श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर
(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली )
(54)
*ज्ञानी तथा भक्त में अन्तर *
[Within Jnani, the Ganges flows in only one direction.
but Within the devotee, there is an ebb tide.]
434 ज्ञानी जग मिथ्या कहे , सदा ब्रह्म में लीन।
808 आनन्द सागर में भगत , तैरहि बन जनु मीन।।
435 ज्ञानी बहे इक भाव में , भगत बहे सब ओर।
808 इक स्थिर इक विलास करें , हृदय प्रेम हिलोर।।
ज्ञानी के भीतर मानो एक ही दिशा में गंगा बहती है। उसके लिए सब कुछ स्वप्नवत है। वह सदा स्वस्वरूप में अवस्थित रहता है। परन्तु भक्त के भीतर गंगा एक दिशा में नहीं बहती , उसमें ज्वार-भाटा होता रहता है। वह कभी हँसता है , कभी रोता है, तो कभी नाचता -गाता है। भक्त भगवान के साथ विलास करा चाहता है। वह उस आनन्दसागर में कभी तैरता है , कभी डूबता है , तो कभी उतराता है ; जैसे पानी में बर्फ का टुकड़ा डूबता -उतराता रहता है।
433 कह ज्ञानी 'सोहं'- 'सोहं' , भक्त प्रभु माँ बाप।
805 इक सोचत निज पूर्ण सम , अपर अंश जनु आप।।
ज्ञानी कहता है - " सोऽहं ! मैं ही वह शुद्ध आत्मा हूँ। " परन्तु भक्त कहता है , " अहा , वह सब उनकी (माँ जगदम्बा की ) महिमा है !!"
436 ज्ञान है मानो पुरुष सम , भक्ति मानो नारी।
812 भक्ति भीतर तक पहुंचे , ज्ञान केवल दुवारी।।
ज्ञान मानो पुरुष है और भक्ति नारी। ज्ञान भगवान के बैठक खाने तक जा सकता है , परन्तु भक्ति उनके अंतःपुर में प्रवेश कर सकती है।
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