रविवार, 5 फ़रवरी 2023

🔱🙏परिच्छेद ~115, [ ( 23 मई , 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-115 ]🔱🙏🔱🙏 Time-Space and Causation को Transcend करने हेतु साधना चाहिए । साधना बताने में सक्षम नेतृत्व की उत्पत्ति। *Genesis of Leadership🔱🙏ईश्वरकोटि और जीवकोटि🔱 ब्रह्म और जगत -🔱🙏Nitya belongs to Him to whom the Lila belongs.🔱🙏आत्मा और ब्रह्माण्ड [Yoga, Subjective (साक्षी=द्रष्टा) and Objective (दृश्य), *समाधि और निर्वाण में अन्तर* 🔱🙏 प्रसंग तोतापुरी का रोना - क्या निर्वाण जीवन का अंत है?🔱🙏*The scene is Totapuri's cry*🔱🙏प्रेममय नेता नवनीदा भी नित्य हैं और उनका भक्त भी नित्य है🔱🙏ब्रह्म और जगत के विषय में श्री रामकृष्ण की सम्यक दृष्टि 🙏केवल शास्त्र ज्ञान व्यर्थ है - साधना से प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त होता है🔱🙏कर्म योग या भक्ति योग - सतगुरु कौन है?🔱🙏क्या ईश्वर ( the embodiment of sweetness!) नीरस हैं ?🔱🙏 सांसारिक व्यक्ति नशे की स्थिति में होता है।🙏🔱🙏ज्ञान-अज्ञान से परे चले जाओ-दोनों काँटा फेंकना न भूलो 🔱🙏ज्ञान-अज्ञान और विज्ञान- त्रिगुणातीत हो जाओ 🔱🙏शरीर में रहते समय विद्यामाया को स्वीकार करना ही पड़ता है ।🔱🙏वासना में आसक्त बुड्ढे और वासना-दौलत से अनासक्त युवा🔱🙏 >>>Science of being 'Tripleless' (nistraigunya) :One must has to accept the Help of Vidyamaya

 परिच्छेद ~115, [ ( 23 मई , 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-115]

परिच्छेद- ११५

(१)

 [ ( 23 मई , 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-115]

*राम के मकान में*

नेतृत्व की उत्पत्ति

*Genesis of Leadership* 

🔱🙏नित्य तथा लीला =ब्रह्म और जगत =The Absolute and Manifestation  🔱🙏

Time-Space and Causation को Transcend करने हेतु साधना चाहिए ।

[लीला (B) से नित्य (A) में पहुँचने के लिए माया (C-मिथ्या अहं-मन) का अतिक्रमण कर समाधि में जाने और फिर लौट आने की साधना गुरु-शिष्य-परम्परा में =मनःसंयोग सीखना होगा।]    

श्रीरामकृष्ण राम के यहाँ आये हुए हैं । उनके नीचे के बैठकखाने में भक्तों के साथ बैठे हुए हैं । मुख पर प्रसन्नता झलक रही है । आनन्दपूर्वक भक्तों से बातचीत कर रहे हैं । आज शनिवार है, जेठ की शुक्ला दशमी, २३ मई १८८५ । शाम के पाँच बजे का समय है । श्रीरामकृष्ण के सामने महिमाचरण बैठे हैं । बायी ओर मास्टर हैं, चारों ओर पल्टू, भवनाथ, नृत्यगोपाल और हरमोहन हैं। आते ही श्रीरामकृष्ण भक्तों के बारे में पूछने लगे ।

SRI RAMAKRISHNA was sitting in the drawing-room on the ground floor of Ram's house. He was surrounded by devotees and was conversing with them. Mahima sat in front of him, M. to his left. Paltu, Bhavanath, Nityagopal, Haramohan, and a few others sat around him. It was about five o'clock in the afternoon. The Master inquired after several devotees.

ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ রামের বাটীতে আসিয়াছেন। তাহার নিচের বৈঠকখানার ঘরে ঠাকুর ভক্ত পরিবৃত হইয়া বসিয়া আছেন। সহাস্যবদন। ঠাকুর ভক্তদের সহিত আনন্দে কথা কহিতেছেন। আজ শনিবার (১১ই জ্যৈষ্ঠ, ১২৯২), জ্যৈষ্ঠ শুক্লাদশমী তিথি। ২৩শে মে, ১৮৮৫, বেলা প্রায় ৫টা। ঠাকুরের সম্মুখে শ্রীযুক্ত মহিমা বসিয়া আছেন। বামপার্শ্বে মাস্টার, চারিপার্শ্বে — পল্টু, ভবনাথ, নিত্যগোপাল, হরমোহন। শ্রীরামকৃষ্ণ আসিয়াই ভক্তগণের খবর লইতেছেন।

श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - छोटा नरेन्द्र नहीं आया ?

MASTER (to M.): "Hasn't the younger Naren arrived yet?"

শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — ছোট নরেন আসে নাই?

कुछ देर बाद छोटे नरेन्द्र आ गये ।

Presently the younger Naren entered the room.

ছোট নরেন কিয়ৎক্ষণ পরে আসিয়া উপস্থিত হইলেন।

श्रीरामकृष्ण - वह नहीं आया ?

MASTER: "What about him?"

শ্রীরামকৃষ্ণ — সে আসে নাই?

मास्टर - जी, कौन ?

M: "Who, sir?"

श्रीरामकृष्ण – किशोरी ? - गिरीश घोष नहीं आयेगा ? - और नरेन्द्र ?

MASTER: "Kishori. Isn't Girish Ghosh coming? What about Narendra?"

শ্রীরামকৃষ্ণ — কিশোরী? — গিরিশ ঘোষ আসবে না? নরেন্দ্র আসবে না?

कुछ देर बाद नरेन्द्र ने आकर प्रणाम किया ।

A few minutes later Narendra arrived and saluted Sri Ramakrishna.

নরেন্দ্র কিয়ৎ পরে আসিয়া প্রণাম করিলেন।

श्रीरामकृष्ण (भक्तों से) - केदार (चटर्जी) अगर रहता तो खूब आनन्द आता । गिरीश घोष से उसकी खूब बनती है । (महिमा से, सहास्य) वह भी वही बात दुहराता है (अर्थात् अवतार मानता है-^ केदार ने श्री रामकृष्ण को भगवान का अवतार बताया था।)

MASTER (to the devotees): "It would be fine if Kedar were here. He agrees with Girish. (To Mahima, smiling) He says the same thing."1

শ্রীরামকৃষ্ণ (ভক্তদের প্রতি) — কেদার (চাটুজ্যে) থাকলে বেশ হত! গিরিশ ঘোষের সঙ্গে খুব মিল। (মহিমার প্রতি, সহাস্যে) সেও ওই বলে (অবতার বলে)।

कमरे में कीर्तन होने का बन्दोबस्त कर रखा गया है । कीर्तनिया हाथ जोड़कर श्रीरामकृष्ण से कह रहा है, 'आप आज्ञा दें तो कीर्तन आरम्भ हो ।

'Ram had arranged the kirtan. With folded hands the musician said to Sri Ramakrishna, "Sir, I can begin if you give the order."

ঘরে কীর্তন গাহিবার আয়োজন হইয়াছে। কীর্তনিয়া বদ্ধাজলি হইয়া ঠাকুরকে বলিতেছেন, আজ্ঞা করেন তো গান আরম্ভ হয়।

श्रीरामकृष्ण ने कहा, 'थोड़ा-सा पानी पीऊँगा ।' पानी पीकर मसाले की थैली से आपने कुछ मसाला निकालकर खाया । मास्टर से थैली बन्द करने के लिए कहा ।

The Master drank some water and chewed spices from a small bag. He asked M. to close the bag.

ঠাকুর বলিতেছেন, একটু জল খাব।জলপান করিয়া মশলার বটুয়া হইতে কিছু মশলা লইলেন। মাস্টারকে বটুয়াটি বন্ধ করিতে বলিলেন।

कीर्तन हो रहा है । खोल की आवाज से श्रीरामकृष्ण को भावावेश हो रहा है । गौरचन्द्रिका सुनते सुनते वे समाधिमग्न हो गये । पास ही नृत्यगोपाल थे, उनकी गोद पर श्रीरामकृष्ण ने अपने पैर फैला दिये । नृत्यगोपाल भी भावावेश में रो रहे हैं । भक्तगण चुपचाप यह समाधि की अवस्था देख रहे हैं ।

The musician started the kirtan. As Sri Ramakrishna heard the sound of the drum he went into an ecstatic mood. While listening to the prelude of the kirtan he plunged into deep samadhi. He placed his legs on the lap of Nityagopal, who was sitting near him. The devotee, too, was in an ecstatic mood. He was weeping. The other devotees looked on intently.

কীর্তন হইতেছে। খোলের আওয়াজে ঠাকুরের ভাব হইতেছে। গৌরচন্দ্রিকা শুনিতে শুনিতে একেবারে সমাধিস্থ। কাছে নিত্যগোপাল ছিলেন, তাঁহার কোলে পা ছড়াইয়া দিলেন। নিত্যগোপালও ভাবে কাঁদিতেছেন। ভক্তেরা সকলে অবাক্‌ হইয়া সেই সমাধি-অবস্থা একদৃষ্টে দেখিতেছেন।

 [ ( 23 मई , 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-115]

🔱🙏 ब्रह्म और जगत 🔱🙏

 आत्मा और ब्रह्माण्ड 

[Yoga, Subjective (साक्षी=द्रष्टा) and Objective (दृश्य)

Identity of God (the Absolute) the soul and the Cosmos (জগৎ) ]

🔱🙏Nitya belongs to Him to whom the Lila belongs.🔱🙏

कुछ प्रकृतिस्थ होकर श्रीरामकृष्ण वार्तालाप करने लगे । श्रीरामकृष्ण - नित्य से लीला और लीला से नित्य, - (नृत्य गोपाल से) तेरा क्या भाव है ?

Regaining partial consciousness, Sri Ramakrishna said: "From the Nitya (ब्रह्म-आत्मा) to the Lila (जगत-देह) and from the Lila to the Nitya. (To Nityagopal) What is your ideal?"

ঠাকুর একটু প্রকৃতিস্থ হইয়া কথা কহিতেছেন — “নিত্য থেকে লীলা, লীলা থেকে নিত্য। (নিত্যগোপালের প্রতি) তোর কি?

नृत्यगोपाल - दोनों अच्छे हैं ।

NITYAGOPAL: "Both are good."

নিত্য (বিনীত ভাবে) — দুইই ভালো।

श्रीरामकृष्ण आँखे बन्द करके कह रहे हैं, "क्या केवल इस तरह ही रहना है ? क्या आँखें बन्द कर लेने पर वे हैं और आँखें खोलने पर वे नहीं हैं ? जिनकी नित्यता है, लीला भी उन्हीं की है; जिनकी लीला है, उन्हीं की नित्यता है । (महिमा से) "अजी, तुम्हें एक बात बतलानी है -"

Sri Ramakrishna closed his eyes and said: "Is it only this? Does God exist only when the eyes are closed; and cease to exist when the eyes are opened? The Lila belongs to Him to whom the Nitya belongs, and the Nitya belongs to Him to whom the Lila belongs. (To Mahima) My dear sir, let me tell you —"

শ্রীরামকৃষ্ণ চোখ বুজিয়া বলিতেছেন, — কেবল এমনটা কি? চোখ বুজলেই তিনি আছেন, আর চোখ চাইলেই নাই! যাঁরই নিত্য, তাঁরই লীলা; যাঁরই লীলা তাঁরই নিত্য।শ্রীরামকৃষ্ণ (মহিমার প্রতি) — তোমায় বাপু একবার বলি —

महिमाचरण - जी, दोनों ईश्वर की इच्छाएँ हैं ।

MAHIMA: "Revered sir, both are according to the will of God."

মহিমাচরণ — আজ্ঞা, দুইই ঈশ্বরের ইচ্ছা।

 [ ( 23 मई , 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-115]

🔱ईश्वरकोटि और जीवकोटि🔱 

श्रीरामकृष्ण - कोई ऊपर चढ़कर फिर उतर नहीं सकता, और कोई (जन्मजात नेता) ऊपर चढ़कर नीचे उतरकर घूम-फिर सकता है ।

MASTER: "Some people climb the (Transcend) seven floors of a building [Time, Space and Causation] and cannot get down; but some climb up and then, at will, visit the lower floors.

শ্রীরামকৃষ্ণ — কেউ সাততলার উপরে উঠে আর নামতে পারে না, আবার কেউ উঠে নিচে আনাগোনা করতে পারে।

"उद्धव ने गोपियों से कहा था, तुम जिन्हें अपना कृष्ण बना रही हो वे सर्वभूतों में हैं, वे ही जीव-जगत् हुए हैं ।

["Uddhava said to the gopis: 'He whom you address as your Krishna dwells in all beings. It is He alone who has become the universe and its living beings.'

“উদ্ধব গোপীদের বলেছিলেন, তোমরা যাকে কৃষ্ণ বলছ, তিনি সর্বভূতে আছেন, তিনিই জীবজগৎ হয়ে রয়েছেন।

“इसीलिए कहता हूँ, क्या आँखें बन्द करने से ही ध्यान होता है और आँखे खोलने से कुछ नहीं ?"

"Therefore I say, does a man meditate on God only when his eyes are closed? Doesn't he see anything of God when his eyes are open?"

“তাই বলি চোখ বুজলেই ধ্যান, চোখ খুললে আর কিছু নাই?”

[>>>>रटन्ती -पथिक -प्रेमिक संवाद शंकराचार्य यह भी कहते हैं कि शक्ति के पलक बन्द करते ही समस्त ब्रह्माण्ड प्रलय से नष्ट हो जाता है तथा उनके पलक खोलते ही ब्रह्माण्ड पुनः अस्तित्व में आ जाता है-‘‘निमेषोन्मेषाभ्यां प्रलयमुदयं याति जगती’’] 


 [ ( 23 मई , 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-115]

*समाधि और निर्वाण में अन्तर* 

🔱🙏 प्रसंग तोतापुरी  का रोना - क्या निर्वाण जीवन का अंत है?🔱🙏

*The scene is Totapuri's cry*

[পূর্বকথা — তোতার ক্রন্দন — Is Nirvana the End of Life?]

महिमा - एक प्रश्न है । जो भक्त हैं, क्या उनके लिये भी किसी समय निर्वाण की आवश्यकता नहीं होती है ?

[>>>महिमा -" एकटा जिज्ञासा आछे ; भक्ते'र उ तो एक काले निर्वाण चाई कि ना? 

^ ^*निर्वाण, या अहंकार (Individual Ego) का सम्पूर्ण विनाश, अद्वैतवादियों, ज्ञानियों का आदर्श है। ^Nirvana, or total annihilation of the ego, is the ideal of the jnanis, the non-dualists.^নির্বাণ, বা অহংকারের সম্পূর্ণ বিনাশ, জ্ঞানীদের, অদ্বৈতবাদীদের আদর্শ।]

MAHIMA: "I have a question to ask, sir. A lover of God needs Nirvana2 some time or other, doesn't he?"

মহিমা — একটা জিজ্ঞাস্য আছে। ভক্ত — এর এককালে তো নির্বাণ চাই?

[ ( 23 मई , 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-115 ]

🔱🙏प्रेममय नेता नवनीदा भी नित्य हैं और उनका भक्त भी नित्य है🔱🙏

[Loving Leader Navni da is eternal and his devotee is also eternal]

[প্রেমময় নেতা নবনী দা চিরন্তন এবং তাঁর ভক্তও চিরন্তন] 

" India will be raised, not with the power of the flesh, 

but with the power of the spirit." 

- (Reply to the Madras address)

श्रीरामकृष्ण - निर्वाण चाहिए ही, ऐसी कोई बात नहीं । इस तरह भी है कि कृष्ण भी नित्य हैं और भक्त भी नित्य हैं - चिन्मय श्याम, चिन्मय धाम ।

MASTER: "It can't be said that bhaktas need Nirvana. According to some schools there is an eternal Krishna and there are also His eternal devotees. Krishna is Spirit embodied, and His Abode also is Spirit embodied. Krishna is eternal and the devotees also are eternal.

শ্রীরামকৃষ্ণ — নির্বাণ যে চাই এমন কিছু না। এইরকম আছে যে, নিত্যকৃষ্ণ তাঁর নিত্যভক্ত! চিন্ময় শ্যাম, চিন্ময় ধাম!

"जैसे जहाँ चन्द्र है, वहीं तारे भी हैं । कृष्ण भी नित्य हैं और भक्त भी नित्य हैं ।

Krishna and the devotees are like the moon and the stars — always near each other.

“যেমন চন্দ্র যেখানে, তারাগণও সেখানে। নিত্যকৃষ্ণ, নিত্যভক্ত! 

तुम्हीं तो कहते हो - 'अन्तर्बहिर्यदि हरिस्तपसा ततः किम्' - और तुमसे तो मैंने कहा है कि जिस भक्त में विष्णु का अंश रहता है उसमें भक्ति का बीज नष्ट नहीं होता । मैं एक ज्ञानी (न्यांगटा) के पंजे में फंस गया, उसने ग्यारह महीने तक वेदान्त सुनाया । परन्तु वह मुझमें भक्ति का बीज बिलकुल नष्ट नहीं कर सका !

 You yourself repeat: 'What need is there of penance if God is seen within and without?' Further, I have told you that the devotee who is born with an element of Vishnu cannot altogether get rid of bhakti. Once I fell into the clutches of a jnani,3 who made me listen to Vedanta for eleven months. But he couldn't altogether destroy the seed of bhakti in me. 

 তুমিই তো বল গো, অন্তর্বহির্যদিহরিস্তপসা ততঃ কিম্‌১ — আর তোমায় তো বলেছি যে বিষ্ণু অংশে ভক্তির বীজ যায় না। আমি এক জ্ঞানীর পাল্লায় পড়েছিলুম, এগার মাস বেদান্ত শুনালে। কিন্তু ভক্তীর বীজ আর যায় না।

घूम-फिरकर वही 'माँ माँ' ! जब मैं गाता था तब (न्यांगटा) रोने लगता था । कहता था - 'अरे, यह तूने क्या सुनाया !' देखो, इतना बड़ा ज्ञानी भी रोने लगता था । (छोटे नरेन्द्र आदि से) इतना समझ रखना, अलख लता का रस जब पेट में जाता है तो पेड़ होता ही है । भक्ति का बीज अगर पड़ गया, तो उससे क्रमश: पेड़ और फूल-फल होते ही हैं ।

No matter where my mind wandered, it would come back to the Divine Mother. Whenever I sang of Her, Nangta would weep and say, 'Ah! What is this?' You see, he was such a great jnani and still he wept. (To the younger Naren and the others) Remember the popular saying that if a man drinks the juice of the alekh creeper, a plant grows inside his stomach. Once the seed of bhakti is sown, the effect is inevitable: it will gradually grow into a tree with flowers and fruits.

ফিরে ঘুরে সেই ‘মা মা’! যখন গান করতুম ন্যাংটা কাঁদত — বলত, ‘আরে কেয়া রে!’ দেখ, অত বড় জ্ঞানী কেঁদে ফেলত! (ছোট নরেন ইত্যাদির প্রতি) এইটে জেনে রেখো — আলেখ লতার জল পেটে গেলে গাছ হয়। ভক্তির বীজ একবার পড়লে অব্যর্থ হয়, ক্রমে গাছ, ফল, ফুল, দেখা দিবে।

"‘मूषलं कुलनाशनम् ।' मूषल घिसकर जरा-सा रह गया था । उस थोड़े से अंश से यदुवंश का ध्वंस हो गया । चाहे लाख ज्ञान और विचार करो, भक्ति का बीज अगर भीतर रहा, घूम-फिरकर वही 'भज राम भज सीताराम ।'"

"You may reason and argue a thousand times, but if you have the seed of bhakti within you, you will surely come back to Hari."

“মুষলং কুলনাশনম্‌’। মুষল যত ঘষেছিল, ক্ষয় হয়ে হয়ে একটু সামান্য ছিল। সেই সামান্যতেই যদুবংশ ধ্বংস হয়েছিল। হাজার জ্ঞান বিচার কর, ভিতরে ভক্তির বীজ থাকলে, আবার ফিরে ঘুরে — হরি হরি হরিবোল।”

 [( 23 मई , 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-115]

🔱🙏ब्रह्म और जगत के विषय में श्री रामकृष्ण की सम्यक दृष्टि 🙏

भक्तगण चुपचाप सुन रहे हैं । श्रीरामकृष्ण हँसते हुए महिमाचरण से कह रहे हैं - तुमको क्या अच्छा लगता है ?

The devotees listened silently to the Master. Sri Ramakrishna asked Mahima, laughing, "What is the thing you enjoy most?"

ভক্তেরা চুপ করিয়া শুনিতেছেন। ঠাকুর হাসিতে হাসিতে মহিমাচরণকে বলিতেছেন, — আপনার কি ভাল লাগে?

महिमाचरण (हँसकर) - कुछ भी नहीं, 'आम' अच्छा लगता है ।

MAHIMA (smiling): "Nothing, sir. I like mangoes."

মহিমা (সহাস্যে) — কিছুই না, আম ভাল লাগে।

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - अकेले अकेले ? न, आप भी खाओ और दूसरों को भी कुछ दो ?

MASTER (smiling): "All by yourself? Or do you want to share them with others?"

শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — কি একলা একলা? না, আপনিও খাবে সব্বাইকেও একটু একটু দেবে?

महिमा (सहास्य) - देने की विशेष इच्छा तो नहीं है, अकेले खाया तो बुरा क्या है !

MAHIMA (smiling): "I am not so anxious to give others a share. I may as well eat them all by myself."

মহিমা (সহাস্য) — এতো দেবার ইচ্ছা নাই, একলা হলেও হয়।

श्रीरामकृष्ण - परन्तु मेरा भाव क्या है, जानते हो ? - क्या आँख खोलने ही से वे गायब हो जाते हैं? मैं 'नित्य' और 'लीला' दोनों को लेता हूँ । उन्हें प्राप्त करने पर यह समझ में आ जाता है कि वे ही स्वराट् हैं और वे ही विराट् हैं । वे ही अखण्ड सच्चिदानन्द हैं और वे ही जीव-जगत् हुए हैं

MASTER: "But do you know my attitude? I accept both, the Nitya and the Lila. Doesn't God exist if one looks around with eyes open? After realizing Him, one knows that He is both the Absolute and the universe. It is He who is the Indivisible Satchidananda. Again, it is He who has become the universe and its living beings.

শ্রীরামকৃষ্ণ — কিন্তু আমার ভাব কি জানো? চোখ চাইলেই কি তিনি আর নাই? আমি নিত্য লীলা দুইই লই।“তাঁকে লাভ করলে জানতে পারা যায়; তিনিই স্বরাট, তিনিই বিরাট। তিনিই অখণ্ড-সচ্চিদানন্দ, তিনিই আবার জীবজগৎ হয়েছেন।”

[ ( 23 मई , 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-115 ]

🔱🙏केवल शास्त्र ज्ञान व्यर्थ है - साधना से प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त होता है🔱🙏

[শুধু শাস্ত্রজ্ঞান মিথ্যা — সাধনা করিলে প্রত্যক্ষ জ্ঞান হয় ]

"साधना चाहिए । केवल शास्त्र रटने से नहीं होता । मैंने विद्यासागर को देखा, वह पढ़ा-लिखा खूब है, परन्तु अपने भीतर में क्या है उसने नहीं देखा । बच्चों को पढ़ा लिखाकर ही उसे आनन्द मिलता है । ईश्वर के आनन्द का स्वाद उसने नहीं पाया, केवल पढ़ने से क्या होगा ? धारणा कहाँ ? पंचांग में लिखा है वर्षा पूरी होगी, परन्तु पंचांग दबाओ तो कहीं बूँद भर भी पानी नहीं निकलता!"

"One needs sadhana. Mere study of the scriptures will not do. I noticed that though Vidyasagar had no doubt read a great deal, he had not realized what was inside him; he was satisfied with helping boys get their education, but had not tasted the Bliss of God. What will mere study accomplish? How little one assimilates! The almanac may forecast twenty measures of rain; but you don't get a drop by squeezing its pages."

“সাধনা চাই — শুধু শাস্ত্র পড়লে হয় না। দেখলাম বিদ্যাসাগরকে — অনেক পড়া আছে, কিন্তু অন্তরে কি আছে দেখে নাই। ছেলেদের পড়া শিখিয়ে আনন্দ। ভগবানের আনন্দের আস্বাদ পায় নাই। শুধু পড়লে কি হবে? ধারণা কই? পাঁজিতে লিখেছে, বিশ আড়া জল, কিন্তু পাঁজি টিপলে এক ফোঁটাও পড়ে না!”

महिमा - संसार में कितने ही काम हैं, अवसर कहाँ मिलता है ?

MAHIMA: "We have so many duties in the world. Where is the time for sadhana?"

মহিমা — সংসারে অনেক কাজ, সাধনার অবসর কই?

श्रीरामकृष्ण – क्यों ? तुम तो सब स्वप्नवत् बतलाते हो ।

MASTER: Why should you say such a thing? It is you who describe the world as illusory, like a dream.

শ্রীরামকৃষ্ণ — কেন তুমি তো বল সব স্বপ্নবৎ?

"सामने सागर देखकर लक्ष्मण ने धनुष लेकर कहा था, 'मैं वरुण का वध करूँगा । यही समुद्र हमें लंका नहीं जाने दे रहा है ।’ राम ने समझाया, 'लक्ष्मण, यह जो सब देख रहे हो, यह स्वप्नवत् अनित्य है न ? - अतएव समुद्र भी अनित्य है और तुम्हारा क्रोध भी अनित्य है । मिथ्या को मिथ्या के द्वारा मारना भी मिथ्या है ।’"

"Rama and Lakshmana wanted to go to Ceylon. But the ocean was before them. Lakshmana was angry. Taking his bow and arrow, he said: 'I shall kill Varuna. This ocean prevents our going to Ceylon.' Rama explained the matter to him, saying: 'Lakshmana, all that you are seeing is unreal, like a dream. The ocean is unreal. Your anger is also unreal. It is equally unreal to think of destroying one unreal thing by means of another.'"

“সম্মুখে সমুদ্র দেখে লক্ষ্মণ ধনুর্বাণ হাতে করে ক্রুদ্ধ হয়ে বলেছিলেন, আমি বরুণকে বধ করব, এই সমুদ্র আমাদের লঙ্কায় যেতে দিচ্ছে না; রাম বুঝালেন, লক্ষ্মণ, এ যা-কিছু দেখছো এসব তো স্বপ্নবৎ, অনিত্য — সমুদ্রও অনিত্য — তোমার রাগও অনিত্য। মিথ্যাকে মিথ্যা দ্বারা বধ করা সেটাও মিথ্যা।”

महिमाचरण चुप हो रहे । महिमाचरण को बहुत से पारिवारिक काम करने पड़ते हैं और उन्होंने परोपकार के लिए एक नया स्कूल खोला है ।

Mahimacharan kept quiet. He had many duties in the world. He had lately started a school to help others.

মহিমাচরণ চুপ করিয়া রহিলেন। মহিমাচরণের সংসারে অনেক কাজ। আর তিনি একটি নূতন স্কুল করিয়াছেন, — পরোপকারের জন্য।

, [ ( 23 मई , 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-115 ]

🔱🙏कर्म योग या भक्ति योग - सतगुरु कौन है?🔱🙏

[কর্মযোগ না ভক্তিযোগ — সৎগুরু কে? ]

श्रीरामकृष्ण (महिमा से) - शम्भु ने कहा, 'मेरी इच्छा है, ये रुपये सत्कार्य में लगाऊँ - स्कूल, दवाखाना खोल दूँ, रास्ताघाट तैयार करा दूँ ।'मैंने कहा, 'निष्काम भाव से कर सको तो अच्छा है, परन्तु निष्काम कर्म करना बड़ा कठिन है, न जाने किस तरफ से कामना निकल पड़ती है । तुमसे एक बात और पूछता हूँ, अगर ईश्वर तुम्हें मिल जायँ तो क्या तुम उनसे कुछ स्कूल, अस्पताल, दवाखाने ये सब माँगने लगोगे ?’

MASTER (to Mahima): "Sambhu once said to me: 'I have some money. It is my desire to spend it for good works — for schools and dispensaries, roads, and so forth.' I said to him: 'It will be good if you can do these works in a selfless spirit. But it is extremely difficult to perform unselfish action. Desire for fruit comes from nobody knows where. Let me ask you something. Suppose God appears before you; will you pray to Him, then, for such things as schools and dispensaries and hospitals?'"

শ্রীরামকৃষ্ণ (মহিমার প্রতি) — শম্ভু বললে — আমার ইচ্ছা যে এই টাকাগুলো সৎকর্মে ব্যয় করি, স্কুল ডিস্পেনসারি করে দি, রাস্তাঘাট করে দি। আমি বললাম, নিষ্কামভাবে করতে পার সে ভাল, কিন্তু নিষ্কামকর্ম করা বড় কঠিন, — কোন্‌ দিক দিয়া কামনা এসে পড়ে! আর একটা কথা তোমায় জিজ্ঞাসা করি, যদি ঈশ্বর সাক্ষাৎকার হন, তাহলে তাঁর কাছে তুমি কি কতকগুলি স্কুল, ডিস্পেনসারি, হাসপাতাল এই সব চাইবে?

एक भक्त - महाराज, संसारियों के लिए क्या उपाय है ?

A DEVOTEE: "Sir, what is the way for worldly people?"

একজন ভক্ত — মহাশয়! সংসারীদের উপায় কি?

श्रीरामकृष्ण - साधु-संग - ईश्वर की बातें सुनना ।"संसारी मतवाले हो रहे हैं, कामिनी और कांचन में मत्त हैं । मतवाले को भात का पानी थोड़ा-थोड़ा सा पिलाते रहने पर वह अच्छा हो जाता है - उसे होश आ जाता है ।

MASTER: "The company of holy men. Worldly people should listen to spiritual talk. They are in a state of madness, intoxicated with 'woman and gold'. A drunkard should be given rice-water as an antidote. Drinking it slowly, he gradually recovers his normal consciousness.

শ্রীরামকৃষ্ণ — সাধুসঙ্গ; ঈশ্বরীয় কথা শোনা।“সংসারীরা মাতাল হয়ে আছে, কামিনী-কাঞ্চনে মত্ত। মাতালকে চালিনির জল একটু একটু খাওয়াতে খাওয়াতে ক্রমে ক্রমে হুঁশ হয়।

"और सद्गुरु के पास उपदेश लेना चाहिए । सद्गुरु के लक्षण हैं । जो वाराणसी गया हो और वाराणसी जिसने देखी हो, उसी से वाराणसी की बातें सुननी चाहिए । केवल पण्डित होने से नहीं होता । जिसे यह बोध नहीं हुआ कि संसार अनित्य है, उससे उपदेश न लेना चाहिए । पण्डित में विवेक और वैराग्य के रहने पर ही वह उपदेश दे सकता है

"A worldly person should also receive instructions from a sadguru, a real teacher. Such a teacher has certain signs. You should hear about Benares only from a man who has been to Benares and seen it. Mere book-learning will not do. One should not receive instruction from a pundit who has not realized the world to be unreal. Only if a pundit has discrimination and renunciation is he entitled to instruct.

“আর সৎগুরুর কাছে উপদেশ লতে হয়। সৎগুরুর লক্ষণ আছে। যে কাশী গিয়েছে আর দেখেছে, তার কাছেই কাশীর কথা শুনতে হয়। শুধু পণ্ডিত হলে হয় না। যার সংসার অনিত্য বলে বোধ নাই, সে পণ্ডিতের কাছে উপদেশ লওয়া উচিত নয়। পণ্ডিতের বিবেক-বৈরাগ্য থাকলে তবে উপদেশ দিতে পারে।

 [ ( 23 मई , 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-115 ]

🔱🙏क्या ईश्वर ( the embodiment of sweetness!) नीरस हैं ?🔱🙏 

"सामाध्यायी ने कहा था, ईश्वर नीरस है । जो रसस्वरूप हैं, उन्हें बतलाता था नीरस ! जैसे किसी ने कहा था - मेरे मामा के यहाँ गोशाले में बहुत घोड़े हैं । (सब हँसते हैं)

[समाध्यायी  (ब्रह्मव्रत समाध्यायी) - एक  तर्कशास्त्री । श्रीरामकृष्ण के साथ उनकी पहली मुलाकात उत्तरपाड़ा  के पास भद्रकाली में एक कीर्तन सभा में हुई थी। इसके अलावा उन्होंने कमल कुटीर में भी श्रीश्रीठाकुर के दर्शन  किए थे । उसके विषय में ठाकुर ने कहा था - ' तर्कशास्त्री समाध्यायी पण्डित तो हैं किन्तु इन्हें ईश्वरलाभ नहीं हुआ है। ' उनके एक भाषण को सुनके ठाकुर ने टिप्पणी की थी। ]   

"Samadhyayi remarked that God was dry. Think of his speaking like that of Him who is the embodiment of sweetness! It sounds like the remark, 'My uncle's cow-shed is full of horses.' (All laugh.)

“সামাধ্যয়ী বলেছিল, ঈশ্বর নীরস। যিনি রসস্বরূপ, তাঁকে নীরস বলেছিল! যেমন একজন বলেছিল, আমার মামার বাটীতে একগোয়াল ঘোড়া আছে!” (সকলের হাস্য)

 [ ( 23 मई , 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-115 ]

🔱"मैं और मेरा" ही अज्ञान है जो हमारे स्वरुप को ढँक देता है।🔱   

🙏सांसारिक व्यक्ति नशे की स्थिति में होता है।🙏

worldly person is in a state of intoxication.

[সংসারীরা মাতাল হয়ে আছে। ]

"संसारी व्यक्ति नशे की स्थिति में होता है। वे सदा सोचते हैं, मैं ही यह सब कर रहा हूँ, और घर द्वार यह सब मेरा है । दाँत निकालकर कहता है - इनके (स्त्री आदि के) लिए फिर क्या होगा ? मैं न रहूँगा तो इनके दिन कैसे कटेंगे ! मेरी स्त्री को और मेरे परिवार को कौन सम्हालेगा ?’ राखाल ने कहा, 'मेरी स्त्री की फिर क्या दशा होगी ?’ ”

"Yes, a worldly person is in a state of intoxication. He always says to himself: 'It is I who am doing everything. All these — the house and family — are mine.' Baring his teeth, he says: 'What will happen to my wife and children without me? How will they get along? Who will look after my wife and children?' Rakhal said one day, 'What will happen to my wife?'"

“সংসারীরা মাতাল হয়ে আছে। সর্বদাই মনে করে, আমিই এই সব করছি। আর গৃহ, পরিবার এ-সব আমার দাঁত ছরকুটে বলে। ‘এদের (মাগছেলেদের) কি হবে! আমি না থাকলে এদের কি করে চলবে? আমার স্ত্রী, পরিবার কে দেখবে?’ রাখাল বললে, আমার স্ত্রীর কি হবে!”

हरमोहन - राखाल ने ऐसी बात कही ?

HARAMOHAN: "Did Rakhal say that?"

হরমোহন — রাখাল এই কথা বললে?

[हरमोहन मित्र - नरेंद्रनाथ के सहपाठी और मित्र थे । श्री रामकृष्ण के एक गृहस्थ भक्त जिन्होंने उनकी विशेष कृपा प्राप्त की थी । कलकत्ता के दर्जी पाड़ा मुहल्ले के नयन चंद मित्रा स्ट्रीट में निवास था। हरमोहन की माँ ने कई बार श्री रामकृष्ण देव का दर्शन किया था। अपनी माँ के कहने पर ही हरमोहन दक्षिणेश्वर पहुँचकर ठाकुर की विशेष कृपा प्राप्त की थी। कल्पतरु उत्स्व के दिन वे काशीपुर में उपस्थित थे , ठाकुर देव ने उन्हें स्पर्श किया था तो उनके भीतर एक दिव्य अनुभूति उत्पन्न हुई (वे समाधि में चले गए)। श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा का प्रचार-प्रसार के लिए हमरमोहन अपने खर्चे पर छपी हुई पुस्तकें निःशुल्क वितरण किया  करते थे । श्री रामकृष्ण की समाधिस्थ चित्र की पूजा को घर-घर तक फैलाने के लिए वे विशेष रूप से उत्साहित थे।  मैक्स मुलर द्वारा लिखित श्री रामकृष्ण की जीवनी को भारत में प्रकाशित करने वाले वे पहले व्यक्ति थे।] 

 [ ( 23 मई , 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-115 ]

🔱🙏ज्ञान-अज्ञान से परे चले जाओ-दोनों काँटा फेंकना न भूलो 🔱🙏

[Go beyond both Knowledge and Ignorance.] 

श्रीरामकृष्ण - इस तरह नहीं कहेगा तो क्या करेगा ? जिसे ज्ञान है, उसे अज्ञान भी है । लक्ष्मण ने राम से कहा, 'भाई ! बड़े आश्चर्य की बात है, साक्षात् वशिष्ठदेव भी पुत्रों के शोक से विकल हो रहे हैं !'राम ने कहा, 'भाई, जिसे ज्ञान है, उसे अज्ञान भी है । भाई ! ज्ञान और अज्ञान के पार हो जाओ ।'

MASTER: "What else could he do? He who has knowledge has ignorance also. 'How amazing!' Lakshmana said to Rama. 'Even a sage like Vasishtha is stricken with grief because of the death of his sons!' 'Brother,' replied Rama, 'he who has knowledge has ignorance also. Therefore go beyond both knowledge and ignorance.'

শ্রীরামকৃষ্ণ — তা বলবে না তো কি করবে? যার আছে জ্ঞান তার আছে অজ্ঞান। লক্ষ্মণ রামকে বললেন, রাম একি আশ্চর্য? সাক্ষাৎ বশিষ্ঠদেব — তাঁর পুত্রশোক হল? রাম বললেন, ভাই, যার আছে জ্ঞান, তার আছে অজ্ঞান। ভাই! জ্ঞান-অজ্ঞানের পারে যাও।

"जैसे किसी के पैर में एक काँटा लगा है । वह उस काँटे को निकालने के लिए एक और काँटा ले आता है । फिर उस काँटे से काँटा निकालकर दोनों काँटे फेंक देता है । 

"Suppose a thorn has pierced a man's foot. He picks another thorn to pull out the first one. After extracting the first thorn with the help of the second, he throws both away. 

“যেমন কারু পায়ে একটি কাঁটা ফুটেছে, সে ওই কাঁটাটি তোলবার জন্য আর একটি কাঁটা যোগাড় করে আনে। তারপর কাঁটা দিয়া কাঁটাটি তুলবার পর, দুটি কাঁটাই ফেলে দেয়!

अज्ञान-काँटे को निकालने के लिए ज्ञान-काँटे की जरूरत होती है ।

One should use the thorn of knowledge to pull out the thorn of ignorance. 

 অজ্ঞান-কাঁটা তুলবার জন্য জ্ঞান-কাঁটা আহরণ করতে হয়।

[( 23 मई , 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-115]

🔱🙏ज्ञान-अज्ञान और विज्ञान- त्रिगुणातीत हो जाओ 🔱🙏

[Body -Mind is alloy made of copper, zinc and tin ] 

[অজ্ঞান — আমি ও আমার — জ্ঞান ও বিজ্ঞান] 

फिर ज्ञान और अज्ञान दोनों काँटों को फेक देने पर जो कुछ रह जाता है वह विज्ञान है । ईश्वर है, इसका आभासमात्र लेकर उन्हें अच्छी तरह जानना पड़ता है, और उनसे खास तौर से बातचीत की जाती है, यह विज्ञान है । इसीलिए श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा है, "भाई, तीनों गुणों से पार हो जाओ।

What is vijnana? It is to know God distinctly by realizing His existence through an intuitive experience and to speak to Him intimately. That is why Sri Krishna said to Arjuna, 'Go beyond the three gunas.'

 তারপর জ্ঞান-অজ্ঞান দুই কাঁটা ফেলে দিলে হয় বিজ্ঞান। ঈশ্বর আছেন এইটি বোধে বোধ করে তাঁকে বিশেষরূপে জানতে হয়, তাঁর সঙ্গে বিশেষরূপে আলাপ করতে হয়, — এরই নাম বিজ্ঞান। তাই ঠাকুর (শ্রীকৃষ্ণ) অর্জুনকে বলেছিলেন — তুমি ত্রিগুণাতীত হও।

[तांबा जस्ता और टिन से निर्मित किसी मिश्र धातु का सिक्का बना हो और यदि उसमें से इन तीनों धातुओं को विलग करने के लिये कहा जाय तो उसका अर्थ उस सिक्के को ही नष्ट करना होगा। सृष्टि से पहले साम्य की अवस्था थी। सृष्टि के समय विभिन्न अनुपातों में सत्त्व रज और तम इन तीन गुणों के संयोग से प्राणियों का निर्माण होता है। उपनिषद् साधक को मन (अहं)  के परे जाने का उपदेश देते हैं जिससे साधक को अपने आत्मस्वरूप से ईश्वर (समाधि या साम्य की अवस्था में अद्वैत) का परिचय होगा। उपनिषदों के इस स्पष्ट उपदेश को सही ढंग से  नहीं समझ पाने के कारण अनेक हिन्दू लोग अपने धर्म से अलग (बौद्ध-ईसाई -मुसलमान) हो गये थे। और इसलिये गीता (BG-2.45) में पुनर्जागरण का आवाहन किया गया। औपनिषदिक अर्थ को ही यहां दूसरे शब्दों में कहा अर्जुन तुम त्रिगुणातीत बनो। हमारा अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार ) इन तीन गुणों का ही कार्य है। तीन गुणों के परे जाने का अर्थ है मन (अहं)  के परे जाना। शरीर में रहते हुए भी अहं से परे रहने के विज्ञान को (त्रिगुणातीत अवस्था या साम्य की अवस्था में रहने के विज्ञान) को प्राप्त करने के लिए विद्यामाया की सहायता को स्वीकार करना ही पड़ता है ।

[ ( 23 मई , 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-115 ]

शरीर में रहते समय विद्यामाया को स्वीकार करना ही पड़ता है ।

🔱🙏अविद्या, विद्या (विवेक-प्रयोग) और महाविद्या🔱🙏  

"इस विज्ञान को प्राप्त करने के लिए विद्यामाया को स्वीकार करना पड़ता है । ईश्वर सत्य हैं, संसार अनित्य है, यह विचार है, अर्थात् विवेक-प्रयोग और वैराग्य है । और उनके नामों और गुणों का (अवतार वरिष्ठ के नाम-रूप -लीला-धाम का) कीर्तन, ध्यान, साधुसंग, प्रार्थना ये सब विद्यामाया के अन्दर हैं । विद्यामाया जैसे छत की ऊपरवाली कुछ सीढ़ियाँ हैं, और एक सीढ़ी उठने ही से छत है । (छत में उठने का अर्थ है ईश्वरलाभ)

"In order to attain vijnana one has to accept the help of vidyamaya. Vidyamaya includes discrimination — that is to say, God is real and the world illusory — and dispassion, and also chanting God's name and glories, meditation, the company of holy persons, prayer, and so forth. Vidyamaya may be likened to the last few steps before the roof. Next is the roof, the realization of God.

“এই বিজ্ঞান লাভ করবার জন্য বিদ্যামায়া আশ্রয় করতে হয়। ঈশ্বর সত্য, জগৎ অনিত্য, এই বিচার, — অর্থাৎ বিবেক-বৈরাগ্য। আবার তাঁর নামগুণকীর্তন, ধ্যান, সাধুসঙ্গ, প্রার্থনা — এ-সব বিদ্যামায়ার ভিতর। বিদ্যামায়া যেন ছাদে উঠবার শেষ কয় পইঠা, আর-একধাপ উঠলেই ছাদ। ছাদে উঠা অর্থাৎ ঈশ্বরলাভ।”

[(23 मई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-115 ]

🔱🙏वासना में आसक्त बुड्ढे और वासना-दौलत से अनासक्त युवा🔱🙏 

[সংসারী লোক ও কামিনী-কাঞ্চনত্যাগী ছোকরা ]

Men Crazy behind 'woman and gold' are insensitive to spiritual ideas.

"विषयी लोग मतवाले हो रहे हैं । कामिनी और कांचन में मत्त है, होश नहीं । इसीलिए तो इन लड़कों को मैं प्यार करता हूँ । उनमें कामिनी-कांचन का प्रवेश अभी नहीं हुआ । आधार अच्छा है, ईश्वर के पास पहुँच सकते हैं । संसारियों में काँटे चुनते ही चुनते सब साफ हो जाता है - मछली नहीं मिलती ।

"Worldly people are in a state of chronic intoxication — mad with 'woman and gold'; they are insensible to spiritual ideas. That is why I love the youngsters not yet stained by 'woman and gold'. They are 'good receptacles' and may become useful in God's work. But as for worldly people, you lose almost everything while trying to eliminate the worthless stuff in them. They are like bony fish — almost all bones and very little meat.

“বিষয়ীরা মাতাল হয়ে আছে, — কামিনী-কাঞ্চনে মত্ত, হুঁশ নাই, — তাইতো ছোকরাদের ভালবাসি। তাদের ভিতর কামিনী-কাঞ্চন এখনও ঢোকে নাই। আধার ভাল, ঈশ্বরের কাজে আসতে পারে। “ সংসারীদের ভিতর কাঁটা বাছতে বাছতে সব যায়, — মাছ পাওয়া যায় না! “যেমন শিলে খেকো আম — গঙ্গাজল দিয়ে লতে হয়। ঠাকুর সেবায় প্রায় দেওয়া হয় না; ব্রহ্মজ্ঞান করে তবে কাটতে হয়, — অর্থাৎ তিনি সব হয়েছেন এইরূপ মনকে বুঝিয়ে।”

"संसारी लोग ओले की चोट खाये हुए आम के सदृश होते हैं । यदि तुम उन आमों को ईश्वर को अर्पण करना चाहते हो तो उन्हें गंगाजल से धोकर शुद्ध कर लेना पड़ता है । परन्तु फिर भी ऐसे फल बहुत कम पूजा में चढ़ाये जाते हैं । परन्तु उन्हें यदि चढ़ाना ही पड़े तो ब्रह्मज्ञान के सहित, अर्थात् तुम्हें यह समझ लेना पड़ता है कि सब कुछ ईश्वर ही हुए हैं ।"

"Worldly people are like mangoes struck by hail. If you want to offer them to God you have to purify them by sprinkling them with Ganges water. Even then they are seldom used in the temple worship. If you are to use them at all, you have to apply Brahmajnana, that is to say, you have to persuade yourself that it is God alone who has become [Bi-Sdd-SS- Ap)- everything."

“সংসারীদের ভিতর কাঁটা বাছতে বাছতে সব যায়, — মাছ পাওয়া যায় না! “যেমন শিলে খেকো আম — গঙ্গাজল দিয়ে লতে হয়। ঠাকুর সেবায় প্রায় দেওয়া হয় না; ব্রহ্মজ্ঞান করে তবে কাটতে হয়, — অর্থাৎ তিনি সব হয়েছেন এইরূপ মনকে বুঝিয়ে।”

श्री अश्विनीकुमार दत्त तथा श्री बिहारी भादुड़ी के पुत्र के साथ एक थियोसोफिस्ट आये हुए हैं। मुखर्जियों ने आकर श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया। आंगन में संकीर्तन का आयोजन हो रहा है। ज्योंही खोल बजा, श्रीरामकृष्ण को छोड़कर आँगन में जा बैठे। साथ ही साथ भक्तगण भी उठ गए। 

A Theosophist gentleman arrived with Aswini Kumar Dutta and the son of Behari Bhaduri. The Mukherji brothers entered the room and saluted Sri Ramakrishna. Arrangements were being made for devotional music in the courtyard. At the first beat of the drum the Master left the room and went there. The devotees followed him.

শ্রীযুক্ত অশ্বিনীকুমার দত্ত ও শ্রীযুক্ত বিহারী ভাদুড়ীর পুত্রের সঙ্গে একটি থিয়জফিস্ট্‌ আসিয়াছেন। মুখুজ্জেরা আসিয়া ঠাকুরকে প্রণাম করিলেন। উঠানে সংকীর্তনের আয়োজন হইয়াছে। যাই খোল বাজিল ঠাকুর ঘর ত্যাগ করিয়া উঠানে গিয়া বসিলেন।

भवनाथ अश्विनी का परिचय दे रहे हैं। श्रीरामकृष्ण ने अश्विनी की ओर इशारा करके मास्टर से कुछ। मास्टर और अश्विन में कुछ बातें होने लगी। नरेन्द्र भी आँगन में आये। श्रीरामकृष्ण अश्विनी से कह रहे हैं , इसी का नाम नरेन्द्र है। '   

Bhavanath introduced Aswini to the Master. The Master introduced him to M. Aswini and M. were talking together when Narendra arrived. Sri Ramakrishna said to Aswini, "This is Narendra."

ভবনাথ অশ্বিনীর পরিচয় দিতেছেন। ঠাকুর মাস্টারকে অশ্বিণীকে দেখাইয়া দিলেন। দুইজনে কথা কহিতেছেন, নরেন্দ্র উঠানে আসিলেন। ঠাকুর অশ্বিনীকে বলিতেছেন, “এরই নাম নরেন্দ্র।”

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>>>Science of being 'Tripleless'  (nistraigunya) : प्रकृति के तीन गुण विख्यात हैं – सत्‌, रज तथा तम।  सत्त्वगुण से मन में ज्ञान और सुख उपजते हैं। रजोगुण से स्वार्थमय कमों में प्रवृत्ति तथा तमोगुण से प्रमाद (व्यर्थ चेष्टा), आलस्य (कर्तव्य की उपेक्षा) तथा निद्रा (निष्क्रियता) उपजते हैं।  मनुष्य में ये तीनों गुण साथ-साथ रहते हैं, किन्तु जब एक गुण बढ़ता है तब शेष दो गुण दब जाते हैं। सत्त्वगुण की अधिकता से चित्त में उत्साह एवं प्रफुल्लता बढ़ते हैं। सर्वोपयोगी कर्म में न मन ऊबता है और न थकान होती है। इन्द्रियां चेतनता व प्रकाश से भरी रहती हैं। रजोगुण का फल क्षणभंगुर सुख की प्रतीति एवं अन्ततः दुःख है। तमोगुण की अधिकता से आलस्य के कारण कर्तव्य कर्मों की उपेक्षा व टालमटोल होते हैं। जैसे, मनोरंजन के लिए ताश खेलना, टी.वी व सिनेमा में चलचित्र देखने में समय का नष्ट करना, गपशप में समय बिताना आदि प्रमादों में मन लगा रहता है। मद्यपान व जुए आदि व्यसनों की लत पड़ जाती है। सब प्रकार के उपयोगी कमों में विपरीत भाव रहता है।सत्त्वगुण की अधिकता रहने पर वर्तमान जीवन आनन्दपूर्वक चलता है और मरणोपरान्त सुखकर देवयोनियों की प्राप्ति होती है। रजोगुण की अधिकता से वर्तमान जीवन दुःखी व आशंकित रहता है और मरणोपरान्त उससे अधिक दुःखी जन्म की प्राप्ति होती है, यथा – अभाव ग्रस्त परिवार, शारीरिक अंगों में हीनता व दुर्बलता आदि। तमोगुण की अधिकता होने पर वर्तमान जीवन में विषाद, हताशा आदि होते हैं तथा मरणोपरान्त पशु व कीट, पतंगों आदि की योनियों की प्राप्ति होती है।  

निस्त्रेगुण्य यानी त्रिगुणातीत होना ही जीवनमुक्ति है। तथा इस त्रिगुणातीत होने या जीवनमुक्त अवस्था प्राप्त करने के विज्ञान को सीखने में विद्यामाया की सहायता को स्वीकार करना ही पड़ता है। मनुष्य त्रिगुणों में बंधा होता है इसलिये जन्म लेता है।  निस्त्रैगुण्यता ही मेरी समझ से जीवन्मुक्ति है। समाधि से लौटा हुआ ईश्वरकोटि के व्यक्ति को अपनी स्वतंत्र इच्छा से ही देह में जीवित रहना चाहिए ।  वे किसी भी प्रकार के कर्मफल में तो बंध ही नहीं सकते। निस्त्रैगुण्य यानी त्रिगुणातीत ('अहं' के या 'मन' के परे जाने पर) होने पर तो इस देह में जीवित रहने का कोई कारण ही नहीं रहता।  इस लौकिक जगत  की एक भी वस्तु (कामिनी -कांचन या लोकेषणा) के साथ राग या द्वेष से हमे पुनर्जन्म को बाध्य होना पड़ेगा।  तीनों गुणों से पार तभी हो सकता है जब वह अपने स्वरूप को अनुभव निरंतरता मे करे।  यह तभी संभव है जब वह निर्विकल्प समाधि को अनुभव करे;  क्योंकि सविकल्प समाधि मे तो किसी व्यक्ति को केवल ध्यान करते समय ही अपने स्वरूप का  अनुभव होता है।

वेद का एक मात्र विषय मनुष्य को तामस, राजस, सात्त्विक नाना प्रकार के सुख भोग देना है।सत्संग स्वाध्याय भी एक अत्यन्त सात्त्विक सुख है।  किन्तु युद्ध क्षेत्र में पहुँचकर राजा यदि सात्विक सुख में आसक्त हो जाये और अपना कर्तव्य भूल जाये, उसकी सात्त्विक आसक्ति से सारे राष्ट्र का नाश हो जायेगा।  इसलिए हम तो सात्त्विक सुख में भी आसक्ति नहीं चाहते। इसलिए तू तीनों गुणों की आसक्ति से ऊपर उठना सीख। 

 भगवान् नें यह नहीं कहा कि " तुम इन (वेदों) से रहित हो जाओ " । भगवान् ने तो यह कहा कि - अर्जुन तुम निस्त्रैगुण्य हो जाओ । अगर वैसा कहना होता तो भगवान् यह कहते कि " निर्वेदो भव " वेद के झंझट को छोड़ या वेद को छोड़ । उल्टा भगवान् ने तो यह बताया है कि " निस्त्रैगुण्य भव " वेद के विषय को बतलाया है कि जो अव्यवसायी बुद्धि वाले हैं , जिनका मन भोगैश्वर्य से अपहृत हुआ है ; वे वेद का वास्तविक ऊद्देश्य नहीं समझ पाते । बाह्य सुख में आसक्ति से छूटकर जो कर्त्तव्य-पालन-जन्य आत्म-सन्तोष को पहचान लेता है वही आत्मवान् है, क्योंकि उसकी आत्मा आसक्ति-पाश से छूट जाती है बस तू भी आत्मवान् बन।

>>>One must has to accept the Help of Vidyamaya in order to attain the science of living beyond the ego (in the trigunateet state or the state of equanimity) even while living in the body. शरीर में रहते हुए भी अहं से परे (त्रिगुणातीत अवस्था या साम्य की अवस्था में) रहने के विज्ञान को प्राप्त करने के लिए विद्यामाया की सहायता को स्वीकार करना ही पड़ता है ।  सृष्टि से पहले साम्य की अवस्था थी। सृष्टि के समय विभिन्न अनुपातों में सत्त्व रज और तम इन तीन गुणों के संयोग से प्राणियों का निर्माण होता है। उपनिषद् साधक को मन (अहं)  के परे जाने का उपदेश देते हैं जिससे साधक को अपने आत्मस्वरूप से ईश्वर (समाधि या साम्य की अवस्था में अद्वैत) का परिचय होगा। उपनिषदों के इस स्पष्ट उपदेश को सही ढंग से  नहीं समझ पाने के कारण अनेक हिन्दू लोग अपने धर्म से अलग (बौद्ध-ईसाई -मुसलमान) हो गये थे। और इसलिये गीता में पुनर्जागरण का आवाहन किया गया।  हमारा अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार ) इन तीन गुणों का ही कार्य है। तीन गुणों के परे जाने का अर्थ है मन (अहं)  के परे जाना। अहं के परे जाने (मन की चहारदीवारी का अतिक्रमण कर समाधि में पहुँचने के विज्ञान को औपनिषदिक भाषा में व्यक्त करते हुए भगवान श्रीकृष्ण (BG-2.45) में कहते हैं- अर्जुन तुम त्रिगुणातीत बनो। शरीर में रहते हुए भी अहं से परे रहने के विज्ञान को (त्रिगुणातीत अवस्था या साम्य की अवस्था में रहने के विज्ञान) को प्राप्त करने के लिए विद्यामाया की सहायता को स्वीकार करना ही पड़ता है । प्रशंसा वो विद्या है जिससे शत्रु को भी मित्र बनाया जा सकता है। 4.2.2023 

त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।

निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्।।2.45।।

त्रैगुण्यविषयाः, वेदाः, निस्त्रैगुण्यः, भव, अर्जुन । निर्द्वन्द्वः, नित्यसत्त्वस्थः, निर्योगक्षेमः, आत्मवान् ॥

हे अर्जुन वेद त्रैगुण्य-विषयक हैं अर्थात् तीनों गुणों के कार्यरूप संसार को ही प्रकाशित करने वाले हैं। परंतु तुम आत्मवान् बनो ! सुख-दुःख के हेतु जो परस्पर विरोधी (युग्म) पदार्थ हैं उनका नाम द्वन्द्व है। भाष्यकार भगवान् शंकराचार्य कहते हैं " निष्कामो भव इत्यर्थः " कामना से रहित हो जाओ । असंसारी बनो, अर्थात् सदा सत्त्वगुण के आश्रित हो। निष्कामी (योगक्षेम से रहित) बनो। अप्राप्त वस्तु को प्राप्त करने का नाम योग है और प्राप्त वस्तु के रक्षण का नाम क्षेम है योगक्षेम को प्रधान मानने वाले की कल्याणमार्ग में प्रवृत्ति होनी अत्यन्त कठिन है।  अतः तू योग-क्षेम को न चाहने वाला बनो । 

सृष्टि से पहले साम्य की अवस्था थी। सृष्टि के समय विभिन्न अनुपातों में सत्त्व रज और तम इन तीन गुणों के संयोग से प्राणियों का निर्माण होता है।  ज्ञान, क्रिया और निष्क्रियता ये क्रमश सत्त्व रज और तमोगुण के लक्षण हैं। हमारा अन्तःकरण या (मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार ) इन तीन गुणों का ही कार्य है। तीन गुणों के परे जाने का अर्थ है मन (अहं)  के परे जाना। इस श्लोक की दूसरी पंक्ति में त्रिगुणों के ऊपर उठकर असीम आनन्द में स्थित होने की साधना बतायी गयी है।परस्पर भिन्न एवं विपरीत लक्षणों वाले सुख-दुःख , शीत-उष्ण, लाभ-हानि इत्यादि जीवन के द्वन्द्वात्मक अनुभव हैं। इन सब में समभाव में रहने का अर्थ ही निर्द्वन्द्व होना है इनसे मुक्त होना है। यही उपदेश श्रीकृष्ण अर्जुन को दे रहे हैं।  मोह का अर्थ है वस्तु को यथार्थ रूप में न पहचानना (आवरण)। जिसके कारण वस्तु का अनुभव किसी अन्य रूप मे ही होता है जिसे विक्षेप कहते हैं और जिसका परिणाम है शोक। अतः  सत्वगुण में स्थित होने का अर्थ विवेक-जनित ज्ञान या शान्ति में स्थित होना है। सत्त्वस्थ बनने के लिए सतत् सजग प्रयत्न की अपेक्षा है। निर्योगक्षेमयहाँ योग का अर्थ है अप्राप्त वस्तु को प्राप्त करना और प्राप्त वस्तु के रक्षण का नाम है क्षेम। मनुष्य के सभी प्रयत्न योग और क्षेम के लिये होते हैं। अत इन दो शब्दों में विश्व के सभी प्राणियों के कर्म समाविष्ट हैं। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि अहंकार और स्वार्थ से प्रेरित कर्मों का निर्देश योग और क्षेम के द्वारा किया गया है। मनुष्य की चिन्ताओं और विक्षेपों का कारण भी ये दो ही हैं। निर्योगक्षेम बनने का अर्थ है इन दोनों को त्याग देना जिससे चिन्ताओं से मुक्ति तत्काल ही मिलती हैं। निर्द्वन्द और निर्योगक्षेम बनने का उपदेश देना सरल है किन्तु साधक के लिये तत्त्वज्ञान का उपयोग तभी है जब इस ज्ञान को जीवन में उतारने की व्यावहारिक विधि का भी उपदेश दिया गया हो।  इस श्लोक में ऐसी विधि का निर्देश आत्मवान भव इन शब्दों में किया गया है। द्वन्द्वों तथा योगक्षेम के कारण उत्पन्न दुख और पीड़ा केवल तभी सताते हैं जब हमारा तादात्म्य शरीर मन और बुद्धि के साथ होकर अहंकार और स्वार्थ की अधिकता होती है। इन अनात्म उपाधियों (देह-मन)  के साथ विद्यमान तादात्म्य (देहाध्यास) को छोड़कर इनसे भिन्न अपने शुद्ध चैतन्य स्वरूप के प्रति सतत जागरूक रहने का अभ्यास ही आत्मवान अर्थात् आत्मस्वरूप में स्थित होने का उपाय है।  इसकी सिद्धि होने पर अहंकार नष्ट हो जाता है और वह साधक त्रिगुणों के परे आत्मा में स्थित हो जाता है। ऐसे सिद्ध पुरुष को वेदों का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता। वास्तव में ज्ञानी पुरुष के होने के कारण ही वेदवाक्यों का प्रामाण्य सिद्ध होता है। उपनिषद् साधक को मन (अहं)  के परे जाने का उपदेश देते हैं जिससे साधक को आत्मस्वरूप से ईश्वर का परिचय होगा। उपनिषदों के इस स्पष्ट उपदेश को सही ढंग से नहीं समझ पाने के कारण अनेक हिन्दू लोग अपने धर्म से अलग हो गये थे। और इसलिये गीता में पुनर्जागरण का आवाहन किया गया।  औपनिषदिक अर्थ को ही यहां दूसरे शब्दों में कहा अर्जुन तुम त्रिगुणातीत बनो निमित्तमात्र भव सव्यसाचिन !

🔱>>>>तांबा, जस्ता और टिन के मिश्रण से बने सिक्के से इसके तीनो तत्वों को अलग करने का विज्ञान।  The science of separating the three elements from a vessel made of an alloy of copper, zinc and tin.अधिकांश चाँदी के सिक्के गिलट या जर्मन सिल्वर से तैयार किए जाते हैं, लेकिन चमकदार दिखाने के लिए इन पर चांदी की पॉलिश कर दी जाती है।-जब किसी धातु में अन्य धातु मिलाकर उसकी मिश्रधातु (alloy) बनायी जाती है, तो उस धातु के मूल गुणों में परिवर्तन हो जाता है। उदाहरण के लिए, तांबा एक उपयोगी धातु है, परन्तु कोमल होने के कारण यह सिक्के तथा अन्य वस्तुएं बनाने के लिए उपयुक्त नहीं होता। इसे कठोर और संक्षारणरोधी बनाने के लिए इसमें टिन मिलाकर कांसा नामक मिश्रधातु प्राप्त कर लेते हैं। 45 % ताँबा, 45 % जस्ता और 10 % निकल वाला पीतल सफेद होता हैं। इसे निकल-पीतल या जर्मन सिलवर भी कहते हैं। प्योर चाँदी (सिल्वर) में 30 से 40% तक गिलट या जर्मन सिल्वर मिक्स कर सिक्के तैयार किए जाते है। मैन्युफैक्चरिंग लागत के बाद तैयार नकली सिक्कों को बाजार में असली चांदी के सिक्कों के बीच मिक्स कर आसानी से चाँदी के भाव से बेचा जाता है।Brass made of 45 % copper, 45 % zinc and 10 % nickel is white. It is also called nickel-brass or German silver. ] 

यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके ।

तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ॥

[अध्याय २, श्लोक ४६]

सर्वतः सम्प्लुतोदके उदपाने यावान् अर्थः विजानतः ब्राह्मणस्य सर्वेषु वेदेषु तावानर्थः।

हे अर्जुन ! यह उन वेदवादियों की दुर्दशा बताई गई है, जो वेद को नहीं जानते और व्यर्थ वेद के सम्बन्ध में गाल बजाते हैं। किन्तु विज्ञानवान् ब्राह्मण के लिए तो सम्पूर्ण वेदों में एक-एक अक्षर और मात्रा में इतना तत्त्व भरा है, जितना उस जल-प्याऊ में होता है, जिसमें जल भर कर दीवार से ऊपर निकल जाये (Over flow करने लगे)।

यहाँ कई लोगों ने इस श्लोक को वेद-निन्दा में लगाया है, वह यह अर्थ करते हैं कि जल बह जाने के कारण सूखे हुए जलाशय के समान वेद को समझो, किन्तु ऐसा होता तो 'विप्लुतोदके' पाठ होता 'सम्प्लुतोदके' नहीं। जैसे मनु (३.२) ने लिखा है 'अविप्लुतब्रह्मचर्यो गृहस्थाश्रममाविशेत्।' इस प्रकार स्पष्ट है कि समप्लव का अर्थ (Over flow, Inundate) शुष्क नहीं। 



1. Irvin D Yalom -"Though the physicality of death destroys the individual, the idea of death can save him" . Irvin D Yalom/Existential Psychotherapy)

 अमेरिकी मनोचिकित्सक इरविन डी यालोम ने 'अस्तित्व संबंधी मनोचिकित्सा' (Existential Psychotherapy) का अध्यन किया था। वे अपनी पुस्तक  "अस्तित्ववादी मनोचिकित्सा", में कहते हैं कि स्वयं को जानने के लिए किसी व्यक्ति को (विशेषतः आस्तिक्यबुद्धि या आत्मश्रद्धा रखने वाले नचिकेता जैसे सत्यार्थी व्यक्ति को) अपने अस्तित्व के विपरीत परिस्थिति (मृत्यु -देवता यम) का सामना निर्भयता के साथ (श्रद्धा या आस्तिक्यबुद्धि के साथ) करना पड़ता है। स्वयं के अविनाशी स्वरुप को जीवन- मृत्यु के कगार पर पहुँचकर ही जाना जा सकता है। स्वयं को जानने के  सही तरीके को अर्थात आत्मश्रद्धा को  तर्क से नहीं जोड़ा जा सकता है, लेकिन यह सहज ज्ञान युक्त है।  इसे  "अपने अविनाशी अस्तित्व का अनुभव" कहा जा सकता है।  

2. इमानुएल काण्ट (Immanuel Kant, 1724-1804) पश्चिम में समय (काल) और ब्रह्मांड (देश)  की उत्पत्ति के बारे में मौलिक चिंतन जर्मन दार्शनिक इमानुएल कांट के दर्शन में प्राप्त होता है।  क्या ब्रह्मांड की उत्पत्ति हुई? अथवा यह हमेशा ऐसा ही था? इमानुएल कांट के लिए यह विवेचना का विषय था।  कांट अपने जीवन में नैतिक मूल्यों को महत्त्व देता था और विचारों से उसका द्रष्टिकोण समन्वयवादी था।  उसको लगता कि समय (काल -मृत्यु) के प्रति लोगों के मन में समाया डर अनेक नैतिक समस्याएं खड़ी कर देता है।  मृत्यु से भयभीत मनुष्य दूसरों को भूलकर केवल अपने स्वार्थ की  चिंता करने लगता है। यदि यह माना जाए कि किसी बिंदू पर   ब्रह्मांड की शुरुआत हुई तो फिर कर्ता ने शुरुआत के लिए अनंतकाल तक प्रतीक्षा क्यों की? इसको Big Bang कहें या कुछ और, वर्तमान अवस्था तक आने में इतना लंबा समय क्यों लिया? महाविस्फोट (बिग बैंग) सैद्धांतिकी ने भले ही समय को ब्रह्मांड की उत्पत्ति से पहले मानने से इन्कार कर दिया था, मगर अधिकांश दार्शनिकों का कहना था कि समय अनंत भूतकाल से अनंत भविष्य की ओर अग्रसर है। आइंस्टाइन से पहले माना जाता था कि समय का वेग हर स्थिति में एक ही होता है।  मगर आंइस्टान ने अपने सापेक्षिकता के सिद्धांत द्वारा सिद्ध किया था कि यदि अलग–अलग पिंडों पर मौजूद दो व्यक्ति समय का आकलन करते हैं और उनमें से एक अतिउच्च वेग, प्रकाशवेग के बराबर से गमितान है तो गतिशील पिंड पर मौजूद प्रेक्षक के लिए समय ठहरा हुआ प्रतीत होगा।  यह मानते हुए कि प्रकाश वेग से उच्च वेग असंभव हैं और समय के वेग को प्रकाशवेग से कम आंकने पर दूसरी समस्याएं खड़ी हो सकती हैं, आइंस्टाइन ने समय के वेग को प्रकाशवेग के बराबर माना। (Einstein equated the velocity of time with the speed of light.) 

 कुल मिलाकर समय एक पहेली के रूप में हमारे सामने आता है।  सुलझाने के लिए यदि हम पीछे की ओर लौटते हैं तो उसकी पैठ सुदूर अतीत में दिखाई पड़ती है।  यदि भविष्य की ओर झांकते हैं तो वह हम सबसे कहीं आगे चल रहा मुसाफिर जान पड़ता है। कांट इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि - " दिखाई देने वाली बाहरी दुनिया मानसिक स्थान और समय के अमूर्त रूप में विलीन हो जाती है। मन के उपकरण देश और काल का अतिक्रमण करने पर मनोमोक्ष प्राप्त होता हैं। " कांट को नैतिकता मानव की आत्मा में दिखती है न की किसी वस्तु विशेष में। केवल आध्यात्मिक जगत ही सत्य है। इससे परे तथा इसके पश्चात और कुछ नहीं है। देश और काल वे चश्मे हैं जिनको लगाकर ही हम वस्तुओं या घटनाओं को देख सकते हैं। हमारे व्यावहारिक जगत का दिक काल से संयुक्त होना अनिवार्य है। परंतु परमार्थ तक देश और काल की गति नहीं है। देश (अंतरिक्ष) और समय (काल) से परे उस नित्य-काली की खोज मनोमोक्ष का मार्ग है।

>>>भारतीय दर्शनों में काल (समय) की अवधारणा/ [साभार https://omprakashkashyap.wordpress.com/]

 घटनाओं की सटीक परख, आवृत्ति, अंतराल आदि की जांच के लिए समय के घंटा, मिनट, सैकंड, पल, अनुपल, वर्ष, संवत्सर जैसे मात्रक गढ़े गए। नासदीय सूक्त के अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति जल से मानी गई है. वही आदिमहाभूत है।  इस मान्यता के अनुसार सृष्टि निर्माण में सहायक बने पंचमहाभूतों—अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी, आकाश में जल सर्वप्रथम आया।  उसी से बाकी तत्वों का विकास हुआ है। यह सीधे–सीधे अनुभव से जन्मा दर्शन था।  जल से प्रकृति हरियाती है।  जीवन संभव हो पाता है।  वह प्राणतत्व की पहली आवश्यकता है।  ऋग्वेद में प्राकृतिक सत्ताओं के प्रति श्रद्धाभाव से विकसित बहुदेववाद है।  नासदीय सूक्त के अनुसार आरंभ में न दिन था न रात।  इसलिए समय का बोध कराने वाले भूत–भविष्य आदि का भी लोप था।  इस तरह महा-साम्य  (शून्य) की अवस्था से,  दिन–रात से भरपूर ब्रह्मांड में आने के बीच जो लाखों, करोड़ों वर्ष बीते, उनसे समय (काल) की उपस्थिति स्वतः सिद्ध है।  कह सकते हैं कि सृष्टि के निर्माण में पंच–तत्वों के सहयोग के अलावा समय का भी योगदान रहा। 

>>>अंतरिक्ष (space -देश) वह त्रि- आयामी आभासी संरचना है जो विभिन्न प्रकार के छोटे–बड़े पिंडों, कणों को अपने भीतर समाहित रखता है।   दूसरी ओर समय महज एक -आयामी सरंचना है।  उसका गुण है कि वह ब्रह्मांड में पल–छिन घटने वाली कोटिक घटनाओं का साक्षी बन सके।  वह दो या उससे अधिक घटनाओं के क्रमानुक्रम, बारंबारता, अंतराल तथा उनके आपसी संबंधों का बोध कराता है।  यह भी कह सकते हैं कि घटनाओं का वेग, मानव–मस्तिष्क द्वारा उन घटनाओं को सहेजने का क्रम तथा उनका अंतराल समयबोध का निर्माण करते हैं।  व्यवहार में (In practice) समय आभासी मगर सापेक्ष ( virtual but relative entity.)सत्ता है। 

>>>Absoluteness of time.दूसरी ओर समय की निरपेक्षता (absoluteness of time) के समर्थन में भी अनेकानेक उल्लेख शास्त्रों में मौजूद हैं।  यह माना जाता रहा कि समय बाह्यः प्रभावों, दृश्य–अदृश्य घटनाओं से मुक्त है।  वह घटनाओं पर नियंत्रण रखता है, मगर स्वयं किसी से प्रभावित नहीं होता।  इसलिए उसकी गति सदैव एकसमान बनी रहती है।  यह धारणा भी बनी रही कि चराचर जगत में जो कुछ बनता–मिटता है, समय उसका साक्षी है।  काल नहीं मिटता, हम ही बनते–मिटते हैं—कालो न यातो वयमेव याताः तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः ।।७।।(अर्थ -  काल (समय) कहीं नहीं गया बल्कि हम स्वयं चले गए । इस सभी के बाद (38 वर्षों की साधना के बाद भी) भी मेरी कुछ पाने की तृष्णा नहीं गयी (पुरानी नहीं हुई) बल्कि हम स्वयं जीर्ण हो गए ।। ) कहकर समय की परमसत्ता को स्वीकृति दी गई।  उसे अजेय (invincible)  माना गया।  

      लेकिन एकेश्वरवादी (अद्वैत) चिंतन में 'ईश्वर' के अतिरिक्त 'समय' (काल?)  या उस जैसी शाश्वत सत्ता की परिकल्पना (concept of time), ईश्वर की सर्वोच्चता पर प्रश्नचिह्न लगाती थी।अतएव परमात्मा की सर्वोच्चता को दर्शाने के लिए गीता में श्रीकृष्ण के मुख से कहलवाया गया—'कालोऽस्मि.’ ‘मैं ही समय हूं। यहां काल  विराट ब्रह्मांडीय विस्तार का द्योतक है। (-'I am the time'.’ Here time is the symbol of vast cosmic expansion.) वह श्रीकृष्ण =काली के मुख से उच्चारित हुआ है, इसलिए वह 'विराट शक्ति' का भी बोध देता है।  समय के साथ बीतना, गुजरने, घटित होने जैसी प्रतीतियां सहजरूप से जुड़ी हुई हैं।  उसे परिवर्तनशील माना गया है।  मगर परमसत्ता की महत्ता को रेखांकित करने के लिए यत्र–तत्र उसको कालातीत भी कहा जाता है।  सृष्टि निर्माण में समय के योगदान को स्वीकार करते हुए प्राचीन आचार्यों ने लिखा—‘जल की अवस्था से उन्नत होकर इस जगत का विकास समय, संवत्सर अथवा वर्ष, इच्छा या काम, एवं बुद्धिरूपी पुरुष तथा तप की शक्तियों से हुआ था.’ (भा. द. पृष्ठ 83). इसमें समय तथा ‘संवत्सर अथवा वर्ष’ को अलग–अलग लिखा हुआ है।  जबकि व्यवहार में संवत्सर और वर्ष समय के ही मात्रक हैं। 

समय भूत, वर्तमान तथा भविष्य के रूप में परिलक्षित होने वाली, काल नदी–सम निरंतर प्रवाहशील एकविमीय संरचना है।  घटनाओं के साथ घटते जाना उसका स्वभाव है।  वह न केवल घटनाओं के क्रमानुक्रम का साक्षी है, बल्कि उनका हिसाब भी रखता है।  मगर है आदि–अंत से परे उनकी न शुरुआत है न ही अंत। स्वयं को केवल शरीर मानने के कारण आगे चलकर मृत्यु के भय से जीवन में स्वार्थ को यथाशीघ्र पूरा करने की स्पर्धा और सामाजिक विभाजनकारी स्थितियां बढ़ीं।  समय (काल) के प्रति डर, अविश्वास एवं स्थूल चिंतन का दुष्प्रभाव यह हुआ कि काल को लेकर दार्शनिक चिंतन लगभग ठहर–सा गया। 

>>> When did time originate? सवाल है कि समय की उत्पत्ति कब हुई? क्या समयबोध के साथ? अथवा उससे पहले? इस मामले में वैदिक ऋषि और वैज्ञानिक दोनों एकमत थे कि समय का जन्म - 'BIG BANG' ? ॐ का स्फोट ? सृष्टि के जन्म के साथ हुआ।  उससे पहले समय की कोई सत्ता नहीं थी। स्वाभाविक रूप से वैज्ञानिक इसकी व्याख्या तार्किक आधार पर करना चाहते हैं, जबकि सत्यद्रष्टा ऋषियों (वैदिक आचार्यों) का द्रष्टिकोण अध्यात्म–प्रेरित था।  अंतरिक्षीय महाविस्फोट (Cosmic Big Bang) द्वारा सृष्टि–रचना का सिद्धांत में विश्वास रखने वाले वैज्ञानिक मानते हैं कि उससे पहले ब्रह्मांड अतिउच्च संकोचन (very high compression)  की अवस्था में था।  इस तरह विज्ञान की दृष्टि में ब्रह्मांड (Space देश) और समय (काल- Time)  दोनों एक ही घटना का उत्स हैं, जिसे वैज्ञानिक महाविस्फोट -'BIG BANG' का नाम देते हैं। ब्रह्मांड के जन्म की घटना से पहले समय की उपस्थिति को नकारना वैज्ञानिकों की मजबूरी थी। वैज्ञानिकों के  पास  ऐसा कोई कारण नहीं था जिससे समय की उपस्थिति प्रमाणित हो सके। समय के बारे में एक महत्त्वपूर्ण वैज्ञानिक द्रष्टिकोण आइंस्टाइन के शोध में मिलता है। सापेक्षिकता के सिद्धांत की खोज के बाद घटना विशेष के संदर्भ में दिक् और काल को अपरिवर्तनशील एवं निरपेक्ष मानना संभव नहीं रह गया था। समय के बारे में एक महत्त्वपूर्ण वैज्ञानिक द्रष्टिकोण आइंस्टाइन के शोध में मिलता है। सापेक्षिकता के सिद्धांत (Theory of Relativity-E=Mc2) की खोज के बाद घटना विशेष के संदर्भ में दिक् और काल को अपरिवर्तनशील एवं निरपेक्ष मानना संभव नहीं रह गया था। क्योंकि देश और काल (Time and Space) भी अब प्रभावशाली मात्राएं बन गई थीं, जिनका स्वरूप पदार्थ और ऊर्जा (Matter and Energyपर निर्भर था। सापेक्षिकता का सिद्धांत (Theory of Relativity) महाविस्फोट से पहले समय की संभावना को नकारता है।  उसके अनुसार देश और काल की परिकल्पना केवल ब्रह्मांड के भीतर रहकर संभव है।  यह मान लिया गया कि दिक्, काल की व्याख्या केवल ब्रह्मांडीय सीमाओं में संभव है।  तदनुसार ब्रह्मांड के जन्म से पहले दिक्, काल की परिकल्पना करना बिल्कुल बेमानी हो गया। यह निरीश्वरवादी परिकल्पना (Godless hypothesis) थी, जिसके समर्थक जैन और बौद्ध दर्शन थे. 

 लेकिन वैदिक ऋषियों -मनीषियों का द्रष्टिकोण सर्वथा भिन्न था। ऋग्वेद में कहा गया,  ‘वह (ब्रह्म)  काल की, देश की, आयु, मृत्यु और अमरता (Time, Space and Causation ) आदि सबकी पहुंच के बाहर और उनसे परे है ! हम इसकी ठीक–ठीक व्याख्या नहीं कर सकते, सिवाय इसके कि यह अस्तित्व रखती है.’(भ. द. पृष्ठ – 81).नासदीय सूक्त में उद्गाता ऋषि ब्रह्मांड की उत्पत्ति की कल्पना शून्य से करता है— "नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत्, किमावरीवः कुह कस्य शर्मन्नम्भः किमासीन्दहनं गभीरम्. " —‘उस समय न तो सत था, न ही असत्।  न आकाश विद्यमान था, न ही उसके ऊपर अंतरिक्ष।  तब किसने उसे आवृत कर रखा था।  वह कहां था? किसके आश्रय में रखता था? क्या वह आदिकालीन गहन–गंभीर जल था? जिसमें समाहित था सबकुछ। सृष्टि से पहले मृत्यु का अभाव था।  इस कारण अमरताबोध अजन्मा ही था"अमरताबोध" अजन्मा था ? जिसके माध्यम से दिन और रात का होना निश्चित किया जा सके।  केवल और केवल ब्रह्म था, बिना श्वांस–प्रश्वांस की प्रक्रिया के जीवित रहने वाला।  बाकी था अंधकार, घोर अंधकार….तब फिर कौन जानता है कि सृष्टि कहां से हुई? जिससे इस सृष्टि का प्रादुर्भाव हुआ, उसने इस सृष्टि को बनाया या नहीं बनाया, ऊंचे से ऊंचे अंतरिक्षलोक लोक में, ऊंचे से ऊंचा देखने वाला, वही यथार्थरूप में जानता है, अथवा क्या वह भी नहीं जानता?’(भा. द. पृष्ठ 81). सृष्टि के उत्स को जानने के बहाने असल में यह निराकार ब्रह्म की कल्पना थी। 

परमात्मा (या माँ काली ?) सृष्टि की कारक सत्ता है।  इसलिए वह उससे पहले है।  हिरण्यगर्भ सूक्त में उद्गाता मुनि ब्रह्मांड की उत्पत्ति से पहले की स्थिति की कल्पना करते हुए लिखता है—" हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्. स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय् हविषा विधेम. " वह था /थी ?! परंतु क्या था? किस रूप में था/थी ? इस बारे में दावे के साथ कुछ भी नहीं कहा जा सकता….हम उसकी अभ्यर्थना करते हैं।  श्वेताश्वरोपनिषद में  परमसत्ता की स्थिति की कल्पना करते हुए उपनिषदकार लिखता है—‘वहां फिर न दिन रहता है, न रात रहती है, न कोई अस्तित्व रहता है, और न कोई अनस्तित्व रहता है—केवल ईश्वर रहता है.’(भा. द. 160). इसका भी सीधा सा अर्थ है कि ईश्वर (ब्रह्म) पर समय का कोई असर नहीं पड़ता।  वह उसकी पकड़ से बाहर है। 

 जैन ग्रन्थ पंचास्तिकारसमयसार में समय (काल) को 'नित्यकाल' और 'सापेक्षकाल' में बाँटा गया है।  नित्य काल निराकार एवं आदि–अंत से सर्वथा मुक्त है।  जबकि सापेक्षकाल समय के प्रति व्यावहारिक दृष्टिकोण।  नित्यकाल का न आदि है न ही अंत।  दूसरी ओर सापेक्षकाल का आदि भी है तथा अंत भी।  सुविधा के लिए उसको घंटे, मिनट आदि में भी विभाजन किया जा सकता है,नित्यरूप काल को हम ‘काल’ के नाम से एवं सापेक्षकाल को ‘समय’ के नाम से पुकारते हैं। (पंचास्तिकायसमयसार-107-108) में काल को चक्र अथवा पहिया या घूमने वाला कहा गया  है। चूंकि काल की गति से सब पदार्थों की आकृति का विलयन संभव होता है, नई आकृतियां जन्म ले पाती हैं—अतएव काल को संहारकर्ता भी कहा गया है।  बौद्ध मतावलंबी भी समय को अंतविहीन मानते हैं।  बौद्ध विद्वान धर्मकीर्ति के अनुसार संसार सतत प्रवाह है।  इसका न आदि है न ही अंत. इसलिए समय का भी न आदि है न अंत। 

अपने–अपने आग्रहों के फलस्वरूप विज्ञान (वैज्ञानिक) और वेद (ऋषि) दोनों ही सृष्टि पूर्व समय की उपस्थिति को नकारते हैं। विज्ञान मानता है महाविस्फोट से पहले समय का कोई अस्तित्व नहीं था।  ब्रह्मांड के अतिउच्च संकोचन की अवस्था में, रात–दिन का भी अस्तित्व ही नहीं था।  महाविस्फोट के साथ ब्रह्मांड का जन्म हुआ और अगले ही क्षण वह तेजी से फैलने लगा।  सेकंड के बेहद सूक्ष्म हिस्से के भीतर ब्रह्मांड का आकार दोगुना हो गया।  उसके बाद तो यह और भी तीव्र गति से फैलने लगा।  आगे चलकर आकाशगंगाएं बनीं।  सौरमंडल अस्तित्व में आया। लेकिन वैज्ञानिक भी इतना तो मानते ही हैं कि महाविस्फोट से पहले ब्रह्मांड उच्च संकोचन अवस्था में था।  भले ही इतनी सघनावस्था में कि दिन–रात आदि का अस्तित्व ही संभव न हो।  परंतु महाविस्फोट से पहले भी कुछ था।  भले ही वह उच्च संपीडित/संकोचन अवस्था में, बिंदुरूप (या बीजरूप) में हो। वैज्ञानिक यह जानने के लिए सिर नहीं खपाते कि उच्चतम संपीडन की अवस्था कब से थी? क्यों थी? इस बारे में उनकी परिकल्पनाएं मौन दिखाई पड़ती हैं।  

वैदिक ऋषि  ब्रह्मांड की उत्पत्ति से पहले परमात्मा (माँ काली)  की सत्ता को स्वीकारते हैं।  उनके अनुसार समय (काल)  की कोई बाहरी प्रतीति नहीं है।  वह (काल)  परमात्मा (ब्रह्म=शक्ति =काली) का ही गुण है, उसके भीतर समाया हुआ—‘यह सब भूत और भविष्यत् जगत् पुरुष ही है.’(10/90/2). सृष्टि से पहले परमात्मा (ब्रह्म)  यदि परमशांत - साम्यावस्था में  था, जैसा कि अध्यात्मवादी स्वीकार करते हैं, तो उसके कथित निष्क्रिय अवस्था से सक्रिय अवस्था में आने तक कुछ न कुछ अंतराल अवश्य रहा होगा।  यदि वह ब्रह्म निरपेक्ष निष्क्रिय सत्ता के रूप में मौजूद था, तो भी उसके होने की क्रिया अपने आप में स्वयं एक घटना है। आशय है कि दोनों अवस्थाओं में चाहे वह महाविस्फोट से पहले अंतरिक्ष के उच्च संपीडन की अवस्था हो अथवा सृष्टि की प्रमुख कारक शक्ति परमात्मा (माँ काली ) के रूप में—व्यावहारिक समय की मौजूदगी से इन्कार नहीं किया जा सकता।  क्योंकि ऐसी अनेकानेक वस्तुएं हैं जिनके होने की क्रिया से हमारा सीधा परिचय नहीं है।  इसके बावजूद हम उनके होने को स्वीकार करते हैं, जैसे अंतरिक्ष। 

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