श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर
(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली )
(47)
*जगातिक प्रेम का ईश्वर ~ भक्ति में रूपान्तरण*
403 निज नतनी को प्रेम करो , जस राधा दुलारी।
755 फल मिलहि ब्रजवास का , घर बैठे तुम्हारी।।
ज ० की माता जब बूढ़ी हो गई उसने सोचा कि अब घर-गृहस्थी से छुट्टी लेकर वृन्दावन जाकर जीवनसन्ध्या वहीं शांति से बिताई जाये। उसने श्री रामकृष्ण के सामने अपनी यह इच्छा व्यक्त की। परन्तु श्रीरामकृष्ण उसके मन की स्थिति को भलीभाँति जानते थे। उन्होंने उसके प्रस्ताव को सम्मति न देते हुए कहा -
" तुम्हें अपनी नातिन से बहुत प्यार है। तुम जहाँ भी जाओगी, नातिन की याद तुम्हें बेचैन किया करेगी। तुम चाहो तो वृन्दावन जाकर रह सकती हो , पर तुम्हारा मन सदा घर ही के ऊपर पड़ा रहेगा। इसके बजाय अगर तुम अपनी नातिन को ही श्रीराधिका जी की दृष्टि से देखते प्रेम करने लगो , तो वृन्दावन-वास का सारा पुण्य तुम्हें घर बैठे अपनेआप प्राप्त होगा। उसका चाहे जितना लाड़ -दुलार करो , जी भरकर खिलाओ -पीलाओ , पर मन में सदा यही भाव रखो कि तुम वृन्दावनधीश्वरी राधिका की पूजा -सेवा कर रही हो। "
404 प्रेमी जन को जान प्रभु, जो सेवहि सब भाँति।
756 बढ़े हरिपद प्रीत सहज , पल पल दिन अरु राति।।
किसी भक्त को एक आत्मीय पर अत्यधिक आसक्ति के कारण मन स्थिर करने में असमर्थ देख श्रीरामकृष्ण ने उसे अपने प्रेमपात्र को ईश्वर का ही रूप मानते हुए भगवद्भाव से उसकी सेवा करने का उपदेश दिया। इस विषय को समझाते हुए कभीकभी श्रीरामकृष्ण पण्डित वैष्णवचरण के ऐसे ही दृष्टिकोण का उल्लेख करते हुए कहते , " वैष्ण्वचरण कहता था , ' यदि अपने प्रेमास्पद को इष्टदेवता के रूप में देखा जाए , तो मन बड़ी सरलता से भगवान की ओर चला जाता है। "
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