श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर
(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली )
(5)
* विद्या माया *
42 माया हरि की शक्ति है , धर शक्ति का ध्यान।
63 जो किरपा हो शक्ति की , पावोगे भगवान।।
ईश्वर में विद्या -माया और अविद्या-माया दोनों है। विद्या-माया जीव को ईश्वर की ओर ले जाती है , और अविद्या -माया ईश्वर से दूर। ज्ञान, भक्ति , दया , वैराग्य -यह विद्या -माया का ही खेल है। इन्हीं का आश्रय ले मनुष्य ईश्वर के समीप पहुँच सकता है।
*अविद्या माया*
36 ब्रह्म जीव के बीच रह , माया करहहिं आड़।
55 कर किरपा माया हटे , खुले ज्ञान किवाड़।।
राम , सीता और लक्ष्मण वनवास को निकले। आगे-आगे राम चले , बीच में सीता और पीछे-पीछे लक्ष्मण। राम का पूर्ण दर्शन पाने के लिए लक्ष्मण व्याकुल थे पर बीच में सीता के होने के कारण यह सम्भव न था। तब लक्ष्मण ने मईया सीता से प्रार्थना की कि वे तनिक बाजु हट जाएँ ; सीता के थोड़ा बाजू हटते ही लक्ष्मण की इच्छा पूरी हुई - उन्हें राम के दर्शन हुए। यही हाल ब्रह्म , माया और जीव का भी है। जब तक माया हट न जाय तब तक जीव ब्रह्म के दर्शन नहीं पा सकता।
{माया (अज्ञान) की दो शक्तियां हैं : १.आवरण २. विक्षेप (name and form)
आवरण शक्ति : का अर्थ है पर्दा , जो दृष्टि में अवरोधक बन जाय. जिसके कारण वास्तविकता नहीं दिखायी दे। जैसे शाम के धुंधले प्रकाश में पड़ी हुई रस्सी को देखकर सर्प का भ्रम हो हो जाता है। अथवा जैसे बादल का एक टुकड़ा पृथ्वी से कई गुने बड़े सूर्य को ढक लेता है। उसी प्रकार माया की आवरण शक्ति सीमित होते हुए भी परम आत्मा के ज्ञान हेतु अवरोधक बन जाती है। परमात्म को जानने वाली जो शुद्ध-बुद्धि है, उस शुद्धबुद्धि और आत्मतत्त्व के बीच अज्ञान का आवरण आ जाता है।
विक्षेप शक्ति -यह विज्ञानमय कोश में स्थित रहती है। आत्मा की अति निकटता के कारण यह अति प्रकाशमय है। माया की यह शक्ति भ्रम पैदा करती है। (एक ही वस्तु को अलग अलग रूपों में दिखाती है।) इससे ही संसार के सारे व्यवहार होते हैं। जीवन की सभी अवस्थाएं, संवेदनाएं इसी विज्ञानमय कोश अथवा विक्षेप शक्ति के कारण हैं। यह चैतन्य की प्रतिविम्बित शक्ति चेतना (reflected consciousness) है। यह विक्षेप शक्ति सूक्ष्म शरीर से लेकर ब्रह्मांड तक सम्पूर्ण संसार की रचना करती है।
साभार /BASANT PRABHAT JOSHI/
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39 जस बादल सूरज ढके , तस माया भगवान।
59 हटत बदरिया हरि मिले , कहे संत सुजान।।
जिस प्रकार बादल सूरज को ढक देता है , उसी प्रकार माया ने ईश्वर को ढक रखा है। बादल के हट जाते ही सूरज दीखने लगता है , वैसे ही माया के दूर होते ही ईश्वर प्रकट हो जाते हैं।
37 माया मुखौटा ब्रह्म की , जगत सकल भरमाय।
57 जो जाना निज रूप तो माया छू हो जाये।।
हरि जब सिंह का मुखौटा लगा लेता है तो सचमुच बड़ा डरावना दिखने लगता है। वह अपनी खेलती हुई छोटी बहन के पास जाकर सिंह की आवाज में उसे डराने लगता है तो वह बच्ची चौंककर मारे डर के चीखती हुई भागने लगती है। लेकिन जब हरि वह मुखौटा हटा लेता है , तो घबड़ाई हुई बच्ची तुरन्त अपने प्यारे भाई को पहचानकर उसकी ओर चिल्लाती हुई दौड़ पड़ती है - " अरे , ये तो भैया हैं ! "
मनुष्यों का भी यही हाल है। माया के आवरण में ब्रह्म ही छिपा हुआ है , फिर भी माया की शक्ति से लोग मुग्ध और भयभीत होकर कितनी ही चीजें करने को विवश हो जाते हैं। लेकिन जब ब्रह्म के स्वरुप पर से यह माया का पर्दा हट जाता है तब वह , ब्रह्म भयंकर , कठोर शासक के रूप में प्रतीत नहीं होता - तब तो अपनी ही प्रियतम अन्तरात्मा के रूप में उसका अनुभव होता है।
38 जस काई तलाव ढके , तस माया जीव नैन।
58 कर साधन काई हटा , निरख प्रभु निज नैन।।
ईश्वर यदि सर्वत्र विराजमान हैं , तो हम उन्हें देख क्यों नहीं पाते ? काई से ढके तालाव के किनारे खड़े होकर देखने पर तुम्हें उसमें पानी नहीं दिखाई देगा। अगर तुम पानी देखना चाहते हो तो तालाब पर से काई को हटा दो। माया के परदे से ढँकी हुई आँखों से देखकर तुम लोग कहते हो कि हमें ईश्वर क्यों नहीं दिखाई देते। अगर तुम ईश्वर को देखना ही चाहते हो , तो आँखों पर से माया का परदा हटा डालो।
40 जस पानी अरु दूध मिले , तस माया भगवान।
60 तज पानी पय पान करे , परमहंस सुजान।।
किंवदन्ती है कि अगर दूध में पानी मिला हो तो हंस उसमें से दूध पीकर पानी को वैसा ही छोड़ देता है। पर दूसरे पक्षी ऐसा नहीं कर सकते। इसी प्रकार ईश्वर माया के साथ मिले हुए हैं। साधारण मनुष्य उन्हें माया से अलग करके नहीं देख पाते , केवल जो परमहंस होते हैं वे ही माया को त्याग कर ईश्वर का ग्रहण करते हैं।
41 पहचानत माया भगे , जस जागत घर चोर।
61 कर सतसंगत जान ले , घर हिय नाम अंजोर।।
यदि तुम माया को पहचान लो तो वह स्वयं ही तुम्हें छोड़कर भाग जाएगी। जैसे गृहस्थ यदि जान जाये कि घर में चोर आया है , तो चोर अपने आप भाग जाता है।
*विषयाशक्ति ही आध्यात्मिक उन्नति में बाधा *
49 साध साध बन कामजित, खुलहहि मेधा द्वार।
79 आत्मज्ञान हो कटहि पुनि , हृदय ग्रंथि हजार।।
कामवासना को पूरी तरह से वशीभूत करने की कोशिश करो। ऐसा करने में यदि कोई सफल हो सके तो उसके भीतर मेधा नाड़ी ** नाम की एक सूक्ष्म नाड़ी उत्पन्न होती है, वह निम्नगामी शक्ति को उर्ध्वगामी बना देती है। इस मेधा नाड़ी के खुलने के बाद ही सर्वोच्च परमात्मज्ञान प्राप्त होता है।
[ मेधा नाड़ी ** खुलने का अर्थ है कि वह व्यक्ति किसी भी चीज को चाहे वह पाठ्य हो, श्रव्य हो ,अथवा दृश्य एक बार पढ़ने, सुनने, अथवा देखने मात्र से ही उसको हमेशा के लिए इस तरह से याद हो जाती है, जिस तरह से किसी कंप्यूटर में कोई फाइल लोड कर दी जाती है। उस व्यक्ति की मेधा इतनी ज्वलंत हो जायेगी के वह किताब के पन्ने को एक बार मात्र देखने से सदा के लिए याद रख सकेगा। इसे फ़ोटो मेमोरी भी कहते है। ब्रह्मचर्य के पालन से मस्तिष्क की शक्ति बढ़ने के साथ-साथ शारीरिक शक्ति में भी वृद्धि होती है।(जो केवल संतान प्राप्ति के लिए विवाह करे तो वह गृहस्थ स्त्री-पुरुष भी ब्रह्मचारी कहे गए हैं।)
46 जो चाहत हरि भजन नर , जो चाहत भगवान।
75 काम कांचन से हे मनुवा , सदा रहो सावधान।।
जो ईश्वरप्राप्ति के लिये साधन भजन करना चाहते हैं , उन्हें कामिनी- कांचन की आसक्ति से बचने के लिए विशेष रूप से सावधान रहना चाहिये , अन्यथा उन्हें सिद्ध-अवस्था कभी नहीं मिल सकती।
47 काम कांचन के भार से , नर झुकत जग ओर।
77 छूटत सकल आराधना , टूटत भगति डोर।।
जब तराजू का एक पल्ला दूसरे पल्ले से भारी होकर झुक जाता है तो उसका निचला काँटा (मन) उपरवाले काँटे (T) से अलग हट जाता है। इसी प्रकार जब मनुष्य का मन कामिनी -कांचन के भार से संसार की और झुक जाता है तो वह ईश्वर में एकाग्र नहीं हो पाता , वह उनसे दूर हट जाता है।
48 जस हंडी के छेद से , बून्द बून्द बहे जल।
78 तस विषयन आसक्त के , सब साधन के फल।।
अगर घड़े में कहीं एक छोटासा भी छेद रहे तो उसका सारा पानी धीरे-धीरे बह जाता है। उसी प्रकार साधक के भीतर यदि थोड़ी सी संसार -आसक्ति रह जाये तो उसकी सब साधना व्यर्थ हो जाती है।
50 आसक्ति से छूटत नर , छूटत विषय के राग।
81 हिय गुह उपजहि भगति अरु , नित नव अनुराग।।
मन जब भोग्य वस्तुओं की आसक्ति से मुक्त हो जाता है तब वह ईश्वराभिमुख होते हुए ईश्वर में ही लीन हो जाता है। इस तरह बद्ध जीव भी मुक्त हो जाता है। जो ईश्वर से विमुख होकर दूर हो जाता है वही बद्ध जीव है।
51 कनक काम की आसक्ति , सहज मिटे नहि रोग।
82 जो मिटे फिर शेष क्या , केवल आनन्द भोग।।
यदि जीव के मन से काम -कांचन की आसक्ति मिट गयी , तो फिर उसके लिए शेष ही क्या रह गया ? --केवल ब्रह्मानन्द !
43 काम कांचन हैं प्रबल अति , माया के दो रूप।
66 कर मोहित सब जीव को , बिसराया स्वरुप।।
माया क्या है ? यह काम या भोगासक्ति ही है, जो आध्यात्मिक उन्नति में विघ्नस्वरूप है।
*विषयाशक्ति का बन्धन *
44 जीव फँसा जग जाल में , पावे दुःख हजार।
68 माया डोर है प्रबल अति , भजत न हरि इक बार।।
संसार-जाल में फँसे हुए जीव विषयासक्ति के कारण हजारों दुःख-कष्ट भोगते हैं किन्तु फिर भी वे कामिनी-कांचन के मोह को छोड़कर भगवान में मन नहीं लगाते।
45 काम कांचन है प्रबल अस , नर को जग में डुबाय।
73 भटकावे भव जाल में , भगवत भजन न भाय।।
कामिनी -कांचन ही मनुष्य को संसार में डुबो रखते हैं , ईश्वर की ओर जाने नहीं देते। कितने अचरज की बात है कि सभी लोग अपनी पत्नी की तारीफ ही करते हैं , चाहे वह भली हो या बुरी।
" ब्रह्मशक्ति माया "
34 बिन माटी बिन पानी के , घड़ा बनत नहीं एक।
51 तस बिन शिव बिन शक्ति के , होत न सृष्टि अनेक।।
सृष्टि के लिये शिव तथा शक्ति दोनों की आवश्यकता है। कुम्हार सूखी मिट्टी से घड़ा नहीं बना सकता , पानी भी चाहिये। इसी प्रकार शक्ति की सहायता के बिना केवल शिव के द्वारा सृष्टि नहीं हो सकती।
35 भगवन में माया बसे , विष बसे जनु साँप।
53 माया मुग्ध करे जग को , मुग्ध न होवे आप।।
साँप के दाँतों में विष है , लेकिन जब वह स्वयं खाता है तो उस पर विष का असर नहीं होता ; किन्तु जब वह दूसरों को काट खाता है तो उस व्यक्ति पर विष चढ़ जाता है। इसी प्रकार , भगवान में माया है तो अवश्य , पर वह उन्हें मुग्ध नहीं कर सकती , किन्तु सारे संसार को मुग्ध कर लेती है।
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[ बुधवार, 8 फ़रवरी 2012" विवेकानन्द और युवा आन्दोलन " (समस्त ४२ निबन्ध का १७ वां निबंध /आत्मसमीक्षा - अपने भीतर की भोगासक्ति एक पलड़े पर और दूसरे पलड़े पर त्याग को रखकर तौले , अथवा एक पलड़े पर भीतर के स्वार्थ और दूसरे पलड़े पर भीतर के परमार्थ को रखकर तौलें तो कौन सा पलड़ा भारी होगा ? पृष्ठ 60 ]
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