श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर
(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली )
(50)
*प्रेम अथवा परा भक्ति *
420 गोपी के हिय नित बहे , पराभक्ति की धार।
779 हरिहि आत्मीय सम लखै , नही जग का करतार।।
पराभक्ति क्या है ? पराभक्ति में साधक ईश्वर को अपने परम आत्मीय की तरह देखता है। श्रीकृष्ण के प्रति गोपियों की भक्ति इसी प्रकार थी। वे कृष्ण को गोपीनाथ कहती थी - जगन्नाथ नहीं।
422 गोपीगण के प्रेम का , महिमा महिमा अति अपार।
786 पावत कण भर दुःख कटे , हो जावे भव पार।।
भक्त श्री 'म ' से गोपियों के ईश्वरानुराग के बारे में चर्चा करते हुए श्रीरामकृष्ण ने कहा -" उनकी व्याकुलता कैसी अद्भुत थी ! तमाल वृक्ष को देखते ही वे प्रेमोन्माद में निस्पंद हो गई। (क्योंकि तमाल के कृष्णवर्ण को देखकर उन्हें श्रीकृष्ण का उद्दीपन हो गया। ) श्रीगौरांग का भी यही हाल था। वन को देखकर वे उसे वृन्दावन समझ बैठे ! ओह , यदि किसी को इस प्रेम का एक कण भी मिल जाये ! कितना प्रेम था ! गोपियों का प्रेम केवल किनारे तक ही नहीं भरा था , वह तो पूरा भरकर बाहर छलकता था। "
419 प्रेम डोर से बाँध लो, त्रिगुणातीत भगवान।
776 जब चाहो डोर खींच लो , कर लो दरसन पान।।
ईश्वर (माँ काली का) दर्शन हुए बिना प्रेम या पराभक्ति नहीं होती ! प्रेम के उत्पन्न हो जाने से मानो सच्चिदानन्द को बांधने की डोर मिल जाती है। उन्हें देखने की इच्छा हुई कि डोर को पकड़ कर खींचा। जब पुकारो तभी पाओगे। (दिल के आईने में है तस्वीर-ए-यार, जब जरा गर्दन झुकाई देखली !)
421 इक पायो प्रह्लाद है , इक पायो चैतन्य।
783 दुर्लभ प्रेमाभक्ति है , पायो गोपीगण।।
प्रेमाभक्ति बहुत कम लोगों को होती है। चैतन्यदेव की तरह अवतारी तथा उच्च अधिकारसंपन्न ईश्वरकोटि के महापुरुषों के लिए ही सम्भव है।
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