श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर
(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली )
(61)
*ईश्वर की सर्वव्यापकता *
(the omnipresence of God ~ एक राम घट घट में लेटा )
464 सब के भीतर हरि रहे , पर नहिं जानत कोय।
889 एहि ते पावत दुःख बहु , जान करम गति रोय।।
ईश्वर सब के भीतर है , परन्तु सब जन ईश्वर के भीतर नहीं हैं , इसलिए उन्हें इतना दुःख भोगना पड़ता है।
प्रश्न -ईश्वर देह में किस तरह रहते हैं ?
उत्तर - जिस प्रकार पिचकारी की छड़ पिचकारी में अछूती रहती है , उसी प्रकार ईश्वर भी देह में निर्लिप्त होकर रहते हैं।
*ईश्वर तथा मनुष्य का नैतिक दायित्व *
[ Moral responsibility of God and man ]
466 जग करता जग नाथ है , हम तो उन्ह के लाल।
896 अस मति जिन्हका दृढ़ है , पड़त न पैर बेताल।।
467 जब अस मति हिय दृढ़ हो , हरि करता नहिं हम।
896 पड़े न पैर बेताल है , करे न पाप करम।।
प्रश्न - यदि ईश्वर ही सब कुछ करवा रहे हैं , तो मेरे पापों के लिए मैं जवाबदार नहीं !
उत्तर - दुर्योधन ने ऐसा ही कहा था , " त्वया हृषिकेश त्वया हृषिकेश हृदि स्थितेन यथा नियुक्त: अस्मि तथा करोमि॥" * परन्तु जिसमें यथार्थ विश्वास है कि ' ईश्वर ही कर्ता हैं , मैं अकर्ता , यंत्र स्वरूप हूँ ' उसके द्वारा कभी पाप कर्म नहीं हो सकता। जो ठीक नाचना जानता है , उसके पैर कभी बेताल नहीं पड़ते। चित्त शुद्ध हुए बिना तो 'ईश्वर है ' इसी पर विश्वास नहीं होता।
* जानामि धर्मम् न च मे प्रवृत्ति:
जानामि अधर्मम् न च मे निवृत्ति:।
त्वया हृषिकेश हृदि स्थितेन
यथा नियुक्त: अस्मि तथा करोमि॥
-प्रपन्नगीता
‘मैं धर्म को जानता हूँ, पर उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं होती और अधर्म को भी जानता हूँ, पर उसमें मेरी निवृत्ति नहीं होती | मेरे हृदय में स्थित कोई देव है, जो मुझसे जैसा करवाता है, वैसा ही मैं करता हूँ |’ दुर्योधन हृदय में स्थित जिस देव की बात कहता है, वह वास्तव में ‘कामना’ (ऐषणा ?) ही है |
[I know what is dharma, yet I can't get myself to follow it. I know what is adharma, yet I can't retire from it. O Lord of senses! You dwell in my heart and I will do as You impel me to do.]
465 जब तक हरि दरसन नहिं , मिट्यो न अहम ज्ञान।
895 पाप पुण्य तब तक रहे , भला बुरा के भान।।
प्रश्न - यदि ईश्वर स्वयं ही सब कुछ बने हैं , तब क्या पाप -पुण्य नहीं हैं ?
उत्तर - हैं भी और नहीं भी हैं। वे जब तक हममें अहंभाव रख देते हैं , तब तक भेदबिद्धि भी रख देते हैं, पाप-पुण्य का बोध भी रख देते हैं।
वे एक- दो जनों का अहंकार बिल्कुल मिटा डालते हैं -ऐसे लोग पाप -पुण्य , भले-बुरे के पार चले जाते हैं।
जब तक ईश्वर के दर्शन न हो जाएँ तब तक भेदबुद्धि , भले-बुरे का ज्ञान अवश्य ही रहेगा। तुम मुंह कह सकते हो , ' मेरे लिए पाप-पुण्य समान हो गए हैं , वे जैसा करवा रहे हैं , वैसा ही मैं कर रहा हूँ। ' परन्तु हृदय के भीतर तुम जानते हो कि ये सब निरी बातें हैं। कोई बुरा काम किया कि मन में धक -धक शुरू हो जाती है। (अर्थात शरीर में रहते हुए अहं कभी नहीं जाता है !)
468 ईश्वर ही करता जगत के , करे सकल जग काम।
898 चोर से चोरी करावहिं , भक्त से सीता राम।।
ईश्वर चोर को चोरी करने के लिए कहते हैं , और गृहस्थ को सावधान होने। अर्थात ईश्वर सभी कुछ करते हैं।
[अर्थात शरीर में रहते हुए अहं कभी नहीं जाता है ! (That is, the ego never goes away while living in the body! केवल माँ काली के भक्त अपने व्यष्टि अहं को माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट 'अहं' -बोध रूपांतरित कर लेते हैं ?]
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