शनिवार, 5 जून 2021

*गुप्त वैष्णवीमुद्रा* श्री रामकृष्ण दोहावली (39)~* भक्तों की सांसारिक परिस्थिति ~संग सदा श्री कृष्ण रहे , पाण्डव दुःख न जाये *

श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(39)

* भक्तों की सांसारिक परिस्थिति *

350 प्रभु लीला अनन्त है , मनवा समझ न पाए। 
666 संग सदा श्री कृष्ण रहे , पाण्डव दुःख न जाये। 

शरशैय्या पर पड़े पितामह भीष्म की आँखों में देहत्याग के समय आँसू आते देखकर अर्जुन ने श्रीकृष्ण से पूछा , " सखे , कितना आश्चर्य है ! स्वयं पितामह , जो सत्यवादी , जितेन्द्रिय और ज्ञानी हैं , जो अष्टवसुओं में से एक हैं , वे भी देह को त्यागते समय माया के कारण रो रहे हैं। श्रीकृष्ण ने जब यह बात भीष्म से कही , तो वे बोले , 

              " कृष्ण , तुम अच्छीतरह जानते हो कि मैं देह के लिए नहीं रो रहा हूँ , मैं तो इसलिए रो रहा हूँ कि भगवान की लीला कुछ समझ नहीं पाया। जिनका नाम मात्र जपने से लोग विपदाओं से तर जाते हैं , वे भगवान मधुसूदन स्वयं पाण्डवों के सखा और सारथि के रूप में विद्यमान होते हुए भी पाण्डवों की विपत्तियों का अन्त नहीं है ! " 

*भगवान कैसे प्रकट होते हैं *

351 जस जस जावहि निकट नर , परमात्मा के पास। 
668 तस प्रगटहिं भाव बहु , मिलतहि एक प्रकाश।।

उस विराट पुरुष के जो जितने निकट आता है , उसे उसके उतने ही नए नए भाव दिखाई देते हैं , अंत में वह उसका पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर उसके साथ मिलकर एक हो जाता है।  



* वैष्णवी मुद्रा *

अन्तर्लक्ष्यं बहिर्दृष्टिर्निमेषोन्मेषवर्जिता। 
एषा सा वैष्णवी मुद्रा सर्वतन्त्रेषु गोपिता ॥ 
( शाण्डिल्योपनिषद् 1.14)
 
बाहर की ओर निर्निमेष दृष्टि (निमेष-उन्मेष) अर्थात् पलक झपकने से विहीन या स्थिर दृष्टि हो , और भीतर की तरफ लक्ष्य हो, उसको सब तंत्रों में गुप्त वैष्णवीमुद्रा कहते हैं, जिससे ब्रह्म का साक्षात्कार होता है ।
{https://upanishads.org.in/otherupanishads/32/1/7/20}

*भगवान धन की परवाह नहीं करते * 

352 भगवन को नहीं चाहिए , धन, ऐश्वर्य  , विधि नेम।
669 चाहत विवेक विराग नर , भाव भगति अरु प्रेम।।

क्या भगवान धन ऐश्वर्य के वश में हैं ? नहीं, वे तो भक्ति के वश में हैं। वे रुपया नहीं चाहते -भाव, भक्ति , प्रेम , विवेक , वैराग्य यही सब चाहते हैं।  

353 धन दौलत प्रिय जीव को , प्रभुहि माटी समान। 
670 भेंट भेंट धन हे मनवा , काहे करत गुमान।।  

एकबार शम्भु मल्लिक ने मुझसे कहा था , " अब तो यही आशीर्वाद दीजिये कि जिससे यह सारा ऐश्वर्य जगदम्बा के पदपद्मों में अर्पण करके मर सकूँ। " 
मैंने कहा , " यह तुम क्या कहते हो ! यह तुम्हारी दृष्टि में ही ऐश्वर्य है, जगदम्बा के लिए तो यह सब धूल और मिट्टी के बराबर है। 
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रहता दीपक रतन का, नारी नाग न मंद ।
विषय वायु जो ना बुझे, कलि अजरावर१ कंद२ ॥२५॥

जैसे रत्न-दीपक नाग-नागिन की फूंकार वा वायु से नहीं बुझता । वैसे ही चरित्रवान (या शीलव्रत से युक्त) व्यक्ति विषयासक्ति के कारण नारी के अधीन नहीं होता । ऐसे व्यक्ति को कलियुग में भी, 'अजरावर १ ' अर्थात  देवताओं से श्रेष्ठ कहा जाता है , और वह 'कंद २ ' अर्थात विश्व के मूल ब्रह्म को ही प्राप्त होता है ।
अहि (सर्प) अबला (नारी) देखत बुझे, अग्नि दीप आदम्म (मनुष्य) ।
तहां हीरा हरिजन अबुझ, नैनों दैखैं हम्म ॥२८॥

सर्प के देखते ही अर्थात सर्प की फूंकार से अग्नि दीपक बुझ जाता है,  वैसे ही नारी को कामुक दृष्टि से देखते ही मनुष्य तेज हीन हो जाता है।  किंतु सर्प की फूंकार के सामने यदि हीरा रूपी दीपक हो तो नहीं बुझता । वैसे ही किसी सच्चे हरिभक्त का तेज नारी को देखने से कभी क्षीण नहीं होता यह हम नेत्रों से देखते हैं ।
साभार https://aneela-daduji.blogspot.com/2021/08/}
{अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषोऽन्तरात्मा सदा जनानां हृदये सन्निविष्टः।
हृदा मन्वीशो मनसाभिक्लृप्तो य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति॥ -(श्वेताश्वतरोपनिषद 3.13)  
अनन्त पुरुष अंगुष्ठमात्र आकार में बुद्धि, भावना, कल्पना तथा संकल्प के द्वारा सभी प्राणियों के हृदय में उनकी अन्तरात्मा के रूप में निवास करता है। जो इस सत्य  (परमेश्वर =माँ काली) को अनुभव कर लेते हैं वे अमृतत्व प्राप्त कर लेते हैं।
अर्थात जिस राजयोगी का लक्ष्य अन्तःकरण में निहित हो, तथा बाह्य की दृष्टि निमेष-उन्मेष अर्थात् पलक झपकने से विहीन हो, यही वैष्णवी मुद्रा है।  तथा इसे ही समस्त तन्त्र-शास्त्रों में, उस गुप्त रहस्य के रूप में मान्यता प्राप्त है, जिससे ब्रह्म का साक्षात्कार होता है ॥
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