शुक्रवार, 4 जून 2021

श्री रामकृष्ण दोहावली (17) एक हाथ जग करम करो , दूजे धर प्रभु पाद ~" साँप के मुँह में मेढक को नचाओ, पर साँप उसे निगल न पाए। " गृहस्थ जीवन व्यतीत करने वाले साधकों के प्रति उपदेश/भक्त ह्रदय आनन्द झरे , करत प्रभु से बात- " भक्तों का आपसी नाता "

                       श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर 

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(17) 

गृहस्थ जीवन व्यतीत करने वाले साधकों के प्रति उपदेश  

162 एक हाथ जग करम करो , दूजे धर प्रभु पाद। 

267 शेष होत सब करम के , सोलह मन कर याद।।

तुम संसार में रहकर गृहस्थी चला रहे हो - इसमें हानि नहीं , परन्तु तुम्हें अपना मन ईश्वर की ओर रखना चाहिये। एक हाथ से कर्म करो , और दूसरे हाथ से ईश्वर के चरणों को पकड़े रहो। जब संसार के कर्मों का अन्त  जायेगा , तब दोनों हाथों से ईश्वर के चरणों को पकड़ना। [ गजानन्द पाठक की,  फिल्म - पुनर्जागरण से !]   

168 ले शरण सब सौंप दो , प्रभु को जीवन डोर। 

271 कल्प तरु तर बैठ फिर , कहाँ दुःख की ठोर।।

जब भगवान ने ही तुम्हें संसार में (गृहस्थ जीवन में) रखा है , तो तुम क्या करोगे ? उनकी शरण लो, उन्हें सबकुछ सौंप दो , उनके चरणों में आत्मसमर्पण करो , ऐसा करने से फिर कोई कष्ट नहीं रह जायेगा। तब तुम देखोगे कि सब कुछ उन्हीं की इच्छा से हो रहा है।

जिस प्रकार बालक एक हाथ से खम्भा पकड़कर जोरों से गोल गोल घूमता है -उसे गिर पड़ने का डर नहीं होता। - उसी प्रकार ईश्वर को [माँ सारदा जगदम्बा को] पक्का पकड़कर संसार के सभी काम करो , इससे तुम विपत्ति से मुक्त रहोगे।    

 [अर्थात जब माँ काली (श्रीरामकृष्ण) ने ही तुम्हें पूर्वजन्म की tendency के अनुसार,  प्रवृत्ति धर्म का पालन करते हुए निवृत्ति में आने के योग्य समझा है , तो तुम क्या करोगे? जगतजननी माँ सारदा देवी की शरण लो, उन्हें सब कुछ सौंप दो , उनके चरणों में आत्मसमर्पण करो, ऐसा करने से तुम विपत्ति से मुक्त रहोगे।] 

159 जब जीवन में हो जावे , एक या दो सन्तान। 

264 पति पत्नी संयम करो , भाई बहन समान।। 

कामिनी -कांचन का पूर्ण त्याग संन्यासी के लिए है। संन्यासी को स्त्री स्त्रियों का चित्र तक नहीं देखना चाहिए। अचार या इमली की याद आते ही मुँह में पानी आ जाता है , देखने या छूने की तो बात ही क्या ! पर तुम जैसे गृहस्थों के लिये इतना कठिन नियम नहीं है, यह केवल संन्यासियों के लिए है। तुम ईश्वर की ओर मन रखकर , अनासक्त भाव से स्त्री के साथ रह सकते हो।

        पर मन को ईश्वर में लगाने और अनासक्त बनाने के लिये बीच-बीच में निर्जन-वास ** करना चाहिये। ऐसे निर्जन स्थान में जाकर तीन दिन , या संभव न हो तो एक ही दिन अकेले रहते हुए व्याकुल होकर ईश्वर को पुकारना चाहिये। 

    एक या दो सन्तान हो जाने के बाद पति-पत्नी को भाई -बहन की तरह रहते हुए सतत भगवान से प्रार्थना करनी चाहिए कि " हे प्रभो ,हमें शक्ति दो ताकि हम संयम और पवित्रतापूर्ण जीवन बिता सकें। "  

{ निर्जनवास * = ऐसी जगह जहाँ 24 घंटे केवल चरित्र-निर्माण और ठाकुर, माँ और स्वामीजी के जीवन और उपदेशों पर चर्चा होती हो, जैसे महामण्डल का छः दिवसीय, तीन दिवसीय या एक दिवसीय -  युवा प्रशिक्षण शिविर और साप्ताहिक पाठचक्र !]   

160 मेढ़क नचाओ सर्प मुख , सर्प निगल नहीं पाये। 

265 अनासक्त हो जगत करो , सुन्दर सहज उपाय।।

संसार में रहो , पर संसारी मत बनो। जैसी की कहावत है, " साँप के मुँह में मेढक को नचाओ, पर साँप उसे निगल न पाए। "       

169 जनक जनक सब कोई कहे , जनक बनत नहीं कोई। 

272 जनम जनम जब तप करे , तब कोई जनक होई।।

गृहस्थाश्रम में रहकर भी ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं। जैसे राजर्षि जनक को हुए थे। परन्तु कहने मात्र से ही कोई राजा होकर भी ऋषि , राजर्षि जनक नहीं बन जाता। जनक राजा ने पहले निर्जन में जाकर कितने वर्षों तक उग्र तपस्या की थी ! गृहस्थों को बीच -बीच में , कम से कम तीन ही दिन के लिए , निर्जन में ** जाकर ईश्वरदर्शन के लिए प्रार्थना करनी चाहिए - इससे अत्यन्त लाभ होता है। 

 [ निर्जन  ** का अर्थ होता है - महामण्डल का छः दिवसीय वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर -जहाँ छः दिनों तक " Be and Make " के सिवा अन्य कोई चर्चा नहीं होती !]   

170 दही जमे एकान्त में , तस निर्जन में ध्यान। 

273 निर्जन में हरिभजन करो , कह ठाकुर सुजान।। 

एक बार ब्रह्मसमाज के कुछ सदस्यों ने मुझसे कहा था, " हम राजर्षि जनक को अपना आदर्श मानते हैं। हमलोग लोग उन्हीं की तरह निर्लिप्त होकर संसार करेंगे।  "  मैंने उनसे कहा - जनक राजा का उदाहरण देना आसान है , पर स्वयं राजा जनक जैसा बनना इतनी सरल बात नहीं। संसार में रहकर निर्लिप्त रहना बड़ा कठिन है। जनक राजा ने पहले कितनी कठोर तपस्या की थी ! तुम्हें इतनी कठोर तपस्या करने की जरूरत नहीं। परन्तु साधना करनी होगी, निर्जनवास करना ही होगा। निर्जन में ज्ञान-भक्ति प्राप्त करके फिर संसार में प्रवेश कर सकते हो। दही एकान्त में ही अच्छा जमता है , हिलाने -डुलाने से नहीं जमता। 

      जनक निर्लिप्त थे , इसलिए उनका एक नाम 'विदेह ' था --विदेह माने देहबोध रहित! वे संसार में रहते हुए भी जीवनमुक्त थे। परन्तु देहबोध का नष्ट होना अत्यन्त कठिन है। इसके लिए बहुत साधना चाहिए।   

     जनक राजा बड़े वीर थे।  वे एक ही साथ दो तलवारें चलाते थे -एक ज्ञान की दूसरी कर्म की ! 

{  .....  एई संसारई मजार कुटि , आमि खाई-दाई आर मजा लूटी। जनक राजा महातेजा , तार किसेर छिल त्रुटि। से जे येदिक उदिक दुदिक रेखे , खेयेछिल दूधेर बाटि।। अर्थात अपना गृहस्थ धर्म निभाते हुए लगातार महामण्डल का वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिवीर में भाग लेना ही होगा और महामण्डल केंद्रीय समिति के साथ सम्पर्क बनाये रखना होगा।  "এই সংসারই মজার কুটি, আমি খাই-দাই আর মজা লুটি।জনক রাজা মহাতেজা, তার কিসের ছিল ক্রটি।সে যে এদিক ওদিক দুদিক রেখে, খেয়েছিল দুধের বাটি।” শ্রীশ্রীরামকৃষ্ণ কথামৃত /১৮৮২, ২৭শে অক্টোবর/}    

161 हो निर्लिप्त जग में रहो , जग न रहे तुम माहिं। 

266 नाव चलत जल पर सदा , भरत तुरत डूब जाहिं।।

 नाव पानी में रहे तो कोई हर्ज नहीं , पर नाव के अन्दर पानी न रहे, वरना नाव डूब जाएगी। साधक संसार में रहे तो कोई हर्ज नहीं , परन्तु साधक के भीतर संसार न रहे।   

163 रहो सदा संसार में , कमल पात की नाइ। 

268 पात सदा जल पर रहे , सकत न जल भिगाई।। 

164 रहो सदा संसार में , इक चींटी की नाइ। 

268 बालू चीनी मेल से लेत चीनी बिलगाइ।।

165 रहो सदा संसार में , हंस पक्षी की नाइ। 

268 सत असत मँह असत तज , लेवत सत बिलगाइ।।

निर्लिप्त होकर संसार में रहना कैसा है , जानते हो ? जैसे कमल का फूल या कीचड़ में रहने वाली 'पाँकाल' मछली। जल में रहने पर भी कमल की पँखुड़ियों में जल नहीं लगता , कीचड़ में रहते हुए भी 'पाँकाल ' मछली के अंग में कीचड़ नहीं लगता। 

166 पीठ घाव मन रहे जस , करे जगत के काम। 

269 तस मनवा भज सदा , जगपति राजा राम।। 

167 दाँत दरद मन रहे जस , करे जगत के काम। 

269 तस मनवा भज ले सदा ,  जगपति राजा राम।।

तुम संसार में यदि रहो भी तो इसमें कोई विशेष हानि नहीं। मन को सदा ईश्वर में रखकर निर्लिप्त भाव से संसार के सब काम किये जाओ। जैसे , अगर किसी की दाँत में दर्द हो,तो वह लोगों से बातचीत या दूसरे व्यवहार आदि तो करता है , पर उसका मन सब समय उस घाव के दर्द की ओर ही पड़ा रहता है। 

[" हंसा यह पिंजड़ा नहीं तेरा " के चिंतन में मन रमा रहे। 

158 धन अरजन जग में करो , रख कर विवेक विचार। 

260 सत कमाई सदा फले , असत फले कुविचार।।

एक गृहस्थ भक्त --महाराज , क्या मुझे ज्यादा पैसा कमाने के लिये कोशिश करनी चाहिए?  

श्रीरामकृष्ण : हाँ , यदि तुम विवेक-विचार के साथ संसार-धर्म का पालन करो, तो ऐसे संसार के लिए आवश्यक धन कमा सकते हो। पर ख्याल रहे तुम्हारी कमाई ईमानदारी की हो , क्योंकि तुम्हारा मुख्य उद्देश्य धन कमाना नहीं है , ईश्वर की सेवा करना ही तुम्हारा उद्देश्य है, ईश्वर की सेवा के लिए धन कमाने में कोई दोष नहीं है।   

भक्त -महाराज , संसार (परिवार) के प्रति कर्तव्य कब तक रहता है ? 

श्रीरामकृष्ण - जब तक संसार में सब की गुजर -बसर का प्रबन्ध न हो जाये।  अगर तुम्हारे बच्चे अपने पैरों पर खड़े हो जाएँ तो फिर उनके प्रति तुम्हारा कर्तव्य नहीं रह जाता।    

" भक्तों का आपसी नाता "

156 भक्त ह्रदय आनन्द झरे , करत प्रभु से बात। 

255 अपर भगत को कहहि सकल , कहहि न विषयी जात।।

स्त्रियों की अपने पति के साथ एकान्त में जो कुछ बातचीत होती है , उसे वे किसी के सामने कहते लजाती हैं। उन बातों को वे न तो किसी को बताती हैं , और न बताना चाहती हैं ; वे बातें यदि किसी तरह किसी के सामने प्रकट हो जायें तो स्त्रियाँ नाराज हो जाती हैं। परन्तु अपनी सहेलियों को वे स्वयं ही उन बातों को बताया करती हैं , इतना ही नहीं , वे उन्हें बतलाने के लिए उत्सुक भी रहती हैं, और बतलाकर आनन्दित होती हैं।  इसी प्रकार, भगवद्भक्त भी , भावावस्था में ईश्वर के साथ उसका जो वार्तालाप होता है , और उससे उसे हृदय में जिस प्रकार आनन्द अनुभव होता है , उस सब के विषय में हर किसी को बताना नहीं चाहता , क्योंकि उससे उसे सुख नहीं मिलता। किन्तु यथार्थ भक्त को [कुम्हड़ा -लौकी श्रेणी के भक्त ?] वह दिल खोलकर सब कुछ बताता है; बतलाने के लिए उत्सुक रहता है और बतलाकर आनन्दित होता है।  

157 भक्त भक्त संग मेल करे , करे हरि गुण गान। 

257 करे गंजेड़ी सकल मिल , जैसे गांजा पान।। 

क्या कारण है कि भक्त अकेला रहना पसन्द नहीं करता ? गँजेड़ी को अकेले गाँजा पीने में आनन्द नहीं मिलता। गँजेड़ी की ही तरह भक्त को भी अकेले ही भगवान का नाम गुणगान करने में मजा नहीं आता।

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