सोमवार, 31 मई 2021

🔆🙏<>🔆🙏 <>🔆🙏🔆 परिच्छेद ~73, [(2, 4 जनवरी, 1884 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-73] Enjoy spontaneous Divine Bliss*शाश्वत चैतन्य का निरंतर स्मरण और सहज दिव्य आनन्द- तांत्रिक के साथ वार्तालाप*

 परिच्छेद ~73 , (2,4 जनवरी, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-73  ] 

(नवनीदा का महावाक्य -तत्त्वमसि- त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि। 

त्वमेव प्रत्यक्षम् ब्रह्म वदिष्यामि।) 

ॐ शं नो मित्रः शं वरुणः। शं नो भवत्वर्यमा। शं न इन्द्रो ब्रिहस्पतिः। शं नो विष्णुरुरुक्रमः।

नमो ब्रह्मणे। नमस्ते वायो। त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि। त्वमेव प्रत्यक्षम् ब्रह्म वदिष्यामि।

ॠतं वदिष्यामि। सत्यं वदिष्यामि। तन्मामवतु। तद्वक्तारमवतु। अवतु माम्। अवतु वक्तारम्।

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

 (तैत्तिरीय उपनिषद्)

अर्थ – देवता ‘मित्र’ हमारे लिए कल्याणकारी हों, वरुण कल्याणकारी हों । ‘अर्यमा’हमारा कल्याण करें । हमारे लिए इन्द्र एवं बृहस्पति कल्याणप्रद हों । ‘उरुक्रम’ (विशाल डगों वाले) विष्णु हमारे प्रति कल्याणप्रद हों ।जो सब के ऊपर विराजमान, सब से बृहद, अनन्तबलयुक्त परब्रह्म परमात्मा है, उस ब्रह्म को हम नमस्कार करते हैं। हे परमेश्वर! (त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि) आप ही अन्तर्यामिरूप से प्रत्यक्ष ब्रह्म हो, (त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि) मैं आप ही को प्रत्यक्ष ब्रह्म कहूँगा, क्योंकि आप सब जगह में व्याप्त होके सब को नित्य ही प्राप्त हैं, (ऋतं वदिष्यामि) जो आपकी वेदस्थ यथार्थ आज्ञा है उसी को मैं सब के लिए उपदेश और आचरण भी करूँगा,(सत्यं वदिष्यामि) सत्य बोलूँ, सत्य मानूं और सत्य ही करूँगा, तन्मामवतु) सो आप मेरी रक्षा कीजिए,(तद्वक्तारमवतु) सो आप मुझ आप्त सत्यवक्ता की रक्षा कीजिए कि जिस से आप की आज्ञा में मेरी बुद्धि स्थिर होकर, विरुद्ध कभी न हो। क्योंकि जो आपकी आज्ञा है, वही धर्म और जो विरुद्ध, वही अधर्म है। त्रिविध ताप की शांति हो । 

[Ramakrishna Mission Calcutta Students’ Home, Belgharia, Kolkata : A hostel for poor and meritorious college students, with a library and a prayer hall. Shilpapitha, a government-sponsored polytechnic which offers three-year diploma courses in civil, mechanical, electrical and electronics & telecommunication engineering.बेलघाड़िया  (8-नंबर , बी.टी. रोड) स्थित उद्यानबाड़ी / सन्दर्भ 1987 बेलघाड़िया कैम्प में तान्त्रिक  क साथ  बहस और नवनीदा की कृपा ! ]  

परिच्छेद~ ७३

(१)

[(2 जनवरी, 1884) -श्रीरामकृष्ण वचनामृत-73] 

🔆🙏श्री महिमा चरण चक्रवर्ती तथा तान्त्रिक भक्त 🔆🙏

आज पौष शुक्ला चतुर्थी है; 2 जनवरी 1884 । श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ दक्षिणेश्वर के कालीमंदिर में निवास कर रहे हैं । आजकल राखाल, लाटू, हरीश, रामलाल, मास्टर दक्षिणेश्वर में निवास (गुरुगृह-वास) कर रहे हैं ।

दिन के तीन बजे का समय होगा – श्रीरामकृष्ण का दर्शन करने के लिए मणि बेलतला से  उनके कमरे की ओर आ रहे हैं । मणि ने आकर भूमि पर माथा टेककर प्रणाम किया । श्रीरामकृष्ण ने उन्हें अपने पास बैठने के लिए कहा । सम्भव है, तांत्रिक भक्त के साथ वार्तालाप करते करते उन्हें भी उपदेश देंगे श्री महिमा चरण चक्रवर्ती ^*  ने तांत्रिक भक्त को श्रीरामकृष्ण का दर्शन करने के लिए भेजा है । भक्त गेरुआ वस्त्र धारण किये हैं ।

[श्री महिमा चरण चक्रवर्ती ^* (नंबर -100, काशीपुर रोड , जिस घर में नवनीदा का जन्म हुआ था!  - काशीपुर रोड में स्थित अपने घर में महिमाचरण वेदांत का अभ्यास करते थे। उनके मन में श्री रामकृष्ण के प्रति बहुत श्रद्धा थी , और वे अक्सर दक्षिणेश्वर आते थे। वे अपना अधिकांश समय  धार्मिक चिंतन तथा शास्त्रों के अध्ययन में बिताया करते थे । उन्होंने  संस्कृत और अंग्रेजी में लिखी कई पुस्तकों का अध्यन करके पाण्डित्य अर्जित किया था।  श्री श्री ठाकुर ने उनसे  कई बार  भक्तिमार्ग से संदर्भित ग्रन्थ  नारद पंचरात्र के श्लोकों का पाठ करवाया था। उनमें अनेकों सदगुण तो थे; लेकिन वे कितने बड़े विद्वान् , बुद्धिमान, उदारहृदय और धर्मपरायण व्यक्ति हैं , इस बात को ठाकुर के भक्तों के बीच प्रदर्शित करने के लिए वे अक्सर इतने आवेश में आ जाते थे कि, कई लोग उन्हें हँसी का पात्र समझते थे। नरेन्द्रनाथ और गिरीश के साथ उनकी बहस हुआ करती थी। उन्होंने एक दातव्य विद्यालय की स्थापना की थी साधारण जनता में शिक्षा का प्रचार-प्रसार किया था।   उनके घर में माँ अन्नपूर्णा की मूर्ति स्थापित थी। उनके पास एक निजी विशाल पुस्तकालय भी था।]   

[আজ পৌষ শুক্লা চতুর্থী, ২রা জানুয়ারি, ১৮৮৪ (১৯শে পৌষ, বুধবার, ১২৯০)।শ্রীরামকৃষ্ণ ভক্তসঙ্গে দক্ষিণেশ্বর-কালীমন্দিরে বাস করিতেছেন। আজকাল রাখাল, লাটু, হরিশ, রামলাল, মাস্টার দক্ষিণেশ্বরে বাস করিতেছেন।বেলা ৩টা বাজিয়াছে, মণি বেলতলা হইতে শ্রীরামকৃষ্ণকে দর্শন করিতে তাঁর ঘরের অভিমুখে আসিতেছেন। তিনি একটি তান্ত্রিকভক্তসঙ্গে পশ্চিমের গোল বারান্দায় উপবিষ্ট আছেন।মণি আসিয়া ভূমিষ্ঠ হইয়া প্রণাম করিলেন। ঠাকুর তাঁহাকে কাছে বসিতে বলিলেন। বুঝি তান্ত্রিকভক্তের সহিত কথা কহিতে কহিতে তাঁহাকেও উপদেশ দিবেন। শ্রীযুক্ত মহিম চক্রবর্তী তান্ত্রিকভক্তটিকে দর্শন করিতে পাঠাইয়া দিয়াছেন। ভক্তটি গেরুয়া বসন পরিয়া আছেন।

[NB- শ্রী মহিমা চরণ চক্রবর্তী ^* (নং-100, কাশীপুর রোড, যে বাড়িতে নবনীদার জন্ম হয়েছিল!]

Wednesday, January 2, 1884; Rakhal, Latu, Harish, Ramlal, and M. had been staying with Sri Ramakrishna at the temple garden. About three o'clock in the afternoon M. found the Master on the west porch of his room engaged in conversation with a Tantrik devotee. The Tantrik was wearing an ochre cloth. Sri Ramakrishna asked M. to sit by his side. Perhaps the Master intended to instruct him through his talk with the Tantrik devotee. Mahima Charan  Chakravarty had sent the latter to the Master.

[(2 जनवरी, 1884) -श्रीरामकृष्ण वचनामृत-73] 

🔆🙏जिनके पास सहजानन्द (spontaneous Divine Bliss) हो,वे सुधापान नहीं करते 🔆🙏

[ আপনার সহজানন্দ। সে আনন্দ হলে সুধা পান কেমন?

 One who enjoys spontaneous Divine Bliss wants nothing else.]

श्रीरामकृष्ण – (तान्त्रिक भक्त के प्रति) – ये सब तान्त्रिक साधना के अंग हैं; कपालपात्र में सुधा का पान करना ! उस सुधा को कारणवारि कहते हैं, है न ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ (তান্ত্রিকভক্তের প্রতি) — এ-সব তান্ত্রিক সাধনার অঙ্গ, কপালি পাত্রে সুধা পান করা, ওই সুধাকে কারণবারি বলে, কেমন?

 "It is a part of the Tantrik discipline to drink wine from a human skull. This wine is called 'karana'. Isn't that so?"

तान्त्रिक – जी हां !

[তান্ত্রিক — আজ্ঞা হাঁ।

TANTRIK: "Yes, sir."

श्रीरामकृष्ण – ग्यारह पात्र, न ?

শ্রীরামকৃষ্ণ — এগার পাত্র, না?

तान्त्रिक – तीन तोला भर ! शव-साधना के लिए ।

তান্ত্রিক — তিনতোলা প্রমাণ। শবসাধনের জন্য।

श्रीरामकृष्ण – पर मैं तो सुरा छू तक नहीं सकता ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — আমার সুরা ছুঁবার জো নাই।

MASTER: "But I cannot touch wine at all."]

तान्त्रिक – आपका सहज दिव्य-आनन्द है, यह आनन्द होने पर और फिर क्या चाहिए !

[তান্ত্রিক — আপনার সহজানন্দ। সে আনন্দ হলে কিছুই চাই না।

TANTRIK: "You have spontaneous Divine Bliss. One who enjoys that Bliss wants nothing else."

[योगियों की सहज प्रवृत्ति  (instinct) का नाम है सहजानन्द - अर्थात वह आनन्द जो योगियों को सहजावस्था (अद्वैत , चैतन्य और नित्यानन्द की अवस्था) में पहुँच जाने पर मिलता है।] 

 [(2 जनवरी, 1884) -श्रीरामकृष्ण वचनामृत-73 ] 

🔆🙏'गुरुवाक्य' पर विश्वास ! 🔆🙏 

श्रीरामकृष्ण – फिर देखो, मुझे जप-तप भी अच्छे नहीं लगते । लेकिन (षट्चक्रों में ईश्वर का)  स्मरण-मनन सर्वदा बना रहता है । अच्छा, षट्चक्र क्या चीज है ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ — আবার দেখ, আমার জপতপও ভাল লাগে না। তবে সর্বদা স্মরণ-মনন আছে। আচ্ছা। ষট্‌চক্র, ওটা কি?

MASTER: "I don't care for japa and austerity. But I have constant remembrance and consciousness of God."  Tell me, when they speak of the six centres, what do they mean?"] 

[ षट्कमल में पद्म मृणाल-`शिव ' और पद्म कर्णिका - `शक्ति ' के प्रतीक हैं। ]

तान्त्रिकजी, वह सब (षट्चक्र ) अनेक तीर्थों की तरह है । प्रत्येक चक्र में शिव -शक्ति ^*विराजमान हैं, वे आँखों से देखे नहीं जाते, शरीर काटने पर भी नहीं मिलते ।

 [ शिव -शक्ति ^* पद्म का मृणाल (कमलनाल या कमल का डंठल जिसमें फूल लगा रहता है) मानो शिवलिंग के रूप में एवं पद्म कर्णिका (बीजाधार-कमल का छत्ता जिसमें से कमलगट्टे निकलते हैं ।) में आद्याशक्ति योनि रूप में विराजमान हैं। ]  

[তান্ত্রিক — আজ্ঞা, ও-সব নানা তীর্থের ন্যায়। এক-এক চক্রে শিবশক্তিঃ; চক্ষে দেখা যায় না; কাটলে বেরোয় না। পদ্মের মৃণাল শিবলিঙ্গ, পদ্ম কর্ণিকায় আদ্যাশক্তি যোনিরূপে।

TANTRIK: "These are like different holy places. In each of the centres dwell Siva and Sakti. One cannot see them with the physical eyes. One cannot take them out by cutting open the body."]

मणि चुपचाप सब सुन रहे हैं, उनकी ओर देखकर श्रीरामकृष्ण तान्त्रिक भक्त से पूछ रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण – (तान्त्रिक के प्रति) – अच्छा, बीजमन्त्र पाये बिना क्या कुछ सिद्ध होता है ?

[মণি নিঃশব্দে সমস্ত শুনিতেছেন। তাঁর দিকে তাকাইয়া শ্রীরামকৃষ্ণ তান্ত্রিকভক্তকে কি জিজ্ঞাসা করিতেছেন।শ্রীরামকৃষ্ণ (তান্ত্রিকের প্রতি) — আচ্ছা, বীজমন্ত্র না পেলে কি সিদ্ধ হয়?

M. listened silently to the conversation. Looking at him, the Master asked the Tantrik devotee, "Can a man attain perfection without the help of a Bija mantra, a sacred word from the guru?"] 

तान्त्रिकहोता है, 'विश्वास' द्वारा – 'गुरुवाक्य' पर विश्वास !

[তান্ত্রিক — হয়; বিশ্বাসে — গুরুবাক্যে বিশ্বাস।

TANTRIK: "Yes, he can if he has faith — faith in the words  of the Guru." 

['महावाक्य तत्त्वमसि'/ 'गुरुवाक्य'- गुरुमुख से (C-IN-C नेता नवनीदा के मुख से) शिष्य की आँखों में ऑंखें डालकर कहा गया वाक्य-  त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि। त्वमेव प्रत्यक्षम् ब्रह्म वदिष्यामि। ! ] 

श्रीरामकृष्ण –(मणि की ओर इशारा करके –समझते हो भाई ?)....  विश्वास !

[শ্রীরামকৃষ্ণ (মণির দিকে ফিরিয়া ও তাঁহাকে ইঙ্গিত করিয়া) —বিশ্বাস!

The Master turned to M. and said, drawing his attention,- "Faith!"]

 [(2 जनवरी, 1884) -श्रीरामकृष्ण वचनामृत-73 ] 

 🔆🙏 किसी व्यक्ति या  मत (शैव- शाक्त -वैष्णव या तंत्र) से विद्वेष नहीं करना चाहिए 🔆🙏

[কারুকে, কোন মতকে বিদ্বেষ করতে নাই।

[One should not harbour malice toward any person or any opinion.] 

तान्त्रिक भक्त के चले जाने पर ब्राह्म समाज के श्री जयगोपाल सेन आये । श्रीरामकृष्ण उनके साथ वार्तालाप कर रहे हैं । राखाल, मणि आदि भक्तगण पास बैठे हैं । तीसरे पहर का समय है ।

[তান্ত্রিকভক্ত চলিয়া গেলে ব্রাহ্মসমাজভুক্ত শ্রীযুক্ত জয়গোপাল সেন আসিয়াছেন। শ্রীরামকৃষ্ণ তাঁহার সহিত কথা কহিতেছেন। রাখাল, মণি প্রভৃতি ভক্তেরা আছেন। অপরাহ্ন।

After the Tantrik devotee had taken his leave, Jaygopal Sen, a member of the Brahmo Samaj, arrived. The Master talked with him.

श्रीरामकृष्ण – (जयगोपाल के प्रति) किसी से, किसी मत से विद्वेष नहीं करना चाहिए । निराकार-वादी, साकारवादी, सभी उन्हीं की ओर जा रहे हैं; ज्ञानी, योगी, भक्त सभी उन्हें खोज रहे हैं । ज्ञानमार्ग के लोग कहते हैं, ब्रह्म; योगीगण कहते हैं आत्मा, परमात्मा; भक्तगण कहते हैं, भगवान्; फिर यह भी है, नित्यप्रभु -नित्यदास ( "Eternal Lord and His Eternal Servant."नित्यप्रभु -नित्यदास वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा है~ 'Be and Make' ) ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (জয়গোপালের প্রতি) — কারুকে, কোন মতকে বিদ্বেষ করতে নাই। নিরাকারাবাদী, সাকারবাদী সকলেই তাঁর দিকে যাচ্ছে, জ্ঞানী, যোগী, ভক্ত সকলেই তাঁকে খুঁজছে, জ্ঞানপথের লোক তাঁকে বলে ব্রহ্ম, যোগীরা বলে আত্মা, পরমাত্মা ভক্তেরা বলে ভগবান, আবার আছে যে, নিত্য ঠাকুর, নিত্য দাস

MASTER (to Jaygopal): "One should not harbour malice toward any person or any opinion. The believers in the formless God and the worshippers of God with form are all, without exception, going toward God alone. The jnani, the yogi, the bhakta — all, without exception, are seeking Him alone. The follower of the path of knowledge calls Him 'Brahman'. The yogi calls Him 'Atman' or 'Paramatman'. The bhakta calls Him 'Bhagavan'. Further, (For Vedanta Leadership Training tradition Be and Make) it is said that there is the Eternal Lord and His Eternal Servant."

[जयगोपाल सेन - आदि  ब्रह्म समाज के सदस्य थे। 1875  ई. में, श्री रामकृष्ण केशव सेन से मिलने उनके बेलघाड़िया  (8-नंबर , बी.टी. रोड) स्थित उद्यानबाड़ी  में गए थे।  कलकत्ता में उनका घर माथाघषा गली (মাথা ঘষা -कोलकाता) में था, और श्री श्री ठाकुरदेव ने उस घर में भी पदार्पण किया था। जयगोपाल सेन ठाकुरदेव के अत्यन्त विश्वासपात्र थे। उनके घर पर ठाकुर अक्सर जाया करते थे , वहाँ धार्मिक तत्वों पर चर्चा होती थी , तथा भक्तों को उपदेश देते थे। जयगोपाल स्वयं भी समय-समय पर दक्षिणेश्वर आते रहते थे। ठाकुर देव के ब्राह्म भक्तों में से एक प्रिय भक्त थे। ]   

 [(2 जनवरी, 1884) -श्रीरामकृष्ण वचनामृत-73 ] 

 🔆🙏 किसी एक पथ से छत पर चढ़ जाने के बाद, किसी भी पथ से उतरा जा सकता है🔆🙏 

একবার কোন উপায়ে ছাদে উঠতে পারলে,যে কোন পথ দিয়ে নামা যায়।  

जयगोपाल – कैसे जानूँ कि सभी पथ सत्य हैं ?

[জয়গোপাল — সব পথই সত্য কেমন করে জানব?

JAYGOPAL: "How can we know that all paths are true?"

श्रीरामकृष्ण –  (गुरु द्वारा निर्दिष्ट कर्म,भक्ति, ज्ञान या मनःसंयोग में ) किसी भी पथ का ठीक-ठीक अनुसरण करते हुए ईश्वर तक पहुँचा जा सकता है; उस समय अन्य सभी पथों  का पता भी जाना जा सकता है । जैसे एक बार किसी तरह यदि छत पर उठना सम्भव हो सके, तो लकड़ी की सीढ़ी से भी उतरा जा सकता है, पक्की सीढ़ी से भी, एक बाँस के सहारे भी और एक रस्सी के द्वारा भी । 

[শ্রীরামকৃষ্ণ — একটা পথ দিয়ে ঠিক যেতে পারলে তাঁর খাছে পৌঁছানো যায়। তখন সব পথের খবর জানতে পারে। যেমন একবার কোন উপায়ে ছাদে উঠতে পারলে, কাঠের সিঁড়ি দিয়াও নামা যায়; পাকা সিঁড়ি দিয়াও নামা যায়; একটা বাঁশ দিয়াও নামা যায়; একটা দড়ি দিয়াও নামা যায়।

"A man can reach God if he follows one path rightly. Then he can learn about all the other paths. It is like reaching the roof by some means or other. Then one is able to climb down by the wooden or stone stairs, by a bamboo pole, or even by a rope.

“उनकी  कृपा होने पर भक्त सब कुछ जान सकता है । उन्हें एक बार प्राप्त करने पर सब कुछ जान सकोगे । एक बार किसी भी तरह बड़े बाबू (गुरु / नेता/C-IN-C Navni'daके साथ साक्षात्कार करना चाहिए, उनसे बातचीत करनी चाहिए – तब बाबू स्वयं ही बता देंगे कि उनके कितने बगीचे, तालाब, या कम्पनी के कागज़ हैं ।”

[“তাঁর কৃপা হলে, ভক্ত সব জানতে পারে। তাঁকে একবার লাভ হলে সব জানতে পারবে। একবার জো-সো করে বড়বাবু সঙ্গে দেখা করতে হয়, আলাপ করতে হয় — তখন বাবুই বলে দেবে তাঁর কখানা বাগান, পুকুর, কোম্পানির কাগজ।”

"A devotee can know everything when God's grace (नेता की कृपा)  descends on him. If you but realize Him, you will be able to know all about Him. You should somehow meet the master of a house and become acquainted with him; then he himself will tell you how many houses he owns and all about his gardens and government securities."

 [(2 जनवरी, 1884) -श्रीरामकृष्ण वचनामृत-73 ] 

🔆🙏ईश्वर-दर्शन के उपाय~क्या हैं ?🔆🙏

जयगोपाल – उनकी कृपा कैसे होती है ?

[জয়গোপাল — কি করে তাঁর কৃপা হয়?

JAYGOPAL: "How does one receive the grace of God?"

श्रीरामकृष्ण  – सदा उनके नाम व गुणों का कीर्तन (यम-नियम का पालन 24 X 7 ) करना चाहिए, जहाँ तक सम्भव हो सांसारिक चिन्तन (worldly thoughts) का त्याग करना चाहिए । तुम खेती करने के लिए अनेक कष्ट से खेत में जल ला रहे हो, परन्तु खेत की मेंड़ पर के एक छेद में से जल बाहर निकल जा रहा है । तब तो नाली काटकर जल लाना व्यर्थ हुआ, वृथा श्रम (Futile labor) ही हुआ ।

শ্রীরামকৃষ্ণ —  তাঁর নামগুণকীর্তন সর্বদা করতে হয়, বিষয়চিন্তা যত পার ত্যাগ করতে হয় — তুমি চাষ করবার জন্য ক্ষেতে অনেক কষ্টে জল আনছো, কিন্তু যোগ (আলের গর্ত) দিয়ে সব বেরিয়া যাচ্ছে। নালা কেটে জল আনা সব বৃথা পণ্ডশ্রম (Futile labor) হল।

 "Constantly you have to chant the name and glories of God and give up worldly thoughts as much as you can. With the greatest effort you may try to bring water into your field for your crops, but it may all leak out through holes in the ridges. Then all your efforts to bring the water by digging a canal will be futile.

“चित्तशुद्धि होने पर, विषय-भोग की आसक्ति दूर हो जाने पर व्याकुलता आयेगी । तुम्हारी प्रार्थना ईश्वर के पास पहुँचेगी । टेलिग्राफ का तार टूटा रहने पर अथवा उसमें अन्य कोई दोष रहने पर तार का समाचार नहीं पहुँचेगा ।

“চিত্তশুদ্ধি হলে, বিষয়াসক্তি চলে গেলে, ব্যাকুলতা আসবে; তোমার প্রার্থনা ঈশ্বরের কাছে পৌঁছিবে। টেলিগ্রাফের তারের ভিতর অন্য জিনিস মিশাল থাকলে বা ফুটো থাকলে তারের খবর পৌঁছিবে না।

"You will feel restless for God when your heart becomes pure and your mind free from attachment to the things of the world. Then alone will your prayer reach God. A telegraph wire cannot carry messages if it has a break or some other defect.

“मैं व्याकुल होकर एकान्त में रोता था । ‘कहाँ हो नारायण’ कह कर रोता था । रोते-रोते बाह्य ज्ञान लुप्त हो जाता था । `मैं ' बोध महावायु में लीन हो जाता था ।

[“আমি ব্যাকুল হয়ে একলা একলা কাঁদতাম; কোথায় নারায়ণ এই বলে কাঁদতাম। কাঁদতে কাঁদতে অজ্ঞান হয়ে যেতাম — মহাবায়ুতে লীন!

"I used to cry for God all alone, with a longing heart. I used to weep, 'O God, where art Thou?' Weeping thus, I would lose all consciousness of the world. My mind would merge in the Mahavayu.

[ 'यम,नियम' का पालन 24 X 7 तथा 'आसन, प्रत्याहार,धारणा' दो बार विधिवत करने से कामिनी-कांचन में आसक्ति दूर होने पर व्याकुलता आती है, और भ्रममुक्त करने की व्याकुल प्रार्थना (मरता कौन है ? ) टेलीग्राम बनकर माँ भवतारिणी के पास पहुँच जाती है। ]    

 [(2 जनवरी, 1884) -श्रीरामकृष्ण वचनामृत-73 ] 

🔆कामिनी -कांचन में आसक्ति के रहते योग नहीं होता 🔆 

“योग कैसे होता है ? टेलिग्राफ का तार टूटा न रहने पर या उसमें कोई दोष न रहने पर होता है । विषयों के प्रति आसक्ति का एकदम त्याग ।

[“যোগ কিসে হয়? টেলিগ্রাফের তারে অন্য জিনিস বা ফুটো না থাকলে হয়। একেবারে বিষয়াসক্তি ত্যাগ।

"How can one attain yoga? By completely renouncing attachment to worldly things. The mind must be pure and without blemish, like the telegraph wire that has no defect.

“किसी प्रकार की कामना-वासना नहीं रखनी चाहिए । कामना-वासना रहने पर उसे सकाम भक्ति कहते हैं, निष्काम भक्ति को अहेतुकी भक्ति कहते हैं । तुम प्यार करो या न करो फिर भी मैं तुम्हें प्यार करता हूँ – इसीका नाम है अहेतुक प्रेम !

[“কোন কামনা-বাসনা রাখতে নাই। কামনা-বাসনা থাকলে সকাম ভক্তি বলে! নিষ্কাম ভক্তিকে বলে অহেতুকী ভক্তি। তুমি ভালবাসো আর নাই বাসো, তবু তোমাকে ভালবাসি। এর নাম অহেতুকী।

"One must not cherish any desire whatever. The devotion of a man who has any desire is selfish. But desireless devotion is love for its own sake. You may love me or not, but I love you: this is love for its own sake.

“बात यह है, - उनसे प्रेम करना । प्रेम गहरा होने पर दर्शन होता है । पति पर सती का आकर्षण, सन्तान पर माँ का आकार्षण और विषयप्रिय व्यक्ति का सांसारिक विषयों के प्रति आकर्षण – ये तीन आकर्षण यदि एक ही साथ हो तो ईश्वर का दर्शन होता है ।”

[“কথাটা এই, তাঁকে ভালবাসা। খুব ভালবাসা হলে দর্শন হয়। সতীর পতির উপর টান, মায়ের সন্তানের উপর টান, বিষয়ীর বিষয়ের উপর টান — এই তিন টান যদি একত্র হয়, তাহলে ঈশ্বরদর্শন হয়।”

"The thing is that one must love God. Through intense love one attains the vision of Him. The attraction of the husband for the chaste wife, the attraction of the child for its mother, the attraction of worldly possessions for the worldly man — when a man can blend these three into one, and direct it all to God, then he gets the vision of God."

जयगोपाल विषयप्रिय व्यक्ति है, क्या इसीलिए श्रीरामकृष्ण उन्हीं के योग्य ये सब उपदेश दे रहे हैं ?

[জয়গোপাল বিষয়ী লোক; তাই কি শ্রীরামকৃষ্ণ তাঁহারই উপযোগী এ-সব উপদেশ দিতেছেন?

Jaygopal was a man of the world. Was this why the Master gave instruction suited to him?

  [(2 जनवरी, 1884) -श्रीरामकृष्ण वचनामृत-73 ] 

🔆🙏🔆 गुरुगृहवास का 21 वां दिन : गुरु ने मणि को तर्क-विचार करने से मना किया है 🔆🙏🔆

ঠাকুর মণিকে বিচার করিতে বারণ করিয়াছেন।

. The Master had forbidden him to indulge in reasoning.

श्रीरामकृष्ण अपने कमरे में बैठे हुए हैं । रात के आठ बजे होंगे । आज पूस की शुक्ला पंचमी है; बुधवार, 2  जनवरी, 1884। कमरे में राखाल और मणि हैं । श्रीरामकृष्ण (प्रभु)  के साथ रहने का मणि का आज इक्कीसवाँ दिन है ।

श्रीरामकृष्ण ने मणि को तर्क-विचार करने से मना किया है ।

[ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ ঘরে বসিয়া আছেন। রাত্রি প্রায় ৮টা হইবে। আজ পৌষ শুক্লা পঞ্চমী, বুধবার, ২রা জানুয়ারি, ১৮৮৪ খ্রীষ্টাব্দ। ঘরে রাখাল ও মণি আছেন। মণির আজ প্রভুসঙ্গে একবিংশতি দিবস।ঠাকুর মণিকে বিচার করিতে বারণ করিয়াছেন।

At eight o'clock that evening the Master was sitting m his room with Rakhal and M. It was the twenty-first day of M.'s stay with Sri Ramakrishna. The Master had forbidden him to indulge in reasoning.

  [(2 जनवरी, 1884) -श्रीरामकृष्ण वचनामृत-73 ] 

🙏🔆  कॉमन सेन्स कहता है ~मरा,मरा >राम, राम  पहले जगत जननी हैं, फिर जगत 🔆🙏

[বেশি বিচার করা ভাল না। আগে ঈশ্বর তারপর জগৎ 

It is not good to reason too much. First comes God, and then the world.]

श्रीरामकृष्ण – राखाल से – ज्यादा तर्क-विचार करना अच्छा नहीं । पहले ईश्वर (जगतजननी) है, फिर संसार (जगत ) । उन्हें पा लेने पर उनके संसार के सम्बन्ध में भी ज्ञान हो जाता है ।

[ শ্রীরামকৃষ্ণ (রাখালের প্রতি) — বেশি বিচার করা ভাল না। আগে ঈশ্বর তারপর জগৎ — তাঁকে লাভ করলে তাঁর জগতের বিষয়ও জানা যায়।

"It is not good to reason too much. First comes God, and then the world. Realize God first; then you will know all about His world. 

(मनि और राखाल से) “यदु मल्लिक से बातचीत करने पर उसके कितने मकान हैं, कितने बगीचे हैं, कम्पनी के कागजात कितने हैं – यह सब समझ में आ जाता है ।

“इसीलिए तो ऋषियों ने वाल्मीकि को ‘मरा-मरा’ जपने के लिए उपदेश दिया था । इसका एक विशेष अर्थ है । ‘म’ का अर्थ है ईश्वर और ‘रा’ का अर्थ संसार, - पहले ईश्वर, फिर संसार 

“कृष्णकिशोर ने कहा था, ‘मरा-मरा शुद्ध मन्त्र है; क्योंकि वह ऋषि का दिया हुआ है । ‘म’ अर्थात् ईश्वर और ‘रा’ अर्थात् संसार ।

[(মণি ও রাখালের প্রতি) — “যদু মল্লিকের সঙ্গে আলাপ করলে তার কত বাড়ি, বাগান, কোম্পানির কাগজ, সব জানতে পারা যায়।“তাই তো ঋষিরা বাল্মীকিকে ‘মরা’ ‘মরা’ জপ করতে বললেন।“ওর একটু মানে আছে; ‘ম’ মানে ঈশ্বর, ‘রা’ মানে জগৎ — আগে ঈশ্বর, তারপরে জগৎ।”

MASTER (to Rakhal): "It is not good to reason too much. First comes God, and then the world. Realize God first; then you will know all about His world. (To M. and Rakhal) If first one is introduced to Jadu Mallick, then one can know everything about him — the number of his houses, gardens, government securities, and so on. For this reason the rishi Narada advised Valmiki1 to repeat the word 'mara'. 'Ma' means God, and 'ra' the world. First comes God, and then the world. Krishnakishore said that the word 'mara' is a holy mantra because it was given to Valmiki by the rishi. 'Ma' means God, and 'ra' the world. 

  [(2 जनवरी, 1884) -श्रीरामकृष्ण वचनामृत-73 ] 

🔆🙏साधना क्रम पहले ईश्वर  का दर्शन, फिर शास्त्र और जगत को लेकर तर्क विचार 🔆🙏

“इसीलिए वाल्मीकि ^ की तरह पहले सब कुछ छोड़कर निर्जन में व्याकुल हो रो-रोकर ईश्वर को पुकारना चाहिए । पहले आवश्यक है ईश्वर-दर्शन । उसके बाद है तर्क-विचार – शास्त्र और संसार के सम्बन्ध में

[“তাই আগে বাল্মীকির মতো সব ত্যাগ করে নির্জনে গোপনে ব্যাকুল হয়ে কেঁদে কেঁদে ঈশ্বরকে ডাকতে হয়। আগে দরকার ঈশ্বরদর্শন! তারপর বিচার — শাস্ত্র, জগৎ।”

"Therefore, like Valmiki, one should at first renounce everything and cry to God in solitude (Camp) with a longing heart. The first thing necessary is the vision of God; then comes reasoning — about the scriptures and the world.

[^ महर्षि वाल्मीकि : रामायण के रचयिता । कहा जाता है कि  ऋषि वाल्मीकि पहले एक 'लुटेरा डाकू' (highwayman)  थे। लेकिन गुरु / नेता नारद के संपर्क में आकर वे आध्यात्मिक जीवन जीने के प्रति आतुर हो गए। नारद ने उन्हें आध्यात्मिक साधना के रूप में ब्रह्म या माँ काली के अवतार 'राम' के पवित्र नाम का जाप करने के लिए कहा।  लेकिन  sinful tendency of his mind अपने मन की पापमय प्रवृत्ति के कारण वाल्मीकि पवित्र नाम  का उच्चारण नहीं कर सके। तब देवर्षि नारद ने  उन्हें 'राम' के विपरीत 'मरा -मरा ' शब्द दोहराने की सलाह दी।  तीव्र व्याकुलता और लगन के साथ लुटेरा  डाकू -वाल्मीकि का हृदय शुद्ध हो गया।  और तब उनके  लिए राम का नामजप करना संभव हो गया। फलस्वरूप उन्होंने सिद्धि प्राप्त की।

^The author of the Ramayana. It is said that this sage had lived the life of a highwayman. Coming in contact with Narada, he became eager to lead a spiritual life. Narada asked him to chant the holy name of Rama as a spiritual discipline; but on account of the sinful tendency of his mind, Valmiki could not utter the holy word. He was then advised to repeat the word 'mara', the reverse of 'Rama'. Through yearning and earnestness the heart of the robber became purified, and it was then possible for him to chant Rama's name. As a result he attained perfection.] 

  [(2 जनवरी, 1884) -श्रीरामकृष्ण वचनामृत-73 ] 

 🔆🙏 हे माँ  ! तुम अपने वज्र से मेरी तर्क करने की इच्छा को भष्म कर दो !🔆🙏

 [ঠাকুরের রাস্তায় ক্রন্দন — “মা বিচার-বুদ্ধিতে বজ্রাঘাত দাও” — ১৮৬৮ ]

'O Mother, blight with Thy thunderbolt my desire to reason!'

Eight-pointed thunderbolt. **

[अजेय अष्टांग वज्र]  

(मणि के प्रति) “इसीलिए तुमसे कहता हूँ, अब और अधिक तर्क-विचार न करना । यही बात कहने के लिए मैं झाऊतल्ले से उठकर आया हूँ । ज्यादा तर्कविचार करने पर अन्त में हानि होती है । अन्त में हाजरा की तरह हो जाओगे । मैं रात में अकेला रास्ते पर रो-रोकर टहलता और कहता था, ‘माँ, मेरी विचार-बुद्धि पर वज्रप्रहार ^* (thunderbolt strike) आकर दो ।’ “कहो (शपथ लो कि), अब और तर्क-विचार न करोगे ?”

[ (মণির প্রতি) — “তাই তোমাকে বলছি, — আর বিচার করো না। আমি ঝাউতলা থেকে উঠে যাচ্ছিলাম ওই কথা বলতে। বেশি বিচার করলে শেষে হানি হয়। শেষে হাজরার মতো হয়ে যাবে। আমি রাত্রে একলা রাস্তায় কেঁদে কেঁদে বেড়াতাম আর বলেছিলাম —‘মা, বিচার-বুদ্ধিতে বজ্রাঘাত দাও।“বল, আর (বিচার) করবে না?”

"That is why I have been telling you not to reason any more. I came from the pine-grove to say that to you. Through too much reasoning your spiritual life will be injured; you will at last become like Hazra. I used to roam at night in the streets, all alone, and cry to the Divine Mother, 'O Mother, blight with Thy thunderbolt my desire to reason!' Tell me that you won't reason any more."

मणि – जी नहीं ।

মণি — আজ্ঞা, না।M: "Yes, sir. I won't reason any more." 

   [(2 जनवरी, 1884) -श्रीरामकृष्ण वचनामृत-73 ] 

🔆🙏गुरु (नेता ) पर पूरा विश्वास रखें, गुरु-भक्ति से ही सब कुछ प्राप्त होता है 🔆🙏

श्रीरामकृष्ण – भक्ति से ही सब कुछ प्राप्त होता है । जो लोग ब्रह्मज्ञान चाहते हैं, यदि वे भक्तिमार्ग ^* पकड़े रहें, तो उन्हें ब्रह्मज्ञान भी हो जाता है ।

(भक्तिमार्ग^*अवतार वरिष्ठ का गुरु-प्रदत्त नाम पकड़े रहें!) 

[শ্রীরামকৃষ্ণ — ভক্তিতেই সব পাওয়া যায়। যারা ব্রহ্মজ্ঞান চায়, যদি ভক্তির রাস্তা (अवतार वरिष्ठ)  ধরে থাকে, তারা ব্রহ্মজ্ঞানও পাবে।

"Everything can be achieved through bhakti alone. Those who want the Knowledge of Brahman will certainly achieve that also by following the trail of bhakti.

“उनकी दया ( गुरु का चपरास)  रहने पर क्या कभी ज्ञान का अभाव भी होता है ? उस देश में (कामारपुकुर में) धान नापते हैं । जब राशि चूक जाती है, तब एक आदमी और धान ठेल देता है, इस तरह राशि फिर तैयार हो जाती है । माँ ही ज्ञान की राशि पूरी करती जाती हैं ।

[“তাঁর দয়া থাকলে কি জ্ঞানের অভাব থাকে? ও-দেশে ধান মাপে, যেই রাশ ফুরোয় অমনি একজন রাশ ঠেলে দেয়! মা জ্ঞানের রাশ ঠেলে দেন।”

"Can a man blessed with the grace of God (चपरास ) ever lack Knowledge? At Kamarpukur I have seen grain-dealers measuring paddy. As one heap is measured away another heap is pushed forward to be measured. The Mother supplies the devotees with the 'heap' of Knowledge.]

   [(2 जनवरी, 1884) -श्रीरामकृष्ण वचनामृत-73 ] 

🔆अवतार वरिष्ठ (माँ काली-सच्चिदानन्द नेता,गुरु,ठाकुरदेव,) के भीतर ही ब्रह्माण्ड है🔆  

“उन्हें (जिनके भीतर ब्रह्माण्ड है) प्राप्त कर लेने पर पण्डितगण सब घास-पात की तरह जान पड़ते हैं । पद्मलोचन ने कहा था, तुम्हारे साथ मछुआ (केवट) ^  के घर की सभा में भी जाऊँगा, इसमें भला हर्ज ही क्या है ? –तुम्हारे साथ चमार के यहाँ भी जाकर मैं भोजन कर सकता हूँ ।

[“তাঁকে লাভ করলে পণ্ডিতদের খড়কুটো বোধ হয়। পদ্মলোচন বলেছিল, ‘তোমার সঙ্গে কৈবর্তের বাড়িতে যাব, তার আর কি? — তোমার সঙ্গে হাড়ির বাড়ি গিয়ে থাকতে পারি!’

"After attaining God, one looks on a pundit as mere straw and dust. Padmalochan said to me: 'What does it matter if I accompany you to a meeting at the house of a fisherman?2 With you I can dine even at the house of a pariah.']

[^ माथुर बाबू का संदर्भ, जो मछुआरे जाति के थे। रूढ़िवादी ब्राह्मण एक मछुआरे के घर में पैर भी नहीं रखते थे।   ।^A reference to Mathur Babu, who belonged to the fisherman caste. The orthodox brahmin refuses to set foot in the house of a fisherman, who belongs to a low caste.]

   [(2 जनवरी, 1884) -श्रीरामकृष्ण वचनामृत-73 ] 

🔆माता  के भीतर ब्रह्माण्ड है : जानने वाले गणेश के गले में माँ की माला पड़ी 🔆 

“भक्ति के द्वारा सब मिलते हैं । उन्हें प्यार कर सकने पर फिर कसी चीज का अभाव नहीं रह जाता । माता भगवती के पास कार्तिकेय और गणेश ^  बैठे हुए थे । उनके गले में मणियों की माला पड़ी थी । माता ने कहा, जो पहले इस ब्रह्माण्ड की परिक्रमा करके आ जायगा, उसी को मैं यह माला दे दूँगी । कार्तिक उसी समय फ़ौरन ही मयूर पर चढ़कर चल दिये । गणेश ने धीरे-धीरे माता की परिक्रमा करके उन्हें प्रणाम किया । गणेश जानते थे, माता के भीतर ही ब्रह्माण्ड है । माँ ने प्रसन्न होकर गणेश को हार पहना दिया । बड़ी देर बाद कार्तिक ने आकर देखा कि उनके दादा हार पहने हुए बैठे थे ।

  (कार्तिकेय और गणेश ^ ^ भगवती माँ पार्वती  के दो पुत्र ।) 

[“ভক্তি দ্বারাই সব পাওয়া যায়। তাঁকে ভালবাসতে পারলে আর কিছুরই অভাব থাকে না। ভগবতির কাছে কার্তিক আর গণেশ বসেছিলেন। তাঁর গলায় মণিময় রত্নমালা। মা বললেন, ‘যে ব্রহ্মাণ্ড আগে প্রদক্ষিণ করে আসতে পারবে, তাকে এই মালা দিব।’ কার্তিক তৎক্ষণাৎ ক্ষণবিলম্ব না করে ময়ূরে চড়ে বেরিয়ে গেলেন। গণেশ আস্তে আস্তে মাকে প্রদক্ষিণ করে প্রণাম করিলেন। গণেশ জানে মার ভিতরেই ব্রহ্মাণ্ড! মা প্রসন্না হয়ে গণেশের গলায় হার পরিয়ে দিলেন। অনেকক্ষণ পরে কার্তিক এসে দেখে যে, দাদা হার পরে বসে আছে।

"Everything can be realized simply through love of God. If one is able to love God, one does not lack anything. Kartika and Ganesa3 were seated near Bhagavati, who had a necklace of gems around Her neck. The Divine Mother said to them, 'I will present this necklace to him who is the first to go around the universe.' Thereupon Kartika, without losing a moment, set out on the peacock, his carrier. Ganesa, on the other hand, in a leisurely fashion went around the Divine Mother and prostrated himself before Her. He knew that She contained within Herself the entire universe. The Divine Mother was pleased with him and put the necklace around his neck. After a long while Kartika returned and found his brother seated there with the necklace on.

   [(2 जनवरी, 1884) -श्रीरामकृष्ण वचनामृत-73 ] 

🔆 विश्व में सर्वत्र  शिव और शक्ति (पुरुष और प्रकृति)  का रमण चल रहा है । 🔆 

“मैंने माँ से रो-रोकर कहा था, ‘माँ ! वेद-वेदान्त में क्या है, मुझे बता दो, - पुराण-तन्त्रों में क्या है, मुझे बता दो ।’

“उन्होंने मुझे सब कुछ बता दिया है – कितनी बातें दिखायी हैं ।

[“মাকে কেঁদে কেঁদে আমি বলেছিলাম, ‘মা, বেদ-বেদান্তে কি আছে, আমায় জানিয়ে দাও — পুরাণ তন্ত্রে কি আছে, আমায় জানিয়ে দাও।’ তিনি একে একে আমায় সব জানিয়ে দিয়েছেন।“তিনি আমাকে সব জানিয়ে দিয়েছেন, — কত সব দেখিয়ে দিয়েছেন।”

"Weeping, I prayed to the Mother: 'O Mother, reveal to me what is contained in the Vedas and the Vedanta. Reveal to me what is in the Purana and the Tantra.' One by one She has revealed all these to me.] 

श्रीरामकृष्ण – एक दिन दिखाया चारों और शिव और शक्ति ! शिव और शक्ति का रमण ! मनुष्यों, जीव-जन्तुओं, वृक्षों और लताओं – सभी में वही शिव और शक्ति – पुरुष और प्रकृति – सर्वत्र इन्हीं का रमण ।

[“একদিন দেখালেন, চর্তুদিকে শিব আর শক্তি। শিব-শক্তির রমণ। মানুষ, জীবজন্তু, তরুলতা, সকলের ভিতরেই সেই শিব আর শক্তি — পুরুষ আর প্রকৃতি। এদের রমণ।

"Yes, She has taught me everything. Oh, how many things She has shown me! One day She showed me Siva and Sakti everywhere. Everywhere I saw the communion of Siva and Sakti. Siva and Sakti existing in all living things — men, animals, trees, plants. I saw Them in the communion of all male and female elements.

🔆🙏🔆 [(2, 4 जनवरी, 1884 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-73] 🔆🙏🔆

🙏नमक का पुतला  समुद्र की थाह लेते समय श्रीगुरुकृपा से पत्थर बन जाता है🙏

“दूसरे दिन दिखाया कि नर-मुण्डों की राशि लगी हुई है ! – पर्वताकार – और कहीं कुछ नहीं ! उनके बीच में मैं अकेला बैठा हुआ हूँ ।

[“আর-একদিন দেখালেন — নৃমুণ্ডস্তূপাকার! — পর্বতাকার! আর কিছুই নাই! — আমি তার মধ্যে একলা বসে!

"Another day I was shown heaps of human heads, mountain high. Nothing else existed, and I was seated alone in their midst.

“और एक बार दिखाया, महासमुद्र, मैं नमक का पुतला होकर उसकी थाह लेने जा रहा हूँ ! थाह लेते समय श्रीगुरुकृपा से पत्थर बन गया ! देखा, एक जहाज आ रहा है, बस उमड़ पड़ा ! – श्रीगुरुदेव कर्णधार थे ।”

[“আর-একবার দেখালেন মহাসমুদ্র! আমি লবণ-পুত্তলিকা হয়ে মাপতে যাচ্ছি! মাপতে গিয়ে গুরুর কৃপায় পাথর হয়ে গেলুম! দেখলাম জাহাজ একখানা; — অমনি উঠে পড়লাম! — গুরু কর্ণধার! 

"Still another day She showed me an ocean. Taking the form of a salt doll, I was going to measure its depth. While doing this, through the grace of the guru I was turned to stone. Then I saw a ship and at once got into it. The helmsman was the guru. 

“सच्चिदानन्द गुरु को रोज प्रातःकाल पुकारते हो न ?”

[(মণির প্রতি) সচ্চিদানন্দ গুরুকে রোজ তো সকালে ডাকো?”

I hope you pray every day to Satchidananda, who is the Guru. Do you?"

मणि – जी हाँ ।

[মণি — আজ্ঞা, হাঁ।

M: "Yes, sir."

श्रीरामकृष्ण – गुरु कर्णधार हैं । फिर देखा, ‘मैं एक अलग हूँ, ‘तुम’ एक अलग फिर कूदा और मछली बन गया । देखा कि सच्चिदानन्द-समुद्र में आनन्दपूर्वक विचर रहा हूँ ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — গুরু কর্ণধার। তখন দেখছি, আমি একটি, তুমি একটি। আবার লাফ দিয়ে পড়ে মীন হলাম। সচ্চিদানন্দ-সাগরে আনন্দে বেড়াচ্চি দেখলাম।

MASTER: "The guru was the helmsman in that boat. I saw that 'I' (प्रभु) and 'you' (दास)  were two different things. Again I jumped into the ocean, and was changed into a fish. I found myself swimming joyfully in the Ocean of Satchidananda.

“ये सब बड़ी ही गुह्य कथाएँ हैं । तर्क-विचार करके क्या समझोगे ? वे जब दिखा देते हैं, तब सब प्राप्त होता है, किसी वस्तु का अभाव नहीं रहता ।”

[“এ-সব অতি গুহ্যকথা! বিচার করে কি বুঝবে? তিনি যখন দেখিয়ে দেন, তখন সব পাওয়া যায় — কিছুরই অভাব থাকে না।”

"These are all deep mysteries. What can you understand through reasoning ing? You will realize everything when God Himself teaches you. Then you will not lack any knowledge."

 [(4 जनवरी, 1884) -श्रीरामकृष्ण वचनामृत-73 ] 

शुक्रवार, 4 जनवरी 1884 ई.दिन के चार बजे के समय श्रीरामकृष्ण पंचवटी में बैठे हैं । मुख पर हँसी है और साथ हैं मणि, हरिपद आदि । हरिपद के साथ स्व. ( बंगला=৺) आनन्द चटर्जी के बारे में बातें हो रही हैं और घोषपाड़ा के साधन-भजन की बातें

[আজ শুক্রবার, ৪ঠা জানুয়ারি, ১৮৮৪ খ্রীষ্টাব্দ, বেলা ৪টার সময় শ্রীরামকৃষ্ণ পঞ্চবটীতে বসিয়া আছেন। সহাস্যবদন। সঙ্গে মণি, হরিপদ প্রভৃতি। ৺আনন্দ চাটুজ্যের কথা হরিপদের সহিত হইতেছে ও ঘোষপাড়ার সাধন-ভজনের কথা

धीरे-धीरे श्रीरामकृष्ण अपने कमरे में आकर बैठे हैं । मणि, हरिपद, राखाल आदि भक्तगण भी उनके साथ रहते हैं । मणि अधिक समय बेलतला में रहते हैं ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ ক্রমে নিজের ঘরে আসিয়া বসিয়াছেন। মণি, হরিপদ, রাখালাদি ভক্তগণও থাকেন, মণি বেলতলায় অনেক সময় থাকেন।

Friday, January 4, 1884 : Sri Ramakrishna was sitting in his room. M. was still staying with the Master, devoting his time to the practice of spiritual discipline. He had been spending a great part of each day in prayer and meditation under the bel-tree, where the Master had performed great austerities and had seen many wonderful visions of God.] 

  🔆🙏🔆 [(2, 4 जनवरी, 1884 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-73] 🔆🙏🔆

🔆 'सन्तान भाव', 'वीरभाव' से क्यों अच्छा है ? मायादेवी शर्म से रास्ता छोड़ देती है 🔆

श्रीरामकृष्ण –(मणि के प्रति) – और अधिक विचार न करो उससे अन्त में हानि होती है । उन्हें बुलाते समय एक भाव का सहारा लेना पड़ता है – सखीभाव, दासीभाव, सन्तानभाव या वीरभाव

[শ্রীরামকৃষ্ণ (মণির প্রতি) — বিচার আর করো না। ওতে শেষে হানি হয়। তাঁকে ডাকবার সময় একটা ভাব আশ্রয় করতে হয়। সখীভাব, দাসীভাব, সন্তানভাব বা বীরভাব।

MASTER (to M.): "Don't reason any more. In the end, reasoning only injures the aspirant. One should assume a particular attitude toward God while praying to Him — the attitude of friend or servant or son or 'hero'.

“मेरा सन्तानभाव है । इस भाव को देखने पर मायादेवी रास्ता छोड़ देती हैं – शर्म से !

[“আমার সন্তানভাব। এভাব দেখলে মায়াদেবী পথ ছেড়ে দেন — লজ্জায়।"

I assume the attitude of a child. To me every woman is my mother. The divine Maya, seeing this attitude in an aspirant, moves away from his path out of sheer shame.

वीर भाव ("The attitude of 'hero' ) बहुत कठिन है । शाक्त तथा वैष्णव बाउलों का है । उस भाव में स्थिर रहना बहुत कठिन है।

 फिर हैं – शान्त, दास्य, सख्य और वात्सल्य तथा मधुरभाव । मधुरभाव में – शान्त, दास्य, सख्य और वात्सल्य – सब हैं । (मणि के प्रति) तुम्हें कौन भाव अच्छा लगता है ?”

[“বীরভাব বড় কঠিন। শাক্ত ও বৈষ্ণব বাউলদের আছে। ওভাবে ঠিক থাকা বড় শক্ত। আবার আছে — শান্ত, দাস্য, সখ্য, বাৎসল্য ও মধুরভাব। মধুরভাবে সব আছে — শান্ত, দাস্য, সখ্য, বাৎসল্য।(মণির প্রতি) — “তোমার কোন্‌টা ভাল লাগে?”

 ​"The attitude of 'hero' is extremely difficult. The Saktas and the Bauls among the Vaishnavas follow it, but it is very hard to keep one's spiritual life pure in that attitude. One can assume other attitudes toward God as well — the attitude in which the devotee serenely contemplates God as the Creator, the attitude of service to Him, the attitude of friendship, the attitude of motherly affection, or the attitude of conjugal love. The conjugal relationship, the attitude of a woman to her husband or sweetheart, contains all the rest — serenity, service, friendship, and motherly affection. (To M.) Which one of these appeals to your mind?"

मणि – सभी भाव अच्छे लगते हैं ।

[মণি — সব ভাবই ভাল লাগে।M: "I like them all."

  🔆🙏🔆 [(2, 4 जनवरी, 1884 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-73] 🔆🙏🔆

🔆सिद्ध स्थिति के प्रेम में काम (lust) की गन्ध तक नहीं रहेगी 🔆 

 * चण्डीदास और धोबिन की कथा*

(চন্ডীদাস ও রজকিনীর কথা)

श्रीरामकृष्ण - सब भाव सिद्ध स्थिति में अच्छे लगते हैं । उस स्थिति में काम की गन्ध तक नहीं रहेगी वैष्णव-शात्र में चण्डीदास और धोबिन की कथा * है – उनके प्रेम में काम की गन्ध तक न थी ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — সব ভাব সিদ্ধ অবস্থায় ভাল লাগে। সে অবস্থায় কামগন্ধ থাকবে না। বৈষ্ণব শাস্ত্রে আছে চন্ডীদাস ও রজকিনীর কথা — তাদের ভালবাসা কামগন্ধ বিবর্জিত!

MASTER: "When one attains perfection one takes delight in all these relationships. In that state a devotee has not the slightest trace of lust. The holy books of the Vaishnavas speak of Chandidas and the washerwoman. Their love was entirely free from lust.

“इस स्थिति में (सिद्ध-स्थिति में)  प्रकृतिभाव होता है । “अपने को पुरुष मानने की बुद्धि नहीं रहती । मीराबाई के स्त्री होने के कारण रूप गोस्वामी ^*  जी उनसे मिलना नहीं चाहते थे । मीराबाई ^* ने कहला भेजा, “श्रीकृष्ण ही एकमात्र पुरुष है; वृन्दावन में सभी लोग उस पुरुष की दासियाँ हैं ।’ क्या गोस्वामीजी को पुरुषत्व का अभिमान करना उचित था ?

[“এ-অবস্থায় প্রকৃতিভাব। আপনাকে পুরুষ বলে বোধ থাকে না। রূপ গোস্বামী মীরাবাঈ স্ত্রীলোক বলে তাঁর সহিত দেখা করতে চান নাই। মীরাবাঈ বলে পাঠালেন ‘শ্রীকৃষ্ণই একমাত্র পুরুষ’, বৃন্দাবনে সকলেই সেই পুরুষের দাসী; গোস্বামীর পুরুষ অভিমান করা কি ঠিক হয়েছে?”

          [रूप गोस्वामी को  मीराबाई की शिक्षा - वृन्दावन में पुरुषोत्तम कृष्ण के सिवा सभी प्रकृति]  

[चैतन्य महाप्रभु (1486-1534),श्री रूप गोस्वामी (1493 – 1564 ) तथा  मीरा बाई (1498 - 1547) : हिंदू धर्म में नाम-जप को ही वैष्णव धर्म माना गया है और भगवान श्रीकृष्ण को प्रधानता दी गई है। चैतन्य महाप्रभु (1486-1534) ने इन्हीं की उपासना की और नवद्वीप से अपने छः प्रमुख अनुयायियों को वृंदावन भेजकर वहां सप्त देवालयों की आधारशिला रखवाई। चैतन्य महाप्रभु ने लोगों की असीम लोकप्रियता और स्नेह प्राप्त किया।  बंगाल के एक शासक के मंत्री रूप गोस्वामी तो मंत्री पद त्यागकर चैतन्य महाप्रभु के शरणागत हो गए थे। इन्होंने 22 वर्ष की आयु में गृहस्थाश्रम त्याग कर दिया था। बाद के 51 वर्ष ये ब्रज में ही रहे। (सिद्ध स्थिति अर्थात M/F के मिथ्या व्यष्टि अहं के माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट 'मैं ' में रूपान्तरित हो जाने की स्थिति में।) श्री रूप गोस्वामी  यह देख पाने में समर्थ थे कि -सभी मानवदेह रूपी लोटस -टेम्पल में वही शिव और शक्ति – पुरुष और प्रकृति – सर्वत्र इन्हीं का रमण हो रहा है। (षट्कमल मानो तीर्थों की तरह है जिसके प्रत्येक चक्र में शिव -शक्ति विराजमान हैं, पद्म का मृणाल मानो शिवलिंग के रूप में एवं पद्म कर्णिका (बीजाधार) में आद्याशक्ति योनि रूप में विराजमान हैं।) अतः चैतन्य महाप्रभु  के सिद्धान्त अनुसार हरि-नाम में रुचि, जीव मात्र पर दया एवं वैष्णवों की सेवा करना उनके स्वभाव में था मीरा बाई (1498 - 1547) : रूप गोस्वामी से 5 वर्ष छोटी थीं। सन्‌ 1539 में मीरा बाई वृंदावन में रूप गोस्वामी से मिलीं। उस समय उनकी आयु  41 वर्ष थी। एक दिन मीरा वृन्दावन के उच्चकोटि के सन्त रूप गोस्वामी से मिलने गई परन्तु उन्होंने मीरा से मिलने से इनकार कर दिया और कहा कि वे स्त्रियों से भेंट नहीं करते हैं । इसके उत्तर में मीरा ने कहला भेजा कि “ क्या वृन्दावन में पुरुष निवास करते हैं ? यदि वृन्दावन में कोई पुरुष है तो वे केवल श्रीकृष्ण हैं, बाकी सभी लोग उस पुरुष की दासियाँ हैं । ” रूप गोस्वामी इस उत्तर को सुनकर मीरा से भेंट करने को सहमत हो गए । 

   धर्म (सनातन) क्या है ? 

 [(2, 4 जनवरी, 1884 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-73] 🔆

  🔆🙏सनातन धर्म तथा अन्य सम्प्रदायों के विषय में श्रीरामकृष्ण देव की भविष्यवाणी 🔆🙏

सायंकाल के बाद मणि फिर श्रीरामकृष्ण के चरणों के पास बैठे हैं । समाचार आया है कि श्री केशव सेन की अस्वस्थता बढ़ गयी है । उन्हीं के सम्बन्ध में वार्तालाप के सिलसिले में ब्राह्म समाज की बातें हो रही हैं ।

[সন্ধ্যার পর মণি আবার শ্রীরামকৃষ্ণের পাদমূলে বসিয়া আছেন। সংবাদ আসিয়াছে শ্রীযুক্ত কেশব সেনের অসুখ বাড়িয়াছে। তাঁহারই কথা প্রসঙ্গে ব্রাহ্মসমাজের কথা হইতেছে।

At dusk M. was sitting at the Master's feet. Sri Ramakrishna had been told that Keshab's illness had taken a turn for the worse. He was talking about Keshab and incidentally about the Brahmo Samaj.

श्रीरामकृष्ण – (मणि के प्रति) – हाँ, जी, उनके यहाँ क्या केवल व्याख्यान ही होते हैं, या ध्यान भी ? वे अपनी प्रार्थना को शायद कहते हैं ‘उपासना’ ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (মণির প্রতি) — হ্যাঁগা; ওদের ওখানে কি কেবল লেকচার দেওয়া? না ধ্যানও আছে? ওরা বুঝি বলে উপাসনা।

MASTER (to M.): "Do they only give lectures in the Brahmo Samaj? Or do they also meditate? I understand that they call their service in the temple upasana.]

“केशव ने पहले ईसाई धर्म, ईसाई मत का बहुत चिन्तन किया था – उस समय तथा उससे पूर्व वे देवेन्द्र ठाकुर के यहाँ थे ।”

[“কেশব আগে খ্রীষ্টান ধর্ম, খ্রীষ্টানী মত খুব চিন্তা করেছিলেন। — সেই সময় ও তার আগে দেবেন্দ্র ঠাকুরের ওখানে ছিলেন।”

"Keshab at one time thought a great deal of Christianity and the Christian views. At that time, and even before, he belonged to Devendranath Tagore's organization."

मणि – केशव बाबू यदि पहले-पहल यहाँ आये होते, तो समाजसंस्कार पर माथापच्ची न करते । जातिभेद को उठा देना, विधवा विवाह, असवर्ण विवाह, स्त्री-शिक्षा आदि सामाजिक कामों में उतने व्यस्त न होते ।

[মণি — কেশববাবু প্রথম প্রথম যদি এখানে আসতেন তাহলে সমাজ সংস্কার নিয়ে ব্যস্ত হতেন না। জাতিভেদ উঠানো, বিধবা বিবাহ, অন্য জাতে বিবাহ, স্ত্রীশিক্ষা ইত্যাদি সামাজিক কর্ম লয়ে অত ব্যস্ত হতেন না।

M: "Had Keshab Babu come here from the very beginning, he would not have been so preoccupied with social reform. He would not have been so busy with the abolition of the caste system, widow remarriage, intercaste marriage, women's education, and such social activities."

श्रीरामकृष्ण --केशव अब काली मानते हैं – चिन्मयी काली – आद्याशक्ति । और माँ माँ कहकर उनके नामगुणों का कीर्तन करते हैं । अच्छा, क्या ब्राह्म समाज बाद में सिर्फ सामाजिक संस्कार की ही एक संस्था बन जायगा ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ — কেশব এখন কালী মানেন — চিন্ময়ী কালী — আদ্যাশক্তি। আর মা মা বলে তাঁর নামগুণকীর্তন করেন।“আচ্ছা, ব্রাহ্মসমাজ ওইরকম কি একটা পরে দাঁড়াবে?”

MASTER: "Keshab now believes in Kali as the Embodiment of Spirit and Consciousness, the Primal Energy. Besides, he repeats the holy name of the Mother and chants Her glories. "Do. you think the Brahmo Samaj will develop in the future into a sort of social-reform organization?"

मणि – इस देश (भारतवर्ष)  की जमीन (मिट्टी) वैसी नहीं है । जो ठीक है वही यहाँ पर जड़ पा सकेगा ।

[মণি — এ-দেশের মাটি তেমন নয়। ঠিক যা, তা একবার হবেই।

M: "The soil of this country is different. Only what is true survives here."

श्रीरामकृष्ण – हाँ, सनातन धर्म, ऋषिलोग जो कुछ कह गये हैं वही रह जायगा । तथापि ब्राह्म समाज और उसी प्रकार के सम्प्रदाय भी कुछ-कुछ रहेंगे । सभी ईश्वर की इच्छा से हो रहे हैं, जा रहे हैं ।

[श्रीरामकृष्ण - " हाँ , सनातन धर्म ऋषिरा (देवर्षि नारद) जा बोलेचेन , ताई थेके जाबे। तोबे ब्रह्मसमाज ओ ओईरकम सम्प्रदायओ एकटु एकटु थाकबे। सोबई ईश्वरेर इच्छाये होच्छे जाच्छे !]  

[শ্রীরামকৃষ্ণ — হ্যাঁ, সনাতন ধর্ম ঋষিরা যা বলেছেন, তাই থেকে যাবে। তবে ব্রাহ্মসমাজ ও ওইরকম সম্প্রদায়ও একটু একটু থাকবে। সবই ঈশ্বরের ইচ্ছায় হচ্ছে যাচ্ছে।

MASTER: "Yes, that is so. The Sanatana Dharma, the Eternal Religion declared by the rishis, will alone endure. But there will also remain some sects like the Brahmo Samaj. Everything appears and disappears through the will of God."

  [(4 जनवरी, 1884) -श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

🔆केशव के साथ चिदाकाश और कुण्डलिनी जागरण पर चर्चा  🔆

दोपहर के बाद कलकत्ते से कुछ भक्त आये हैं । उन्होंने श्रीरामकृष्ण को अनेक गीत सुनाये थे । उनमें से एक गीत का भावार्थ यह है – ‘माँ, तुमने हमारे मुँह में लाल चुसनी देकर भुला रखा है; हम जब चुसनी फेंककर चिल्लाकर रोयेंगे तब तुम हमारे पास अवश्य ही दौड़कर आओगी ।’

[বৈকালে কলিকাতা হইতে কতকগুলি ভক্ত আসিয়াছিলেন। তাঁহারা অনেক গান ঠাকুরকে শুনাইয়াছিলেন। তন্মধ্যে একটি গানে আছে “মা, তুমি আমাদের লাল চুষি মুখে দিয়ে ভুলিয়ে রেখেছ; আমরা চুষি ফেলে যখন তোমার জন্য চিৎকার করে কাঁদব তখন তুমি আমাদের কাছে নিশ্চয় দৌড়ে আসবে।”

Earlier in the afternoon several devotees from Calcutta had visited the Master and had sung many songs. One of the songs contained the following idea: "O Mother, You have cajoled us with red toys. You will certainly come running to us when we throw them away and cry ourselves hoarse for You."

श्रीरामकृष्ण – (मणि के प्रति) – उन्होंने लाल चुसनी का नया ही गाना गाया ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (মণির প্রতি) — তারা, কেমন লাল চুষির গান গাইলে —MASTER (to M.): "How well they sang about the red toys!"

मणि – जी, आपने केशव सेन से इस लाल चुसनी की बात कही थी ।

[মণি — আজ্ঞা, আপনি কেশব সেনকে এ লাল চুষির কথা বলেছিলেন।

M: "Yes, sir. You once told Keshab about the red toys."

श्रीरामकृष्ण – हाँ, और चिदाकाश (the Inner Consciousness) ^ 1*  की बात – और भी कई बातें हुआ करती थीं – और बड़ा आनन्द होता था । गाना – नृत्य सब होता था ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — হ্যাঁ; আর চিদাকাশের কথা — আরও সব অনেক কথা হত; আর আনন্দ হত। গান, নৃত্য হত।

MASTER: "Yes. I also told him about the Chidakasa, the Inner Consciousness, and about many other things. Oh, how happy we were! We used to sing and dance together."

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Eight-pointed thunderbolt. **

माँ दुर्गा के हाथ में वज्र (the thunderbolt) : "King of the Gods" देवराज इंद्र का शस्त्र - वज्र ("बिजली") है । इन्द्र ने देवासुर संग्राम में देवताओं का नेतृत्व किया था। वज्र को शिक्षण की दिव्य शक्ति, पारलौकिक (अतीन्द्रिय) सत्य और ज्ञान का, सर्वोच्च आनंद (supreme bliss) प्रतीक भी माना जाता है । (the divine power of teaching, transcendental truth and knowledge;) बिजली (तड़ित)  के समान, वज्र भी अज्ञान के अंधेरे में अपना रास्ता बनाता है; सितारों की तरह, यह अविनाशी रहते हुए नष्ट हो जाता है। Like a thunderbolt, the thunderbolt makes its way into the darkness of ignorance; Like the stars, it perishes while remaining indestructible.
 बौद्ध धर्म के महायान शाखा को, को ही वज्रयान या तान्त्रिक बौद्ध धर्म कहा जाता है। (यहाँ यान का मतलब रथ-"chariot" से है.) घंटी के साथ संयुक्त वज्र का अर्थ है मर्दाना और स्त्री प्रकृति का एक संलयन।Vajra combined with bell means a fusion of masculine and feminine nature. वज्र शक्ति और आत्मा की दृढ़ता का प्रतीक है। वज्र एक अविनाशी अवस्था का प्रतीक है।The thunderbolt is a symbol of an imperishable state.
वज्र शक्ति और आत्मा की दृढ़ता का प्रतीक है। वज्र मन की चकित कर देने वाले अविनाशी प्रकृति का प्रतीक है।The thunderbolt symbolizes the dazzling indestructible nature of the mind.
वज्र गुरु के हाथों में दीक्षा के जादू की छड़ी है- Vajra is the magic wand of initiation . वज्र को धर्मोपदेशक ऋषि दधीचि के कंकाल से बनाया गया है। It is made from the skeleton of the preacher Sage Dadhichi.

बौद्ध धर्म में वज्र का अर्थ है  मूल रूप से जागृत चेतना (awakened consciousness) और करुणा (compassion) जो बिजली की चमक की तरह  (like an instant thunderbolt or flash of lightning.) जो आंतरिक जागृति, enlightenment, या प्रबोधन के समय अनुभूत होती है। 
इस प्रवृत्ति  (trend ) को भारत में अपनी मातृभूमि में बौद्ध धर्म के विकास में अंतिम चरण माना जा सकता है। वज्र को वैदिक भगवान इंद्र का सिंह -गर्जन का प्रतीक राजदंड (roaring scepter of the Vedic god Indra) माना है।  इन्द्र को ही यूनानी भाषा में Zeus कहा जाता है।  500 से 200 ईसा पूर्व तक भूमध्यसागरीय क्षेत्र (Mediterranean region) के विभिन्न देशों के  नीचे दिए गए सिक्कों पर, वज्र के निशान साफ देखे जा सकते हैं। 


 
आज भी ऐसे बहुत सारे ऐसे सिक्के हैं, जो यह साबित करते हैं कि प्राचीन विश्व में, बिना किसी अपवाद के, सभी सक्षम लोग, अच्छी तरह से जानते थे कि वज्र क्या है, और इस शस्त्र का मर्म क्या है ?  

 
 यह कैसे समझा जाए कि वास्तव में वज्र का एक ही शस्त्र असीरीयों (Assyrians), बेबीलोनियों (Babylonians), सुमेरियों (Sumerians), मिस्रियों (Egyptians), हिंदुओं और चीनी देवताओं के हाथों में, हजारों साल और किलोमीटर के अंतर होने के बावजूद क्यों है ? कुरान में कहा गया -- `वह वह है जो तुम्हें बिजली दिखाता है। ' (कुरान। 13:12)He is the one who shows you the lightning (Qur'an. 13:12)
[साभार https://inistra.ru/hi/conspiracies/vosmikonechnyi-vadzhra-vadzhra---drevnee-oruzhie-bogov-znachenie-slova/

beaded" lightning bolts.
 

Lightning Bolt Beaded Bracelet – Hart Hagerty

बिजली ( electricity) क्या निचोड़ती (squeezes) है" विज्ञान को नहीं पता है। प्रयोगशाला में, इसे उसी रूप में नहीं बनाया जा सकता है। कभी-कभी बिजली के व्यवहार को समझाना मुश्किल होता है। कई उदाहरण हैं।  उदाहरण के लिए रॉय सुलिवन [Roy Cleveland Sullivan (February 7, 1912 – September 28, 1983)] उनके ऊपर सात बार बिजली गिरी।  । वे खुद को बचाने के लिए वह रबर के जूते पहनने लगे , कोई धातु नहीं रखते थे। लेकिन मृत्यु  के बाद भी उनके कब्र पर बिजली गिरी। मैं मजाक नहीं कर रहा हु। यह एक वास्तविक कहानी है)

तिब्बत के वज्रयान-तन्त्र [Vajrayana (the very name of which is associated with this subject) ] का मंत्र है 'ॐ मणिपद्मे हुम् ' या  'ओम मणि  पद्मे हुम् ' जहां इसको सत्य के परिवर्तनशील या सापेक्षिक (सत्य) भ्रामक विचार के विपरीत निरपेक्ष और अविनाशी सत्य का प्रतीक माना गया है।

इस तिब्बती  के पवित्र मंत्र में कमल रत्न को नमन किया है। मणि का अर्थ है गहना , अर्थात  'ॐ  वह मणि (गहना) है जो पद्म पर विराजमान है'।  साधक की कुंडलीनी के मणिपुर चक्र में पहुंचने पर आत्मविश्वास, आनन्द , ज्ञान, बुद्धि और सही निर्णय लेने की योग्यता जैसे बहुमूल्य मणियों सरीखे गुण प्राप्त होते हैं। मणिपुर चक्र (the lotus of the navel) नाभी की नाड़ी तो धाय माँ काट देती है , परन्तु कामिनी-कांचन में आसक्ति की नाड़ी काटने का उपाय गुरु, नेता नवनीदा जैसे C-IN-C बतलाते हैं। इसका तत्व अग्नि, वर्ण हेम, देवता विष्णु, सम्बद्ध वाहन मेष। इसके कमल में दस पँखुडियाँ हैं।  इसका प्रतीक चिन्ह दस पंखुडिय़ों वाला कमल है। यह मानव शरीर की सभी प्रक्रियाओं का नियंत्रण और पोषण करने वाले दस प्राणों (शक्तियों) का प्रतीक है। इसका दूसरा प्रतीक नीचे की ओर शीर्ष बिन्दु वाला त्रिभुज है। 
    

एक ऐसा शांतिपूर्ण प्रतीकात्मक शस्त्र या आयुध (weapon) है,जो वास्तव में, असामान्य (unusual) सी दिखती है।  शस्त्र एक तरफ लाठी जितना सरल हो सकता है तो दूसरी तरफ बैलिस्टिक प्रक्षेपास्त्र जितना जटिल भी। इसमें उन्होंने हथियारों की अजेय शक्ति ( invincible power ) को बरकरार रखा, लेकिन एक भक्त के लिए वे इसे प्रेम और करुणा (love and compassion ) के रचनात्मक मार्ग में भी निर्देशित कर सकती हैं। 

इस प्रकार वज्र जगत की शुभ और अशुभ (good and evil ) शक्तियों को संतुलित करता है।
इस वज्र नामक आयुध (device) और इसके संचालन के सिद्धांत को समझने की कोशिश करने के लिए, आपको भौतिकी विज्ञान की ओर मुड़ना होगा। एक सिद्धांत के अनुसार, 'वज्र ' प्रारंभिक कणों (elementary particles) के मरोड़ क्षेत्रों  (THE TORSION FIELD AND THE AURA)  टॉर्शन  फिल्ड और आभा (प्रभा-वलय)  को एक ज्यामितीय मॉडल के रूप में प्रस्तुत करता है। यदि आप इस सिद्धांत को मानते हैं, तो वज्र का आधार (स्तम्भ-base) एक अनुनादी साँचा  (resonant block) है, तथा प्रवृत्तियों का झुकाओ उसके आरे (spokes) हैं , जो चक्रवात (whirlwind ) का प्रतीक हैं।   
ऐसा माना जाता है कि वज्र उसके प्रचालक (operator) ऑपरेटर के मनोबल (psychic energy) पर काम करता है, यानी मानव मरोड़ वाला क्षेत्र। आप एक विशेष मंत्र की सहायता से वज्र को सक्रिय कर सकते हैं, जो व्यक्ति के मरोड़ क्षेत्र  (torsion fields in the human energy structure) को एक निश्चित आवृत्ति पर ट्यून करता है और वज्र को सक्रिय करता है। दुर्भाग्य से, यह मंत्र अभी तक हल नहीं हुआ है।

'ॐ मणिपद्मे हुम् '

[ प्राचीन भारतीय संस्कृति में कमल अर्थात पद्म को मुख्य रूप से सौंदर्य तथा अनासक्ति- भाव का प्रतीक के रूप में देखा जाता है। कमल-फूल  की जड़ें कीचड़ में रहती हैं परंतु यह पानी की ऊपरी सतह पर पंक से सदा अलिप्त रहते हुए , प्रकाश की ओर बढ़ता है। पूर्वी देशों में आत्मिक विकास का प्रतीक कमल माना जाता है। जीवन में इसी को प्रतीक रूप मान कर चलने की बात भग्वदगीता में भी कही गई है। 

Thus the rousing of the Kundalini is the one and only way to attaining Divine Wisdom, superconscious perception, realisation of the spirit. The rousing may come in various ways, through love for God, through the mercy of perfected sages, or through the power of the analytic will of the philosopher. 

" इस प्रकार हमने देखा कि कुण्डलिनी को जगा देना ही तत्वज्ञान , अतिचेतन अनुभूति या आत्म-साक्षात्कार का एकमात्र उपाय है। कुण्डलिनी को जाग्रत करने के अनेक उपाय हैं। किसीकी कुण्डलिनी भगवान के प्रति प्रेम से के बल से ही जाग्रत हो जाती है , किसीकी सिद्ध महापुरुषों की कृपा से , और किसीकी सूक्ष्म ज्ञान-विचार द्वारा। " १/७७  

Verily, verily I say unto thee, except a man born be born again, he cannot see the Kingdom of God.

https://vivek-jivan.blogspot.com/2013/10/3.html

यह ऊर्जा के फैलाव, उद्गम और विकास का द्योतक है। पद्म का मृणाल - कमलनाल या कमल का डंठल जिसमें फूल लगा रहता है । पद्म की कर्णिका यानी 'बीजाधार'- जिनमें आधे इंच लंबे चिकने, काले और गोल-गोल बीज रहते हैं। । इन्हें कमलगट्टा कहा जाता है। प्रकृति ने 'नाभि' को (मणिपुर चक्र- या कमलनाल को )  मानवदेह रूपी लोटस टेम्पल के मध्य बिन्दु के रूप में संस्थापित  किया है। मनुष्य की प्राण शक्ति ऊर्जा के रूप में चिन्तन के अनुसार उर्ध्वमुखी  होकर मस्तिष्क की ओर अथवा अधोमुखी होकर नाभि से नीचे की ओर प्रवाहित होती है। साधक चिन्तन एवं ध्यान द्वारा चेतना के प्रवाह अथवा प्राणों की ऊर्जा के प्रवाह को ऊर्ध्वामुखी करके भोग से योग की ओर अथवा अन्धकार से प्रकाश की ओर बढ़ता है। इस चक्र के देवता विष्णु और लक्ष्मी हैं। विष्णु उदीयमान मानव चेतना के प्रतीक हैं। लक्ष्मी भौतिक और आध्यात्मिक समृद्धि की प्रतीक हैं। भारतीय स्थापत्य कला में भी कमल के विशेष स्थान प्राप्त है। मंदिरों के शिखर बंद-कमल के आकार के बनाए जाते है। और भारत के राष्ट्रीय चिह्न में भी अशोक की लाट पर उल्टे कमल का चित्र अंकित किया गया है। भारत की राजधानी दिल्ली में बने बहाई उपासना मंदिर का स्थापत्य पूरी तरह से खिलते हुए कमल के आकार पर आधारित है जिसके कारण इसे, और मानवशरीर को भी  'लोटस टेंपल'  कह सकते  हैं। ]  
To try to understand the device and the principle of its operation, you need to turn to the knowledge of physics. According to one theory, the thunderbolt reproduces the geometric model of the torsion fields of an elementary particle. If you believe this principle, then the base of the thunderbolt is the resonant block, and the spokes of the bent are nothing more than twisters.
It is believed that Vajra acts on the psychic energy of the operator, that is, the human torsional field. You can activate the Vajra with the help of a special mantra, which tunes the person's torsion field to a certain frequency and activates the Vajra. Unfortunately, this spell is not resolved yet.
सातवीं या आठवीं शताब्दी में पद्मसंभव तंत्र बौद्ध धर्म को भारत से तिब्बत तक ले गए। वह आदि शंकराचार्य के समकालीन थे। जहां आदि शंकराचार्य को भारत से बौद्ध धर्म हटाने का श्रेय जाता है तो वहीं पद्मसंभव को बौद्ध धर्म हिमालय तक ले जाने का। आदि शंकराचार्य एक ब्रह्मचारी साधु थे जो तांत्रिक साधनाओं से परिचित थे। वहीं, पद्मसंभव की दो पत्नियां थीं। एक भारतीय तो दूसरी तिब्बती। ये दोनों ही उनकी छात्राएं भी थीं और सिद्ध शक्तियों का रास्ता खोलने वाले यौन संस्कारों में भागीदार भी। यानी वेदांत हिंदू धर्म का अधिनायक प्राचीन बौद्धों की तरह एक ब्रह्मचारी था, वहीं तांत्रिक बौद्ध धर्म के अगुआ पुरातन काल के वैदिक ब्राह्मणों की तरह गृहस्थ। इससे पता चलता है कि कैसे इन दोनों धर्मों ने कल्पना और क्रियाओं में एक-दूसरे को प्रभावित किया।पद्मसंभव का जन्म स्थान उड्डियान है, पहले पाकिस्तान की स्वात घाटी के रूप में पहचाना जाता था। लेकिन अब विद्वानों का मानना है कि उड्डियान ओडिशा था। पांचवीं शताब्दी तक हूणों ने उत्तर पश्चिम भारत में अधिकतर बौद्ध केंद्रों को नष्ट कर दिया था। सातवीं शताब्दी तक यह क्षेत्र इस्लामी प्रभाव में था और मुसलमान मूर्ति पूजा और तांत्रिक क्रियाओं के खिलाफ थे।

फारसी में मूर्ति को बुत कहा जाता है जो बुद्ध शब्द से ही निकला है। इस दौर में तांत्रिक बौद्ध धर्म बंगाल, असम, मिथिला और ओडिशा में फल-फूल रहा था। भुवनेश्वर में चौंसठ योगिनियों के लिए बिना छत वाले गोलाकार मंदिर बन रहे थे। तांत्रिक बौद्ध धर्म 12वीं सदी में इस्लामी आक्रमणों तक फलता-फूलता रहा। इसके बाद वैष्णव धर्म और भक्ति काल की लोकप्रियता बढ़ी। तिब्बत के साथ पूर्वी भारत के इस संबंध को स्वीकार करने की जरूरत है।
तिब्बती बौद्ध धर्म वज्रयान या कभी-कभी तांत्रिक बौद्ध धर्म भी कहलाता है। इसमें महिलाओं की मुख्य भूमिका होती है इसलिए वज्रयान का प्रतीक दोधारी खंजर यानी वज्र और घंटा है जो पुरुषों और महिलाओं के सिद्धांतों यानी आध्यात्मिक और भौतिक ज्ञान का प्रतिनिधित्व करता है। वज्रयान का एक और प्रतीक है खोपड़ी। यहां साधु अपने हाथ में खतवंगा लिए रखते हैं।
तांत्रिक बौद्ध धर्म और तांत्रिक हिंदू धर्म दोनों ही 'सिद्ध' जैसी जादुई शक्तियों की बात करते हैं। तंत्र विद्या में सेक्स साधुओं के लिए खतरा नहीं, बल्कि और ज्यादा शक्तिशाली बनने का हथियार था। पुराणों में मेनका जैसी अप्सराएं विश्वामित्र जैसे तपस्वियों को मोहित कर उनका तप भंग करती थी। शक्ति ने शिव को गृहस्थ बना दिया था, लेकिन तांत्रिक हिंदू धर्म में अप्सरा योगिनी बन गई। तंत्र साधना सेक्स आनंद या बच्चों के लिए नहीं, बल्कि आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त करने का साधन था। इसका मुख्य उद्देश्य था खुद पर संयम रख कर महिला को संतुष्ट करना। कामनाओं पर इस तरह के नियंत्रण ने साधुओं को नायक बना दिया। इस तरह वे जानवरों, पौधों, तत्वों और दिमाग तक पर नियंत्रण करने की शक्ति प्राप्त कर लेते थे।तांत्रिक हिंदू कहानियां अब सिर्फ नाथजोगियों की मौखिक परंपराओं में ही जीवित हैं। नाथ जोगी गृहस्थ जीवन त्याग कर गांवों-कस्बों में घूम-घमकर गोरखनाथ की कहानी सुनाते थे कि कैसे गोरखनाथ ने मत्स्येंद्रनाथ को औरतों के राज्य से मुक्त करवा कर जीवन और मृत्यु पर विजय प्राप्त कर ली थी। भक्ति काल के दौरान तांत्रिक परंपरा दब गई। भक्ति आंदोलन चरम पर पहुंच गया। कामुक ऊर्जा, भावनात्मक ऊर्जा में बदल गई। तांत्रिक गीत गोविंद की लेखन शैली को दबा कर प्रेम और आनंद पर अधिक ध्यान केंद्रित किया गया। भारत के अमूमन हर हिस्से में तांत्रिक हिंदू धर्म पर भक्ति काल हावी हो गया। भक्ति काल से पहले तांत्रिक हिंदू धर्म दक्षिण पूर्व एशिया में खूब फला-फूला था। अब वह नेपाल जैसे कुछ स्थानों ओर केरल के कुछ अनुष्ठानों में ही जीवित है। लेकिन बौद्ध धर्म में तंत्र साधना पर भक्ति काल का साया नहीं पड़ पाया। वह बचा रहा, वैसे का वैसा, भूटान से लद्दाख तक के हिमालयी क्षेत्रों में।







[ धर्म क्या है ? ^* इस सवाल को लेकर बहुत ऊहापोह चलता रहता है । अनेक प्रकार के विवाद भी होते हैं। लेकिन भारत के ऋषि-मनीषियों के मन में धर्म को लेकर कोई संशय नहीं है। एकदम स्पष्टता है। धर्म के नाम पर चलने वाला तामझाम अलग चीज है। भागवत में ही प्रसंग है कि नारद जब युधिष्ठिर को प्रह्लाद का चरित्र सुनाते हैं, तभी युधिष्ठिर नारद से प्रश्न करते हैं कि -युधिष्ठिर उवाच - भगवत्र्छ्रोतुमिच्छामि नृणां धर्मं सनातनम् ।  " हे देवर्षि! मैं सनातनधर्म का स्वरूप जानना चाहता हूं।" तब  युधिष्ठिर को सनातनधर्म का स्वरूप स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि -नारद जी कहते हैं 

 " नत्वा भगवतेऽजाय लोकानां धर्मेहेतवे ।

  वक्ष्ये सनातनं धर्मं नारायण-मुखाच्छ्रुतम्।। 

- नारद कहते हैं, हे युधिष्ठिर , मनुष्यों के धर्म सेतुस्वरुप भगवान को प्रणाम करके मैं आज बतलाऊंगा कि सनातन धर्म क्या है, जिसे मैंने स्वयं नारायण के मुख से सुना है।  इसके बाद वे भगवान के मुख से सुने सनातन धर्म की परिभाषा मे जो कुछ कहते हैं, क्या हम वर्तमान युग में उसकी कल्पना भी कर सकते हैं ?  जब हमलोग श्री ठाकुरदेव के बारे में अनौपचारिक ढंग से बातचीत करते हैं तो कहते हैं कि श्रीरामकृष्ण तो ईश्वर ईश्वर करके पागल हो गये थे।  लेकिन  उनके शिष्य स्वामी विवेकानन्द आधुनिक शिक्षा में शिक्षित थे, देश-विदेश घुमे थे, फिरभी गरीबों के लिये आँखों से कितना अश्रु बहाते थे।  देश के उन्नति की बात कहते समय वे कहते थे कि मैं समाजवाद में विश्वास करता हूँ, कहीं वे बाद में साम्यवादी तो नहीं हो गए थे ? देवर्षि नारद "वक्ष्ये सनातनं धर्मं " कहने के बाद कहते है-

"अन्नाद्यादे: संविभागो भूतेभ्यश्य यथार्हत: ।

 तेष्वात्मदेवता बुद्धि:सुतरां नृषु पांडव:। "  

अर्थात  अन्नादि अर्थात राष्ट्रीय सकल घरेलू उत्पाद (National GDP) से जो कुछ भी प्राप्त होता हो उसको और जीवन की बुनियादी आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए राष्ट्र के प्रत्येक नागरिक के प्रति - 'देवता बुद्धि ' रखते हुए , उनकी आवश्कता के अनुसार यथायोग्य विभाजन करना धर्म है। भारत के प्रत्येक नागरिक के प्रति  'देवता -भाव' रखना धर्म है, 'सीयराम मय सब जग जानी' यही धर्म है ! अतः  'सकल घरेलू उत्पाद' का वितरण करने वाले जो राजनीतिक नेता, राज्य-कर्मचारी  या व्यापारी होंगे उनको वितरण करते समय - " तेष्वात्म-देवताबुद्धिः" अर्थात वे सभी मनुष्य हमलोगों के आत्मास्वरुप, देवता (शिवजी) हैं, यह यह मनोभाव रखते हुए वितरण करना होगा कि  -इस ज्ञान से देना होगा। (शिव ज्ञान से जीव सेवा करना ) इसको कहते हैं- सनातन धर्म !! 

 " सत्यं दया तपं शौचं तितिक्षेक्षा शमो दम:। 

अहिंसा ब्रह्मचर्यं च त्याग: स्वाध्याय आर्जवम्? ! 

संतोष: समदृक्सेवा ग्राम्येहोपरम: शनै:। 

नृणां विपर्ययेहेक्षा मौनमात्मविमर्शनम्?। 

(भागवत स्कन्ध 7 अध्याय 11 श्लोक- 8-11) 

अर्थात --सत्य धर्म है, दया धर्म है, तप धर्म है , पवित्रता धर्म है, सहनशीलता धर्म है, उचित-अनुचित का विचार धर्म है।  मन का संयम और इन्द्रियों का दमन धर्म है। अहिंसा और ब्रह्मचर्य धर्म है, त्याग-स्वाध्याय-सरलता और संतोष धर्म हैं। सबको समान भाव से देखना और समान भाव से व्यवहार करना धर्म है,सेवा धर्म है, धीरे-धीरे भोग-प्रवृत्ति से उबरना धर्म है, विनय [अभिमान न करना] धर्म है, मौन धर्म है ,आत्मचिन्तन धर्म है। यही (भागवत) सनातन -धर्म रह जायेगा ,  धर्म के नाम पर बाकि झगड़े आदि समाप्त हो जायेंगे ! 

स्वामीजी ने कहा था,  " उस धर्म की नीति में किसी के प्रति शत्रुता या या उत्पीडन का स्थान नहीं हो सकता। उसमें प्रत्येक नर-नारी देवस्व्भाव स्वीकृत होंगे। और उसकी समस्त शक्ति मनुष्यजाति को उसके अन्तर्निहित देवस्वभाव की अनुभूति करने में सहायता करने में ही व्यय होगी।"

स्वामीजी ने कहा था, " जो सनातन, असीम, सर्वव्यापी एवं सर्वज्ञ हैं, वे कोई व्यक्तिविशेष नहीं - तत्व हैं, किस व्यक्ति के भीतर यह यह अनन्त तत्व जितना अधिक प्रकाशित होता है, वे उतने ही महान होते हैं। बाकी समस्त मनुष्यों को उनकी पूर्ण प्रतिमूर्ति बनना होगा। एकात्मता की अनुभूति करने के अतिरिक्त धर्म और कुछ नहीं है, तथा प्रेम ही इसका साधन है। " 

"जब तक मेरे देश का एक कुत्ता भी भूखा है, मेरा समस्त धर्म उसको रोटी खिलाना ही है। जो ईश्वर भूखे को एक मुट्ठी अन्न नहीं दे सकता, जो किसी विधवा के अश्रु नहीं पोछ सकता, वैसे ईश्वर पर मैं विश्वास नहीं करता।  मंगलवार, 22 जनवरी 2013/ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [65-29 A]"  

🔆रत्नाकर डाकू बाद में रामायण के रचयीता ऋषि वाल्मीकि कैसे बने ?  🔆 

अंगिरागोत्र में उत्पन्न एक ब्राह्मण थे, नाम था रत्नाकर। बचपन से ही किरातों एंव लुटेरे-डाकुओं के संग से वह भी क्रूर हृदय डाकू हो गये थे। धर्म-कर्म तो कभी किया ही नहीं था, विद्या भी प्राप्त नहीं की थी। वन में छिपकर रहते और उधर से निकलने वाले यात्रियों को लूट-मारकर जो कुछ मिलता उसी से अपने परिवार का भरणपोषण करते।

संयोगवश एकदिन उधर से नारदजी निकले, रत्नाकर डाकू ने उन्हें भी ललकारा। देवर्षि ने निर्भय होकर बड़े स्नेह से कहा-‘भैया! मेरे पास धरा ही क्या है। परन्तु तुम प्राणियों को क्यों व्यर्थ मारते हो? जीवों को पीड़ा देने और मारने से बड़ा दूसरा कोई पाप नहीं है। इस पाप से परलोक में प्राणी को भयंकर नरकों में पड़ना पड़ता है।’

जब अकारण ही भगवान दया करते हैं, जब अनेक जन्मों के पुण्यों का उदय होता है, तब जीव के कल्याण का समय आ जाता है, तभी उसे सच्चे साधु/नेता / गुरु  के दर्शन होते हैं।

रत्नाकर जिसे भी लुटता था वह रोता, गिड़गिड़ाता व भयभीत होता था। आज उसने एक अदभुत, तेजस्वी साधु देखा, जो तनिक भी उससे डरा नहीं, अपनी प्राण रक्षा के लिये एक शब्द नहीं कहा और उल्टा उसे ही उपदेश दे रहा था। क्रूर डाकू पर इसका प्रभाव पड़ा। रोने, कलपने वालों का गिड़गिड़ाना उसके निष्ठुर ह्रदय में दया उत्पन्न नहीं करता था; परन्तु आज इस साधु की निर्भयता और स्नेहपूर्ण वाणी ने उसे प्रभावित कर दिया।

वह बोला -‘मेरा परिवार बड़ा है, उन सबका पालन-पोषण अकेले मुझे ही करना पड़ता है। मैं यदि धन लूटकर न ले जाऊँ तो वे भूखों मर जायेगें।’

देवर्षि नारद ने कहा- ‘भाई! तुम जिनका भरण-पोषण करने के लिये इतने पाप करते हो, वे तुम्हारे इस पाप में भाग लेंगे या नहीं? – यह उनसे पूछकर आओ। डरो मत, मैं भागकर कहीं नहीं जाऊँगा, विश्वास न हो तो मुझे एक वृक्ष से बाँध दो।’

नारद जी को वृक्ष से बाँध कर रत्नाकर घर आया, उसने घर के सभी लोगों से पूछा। सबने एक ही उत्तर दिया -‘हमारा पालन-पोषण करना तुम्हारा कर्त्तव्य है। हमें इससे कोई मतलब नहीं कि तुम धन किस प्रकार लाते हो।

हाय! हाय! जिनके लिये खून-पसीना एक करके, घनघोर वन में भूखे-प्यासे दिन रात छिपा रहता था। वर्षा, सर्दी, गर्मी तथा दूसरे किसी भी कष्ट की परवाह नहीं करता, जिनके लिये इतने प्राणियों को उसने मारा, इतना पाप किया, उन्हें उसके पाप-पुण्य से कुछ मतलब नहीं?

शोक के मारे रत्नाकर पागल-सा हो गया, एक क्षण में उनके मोह का सारा बन्धन टूट गया। रोते हुये वह वन में गया और ऋषि के बन्धन काटकर उनके चरणों पर गिर पड़ा। वह छटपटाते हुये क्रन्दन करने लगा- हे देवर्षि! ‘मेरे जैसे अधम का उद्धार कैसे होगा?’

भगवन्नाम भगवान का साक्षात् स्वरूप है। यह तो भगवान की कृपा से ही सौभाग्यशाली जीवों के मुख पर स्वयं आता है। नारद जी ने भगवद प्रेरणा से उसे ‘राम’ नाम का दान दिया। लेकिन रत्नाकर के जीवन में इतने पाप थे कि वह ‘राम’ यह सीधा सरल नाम भी नहीं ले पा रहा था। जिसके परिणाम स्वरुप वह ‘मरा’ ‘मरा’ जपने लगा।

रत्नाकर वहीं बैठकर जपने लगा- मरामरामरामरामरामरामरा………………….। मास बीते, ऋतुयें बीतीं, वर्ष बीता और कई युग बीत गये; किन्तु रत्नाकर उठा नहीं और न ही उसने नेत्र खोले। उसका जप अखण्ड चलता रहा। धीरे-धीरे उनके शरीर पर दीमकों ने घर बना लिया वह उनकी बाँबी- वल्मीक से ढक गये।

नाम जप से पाप ही नहीं पाप करने की वासना भी नष्ट हो जाती है। इसी प्रकार रत्नाकर के सारे पाप नष्ट हो गये और उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने आशीर्वाद स्वरूप अपने कमण्डल से अमृत-जल छिड़क कर दीमकों द्वारा खाये गये शरीर को सुन्दर व पुष्ट बना दिया। स्वयं सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी ने ही उन्हें ऋषि वाल्मीकि कहकर पुकारा। वल्मीक (बाँबी) से निकलने के कारण ही उनका नाम रत्नाकर से “वाल्मीकि” पड़ा। 

जो कभी क्रूर डाकू था, प्राणियों को मारना-लूटना  ही जिसका कर्म था, भगवन्नाम के जप के प्रभाव से वे विश्वविख्यात कवि और दयालु ऋषि बन गये।

उल्टा नाम जपत जग जाना। वाल्मीकि भये ब्रह्म समाना।। 

साभार https://www.spiritualawareness.co.in/bhakt-stories/valmiki/ 

*' चण्डीदास और रामी धोबन की प्रेम कथा'*

चंडीदास की पदावलियों में सर्वत्र ‘पिरीति’ अर्थात प्रिति की ही धुन सुनाई पड़ती है। कहा जाता है कि उच्च ब्राह्मण कुल में जन्मे चंडीदास को एक गरीब परिवार की बरेठन (धोबन) जो रूहानी प्रेम हुआ, उसे उन्होंने जीवन के रहते पूरी आत्मीयता और समर्पण के साथ निभाया. जैसे लैला मजनूं की कहानी है।  शीरी फरहाद है।  ऐसे ही एक रामी धोबन थी।  उनके आशिक थे चंडीदास। महान प्रेमी और महाकवि चंडीदास बहुत पिछड़े हुए समय में भी मानवता को जाति-धर्म से ऊपर मानने के हिमायती थे। 
 किवदंती है कि चंडीदास और रामी दोनों ‘सहज’ मतावलम्बी होकर ‘परकीया’ धर्म में दीक्षित हो गए। सहजिया सम्प्रदाय बौध धर्म की विभिन्न शाखाओं में से एक था।   कहा जाता है कि  रामी स्वयं को राधा मानकर चंडीदास को कृष्ण के रूप में भजती तो चंडीदास अपने को कृष्ण मानकर रामी से राधा के रूप में संबंध रखते थे। विद्वानों और मानव व्यवहार के मर्मज्ञों का मत है कि चंडीदास और रामी का यह प्रेम रूहानी और पवित्र था।  वक़्त बदला और दोनों एक दूसरे को देखने के आदी हो गए।  उन्हें एक दूसरे की लत लग गयी।  इसी व्यसन में रामी ने अपना धोबन का काम तक छोड़ दिया।
बंगाल की धरती पर पैदा हुए चैतन्य महाप्रभु से लेकर रवींद्रनाथ टैगोर जैसे महापुरुष महाकवि चंडीदास की ही मार्मिक गाथा से प्रेरित रहे हैं। 'सहजिया गुरुपरम्परा' में मनुष्य मात्र के प्रति श्रद्धा निवेदन करने वाली उनकी लोक प्रसिद्ध इस इस प्रकार है — 

 सुनो रे  मानुष भाई , 
सबार उपरे मानुष बोड़ो, 
ताहार उपरे नाई ।

अर्थात् “हे मनुष्य भाई सुनो, सभी योनियों में मनुष्य योनि ही सर्वश्रेष्ठ योनि है , मनुष्य देवताओं से भी श्रेष्ठ है , उसके परे कोई नहीं है। 
चण्डीदास (1370 -1430) राधा-कृष्ण लीला साहित्य के आदि कवि माने जाते हैं। इन्हें बंगाली वैष्णव समाज में बड़ा मान प्राप्त है।   चैतन्यदेव के जन्म से पहले इन्हीं चण्डीदास के नाम से प्रसिद्ध बहुत से गीतिपद लोगों के मुख में रहते थे।  "रामतारा" अथवा "रामी" नाम की धोबिन इनकी प्रेमिका थी। चंडीदास ने अपनी आत्मा को प्रेम के अनंत सागर में विलीन कर दिया था।  प्रेम ही उनके जीवन का सारतत्व, तपस्या और सिद्धि था।  
महाकवि चंडीदास का जन्म चौदहवीं शताब्दी की शुरुआत में बंगाल में वीरभूमि जिले के नान्नूर गांव में हुआ. चंडीदास के घर की आर्थिक स्थिति औसत परिवार की सी थी। उनके सीधे-सरल पिता ग्राम देवी ‘बाशुली’ के पुजारी थे. दुर्योग ने चंडीदास का बचपन लीलकर उन्हें अनाथ बना दिया।  इस नन्हे अनाथ बालक को उत्तराधिकार में बाशुली का पुजारी होना हासिल हुआ। 
चंडीदास अत्यंत रूपवान थे सो नवयुवतियां और स्त्रियां चंडीदास के मोहपाश में बांध जाया करती थीं।  लेकिन चंडीदास को कोई भी युवती नहीं भाती थी, उनका ह्रदय किसी के लिए भी आंदोलित नहीं होता था।  लेकिन भला कौन जानता है वक़्त की मुट्ठियों में क्या बंधा है ? कौन सोच-कह सकता था कि आकर्षक रूपवतियों से प्रभावित तक न होने वाला यह असाधारण पुरुष एक साधारण धोबन के प्रेमपाश में ऐसा बंधेगा कि इंसानियत के लिए अनन्य प्रेम की एक मिसाल बना देगा !
चंडीदास के गांव से कुछ दूरी पर तेहाई नामक एक गांव था।  गाँव में एक नदी थी. इस नदी के किनारे चंडीदास अक्सर प्रकृति से एकाकार होने चल पड़ते थे।  इसी पर्यटन के दौरान उन्होंने किसी रोज रामी नाम की एक धोबन लड़की को देखा।  उन्होंने रामी के प्रति आकर्षण महसूस किया।  वे मन ही मन इस भाव का रस लेते रहे लेकिन रामी से कुछ भी नहीं बोले। प्रेम के वशीभूत रामी नान्नूर आ पहुंची।  अब वह भी बाशुली मंदिर में झाडू-बुहारी के काम में राम गयी। जब रामी हर क्षण चंडीदास की नजरों के सामने रहने लगी तो चंडीदास का हृदय प्रेम से लबालब रहने लगा।  वे रामी के प्रेम से प्रेरित होकर नित्य नए प्रेम पदों की रचना करने लगे।  उस ज़माने में मंदिर के पुजारी का किसी युवती से प्रेम लड़ाना अक्षम्य अपराध था। 
 किसी मंदिर के पुजारी का दलित स्त्री से प्रेम सम्बन्ध…मंदिर प्रबंधन और ग्रामीणों को जल्दी ही इस प्रेम प्रसंग की भनक लग गयी।  चंडीदास पुजारी का एक अछूत कन्या से प्रेम प्रसंग ? लिहाजा चंडीदास को बुरी तरह अपमानित कर मंदिर से बेदखल कर दिया गया।  चंडीदास को न अपने प्रेम पर कोई अफ़सोस था न इस तरह मंदिर से बेइज्जत कर निकाले जाने का।  इस घटना के बाद चंडीदास ने रामी को सामाजिक तौर पर खुलेआम स्वीकार किया। 

सहजिया भावधारा की पदावली में कवि चण्डीदास द्वारा रचित मानवीय प्रेम के कुछ पद -

ब्रह्माण्ड ब्यापिया आछये ये जन, केह ना जानये तारे।
प्रेमेर आरति ये जन जानये सेइ से चिनिते पारे।।

मरम ना जाने, मरम बाथाने, एमन आछये यारा।
काज नाइ सखि, तादेर कथाय, बाहिरे रहुन तारा।

आमार बाहिर दुयारे कपाट लेगेछे – भितर दुयार खोला।
कहे चण्डीदास, कानुर पीरिति – जातिकुलशील छाड़ा।
प्रणय करिया भाङ्गये ये। साधन-अङ्ग पाय ना से।

कि लागिया डाकरे बाँशी आर किबा चाओ।
बाकि आछे प्राण आमार ताहा लैया याओ।

चंडीदास ने रामी के लिए असंख्य प्रेम पद लिख डाले।  इनमें से कई पद विपरीत भावों को भी कुशलता के साथ समेटे हुए हैं। एक ही कविता और कहीं-कहीं तो एक ही पद में दो भिन्न-भिन्न भावों की इस सहज अभिव्यक्ति के रहस्य को साहित्य के विद्वान तक नहीं बूझ पाए हैं। 

चौतरफा निंदा के बाद भी चंडीदास ने न ही रामी को प्रेम करना ही छोड़ा न देव स्मरण।  इस भाव को व्यक्त करते हुए चंडीदास लिखते हैं–
कलंकी बलिया डाके सब लोके ताहाते नाहिक दु:ख!
तोमार लागिया कलंकेर हार गलाय परिते सुख!!
यानि ‘सब लोग मुझे कलंकी कहकर पुकारते हैं पर मुझे इसका दु:ख नहीं. तुम्हारे कारण कलंक का हार भी गले में धारण करने में मुझे सुख का अनुभव मिलता है.’
प्रेम की ताकत देखिये चंडीदास की दिव्य प्रेरणा से भावपूर्ण रामी भी कविता रचने लगी। एक ब्राह्मण युवक और अछूत कन्या की इस प्रेम कहानी से गाँव-समाज के साथ ही चंडीदास का परिवार भी चिंतित रहने लगा।  उनके भाई नकुल ने अपने परिवार को इस सामाजिक कोपभाजन से बचाने के लिए चंडीदास से अनुरोध करना चाहे।  उसने ब्राह्मणों के लिए एक प्रीतिभोज का आयोजन कर वहां चंडीदास को भी बुलावा भेजा।  नकुल ने चंडीदास से आग्रह किया कि रामी को त्याग कर समाज में पुन: शामिल हो जाओ और समाज को भोज कराकर अपने पाप का प्रायश्चित कर लो। 

चंडीदास और रामी ने नकुल को समझाया कि वे दोनों दो जिस्म एक जान हैं और उन्हें अलग करने का किसी भी तरह का प्रयास सफल नहीं हो सकता।  फिर भी रामी के मन की परतों में यह भय भी छिपा ही था कि परिवार के दबाव में शायद चंडीदास नकुल की बात मानकर उससे प्रीत का बंधन तोड़ लें। 

चंडीदास ने नकुल की बात मानने से साफ़ इनकार तो किया लेकिन भाई की जिद के कारण ब्राह्मणों को भोजन कराने जा पहुंचे।  इस बात का पता चलते ही व्याकुल रामी भागी हुई वहां जा पहुंची।  रामी को इस परेशां हालत में देखकर चंडीदास भला कैसे आपे में रहते।  उन्होंने पूरे गाँव-समाज के सामने ब्रह्मभोज के अवसर पर ही रामी को गले से लगा लिया।  कहा जाता है कि चंडीदास के व्यक्तित्व की निर्मलता ने ब्राह्मण कट्टरपंथियों को एक अछूता को भी ब्राह्मणों के समान अधिकार देने को विवश कर दिया। 
अमीर मीनाई की लिखी और जगजीत सिंह द्वारा गाई गयी यह मशहूर गजल भारत के हर ख़ास-ओ-आम की जुबान पर चढ़ी रहती है।  इस मशहूर गजल के एक हिस्से में जिस रामी और चंडीदास का जिक्र है वे भारत की एक कम चर्चित ऐतिहासिक प्रेम कहानी के पात्र हैं। 
गई जब रामी धोबन एक दिन दरिया नहाने को,
वहाँ बैठा था चंडीदास अफ़साना सुनाने को। 
कहा उसने के रामी छोड़ दे सारे ज़माने को,
बसाना है अगर उल्फ़त का घर आहिस्ता आहिस्ता।  

০২.৫ সাধনসঙ্গিনী : स्त्री को साधना की संगिनी मानने का भाव 

मेये अमूल्य रतन साधनार धन। 

जे करे भजन काछे रय सदाय। 

जोतो योगी ऋषि मुनि महाज्ञानी,

मेयेर संग छेड़े पोड़ेछे दशाय।  

মেয়ে অমূল্য রতন সাধনার ধন।

যে করে ভজন কাছে রয় সদায়।

যত যোগী ঋষি মুনি মহা মহাজ্ঞানী

মেয়ের সঙ্গ ছেড়ে পড়েছে দশায়।

घोष पाड़ा मत वाले के वार्षिक उत्सव में जाकर एक बाऊलिनी ने मुझे पहली बार 'बिन्दुधारण ' शब्द से परिचय करवाया था। मेरे सामने मीरा माई आकर खड़ी हुईं । उनका चेहरा  बंगाल के शांत सौम्य  बाऊलिनी के जैसा था। उसी रात मैंने माँ मीरा से पूछा, साधना में स्त्री  का क्या स्थान है? माँ को गुस्सा आ गया। - स्त्री का साधना में स्थान !  तुम्हारा  मतलब क्या है? स्त्री के बिना साधना कैसे होगी ? स्त्री ही वह सरोवर है , जिसमें उतरना है। साधक उसमें उतरकर स्नान करके सिद्ध होते हैं। मैंने पूछा फिर क्या स्त्री केवल साधन संगिनी हैं , क्या स्त्रियाँ सिद्ध नहीं होतीं ? माँ को फिर गुस्सा आ गया। बोली , क्या अनापशनाप बक रहे हो? मैंने कहा, नहीं, मेरा मतलब था कि साधक तो वस्तु को उर्ध्वगामी बना सकते हैं। माँ ने आगे कुछ कहने न दिया।  बोलीं , वस्तु ऊर्ध्वगामी करने में सहायता कौन करता है ? यदि स्त्रियां रेचक -कुम्भक (साँस लेना और रोकना-दम ) नहीं सीखी हों , तो वे वैसा कर सकेंगी ? बता सकते हो कि वस्तु  ऊपर जाएगा कैसे ? केवल बकवास करते हो। मैं समझ गया कि मेरी बात  मां मीरा को पसंद नहीं आ रही है। वे बोली, स्त्रियां समान रूप से ताल में ताल मिलाकर बराबर लय जोड़ती हैं। वे रेचक-पूरक -कुम्भक सब करती हैं। लेकिन हर स्त्री तो  मीरा मां या निर्मला मां जैसी गोसाईं नहीं बन पाती, फिर उनकी क्या स्थिति होती है? .... गोसाईं तो मेरी आत्मा है। उनके माध्यम से ही तो परमात्मा से मिला जा सकता है। मैंने पूछा, क्या परमात्मा से  मिलन में सिद्धि क्या  केवल साधक को होती  है? यह बात किसने कही ? साधक तो संगिनी के साथ ही साधना कर रहा है। उसमें प्रगति हो रही है , संगिनी में प्रगति नहीं हो रही है ? ऐसा कहीं हो सकता है ? साधना से दोनों को सिद्धि प्राप्त होती है। 

[এমনই এক উৎসবের রাতেই আমার ‘বিন্দুধারণ’ কথাটির সঙ্গে প্রথম পরিচয়। মীরা মাই এলেন আমার সামনে। শান্ত কোমল বাংলার বাউলনির চেহারা।সেই রাতেই মা-কে জিজ্ঞাসা করেছিলাম, সাধনায় মেয়েদের স্থান কতটুকু? রেগে উঠলেন মা।-কতটুকু মানে! মেয়ে না হলে সাধন হবে? মেয়েরা হল গিয়ে সরোবর। সাধক সেখানে স্নান সারেন। সিদ্ধ হন।–মেয়েদের তবে সিদ্ধতা আসে না? তারা সঙ্গিনীই কেবল?আবার রেগে উঠলেন মা।–কে বলেছে আবোল-তাবোল? বললাম, না সাধনায় সাধকেরা তো উর্ধ্বগামী করে দিতে পারেন বস্তুকে।বলতে দিলেন না মা।বললেন, তা বস্তু উধ্বগামী করতে সাহায্য করে কে? মেয়েরা যদি শ্বাস আর দমের কাজ না শেখে সে পারবে?কীভাবে উর্ধ্বগামী হবে শুনি। যত আজেবাজে কথা।জানি আমার দৃষ্টিভঙ্গি মনঃপূত হচ্ছে না মা-র।বললেন, মেয়েরা সমান তালে যোগ করে। রেচক, পূরক, কুম্ভক সব করে। ..... কিন্তু সবাই তো আর মীরা মা বা নির্মলা মা নন, তাহলে তাদের অবস্থান কী? গোঁসাই আমার আত্মা। ওকে ধরেই তো পরমাত্মার সঙ্গে মিলতে হবে। জিজ্ঞাসা করেছিলাম, পরমাত্মার মিলনে সিদ্ধি কেবল সাধকের?-কে বললে এ কথা! সঙ্গিনীর সঙ্গে সাধন করতেছে সাধক। তার গতি আছে আর সঙ্গিনীর গতি নেই? এ হয় নাকি? সাধনায় দুজনেরই সিদ্ধি আসে।

[साभार https://www.ebanglalibrary.com/15590/

Ghoshpara fair. :नदिया का चकदह , कुछ लोग इसे चक्रदह भी कहते हैं। इस स्थान को मूल रूप से चक्रदाह कहा जाता था क्योंकि गंगा दूर चली गई और उपहार के रूप में एक दहा दिया। बाद में मौखिक भाषा में यह धीरे-धीरे बदलकर चकदाह, चकदा हो गया। चकदह चैतन्यदेव की जन्मस्थली भी। स्वाभाविक रूप से नादिया इसलिए बाउल-बैरागियों की भूमि है।  नदिया (चकदह, कल्याणी के ) के घोषपाड़ा  में कर्ताभजा सम्प्रदाय  की स्थापना हुई , कुष्टिया में लालनशाही सम्प्रदाय का। वहीं चैतन्यदेव की मृत्यु के बाद बंगाल के वृंदावन केन्द्रित वैष्णवधर्म के बाहर सहजिया  काया साधना की एक धारा तो नदिया में पहले से ही बह रही थी।  बर्दवान का अग्रद्वीप और पाटुली कटवा में सहजिया सम्प्रदाय आज भी मजबूत है। कुल मिलाकर नादिया देहवादी काया साधना ,  युगल-भजन (Worship the couple वरवधु साधना) में बहुत व्यस्त रहा है।  

  ^ 1*- चिदाकाश-कुण्डलिनी जागरण  (the Inner Consciousness-chit, meaning “consciousness,” and akasha, meaning “space,” “ether” or “field.”)

देशाद्देशान्तरप्राप्तौ संविदो मध्यमेव यत्।

 निमेषेण चिदाकाशं तद्विद्धि मुनिपुङ्गव॥

‘चित्ताकाश, चिदाकाश एवं (भौतिक) आकाश'—ये ही तीन आकाश कहे गये हैं। हे मुने! इन तीनों में से चिदाकाश अति सूक्ष्म बतलाया गया है । हे मुनिश्रेष्ठ ! एक देश (विषय) से दूसरे देश (विषय) में गमन करते समय निमेष भर का (वृत्तिशून्य) मध्यकाल आता है, वही चिदाकाश है— ऐसा जानना चाहिए। 

यदि तुम सभी संकल्पों को छोड़ कर उस अतिश्रेष्ठ चिदाकाश में प्रतिष्ठित होते हो, तो निश्चय ही सर्वात्मक शान्त पद को प्राप्त करोगे । चिदाकाश की स्थिति तक पहुँच जाने के बाद जिस सुन्दर, उदार एवं वैराग्यरस से ओत-प्रोत आनन्दमय अवस्था की प्राप्ति होती है, उसे ही सहजानन्द (सहज समाधि) कहा जाता है। 

जब यह बोध हो जाता है कि दृश्य पदार्थों की सत्ता है ही नहीं,  और राग-द्वेष आदि समस्त दोषों की समाप्ति हो जाती है।  दृश्य जगत् (नाम-रूप) की सत्ता का अभाव अब अन्त:करण में बोधरूप में आता है, तभी वह संशयरहित ज्ञान का स्वरूप कहलाता है। वह ही चिदात्मक ज्ञेयतत्त्व है, वही आत्म कैवल्य रूप है, इसके सिवाय अन्य सभी कुछ असत्य है।"  (महोपनिषद -4 . 59 )

Swami Vivekananda says :"Everything that we see, or imagine, or dream, we have to perceive in space. This is the ordinary space, called the Mahakasha, or elemental space. When a Yogi reads the thoughts of other men, or perceives supersensuous objects, he sees them in another sort of space called the Chittakasha, the mental space. When perception has become objectless, and the soul shines in its own nature, it is called the Chidakasha, or knowledge space. When the Kundalini is aroused, and enters the canal of the Sushumna, all the perceptions are in the mental space. When it has reached that end of the canal which opens out into the brain, the objectless perception is in the knowledge space. Taking the analogy of electricity, we find that man can send a current only along a wire, (**The reader should remember that this was spoken before the discovery of wireless telegraphy. — Ed.)  but nature requires no wires to send her tremendous currents. This proves that the wire is not really necessary, but that only our inability to dispense with it compels us to use it." 

" हम जो कुछ देखते हैं , कल्पना करते हैं या जो कोई स्वप्न देखते हैं , सारे अनुभव हमें आकाश में करने पड़ते हैं। हम साधारणतः जिस परिदृश्यमान आकाश को देखते  हैं, उसका नाम है महाकाश। योगी जब दूसरों का मनोभाव समझने लगते हैं या अलौकिक वस्तुएं देखने लगते हैं , तब वे दर्शन चित्ताकाश में होते हैं। और जब अनुभूति विषयशून्य हो जाती है , जब आत्मा अपने स्वरुप में प्रकाशित हो जाती है , तब उसका नाम चिदाकाश है। जब कुण्डलिनी-शक्ति जागकर सुषुम्णा नाड़ी में प्रवेश करती है , तब जो विषय अनुभूत होते हैं , वे चित्ताकाश में ही होते हैं। जब वह उस नाड़ी की अन्तिम सीमा मस्तक में पहुँचती , तब चिदाकाश में एक विषयशून्य ज्ञान अनुभूत होता है। 

      अब विद्युत्-प्रवाह की उपमा फिर ली जाय।  हम देखते हैं कि मनुष्य केवल तार के योग से एक जगह से दूसरी जगह विद्युत्-प्रवाह चला सकता है , परन्तु प्रकृति अपने महान शक्ति-प्रवाहों को भेजने के लिए किसी तार का सहारा नहीं लेती। * (पाठक यह ध्यान रखें कि यह बात बेतार के तार के आविष्कार के पूर्व ही कही गयी थी। स ०) इससे यह अच्छी तरह समझ में आ जाता है कि किसी प्रवाह (संवेदना-प्रवाह ) को चलाने के लिये वास्तव में तार की कोई आवश्यकता नहीं। " (वि ० सा ० -१ /७४ )   

 "According to the Yogis, there are two nerve currents in the spinal column, called Pingalâ and Idâ, and a hollow canal called Sushumnâ running through the spinal cord. At the lower end of the hollow canal is what the Yogis call the "Lotus of the Kundalini". They describe it as triangular in form in which, in the symbolical language of the Yogis, there is a power called the Kundalini, coiled up. When that Kundalini awakes, it tries to force a passage through this hollow canal, and as it rises step by step, as it were, layer after layer of the mind becomes open and all the different visions and wonderful powers come to the Yogi. When it reaches the brain, the Yogi is perfectly detached from the body and mind; the soul finds itself free.

योगियों के मतानुसार मेरुदण्ड के भीतर इड़ा और पिंगला नाम के दो स्नायविक शक्ति-प्रवाह , और मेरूदण्डस्थ -मज्जा के बीच सुषुम्णा नाम की एक शून्य नली है। इस शून्य नली के सबसे नीचे कुण्डलिनी का आधारभूत पद्म अवस्थित है। योगियों का कहना है कि वह त्रिकोणाकार है। जब यह कुण्डलिनी- शक्ति जगती है , तब वह इस शून्य नली के भीतर से मार्ग बनाकर ऊपर उठने का प्रयत्न करती है। और ज्यों ज्यों वह एक एक सोपान ऊपर उठती जाती है , त्यों त्यों मन के स्तर पर स्तर मानो खुलते जाते हैं , और योगी को अनेक प्रकार के अलौकिक दर्शन होने लगते हैं। तथा अद्भुत शक्तियाँ प्राप्त होने लगती हैं। जब वह कुण्डलिनी मस्तक पर चढ़ जाती है , तब योगी सम्पूर्ण रूप से शरीर और मन से पृथक हो जाते हैं। और उनकी आत्मा अपने मुक्त स्वभाव की उपलब्धि करती है ! " १/७२     

" The Yogi conceives of several centres, beginning with the Mulâdhâra, the basic, and ending with the Sahasrâra, the thousand-petalled Lotus in the brain.  We know there are two sorts of actions in these nerve currents, one afferent, the other efferent; one sensory and the other motor; one centripetal, and the other centrifugal. One carries the sensations to the brain, and the other from the brain to the outer body. These vibrations are all connected with the brain in the long run. Several other facts we have to remember, in order to clear the way for the explanation which is to come. This spinal cord, at the brain, ends in a sort of bulb, in the medulla, which is not attached to the brain, but floats in a fluid in the brain, so that if there be a blow on the head the force of that blow will be dissipated in the fluid, and will not hurt the bulb. This is an important fact to remember. Secondly, we have also to know that, of all the centres, we have particularly to remember three, the Muladhara (the basic), the Sahasrara (the thousand-petalled lotus of the brain) and the Manipura (the lotus of the navel)."

योगियों का कहना है कि सबसे नीचे मूलाधार से लेकर मस्तिष्क में स्थित सहस्रार या सहस्रदल पद्म तक कुछ चक्र हैं। हमें मालूम है कि हमारे सनयायुओं के भीतर दो प्रकार के प्रवाह हैं। उनमें से एक को अंतर्मुखी और दूसरे को बहिर्मुखी , एक को ज्ञानात्मक और दूसरे को कर्मात्मक , एक को केन्द्राभिसारी और दूसरे को केन्द्रापसारी कहा जा सकता है। उनमें से एक मस्तिष्क की ओर संवाद ले जाता है , और दूसरा मस्तिष्क से बाहर , समुदय अंगों में। परन्तु अन्त में ये प्रवाह मस्तिष्क से संयुक्त हो जाते हैं।  आगे आने वाले विषय को स्पष्ट रूप से समझने के लिए हमें कुछ और बातें ध्यान में रखनी होंगी। यह मेरुदण्डस्थ मज्जा मस्तिष्क में जाकर एक प्रकार के 'बल्ब ' में - मेडुला (medulla) नामक एक अण्डाकार पदार्थ में अन्त हो जाती है , जो मस्तिष्क के साथ संयुक्त नहीं है , वरन मस्तिष्क में जो एक तरल पदार्थ है , उसमें तैरता रहता  है। अतः यदि सिर पर आघात लगे , तो उस आघात की शक्ति उस तरल पदार्थ में बिखर जाती है , और इससे उस बल्ब को कोई चोट नहीं पहुँचती।  यह एक महत्वपूर्ण बात है , जो हमे स्मरण रखनी चाहिए। दूसरे हमें इन सब चक्रों में से सबसे नीचे स्थित मूलाधार (the basic Trangle), मस्तिष्क में स्थित सहस्रार (the thousand-petalled lotus of the brain) और नाभिदेश में स्थित मणिपुर  (the lotus of the navel) - इन तीन चक्रों के सम्बन्ध में विशेष रूप से जानकारी रखनी होगी। "  १/७३]   

[मानव के भीतर एक रहस्यमयी शक्ति निवास करती है । जो गहरे आवरण में छिपी हुई है । जो सर्पनी की तरह मुलाधार चक्र में गोल घूम रही हैं । मनुष्य ने सहस्त्र वर्षो के अनुसंधान से अपनी भीतर की इस शक्ती को ढुंढ निकाला । यह शक्ति मानव के भीतर मूलाधार चक्र से लेकर मस्तिष्क तक प्रकाशित होती रहती हैं ओर यह शक्ति ब्रह्मांड से जुडी है । संपूर्ण ब्रह्मांड एक चक्र से जुडा है । जिसे सहस्रार  चक्र कहा जाता है । हमारे शरीर में सप्त प्रकार के सप्तचक्र होते है । एक - एक चक्र में सहस्त्र प्रकार की शक्तियां और अनेक प्रकार के अनुभव छूपे हुये है । जिन्हे शब्दों में वर्णित नहीं कर सकते । यदि साधक इस शक्ति को जागृत कर ले तो उसका जीवन बदलने लगता है ओर यह संपूर्ण ब्रह्मांड को संचालित करने वाली ऊर्जा मनुष्य के भीतर धीरे - धीरे उतरने लगती हैं और साधक विराट अस्तित्व से जुडकर उसका स्वामी बनने लगता है । 

सहस्रार चक्र अथवा ब्रह्मरन्ध्र ही ब्रह्मलोक है, जहाँ महाशिवलिंग विराजमान है अथवा यह चित् स्वरुप महाशिव का कैलासरुप वास-स्थान है।  मूलाधार चक्र के भेदन से पृथ्वी -तत्व पर विजय प्राप्त होती है तथा ऊर्जा का ऊर्ध्वारोहण प्रारम्भ हो जाता है। योगी क्रमशः पाँचों तत्वों पर विजय पाकर ऊर्ध्वरेता हो जाता है तथा गुणातीत अवस्था को प्राप्त हो जाता है। कुण्डलिनी शक्ति के विविध चक्रों को पार करते समय योगी को विभिन्न ध्वनियों का श्रवण होता है। योगी में आन्तरिक ऊर्जा का विकास एवं आरोहण होता है तथा वह अपने भीतर ऊर्ध्वगमन करते हुए एक विशेष स्तर पर आकर गुरुत्वाकर्षण से मुक्त हो जाता है, अर्थात् जड़ता से मुक्त हो जाता है और उसके जीवन में सत्यं शिवं सुन्दरम् का समावेश हो जाता है।  भौतिक आकर्षण से विमुक्त होकर वह सहज प्रेम और करुणा से परिपूर्ण हो जाता है।

 ब्रह्मरन्ध्र का संबंध सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के साथ होता है। सुषुम्ना मूलाधार से सहस्रार तक अखण्डरूप से स्थित रहती है तथा उमा की प्रतीक कही जाती है। मूलाधार चक्र के भेदन से ऊर्जा का ऊर्ध्वारोहण प्रारंभ हो जाता है। जब वाग्देवी कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होकर सुषुम्ना के द्वारा मूलाधार के सहस्रार तक प्रवाहित हो जाती है, मूलाधार को सहस्रार से जोड़ देती है, वह उमा-शिव-मिलन भी कहलाता है। अष्ट सिद्धि उसे हस्तगत हो जाती है, किंतु योगी का लक्ष्य दिव्यसुधापान है।  तथा साधक को महाभाव की मधुर मूर्च्छा, दिव्यावेश, असह्य आनन्द, सौन्दर्य-दर्शन इत्यादि का अनुभव होता है तथा ऊर्ध्वागामी चेतना का परम चेतना के साथ ऐक्य होने पर परमानन्द प्राप्ति हो जाती है।  योगी को अनेक सूक्ष्म शक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं।  यही ब्रह्मचर्य एंव आनन्द प्राप्ति का सोपान है। हमारे सप्त चक्रो में से मूलाधार चक्र एक दिव्य चक्र है । इसको जागृत करने के लिये हमें एक अच्छे गुरु के सानिध्य में इस विराट चक्र  को जागृत करना चाहिये । मूलाधार चक्र तंत्र और योग साधना की चक्र संकल्पना का पहला चक्र है। इसे पशु और मानव चेतना के बीच सीमा निर्धारित करने वाला माना जाता है। इसका संबंध अचेतन मन से है, जिसमें पिछले जीवनों के कर्म और अनुभव संचित रहते हैं। कर्म सिद्धान्त के अनुसार यह चक्र प्राणी के भावी प्रारब्ध निर्धारित करता है। इस चक्र के देवता पशुपति महादेव के रूप में ध्यानावस्थित भगवान शिव हैं। यह निम्नस्तरीय गुणों पर नियंत्रण करने का प्रतीक है। इस चक्र का सांकेतिक प्रतीक चार पंखुड़िय़ों वाला कमल है। चारों पंखुड़ियाँ इस चक्र में उत्पन्न होने वाले मन के चार तत्वों: मानस, बुद्धि, चित्त और अहंकार के प्रतीक हैं। इस चक्र का दूसरा प्रतीक चिह्न उल्टा त्रिकोण है। यह ब्रह्माण्ड की ऊर्जा खिंचते चले आने का द्योतक है। यह चेतना के ऊर्ध्व प्रसार का भी बोध कराता है।

ध्यान के अभ्यास में, विशेषतः कुण्डलिनी शक्ति के जागरण में, सिद्ध गुरु से दिशा-निर्देशन प्राप्त करना अत्यन्त आवश्यक होता है। 

'यो गुरुः स शिवः प्रोक्तो यः शिवः स गुरुः स्मृतः।

उभयोरन्तरं नास्ति गुरोरपि शिवस्य च॥ '

 -- जो गुरु है, वह शिव कहा गया है, जो शिव है वह गुरु माना गया है। गुरु और शिव दोनों में अन्तर नहीं है। तर्कवादी मनुष्य कदापि सूक्ष्म तत्व का ग्रहण नहीं कर सकता। पाण्डित्य-प्रदर्शन और वाक्-पटुता सूक्ष्म अनुभूति के आदान-प्रदान में बाधक होते हैं। साधक को श्रद्धा और विश्वास से परिपूरित होकर सदगुरु की शरण ग्रहण करनी चाहिए। सद गुरु गूढ़ तत्वों को सरल प्रकार से हृदयंगम करा देते हैं।

मानव-देह में मेरुदण्ड के अधोभाग में स्थित मूलाधार चक्र में अनन्त शक्ति (सूक्ष्म नाड़ी तन्तुरुप) कुण्डली लगाये हुए सर्प की आकृति में स्थित है। मूलाधार चक्र भूलोक तथा सहस्रार चक्र ब्रह्मलोक है।  *मूलाधार चक्र (the basic trangle) (तत्व पृथ्वी, वर्ण पीत, देवता गणेश, सम्बद्ध वाहन हाथी। इसके कमल में चार दल हैं।   स्वाधिष्ठान चक्र (तत्व जल, वर्ण श्वेत, देवता ब्रह्मा, सम्बद्ध वाहन मगरमच्छ, इसके कमल में छह सिन्दूरी पँखुड़ियाँ हैं। )  )अनाहत चक्र (तत्व आकाश, वर्ण श्वेत अथवा सुहेम, वाहन गज। इसमें सिलेटी बैंगनी रंग की सोलह पँखुडियाँ हैं। ) आज्ञा चक्र (इसके श्वेत कमल में केवल दो पँखुडियाँ हैं, इसका देवता महेश्वर है। ) आज्ञा चक्र में दिव्य ज्योति की अनुभूति होती है। ॐकार का नाद नाभिकमल से उत्थित होकर अनाहत चक्र को झंकृत करता हुआ कण्ठस्थित विशुद्ध चक्र में स्फुट होता है तथा योगियों को स्फोट एवं नाद का दिव्य अनुभव होता है। ॐकार का वासस्थान आज्ञा चक्र होने के कारण भृकुटी पर ध्यान केंद्रित किया जाता है तथा भृकुटी पर चन्दन का तिलक किया जाता है। चित्शक्ति जो सर्पिलरुप में, कुण्डलिनी रूप में, मूलाधार चक्र में (सुषुम्ना के विविर में) प्रसुप्त होकर स्थित है, जागृत होने पर चक्रभेदन करती हुई मस्तिष्क के मध्य में स्थित सहस्राकार चक्र तक पहुँचकर ब्रह्मलीन हो जाती है।  सहस्रार चक्र का आज्ञा चक्र के साथ घनिष्ठ संबंध हैं। 


[यतो वाचो निवर्तन्ते यो मुक्तैरवगम्यते ।

यस्य चात्मादिकाः संज्ञाः कल्पिता न स्वभावतः ।।

 ‘मेरा-तेरा' एवं इस जगत् आदि दृश्य प्रपञ्च (इद्रजाल) के शान्त हो जाने पर दृश्य जब सत्ता को अर्थात् परमतत्व को प्राप्त कर लेता है, तब तदनुरूप ही वह कैवल्यावस्था को प्राप्त कर लेता है। महाप्रलय की स्थिति आने पर ( 'नाही सूर्य नाही ज्योति ........ वाली अवस्था' आने पर) जब सम्पूर्ण दृश्य जगत् अस्तित्व रहित हो जाता है, तब उस समय सृष्टि के पूर्वकाल में केवल प्रशान्त आत्मा मात्र ही शेष रहता है। जो आत्मारूपी सूर्य (सविता) कभी अस्ताचल की ओर गमन नहीं करता, जो अजन्मा एवं सर्वदोषरहित देव है, सदैव सर्वकर्ता तथा सर्वरूप है; जहाँ वाक्शक्ति जाकर वापस आ जाती है; जिसे मुक्त पुरुष ही जानते हैं और जिसकी आत्मा आदि संज्ञाएँ कल्पना मात्र हैं, स्वाभाविक नहीं है: (वे ही अविनाशी परब्रह्म परमेश्वर कहे जाते हैं)। (महोपनिषद -4 . 57 )] 

Wherever there was any manifestation of what is ordinarily called supernatural power or wisdom, there a little current of Kundalini must have found its way into the Sushumna. Only, in the vast majority of such cases, people had ignorantly stumbled on some practice which set free a minute portion of the coiled-up Kundalini. All worship, consciously or unconsciously, leads to this end.

"  जहाँ कहीं , लोग जिसे अलौकिक शक्ति या ज्ञान कहते हैं , उसका कुछ प्रकाश दीख पड़े, तो समझना होगा कि वहाँ कुछ परिमाण में यह कुण्डलिनी -शक्ति सुषुम्णा के भीतर प्रवेश पा गयी है। तो भी इस प्रकार की अलौकिक घटनाओं में से अधिकतर स्थलों में देखा जायेगा कि उस व्यक्ति ने बिना जाने एकाएक ऐसी कोई साधना कर डाली है , जिससे उसकी कुण्डलिनी -शक्ति अज्ञातभाव से कुछ परिमाण में स्वतंत्र होकर सुषुम्णा के भीतर प्रवेश कर गयी है। समस्त उपासना , ज्ञातभाव से हो या अज्ञातभाव से , उसी एक लक्ष्य पर पहुँचा देती है ; अर्थात उससे कुण्डलिनी जाग्रत हो जाती है। "    

The man who thinks that he is receiving response to his prayers does not know that the fulfilment comes from his own nature, that he has succeeded by the mental attitude of prayer in waking up a bit of this infinite power which is coiled up within himself. What, thus, men ignorantly worship under various names, through fear and tribulation, the Yogi declares to the world to be the real power coiled up in every being, the mother of eternal happiness, if we but know how to approach her. And Râja-Yoga is the science of religion, the rationale of all worship, all prayers, forms, ceremonies, and miracles."--THE PSYCHIC PRANA - Swami Vivekananda.

" जो यह सोचते हैं कि मैंने अपनी प्रार्थना का उत्तर पाया , उन्हें नहीं मालूम कि प्रार्थनारूप मनोवृत्ति के द्वारा वे अपनी ही देह में स्थित अनन्त शक्ति के एक बिन्दु को जगाने में समर्थ हुए हैं।  अतएव योगी घोषणा करते हैं कि मनुष्य बिना जाने जिसकी विभिन्न नामों से , डरते डरते और कष्ट उठाकर उपासना करता है , उसके पास किस तरह अग्रसर होना होगा , यह जान लेने पर समझ में आ जायेगा कि वही प्रत्येक व्यक्ति में कुण्डलीकृत यथार्थ शक्ति है - चिरन्तन सुख की जननी है। अतएव राजयोग (मनःसंयोग) यथार्थ धर्मविज्ञान है। वह सारी उपासना , सारी प्रार्थना , विभिन्न प्रकार की साधना -पद्धति और समुदय अलौकिक घटनाओं की युक्तिसंगत व्याख्या है।"  (प्राण का आध्यात्मिक रूप -THE PSYCHIC PRANA-१ /७७ )   

षट्कमलों अथवा षट्चक्रों का भेदन 

नारायण ! षट्कमलों अथवा षट्चक्रों का भेदन करना षट्चक्र सोपान पर चढ़ना कुण्डलिनी तत्व को जगाने (कुण्डलिनी-जागरण) की विधि है। मेरुदण्ड में तीन प्रमुख नाड़ियाँ हैं-सुषुम्ना (बोधिनी अथवा प्राणतोषिणी सरस्वती)इड़ा  (गंगा) और पिंगला (यमुना)।  जो सत्, रज और तम की भी सूचक हैं। योगी त्रिवेणी से मानसिक स्नान करते हैं। मेरुदण्ड जीवन का परिचालक, पोषक एवं धारक होता है। दिव्य सहस्रदल कमल (ब्रह्मरन्ध्र) में चन्द्रमा विराजमान है, जिसका चिन्तन योगी करते हैं। मेरुदण्ड शिव के पिनाक का प्रतीक है। पिनाक का एक भाग, जो मूलाधार चक्र में रहता है, चित्रकूट कहलाता है तथा सारा देह अयोध्यापुरी कहलाता है। मूलाधार के पद्म के मध्य स्थित 'Trangal' योनि में कुण्डलिनी स्थित है। षट् चक्रों एवं सप्तम सहस्रार चक्र (the thousand-petalled lotus of the brain) को सप्तलोक ( भूः भुवः स्वः तपः जनः महः सत्यम् ) भी कहा गया है। 

 घृणा को घृणा से, कटुता को कटुता से, क्रोध को क्रोध से, दुष्टता को दुष्टता से, हिंसा को हिंसा से नहीं जीता जा सकता।  क्षुद्रता को क्षुद्रता से, असत्य को असत्य से तथा अन्धकार को अन्धकार से कुछ समय के लिए दबाया जा सकता है, किंतु घृणा को प्रेम से, कटुता को मधुरता से, क्रोध को क्षमा से, दुष्टता को साधुता से, हिंसा को अहिंसा से, क्षुद्रता को उदारता से, असत्य को सत्य से तथा अन्धकार को प्रकाश से ही जीता जा सकता है।  मनुष्य की व्यक्तिगत सुखभोग की कामना महान् पुरुषार्थ को भी तुच्छ स्वार्थ बना देती है तथा यज्ञ-भावना (उदार-वृत्ति) पुरुषार्थ को परमार्थ बना देती है। सत्य प्रेम और सेवा मन के विष को धोकर उसे निर्मल बना देते हैं, संयम, सादगी और संतोष मनुष्य को सुख एवं शान्ति देते हैं तथा आध्यात्मिक भाव (ज्ञान, ध्यान एवं भक्ति) उसे आनन्द एवं दिव्यता प्रदान कर सकते हैं। सत्य, क्षमा, इन्द्रिय-संयम, दयाभाव तथा सरल व्यवहार का अभ्यास परिवार को सुगठित एवं सुखमय बना देते हैं। परिवार समाज की महत्वपूर्ण इकाई होता है तथा परिवारों के सुदृढ़ होने पर समाज हो जाता है। जो मनुष्य परिवार के लिए उपयोगी होता है, वहीं समाज के लिए उपयोगी सिद्ध होता है।

नारायण ! मनुष्य का मन ही सुख और दुःख का कारण होता है।  मनुष्य के मन की शक्तियां असंख्य दिशाओं में बिखरी रहती हैं। उन्हें  समेटने के लिए मनःसंयोग  का अभ्यास अमोघ उपाय है। मनःसंयोग  का अभ्यास मनुष्य को न केवल समस्त मानसिक रोगों एवं दुर्व्यसनों की रुचि से मुक्त करके पूर्णतः सन्तुलित एवं स्वस्थ कर सकता है, बल्कि उसे दिव्य जीवन की ओर भी उन्मुख कर देता है, एकाग्रता का अभ्यास  तनाव और अनिद्रा को दूर करने का अमोघ उपाय है। एकाग्रता के अभ्यास के  समय़ श्वास सीधा और गहरा होकर आयुवृद्धि करता है।  तथा मनुष्य स्वयं अपने विचारों द्वारा अपने मन का निर्माण करता है। मनुष्य जैसा चिन्तन करता है, वैसा ही मन हो जाता है, मन के स्वरुप का निर्माण चिन्तन द्वारा हो जाता है। अतएव स्वाध्याय (उत्तम ग्रन्थों का अध्ययन) तथा सत्संग का जीवन में अतुलनीय महत्व होता है।  स्वाध्याय एवं सत्संग से विवेक उत्पन्न होता है तथा मनुष्य विवेक द्वारा कामना आदि दोषों की निवृत्ति कर सकता है। विवेकशील पुरुष प्रेम, क्षमा, सहनशीलता तथा सेवाभाव से अपने चारों ओर मधुर वातावरण का निर्माण कर लेता है तथा विवेकहीन मनुष्य अंहकार, घृणा, क्रोध, संकीर्णता तथा स्वार्थ से अपने चारो ओर शत्रुतापूर्ण वातावरण का निर्माण कर लेता है तथा अकेला पड़कर सभी दूसरों को दोष देता रहता है।

कर्मयोगी अपने कर्मक्षेत्र में भयरहित एवं चिन्तारहित होकर कर्म करता है तथा सहज प्रसन्न रहता है। वह किसी के क्रुद्ध होने पर प्रतिक्रियात्मक क्रोध नहीं करता और कटुता का उत्तर मधुरता से देता है। कर्मयोगी के लिए संयुक्त परिवार सम्पूर्ण साधना का श्रेष्ठ केन्द्र-स्थल होता है।  कर्मयोगी के लिए सत्य, क्षमा, इन्द्रयि-संयम प्राणियों के प्रति दयाभाव तथा सरल व्यवहार भी तीर्थ होते हैं।  कर्मयोगी इन गुणों का अभ्यास परिवार में कर सकता है। परिवार के सदस्य उत्तम भावना, विचार, वचन और व्यवहार द्वारा परिवार को स्वर्ग बना सकते हैं। अपार भौतिक सम्पदा, वैभव और ऐश्वर्य में सुख देने की क्षमता नहीं होती। कर्मयोगी को सद्गुणों की अपेक्षा भौतिक सम्पदा को तुच्छ मानकर सद्गुणों के विकास एवं अभ्यास पर बल देना चाहिए। संघटित परिवार, संयुक्त परिवार , प्रत्येक सदस्य की संकटवेला में पूर्ण सहायता का श्रेष्ठ आश्वासन (बीमा) होता है, किंतु अविवेकीजन की क्षुद्रता, संकीर्णता तथा असहनशीलता के कारण परिवार टूट जाते हैं

नारायण ! मनःसंयोग (प्रत्याहार -धारणा)  की साधना से मनुष्य ऐसी मानसिक अवस्था को प्राप्त हो जाता है, जब उसे घोर दुःख भी विचलित नहीं कर सकते। साधक विद्युत के वेग से सदृश प्रसारित होनेवाली दिव्य शक्ति का अनुभव समस्त देह, मन और मस्तिष्क में करता है।  तथा वह सभी अङ्मों में उसकी व्याप्ति देखता है। संसिद्ध योगी सम्पूर्ण प्राणियों में भगवान् का दर्शन करता है तथा समदर्शी होता है।ध्याननिमग्न मनुष्य न केवल स्वयं गहन शान्ति का अनुभव करता है, बल्कि अन्य समीपस्थ मनुष्यों में भी शान्ति, सद्भवाना एवं सात्त्विकता का संचार कर देता है।श्रीमद् भगवद्गीता में कुण्डलिनी योग की चर्चा नहीं है, यद्यपि तन्त्र विद्या में ध्यान के संदर्भ में उसका विशेष महत्व कहा गया है। साधक विभिन्न स्तरों को पार करते हुए क्रम-विकास के पथ पर अग्रसर होता है। ]

 कच्चा फल कठोर और कटु होता है तथा पकने पर मृदु और मधुर हो जाता है। परिपक्व उत्तम पुरुष प्रेमरसपूर्ण, मृदु और मधुर हो जाता है। सर्वत्र -समदर्शी व्यक्ति सब मनुष्यों में परमात्मा का दर्शन करनेवाला पुरुष किसी की निन्दा नहीं करता , कभी किसी का अपमान नहीं करता तथा निःस्वार्थ जन-सेवा को प्रभु-सेवा अथवा परमेश्वर की पूजा ही मानता है।  स्वार्थपूर्ण तथा अंहकारपूर्ण मनुष्य को अपने अतिरिक्त कोई व्यक्ति उत्तम प्रतीत नहीं होता तथा अन्त में वह स्वयं से भी घृणा करके दुखी, व्याकुल तथा अशान्त हो जाता है। स्वार्थ विकास-प्रक्रिया में बाधक तथा स्वार्थत्याग सहायक होता है। 

साभार/https://www.facebook.com/groups/2043064172603248/posts/3030615283848127/

वेदांत में स्वयं (स्व) को आत्मा को आमतौर पर अंतरिक्ष ('ख' या आकाश) के रूप में परिभाषित किया गया है। उस रिक्त -स्थान (ख़म -आकाश) को आगे 'आनन्द (Bliss) ' के रूप में परिभाषित किया गया है। देश-काल में अवस्थित समस्त प्रकार की अभिव्यक्तियों के पीछे (नाम-रूप मय जगत के पीछे) यही आन्तरिक चेतना (the Inner Consciousness) का रिक्त-स्थान (खम -space, अवकाश) है। हमारा सच्चा स्व यानी चेतना का स्थान जन्म और मृत्यु, स्थान और इतिहास, मात्रा, माप या किसी भी प्रकार की श्रेणी से परे है। वह आनंद का स्थान है जिसमें बिना अंत के और बिना किसी विभाजन के शांति, खुशी, संतोष और आनंद है। एक बार जब हम अपनी बाहरी पहचान (M/F वाले देहात्मभाव, मिथ्या अहं ) को छोड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं तो हम अनंत अंतरिक्ष (ख) के रूप में अपनी वास्तविक प्रकृति में वापस आ सकते हैं।  और जो कुछ भी हम अपने आंतरिक प्रकाश और उपस्थिति के प्रतिबिंब के रूप में देखते हैं उसका अनुभव कर सकते हैं।

Our inner Self holds the entire universe ('ॐ मणिपद्मे हुम् '---अर्थात ॐ  वह मणि जो पद्म पर  विराजमान है')  in the small space within the spiritual heart (Hridaya-पद्म, हृदयकमल - अष्टदल रक्तवर्ण कमल पर विराजमान है।).This is a space of Consciousness (Chidakasha) behind all manifestation in the time-space world. Vedanta recognizes the existence several types and levels of space. First is the material space of our physical world that is the matrix of the other elements of earth, water, fire and air. It is the external measurable space in which we determine location and distance. Yet space itself has no form or location of its own. Objects are located in space but space surrounds and permeates all objects. We locate objects in space relative to space as distance.

If our true nature is like space in this higher sense, then truly we are neither body or mind. Then we are everything and nothing, sizeless and all-pervasive. We are the space of Being (Sat), the ground existence itself, which is Brahman as the Transcendent reality. Space is indivisible, indestructible and formless, beyond all limitations. This is the Self of Yoga and Vedanta whose nature is the space of Consciousness.

How do we discover our inner Space as consciousness and bliss? This is the essence of Self-inquiry, Mental Concentration and meditation, observing our bodies and mind from a place of inner awareness. Moving into the small space within the heart, hridaya akasha, is the key. At the core of our being we hold the entire universe as our own Self-manifestation, in which all sorrow is released.

 Our true Self that is the space of consciousness is beyond birth and death, location and history, quantity, measurement or any type of category. That is the space of Ananda in which there is peace, happiness, contentment and delight without end and without any division. Once we are willing to let go of our outer identifications we can return to our true nature as Infinite Space and experience all that we observe as a reflection of our own inner light and presence.----Dr. David Frawley (Vamadeva Shastri)

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आकाश तो अवकाश को कहते हैं और जो जो पदार्थ रहते हैं, वे अवकाश में ही रहते हैं । उन पदार्थों में भी आकाश व्याप्त होकर रहा है । ऐसा कोई पदार्थ नहीं, जिसमें आकाश न हो क्योंकि पृथ्वी के अतिसूक्ष्म रजकण में भी आकाश है और यदि उसके करोडों टुकडे भी कर डालें तो भी उसमें आकाश रहता है । इसलिए, आकाश की दृष्टि से जब देखें तब पृथ्वी,जल , अग्नि , वायु आदि चार भूत नहीं दिखायी पडते; अकेला आकाश ही दिखायी पडता है । वह आकाश ही सब का आधार है। 

 इस प्रकार स्थूल, सूक्ष्म और कारण-रुपी तीन शरीर भी आकाश में ही रहते हैं। ऐसा 'आकाश'  प्रकृति-पुरुष (शिव-शक्ति)  (या पद्म मृणाल और पद्मकर्णिका) तथा उनके कार्य पिण्ड-ब्रह्मांड के भीतर भी रहता है, तथा सब का आधार होकर उनके बाहर भी रहता  है । इस प्रकार यह आकाश तो सुषुप्ति या समाधि में भी लीन नहीं होता। तब कोई कहेगा कि आकाशादिक पंचभूत तो तमोगुण से उत्पन्न हुए हैं, ऐसी स्थिति में उस आकाश को पुरुष तथा प्रकृति (शिव और शक्ति) का आधार कैसे कहा जा सकता है ? उसे सर्वव्यापक भी कैसे कहा जाय ? इसका उत्तर यह है कि प्रकृति (शक्ति)  में यदि अवकाश रुपी आकाश न हो तो जिस प्रकार वृक्षों में से फल - पुष्पादिक बाहर निकलते हैं, और गाय के पेट में से बछडा निकलता है, उसी तरह प्रकृति (शक्ति)  में से जो महत्तत्त्व निकलता है, वह फिर कैसे निकलेगा? इसलिए, प्रकृति में (पद्मकर्णिका या बीजाधार में)  आकाश रहता है ! तथा महत्तत्त्व में से 'अहंकार' निकलता है, इस कारण महत्तत्व में भी आकाश अवश्य रहता है । 

इसी तरह तमोगुण में से आकाश आदि पांच भूत निकलते हैं, इसलिए तमोगुण में भी आकाश रहा हैं । तमोगुण में से जो आकाश निकलता है वह तो तमोगुण का कार्य है जो विकारमान है, किन्तु सबका आधार जो आकाश है, वह निर्विकार और अनादि है । ऐसा सर्वाधार जो आकाश है, उसे ब्रह्म तथा चिदाकाश कहते हैं । इस आकाश में पुरुष तथा प्रकृति (शिव और शक्ति) संकोच और विकास -(Involution and evolution) अवस्था को प्राप्त करते हैं।   जब 'पुरुष' - 'प्रकृति' को अपने सामने देखता है तब स्त्री-पुरुष से होनेवाली संतानोत्पत्ति के समान पुरुषरुपी पति (पद्ममृणाल)  तथा प्रकृतिरुपी स्त्री (पद्मकर्णिका) से महत्तत्वादिक (मन-बुद्धि -चित्त -अहंकार रूपी) संतान की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार यह अव्यक्त-प्रकृति ही चौबीस तत्त्व रुप तथा पिण्ड-ब्रह्माण्ड रुप से अभिव्यक्त होती है और यही प्रकृति की विकास (क्रमविकास-evolution) की अवस्था है ।  इसके अतिरिक्त, 'प्रकृति' के जितने कार्य हैं, उनमें 'पुरुष' अपनी शक्ति द्वारा व्यापक रुप से रहता है, यही पुरुष की विकास अवस्था है ।

 जब 'काल' के द्वारा प्रकृति के सब कार्य नष्ट हो जाते हैं और प्रकृति (काली)  भी पुरुष के अंग में लीन - सी रहती है, तब उसी को प्रकृति की संकोचावस्था कहा जाता है । जब पुरुष (शिव) भी प्रकृति (शक्ति) के समस्त कार्यों के नष्ट होने पर अपने स्वरुप में बना रहता है, उसीको पुरुष की संकोचावस्था (अव्यक्तावस्था) माना जाता है ।  जैसे कछुआ विकासोन्मुख होने पर अपने समस्त अंगों को बाहर निकाल लेता है और संकोचावस्था को प्राप्त होने पर अपने सभी अंगों को समेट लेता है, तब वह अकेला हो जाता है। वैसे ही पुरुष (शिव)  तथा प्रकृति (शक्ति)  की संकोच एवं विकास की अवस्था बनी रहती है । प्रकृति तथा उसके कार्यों में भी पुरुष का ही अन्वय - व्यतिरेक भाव रहता है, परन्तु सबका आधार जो चिदाकाश है, उसका ऐसा अन्वय-व्यतिरेक भाव नहीं है।  क्योंकि जो सर्वाधार है, वह किससे व्यतिरिक्त हो जाय ? वह तो सदैव सब में रहता  है । जो यह ब्रह्माण्ड  है, उसके चारों ओर लोकालोक पर्वत है, जो उसके लिए किले के समान रहता है । उस लोकालोक से बाहर अलोक है, उससे परे सात आवरण हैं, उनसे परे अकेला अंधेरा है और उस अंधेरे से परे प्रकाश है, जिसे चिदाकाश कहते हैं। उसी प्रकार, ऊँचाई भी ब्रह्मलोक तक बतायी गयी हैं, उसके परे सप्त आवरण हैं, उनसे परे अंधकार है, उससे परे प्रकाश है, जिसे चिदाकाश कहा जाता है।]

 इस प्रकार ब्रह्माण्ड के चारों ओर चिदाकाश है, और वही ब्रह्मांड के अंदर भी है । ऐसा जो वह सर्वाधार आकाश है उसके आकार में जिसकी दृष्टि पहुंचती हो उसे दहरविद्या कहते हैं । और भी अक्षिविद्या आदि अनेक प्रकार की ब्रह्मविद्याएँ कही गयी हैं, जिनमें से यह भी एक ब्रह्मविद्या है । यह चिदाकाश अतिप्रकाशवान है तथा वह चिदाकाश अनादि है । उसकी उत्पत्ति तथा उसका विनाश नहीं होता । जिस आकाश की उत्पत्ति तथा विनाश की बात कही गयी है, वह आकाश तो तमोगुण का कार्य है और अंधकार रुप है, वह लीन हो जाता है, परन्तु सबका आधार जो चिदाकाश है, वह लीन नहीं होता । 

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