श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर
(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली )
(57)
*ब्रह्म क्या है ?*
446 ब्रह्म क्या कैसा है , मुख से कहा न जाये।
835 जो देखा सो तस भयो , कौन कहहि समुझाये।।
447 ब्रह्म क्या है कैसा है , मुख से कहा न जाये।
835 जस सागर देखे बिना , समझ नहिं कोई पाए।।
ब्रह्म क्या है -यह मुख से कहा नहीं जा सकता। जिसने कभी समुद्र नहीं देखा , ऐसे व्यक्ति को यदि समुद्र कैसा होता है यह समझाना पड़े तो इतना ही कहा जा सकता है , 'ओह ! वह बहुत ही विशाल जलाशय है , चारों ओर पानी ही है।
[जैसा स्वामी जी ने 'कुँए का मेढ़क', या 'भेंड़ -सिंह' की कहानी से समझाया था ! जिसने इन्द्रियातीत सत्य का साक्षात्कार नहीं किया- जो hypnotized है , वह कभी परम् सत्य और सापेक्षिक सत्य के अन्तर को, प्रातिभासिक मनुष्य और वास्तविक मनुष्य का अंतर नहीं समझ सकता।]
448 जूठे तन्त्र पुराण सब , जूठे चारउ वेद।
836 एक अजूठी ब्रह्म है , पायो न पूरन भेद।।
वेद, तन्त्र , पुराण आदि सभी शास्त्र जूठे हो चुके हैं , क्योंकि उनका मुख से उच्चारण किया गया है , उन्हें पढ़ा गया है। केवल एक ही 'वस्तु 'ऐसी है जो जूठी नहीं हो पायी है -वह है ब्रह्म ! ब्रह्म क्या है यह आज तक कोई बता नहीं पाया। [?]
449 चोर पंडित ज्ञानी से , दीप सदा निर्लिप्त।
838 ब्रह्म सदा निर्लिप्त तस , भला बुरा अतीत।।
ब्रह्म भला-बुरा दोनों से निर्लिप्त है। वह दीपक की ज्योति की तरह है। दीपक के प्रकाश में कोई भागवत पढता है , तो कोई जाली नोट बनाता है , पर दीपक निर्लिप्त रहता है। ब्रह्म मानो साँप के जैसा है। साँप के दाँतों में विष होता है , उसके काटने पर दूसरे लोग मर जाते हैं , पर उससे स्वयं साँप को कुछ नहीं होता। इसी तरह, जगत में दुःख, पाप , अशांति आदि जो कुछ है , वह सब जीव के लिए है। ब्रह्म इस सबसे निर्लिप्त है। भला, बुरा, सत, असत सब जीव के लिए है ब्रह्म के लिए यह सब कुछ भी नहीं है, वह इस सब से परे है। [या सब 'सत' है ?]
*ब्रह्म ही द्वैतप्रपंच की सत्ता है *
450 नमक पुतला कह न सके , जस सागर की थाह।
846 समुझावत तस बनत नहि , ब्रह्म तत्व अथाह।।
समाधि अवस्था में ब्रह्मज्ञान होता है। उस अवस्था में सब विवेक-विचार, सत -असत , जीव-जगत, ज्ञान-अज्ञान आदि बन्द हो जाता है , सब शान्त हो जाता है। तब केवल 'अस्ति ' मात्र रह जाता है। नमक की पुतली (गुड़िया) समुद्र की गहराई नापने जल में उतरी पर उतरते ही समुद्र के साथ एक हो गयी , फिर गहराई की खबर कौन दे ? यही ब्रह्मज्ञान है !
{शिष्य को उपदेश देने के लिए गुरु ने दो अँगुलियाँ उठाकर संकेत किया - 'V ' , अर्थात -'ब्रह्म और माया। ' फिर एक अंगुली नीचे करके संकेत किया - " माया (आवरण और विक्षेप शक्ति ) के दूर हो जाने पर ब्रह्म ही रह जाता है , जगत ब्रह्ममय हो जाता है। " }
451 जब तक 'मैं ' पन बोध है , जब तक अहं का ज्ञान।
848 जीवजगत सब सत्य है , सत साकार सुजान।।
जब तक 'मैं '-बोध (बना हुआ) है , तब तक निरुपाधिक भी है और सोपाधिक भी , नित्य भी है और लीला भी , निर्गुण भी है और सगुण भी , निराकार भी है और साकार भी , एक भी है और अनेक भी! ....
प्रश्न -अखण्ड स्वरुप आत्मा खण्डित जीवात्माओं कैसे विभक्त हो गया ?
उत्तर - अद्वैतवादी तार्किक अपनी विचार-बुद्धि के बल पर इसका उत्तर नहीं दे सकता। उसे यही कहा पड़ता है कि 'मैं नहीं जानता। ' ब्रह्मज्ञान होने पर ही इसका योग्य उत्तर मिल सकता है।
जब तक मनुष्य कहता है , 'मैं जानता हूँ ' या 'मैं नहीं जानता ' तब तक वह स्वयं को एक व्यक्ति (person) समझता है। तब तक उसे इस विविधता को सत्य मानना ही पड़ता है ! वह इसे भ्रम नहीं कह सकता।
[ क्योंकि जब तक ब्रह्मज्ञ गुरु न मिलें, मैं 'hypnotized' अवस्था में हूँ , यह (अनेकता में एकता को) स्वयं समझ लेना बहुत कठिन है। ]
परन्तु जब व्यक्तित्व (personality-Individuality -यथार्थस्वरूप ) का बोध होता है, 'मैं '-पन का सम्पूर्ण विनाश हो जाता है , तब समाधि होकर ब्रह्मज्ञान प्राप्त होता है। तब सत-असत ,वास्तव-भ्रम आदि सम्बन्धी सब प्रश्नों का सदा के लिए विराम हो जाता है।
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