! , एक पुत्र प्रायश्चित करने में असमर्थ है। हे माँ मैं आपको बारम्बार प्रणाम करता हूँ!

[मानव शरीर केवल 45 डेल (यूनिट) तक का दर्द सहन कर सकता है। लेकिन एक माँ को  शिशु- प्रसव के समय, या बच्चे को जन्म देते समय 57 डेल (इकाई) तक का दर्द महसूस होता है। यह दर्द  एक ही समय में मानो 20 हड्डियों के टूटने के समान होता है।...... फिर भी माँ उस दर्द को सह लेती है कि उसकी सन्तान (बेटा-बेटी) पैदा हुई है !  

[At the time of giving birth to me, O Mother!, you suffered from unbearable pain. You did not speak about the suffering of your body nor of your painful condition while lying in the bed for almost a year. the year-long sharing of the bed dirtied by the baby. none of these sufferings borne by the mother because of pregnancy can be compensated in the least by a son, however great he may be.To that mother I offer my salutations! (3)

[The Human Body can bear only up to 45 del (units) of pain.  Yet at time of giving birth, a mother feels up to 57 Del(units) of pain. This is similar to 20 bones getting fractured at the same time."

गुरुकुलमुपसृत्य स्वप्नकाले तु दृष्ट्वा यतिसमुचितवेशं प्रारुदो मां त्वमुच्चैः ।

गुरुकुलमथ सर्वं प्रारुदत् ते समक्षं सपदि चरणयोस्ते मातरस्तु प्रणामः ॥ ४॥

जब एक बार आपने स्वप्न में मुझे एक संन्यासी का भेष -धारण किये हुए देखा। बस आप मुझे सन्यासी रूप में देख कर रोने लगी और मुझे देखने गुरुकुल चली आयी। आपके निश्चल प्रेम को देख पूरा गुरुकुल भावविभोर हो गया था, उस प्रेम के लिए हे माँ आपके चरणों में, मैं अपनी श्रद्धा अर्पित करता हूँ!

[(4) Having dreamt of me as clad in the robes of an ascetic, she rushed to the gurukula where i was studying and wept aloud. The entire gurukulam also wept with her at once. O mother, salutations to your feet.

न दत्तं मातस्ते मरणसमये तोयमपिवा स्वधा वा नो दत्ता मरणदिवसे श्राद्धविधिना ।

न जप्त्वा मातस्ते मरणसमये तारकमनुः अकाले सम्प्राप्ते मयि कुरु दयां मातुरतुलाम् ॥ ५ ॥

हे माता! तुम्हारी मृत्यु के समय मैं तुम्हें गंगा -जल तक नही पिला पाया। यहां तक कि संन्यासी होने के कारण सांसारिक विधान से आपका अंत्येष्टि की वर्षी भी नही कर पाया ! हे माँ मृत्यु के समय आपको वह तारक मंत्र नहीं सुना पाया,  जो माया रूपी समुद्र जैसे इस संसार के पार पहुँचाने के लिए लोग बोलते हैं ! हे माँ, आपके पास आने में जो देर हो गई, इसके लिए मुझे क्षमा कर देना  और तुम अपनी अतुलनीय ममता और दया  सदा मुझ पर बनाये रखना । 

[O mother, I did not give you even water at the time of death. I am barred from performing the prescribed religious rites for you on your death anniversary. O mother I could not taraka mantra for you at the time of death. O mother, bestow your incomparable compassion on me who was late in coming.

[इति श्रीमत् शङ्कराचार्य विरचितं मातृपञ्चकम् ।] 

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'विवेकज ज्ञान ~ॐ काली स्कन्दमाता सत्यं जगन्मिथ्या' 

[क्षणतत्क्रमयोः संयमाद्विवेकजं ज्ञानम् ॥ विभूतिपाद ३.५२॥ ]

शब्दार्थ :- क्षण (छोटा से भी छोटा समय- अर्थात पल) तत्क्रमयो: ( उसके क्रम में ) संयमात् ( संयम करने से ) विवेकजं ( विवेक से उत्पन्न ) ज्ञानम् ( ज्ञान की उत्पत्ति होती है)। 

सूत्रार्थ :- छोटे से छोटे समय अर्थात पल के क्रम ( विभाग ) में संयम करने से योगी में विवेक से उत्पन्न ज्ञान की उत्पत्ति होती है । छोटा से भी छोटा पदार्थ,  अर्थात ऐसा पदार्थ जिसके और टुकड़े न हो सकें । जिसको और भागों में न बाटा जा सके,  को परमाणु (atom) कहते हैं । जैसे पत्थर के एक टुकड़े को इतना तोड़ा या काटा जाए कि उसके और टुकड़े ही न हो पाएं । ऐसे पत्थर के टुकड़े को हम रेत कहते हैं । उस रेत के और विभाग नहीं किए जा सकते ।

इसी प्रकार समय का वह छोटे से छोटा भाग जिसे और किसी भाग में न बाटा जा सके वह क्षण कहलाता है । जैसे- वर्षों को महीनों में, महीनों को दिनों में, दिनों को घण्टों में, घण्टों को मिनटों में, मिनटों को सेकंड में और सेकंड को प्वाइंट (Point, बिन्दु) में बाटा जा सकता है । अर्थात इन सभी के विभाग किए जा सकते हैं ।

परन्तु उस 'point at infinity' -'ॐ' अनन्तस्थ चंद्र बिन्दु , माँ काली, आद्यशक्ति जो काल के साथ रमण करती हैं,(predominant energy) का कोई विभाग नहीं किया जा सकता । इसी प्वाइंट को क्षण अथवा पल कहा जाता है । इन क्षणों अथवा पलों के निरन्तर चलने वाले प्रवाह को उनका क्रम कहा जाता है । यह क्रम निर्बाध ( बिना किसी रुकावट के ) गति से चलता रहता है ।

जैसे ही किसी वस्तु की उत्पत्ति होती है तो वह हमें नई लगती है । जैसे – कोई कपड़ा या अन्य कोई वस्तु । लेकिन वह नया पदार्थ प्रत्येक क्षण पुराना होता जाता है । एक लम्बे समय के बाद अर्थात निरन्तर क्षणों के क्रम के बीतने से वह वस्तु नष्ट हो जाती है । यह सब पलों का (माँ काली का) खेल होता है ।

क्षणों का प्रभाव (माँ काली का प्रभाव) उन्हीं पदार्थों पर होता है जिनकी उत्पत्ति ( जैसे मानव शरीर जो पैदा होते हैं) होती है । क्षण का प्रभाव आत्मा और परमात्मा (ब्रह्म) पर नहीं होता ।

जब योगी इन क्षणों (पलों) के क्रम (विभाग) में संयम कर लेता है तो उसे 'विवेकज ज्ञान' की प्राप्ति होती है । विवेकज  ज्ञान को समझने के लिए हमें पहले विवेक को समझना चाहिए । विवेक का अर्थ है सही और गलत, सत्य और असत्य, शाश्वत-नश्वर में भेद करना ।

योगी द्वारा क्षण के क्रम में संयम करने से ' विवेक से उत्पन्न हुए ज्ञान - विवेकज ज्ञान ' की प्राप्ति होती है । जिसे वास्तविक ज्ञान (या ब्रह्मज्ञान) कहा जाता है ।

तारकं सर्वविषयं सर्वथाविषयमक्रमं चेति विवेकजं ज्ञानम् ।। 54 ।।

शब्दार्थ :- तारकं ['अहं' नहीं, 'स्वयं' (अर्थात आत्मा) के सामर्थ्य से उत्पन्न होने वाला ज्ञान ही तारक है] सर्वविषयं ( सभी पदार्थों या तत्त्वों को जानने वाला ) सर्वथा ( सदा अर्थात भूतकाल, वर्तमान काल व भविष्य काल में ) विषयम् ( सभी विषयों को जानने वाला ) च ( और ) अक्रमम् ( बिना किसी क्रम अर्थात विभाग के ) इति ( ऐसा या इस प्रकार का ) विवेकजं ( विवेक से उत्पन्न ) ज्ञानम् ( ज्ञान कहलाता है)।  

सूत्रार्थ :- योगी की स्वयं की सामर्थ्यता ( योग्यता ) से उत्पन्न होने वाला, जो सभी पदार्थों के विषयों को, उनके सभी कालों ( भूत, वर्तमान व भविष्य ) को जानने वाला होता है । और यह सब बिना किसी क्रम अर्थात विभाग के ही पैदा होने वाला ज्ञान होता है । जिसे विवेक से उत्पन्न ज्ञान कहा जाता है ।

व्याख्या :-  इस सूत्र में विवेक से उत्पन्न ज्ञान --'विवेकज ज्ञान ' की चार विशेषताओं का वर्णन किया इस प्रकार किया गया है :-

1. तारक

2. सर्व विषय

3. सर्वथा विषय

4. अक्रम ।

1. तारक :- तारक से अभिप्राय उस ज्ञान से है जो योगी की स्वयं की बुद्धि से उत्पन्न होता है । उस ज्ञान का अन्य कोई माध्यम नहीं होता । साधना के उच्च स्तर पर जब साधक पर वैराग्य के भाव को प्राप्त हो जाता है । तब उसे इस प्रकार के ज्ञान की प्राप्ति होती है । तारक को तारने वाला अर्थात इस संसार रूपी सागर को पार करवाने वाला भी कहा जाता है । यही ज्ञान योगी को कैवल्य की प्राप्ति करवाता है ।

2. सर्व विषय :- सर्व विषय का अर्थ होता है जो समस्त विषयों का साक्षात्कार कर सके । सर्व विषय शब्द का प्रयोग यहाँ पर सभी मोक्ष प्राप्त करवाने वाले पदार्थों के सन्दर्भ में प्रयोग किया गया है । अर्थात जो- जो पदार्थ योगी को मोक्ष प्रदान करवाने वाले होते हैं । उन सभी पदार्थों के विषयों का ज्ञान साधक को हो जाता है ।

3. सर्वथा विषय :- सर्वथा का अर्थ है सभी कालों अर्थात समय में सब पदार्थों को जानने वाला । विवेक जनित ज्ञान से योगी को सभी कालों में सब पदार्थों की सभी अवस्थाओं की जानकारी हो जाती है । सभी काल का अर्थ होता है पदार्थ की भूतकाल में क्या स्थिति थी ? वर्तमान समय में क्या स्थिति है ? और भविष्य में उसकी क्या स्थिति होगी ? आदि सभी अवस्थाओं का उसे भली – भाँति ज्ञान हो जाता है ।

4. अक्रम :- अक्रम का अर्थ होता है बिना क्रम अर्थात बिना किसी विभाग के । यह विवेक से उत्पन्न ज्ञान क्रम की सीमा से परे ( रहित ) होता है । क्रम में एक के बाद दूसरी अवस्था का ज्ञान होता है । जैसे सुबह के बाद दोपहर, दोपहर के बाद सांयकाल व सांयकाल के बाद रात्रि का ज्ञान होता है । लेकिन विवेक जनित ज्ञान के उत्पन्न होने से योगी को एक साथ ही सभी पदार्थों का ज्ञान हो जाता है । इसके लिए किसी क्रम की आवश्यकता नहीं रहती ।

अर्थात - जो विवेकज्ञान समस्त वस्तुओं को तथा वस्तुओं की सब प्रकार की अवस्थाओं को एक साथ ग्रहण कर सकता है , उसे तारकज्ञान कहते हैं ।

उपरोक्त सूत्र की व्याख्या करते हुए स्वामी जी कहते हैं कि - तारक का अर्थ है -- जो संसार से तारण करता है। सारी प्रकृति की सूक्ष्म और स्थूल सर्वविध अवस्थाएं इस ज्ञान की ग्राह्य हैं । इस ज्ञान में किसी प्रकार का क्रम नहीं है । यह सारी वस्तुओं को क्षण भर में एक साथ ग्रहण कर लेता है ।

इस प्रकार इस विवेक जनित ज्ञान से उपर्युक्त चार प्रकार की विशेषताएँ योगी में आती हैं । यह ज्ञान की उच्च अथवा सर्वोच्च अवस्था होती है । इसके जानने के बाद अन्य किसी को जानने की आवश्यकता नहीं रहती । यही ज्ञान योगी को कैवल्य की प्राप्ति करवाता है । जिसका वर्णन अगले सूत्र में किया जाएगा ।

सत्त्वपुरुषयो: शुद्धिसाम्ये कैवल्यमिति ।। 55 ।।

शब्दार्थ :- सत्त्व ( बुद्धि ) पुरुषयो: ( पुरुष या जीवात्मा की ) शुद्धि ( शुद्धि ) साम्ये ( समान रूप से हो जाती है ) इति ( यह ) कैवल्य ( मोक्ष या मुक्ति होती है)।  

सूत्रार्थ :- जब बुद्धि और जीवात्मा की समान रूप से शुद्धि हो जाती है । तब वह कैवल्य या मोक्ष की अवस्था कहलाती है ।

यह विभूतिपाद का अन्तिम सूत्र है । इसमें योगी की कैवल्य अथवा मोक्ष की अवस्था के लक्षण को बताया गया है । यहाँ पर बुद्धि और पुरुष  की शुद्धि की बात कही गई है । अब प्रश्न उठता है कि बुद्धि और पुरुष (जीवात्मा) की शुद्धि कैसे होती है ? उसके क्या- क्या लक्षण होते हैं ?

जब तक हमारी बुद्धि (अहं-बुद्धि)  में रजोगुण व तमोगुण का प्रभाव रहता है तब तक वह सत्त्वगुण में प्रवृत्त नहीं हो पाती है । जिसके कारण वह क्लेशों से परिपूर्ण रहती है । लेकिन जैसे ही हमारी बुद्धि रजोगुण व तमोगुण से रहित होकर केवल सत्त्वगुण से युक्त हो जाती है । वैसे ही उसके सभी क्लेश दग्धबीज अर्थात कभी भी न उत्पन्न होने वाली अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं । यह बुद्धि की निर्मल अवस्था होती है । इसी अवस्था में अहं -बुद्धि को नहीं 'आत्मा को ' इस बात की अनुभूति ( अहसास ) होती है कि वह पुरुष अर्थात जीवात्मा से अलग है, वह आत्मा साक्षात् ब्रह्म ही है ! इस प्रकार बुद्धि के सत्त्वगुण प्रधान होने से पुरुष भी सभी मलों अर्थात विकारों से रहित शुद्ध, निर्मल व निर्विकार हो जाता है । इस प्रकार बुद्धि व पुरुष की समान रूप से शुद्धि हो जाती है ।

अब इस अवस्था में योगी के लिए कोई भी भोग या ज्ञान प्राप्त करने योग्य नहीं रहता । अर्थात अब न ही तो उसे किसी तरह के भोग की आवश्यकता होती है और न ही किसी प्रकार के ज्ञान की । योगी के क्लेशों का दग्धबीज होने से सभी कर्मफलों की समाप्ति हो जाती है । और विवेकज ज्ञान से योगी साधक की सभी भ्रान्तियाँ (Hypnotized -अवस्था, भेंड़त्व -बुद्धि) दूर हो जाती हैं । जिससे वह अपने वास्तविक स्वरूप में स्थित हो जाता है । (उसकी चेतना में सतयुग का प्रारम्भ हो जाता है।) कैवल्य को मोक्ष, समाधि, (भ्रम से ) मुक्ति, निवार्ण आदि उपनामों से भी सम्बोधित किया जाता है । अर्थात यह सभी नाम कैवल्य के समानार्थी हैं । इसी सूत्र के साथ विभूतिपाद समाप्त होता है ।

[साभार -https://drsomveeryoga.com/yoga-sutra-]

उपरोक्त सूत्र की व्याख्या करते हुए स्वामी जी कहते हैं कि - कैवल्य ही हमारा लक्ष्य है ; इस लक्ष्य स्थल पर पहुंचने पर आत्मा जान लेती है कि वह सर्वदा ही अकेली थी , उसे सुखी करने के लिए अन्य किसी की भी आवश्यक - ता न थी । जब तक अपने तो सुखी करने के लिए हमें अन्य किसी की आव -श्यकता होती है , तब तक हम गुलाम हैं । जब पुरुष जान लेता है कि वह मुक्त स्वभाव है और उसको पूर्ण करने के लिए अन्य किसी की भी जरूरत नहीं है , जब वह यह जान लेता है कि यह प्रकृति क्षणिक है , इसकी कोई आवश्यकता नहीं है, तभी मुक्ति की प्राप्ति होती है, तभी यह कैवल्य प्राप्त होता है । 

जब आत्मा जान लेती है कि जगत के छोटे से छोटे परमाणु से लेकर देवता तक किसी पर उसके निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं है , तब आत्मा की उस अवस्था को कैवल्य और पूर्णता कहते हैं। जब शुद्धि और अशुद्धि दोनों से मिला हुआ सत्व अर्थात बुद्धि पुरुष के समान शुद्ध हो जाती है , तब यह कैवल्य प्राप्त हो जाता है , तब वह बुद्धि केवल निर्गुण, पवित्रस्वरूप पुरुष को प्रतिबिंबित करती है

["Lajja Gauri" - The Shiva Purana tells the story of Parvati and Shiva in an unending coitus  - when they were suddenly interrupted by a visitor, Parvati bashfully covered her face with a lotus.  जब भक्त यह जान लेता है कि  जब तक शरीर है, हम उन्हीं के राज्य में हैं ? माँ की कृपा से ही ज्ञान होता है। ]

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[अजगर करे न चाकरी,.....इस कथन के पीछे मलूका दास के नास्तिक से आस्तिक बनने की कहानी है, जो इस प्रकार है: शुरू में संत मलूकदास जी नास्तिक थे। उनके गांव में एक साधु आए जो लोगों को रामायण सुनाते थे। प्रतिदिन सुबह-शाम गांव वाले उनका दर्शन करते और उनसे राम कथा का आनंद लेते।संयोग से एक दिन मलूकदास भी राम कथा में पहुंचे। उस समय साधु महाराजा ग्रामीणों को श्रीराम की महिमा बताते कह रहे थे- श्रीराम संसार के सबसे बड़े दाता है। वह भूखों को अन्न, नंगों को वस्त्र और आश्रयहीनों को आश्रय देते हैं।मलूकदास ने भी साधु की यह बात सुनी पर वह सहमत नहीं हुए। उन्होंने अपना विरोध जताते तर्क किया- क्षमा करे महात्मन ! यदि मैं चुपचाप बैठकर राम का नाम लूं, कोई काम न करूं, तब भी क्या राम भोजन देंगे ?साधु ने पूरे विश्वास के साथ कहा- अवश्य देंगे। उनकी दृढता से मलूकदास के मन में एक और प्रश्न उभरा तो पूछ बैठे- यदि मैं घनघोर जंगल में अकेला बैठ जाऊं, तब भी ? साधु ने दृढ़ता के साथ कहा- तब भी श्रीराम भोजन देंगे !..... कथा है कि डाकुओं ने उन्हें जबरन भोजन करवाकर उन्हें छोड़ दिया।"वह स्वयं भोजन से भाग रहे थे लेकिन प्रभु की माया ऐसी रही कि उन्हें बल पूर्वक भोजन करा दिया। इस घटना के बाद मलूकदास ईश्वर के पक्के भक्त हो गए।"गांव लौटकर मलूकदास ने सर्वप्रथम एक दोहा लिखा–‘अजगर करे न चाकरी,पंछी करे न काम।दास मलूका कह गए,सबके दाता राम॥’

[LORD RAM ALWAYS TAKE CARE OF HIS  DEVOTEES -Yes, Lord Sri Ramachandra sent food for Swami Vivekananda. Of course it's Lord Sri Ram who gives everything in this universe, but here is an interesting incident in Swami Vivekananda's life where Lord Sri Ram sent food with a devotee while Swami Vivekanandawas starving. Let's get into the story. 

Swami Vivekananda set out as a wandering monk without a single paisa in his pocket, totally depending on God. One day, he was sitting on the railway platform at Tari Ghat station without any food for long time. 

A businessman, whose mind was prejudiced and did not approve sannyasa, wanted to make merry at his expense when they travelled in the same compartment the previous night. He sat opposite Swamiji, opened his tiffin box, and while eating started taunting, " Look here, what nice puris and laddus I am eating. You have to rest content with a parched throat and empty stomach ". Even that businessman was so rude to him, Swami Vivekananda didn't spoke a single word.Presently there appeared a stranger, carrying food and water for Swamiji and requested him to accept his offering. On enquiry he revealed that his chosen Ideal, Ishta Devata, Sri Ramachandra commanded him in a dream, to carry food for the Swamiji. Hearing this, Swamiji's heart was touched by the infinite mercy of God and tears started rolling down from his eyes.This is really a great example of Lord Sri Ram's love on Swami Vivekananda. In fact, this is an example of God's love on a true devotee. If you truly Love God and seek his protection you don't need to think of all material things like Food, Water, Cloth and Shelter. God will provide you all the basic needs.What all you need to do is Love God. And in fact that's for why you are here. Just Love God with pure heart and return back to his abode.स्‍वामी विवेकानंद के जीवन से जुड़ी एक रोचक घटना बताई जाती है जिसमें उन्‍होंने याद तो गुरु को क‍िया था और ईश्‍वर उनकी मदद को स्‍वयं आ गए थे। बताया जाता है कि स्वामी विवेकानंद एक बार ताड़ी घाट रेलवे स्टेशन ^* के प्लेटफॉर्म पर बैठे थे। पवहारी बाबा से मुलाकात के लिए स्वामी विवेकानंद भी गाजीपुर के इसी स्टेशन पर आए थे।  क्योंकि, उस वक्त जिले के रहने वाले पवहारी बाबा की ख्याति गाजीपुर ही नहीं देश के कोने-कोने में थी।  यहां से इक्का गाड़ी से वे गाजीपुर के कुर्था गांव स्थित पवहारी आश्रम गए थे।  और उस समय नरेन्द्रनाथ दत्त का अयाचक व्रत था, वे गीता के ९/२२ श्लोक की परीक्षा कर रहे थे । अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।9.22।।अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ।। यह श्लोक उस रहस्य को अनावृत करता है, जिसे जानकर आध्यात्मिक और व्यावहारिक दोनों क्षेत्रों में भी निश्चित रूप से महान सफलता प्राप्त की जा सकती है। यह ऐसा व्रत होता है जिसमें किसी से मांग कर भोजन नहीं किया जाता है। लिहाजा वह व्रत में किसी से कुछ मांग भी नहीं सकते थे। जबक‍ि एक व्यक्ति उन्हें चिढ़ाने के लहजे से उनके सामने खाना खा रहा था। स्वामी जी दो दिन से भूखे थे और वह व्यक्ति कई तरह के पकवान खाते हुए बोलता जा रहा था कि बहुत बढ़िया मिठाई है। उस समय विवेकानंद ध्यान की मुद्रा में थे और अपने गुरुदेव को याद कर रहे थे। वह मन ही मन में बोल रहे थे कि गुरुदेव आपने जो सीख दी है उससे अभी भी मेरे मन में कोई दुख नहीं है। ऐसा कहते विवेकानंद शांत बैठे थे। दोपहर का समय था और उसी दौरान उसी नगर में एक सेठ को भगवान राम ने दर्शन देकर कहा कि रेलवे स्टेशन पर मेरा भक्त एक संत आया है और तुमके उसे भोजन कराना है। उसका अयाचक व्रत है। वह क‍िसी से मांग नहीं पाएगा तो आप जाओ और भोजन करा कर आओ।पहले तो सेठ ने सोचा यह महज कल्पना है। लिहाजा वह फिर से करवट बदल कर सो गया। लेकिन तभी भगवान ने सेठ को दोबारा दर्शन दिए और संत को फ‍िर से भोजन कराने की बात कही। तब सेठ सीधा विवेकानंद के पास पहुंच गया। और साथ उसने स्‍वामी व‍िवेकानंद को बोला क‍ि मैं आपको प्रणाम करना चाहता हूं क्‍योंकि ईश्वर ने मुझे सपने में कभी दर्शन नहीं दिए, जबक‍ि आपके कारण स्‍वयं भगवान राम मेरे पास आए। भोजन के साथ सेठ की बात सुनकर विवेकानंद की आंख में आंसू आ गए। उन्‍होंने सोचा क‍ि मैंने याद तो अपने गुरुदेव को किया था। गुरु और ईश्वर की कैसी महिमा है क‍ि एक को याद क‍िया तो दूसरा दौड़ा चला आया !

 पवन लीन हरि हरि करै, मन मंहि जोगी राम ।

कहि जगजीवन आतमां, तिहि रस भोगी नाम ॥७४॥ 

संतजगजीवन जी कहते हैं कि जिनका अपने श्वास पर नियंत्रण है, वे साधक  तो हर सांस में हरि, हरि करते हैं (अपने इष्टदेव का नाम जपते हैं। )। और मन से वे राम (अवतार) से जुड़े रहते हैं , श्वास से स्मरण व मन से राम के नाम-रूप -लीला -धाम में ही स्थित रहते हैं । उन साधक  की आत्मा इसी प्रकार के राम-रस का भोग करती है; कि  उन्हें अन्य संसारी संसाधनों की आवश्यकता नहीं होती ।

" वृन्दावन में आकर स्वामी विवेकानन्द यमुना के किनारे बने काला बाबू कुंज (जो बलराम बोस के सम्बन्धी थे के कुंज) में अतिथि हुए थे। वाराणशी के श्री प्रमदादास मित्र को 12 अगस्त 1888 को, नरेन्द्रनाथ के नाम से लिखे एक पत्र में , स्वामीजी लिखते हैं - " अयोध्या से मैं वृन्दावन -धाम आ गया हूँ और कालाबाबू के कुंज में ठहरा हूँ। शहर में मन संकुचित रहता है , सुना है राधाकुण्ड आदि स्थान मनोरम हैं , परन्तु वे शहर से कुछ दूर हैं।....." उसी राधाकुण्ड में आकर स्वामीजी को एक अपूर्व अनुभव हुआ।  एक दिन स्वामीजी ने अपने शरीर के एकमात्र वस्त्र कौपीन को को धोकर किनारे पर सूखने को डाल दिया और स्वयं राधाकुण्ड के पवित्र जल में स्नान करने लगे। स्नान कर चुकने के बाद स्वामी जी ने देखा , तो कौपीन गायब ! विस्मय के साथ उन्होंने देखा कि एक बंदर कौपीन उठा ले गया है, और एक वृक्ष पर बैठा हुआ है। बहुत अनुनय-विनय करने से भी बंदर ने वस्त्र नहीं लौटाया। वे बालक की तरह व्याकुल होकर सोचने लगे -नग्नावस्था में मैं भ्रमण कैसे करूंगा , क्या यही श्रीराधारानी की इच्छा है ? तुरंत उनके व्यथित ह्रदय में अभिमान जाग उठा। जल से निकल कर वे घने जंगल में घुस गए। उन्होंने मन ही मन संकल्प किया कि जबतक पहनने का वस्त्र नहीं मिलेगा , तबतक वे इसी जंगल में अनशन करते रहेंगे। इतने में उन्होंने सुना कि पीछे कोई दूर से उन्हें बुला रहा है। घूमकर देखा एक व्यक्ति बड़ी तेजी से उनकी तरफ चला आ रहा है। पर स्वामीजी ने उसकी परवाह न की , वे अपनी धुन में आगे बढ़ते रहे। थोड़ी देर में वह व्यक्ति दौड़ा हुआ आकर स्वामीजी के सामने खड़ा हो गया। बड़े आश्चर्य से स्वामीजी ने देखा कि उस व्यक्ति के हाथ में खाद्य पदार्थ है, तथा एक नया गेरुआ वस्त्र भी है। उस व्यक्ति के अनुरोध पर जैसे ही स्वामीजी ने उसके उपहारों को स्वीकार किया वह व्यक्ति उस घने जंगल में अदृश्य हो गया। संभव है , वह व्यक्ति स्वामीजी की दुर्दशा को दूर से देख रहा हो। खैर , वस्त्र पहन कर जब स्वामीजी राधाकुण्ड लौट कर आये , तब देखा की कौपीन जहाँ उन्होंने सूखने के लिए रखा था , वहीँ सुरक्षित रखा हुआ है। अब तो वे बड़े विस्मित हुए। इस घटना ने सारी युक्ति-तर्क की सीमा को पार कर ईश्वर-कृपा के अनुभूति से वे आनंदविभोर हो गए। और तन्मय चित्त से श्रीराधाकुण्ड के तट पर कृष्ण-गुणगान करने लगे।  " परिव्राजक विवेकानन्द पृष्ठ -९० /

[जिसमें दिलदारनगर जंक्शन (सेंवराईं ग्राम के निकट) )  से  एक ट्रेन दिन में तीन से चार बार ताड़ी घाट तक आती और जाती है। दिलदार नगर गाजीपुर से 20 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। गाजीपुर को वीर सपूतों की धरती के नाम से भी जाना जाता है। इसी जिले में गंगा नदी के किनारे ताड़ी घाट रेलवे स्टेशन है। दिलदार नगर का प्राचीन नाम अखंड था जो बाद में अखंधा हो गया। यह राजा नल की राजधानी थी। दिलदारनगर जंक्शन का रेलवे स्टेशन मुग़लसराय पटना रेल खंड का महत्वपूर्ण एवम आदर्श स्टेशन है। दिलदारनगर कामसार में चार रेलवे स्टेशन हैं: दिलदारनगर जंक्शन रेलवे स्टेशन दरौली रेलवे स्टेशन भदौरा रेलवे स्टेशन उसिया खास हॉल्ट रेलवे स्टेशन। भदौरा (दिलदारनगर) स्टेशन पर क्षेत्र के देवकली, बसुका, उतरौली, नवली, नसीरपुर, भदौरा, सेवराई, मनिया, बकसड़ा, बरेजी, सुरहां, देवल, अमौरा, मिश्रवालिया आदि गांव के अलावा समीप स्थित बिहार प्रांत से भी लोग ट्रेन पकड़ने के लिए भदौरा रेलवे स्टेशन आते हैं। सितंबर 27, 2021 तक भदौरा रेलवे स्टेशन पर फुट ओवरब्रिज का कार्य पूर्ण नहीं होने से यात्रियों को काफी परेशानी झेलनी पड़ रही है।  अगर ट्रेन दो नंबर प्लेटफार्म पर आती है, तो मजबूरी में एक नंबर पर खड़े यात्रियों को रेलवे ट्रैक पार कर दो नंबर प्लेट फार्म पर जाना पड़ता है। उत्तर प्रदेश में ज़िला ग़ाज़ीपुर, तहसील सेवराई, परगना ज़मानियां, कमसार (दिलदारनगर) के मुसलमान अपने को आज भी राजपूत कहते हैं तब्दीली-ए-मज़हब (धर्म परिवर्तन) से मुत्आसिर होने के बाद भी यादगारी के लिए अपनी पहचान 'राजपूत ' कभी नहीं छिपाया। नज़ीर हुसैन (1922 - 1987) फिल्म अभिनेता और निर्देशक, जिनका जन्म उसिया गाँव में हुआ था। यूनुस परवेज - (1931 - 2007) महेन्द गाँव के फिल्म अभिनेता। कमसार के इतिहास पर लिखी गई किताबों से यहाँ यह सवालिया निशान पर बल मिलता है कि कमसारी पठानों के पूर्खो की जात-बिरादरी "राजपूत" रहे हैं या भूमिहार। 

महासती बेहुला (बांग्ला : বেহুলা- अंगिका : बिहुला) :बेहुला एवं उनके पति बाला लखन्दर (लखिन्दर या लक्षीन्दर या लक्ष्मीन्दर) के उन्मत्त प्रेम के उदाहरण रूप में अधिक जाने जाते हैं।  बाणासुर की पुत्री उषा को प्रद्युम्न के पुत्र अनिरुद्ध से प्रेम हो गया। अनिरुद्ध भगवान कृष्ण के पोते थे। उनकी शादी के बाद वे अगले जन्म में बेहुला और लक्षिन्दर के रूप में फिर से पैदा हुए और फिर से एक दूसरे से शादी की।  विवाह-रात्रि को नागिन ने लक्ष्मीचंद्र को डंस लिया और वह मर गया। सारे घर में शोर मच गया। तब उसकी पत्नी बेहुला ने केले के पौधे की नाव बनवाई और पति के शव को लेकर, उसमें बैठ गई। उसने लाल साड़ी पहन रखी थी और सिन्दूर लगा रखा था। नदी की लहरें उस शव को बहुत दूर ले गईं। वह अपने पति को पुनः जिन्दा करने पर तुली हुई थी। बहुत दिनों तक उसने कुछ नहीं खाया, जिससे उसका शरीर सूख गया था। लक्ष्मीचंद्र के शरीर से दुर्गन्ध भी आने लगी थी। उसके सारे शरीर में कीड़े पड़ गए थे। मात्र उसका कंकाल ही शेष रह गया था।बेहुला नाव को किनारे की ओर ले चली। उसने वहां एक धोबिन के मुख से तेज टपकते देखा। उसके कठोर तप को देखकर ही मनसा देवी ने उसे वहां भेजा था। उसने बेहुला से कहा, "तुम मेरे साथ देवलोक में चल कर अपने नृत्य से महादेव को रिझा दो तो तुम्हारे पति पुनः जिन्दा हो जाएंगे।" बेहुला ने उसकी सलाह मान ली। वह उसके साथ चल पड़ी पति की अस्थियां उसके वक्षस्थल से चिपकी थीं। वह अपने पति की स्मृति से उन्मत्त होकर नृत्य करने लगी। सारा देव समुदाय द्रवित हो गया। मनसा देवी भी द्रवित हो गईं। लक्ष्मीचंद्र जीवित हो गया और इसके साथ ही बेहुला का नाम अमर हो गया।

अंगदेश की राजधानी चम्पा (बिहार के भागलपुर जिले के नाथनगर ,एवं  मुंगेर जिलों के आसपास का क्षेत्र) का नाम  चंपानगर था । महाभारत के समय यहाँ के राजा कर्ण हुआ करते थे ऐसा माना जाता है। सती बिहुला की कथा अंगिका-भाषी क्षेत्र में एक गीतकथा के रूप में गाई जाती है। सामान्यतया यह निचली जातियों की कथा के रूप में प्रचलित हुआ करती थी।  परन्तु अब यह जाति की सीमाओं को लाँघ कर एक लोकप्रिय  कथा के रूप में स्थापित है।  और अब यह नारी मात्र के उत्सर्ग के अभूतपूर्व प्रतिमान के उद्धरण की कथा के रूप में स्थापित है। क्योंकि कहानी के अनुसार अपनी कठोर तपस्या से सती बेहुला ने अपने पति को जीवित कर दिखाया था।

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