बुधवार, 31 जनवरी 2024

🔱🙏*परिच्छेद 126~भक्ति, विवेक-वैराग्य तथा पाण्डित्य*🔱🙏न योत्स्ये [( 26 अक्टूबर, 1885)- श्री रामकृष्ण वचनामृत-126 ]

    [( 26 अक्टूबर, 1885)- श्री रामकृष्ण वचनामृत-126 ]

(1)

🙂श्रीरामकृष्ण तथा शिष्य-प्रेम🙂

आज आश्विन की कृष्ण तृतीया है, सोमवार, 26 अक्टूबर,1885 । श्रीरामकृष्णदेव की चिकित्सा डाक्टर सरकार उसी श्यामपुकुर के घर में कर रहे हैं । रोज आते हैं । आदमी भी संवाद लेकर रोज जाता है । शरद ऋतु है । कुछ दिन हुए, शारदीय पूजा हो गयी है । श्रीरामकृष्ण की शिष्यमण्डली को हर्ष और विषाद में वह समय बिताना पड़ा था । 

श्रीरामकृष्ण की पीड़ा तीव्र है । डाक्टर सरकार ने सूचित किया है कि रोग असाध्य हैशिष्यों को तब से हार्दिक दुःख है । वे सदा ही चिन्तित और व्याकुल रहा करते हैं

Monday, October 26, 1885/IT WAS ABOUT TEN O'CLOCK in the morning when M. arrived at the Syampukur house on his way to Dr. Sarkar to report the Master's condition. Dr. Sarkar had declared the illness incurable. His words cast a gloom over the minds of the Master's devotees and disciples. 

পরদিন আশ্বিনের কৃষ্ণা তৃতীয়া তিথি, সোমবার, ১১ই কার্তিক — ২৬শে অক্টোবর, ১৮৮৫। শ্রীশ্রীপরমহংসদেব কলিকাতায় ওই শ্যামপুকুরের বাটীতে চিকিৎসার্থ রহিয়াছেন। ডাক্তার সরকার চিকিৎসা করিতেছেন। প্রায় প্রত্যহ আসেন, আর তাঁহার নিকট পীড়ার সংবাদ লইয়া লোক সর্বদা যাতায়াত করে।

শরৎকাল। কয়েকদিন হইল শারদীয়া দুর্গাপূজা হইয়া গিয়াছে। এ মহোৎসব শ্রীরামকৃষ্ণের শিষ্যমণ্ডলী হর্ষ-বিষাদে অতিবাহিত করিয়াছেন। তিন মাস ধরিয়া গুরুদেবের কঠিন পীড়া — কণ্ঠদেশে — ক্যান্সার। সরকার ইত্যদি ডাক্তার ইঙ্গিত করিয়াছেন, পীড়া চিকিৎসার অসাধ্য। বেলা দশটার সময় ডাক্তারকে সংবাদ দিবার জন্য মাস্টার যাইবেন, তাই ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণের সহিত কথাবার্তা হইতেছে।

कुमार-अवस्था से ही वैराग्ययुक्त उनके नरेन्द्र आदि शिष्यगण अभी कामिनी और कांचन के त्याग की शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं । इतनी पीड़ा है फिर भी दल के दल आदमी श्रीरामकृष्ण के पास आते रहते हैं । उनके पास आते ही उन्हें आनन्द मिलता है । वे समागत मनुष्यों की मंगल-कामना करते हुए, अपनी असाध्य व्याधि को भूलकर उन्हें शिक्षा और उपदेश देते हैं ।

হতভাগ্য শিষ্যেরা এ-কথা শুনিয়া একান্তে নীরবে অশ্রু বিসর্জন করেন। এক্ষণে এই শ্যামপুকুরের বাটীতে আছেন। শিষ্যরা প্রাণপণে শ্রীরামকৃষ্ণের সেবা করিতেছেন। নরেন্দ্রাদি কৌমারবৈরাগ্যযুক্ত শিষ্যগণ এই মহতী সেবা উপলক্ষে কামিনী-কাঞ্চন-ত্যাগপ্রদর্শী সোপান আরোহণ করিতে সবে শিখিতেছেন।

डाक्टरों ने, विशेषतः डाक्टर सरकार ने, बातचीत करने के लिए मना कर दिया है । परन्तु डाक्टर सरकार खुद छः-सात घण्टे तक रहते हैं । वे कहते हैं, 'किसी दूसरे के साथ बातचीत नहीं करने पाओगे, बस हमारे साथ किया करो ।'

श्रीरामकृष्ण की बातें सुनते-सुनते डाक्टर एकदम मुग्ध हो जाते हैं । इसीलिए वे इतनी देर तक बैठे रहते हैं । 

এত পীড়া কিন্তু দলে দলে লোক দর্শন করিতে আসিতেছেন — শ্রীরামকৃষ্ণের কাছে আসিলেই শান্তি ও আনন্দ হয়। অহেতুক-কৃপাসিন্ধু! দয়ার ইয়ত্তা নাই — সকলের সঙ্গেই কথা কহিতেছেন, কিসে তাহাদের মঙ্গল হয়। শেষে ডাক্তারেরা, বিশেষতঃ ডাক্তার সরকার, কথা কহিতে একেবারে নিষেধ করিলেন। কিন্তু ডাক্তার নিজে ৬।৭ ঘণ্টা করিয়া থাকেন। তিনি বলেন, “আর কাহারও সহিত কথা কওয়া হবে না, কেবল আমার সঙ্গে কথা কইবে।”

শ্রীরামকৃষ্ণের কথামৃত পান করিয়া ডাক্তার একেবারে মুগ্ধ হইয়া যান। তাই এতক্ষণ ধরিয়া বসিয়া থাকেন।

With unflagging devotion and zeal they nursed the patient — their teacher, guide, philosopher, and friend. A band of young disciples, led by Narendra, was preparing to renounce the world and dedicate their lives to the realization of God and the service of humanity. People flocked to the Master day and night. Despite the excruciating pain in his throat, he welcomed them all with a cheerful face. There seemed to be no limit to his solicitude for their welfare. His face beamed as he talked to them about God. Dr. Sarkar, seeing that conversation aggravated the illness, forbade him to talk to people. "You must not talk to others," the physician had said to the Master, "but you may make an exception in my case." The doctor used to spend six or seven hours in Sri Ramakrishna's company, drinking in every word that fell from his lips.

श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - बीमारी बहुत कुछ अच्छी-सी हो गयी है, इस समय तबीयत खूब अच्छी है । अच्छा, तो क्या दवा से ऐसा हुआ है ? तो इसी दवा का सेवन क्यों न किया जाय ?

MASTER: "I am feeling much relieved. I am very well today. Is it because of the medicine? Then why shouldn't I continue it?"

শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — অসুখটা খুব হাল্কা হয়েছে। খুব ভাল আছি। আচ্ছা, তবে ঔষধে কি এরূপ হয়েছে? তাহলে ওই ঔষধটা খাই না কেন?

मास्टर - मैं डाक्टर के पास जा रहा हूँ, उनसे सब हाल कह दूँगा । वे जो कुछ अच्छा सोचेंगे, कहेंगे ।

M: "I am going to the doctor. I shall tell him everything. He will advise what is best."

মাস্টার — আমি ডাক্তারের কাছে যাচ্ছি, তাঁকে সব বলব; তিনি যা ভাল হয় তাই বলবেন।

श्रीरामकृष्ण - देखो, दो-तीन दिन से पूर्ण नहीं आया । मन में न जाने कैसा हो रहा है ।

MASTER: "I haven't seen Purna for two or three days. I am worried about him."

শ্রীরামকৃষ্ণ — দেখ, পূর্ণ১ দুই-তিনদিন আসে নাই, বড় মন কেমন কচ্ছে।

मास्टर – कालीबाबू, तुम जाओ न जरा पूर्ण को बुलाने ।

M. (to Kali): "Why don't you see Purna and ask him to come?"

মাস্টার — কালীবাবু, তুমি যাও না পূর্ণকে ডাকতে।

काली - अभी जाता हूँ ।

KALI: "I shall go immediately."

पूर्ण की उम्र १४-१५ साल की होगी ।

श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - डाक्टर का लड़का अच्छा है । जरा एक बार आने के लिए कहना ।

MASTER (to M.): "The doctor's son is a nice boy. Please ask him to come."

(२)

    [( 26 अक्टूबर, 1885)- श्री रामकृष्ण वचनामृत-126 ]

🙂मास्टर तथा डाक्टर का सम्भाषण🙂

মাস্টার ও ডাক্তার সংবাদ

डाक्टर के घर पर पहुँचकर मास्टर ने देखा, डाक्टर दो-एक मित्रों के साथ बैठे हुए हैं । 

M. arrived at Dr. Sarkar's house and found him with two or three friends.

মাস্টার ডাক্তারের বাড়ি উপস্থিত হইয়া দেখিলেন, ডাক্তার দুই-একজন বন্ধু সঙ্গে বসিয়া আছেন।

डाक्टर (मास्टर से) - अभी मिनट भर हुआ होगा, मैं तुम्हारी ही बातें कर रहा था । दस बजे आने के लिए तुमने कहा था, मैं डेढ़ घण्टे से बैठा हुआ हूँ । कैसे हैं, क्या हुआ, इसी सोच में पड़ा था । (मित्र से) अजी, जरा वही गाना गाओ तो ।

मित्र गा रहे हैं –

करो तांर नाम गान, जतो दिन देहे रहे प्राण। 

जाँर महिमा ज्वलन्त ज्योतिः, जगत करे हे आलो ; 

स्रोत बहे प्रेमपियूष-वारी, सकल जीव सुखकारी हे।  

करुणा स्मारिये तनु होय पुलकित वाक्य बोलिते कि पारी। 

जार प्रसादे एक मुहूर्ते सकल शोक अपसारी हे।  

उच्चे निचे देश देशान्ते, जलगर्भे कि आकाशे; 

अन्त कोथा तांर, अन्त कोथा तांर, एई सबे सदा जिज्ञासे हे। 

चेतन निकेतन परश रतन सेई नयन अनिमेष , 

निरंजन सेई, जांर दर्शने, नाहि रहे दुःख लेश हे।   

मित्र गा रहे हैं –

गाना - देह में जब तक प्राण हैं तब तक उनके नाम और गुणों का कीर्तन करते रहो । उनकी महिमा एक ज्वलन्त ज्योति है - संसार को प्रकाशित करने वाली । सकल जीवों को सुख देनेवाला प्रेमामृत-प्रवाह बह रहा है । उनकी अपार करुणा का स्मरण कर शरीर पुलकित हो जाता है । वाणी क्या कभी उनकी थाह पा सकती है ? उनकी कृपा से पल भर में समस्त शोक दूर हो जाते हैं । मनुष्य उन्हें सर्वत्र - ऊपर, नीचे, देश-देशान्तर, जल-गर्भ, आकाश में-अक्लान्त ढूँढ़ते रहते हैं, और अनवरत जिज्ञासा करते रहते हैं, ‘उनका अन्त कहाँ है, उनकी सीमा कहाँ तक है ?’ वे चेतन-निकेतन हैं, पारस-मणि हैं, सदा जाग्रत और निरंजन हैं । उनके दर्शन से दुःख का लेशमात्र भी नहीं रह जाता । 

DOCTOR (to M.): "I was talking about you just a minute ago. You said you would come at ten; I have been waiting for you an hour and a half. Your delay has made me worry about him [meaning Sri Ramakrishna].

(To a friend) "Please sing that song."

The friend sang: Proclaim the glory of God's name as long as life remains in you; The dazzling splendor of His radiance Hoods the universe! Like nectar streams His boundless love, filling the hearts of men with joy: The very thought of His compassion sends a thrill through every limb! How can one fittingly describe Him? Through His abounding grace The bitter sorrows of this life are all forgotten instantly. On every side — on land below, in the sky above, beneath the seas: In every region of this earth — men seek Him tirelessly, And as they seek Him, ever ask: Where is His limit, where is His end? True Wisdom's dwelling place is He, the Elixir of Eternal Life, The Sleepless, Ever-wakeful Eye, the Pure and Stainless One: The vision of His face removes all trace of sorrow from our hearts. 

ডাক্তার (মাস্টারের প্রতি) — এই একমিনিট হল তোমার কথা কচ্ছিলাম। দশটায় আসবে বললে, দেড় ঘণ্টা বসে। ভাবলুম, কেমন আছেন, কি হল। (বন্ধুকে) ‘ওহে সেই গানটা গাও তো’।

বন্ধু গাহিতেছেন:

কর তাঁর নাম গান, যতদিন দেহে রহে প্রাণ।

যাঁর মহিমা জ্বলন্ত জ্যোতিঃ, জগৎ করে হে আলো;

স্রোত বহে প্রেমপীযূষ-বারি, সকল জীব সূখকারী হে।

করুণা স্মরিয়ে তনু হয় পুলকিত বাক্যে বলিতে কি পারি।

যাঁর প্রসাদে এক মুহূর্তে সকল শোক অপসারি হে।

উচ্চে নিচে দেশ দেশান্তে, জলগর্ভে, কি আকাশে;

অন্ত কোথা তাঁর, অন্ত কোথা তাঁর, এই সবে সদা জিজ্ঞাসে হে।

চেতন নিকেতন পরশ রতন সেই নয়ন অনিমেষ,

নিরঞ্জন সেই, যাঁর দরশনে, নাহি রহে দুঃখ লেশ হে।

डाक्टर (मास्टर से) - गाना बहुत अच्छा है, है न ? विशेषतः उस जगह, जहाँ यह है - "लोक अनवरत जिज्ञासा करते रहते हैं, 'उनका अन्त कहाँ है, उनकी सीमा कहाँ तक है ?’”

DOCTOR (to M.): "Isn't it a beautiful song? How do you like that line, 'Where is His limit, where His end?'"

ডাক্তার (মাস্টারকে) — গানটি খুব ভাল, — নয়? ওইখানটি কেমন? ‘অন্ত কোথা তাঁর, অন্ত কোথা তাঁর, এই সবে সদা জিজ্ঞাসে।’

मास्टर - हाँ, वह भाग बड़ा सुन्दर है, अनन्त के खूब भाव हैं ।

M: "Yes, that's a very fine line. It fills the mind with the idea of the Infinite."

মাস্টার — হাঁ, ও-খানটি বড় চমৎকার! খুব অনন্তের ভাব।

डाक्टर - (सस्नेह) - दिन बहुत चढ़ गया । तुमने भोजन किया या नहीं ? मैं दस बजे के भीतर भोजन कर लेता हूँ, फिर डाक्टरी करने निकलता हूँ । बिना खाये अगर निकल जाता हूँ, तो तबीयत खराब हो जाती है । एक दिन तुम लोगों को भोजन कराने की बात सोच रहा हूँ ।

DOCTOR (tenderly, to M.): "It is already late in the morning. Have you taken your lunch? I finish mine before ten and begin my professional calls; otherwise, I don't feel well. Look here, I have been thinking of giving a feast to you all [meaning Sri Ramakrishna's devotees] one day."

ডাক্তার (সস্নেহে) — অনেক বেলা হয়েছে, তুমি খেয়েছো তো? আমার দশটার মধ্যে খাওয়া হয়ে যায়, তারপর আমি ডাক্তারী করতে বেরুই। না খেয়ে বেরুলে অসুখ করে। ওহে, একদিন তোমাদের খাওয়াব মনে করেছি।

मास्टर - यह तो बड़ी अच्छी बात है ।

M: "That will be fine, sir."

মাস্টার — তা বেশ তো, মহাশয়।

डाक्टर - अच्छा, यहाँ या वहाँ ? तुम लोग जैसा कहो ।

DOCTOR: "Where shall I arrange it? Here or at the Syampukur house? Whatever you suggest."

ডাক্তার — আচ্ছা, এখানে না সেখানে? তোমরা যা বল। —

मास्टर – महाशय, यहाँ हो चाहे वहाँ; सब लोग आनन्द से भोजन करेंगे ।

M: "It doesn't matter, sir. We shall be delighted to dine with you wherever you arrange it."

মাস্টার — মহাশয়, এইখানেই হোক, আর সেইখানেই হোক, সকলে আহ্লাদ করে খাব।

अब जगन्माता काली की बात चलने लगी ।

The conversation turned to Kali, the Divine Mother.

এইবার মা কালীর কথা হইতেছে।

डाक्टर - काली तो एक भीलनी थी । (मास्टर हँसते हैं) 

DOCTOR: "Kali is an old hag of the Santhals."

ডাক্তার — কালী তো একজন সাঁওতালী মাগী। (মাস্টারের উচ্চহাস্য)

मास्टर - यह बात कहाँ लिखी है ?

M. burst into loud laughter and said, "Where did you get that?"

মাস্টার — ও-কথা কোথায় আছে?

डाक्टर - मैंने ऐसा ही सुना है । (मास्टर हँसते हैं) 

DOCTOR: "Oh, I have heard something like that." (M. laughs.)

ডাক্তার — শুনেছি এইরকম। (মাস্টারের হাস্য)

पिछले दिन विजयकृष्ण और दूसरे भक्तों को भावसमाधि (ecstasy) हुई थी । उस समय डाक्टर भी थे । वही बात हो रही है ।

They began to talk about the ecstasy that Vijay and the others had experienced the previous day in the Master's room. The doctor also had been present on the occasion.

পূর্বদিন শ্রীযুক্ত বিজয়কৃষ্ণ ও অন্যান্য ভক্তের ভাবসমাধি হইয়াছিল। ডাক্তারও উপস্থিত ছিলেন। সেই কথা হইতেছে।

डाक्टर - भावावेश तो मैंने देखा । पर क्या अधिक भावावेश होना अच्छा है ?

DOCTOR: "Yes, I witnessed that ecstasy. But is excessive ecstasy good for one?"

ডাক্তার — ভাব তো দেখলুম। বেশি ভাব কি ভাল?

मास्टर - श्रीरामकृष्णदेव कहते हैं, ईश्वर की चिन्ता करके जो भावावेश होता है, उसके अधिक होने पर कोई हानि नहीं होती । वे कहते हैं, मणि की ज्योति से जो उजाला होता है उससे शरीर स्निग्ध हो जाता है, जलता नहीं ।

M: "The Master says that an excess of ecstasy harms no one, if it is the result of the contemplation of God. He further says that the lustre of a gem gives light and soothes the body; it does not burn."

মাস্টার — পরমহংসদেব বলে যে, ঈশ্বরচিন্তা করে যে ভাব হয় তা বেশি হলে কোন ক্ষতি হয় না। তিনি বলেন যে মণির জ্যোতিতে আলো হয় আর শরীর স্নিগ্ধ হয়, কিন্তু গা পুড়ে যায় না!

डाक्टर - मणि की ज्योति; वह तो प्रतिबिम्बित ज्योति (Reflected light) है ।

DOCTOR: "Oh, the lustre of a gem! That's only a reflected light."

ডাক্তার — মণির জ্যোতিঃ; ও যে Reflected light!

मास्टर - वे और भी कहते हैं कि अमृत-सरोवर में डूबने से कोई मरता नहीं । ईश्वर अमृत-सरोवर हैं, उनमें डूबने से आदमी का अनिष्ट नहीं होता, वरन् वह अमर हो जाता है; परन्तु तभी, अगर ईश्वर पर विश्वास हो ।

M: "He also says that a man does not die by sinking in the Lake of Immortality. God is that Lake. A plunge in that Lake does not injure a man; on the contrary it makes him immortal. Of course, he will become immortal only if he has faith in God."

মাস্টার — তিনি আরও বলেন, অমৃতসরোবরে ডুবলে মানুষ মরে যায় না। ঈশ্বর অমৃতের সরোবর। তাঁতে ডুবলে মানুষের অনিষ্ট হয় না; বরং মানুষ অমর হয়। অবশ্য যদি ঈশ্বরে বিশ্বাস থাকে।

डाक्टर - हाँ, यह बात ठीक है ।

DOCTOR: "Yes, that is true."

ডাক্তার — হাঁ, তা বটে।

    [( 26 अक्टूबर, 1885)- श्री रामकृष्ण वचनामृत-126 ]

🙂महिमा चक्रवर्ती (नवनीदा का जन्म जिनके घर में हुआ ?) के अहंकार की बात🙂 

डाक्टर गाड़ी में बैठे, दो-चार रोगियों को देखकर श्रीरामकृष्णदेव को देखने जायेंगे । रास्ते में फिर मास्टर के साथ बातचीत होने लगी । 'चक्रवर्ती के अहंकार' की बात डाक्टर ने चलायी ।

The doctor took M. in his carriage. He had to see a few patients on the way to Syampukur. They continued their conversation in the carriage. Dr. Sarkar referred to Mahima Chakravarty's pride.

ডাক্তার গাড়িতে উঠিলেন, দু-চারিটি রোগী দেখিয়া পরমহংসদেবকে দেখিতে যাইবেন। পথে আবার মাস্টারের সঙ্গে কথা হইতে লাগিল। ‘চক্রবর্তীর অহংকার’ ডাক্তার এই কথা তুলিলেন।

मास्टर - श्रीरामकृष्णदेव के पास वे आया-जाया करते हैं । अहंकार अगर उनमें हो भी, तो कुछ दिनों में न रह जायगा । श्रीरामकृष्णदेव के पास बैठने से जीवों का अहंकार दूर हो जाता है, क्योंकि उनमें स्वयं में अहंकार नहीं है । नम्रता रहने से अहंकार नहीं रह सकता

M: "He visits the Master. Even if he has a little pride, it will not last long. If one only sits in the Master's presence awhile, one's pride crumbles to pieces. It is because the Master himself is totally free from egotism. Pride cannot exist in the presence of humility.

মাস্টার — পরমহংসদেবের কাছে তাঁর যাওয়া-আসা আছে। অহংকার যদি থাকে, কিছুদিনের মধ্যে আর থাকবে না। তাঁর কাছে বসলে জীবের অহংকার পলায়ন করে অহংকার চূর্ণ হয়। ওখানে অহংকার নাই কি না, তাই। নিরহংকারের নিকট আসলে অহংকার পালিয়ে খায়

विद्यासागर महाशय इतने बड़े आदमी हैं, फिर भी उन्होंने उस समय विनय और नम्रता प्रदर्शित की जब श्रीरामकृष्णदेव उन्हें देखने गये थे - उनके बादुड़बागान वाले मकान में । जब वहाँ से बिदा हुए तब रात के नौ बजे का समय था । विद्यासागर महाशय लाइब्रेरीवाले कमरे से बराबर साथ-साथ हाथ में बत्ती लिये हुए उन्हें गाड़ी पर चढ़ा गये थे, और बिदा होते समय हाथ जोड़े हुए थे

 A celebrated man like Pundit Iswar Chandra Vidyasagar showed great modesty and humility in the Master's presence. The Paramahamsa visited his house; it was nine o'clock in the evening when the Master took his leave. Vidyasagar came all the way from the library to the gate of his compound to see him off. He himself carried the light to show the way. As the Master's carriage started off, Vidyasagar stood there with folded hands."

 দেখুন, বিদ্যাসাগর মহাশয় অত বড়লোক, কত বিনয় আর নম্রতা দেখিয়েছেন। পরমহংসদেব তাঁকে দেখতে গিয়েছিলেন, বাদুড়বাগানের বাড়িতে। যখন বিদায় লন, রাত তখন ৯টা। বিদ্যাসাগর লাইব্রেরীঘর থেকে বরাবর সঙ্গে সঙ্গে, নিজে এক-একবার বাতি ধরে, এসে গাড়িতে তুলে দিলেন; আর বিদায়ের সময় হাতজোড় করে রহিলেন।

डाक्टर - अच्छा इनके (श्रीरामकृष्ण के) सम्बन्ध में विद्यासागर महाशय का क्या मत है ?

DOCTOR: "Well, what does Vidyasagar think of him?"

ডাক্তার — আচ্ছা, এঁর বিষয় বিদ্যাসাগর মহাশয়ের কি মত?

मास्टर - उस दिन बड़ी भक्ति की थी, परन्तु बातचीत करके मैंने देखा, वैष्णवगण जिसे भाव कहते हैं, इस तरह की बातें उन्हें पसन्द नहीं, - जैसा आपका मत है ।

M: "That day he showed the Master great respect. But when I talked with him later, I found out that he didn't much care for what the Vaishnavas call emotion or ecstasy. He shares your views on such things."

মাস্টার — সেদিন খুব ভক্তি করেছিলেন। তবে কথা কয়ে দেখেছি, বৈষ্ণবেরা যাকে ভাব-টাব বলে, সে বড় ভালবাসেন না। আপনার মতের মতো।

    [( 26 अक्टूबर, 1885)- श्री रामकृष्ण वचनामृत-126 ]

"डॉक्टर हैं गहरा तालाब जैसे गम्भीर आत्मा उनमें महिमा जी वाला अहंकार नहीं है"  

डाक्टर - हाथ जोड़ना, पैरों पर सिर रखना यह सब मुझे पसन्द नहीं । सिर जो कुछ है, पैर भी वही है । परन्तु जिसे यह ज्ञान है कि सिर कुछ है और पैर कुछ, वह ऐसा कर सकता है ।

DOCTOR: "Neither do I care very much for any such display of emotion as folding one's hands or touching others' feet with one's head. To me the head is the same as the feet. But if a man thinks differently of the feet, let him do whatever he likes."

ডাক্তার — হাতজোড় করা, পায়ে মাথা দেওয়া, আমি ও-সব ভালবাসি না। মাথাও যা, পাও তা। তবে যার পা অন্য জ্ঞান আছে, সে করুক

मास्टर - आपको भाव पसन्द नहीं है । श्रीरामकृष्णदेव आपको कभी कभी गम्भीरात्मा कहा करते हैं, आपको शायद याद हो । उन्होंने कल आपके लिए कहा था, 'छोटीसी गड़ही में हाथी उतर जाता है तो पानी में उथलपुथल मच जाती है, परन्तु बड़े सरोवर में कहीं कुछ नहीं होता ।' गम्भीरात्मा के भीतर भाव-हाथी के उतरने पर उसका कहीं कुछ नहीं होता । वे कहते हैं, आप गम्भीरात्मा हैं ।

M: "We know that you do not care for a display of feelings. Perhaps you remember that the Master now and then refers to you as a 'deep soul'. He said to you yesterday that when an elephant plunges into a small pool it makes a big splash, but when it goes into a big lake you see hardly a ripple. The elephant of emotion cannot produce any effect at all in a deep soul. The Master says that you are a 'deep soul'."

মাস্টার — আপনি ভাব-টাব ভালবাসেন না। পরমহংসদেব আপনাকে ‘গম্ভীরাত্মা’ মাঝে মাঝে বলেন, বোধ হয় মনে আছে। তিই কাল আপনাকে বলেছিলেন যে, ডোবাতে হাতি নামলে জল তোলপাড় হয়, কিন্তু সায়ের দীঘি বড়, তাতে হাতি নামলে জল নড়েও না। গম্ভীরাত্মার ভিতর ভাবহস্তী নামলে তার কিছু করতে পারে না। তিনি বলেন, আপনি ‘গম্ভীরাত্মা’।

डाक्टर - मैं किसी तरह की प्रशंसा (नाम-यश) नहीं चाहता । आखिर भाव और है क्या ? यह - केवल एक प्रकार की ‘feelings’ है । इसी प्रकार की अन्य ‘feelings’ भी होती हैं, उदाहरणार्थ 'भक्ति' । जब यह अत्यधिक हो जाती है तो कोई तो उसे दबाकर रख सकता है, और कोई नहीं

DOCTOR: "I don't deserve the compliment. After all, what is bhava? It is only a feeling. There are other aspects of feeling, such as bhakti. When it runs to excess, some can suppress it and some cannot."

ডাক্তার — I don't deserve the Compliment, ভাব আর কি? feelings; ভক্তি, আর অন্যান্য feelings — বেশি হলে কেউ চাপতে পারে, কেউ পারে না।

मास्टर - 'भाव' का अर्थ कोई एक तरह से समझाता है, और कोई समझा ही नहीं सकता । परन्तु महाशय, यह बात तो माननी ही होगी कि भाव और भक्ति ये अपूर्व वस्तुएँ हैं । मैंने आपके पुस्तकालय में डारविन के सिद्धान्तों पर लिखी हुई स्टेबिंग की एक पुस्तक देखी है ।

M: "Divine ecstasy may or may not be explainable; but, sir, it cannot be denied that ecstasy, or love of God, is a unique thing. I have seen in your library Stebbing's book on Darwinism. 

মাস্টার — Explanation কেউ দিতে পারে একরকম করে — কেউ পারে না; কিন্তু মহাশয়, ভাবভক্তি জিনিসটা অপূর্ব সামগ্রী। Stebbing on Darwinism আপনার library-তে দেখলাম। 

स्टेबिंग साहब का मत है कि मनुष्य का मन बड़ा ही आश्चर्यजनक है - उसका निर्माण चाहे क्रम-विकास (Evolution) द्वारा हुआ हो, अथवा ईश्वर के एक खास सृष्टि-उत्पादन से । स्टेबिंग साहब ने एक बड़ी अच्छी उपमा दी है । उन्होंने कहा है, ‘प्रकाश को ही लीजिये । चाहे आप प्रकाश की तरंगों के सिद्धान्त को जानें या न जानें, प्रत्येक दशा में प्रकाश आश्चर्यजनक ही है ।’

According to Stebbing the human mind is wonderful, whether it be the result of evolution or of special creation. He gives a beautiful illustration from the theory of light. Light is wonderful, whether you know the wave theory of light or not."

Stebbing বলেন, Human mind যার দ্বারাই হউক — evolution দ্বারাই হোক বা ঈশ্বর আলাদা বসে সৃষ্টিই করুন — equally wonderful. তিনি একটি বেশ উপমা দিয়েছেন — theory of light. Whether you know the undulatory theory of light or not, light in either case is equally wonderful.

डाक्टर - हाँ, और देखते हो, स्टेबिंग डारविन के सिद्धान्त को मानता है, फिर ईश्वर को भी मानता है !

DOCTOR: "Yes. Have you noticed further that Stebbing accepts both Darwin and God?"

ডাক্তার — হাঁ; আর দেখেছো, Stebbing Darwinism মানে, আবার God মানে।

फिर श्रीरामकृष्णदेव की बात चली ।

The conversation again turned to Sri Ramakrishna.

আবার পরমহংসদেবের কথা পড়িল।

डाक्टर - देखता हूँ, ये (श्रीरामकृष्णदेव) काली के उपासक हैं ।

DOCTOR: "I find that he is a worshipper of the Goddess Kali."

ডাক্তার — ইনি (পরমহংসদেব) দেখছি কালীর উপাসক। 

[( 26 अक्टूबर, 1885)- श्री रामकृष्ण वचनामृत-126 ]

🀄ब्रह्म-काली -आत्मा -भगवान अभेद दृष्टि🀄 

मास्टर - उनका काली का अर्थ और कुछ है । वेद जिन्हें परब्रह्म कहते हैं, वे उन्हें ही काली कहते हैं । मुसलमान जिन्हें अल्ला कहते हैं, ईसाई जिन्हें गॉड (God) कहते हैं, उन्हें ही वे काली कहते हैं । वे बहुतसे ईश्वर नहीं देखते, एक देखते हैं । पुराने ब्रह्मज्ञानी जिन्हें ब्रह्म कह गये हैं, योगी जिन्हें आत्मा कहते हैं [ठाकुर कहते थे-'যে যার ইষ্ট সে তাঁর আত্মা " जो जिसका ईष्टदेव है -वही उसकी आत्मा है !], भक्त जिन्हें भगवान कहते हैं, श्रीरामकृष्णदेव उन्हीं को काली कहते हैं

M: "But with him the meaning of Kali is different. What the Vedas call the Supreme Brahman, he calls Kali. What the Mussalmans call Allah and the Christians call God, he calls Kali. He does not see many gods; he sees only one God. What the Brahmajnanis of olden times called Brahman, what the yogis call Atman and the bhaktas call the Bhagavan, he calls Kali.

মাস্টার — তাঁর ‘কালী’ মানে আলাদা। বেদ যাঁকে পরমব্রহ্ম বলে, তিনি তাঁকেই কালী বলেন। মুসলমান যাঁকে আল্লা বলে, খ্রীষ্টান যাঁকে গড্‌ বলে, তিনি তাঁকেই কালী বলেন। তিনি অনেক ঈশ্বর দেখেন না। এক দেখেন। পুরাতন ব্রহ্মজ্ঞানীরা যাঁকে ব্রহ্ম বলে গেছেন। যোগীরা যাঁকে আত্মা বলেন, ভক্তেরা যাঁকে ভগবান বলেন, পরমহংসদেব তাঁকেই কালী বলেন।

"उनसे मैंने सुना है, एक आदमी के पास एक गमला था, उसमें रंग घोला हुआ था । किसी को अगर कपड़ा रँगाने की जरूरत होती थी, तो वह उसके पास जाता था । रँगनेवाला पूछता था, ‘तुम किस रंग में कपड़ा रँगाना चाहते हो ?’ रँगानेवाला अगर कहता, 'हरे रंग में', तो वह गमले में डुबाकर कपड़ा निकाल लेता और कहता था, 'यह लो अपना हरे रंग का कपड़ा ।' अगर कोई कहता, 'मेरी धोती लाल रंग से रँगों', तो भी यह उसी गमले में डुबाकर निकाल लेता और कहता था, 'यह लो तुम्हारी धोती लाल रंग से रँग गयी ।' इस एक ही गमले के रंग से वह लाल, पीला, हरा, आसमानी, सब रंगों के कपड़े रँगा करता था ।

यह विचित्र तमाशा देखकर एक ने कहा, 'भाई, मुझे तो वही रंग चाहिए जो तुमने इस गमले में घोल रखा है ।' उसी तरह श्रीरामकृष्णदेव के भीतर सब भाव हैं, - सब धर्मों और सब सम्प्रदायों के आदमी उनके पास शान्ति और आनन्द पाते हैं । उनका खास भाव क्या है, वे कितने गहरे हैं, यह भला कौन समझ सकता है ?"

“তাঁর কাছে শুনেছি, একজনের একটি গামলা ছিল, তাতে রঙ ছিল। কারু কাপড় ছোপাবার দরকার হলে তার কাছে যেত। সে জিজ্ঞাসা করত, তুমি কি রঙে ছোপাতে চাও। লোকটি যদি বলত সবুজ রঙ, তাহলে কাপড়খানি গামলার রঙে ডুবিয়ে ফিরিয়ে দিত; ও বলত, এই লও তোমার সবুজ রঙে ছোপানো কাপড়। যদি কেহ বলত লাল রঙ, সেই গামলায় কাপড়খানি ছুপিয়ে সে বলত, এই লও তোমার লালে ছোপানো কাপড়। এই এক গামলার রঙে সবুজ, নীল, হলদে, সব রঙের কাপড় ছোপানো হত। এই অদ্ভুত ব্যাপার দেখে একজন লোক বললে, বাবু আমি কি রঙ চাই বলব? তুমি নিজে যে রঙে ছুপেছো আমায় সেই রঙ দাও। সেইরূপ পরমহংসদেবের ভিতরে সব ভাব আছে, — সব ধর্মের, সব সম্প্রদায়ের লোক তাঁর কাছে শান্তি পায় ও আনন্দ পায়। তাঁর যে কি ভাব, কি গভীর অবস্থা, তা কে বুঝবে?”

In Sri Ramakrishna one finds all the attitudes and ideals of religion. That is why people of all sects and creeds enjoy peace and blessedness in his presence. Who can fathom his feeling and tell us the depth of his inner experience?"

डाक्टर - 'सब मनुष्यों के लिए सब चीजें ।' यह मुझे अच्छा नहीं लगता, यद्यपि सेन्ट पॉल ऐसा ही कहते हैं ।

DOCTOR: " All things to all men.' I don't approve of it although St. Paul says it."

ডাক্তার — All things to all men! তাও ভাল নয় although St. Paul says it.

मास्टर - श्रीरामकृष्णदेव की अवस्था कौन समझेगा ? उनके श्रीमुख से मैंने सुना है, सूत का व्यवसाय बिना किये, कौन सूत ४० नम्बर का है और कौन ४१ नम्बर का, यह समझ में नहीं आता। चित्रकार हुए बिना चित्रकार की कुशलता समझ में नहीं आती । महापुरुषों का भाव गम्भीर होता है । ईशु की तरह बिना हुए, ईशु के सारे भाव समझ में नहीं आते । श्रीरामकृष्णदेव का यह गम्भीर भाव, बहुत सम्भव है, वही है जो ईशु ने कहा था - 'अपने स्वर्गस्थ पिता की तरह पवित्र होओ ।'

M: "Who can understand the state of his mind? We have heard from him that unless one is engaged in the yarn trade, one cannot tell the difference between number forty and number forty-one yarn. Only a painter can appreciate another painter. The mind of a saint is very deep. One cannot understand all the aspects of Christ unless one is Christlike. Perhaps the deep realization of the Master is what Christ meant when He said: 'Be ye perfect as your Father in Heaven is perfect.'"

মাস্টার — পরমহংসদেবের অবস্থা কে বুঝবে? তাঁর মুখে শুনেছি, সুতার ব্যবসা না করলে ৪০ নং সুতা আর ৪১ নং সুতার প্রভেদ বুঝা যায় না। পেন্টার না হলে পেন্টার-এর আর্ট বুঝা যায় না। মহাপুরুষের গভীর ভাব। ক্রাইস্ট-এর ন্যায় না হলে ক্রাইস্ট-এর ভাব বুঝা যায় না। পরমহংসদেবের এই গভীর ভাব হয়তো ক্রাইস্ট যা বলেছিলেন তাই — Be perfect as your Father in heaven is perfect.

डाक्टर - अच्छा, उनकी बीमारी में तुम लोग किस तरह उनकी सेवा और देखभाल करते हो ?

DOCTOR: "What arrangements have you made about having him nursed?"

ডাক্তার — আচ্ছা, তাঁর অসুখের তদারক তোমরা কিরূপ কর?

मास्टर - जिनकी उम्र अधिक है, सेवा करने का भार उन्हीं पर रहता है । किसी दिन गिरीशबाबू परिदर्शक रहते हैं, किसी दिन रामबाबू, किसी दिन बलराम, किसी दिन सुरेशबाबू, किसी दिन नवगोपाल, और किसी दिन कालीबाबू, इस तरह ।

M: "At present one of the older devotees is assigned every day to look after him. It may be Girish Babu or Ram Babu or Balaram or Suresh Babu or Navagopal or Kali Babu. It is that way."

মাস্টার — আপাততঃ, প্রত্যহ একজন সুপার্‌ইন্‌টেণ্ড করেন, যাঁহাদের বয়স বেশি। কোনদিন গিরিশবাবু, কোনদিন রামবাবু, কোনদিন বলরামবাবু, কোনদিন সুরেশবাবু, কোনদিন নবগোপাল, কোনদিন কালীবাবু, এইরকম।

[( 26 अक्टूबर, 1885)- श्री रामकृष्ण वचनामृत-126 ]

(३)

नेता या पैगम्बर में विवेक-वैराग्य और ईश्वर-प्रेम न हो तो घास-फुस है 

इस तरह बातें करते हुए, श्रीरामकृष्ण जिस मकान में रहते थे उसके सामने आकर गाड़ी खड़ी हुई । दिन के एक बजे का समय होगा । श्रीरामकृष्ण दुमँजलेवाले कमरे में बैठे हुए हैं । बहुत से भक्त सामने बैठे हैं । उनमें श्रीयुत गिरीश घोष, छोटे नरेन्द्र, शरद आदि भी हैं । सब की दृष्टि उस महायोगी सदानन्द महापुरुष की ओर लगी हुई है । डाक्टर को देखकर हँसते हुए श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं, ‘आज बहुत अच्छी है तबीयत ।’

It was about one o'clock in the afternoon when the doctor and M. entered the Master's room on the second Boor. Sri Ramakrishna sat there, smiling as usual, completely forgetful of the fatal illness which was eating his life away. Among the many devotees in the room were Girish, the younger Naren, and Sarat. Sometimes they were motionless, like the snake before its charmer, and sometimes they displayed great joy, like the bridal party with the bridegroom. The doctor and M. bowed low before the Master and sat on the floor. At the sight of the doctor, the Master said, laughing, "Today I have been feeling very well."

এই সকল কথা হইতে হইতে শ্রীশ্রীঠাকুর পরমহংসদেব শ্যমপুকুরে যে বাড়িতে চিকিৎসার্থ অবস্থান করিতেছেন, সেই বাড়ির সম্মুখে ডাক্তারের গাড়ি আসিয়া লাগিল। তখন বেলা ১টা। ঠাকুর দোতলার ঘরে বসিয়া আছেন। অনকগুলি ভক্ত সম্মুখে উপবিষ্ট; তন্মধ্যে শ্রীযুক্ত গিরিশ ঘোষ, ছোট নরেন্দ্র, শরৎ ইত্যাদি। সকলের দৃষ্টি সেই মহাযোগী সদানন্দ মহাপুরুষের দিকে। সকলে যেন মন্ত্রমুগ্ধ সর্পের ন্যায় রোজার সম্মুখে বসিয়া আছেন। অথবা বরকে লইয়া বরযাত্রীরা যেন আনন্দ করিতেছেন। ডাক্তার ও মাস্টার আসিয়া প্রণাম করিয়া আসন গ্রহণ করিলেন। ডাক্তারকে দেখিয়া হাসিতে হাসিতে শ্রীরামকৃষ্ণ বলিতেছেন, “আজ বেশ ভাল আছি।

धीरे धीरे भक्तों के साथ ईश्वरीय चर्चा होने लगी ।

Then the Master went on with his soul-enthralling conversation.

ক্রমে ভক্তসঙ্গে ঈশ্বর সম্বন্ধীয় অনেক কথাবার্তা চলিতে লাগিল।

श्रीरामकृष्ण - सिर्फ पाण्डित्य से क्या लाभ, अगर उसमें विवेक और वैराग्य न हों ? ईश्वर के पादपद्मों की चिन्ता करते हुए मेरी एक ऐसी अवस्था होती है कि कमर से धोती खुल जाती है, पैरों से सिर तक न जाने क्या सरसरता हुआ चढ़ जाता है । तब सब लोग तृण के समान जान पड़ते हैं । उन पण्डितों को जिनमें विवेक, वैराग्य और ईश्वर प्रेम नहीं हैं, मैं घास-फूस की तरह देखता हूँ।

MASTER: "What will mere scholarship accomplish without discrimination and renunciation? I go into a strange mood while thinking of the Lotus Feet of God. The cloth on my body drops to the ground and I feel something creeping up from my feet to the top of my head. In that state I regard all as mere straw. If I see a pundit without discrimination and love of God, I regard him as a bit of straw.

শ্রীরামকৃষ্ণ — শুধু পণ্ডিত কি হবে, যদি বিবেক-বৈরাগ্য না থাকে। ঈশ্বরের পাদপদ্ম চিন্তা করলে আমার একটি অবস্থা হয়। পরনের কাপড় পড়ে যায়, শিড়্‌ শিড় করে পা থেকে মাথা পর্যন্ত কি একটা উঠে। তখন সকলকে তৃণজ্ঞান হয়। পণ্ডিতের যদি দেখি বিবেক নাই, ঈশ্বরে ভালবাসা নাই, খড়কুটো মনে হয়।

"रामनारायण डाक्टर ने मेरे साथ तर्क किया था । एकाएक मुझे वही अवस्था हो गयी । तब मैंने कहा, 'तुम क्या कहते हो ? उन्हें तर्क करके क्या खाक समझोगे ? उनकी सृष्टि भी क्या समझोगे ? तुम्हारी तो यह बड़ी हीन बुद्धि है !' मेरी अवस्था देखकर वह रोने लगा, और मेरे पैर दबाने लगा ।"

"One day Dr. Ramnarayan had been arguing with me, when suddenly I went into that mood. I said to him: 'What are you saying? What can you understand of God by reasoning? How little you can understand of His creation! Shame! You have the pettifogging mind of a weaver!' Seeing the state of my mind he began to weep and gently stroked my feet."

“রামনারায়ণ ডাক্তার আমার সঙ্গে তর্ক করছিল; হঠাৎ সেই অবস্থাটা হল। তারপর তাঁকে বললুম, তুমি কি বলছো? তাঁকে তর্ক করে কি বুঝবে! তাঁর সৃষ্টিই বা কি বুঝবে। তোমার তো ভারী তেঁতে বুদ্ধি। আমার অবস্থা দেখে সে কাঁদতে লাগল — আর আমার পা টিপতে লাগল।”

डाक्टर - रामनारायण डाक्टर हिन्दू है न ! और फूल-चन्दन भी धारण करता है ! सच्चा हिन्दू है !

DOCTOR: "Ramnarayan did that because he is a Hindu. Besides, he is a believer in flowers, and sandal-paste. He is an orthodox Hindu."

M. (to himself): "Dr. Sarkar says that he has nothing to do with gong and conch-shells!"1

মাস্টার (স্বগতঃ) — ডাক্তার বলেছিলেন, আমি শাঁকঘণ্টায় নাই।

ডাক্তার — রামনারায়ণ ডাক্তার হিন্দু কি না! আবার ফুল-চন্দন লয়! সত্য হিন্দু কি না।

श्रीरामकृष्ण – बंकिम* तुम लोगों के दल का एक पण्डित है । बंकिम के साथ मुलाकात हुई थी । मैंने पूछा, 'आदमी का कर्तव्य क्या है ?' तब उसने कहा, 'आहार, निद्रा और मैथुन ।' इस तरह की बातें सुनकर मुझे घृणा हो गयी । मैंने कहा, 'तुम्हारी ये कैसी बातें हैं ? तुम तो बड़े छिछोड़े हो ! तुम दिन-रात जैसी चिन्ताएँ किया करते हो, वही मुँह से भी निकल रहा है ! मूली खाने से मूली ही की डकार आती है ।' फिर बहुत सी ईश्वरीय बातें हुई ।

कमरे में संकीर्तन हुआ । मैं नाचा भी । तब उसने कहा, 'महाराज, एक बार हमारे यहाँ भी पधारियेगा ।' मैंने कहा, 'देखो, ईश्वर की इच्छा ।' तब उसने कहा, 'हमारे यहाँ भी भक्त हैं, आप देखियेगा ।' मैंने हँसते हुए कहा, 'किस तरह के भक्त हैं जी ? गोपाल- गोपाल जिन लोगों ने कहा था, वैसे ?’(*बंकिमचन्द्र चटर्जी - बंगाल प्रांत के एक प्रसिद्ध लेखक ।)

MASTER; "Bankim2 is one of your pundits. I met him once. I asked him, What is the duty of man?' And he had the impudence to say, 'Eating, keeping, and sex gratification.' These words created in me a feeling of great aversion. I said: 'What are you saying? You are very mean. What you think day and night and what you do all the time come out through your lips. If a man eats radish, he belches radish.' Then we talked about God a great deal. There was also much devotional music in the room, and I danced. Then Bankim said to me, 'Sir, please come to our house once.' 'That depends on the will of God', I replied. 'There also', he said, 'you will find devotees of God.' I laughed and said: 'What kind of devotees are they? Are they like. those who said, "Gopal! Gopal!"?'"

শ্রীরামকৃষ্ণ — বঙ্কিম তোমাদের একজন পণ্ডিত। বঙ্কিমের১ সঙ্গে দেখা হয়েছিল — আমি জিজ্ঞাসা করলুম, মানুষের কর্তব্য কি? তা বলে, ‘আহার, নিদ্রা আর মৈথুন।’ এই সকল কথাবার্তা শুনে আমার ঘৃণা হল। বললুম যে, তোমার এ কিরকম কথা! তুমি তো বড় ছ্যাঁচ্‌ড়া। যা সব রাতদিন চিন্তা করছো, কাজে করছো, তাই আবার মুখ দিয়ে বেরুচ্চে। মূলো খেলেই মূলোর ঢেঁকুর উঠে। তারপর অনেক ঈশ্বরীয় কথা হল। ঘরে সংকীর্তন হল। আমি আবার নাচলুম। তখন বলে, মহাশয়! আমাদের ওখানে একবার যাবেন। আমি বললুম, সে ঈশ্বরের ইচ্ছা। তখন বলে, আমাদের সেখানেও ভক্ত আছে, দেখবেন। আমি হাসতে হাসতে বললুম, কি রকম ভক্ত আছে গো? ‘গোপাল!’ ‘গোপাল!’ যারা বলেছিল, সেইরকম ভক্ত নাকি?

डाक्टर - 'गोपाल-गोपाल' क्या है ?

श्रीरामकृष्ण- (सहास्य) - एक सुनार की दूकान थी । उस दूकान के सब लोग बड़े भक्त दिखते थे - परम वैष्णव । गले में माला, माथे में तिलक, हाथ में सुमिरनी, लोग विश्वास करके उन्हीं की दूकान में आते थे । वे सोचते थे, ये परम भक्त हैं, कभी ठग नहीं सकते ।

खरीददारों का एक दल जब वहाँ पहुँचता तो सुनता कि कोई कारीगर 'केशव- केशव' कह रहा है, एक दूसरा कुछ देर बाद 'गोपाल- गोपाल' रट रहा है, फिर थोड़ी देर बाद कोई 'हरि-हरि' बोल रहा है, फिर कुछ देर में कोई 'हर-हर' आदि आदि । ईश्वर के इतने नाम एक साथ सुनकर खरीददार सहज ही सोचते थे, इस घराने के सुनार बड़े अच्छे हैं ।

परन्तु इसका असल मतलब क्या था, जानते हो ? जिसने 'केशव केशव' कहा था, उसका मतलब यह पूछने का था कि ये सब कौन हैं ? जिसने कहा था 'गोपाल-गोपाल', उसका अर्थ यह है कि मैं समझ गया, ये सब गौओं के दल (पाल) हैं । (हास्य) जिसने कहा 'हरि-हरि', उसका अर्थ यह है - अगर ये गौओं के दल हैं तो क्या हम इनका हरण करें ? (हास्य) जिसने कहा ‘हर-हर’, उसने इशारा किया कि हाँ, हरण करो; हाँ, हरण करो; यह तो गौओं का दल ही है । (हास्य)

DOCTOR: "What is the story of 'Gopal! Gopal!'?"

MASTER (with a smile): "There was a goldsmith who kept a jewelry shop. He looked like a great devotee, a true Vaishnava, with beads around his neck, rosary in his hand, and the holy marks on his forehead. Naturally people trusted him and came to his shop on business. They thought that, being such a pious man, he would never cheat them. Whenever a party of customers entered the shop, they would hear one of his craftsmen say, 'Kesava! Kesava!' Another would say, after a while, 'Gopal! Gopal!' Then a third would mutter, 'Hari! Hari!' Finally someone would say, 'Hara! Hara!' Now these are, as you know, different names of God. Hearing so much chanting of God's names, the customers naturally thought that this gold-smith must be a very superior person. But can you guess the goldsmith's true intention? The man who said 'Kesava! Kesava!'3 meant to ask, 'Who are these? — who are these customers?' The man who said 'Gopal! Gopal!' conveyed the idea that the customers were merely a herd of cows. That was the estimate he formed of them after the exchange of a few words. The man who said 'Hari! Hari!' asked, 'Since they are no better than a herd of cows, then may we rob them?' He who said 'Hara! Hara!' gave his assent, meaning by these words, 'Do rob by all means, since they are mere cows!' (All laugh.)

ডাক্তার — ‘গোপাল!’ ‘গোপাল।’ সে ব্যাপারটা কি?

শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — একটি স্যাকরার দোকান ছিল। বড় ভক্ত, পরম বৈষ্ণব — গলায় মালা, কপালে তিলক, হস্তে হরিনামের মালা। সকলে বিশ্বাস করে ওই দোকানেই আসে, ভাবে এরা পরমভক্ত, কখনও ঠকাতে যাবে না। একদল খদ্দের এলে দেখত কোনও কারিগর বলছে ‘কেশব!’ ‘কেশব!’ আর-একজন কারিগর খানিক পরে নাম করছে ‘গোপাল!’ ‘গোপাল!’ আবার খানিকক্ষণ পরে একজন কারিগর বলছে, ‘হরি’, ‘হরি’, তারপর কেউ বলছে ‘হর; হর!’ কাজে কাজেই এত ভগবানের নাম দেখে খরিদ্দারেরা সহজেই মনে করত, এ-স্যাকরা অতি উত্তম লোক। — কিন্তু ব্যাপারটা কি জানো? যে বললে, ‘কেশব, কেশব!’ তার মনের ভাব, এ-সব (খদ্দের) কে? যে বললে ‘গোপাল! গোপাল!’ তার অর্থ এই যে আমি এদের চেয়ে চেয়ে দেখলুম, এরা গরুর পাল। (হাস্য)

যে বললে ‘হরি হরি’ — তার অর্থ এই যে, যদি গরুর পাল, তবে হরি অর্থাৎ হরণ করি। (হাস্য) যে বললে, ‘হর হর!’ — তার মানে এই — তবে হরণ কর, হরণ কর; এরা তো গরুর পাল! (হাস্য)

[( 26 अक्टूबर, 1885)- श्री रामकृष्ण वचनामृत-126 ]

🙂 मैं तो मूर्ख -(गोपाल) हूँ ही ! मुकं करोति वाचालं !🙂

"मथुरबाबू के साथ मैं एक जगह और गया था । कितने ही पण्डित मेरे साथ विचार करने के लिए आये थे । मैं तो मूर्ख हूँ ही । (सब हँसते हैं ।) उन लोगों ने मेरी वह अवस्था देखी, और मेरे साथ बातचीत होने पर उन लोगों ने कहा, 'महाराज ! पहले जो कुछ हमने पढ़ा है, तुम्हारे साथ बातचीत करने पर उस सारी विद्या से जी हट गया

अब समझ में आया, उनकी कृपा होने पर ज्ञान का अभाव नहीं रह जाता । मूर्ख भी विद्वान् हो जाता है, मूक में भी बोलने की शक्ति आ जाती है ।' इसीलिए कह रहा हूँ, पुस्तकें पढ़ने से ही कोई पण्डित नहीं हो जाता । "हाँ, उनकी कृपा होने पर फिर ज्ञान की कमी नहीं रह जाती । देखो न, मैं तो मूर्ख हूँ, कुछ भी नहीं जानता, परन्तु ये सब बातें कौन कहता है ? फिर इस ज्ञान का भाण्डार अक्षय है ।

"Once I went to a certain place with Mathur Babu. Many pundits came forward to argue with me. And you all know that I am a tool. (All laugh.) The pundits saw that strange mood of mine. When the conversation was over, they said to me: 'Sir, after hearing your words, all that we have studied before, our knowledge and scholarship, has proved to be mere spittle. Now we realize that a man does not lack wisdom if he has the grace of God. The fool becomes wise and the mute eloquent.' Therefore I say that a man does not become a scholar by the mere study of books.

"Yes, how true it is! How can a man who has the grace of God lack knowledge? Look at me. I am a fool. I do not know anything. Then who is it that utters these words? The reservoir of the Knowledge of God is inexhaustible. 

“সেজোবাবুর সঙ্গে আর-একজায়গায় গিয়েছিলাম; অনেক পণ্ডিত আমার সঙ্গে বিচার করতে এসেছিল। আমি তো মুখ্যু! (সকলের হাস্য) তারা আমার সেই অবস্থা দেখলে, আর আমার সঙ্গে কথাবার্তা হলে বললে, মহাশয়! আগে যা পড়েছি, তোমার সঙ্গে কথা কয়ে সে সব পড়া বিদ্যা সব থু হয়ে গেল! এখন বুঝেছি, তাঁর কৃপা হলে জ্ঞানের অভাব থাকে না, মূর্খ বিদ্বান হয়, বোবার কথা ফুটে! তাই বলছি, বই পড়লেই পণ্ডিত হয় না।” “হাঁ, তাঁর কৃপা হলে জ্ঞানের কি আর অভাব থাকে? দেখ না, আমি মুখ্যু, কিছুই জানি না, তবে এ-সব কথা বলে কে? আবার এ-জ্ঞানের ভাণ্ডার অক্ষয়

उस देश(कामारपुकुर) में लोग जब धान नापते हैं, 'राम-राम राम-राम' कहते जाते हैं । एक आदमी नापता है और एक दूसरा आदमी राशि पूरी करता जाता है । उसका काम यही है कि जब राशि घट जाय तब पूरी करता रहे । मैं भी जो बातें कह जाता हूँ, जब वे घटने पर आ जाती है, तब माँ अपने अक्षय ज्ञान-भाण्डार से राशि पूरी कर देती हैं

There are grain dealers at Kamarpukur. When selling paddy, one man weighs the grain on the scales and another man pushes it to him from a heap. The second man must keep a constant supply of grain on the scales by pushing it from the big heap. It is the same with my words. No sooner are they about to run short than the Divine Mother sends a new supply from Her inexhaustible storehouse of Knowledge.

 ও দেশে ধান মাপে, ‘রামে রাম, রামে রাম’, বলতে বলতে। একজন মাপে, আর যাই ফুরিয়ে আসে, আর-একজন রাশ ঠেলে দেয়। তার কর্মই ওই, ফুরালেই রাশ ঠেলে। আমিও যা কথা কয়ে যাই, ফুরিয়ে আসে আসে হয়, মা আমার অমনি তাঁর অক্ষয় জ্ঞান-ভাণ্ডারের রাশ ঠেলে দেন!

[( 26 अक्टूबर, 1885)- श्री रामकृष्ण वचनामृत-126 ]

🙂श्री रामकृष्ण विग्रह में ईश्वरीय चेतना की प्रतिष्ठा और कण्ठ में सरस्वती का आविर्भाव 🙂

I began to see another person ? (गुरु?) within me.

 [প্রথম সমাধি — আবির্ভাব ও মূর্খের কণ্ঠে সরস্বতী ]

"जब मैं बच्चा था, उस समय मेरे भीतर उनका आविर्भाव हुआ था । उम्र ग्यारह साल की थी । मैदान में एक विचित्र तरह का दर्शन हुआ । सब कहते थे, मैं उस समय बेहोश हो गया था । कोई भी अंग हिलता-डुलता न था । उसी दिन से मैं एक दूसरी तरह का हो गया । अपने भीतर एक दूसरे व्यक्ति (गुरु देव ?) को देखने लगा

"During my boyhood, God manifested Himself in me. I was then eleven years old. One day, while walking across a paddy-field, I saw something. Later on, I came to know from people that I had been unconscious, and my body motionless. Since that day I have been an altogether different man. I began to see another person within me.

“ছেলেবেলায় তাঁর আর্বিভাব হয়েছিল। এগারো বছরের সময় মাঠের উপর কি দেখলুম! সবাই বললে, বেহুঁশ হয়ে গিছলুম, কোন সাড় ছিল না। সেই দিন থেকে আর-একরকম হয়ে গেলুম। নিজের ভিতর আর-একজনকে দেখতে লাগলাম

जब श्रीठाकुरजी की पूजा करने के लिए जाता था, तब हाथ बहुधा ठाकुरजी की ओर न जाकर अपनी ही ओर आता था, और मैं अपने ही सिर पर फूल चढ़ा लेता था । जो लड़का मेरे पास रहता था, वह मेरे पास न आता था । कहता था, 'तुम्हारे मुख पर एक न जाने कैसी ज्योति देख रहा हूँ ! तुम्हारे पास अधिक जाते भय उत्पन्न होता है ।’"

 When I used to conduct the worship in the temple, my hand, instead of going toward the Deity, would often come toward my head, and I would put flowers there. A young man who was then staying with me did not dare approach me. He would say: 'I see a light on your face. I am afraid to come very near you.'

[( 26 अक्टूबर, 1885)- श्री रामकृष्ण वचनामृत-126 ]

(४)

🔱🙏ईश्वरेच्छा तथा स्वाधीन इच्छा🔱🙏

🙏I am a fool. I know nothing.🙏 

श्रीरामकृष्ण - मैं तो मूर्ख हूँ, कुछ जानता ही नहीं, तो यह सब कहता कौन है ? मैं कहता हूँ, ‘माँ, मैं यन्त्र हूँ, तुम यन्त्री हो; मैं गृह हूँ, तुम गृहस्वामिनी हो; मैं रथ हूँ, तुम रथी हो; तुम जैसा कराती हो, मैं वैसा ही करता हूँ; जैसा चलाती हो वैसा ही चलता है, "नाहम्-नाहम्, तुम हो, तुम हो ।

उन्हीं की जय है, मैं तो केवल यन्त्र मात्र हूँ । श्रीमती जब सहस्र छेदवाला घट लेकर जा रही थीं, तब उसमें से जरा भी पानी नहीं गिरा । यह देखकर सब लोग उनकी प्रशंसा करने लगे, कहा, 'ऐसी सती दूसरी न होगी ।' तब श्रीमती ने कहा, 'तुम लोग मेरी जय क्यों मनाते हो ? कहो, कृष्ण की जय हो । मैं तो उनकी एक दासी मात्र हूँ ।'

एक दिन ऐसी ही भाव की अवस्था में विजय की छाती पर मैंने एक पैर रख दिया । इधर तो विजय पर मेरी श्रद्धा है, परन्तु उस अवस्था में उस पर पैर रख दिया, इसके लिए भला क्या किया जाय !

শ্রীরামকৃষ্ণ — আমি তো মুখ্যু, আমি কিছু জানি না, তবে এ-সব বলে কে? আমি বলি, ‘মা, আমি যন্ত্র, তুমি যন্ত্রী; আমি ঘর, তুমি ঘরণী; আমি রথ, তুমি রথী; যেমন করাও তেমনি করি, যেমন বলাও তেমনি বলি, যেমন চালাও তেমনি চলি; নাহং নাহং, তুঁহু তুঁহু।’ 

তাঁরই জয়; আমি তো কেবল যন্ত্র মাত্র! শ্রীমতী যখন সহস্রধারা কলসী লয়ে যাচ্ছিলেন, জল একটুকুও পড়ে নাই, সকলে তাঁর প্রশংসা করতে লাহল; বলে এমন সতী হবে না। তখন শ্রীমতী বললেন, ‘তোমরা আমার জয় কেন দাও; বল, কৃষ্ণের জয়, কৃষ্ণের জয়! আমি তাঁর দাসী মাত্র।’ ওই অবস্থায় ভাবে বিজয়কে বুকে পা দিলুম; এদিকে তো বিজয়কে এত ভক্তি করি, সেই বিজয়ের গায়ে পা দিলুম, তার কি বল দেখি!

"You know I am a fool. I know nothing. Then who is it that says all these things? I say to the Divine Mother: 'O Mother, I am the machine and Thou art the Operator. I am the house and Thou art the Indweller. I am the chariot and Thou art the Charioteer. I do as Thou makest me do; I speak as Thou makest me speak; I move as Thou makest me move. It is not I! It is not I! It is all Thou! It is all Thou!' Hers is the glory; we are only Her instruments.

"Once in that strange mood of mine, I placed my foot on Vijay's chest. You know how greatly I respect him — and I placed my foot on his body! What do you say to that?"

डाक्टर - उसके बाद से सावधान रहना चाहिए ।

ডাক্তার — তারপর সাবধান হওয়া উচিত।

DOCTOR: "But now you should be careful."

श्रीरामकृष्ण (हाथ जोड़कर) - मैं क्या करूँ ? उस अवस्था के आने पर बेहोश हो जाता हूँ । क्या करता हूँ, कुछ समझ में नहीं आता ।

শ্রীরামকৃষ্ণ (হাতজোড় করে) — আমি কি করব? সেই অবস্থাটা এলে বেহুঁশ হয়ে যাই! কি করি, কিছুই জানতে পারি না।

MASTER (with folded hands): 'What can I do? I become completely unconscious in that mood. Then I do not know at all what I am doing."

डाक्टर - सावधान रहना चाहिए । हाथ जोड़ने से क्या होगा ?

ডাক্তার — সাবধান হওয়া উচিত, হাতজোড় করলে কি হবে?

DOCTOR: "You should be careful. No use folding your hands now and expressing regret!"

श्रीरामकृष्ण - तब मुझमें करने-धरने की शक्ति थोड़े ही रह जाती है ! - परन्तु मेरी अवस्था के सम्बन्ध में क्या सोचते हो ? यदि इसे ढोंग समझते हो तो मैं कहूँगा, तुम्हारी साइन्स-वाइन्स सब खाक है ।

শ্রীরামকৃষ্ণ — তখন কি আমি কিছু করতে পারি? — তবে তুমি আমার অবস্থা কি মনে কর? যদি ঢঙ মনে কর তাহলে তোমার সায়েন্স-মায়েন্স সব ছাই পড়েছো।

MASTER: "Can I do anything myself in that mood? What do you think of this state? If you think it is a hoax, then I should say that your study of 'science' and all that is bosh!"

डाक्टर - महाराज, यदि मैं ढोंग समझता तो क्या कभी इस तरह आया करता ? देखो न, सब काम छोड़कर यहाँ आता हूँ । कितने ही रोगियों के यहाँ जा नहीं पाता । यहाँ आकर छः-सात घण्टे तक रह जाता हूँ ।

ডাক্তার — মহাশয়, যদি ঢঙ মনে করি তাহলে কি এত আসি? এই দেখ, সব কাজ ফেলে এখানে আসি; কত রোগীর বাড়ি যেতে পারি না, এখানে এসে ছয়-সাত ঘণ্টা ধরে থাকি।

DOCTOR: "Now listen, sir! Would I come to see you so often if I thought it all a hoax? You know that I neglect many other duties in order to come here. I cannot visit many patients, for I spend six or seven hours at a stretch here."

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>>Arjun (the conqueror of sleep : इसके आगे का वचनामृत बिना ठाकुरदेव के अनुग्रह  के पढ़ा नहीं जा सकता है , और इसके लिए उनके 'रामलला अवतार-22 जनवरी, 2024 ' की कथा और शुक्रवार  2nd फरवरी, 2024 -ज्ञानवापी मन्दिर मार्ग ' बनारस लिखा गया की लीला को श्रीकृष्ण -अर्जुन गीता संवाद के निम्नलिखित श्लोकों को बहुत शान्त मन से सुनना और समझना - अपने जीवन की घटनाओं से मिलाकर देखना , उसकी धारणा करना अनिवार्य है।  सञ्जय उवाच -Change the Nominee in all Bank accounts ! 

🔱🙏न योत्स्ये🔱🙏

(मुझसे यह सब नहीं होगा ?)

मैं नहीं लड़ूंगा !

I won't fight

"एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप।

न योत्स्ये इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह।।2.9।।

[2.9 एवम् thus, उक्त्वा having spoken, हृषीकेशम् to Hrishikesha, गुडाकेशः Arjuna (the conqueror of sleep), परन्तप destroyer of foes, न योत्स्ये I will not fight, इति thus, गोविन्दम् to Govinda, उक्त्वा having said, तूष्णीम् silent, बभूव ह became. No commentary.

2.9 Sanjaya said Having spoken thus to Hrishikesha (the Lord of the senses), Arjuna (the conqueror of sleep), the destroyer of foes, said to Krishna, "I will not fight" and became silent.

।।2.9।। संजय ने कहा -- इस प्रकार गुडाकेश (the conqueror of sleep), परंतप (destroyer of foes) अर्जुन भगवान् हृषीकेश (=जितेन्द्रीय श्रीकृष्ण !) से यह कहकर कि हे गोविन्द "मैं युद्ध नहीं करूँगा" चुप हो गया।।

गुडाकेशः Arjun (the conqueror of sleep), परन्तप destroyer of foes, शत्रुपीड़क अर्जुन अब तीनों जगत् को जीतने वाले (गोविन्द) भगवान् श्रीकृष्ण की शरण में पहुँच गया था इसलिये उसकी विजय अब निश्चित थी। ]

तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत।

सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः।।2.10।।

।।2.10।। हे भरतवंशोद्भव धृतराष्ट्र! दोनों सेनाओंके मध्यभागमें विषाद करते हुए उस अर्जुनके प्रति हँसते हुए-से भगवान् हृषीकेश यह (आगे कहे जानेवाले) वचन बोले

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda :।।2.10।। इस प्रकार धर्म और अधर्म, शुभ और अशुभ इन दो सेनाओं के संव्यूहन के मध्य फँसा हुआ अर्जुन (जीव) जब पूर्ण रूप से अपने सारथी भगवान् श्रीकृष्ण (सूक्ष्म विवेकवती बुद्धि) की शरण में आत्मसमर्पण करता है जो पाँच अश्वों (पंच ज्ञानेन्द्रियों) द्वारा चालित रथ (देह) अपने पूर्ण नियन्त्रण में रखते हैं

ऐसे दुखी और भ्रमित व्यक्ति जीव अर्जुन को श्रीकृष्ण सहास्य उसकी अन्तिम विजय का आश्वासन  देने के साथ ही गीता के आत्ममुक्ति का आध्यात्मिक उपदेश भी करते हैं जिसके ज्ञान से सदैव के लिये मनुष्य के शोक मोह की निवृत्ति हो जाती है। कठ उपनिषद् में चिकेता- यम संवाद के रूपक को ध्यान में रखकर यदि हम संजय द्वारा चित्रित दृश्य का वर्णन उपर्युक्त प्रकार से करें तो इसमें हमें सनातन पारमार्थिक सत्य के दर्शन होंगे -(अर्थात परम् सत्य -इन्द्रियातीत सत्य भगवान श्रीरानमकृष्ण के सच्चिदानन्द स्वरुप के दर्शन होंगे )। 

जब जीव (अर्जुन) विषादयुक्त होकर शरीर में (देह) स्थित हो जाता है और सभी स्वार्थ पूर्ण कर्मों के साधनों (गाण्डीव) को त्यागकर इन्द्रियों को (श्वेत अश्व) मन की लगाम के द्वारा संयमित करता है,  तब सारथि (शुद्ध बुद्धि) जीव को धर्म शक्ति की सहायता से वह दैवी सार्मथ्य और मार्गदर्शन प्रदान करता है जिससे अधर्म की बलवान सेना को भी परास्त कर जीव सम्पूर्ण विजय को प्राप्त करता है।

तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व,

जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्।

मयैवैते निहताः पूर्वमेव,

निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्।।

(गीता : 11.33)

।।11.33।। इसलिये तुम युद्धके लिये खड़े हो जाओ और यश को प्राप्त करो तथा शत्रुओं को जीतकर धन-धान्य से सम्पन्न राज्य को भोगो। ये सभी मेरे द्वारा पहले से ही मारे हुए हैं। हे सव्यसाचिन् !  तुम निमित्त मात्र बन जाओ

क्योंकि ऐसा है --, इसलिये तू खड़ा हो और देवोंसे भी न जीते जानेवाले भीष्म, द्रोण आदि महारथियों को अर्जुन ने जीत लिया ऐसे निर्मल यश को लाभ कर। ऐसा यश पुण्यों से ही मिलता है। दुर्योधनादि शत्रुओं को जीतकर समृद्धि सम्पन्न निष्कण्टक राज्य भोग। ये सब ( शूरवीर ) मेरे द्वारा निःसन्देह पहले ही मारे हुए हैं अर्थात् प्राण विहीन किये हुए हैं। हे सव्यसाचिन् तू केवल निमित्त मात्र बन जा। बायें हाथसे भी बाण चलाने का अभ्यास होनेके कारण अर्जुन सव्यसाची कहलाता है।

हे सव्यसाचिन् मेरे द्वारा ये मारे ही हुए हैं,  तुम केवल निमित्त बनो। वस्तुतः  प्रत्येक विचारशील पुरुष को इस तथ्य का स्पष्ट ज्ञान होता है कि जीवन में वह ईश्वर के हाथों में केवल एक निमित्त ही है। परन्तु सामान्यतः  हम इस तथ्य को स्वीकार करने को तैयार नहीं होते।  क्योंकि हमारा गर्वभरा (मस्तक Head या मिथ्या अहंकार HDU में भर्ती हुए बिना) अभिमान इतनी सरलता से निवृत्त नहीं होता कि हमारा शुद्ध दिव्य स्वरूप अपनी सर्वशक्ति से हमारे द्वारा कार्य कर सके।

जीवन के सभी कार्य क्षेत्रों में प्राप्त की गयी उपलब्धियों पर यदि हम विचार करें; तो हमें ज्ञात होगा कि प्रत्येक उपलब्धि में प्रकृति के योगदान की तुलना में हमारा योगदान अत्यन्त क्षुद्र और नगण्य है। अधिक से अधिक हम केवल उन वस्तुओं का संयोग या मिश्रण ही कर सकते हैं, जो पहले से ही विद्यमान हैं (जैसे खून में सोडियम और पोटैशियम का लिमिट पहले से तय है।) हैं? और इस संयोग के फलस्वरूप उनमें पूर्व निहित गुणों को व्यक्त करा सकते हैं। 

    फिर भी हमारा अभिमान यह होता है कि हमने उस फल को उत्पन्न किया है - रेडियो,  वायु-यान, इंजिन, Blood report के अनुसार जीवन संरक्षक औषधियाँ उनकी सही मात्रा,  संक्षेप में यह सम्पूर्ण नवीन जगत्। और प्रगति में इसकी उपलब्धियां ये सब ईश्वर की गोद में बैठे बच्चों के खेल के अतिरिक्त और कुछ नहीं हैं। 

ईश्वर ने ही हमारे लिए विद्युत्, लोहा, आकाश, वायु इत्यादि उपलब्ध कराये और हमें उसका उपयोग करने के लिए स्वीकृति और स्वतन्त्रता प्रदान की। इन मूलभूत वस्तुओं के बिना कोई भी उपलब्धि संभव नहीं हो सकती और उपलब्धि का अर्थ है, ईश्वर प्रदत्त वस्तुओं का बुद्धिमत्ता-पूर्वक समायोजन करना। 

शरणागति तथा ईश्वर का अखण्ड स्मरण करते हुए (नाम-जप करते हुए) जगत् की सेवा (शिव ज्ञान से जीवसेवा ) करने के सिद्धांतों को ऐसी व्यर्थ की कल्पनाएं नहीं समझना चाहिए जो जगत् की भौतिक सत्यता से [ तीनों ऐषणाओं से अनासक्त होना, या चार पुरुषार्थ करने से]  पलायन करने के लिए विधान की गयी हों। जगत् में कुशलतापूर्वक कार्य करके सफलता पाने के लिए मनुष्य़ को अपनी योग्यता और स्वभाव को ऊँचा उठाना आवश्यक है। 

अखण्ड ईश्वर स्मरण (गुरुमुख से श्रवण -मनन-निदिध्यासन) वह साधन है जिसके द्वारा हम अपने मन को सदा अथक उत्साह और आनन्दपूर्ण प्रेरणा के भाव में रख सकते हैं। अहंकारी के लिए यह जगत् एक बोझ या समस्या बना होता है। जिस सीमा तक अहंकार स्वयं को किसी महान् और श्रेष्ठ आदर्श के प्रति समर्पित कर देता है  उसी सीमा में ( जैसे "हरि नहीं - हरि दासो अहं " वीर हनुमान जैसी भक्ति से) यह जगत् और उसकी उपलब्धियां प्राप्त करना सरल और निश्चित सफलता का खेल बन जाता है। 

इसके पूर्व भी गीता में अनेक स्थलों पर स्पष्टत सूचित किया गया है कि अहंकार के समर्पण से हममें स्थित महानतर क्षमताओं को व्यक्त किया जा सकता है। उसी विचार को यहाँ दोहराया गया है। सम्पूर्ण सेना को यहाँ अपनी वीरता की भूमिका निभाने के लिए आमन्त्रित किया गया है। ईश्वर के हाथों में वे निमित्त बने और राजमुकुट तथा वैभव को वेतन के रूप में प्राप्त करें। 

अर्जुन को कौरव पक्ष के कुछ प्रधान और श्रेष्ठ पुरुषों से विशेष भय था। यहाँ भगवान् उनका नामोल्लेख करके बताते हैं कि ये वीर पुरुष भी सर्वभक्षक काल के द्वारा मारे जा चुके हैं।

द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च

कर्णं तथाऽन्यानपि योधवीरान्।

मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठा

युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान्।।11.34।।

।।11.34।। द्रोण, भीष्म, जयद्रथ, कर्ण तथा और भी बहुत से मेरे द्वारा मारे गये वीर योद्धाओं को तुम मारो; भय मत करो; युद्ध करो; तुम युद्ध में शत्रुओं को जीतोगे।।

द्रोणाचार्य अर्जुन के गुरु थे, जिन्होंने उसे धनुर्विद्या सिखायी थी। उसके पास कुछ विशेष शस्त्रास्त्र थे और अर्जुन उनका विशेष रूप से आदर और सम्मान करता था। भीष्म पितामह को स्वेच्छा से मरण प्राप्ति का वरदान मिला हुआ था तथा उनके पास भी अत्यन्त शक्तिशाली दिव्यास्त्र थे। एक बार उन्होंने वीर परशुराम तक को धूल चटा दी थी। जयद्रथ की अजेयता का कारण उसके पिता द्वारा किया जा रहा तप था। उन्होंने यह दृढ़ निश्चय किया था कि जो कोई भी व्यक्ति मेरे पुत्र जयद्रथ का सिर पृथ्वी पर गिरायेगा, उस व्यक्ति का सिर भी नीचे गिर पड़ेगा। कर्ण से भय का कारण यह था कि उसे भी इन्द्र से दिव्यास्त्र प्राप्त हुआ था। 

उपर्युक्त कारणों से स्पष्ट होता है कि भगवान् ने इन चार पुरुषों का ही विशेष  उल्लेख क्यों किया है। ये महारथी लोग भी काल का ग्रास बन चुके थे, अतएव  अर्जुन को चाहिए कि वह राज-सिंहासन की ओर अग्रसर हो और सम्पूर्ण वैभव का स्वामी बन जाये। यह स्वाभाविक है कि जब मनुष्य की किसी तीव्र इच्छा को पूर्ण कर दिया जाता है, तो वह अकस्मात् अपने दयालु संरक्षक की स्तुति और प्रशंसा करने लगता है। 

।।11.34।। यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को सीधे और स्पष्ट शब्दों में आश्वस्त करते हैं कि उसको उठ खड़े होकर काल (भगवान श्रीरामकृष्ण-माँ काली के अवतार वरिष्ठ) के आश्रय से सफलता और वैभव को प्राप्त करना चाहिए। अधर्मियों की शक्ति और सार्मथ्य कितनी ही अधिक क्यों न हो, लोक क्षयकारी महाकाल (ब्रह्म) की शक्ति (माँ सारदा) ने पहले ही उन्हें मार दिया है। अर्जुन को केवल आगे बढ़कर एक वीर पुरुष की भूमिका निभाते हुए विजय के मुकुट को प्राप्त कर लेना है

>> "मनुष्य बनो और बनाओ" कर्म की अभिप्रेरणा ( Motivation of action for Be and Make ) : श्रीमद भगवदगीता के १८ वाँ अध्याय के एक श्लोक (18. 18 ) कर्म की अभिप्रेरणा के लिए 'कर्मचोदना' शब्द का उल्लेख मिलता है। तो आज के समाज में इस शब्द का प्रयोग जिस अर्थ में किया जाता है , वो कहाँ से आया ? उसी एक शब्द पर चर्चा -

ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता' त्रिविधा कर्मचोदना।

करणं कर्म कर्तेति' त्रिविधः कर्मसंग्रहः।।

(गीता :18.18)

 18.18 ज्ञानम् knowledge, ज्ञेयम् the knowable, परिज्ञाता the knower, त्रिविधा threefold, कर्मचोदना impulse to action, करणम् the organ, कर्म the action, कर्ता the agent, इति thus, त्रिविधः threefold, कर्मसंग्रहः the basis of action.

 अनुच्छेद (Paragraph) -  "ज्ञानं (= knowledge)  ज्ञेयं (=the knowable) परिज्ञाता (=the knower) त्रिविधा (threefold)  कर्मचोदना (impulse to action) करणं कर्म कर्ता इति त्रिविधः कर्मसङ्ग्रहः (the basis of action) ॥"

शब्दार्थ : ज्ञानम् = सर्वविषयज्ञानम्, ज्ञेयम् = ज्ञातव्यम्, परिज्ञाता = वेदिता, कर्मचोदना =कार्रवाई के लिए आवेग!  कर्मप्रवर्तना, करणम् = साधनम्,कर्म = ईप्सिततमम्,कर्ता = आचरिता, कर्मसङ्ग्रहः = कर्मप्रकारः ।

।।18.18।। ज्ञान, ज्ञेय और परिज्ञाता ये त्रिविध कर्म प्रेरक हैं- इन तीनों से कर्म करने की प्रेरणा होती है।  और, करण, कर्म. कर्ता - इन तीनों से कर्मसंग्रह होता है; ये त्रिविध कर्म संग्रह हैं।।

{कर्ता च तन्निर्वर्तकः पुरुषः इति विवेकः ??? ।)

 यहाँ श्रीकृष्ण कर्मों को प्रेरित करने वाले तीन कारकों की चर्चा करते हैं। ये ज्ञान, ज्ञेयं और ज्ञाता हैं। संयुक्त रूप से इन्हें 'ज्ञानत्रिपुटी' अर्थात ज्ञान की त्रिमूर्ति कहा जाता है।  यह त्रिमुर्ति संयुक्त रूप से कर्म को प्रेरित करती है। ज्ञान और कार्य की गुणवत्ता का पारस्परिक संबंध होता है। उदाहणार्थ प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय से प्राप्त की गई डिग्री का जीविका प्राप्त करने में अत्यंत महत्त्व होता है। 

इसकी दूसरी श्रेणी को 'कर्मत्रिपुटी' अर्थात 'कर्म की त्रिमूर्ति' का नाम दिया गया है जिसमें कर्ता, (कार्य करने वाला) करण (कर्म के उपादान) और स्वयं कर्म सम्मिलित है। संयुक्त रूप से कर्म की यह त्रिमूर्ति कर्म तत्त्व का निर्माण करती है। 

 कर्म के स्वरूप का युक्तियुक्त विवेचन करते हुए  भगवान् श्री कृष्ण ने कर्म के सम्पादन के पाँच कारणों का वर्णन किया है।  तथा उनसे भिन्न अकर्ता आत्मा का भी निर्देश किया है। उसी विषय का विस्तार करते हुए अब वे कर्म के त्रिविध प्रेरक तथा जिससे कर्म संभव होता है वह त्रिविध कर्म संग्रह बताते हैं। 

प्रत्येक कर्म का प्रेरक है -  विषय ज्ञान। इस ज्ञान की सिद्धि के लिए जिन तीन तत्त्वों की आवश्यकता होती है- वे हैं ज्ञाता,  ज्ञेय अर्थात् ज्ञान का विषय तथा ज्ञान अर्थात् "जानने की क्रिया " से प्राप्त हुआ ज्ञान

>> वेदान्त में त्रिपुटी क्या है ? ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान इन तीनों को वेदान्त की शब्दावली में त्रिपुटी कहते हैं। इन तीनों के संबंध से ही कर्म के प्रवर्तक विषय का ज्ञान होता है। कर्म की प्रेरणा तीन प्रकार से हो सकती है - (1) ज्ञाता के मन में उत्पन्न हुई इच्छा के रूप में या (2) ज्ञेय वस्तु के प्रलोभन से अथवा (3) पूर्वानुभूत भोग (ज्ञात सुख) की स्मृति से। इन तीनों के अतिरिक्त कर्म का प्रेरक अन्य कोई कारण नहीं है

>> त्रिविध कर्मसंग्रह : अन्तकरण में कर्म की प्रेरणा उत्पन्न होने के पश्चात् उसको पूर्ण करने के लिए कर्ता, करण और कर्म नामक त्रिपुटी की आवश्यकता होती है; जिसे यहाँ त्रिविध कर्मसंग्रह कहा गया है। 

>>"हरि नहीं - हरि दासो अहं" का वार्षिक तुलनपत्रम् (annual balance sheet ):" : कामना से प्रेरित जीव कर्म के क्षेत्र में कर्तृत्वाभिमान (मैं कर्ता हूँ) के साथ प्रवेश करता है। यहाँ जीव कर्ता कहलाता है। यह कर्ता जीव जिस फल या लक्ष्य की कामना करता है , उसे यहाँ कर्म शब्द से इंगित किया गया है। यहाँ कर्म का तात्पर्य फल से है। कर्ता जीव को फल (कर्म) प्राप्त करने के लिए क्रिया करनी पड़ती है। 

क्रिया के ये साधन करण कहे जाते हैं जिनमें ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ तथा मन बुद्धि का भी समावेश है। इस प्रकार कर्ता, कर्म और करण ये कर्म की त्रिपुटी अथवा कर्मसंग्रह कहे जाते हैं। इन तीनों में से किसी एक के भी अभाव में कर्म संभव नहीं हो सकतासमस्त जगत् त्रिगुणात्मिका प्रकृति का कार्य है। 

इसलिए ज्ञान, कर्म और कर्ता में भी त्रिगुणों के कारण त्रिविध भेद उत्पन्न होते हैं, जिनका अब वर्णन किया जायेगा।

अर्थ - कार्य का ज्ञान , ज्ञान का विषय (ज्ञेय) और ज्ञाता --- ये तीन कर्म की प्रेरणा हैं।  तथा करण अथार्त इन्द्रियाँ (the organ), क्रिया (the action) और कर्ता (the agent) अथार्त प्रकृति के तीनो गुण (सत ,रज और तमोगुण ये तीनों)---ये तीन कर्म के अंग (क्रिया के आधार -the basis of action) हैं।

श्रीमद भगवद्गीता के १८ वें अध्याय के इस श्लोक में जो शब्द कर्मचोदना आया है वो कर्म और चोदना से मिलकर बना है।  चोदना शब्द संस्कृत के शब्कोष में देखा तो पता चला की 'चुद' इसका मूल धातु है।  इस शब्द का सही अर्थ है अभिप्रेरणा। मेरे मन में एक जिज्ञासा आई कि आज के समाज में ' चोदना' शब्द का जो अर्थ है वो कहाँ से आया ? और गीता में इस शब्द के आगे कर्म लगा है जिसका अर्थ है कर्म की अभिप्रेरणा (क्रिया कर बैठने का आवेग -impulse or propensity?) 

लेकिन चुद्‍ धातु के अन्य अर्थ हैं- निर्देश देना (to give instructions), मार्ग प्रदर्शित करना (to show the way-विवेक प्रयोग करने के लिए नेतृत्व प्रदान करना ?), आगे फेंकना, धकेलना, हाँकना, ठेलना, स्फूर्ति देना, उकसाना, शीघ्रता करना।  गालियों में आने से पहले इसे प्रजनन के अर्थ में देखिये..... गर्भ धारण के लिए प्रेरित करना या बीज को आगे फेंकना, या धकेलना।

गुप्त गतिविधियों (secret activities) :  के साथ हमेशा ऐसा ही होता है, (प्रवृत्ति मार्गी ऋषियों की) एक पीढ़ी उसके लिए एक शालीन शब्द लेकर आती है ताकि कोई 'गन्दा' भाव मन में आने पाए लेकिन अगली पीढ़ी तक आते-आते वही शब्द गन्दगी का प्रतीक बन जाता है। 'चोदना' एक ऐसा शब्द है ही जो कभी ऐसा शास्त्रीय शब्द होता था कि जिसे गीता और गायत्री मंत्र (#) में प्रयोग किया गया। और दूसरा ऐसा शब्द 'टट्टी'.. जिसका मूल अर्थ बाँस की खपच्ची है। इन्ही खपच्चियों को, टट्टियों को अंग्रेज़ लोग गाँव-क़स्बों आदि में, जहाँ उनके लिए बनाए गए स्थायी शौचालय उपलब्ध नहीं थे, अपने मलत्याग करने हेतु बनाए गए अस्थायी कमोड के चारो ओर लगवाया करते थे। आज भी टट्टी का दूसरा अर्थ शेष है खस की टट्टी आदि जैसे प्रयोगों में। उसी टट्टी की आड़ मलत्याग के उस पूरे कर्म की आड़ बन कर विकसित हुई लेकिन अब एक गन्दा शब्द बन चुकी है। 

(एक ताजा उदाहरण बाथरूम /का भी लिया जा सकता है। जिसका अर्थ आज उत्तर भारत में पेशाब करना हो चुका है।) 

गांधी जी कर्मचोदना का अर्थ बताते हैं-कर्म की प्रेरणा।  जहाँ प्रयास के साथ या सोद्देश्य कोई कर्म किया जा रहा हो....वहाँ कर्म के लिए इस शब्द का प्रयोग किया जाता था। इसी तरह की दुर्घटना 'पेलना ' शब्द के साथ भी घटी है। इसे भाषा विज्ञान में अर्थ से गिर जाना माना जाता है। सुंदरकांड में आता है, "पेलि पठावा" बल पूर्वक भेंजा गया, प्रेरित करके भेंजा गया।  प्रेरणा से पेलना बनता दिखता है लेकिन आगे चलकर यह शब्द भी गाली में बदल गया। सुलभ शौचालय से जुड़ने के बाद यही अर्थ च्युतता सुलभ के साथ जुड़ी है, अब इलाहाबाद में सुलभ का प्रयोग यानी शौच जैसा हो गया है।  

>>>गायत्री मंत्र (#) “तत्, सवितुर वरेण्यं, भर्गो देवस्य धीमहि, धियो योनः प्रचोदयात्!”- ऋग्वेद (3.62.10) गायत्री मंत्र सवितुर (आदित्य-सूर्य-सूर्य) और सविता (सावित्री-गायत्री), मूल के गतिशील रूप (शक्ति-सावित्री-गायत्री) (स्रोत जिसे शक्ति-आदित्य कहा जाता है) को समर्पित है। इसलिए, गायत्री मंत्र शाक्त (मूल) और शक्ति (गतिशील रूप) दोनों को समर्पित है। गायत्री को वेद माता कहा जाता है, जिसका अर्थ है "वेदों की माता"। इस मंत्र के जाप से पृथ्वी, मध्यवर्ती क्षेत्र और स्वर्ग के हर पहलू में कंपन होता है और गायत्री मंत्र का जाप करने वाले व्यक्ति के भौतिक शरीर की ऊर्जा में भूर, भुव और सुवः की ऊर्जा जुड़ जाती है।

TAT शब्द पर चिंतन-मनन के साथ, प्राचीन भारतीय ऋषियों ने महसूस किया कि TAT पृथ्वी (भूर), मध्यवर्ती क्षेत्र (भुव), और स्वर्ग (सुवह) का प्रतिनिधित्व करता है।अत: मूल गायत्री मंत्र में "भूर, भुव और सुवः " जोड़ा गया। “भूर् भुव सुवः, तत् सवितुर वरेण्यं! भर्गो देवस्य धीमहि, धियो योनः प्रचोदयात्!” इस मंत्र के जाप से पृथ्वी, मध्यवर्ती क्षेत्र और स्वर्ग के हर पहलू में कंपन होता है और गायत्री मंत्र का जाप करने वाले व्यक्ति के भौतिक शरीर की ऊर्जा में भूर, भुव और सुवः की ऊर्जा जुड़ जाती है। अथर्ववेद का गायत्री मंत्र: “भूर् भुव सुवः, तत् सवितुर वरेण्यं! भर्गो देवस्य धीमहि, धियो योनः प्रचोदयात्!”

1. TAT: यह परम, निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सर्वव्यापी और सर्वव्यापी सार्वभौमिक चेतना का प्रतिनिधित्व करता है जिसे निराकार-निर्गुण-ब्राह्मण (ईश्वर-प्रकृति-परमात्मा) कहा जाता है, जो ब्रह्मांड में हर चीज का स्रोत है।गायत्री मंत्र का वास्तविक सार पहले मंत्र, TAT ' टीएटी में खूबसूरती से लपेटा गया था।

2. सवितुर: सवितुर का अर्थ है सूर्य।

3. वरेण्यम: इसका अर्थ है सूर्य के प्रकाश की शानदार चमक।

4. भर्गो : इसका अर्थ है वैभव।

5. देवस्य: इसका अर्थ है दिव्य।

6. धीमहि: इसका अर्थ है समर्पण।

7. धियो: इसका अर्थ है आशीर्वाद मांगना या मांगना ।

8. योनाः इसका अर्थ है विशिष्ट इच्छा।

9. प्रचोदयात्: इसका अर्थ है अनुग्रहित या आशीर्वादित। 

अत: मूल गायत्री मंत्र का अर्थ इस प्रकार है - (ओउम)* ॐ के जाप के साथ, मैं पृथ्वी, वायुमंडल और स्वर्ग की तीन अभूतपूर्व दुनियाओं के ऊर्जावान, सूर्य-देवता, सूर्य की सुंदर चमक की पूजा करता हूं। मैं सार्वभौमिक चेतना के उस दिव्य वैभव के प्रति समर्पण करता हूं, जो भगवान ब्रह्मा, भगवान विष्णु और भगवान शिव की संचयी चेतना है।मैं प्रकाश की तलाश और प्रार्थना करता हूं। मुझे अपने इष्टदेव, सूर्य के द्वारा प्रकाश का आशीर्वाद प्राप्त है। 

अत: मूल गायत्री मंत्र का अर्थ इस प्रकार है - 

एक नया युवा आंदोलन- 'दुख में आनंद !'

"मैं इस देश में भूख या जाड़े से भले ही मर जाऊँ, परन्तु मेरे नवयुवको (महामण्डल के भावी नेताओं), मैं गरीब, भूखों और उत्पीड़ितों के लिए इस सहानुभूति और प्राणपण प्रयत्न को थाती के तौर पर तुम्हें अर्पण करता हूँ। जाओ तुम सब इसी क्षण उस पार्थसारथी के मन्दिर में (श्रीकृष्ण आदि दशावतारों के मन्दिर में), जो गोकुल के दीन -हीन ग्वालों के सखा थे, जो अपने रामावतार में गुहक चाण्डाल को भी गले लगाने में, नहीं हिचके। जिन्होंने अपने बुद्धावतार में अमीरों का निमंत्रण अस्वीकार करके एक वरांगना के भोजन का निमंत्रण स्वीकार किया और उसे उबारा।  जाओ उनके पास, जाकर साष्टांग प्रणाम करो और उनके सम्मुख एक महाबली दो, अपने समस्त जीवन की बली दो - उन दीनहीनों और उत्पीड़ितों के लिये, जिनके लिये भगवान युग युग में अवतार लिया करते हैं, और जिन्हें वे सबसे अधिक प्यार करते हैं।" 

#महामण्डल ब्लॉग शुक्रवार, 19 मई 2017 : "अधिकांश युवा स्वामी विवेकानन्द के प्रति क्यों आकर्षित हो जाते हैं ? ]

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[( 26 अक्टूबर, 1885)- श्री रामकृष्ण वचनामृत-126 ]

🔱🙏 न योत्स्ये >I will not fight ! भगवान कर्ता हैं, अर्जुन साधन है !🔱🙏  

[God is the doer, Arjuna is the instrument !]

 (ঈশ্বরই কর্তা, অর্জুন যন্ত্র

श्रीरामकृष्ण - मथुरबाबू से मैंने कहा था, 'तुम यह न सोचना कि तुम एक बड़े आदमी हो, मुझे मानते हो, इसलिए मैं कृतार्थ हो गयातुम मानो या न मानो ।' परन्तु एक बात है, आदमी क्या कर सकता है, वे (ईश्वर) स्वयं आकर मनायेंगे । ईश्वरीय शक्ति के सामने मनुष्य घास-फूस की तरह है

MASTER: "Once I said to Mathur Babu: 'Don't think that I have achieved my desired end because you, a rich man, show me respect. It matters very little to me whether you obey me or not.' Of course, you must remember that a mere man can do nothing. It is God alone who makes one person obey another. Man is straw and dust before the power of God."

শ্রীরামকৃষ্ণ — সেজোবাবুকে বলেছিলাম, তুমি মনে করো না, তুমি একটা বড়মানুষ, আমায় মানছো বলে আমি কৃতার্থ হয়ে গেলুম! তা তুমি মানো আর নাই মানো। তবে একটি কথা আছে — মানুষ কি করবে, তিনিই মানাবেন। ঈশ্বরীয় শক্তির কাছে মানুষ খড়কুটো!

डाक्टर - क्या आप यह सोचते हैं कि अमुक मछुआरा (fisherman)* आपको मानता था इसलिए मैं भी मानूँगा ?... परन्तु हाँ, आपका सम्मान जरूर करता हूँ, आपके प्रति भक्ति करता हूँ, परन्तु वैसी ही, जैसी मनुष्य के प्रति की जाती – [*यहाँ पर डॉक्टर मथुरबाबू के सम्बन्ध में कह रहे हैं, क्योंकि मथुरबाबू मछुआ जाति के थे । ईसा अवतार के समय क्या इन्हें ही शिमोन (Simeon) के नाम से भी जाना जाता था। इन्हें ही आगे चलकर संत पेत्रुस (Saint Peter)  कहा गया। उनके पिता का नाम जॉन या योहन (John or Yohan) था जो एक मछुआरे थे। कैथोलिक मान्यता के अनुसार उन्हें रोम का पहला बिशप या पोप माना जाता है ? और राम अवतार के समय मथुरबाबू ही क्या निषादराज गुहक चाण्डाल बने थे ? ]

DOCTOR: "Do you think I shall obey you because a certain fisherman4 obeyed you? . . . Undoubtedly I show you respect; I show you respect as a man."

(^Alluding to Mathur Babu, who belonged to the low caste of the fishermen.)

ডাক্তার — তুমি কি মনে করেছো অমুক মাড় তোমায় মেনেছে বলে আমি তোমায় মানব? তবে তোমায় সম্মান করি বটে, তোমায় রিগার্ড করি, মানুষকে যেমন রিগার্ড করে

श्रीरामकृष्ण - अजी, क्या मैं मानने के लिए कह रहा हूँ ?

MASTER: "Do I ask you to show me respect?"

শ্রীরামকৃষ্ণ — আমি কি মানতে বলছি গা?

गिरीश घोष - क्या वे आपको मानने के लिए कह रहे हैं ?

GIRISH: "Does he ask you to show him respect?"

গিরিশ ঘোষ — উনি কি আপনাকে মানতে বলছেন?

डाक्टर - (श्रीरामकृष्ण से) - आप क्या कहते हैं ? ईश्वर की इच्छा ?

DOCTOR (to the Master): "What are you saying? Do you explain it as the will of God?"

ডাক্তার (শ্রীরামকৃষ্ণের প্রতি) — তুমি কি বলছো — ঈশ্বরের ইচ্ছা?

श्रीरामकृष्ण - और नहीं तो क्या कह रहा हूँ ? ईश्वरीय शक्ति के निकट मनुष्य क्या कर सकता है? कुरुक्षेत्र में अर्जुन ने कहा,(न योत्स्ये इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह।।2.9।।)  'लड़ाई मुझसे न होगी, अपने ही भाइयों का वध मैं न कर सकूँगा ।'

MASTER: "What else can it be? What can a man do before the will of God? Arjuna said to Sri Krishna on the battlefield of Kurukshetra: 'I will not fight. I can't kill my kinsmen.'

শ্রীরামকৃষ্ণ — তবে আর কি বলছি! ঈশ্বরীয় শক্তির কাছে মানুষ কি করবে? অর্জুন কুরুক্ষেত্র যুদ্ধে বললেন, আমি যুদ্ধ করতে পারব না, জ্ঞাতি বধ করা আমার কর্ম নয়। 

श्रीकृष्ण ने कहा, 'अर्जुन, तुम्हें लड़ना ही होगा । तुम्हारा स्वभाव तुमसे युद्ध करायेगा ।' श्रीकृष्ण ने सब दिखला दिया कि ये सब आदमी मरे हुए हैं । ठाकुरबाड़ी में कुछ सिक्ख आये थे । उनके मत से पीपल का पत्ता भी ईश्वर की इच्छा से डोलता है - बिना उनकी इच्छा के पीपल का पत्ता तक नहीं डोल सकता ।

Sri Krishna replied: 'Arjuna, you will have to. fight. Your very nature will make you fight.' Then Sri Krishna revealed to Arjuna that all the men on the battlefield were already dead.5 (Reference to the eleventh chapter of the Gita.^मयैवैते निहताः पूर्वमेव, निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्।। (गीता : 11.33) 

শ্রীকৃষ্ণ বললেন — ‘অর্জুন! তোমায় যুদ্ধ করতেই হবে, তোমার স্বভাবে করাবে!’ শ্রীকৃষ্ণ সব দেখিয়ে দিলেন, এই এই লোক মরে রয়েছে।১3 শিখরা ঠাকুর বাড়িতে এসেছিল; তাঁদের মতে অশ্বত্থ গাছে যে পাতা নড়ছে, সেও ঈশ্বরের ইচ্ছায় — তাঁর ইচ্ছা বই একটি পাতাও নড়বার জো নাই!

[( 26 अक्टूबर, 1885)- श्री रामकृष्ण वचनामृत-126 ]

🔱🙏 स्वतंत्रता या आवश्यकता? #- उद्देश्यों का प्रभाव🔱🙏 

[Liberty or Necessity? — Influence of Motives]

[# चित्तनदी के प्रवाह को विवेक का फाटक लगाकर उर्ध्वमुखी बना लेना स्वतन्त्रता या अनिवार्यता? सभी स्त्रियाँ माँ काली का रूप हैं -(All women are the form of Maa Kali - that's why इसीलिये $ अवतार का पृथ्वी पर आना-स्वतंत्रता या आवश्यकता? अथवा स्वामी विवेकानन्द द्वारा निर्विकल्प समाधि के आनन्द को त्याग कर -पुनः शरीर में रहना , स्वतंत्रता या आवश्यकता ? दुनिया दुख में जल रही है क्या आप सो सकते हैं? ) -  >>>Is it freedom or necessity to make the flow of the river of mind upward by putting the gate of conscience? $ The World is burning in misery can you sleep? পৃথিবী দুর্দশায় জ্বলছে তুমি কি ঘুমোতে পারো? ]

डाक्टर - यदि ईश्वर की ही सब इच्छा है तो आप बातचीत क्यों करते हैं ? लोगों को ज्ञान देने के लिए इतनी बातें क्यों कहते हैं ?

DOCTOR: "If everything is done by the will of God, then why do you chatter? Why do you talk so much to bring knowledge to others?"

ডাক্তার — যদি ঈশ্বরের ইচ্ছা, তবে তুমি বকো কেন? লোকদের জ্ঞান দেবার জন্য কথা কও কেন?

श्रीरामकृष्ण - कहलवाते हैं, इसलिए कहता हूँ । मैं यन्त्र हूँ, वे यन्त्री हैं ।

MASTER: "He makes me talk; therefore I talk. 'I am the machine and He is the Operator.'"

শ্রীরামকৃষ্ণ — বলাচ্ছেন, তাই বলি। ‘আমি যন্ত্র — তুমি যন্ত্রী।’

डाक्टर - आप अपने को यन्त्र कह रहे हैं । यह ठीक है । या चुप ही रहिये, क्योंकि सब कुछ तो ईश्वर ही हैं ।

DOCTOR: "You say that you are the machine. That's all right. Or keep quiet, knowing that everything is God."

ডাক্তার — যন্ত্র তো বলছো; হয় তাই বল, নয় চুপ করে থাকো। সবই ঈশ্বর।

गिरीश (डाक्टर के प्रति) - महाशय, आप कुछ भी सोचें, परन्तु वे कराते हैं इसीलिए हम लोग करते हैं । क्या उस सर्वशक्तिमान ईश्वर की इच्छा के प्रतिकूल कोई एक पग भी चल सकता है ?

GIRISH (to the doctor): "Whatever you may think, sir, the truth is that we act because He makes us act. Can anyone take a single step against the Almighty Will?"

গিরিশ — মসাই, যা মনে করুন। কিন্তু তিনি করান তাই করি। A single step against the Almighty will (তাঁর ইচ্ছার প্রতিকূলে এক পা) কেউ যেতে পারে?

डाक्टर - स्वाधीन इच्छा भी तो उन्होंने दी है । मैं यदि चाहूँ तो ईश्वर-चिन्ता कर भी सकता हूँ, और न चाहूँ तो नहीं भी कर सकता ।

DOCTOR: "But God has also given us free will. I can think of God, or not, as I like."

ডাক্তার — Free Will তিনিই দিয়েছেন তো। আমি মনে করলে ঈশ্বর চিন্তা করতে পারি, আবার না করলে না করতে পারি

गिरीश - आप ईश्वर की चिन्ता या सत्कर्म इसलिए करते हैं कि वह आपको अच्छा लगता है । अतएव वह कर्म आप स्वयं नहीं करते, वह अच्छा लगना ही आपसे करवाता है ।

GIRISH: "You think of God or do some good work because you like to. Really it is not you who do these things, but your liking of them that makes you do so."

গিরিশ — আপনার ঈশ্বরচিন্তা বা অন্য কোন সৎকাজ ভাল লাগে বলে করেন। আপনি করেন না, সেই ভাল লাগাটা করায়।

डाक्टर - क्यों, मैं कर्तव्य समझकर करता हूँ –

DOCTOR: "Why should that be so? I do these things as my duty."

ডাক্তার — কেন, আমি কর্তব্য কর্ম বলে করি —

गिरीश - वह भी इसलिए कि आपका मन कर्तव्य कर्म करना पसन्द करता है – [यानि आपने माँ काली -श्री रामकृष्ण -माँ सारदा - स्वामी विवेकानन्द शिक्षक-प्रशिक्षण  परम्परा में (यानी महामण्डल के संस्थापक सचिव C-in-C नवनीदा द्वारा आविष्कृत "मायावती अद्वैत आश्रम नेतृत्व प्रशिक्षण परंपरा के तहत सी-इन-सी बनें और बनाएं " में)- चित्तनदी के प्रवाह को विवेक का फाटक लगाकर मोड़ घुमा देने का कौशल सीख लिया है !)  

GIRISH: "Even then it is because 'you' [your mind or ego, is under the control of your 'vivek-prayog shkti ? and ] like to do your duty."

{Girish - That too because your mind likes to do one's duty - (that is, you have learned the skill of diverting the flow of Chitnadi by placing the gate of conscience in the Maa Kali-Shri Ramakrishna-Maa Sarada-Swami Vivekananda teacher-training tradition. (i.e.  “Be and Make" C-in-C under Mayawati Advaita Ashram Leadership Training Tradition” invented by C-in-C Navanee da, Founder Secretary of Mahamandal !) }

গিরিশ — সেও কর্তব্য কর্ম করতে ভাল লাগে বলে!

[( 26 अक्टूबर, 1885)- श्री रामकृष्ण वचनामृत-126 ]

🔱🙏दुनिया दुख में जल रही है क्या आप सो सकते हैं? 🔱🙏

The world is burning in misery can you sleep?

পৃথিবী দুর্দশায় জ্বলছে তুমি কি ঘুমোতে পারো?

डाक्टर - सोचो कि एक लड़का जला जा रहा है । उसे बचाने के लिए जाना कर्तव्य के विचार से ही तो होता है ।

DOCTOR: "Suppose a child is being burnt. From a sense of duty I rush to save it."

ডাক্তার — মনে কর একটি ছেলে পুড়ে যাচ্ছে; তাকে বাঁচাতে যাওয়া কর্তব্য বোধে —

गिरीश - बच्चे को बचाते हुए आपको आनन्द मिलता है, इसलिए आप आग में कूद पड़ते हैं, आनन्द आपको खींच ले जाता है । मिठाई का मजा लेने के लिए जैसे पहले अफीम खाना । ( सब हँसते हैं ।) 

{A person eats opium because of its taste like puffed rice  or fried potatoes कोई व्यक्ति मुरमुरे जैसे स्वाद के लालच में आकर अफ़ीम खाता है (फिंगर चिप्स, चाय या सिंघाड़ा में अफीम मिला के कोई बेचे तो सब वहीं से सिंघाड़ा खाएंगे या चाय पिएंगे ? सब हँसते हैं ।)}

GIRISH: "You feel happy to save the child; therefore you rush into the fire. It is your happiness that drives you to the action. A man eats opium being tempted by such relishes as puffed rice or fried potatoes." (Laughter.)

গিরিশ — ছেলেটিকে বাঁচাতে আনন্দ হয়, তাই আগুনের ভিতর যান; আনন্দ আপনাকে নিয়ে যায়। চাটের লোভে গুলি খাওয়া! (সকলের হাস্য)

[( 26 अक्टूबर, 1885)- श्री रामकृष्ण वचनामृत-126 ]

🔱🙏ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना।🔱🙏

एक नया युवा आंदोलन- 'दुख में आनंद !'

🔱🙏एकं नवीनं युवा आन्दोलनं - 'दुःखेन आनन्दः !'🔱🙏

[“জ্ঞানং জ্ঞেয়ং পরিজ্ঞাতা ত্রিবিধা কর্মচোদনা” ]২

"পেটে খেলে পিঠে সয়। কষ্টতেও আনন্দ"

"पेटे खेले, पीठे सोय ! कोष्टो  तेओ आनन्दो ! " 

A New Youth Movement- 'Joy in suffering !' 

श्रीरामकृष्ण - कर्म (Be and Make) करने के पहले उस पर विश्वास चाहिए, उसके साथ वस्तु की याद करने पर आनन्द होता है, तभी काम करने में उस आदमी की प्रवृत्ति होती है । मिट्टी के नीचे एक घड़े में अशर्फियाँ भरी हैं, यह ज्ञान - यह विश्वास पहले होना चाहिए । घड़े को सोचने से ही आनन्द मिलता है - फिर खोदा जाता है ।

MASTER: "A man must have some kind of faith before he undertakes a work. Further, he feels joy when he thinks of it. Only then does he set about performing the work. Suppose a jar of gold coins is hidden underground. First of all a man must have faith that the jar of gold coins is there. He feels joy at the thought of the jar. Then he begins to dig. 

শ্রীরামকৃষ্ণ — কর্ম করতে গেলে আগে একটি বিশ্বাস চাই, সেই সঙ্গে জিনিসটি মনে করে আনন্দ হয়, তবে সে ব্যক্তি কাজে প্রবৃত্ত হয়। মাটির নিচে একঘড়া মোহর আছে — এই জ্ঞান, এই বিশ্বাস, প্রথমে চাই। ঘড়া মনে করে সেই সঙ্গে আনন্দ হয় — তারপর খোঁড়ে। 

खोदते हुए घड़े में कुदाल के लगने पर जब ठनकार होती है, तब आनन्द और भी बढ जाता है । फिर जब घड़े की कोर दीख पड़ती है तब आनन्द और बढ़ता है । इसी तरह आनन्द बढ़ता ही जाता है । मैंने स्वयं ठाकुरबाड़ी के बरामदे में खड़े होकर देखा है - साधुओं ने गाँजा मलकर तैयार किया कि चिलम पर चढ़ाते चढ़ाते उनका आनन्द उमड़ने लगा ।

As he removes the earth he hears a metallic sound. That increases his joy. Next, he sees a corner of the jar. That gives him more joy. Thus his joy is ever on the increase. Standing on the porch of the Kali temple, I have watched the ascetics preparing their hemp smoke. I have seen their faces beaming with joy in anticipation of the smoke."

খুঁড়তে খুঁড়তে ঠং শব্দ হলে আনন্দ বাড়ে। তারপর ঘরার কানা দেখা যায়। তখন আনন্দ আরও বাড়ে। এইরকম ক্রমে ক্রমে আনন্দ বাড়তে থাকে। আমি নিজে ঠাকুরবাড়ির বারান্দায় দাঁড়িয়ে দেখেছি, — সাধু গাঁজা তয়ের করছে আর সাজতে সাজতে আনন্দ।

डाक्टर - परन्तु आग गरमी भी पहुँचाती है और प्रकाश भी । प्रकाश से पदार्थ दीख तो पड़ते हैं, परन्तु गरमी देह को जलाती है । कर्तव्य करते हुए आनन्द ही आनन्द मिलता हो सो बात नहीं, कष्ट भी होता है ।

DOCTOR: "But take the case of fire. It gives both heat and light. The light no doubt illumines objects, but the heat burns the body. Likewise, it is not an unadulterated joy that one reaps from the performance of duty. Duty has its painful side too."

ডাক্তার — কিন্তু আগুন ‘হীট’ও (উত্তাপ) দেয়, আর ‘লাইট’ও (আলো) দেয়। আলোতে দেখা যায় বটে; কিন্তু উত্তাপে গা পুড়ে যায়। ডিউটি (কর্তব্য কর্ম) করতে গেলে কেবল আনন্দ হয় তা নয়, কষ্টও আছে!

मास्टर (गिरीश से) - पेट में दाना पड़ता है तो मार सहने के लिए पीठ भी मजबूत रहती है। कष्ट में भी आनन्द है ।

M. (to Girish): "As the proverb goes: 'If the stomach gets food, then the back can bear a few blows from the host.' There is joy in sorrow also."

মাস্টার (গিরিশের প্রতি) — পেটে খেলে পিঠে সয়। কষ্টতেও আনন্দ।

गिरीश - (डाक्टर से) - कर्तव्य रूखा है ।

GIRISH (to the doctor): "Duty is dry."

গিরিশ (ডাক্তারের প্রতি) — ডিউটি শুষ্ক।

डाक्टर – क्यों ?

DOCTOR: "Why so?"

ডাক্তার — কেন?

गिरीश - तो सरस सही ! (सब हँसते हैं)

GIRISH: "Then it is pleasant." (All laugh.)

গিরিশ — তবে সরস। (সকলের হাস্য)

मास्टर - फिर हम उसी बात पर आ गये - मिठाई के लाभ से अफीम खाना !

M: "Again we come to the point that one likes opium for the sake of the relishes that are served with it."

মাস্টার — বশ, এইবার লোভে গুলি খাওয়া এসে পড়ল।

गिरीश - (डाक्टर से) - कर्तव्य सरस है, अन्यथा आप वह करते क्यों हैं ?

GIRISH (to the doctor): "Duty must be pleasant; or why do you perform it?"

গিরিশ (ডাক্তারের প্রতি) — সরস, নচেৎ ডিউটি কেন করেন?

डाक्टर - मन की गति उसी ओर है ।

DOCTOR: "The mind is inclined that way."

ডাক্তার — এইরূপ মনের ইনক্লিনেসন (মনের ওইদিকে গতি)।

मास्टर - (गिरीश से) - अभागा स्वभाव खींचता है । (हास्य) अगर एक ही ओर मन का झुकाव रहा तो स्वाधीन इच्छा फिर कहाँ रही ?

M. (to Girish): "That wretched inclination draws the mind. If you speak of the compelling power of inclination, then where is free will?"

মাস্টার (গিরিশের প্রতি) — ‘পোড়া স্বভাবে টানে!’ (হাস্য) যদি একদিকে ঝোঁকই (ইনক্লিনেসন) হল Free Will কোথায়?

डाक्टर - मैं बिलकुल स्वाधीन नहीं कहता । गौ खूँटी से बँधी है, रस्सी की पहुँच जहाँ तक है, वहीं तक स्वाधीन है । परन्तु जहाँ उसे रस्सी का खिंचाव लगा तो –

["मैं यह नहीं कहता कि इच्छाशक्ति बिल्कुल स्वतंत्र है। (will =संकल्प -मुखाग्नि कौन देगा ? की वसीयत करने की अभिलाषा बिल्कुल स्वतंत्र है।)  मान लीजिए कि एक गाय को रस्सी से बांध दिया गया है। वह उस रस्सी की लंबाई के भीतर स्वतंत्र है। लेकिन जब उसे रस्सी का खिंचाव महसूस होता है -"

DOCTOR: "I do not say that the will is absolutely free. Suppose a cow is tied with a rope. She is free within the length of that rope. But when she feels the pull of the rope —"

ডাক্তার — আমি Free (স্বাধীন) একেবারে বলছি না। গরু খুঁটিতে বাঁধা আছে, দড়ি যতদূর যায়, তার ভিতর ফ্রি। দড়ি টান পড়লে আবার —

[( 26 अक्टूबर, 1885)- श्री रामकृष्ण वचनामृत-126 ]

🔱🙏श्री रामकृष्ण और स्वतंत्र इच्छा 🔱🙏

🔱🙏শ্রীরামকৃষ্ণ ও Free Will🔱🙏 

[Sri Ramakrishna and Free Will]

श्रीरामकृष्ण - यह उपमा यदु मल्लिक ने भी दी थी । (छोटे नरेन्द्र से) क्या यह अंग्रेजी में है ?

MASTER: "Jadu Mallick also gave that illustration. (To the younger Naren) Is it mentioned in some English book?

শ্রীরামকৃষ্ণ — এই উপমা যদু মল্লিকও বলেছিল। (ছোট নরেন্দ্রের প্রতি) একি ইংরাজীতে আছে?

(डाक्टर से) - "देखो, ईश्वर ही सब कुछ कर रहे हैं । ‘वे यन्त्री हैं, मैं यन्त्र हूँ’, अगर किसी में यह विश्वास आ जाय, तब तो वह जीवन्मुक्त ( liberated in life- विदेह -राजर्षि जनक?) हो गया। 'हे ईश्वर, अपना काम तुम खुद करते हो, परन्तु लोग कहते हैं मैं करता हूँ ।' यह किस तरह, जानते हो ? 

(To the doctor) "Look here. If a man truly believes that God alone does everything, that He is the Operator and man the machine, then such a man is verily liberated in life. 'Thou workest Thine own work; men only call it theirs.' Do you know what it is like? 

(ডাক্তারের প্রতি) — “দেখ, ঈশ্বর সব করছেন, তিনি যন্ত্রী, আমি যন্ত্র। এ-বিশ্বাস যদি কারু হয়, সে তো জীবন্মুক্ত — ‘তোমার কর্ম তুমি কর, লোকে বলে করি আমি।’ কিরকম জানো? 

वेदान्त में एक उपमा है, - एक हण्डी में तुमने चावल चढ़ाये, आलू और भंटा उसमें छोड़ दिये । कुछ देर बाद आलू, भंटे और चावल उछलने लगते हैं, मानो अभिमान कर रहे हों कि 'मैं उछलता हूँ - मैं कूदता हूँ ।' छोटे बच्चे आलू और परवरों को उछलते हुए देखकर उन्हें जीवित समझ लेते हैं ।
Vedanta philosophy gives an illustration. Suppose you are cooking rice in a pot, with potato, eggplant, and other vegetables. After a while, the potatoes, eggplant, rice, and the rest begin to jump about in the pot. They seem to say with pride: 'We are moving! We are jumping!' The children see it and think the potatoes, eggplant, and rice are alive and so they jump that way. 

বেদান্তের একটি উপমা আছে — একটা হাঁড়িতে ভাত চড়িয়েছ, আলু, বেগুন, চাল লাফাতে থাকে, যেন অভিমান করছে ‘আমি নড়ছি’, আমি লাফাচ্চি।’ ছোট ছেলেরা ভাবে, আলু। পঠল, বেগুন ওরা বুঝি জীয়ন্ত, তাই লাফাচ্চে। 

किन्तु जो जानते हैं (ब्रह्मविद हैं ?) वे समझा देते हैं कि आलू, भंटे और परवरों में जान नहीं है, वे खुद नहीं उछल रहे; हण्डी के नीचे आग जल रही है, इसलिए वे उछल रहे हैं; अगर लकड़ी निकाल ली जाय, तो फिर वे नहीं हिलते । उसी तरह जीवों का यह अभिमान कि 'मैं कर्ता हूँ', अज्ञान से होता है । ईश्वर की ही शक्ति से सब में शक्ति है । जलती हुई लकड़ी निकाल लेने पर सब चुप हैंकठपुतलियाँ बाजीगर के हाथ से खूब नाचती हैं; किन्तु हाथ से छोड़ देने पर वे हिलती-डुलती तक नहीं

 But the elders (ब्रह्मविद ? चपरास प्राप्त जीवन्मुक्त शिक्षक ?) , who know, explain to the children that the vegetables and the rice are not alive; they jump not of themselves, but because of the fire under the pot; if you remove the burning wood from the hearth, then they will move no more. Likewise, the pride of man, that he is the doer, springs from ignorance. Men are powerful because of the power of God. All becomes quiet when that burning wood is taken away. The puppets dance well on the stage when pulled by a wire, but they cannot move when the wire snaps.

যাদের জ্ঞান হয়েছে তারা কিন্তু বুঝিয়ে দেয় যে, এই সব আলু, বেগুন পটল এরা জীয়ন্ত নয়, নিজে লাফাচ্চে না। হাঁড়ির নিচে আগুন জ্বলছে, তাই ওরা লাফাচ্ছে। যদি কাঠ টেনে লওয়া যায়, তাহলে আর নড়ে না। জীবের ‘আমি কর্তা’ এই অভিমান অজ্ঞান থেকে হয়। ঈশ্বরের শক্তিতে সব শক্তিমান। জ্বলন্ত কাঠ টেনে নিলে সব চুপ। — পুতুলনাচের পুতুল বাজিকরের হাতে বেশ নাচে, হাত থেকে পড়ে গেলে আর নড়ে না চড়ে না!

"जब तक ईश्वर के दर्शन न हो, जब तक उस पारसमणि का (सद्गुरु देव का?) स्पर्श न किया जाय, तब तक; ‘मैं कर्ता हूँ’ यह भ्रम रहेगा ही ‘मैं सत् कार्य कर रहा हूँ, मै असत् कर्म कर रहा हूँ’, इस तरह की भूले होंगी ही । यह भेद-बोध उन्हीं की माया है; और इस मिथ्या संसार को चलाने के लिए इस माया का प्रयोजन है । 

"A man will cherish the illusion that he is the doer as long as he has not seen God, as long as he has not touched the Philosopher's Stone. So long will he know the distinction between his good and bad actions. This awareness of distinction is due to God's maya; and it is necessary for the purpose of running His illusory world. 

“যতক্ষণ না ঈশ্বরদর্শন হয়, যতক্ষণ সেই পরশমণি ছেঁয়া না হয়, ততক্ষণ আমি কর্তা এই ভুল থাকবে; আমি সৎ কাজ করেছি, অসৎ কাজ করেছি, এই সব ভেদ বোধ থাকবেই থাকবে। এ-ভেদবোধ তাঁরই মায়া — তাঁর মায়ার সংসার চালাবার জন্য বন্দোবস্ত। 

किन्तु विद्यामाया का आश्रय लेने पर सत्-मार्ग को पकड़ लेने पर लोग उन्हें प्राप्त कर सकते हैं । जो ईश्वर को प्राप्त कर लेता है, जो उनके दर्शन करता है वही माया को पार कर सकता है ‘वे ही एकमात्र कर्ता हैं, में अकर्ता हूँ’ यह विश्वास जिसे है, वहीं जीवन्मुक्त है । यह बात मैंने केशव सेन से कही थी ।"

But a man can realize God if he takes shelter under His vidyamaya and follows the path of righteousness. He who knows God and realizes Him is able to go beyond maya. He who firmly believes that God alone is the Doer and he himself a mere instrument is a jivanmukta, a free soul though living in a body. I said this to Keshab Chandra Sen."

বিদ্যামায়া আশ্রয় করলে, সৎপথ ধরলে তাঁকে লাভ করা যায়। যে লাভ করে, যে ঈশ্বরকে দর্শন করে, সেই মায়া পার হয়ে যেতে পারে। তিনিই একমাত্র কর্তা, আমি অকর্তা, এ-বিশ্বাস যার, সেই জীবন্মুক্ত, এ-কথা কেশব সেনকে বলেছিলাম।”

गिरीश - (डाक्टर से) - स्वाधीन इच्छा का ज्ञान आपको कैसे हुआ ?

GIRISH (to the doctor): "How do you know that free will exists?"

গিরিশ — Free Will কেমন করে আপনি জানলেন?

डाक्टर - यह युक्ति-तर्क के द्वारा नहीं जानी गयी - मैं इसका अनुभव कर रहा हूँ ।

DOCTOR: "Not by reasoning; I feel it."

ডাক্তার — Reason (বিচার)-এর দ্বারা নয় — I feel it!

गिरीश - हम तथा दूसरे लोग बिलकुल इसके विपरीत भाव का अनुभव करते हैं, अर्थात् यह कि हम परतन्त्र हैं । (सब हँसते हैं)

 [प्रभु मैं गुलाम तेरा >

प्रभु मैं गुलाम, मैं गुलाम, मैं गुलाम तेरा,

तू दीवान तू दीवान, तू दीवान मेरा ।

दो रोटी एक लंगोटी, तेरे पास मैं पाया,

भगति भाव दे और, नाम तेरा गाया ।

तू दीवान मेहरबान, नाम तेरा बढया,

दास कबीर शरण में आया, चरण लागे ताराया ।।]

GIRISH: "In that case I may say that I and others feel the reverse. We feel that we are controlled by another." (All laugh.)

গিরিশ — Then I and others feel it to be the reverse. (আমরা সকলে ঠিক উলটো বোধ করি যে, আমরা পরতন্ত্র)। (সকলের হাস্য)

डाक्टर - कर्तव्य में दो बाते हैं । एक तो कर्तव्य (मनुष्योचित कर्तव्य बोध) के विचार से उसे करने के लिए जाना, और दूसरा बाद में आनन्द का होना । परन्तु आरम्भिक अवस्था में ही आनन्द होगा यह सोचकर हम कर्म करने नहीं जाते । मुझे स्मरण है कि जब मैं छोटा था तब भोग की मिठाई में चीटियों को देखकर पुरोहित महाराज को बड़ी चिन्ता हो जाती थी । उन्हें पहले से ही मिठाइयों को देखकर आनन्द नहीं होता था । (हास्य) पहले तो उन्हें चिन्ता ही होती थी ।

DOCTOR: "There are two elements in duty: first, the 'oughtness' (औचित्य-बोध)  of a duty; second, the happiness, which comes as an after-effect. But at the initial stage, this happiness is not the impelling motive. I noticed in my childhood the great worry of the priest at the sight of ants in the sweets offered before the Deity. He did not, at the outset, feel joy at the thought of the sweets. First of all, he worried about them."

ডাক্তার — ডিউটির ভিতর দুটো এলিমেন্ট — (১) ডিউটি বলে কর্তব্য কর্ম করতে যাই, (২) পরে আহ্লাদ হয়। কিন্তু initial stage-এ (গোড়াতে) আনন্দ হবে বলে যাই না। ছেলেবেলায় দেখতুম পুরুত সন্দেশে পিঁপড়ে হলে বড় ভাবিত হত। পুরুতের প্রথমেই সন্দেশ-চিন্তা করে আনন্দ হয় না। (হাস্য) প্রথমে বড় ভাবনা।

मास्टर - (स्वगत) - बाद में आनन्द मिलता है या साथ-साथ, यह कहना कठिन है । आनन्द के बल से यदि कार्य होता रहा तो स्वाधीन इच्छा फिर कहाँ रह गयी ?

M. (to himself): "It is difficult to say whether one feels happiness while performing the duty or afterwards. Where is the free will of a man if he performs an action, being impelled by a feeling of happiness  ?"

মাস্টার (স্বগত) — পরে আনন্দ, কি সঙ্গে সঙ্গে আনন্দ হয়, বলা কঠিন। আনন্দের জোরে কার্য হলে (तीनों ऐषणाओं में आसक्तिवश कार्य करना ही कर्मचोदना), Free Will কোথায়?

(५)

[( 26 अक्टूबर, 1885)- श्री रामकृष्ण वचनामृत-126 ]

🔱🙏अहैतुकी भक्ति । श्रीरामकृष्ण का दास्य-भाव🔱🙏

(शूकर योनि में भी मेरी ठाकुरदेव के श्रीचरणों में मेरी शुद्ध भक्ति बनी रहे !)

(অহৈতুকী ভক্তি — পূর্বকথা — শ্রীরামকৃষ্ণের দাসভাব)

श्रीरामकृष्ण - ये (डाक्टर) जो कुछ कह रहे हैं, इसका नाम है अहैतुकी भक्ति ( love without any selfish motive.) महेन्द्र सरकार से मैं कुछ चाहता नहीं - कोई और आवश्यकता भी नहीं है; महेन्द्र सरकार को देखकर ही मुझे आनन्द होता है, यही अहैतुकी भक्ति है । जरा आनन्द मिलता है तो क्या करूँ ?

MASTER: "What the doctor is speaking of is called love without any selfish motive. I do not want anything from Dr. Mahendra Sarkar; I do not need anything from him, but still I love to see him. This is love for love's sake. But suppose I get a little joy from it; how can I help it?

শ্রীরামকৃষ্ণ — ইনি (ডাক্তার) যা বলছেন, তার নাম অহৈতুকী ভক্তি। মহেন্দ্র সরকারের কাছে আমি কিছু চাই না — কোন প্রয়োজন নাই, মহেন্দ্র সরকারকে দেখতে ভাল লাগে, এরই নাম অহৈতুকী ভক্তি। একটু আনন্দ হয় তা কি করব?

"अहल्या ने कहा था, 'हे राम ! यदि शूकर-योनि में मेरा जन्म हो तो उसके लिए भी कोई चिन्ता नहीं, परन्तु ऐसा करना कि तुम्हारे पादपद्मों में मेरी शुद्धा भक्ति बनी रहे । मैं और कुछ नहीं चाहती ।'

"Ahalya once said to Rama: 'O Rama, I have no objection to being born even as a pig. But please grant that I may have pure love for Thy Lotus Feet. I do not want anything else.'

“অহল্যা বলেছিল, হে রাম! যদি শূকরযোনিতে জন্ম হয় তাতেও আমার আপত্তি নাই, কিন্তু যেন তোমার পাদপদ্মে শুদ্ধাভক্তি তাকে — আমি আর কিছু চাই না।

"रावण को मारने की बात याद दिलाने के लिए नारद अयोध्या में श्रीरामचन्द्र से मिले थे । सीता और राम के दर्शन कर वे स्तुति करने लगे । उनकी स्तुति से सन्तुष्ट होकर श्रीरामचन्द्र ने कहा, ‘नारद, तुम्हारी स्तुति से मैं प्रसन्न हूँ, अब कोई वर की प्रार्थना करो ।' नारद ने कहा, 'राम, यदि मुझे वर दोगे ही तो यही वर दो कि तुम्हारे पादपद्मों में मेरी शुद्धा भक्ति बनी रहे, और ऐसा करो कि फिर कभी तुम्हारी भुवन-मोहनी माया में मुग्ध न हो जाऊँ ।' राम ने कहा, 'और कोई वर लो ।' नारद ने कहा, 'मैं और कुछ भी नहीं चाहता, मुझे केवल तुम्हारे चरण-कमलों में शुद्धा भक्ति चाहिए ।'

"Narada went to Ayodhya to remind Rama that He was to kill Ravana. At the sight of Rama and Sita, he began to sing their glories. Gratified at Narada's devotion, Rama said: 'Narada, I am pleased with your prayer. Ask a boon.' Narada replied, 'O Rama, if Thou must give me a boon, then grant that I may have pure love for Thy Lotus Feet and that I may not be deluded by Thy world-bewitching maya.'  Rama said, 'Ask something more.' 'No, Rama,' answered Narada, 'I do not want anything else. I want only pure love for Thy Lotus Feet, a love that seeks no return.'

“রাবণ বধের কথা স্মরণ করাবার জন্য নারদ অযোধ্যায় রামচন্দ্রের সঙ্গে দেখা বরতে গিয়েছিলেন। তিনি সীতারাম দর্শন করে স্তব করতে লাগলেন। রামচন্দ্র স্তবে সন্তুষ্ট হয়ে বললেন, ‘নারদ! আমি তোমার স্তবে সন্তুষ্ট হয়েছি, তুমি কিছু বর লও।’ নারদ বললেন, ‘রাম! যদি একান্ত আমায় বর দেবে, তো এই বর দাও যেন তোমার পাদপদ্মে আমার শুদ্ধাভক্তি তাকে, আর এই করো যেন তোমার ভুবনমোহিনী মায়ায় মুগ্ধ না হই!’ রাম বললেন, ‘আরও কিছু বর লও।’ নারদ বললেন, ‘আর কিছুই আমি চাই না, কেবল চাই তোমার পাদপদ্মে শুদ্ধাভক্তি।’

"इनका भी वही हाल है, जैसे ईश्वर को ही देखने की प्रार्थना करते हैं; देह-सुख, धन और मान यह कुछ नहीं चाहते । इसी का नाम शुद्धा भक्ति है ।

"That is Dr. Sarkar's attitude. It is like seeking God alone, and not asking Him for wealth, fame, bodily comforts, or anything else. This is called pure love.

“এঁর তাই। যেমন ঈশ্বরকে শুধু দেখতে চায়, আর কিছু ধন মান দেহসুখ — কিছুই চায় না। এরই নাম শুদ্ধাভক্তি।

"आनन्द कुछ होता है जरूर, परन्तु वह विषय का आनन्द नहीं है । यह भक्ति और प्रेम का आनन्द है । शम्भु ने कहा था, ‘आप मेरे यहाँ अक्सर आते हैं, और यदि असल में देखा जाय तो आप इसीलिए आते हैं कि आपको मुझसे बातचीत करने में आनन्द आता है ।’

"There is an element of joy in it, no doubt; but it is not a worldly joy; it is the joy of bhakti and prema, devotion to God and ecstatic love of Him. I used to go to Sambhu Mallick's house. Once he said to me: 'You come here frequently. Yes, you come because you feel happy talking with me.' Yes, there is that element of happiness.

“আনন্দ একটু হয় বটে, কিন্তু বিষয়ের আনন্দ নয়। ভক্তির, প্রেমের আনন্দ। শম্ভু (মল্লিক) বলেছিল — যখন আমি তার বাড়িতে প্রায় যেতুম – ‘তুমি এখানে এস; অবশ্য আমার সঙ্গে আলাপ করে আনন্দ পাও তাই এস’ — ওইটুকু আনন্দ আছে।

हाँ, इतना आनन्द तो है ही । "परन्तु इससे बढ़कर एक और अवस्था है । तब साधक बालक की तरह इधर-उधर घूमता है - इसका कोई कारण नहीं । कभी एक पतिंगे को ही पकड़ने लगता है

"But there is a state higher than this. When a man attains it, he moves about aimlessly, like a child. As the child goes along, perhaps he sees a grass-hopper and catches it. The man of that exalted mood, too, has no definite aim.

“তবে ওর উপর আর-একটি অবস্থা আছে! বালকের মতো যাচ্ছে — কোনও ঠিক নাই; হয়তো একটা ফড়িং ধরছে।

(भक्तों से) "इनके (डाक्टर के) मन का भाव क्या है, तुमने समझा ? वह है ईश्वर से यह प्रार्थना कि ‘हे ईश्वर, सत्कर्म में मेरी मति हो, असत् कर्म से बचा रहूँ ।’

(To the devotees) "Don't you understand the doctor's inner feeling? It is the prayer of a devotee to God for right purpose, that he may have no inclination for evil things.

(ভক্তদের প্রতি) — “এঁর (ডাক্তারের) মনের ভাব কি বুঝেছ? ঈশ্বরকে প্রার্থনা করা হয়, হে ঈশ্বর, আমায় সৎ ইচ্ছা দাও যেন অসৎ কাজে মতি না হয়।

"मेरी भी वही अवस्था थी । इसे दास्य-भाव कहते हैं । मैं 'माँ, माँ' कहकर इतना रोता था कि लोग खड़े हो जाते थे । मेरी इस अवस्था के बाद मुझे बिगाड़ने के लिए और मेरा पागलपन अच्छा कर देने के विचार से एक आदमी मेरे कमरे में एक वेश्या ले आया - वह सुन्दरी थी, आँखें बड़ी बड़ी थीं

"I too passed through that state. It is called dasya, the altitude of the servant toward his master. I used to weep so bitterly with the name of the Divine Mother on my lips that people would stand in a row watching me. When I was passing through that state, someone, in order to test me and also to cure my madness, brought a prostitute into my room. She was beautiful to look at, with pretty eyes.

“আমারও ওই অবস্থা ছিল। একে দাস্য বলে। আমি ‘মা, মা’ বলে এমন কাঁদতুম যে, লোক দাঁড়িয়ে যেত। আমার এই অবস্থার পর আমাকে বীড়বার জন্য আর আমার পাগলামি সারাবার জন্য, তারা একজন রাঁড় এনে ঘরে বসিয়ে দিয়ে গেল — সুন্দর, চোখ ভাল। 

मैं 'माँ, माँ' कहता हुआ कमरे से निकल आया और हलधारी को पुकारकर कहा, ‘दादा, आओ देखो तो, मेरे कमरे में कोई है !’ हलधारी तथा अन्य लोगों से मैंने कह दिया । इस अवस्था में 'माँ, माँ' कहकर मैं रोता था और कहता था, 'माँ ! मुझे बचा; माँ, मुझे निर्दोष कर दे; सत् को छोड़ असत् में मेरा मन न जाय ।’ तुम्हारा यह भाव तो अच्छा है - सच्चा भक्ति-भाव है दास-भाव ।

 I cried, 'O Mother! O Mother!' and rushed out of the room. I ran to Haladhari and said to him, 'Brother, come and see who has entered my room!' I told Haladhari and everyone else about this woman. While in that state I used to weep with the name of the Mother on my lips. Weeping, I said to Her: 'O Mother, protect me! Please make me stainless. Please see that my mind is not diverted from the Real to the unreal.' (To the doctor) This attitude of yours is also very good. It is the attitude of a devotee, one who looks on God as his Master.

আমি মা! মা! বলে ঘর থেকে বেরিয়ে এলুম, আর হলধারীকে ডেকে দিয়ে বললুম, ‘দাদা দেখবে এসো ঘরে কে এসেছে।’ হলধারীকে, আর সব লোককে বলে দিলুম। এই অবস্থায় ‘মা, মা’ বলে কাঁদতুম, কেঁদে কেঁদে বলতুম, ‘মা! রক্ষা কর। মা! আমায় নিখাদ কর, যেন সৎ থেকে অসতে মন না যায়।’ (ডাক্তারের প্রতি) তোমার এ-ভাব বেশ — ঠিক ভক্তিভাব, দাসভাব।”

[( 26 अक्टूबर, 1885)- श्री रामकृष्ण वचनामृत-126 ]

🔱🙏जगत का कल्याण Via भारत का कल्याण  और सामान्य मनुष्य  

- निष्काम कर्म और शुद्ध सत्व🔱🙏

[জগতের উপকার ও সামান্য জীব — নিষ্কামকর্ম ও শুদ্ধসত্ত্ব ]

[Welfare of the World Via Welfare of India and Common man 

— Nishkama Karma and Suddha Sattva]

"यदि किसी में शुद्ध सत्व आता है, तो बस वह ईश्वर की ही चिन्ता करता रहता है, उसे फिर और कुछ अच्छा नहीं लगता । कोई कोई प्रारब्ध के बल से जन्म के आरम्भ से ही सत्त्व गुण पाते हैं । कामनाशून्य होकर यदि कर्म करने का यत्न किया जाय, तो अन्त में शुद्ध सत्त्व का लाभ होता है।

"When a man develops pure sattva, he thinks only of God. He does not enjoy anything else. Some are born with pure sattva as a result of their prarabdha karma. Through unselfish action one finally acquires pure sattva

“যদি কারো শুদ্ধসত্ত্ব (গুণ) আসে, সে কেবল ঈশ্বরচিন্তা করে, আর আর কিছুই ভাল লাগে না। কেউ কেউ প্ররব্ধের গুণে জন্ম থেকে শুদ্ধসত্ত্বগুণ পায়। কামনাশূন্য হয়ে কর্ম করতে চেষ্টা করলে, শেষে শুদ্ধসত্ত্বলাভ হয়।

“रजोमिश्रित सत्त्व गुण रहने से मन भिन्न भिन्न वस्तुओं की ओर खिंच जाता है । तब 'मैं संसार का उपकार करूँगा' यह अभिमान उत्पन्न होता है । मनुष्य जैसे क्षुद्र प्राणी के लिए संसार का उपकार करना बहुत ही कठिन है, परन्तु निष्काम भाव से परहित करने में दोष नहीं । यही निष्काम कर्म कहलाता है ।

Sattva mixed with rajas diverts the mind to various objects. From it springs the conceit of doing good to the world. To do good to the world is extremely difficult for such an insignificant creature as man. But there is no harm in doing good to others in an unselfish spirit. This is called unselfish action.

 রজমিশানো সত্ত্বগুণ থাকলে ক্রমে নানাদিকে মন হয়, তখন জগতের উপকার করব এই সব অভিমান এসে জোটে। জগতের উপকার এই সামান্য জীবের পক্ষে করতে যাওয়া বড় কঠিন। তবে যদি কেউ জীবের সেবার জন্য কামনাশূণ্য হয়ে কর্ম করে, তাতে দোষ নাই; একে নিষ্কাম কর্ম বলে।

उस तरह के कर्म करने की चेष्टा करना बहुत अच्छा हैपरन्तु सब लोग नहीं कर सकते, बड़ा कठिन है । सभी को कार्य करना ही होगा, दो-एक आदमी ही कर्मों को छोड़ सकते हैं । दो-एक आदमियों में ही शुद्ध सत्त्व देखने को मिलता है । यह निष्काम कर्म करते करते रज से मिला हुआ सत्व गुण क्रमशः शुद्धसत्त्व हो जाता है

 It is highly beneficial for a person to try to perform such an action. But by no means all succeed, for it is very difficult. Everyone must work. Only one or two can renounce action. Rarely do you find a man who has developed pure sattva. Through disinterested action sattva mixed with rajas gradually turns into pure sattva.

 এরূপ কর্ম করতে চেষ্টা করা খুব ভাল। কিন্তু সকলে পারে না। বড় কঠিন। সকলেরই কর্ম করতে হবে; দু-একটি লোক কর্ম ত্যাগ করতে পারে। দু-একজন লোকের শুদ্ধসত্ত্ব দেখতে পাওয়া যায়। এই নিষ্কাম কর্ম করতে করতে রজমিশানো সত্ত্বগুণ ক্রমে শুদ্ধসত্ত্ব হয়ে দাঁড়ায়।

“शुद्धसत्त्व होने पर उनकी कृपा से ईश्वर-प्राप्ति भी होती है ।

"No sooner does a man develop pure sattva than he realizes God, through His grace.

“শুদ্ধসত্ত্ব হলেই ঈশ্বরলাভ তাঁর কৃপায় হয়।

“साधारण आदमी शुद्धसत्त्व की यह अवस्था नहीं समझ सकते । हेम ने मुझसे कहा था, ‘क्यों भट्टाचार्य महाशय, संसार में सम्मान की प्राप्ति ही मनुष्य-जीवन का मुख्य उद्देश्य है – क्यों ?’ ”

"Ordinary people cannot understand pure sattva. Hem once said to me: 'Well, priest! The goal of a man's life is to acquire name and fame in the world. Isn't that true?'"

“সাধারণ লোকে এই শুদ্ধসত্ত্বের অবস্থা বুঝতে পারে না; হেম আমায় বলেছিল, কেমন ভট্টাচার্য মহাশয়! জগতে মানলাভ করা মানুষ জীবনের উদ্দেশ্য, কেমন?”

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>>>प्रेम तो निष्काम कर्म का एक रूप है : प्रेम अनुभूति का विषय है। जहाँ तक प्रेम पाने का संबंध है, तो यह अत्यंत कठिन है, क्योंकि हम कोई भी वस्तु दे तो सकते हैं आसानी से, लेकिन लेना अपने वश में नहीं। प्रेम में भी कुछ ऐसा ही है।

 गीता में कहा गया है कि कर्म करो, फल की इच्छा मत करो। ऐसा कर्म ही सात्विक कर्म है प्रेम भी सात्विक कर्म तभी होगा जब फल की इच्छा के बिना किया जाएगा। पर ऐसा कौन सा कर्म है जो फल की इच्छा के बिना संभव हो सके? जिसको जो कार्य पसन्द हो उसकी खुशी के लिए बिना अपने लाभ-हानि का आकलन किए वह काम कर देना प्रेम का एक रूप हो सकता है

 कर्म के अभाव में प्रेम संभव ही नहीं। आप कुछ करेंगे तभी पता चलेगा कि आप प्रेममय हैं अथवा नहीं। इस करने में कोई शारीरिक कार्य हो सकता है। मात्र देखना भी एक क्रिया हो सकती है। यह ठीक है कि प्रेम करने से प्रेम मिलता है, लेकिन प्रेम पाने से भी कम संतुष्टि नहीं मिलती। 

कोई आपको अपने किसी भी कार्य के माध्यम से तृप्त करना चाहता है, तो उसमें भी प्रेम का आदान-प्रदान ही होता है। यदि आप उसे स्वीकार नहीं करेंगे तो आपके मन में प्रेम नामक तत्व का संचार है ही नहीं। जहाँ आपने किसी को किसी भी रूप में तुष्ट कर दिया, वहाँ प्रेम का संचार होने लगा। 

अब यहाँ एक सवाल आ खड़ा हुआ है। सबकी संतुष्टि का स्वरूप अलग-अलग है। किसी की संतुष्टि पैसे से होती है, किसी की वस्तुओं से और किसी की बातों से। कोई आप से व्यवस्था के विरुद्ध कार्य कराना चाहता है तो कोई धर्म अथवा नैतिकता के विरुद्ध- और ऐसा करने में उसे कोई दोष दिखलाई नहीं पड़ता।  हमें भी अनेक कार्य सामान्य दिखाई पड़ते हैं, लेकिन वास्तव में वे सामान्य नहीं होते। प्रेम के वशीभूत होकर हम न जाने क्या-क्या कर गुजरते हैं। अपने प्रियजनों के प्रति हमारा प्रेम ही है जो हमें उनके दुर्गुण भी सद्गुण नजर आते हैं।

 आप कहेंगे, ये प्रेम नहीं मोह है। मैं भी यही मानता हूँ, लेकिन मोह के बिना प्रेम कैसे संभव है। हाँ, मोह के अनेक रूप हैं। मोह में सात्विक भाव है, तो सात्विक प्रेम और तामसिक भाव है तो तामसिक प्रेम। यदि मैं कहूँ कि मन की सकारात्मक वृत्ति से उत्पन्न भाव ही सही प्रेम है तो आप असहमत नहीं होंगे।

 प्रेम एक सकारात्मक भाव है। सकारात्मकता का अपना प्रभाव है। उसी तरह प्रेम का भी अपना प्रभाव है। नकारात्मक भावों की समाप्ति के बाद जब हम निष्काम भाव से कोई कार्य करते हैं तभी प्रेम का उदय होता है। इसी प्रेम के फलस्वरूप स्वांत: सुखाय हम अनेक कार्य करते हैं। किसी को साहित्य से प्रेम है तो किसी को कला से, किसी को संगीत में प्रेम की अनुभूति होती है तो किसी को नृत्य में। किसी को सुनने में आनंद आता है तो किसी को सुनाने में। ये सब क्रियाएं आनंद का माध्यम हैं।जहाँ आनंद की प्राप्ति हो, वहीं प्रेम है। यहाँ आनंद का संबंध भौतिक सुख से नहीं, मानसिक संतुष्टि से है।

 लेकिन प्रेम देना भी कम महत्वपूर्ण नहीं, यदि हम प्रेम कर सकते हैं तो इस देने में भी जो प्राप्ति होती है वह अनिर्वचनीय है प्रेम पाने का अर्थ प्रेम करना ही है। प्रेम एक मानसिक स्थिति है। जाहिर है -प्रेम की वह स्थिति संतुष्टिदायक ही होगी। यदि किसी प्रक्रिया से संतुष्टि नहीं मिलती तो वह प्रेम जैसी उदात्त स्थिति नहीं हो सकती। फिर भी इसका कोई एक निश्चित स्वरूप हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता। प्रेम की अनुभूति सब के लिए अलग-अलग तरह की हो सकती है। सब को अलग-अलग तरह की क्रियाओं और मनोभावों में प्रेम का अनुभव हो सकता है। 

यह भी कहा जाता है कि प्रेम प्रतिदान या बदला नहीं चाहता। मात्र देने का नाम प्रेम है। कोई भी कार्य करो, नि:स्वार्थ भाव से करो- प्रेम भी। प्रेम निष्काम कर्म का ही एक रूप हुआ।

>>>14 अप्रैल 1986 का कुम्भ मेला  : गाँजे की फूँक से मिलने वाले आनन्द की प्रत्याशा में कुम्भ मेला के साधुओं का चेहरा दमकता देखकर, मैंने भी जब फूँक मारना चाहा - तो एक साध्वी माता ने इशारे से मना कर दिया।  

>>>(30 जनवरी, 2024-emergency HDU)  Be and Make  : वेदान्त डिण्डिम "(हरि नहीं)- हरि दासो अहं ! 'मैं ' हरि का सेवक हूं ! 

जब मैं था तब 'हरि नहीं', अब हरि हैं 'मैं नाहि'।

प्रेम गली अति सांकरी, तामे दो न समाहि।। 

तात्पर्य:

संत कबीर दास जी कहते हैं कि यदि "मैं" का अर्थ यह है कि इस हृदय में मेरा अहंकार निवास करता है, तो हरि नहीं थे और अब जब हरि इसमें रहते हैं, तो मेरा अहंकार नष्ट हो गया है। दिल के आकार की यह प्रेम गली इतनी संकरी है कि उनमें से केवल एक ही अंदर समा सकता है। जब तक मेरे पास 'मैं' यानि अहंकार था, तब तक हरि (ब्रह्म) का एहसास नहीं हुआ, लेकिन हरि ( की प्राप्ति के साथ मेरा अहंकार या अहंकार समाप्त हो गया। जब दीपक के रूप में ज्ञान प्राप्त हुआ, तो मोह या अहंकार का अंधेरा समाप्त हो गया।

'मैं ' जब तक था - तब तक "हरि नहीं- हरिदासो अहं  " की सूक्ष्म शिक्षा को केवल एक दोहा महसूस कर रहा था, अर्थात  जब तक 'मैं ' श्री रामकृष्ण- माँ सारदा -स्वामी विवेकानन्द गुरु परम्परा का  था - प्रेमगली इस पंक्ति द्वारा कवि का कहना है कि जब तक मनुष्य में अज्ञान (अविद्या) रुपी अंधकार छाया है वह ईश्वर को नहीं पा सकता, इसलिए उसे अविद्याजन्य पंच क्लेशों को भोगना पड़ता है।

कबीर की यह साखी वेदान्त डिण्डिम (अद्वैतवाद) की मूल भावना के अनुरूप है। अद्वैतवाद में कहा गया है कि ब्रह्म और जीव में भेद माया के आवरण के कारण है, अन्यथा दोनों एक हैं। ज्ञान के आगमन से यह पर्दा हट जाता है और ब्रह्म और जीव में कोई अंतर नहीं रहता। प्रस्तुत साखी में हम वही भाव देखते हैं। 'हरि' और 'स्व' में तब तक अंतर है जब तक अज्ञान (अविद्या माया =तीनो ऐषणाओं में आसक्ति ) रूपी अंधकार है, ज्ञान के प्रकाश में दीपक के रूप में दोनों अभेद्य हो जाते हैं। 

[🔱🙏I am a fool. I know nothing.🔱🙏 God is talking with me in signal language ! "और तब वह हरिदास (हनुमान/ विवेकानन्द के अवतार- मोदी/ नवनीदा) कह सकते है - I challenge the challenge ! 🔱🙏अहं आव्हानं आव्हानं करोमि ! मैं चुनौती को चुनौती देता हूं ! 🔱🙏31 January, 2024: - Find out  Olmesar 10 mg using since 1 year, Losar or Prolomet T 25,which of these three are having Dizonic quality that reduce Sodium in blood? or what is the name of tablet put under the tongue during emergency treatment of HBP. anesthetic episode practical training ??? Insurance Amb (अभिरक्षा) was nervous: anesthetic doctor Pradip of yatharth told "आपके रिश्तेदार आपको dizonic  medicine दे रहे थे ? सुबह जब भर्ती करने लाये तो मैंने सब पूछा था। Amb was nervous" विवेक-प्रयोग से जान बचाओ -किसी का दोष मत देखो सबको अपना बनाना सीखो  

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