रविवार, 17 मई 2020

'अलमोड़ा का आकर्षण' (Magic of Almora ) ~ से सम्बन्धित एक पत्र' ~ ' A Letter'

       पत्र की पृष्ठभूमि : [श्री रामकृष्णवचनामृत तृतीय खण्ड ( The Gospel of Sri Ramakrishna) के Appendix B में दिये इस पत्र को समझने के लिये पहले Appendix A को देखना आवश्यक है। ]      
अश्विनीकुमार दत्त (1856-1923) - 19 वीं शताब्दी के , अविभाजित बंगाल (पूर्वी बंगाल) के बारीसाल  शहर में जन्मे भारत के प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ, सामाजिक कार्यकर्ता और देश भक्त थे। एक अध्यापक के रूप में उन्होंने अपना व्यावसायिक जीवन प्रारम्भ किया था। बाद में वर्ष 1880 में बारीसाल से वकालत की शुरुआत की। उन्होंने  वर्ष 1886 में कांग्रेस के दूसरे कोलकाता अधिवेशन में प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया था।    1887 में आयोजित अमरावती कांग्रेस अधिवेशन में  उन्होंने कहा था -  " यदि Vedanta का संदेश ग्रामीण जनता तक नहीं पहुँचा तो - यह कांग्रेस सिर्फ़ तीन दिन का तमाशा बनकर रह जाएगी।" 
[Understading Advaita using the rope-snake example :
Seeing the rope as snake = Seeing the Brahman as world. Hypnotized state of Mind/ Illusion / Mistake/ = Maya/ ( Rope = Brahman,Snake = World) /(Light = Knowledge aligned with Absolute Reality; Pure consciousness (Existence-Consciousness-Bliss, Brahman). Meaning, clarity is complete./Knowledge. /( Dim light = Partial Knowledge of what-is. I don't know 100% what it is, therefore my mind choiclessly and innocently projects it's own conclusion.Reflected Consciousness/Lower Knowledge )/ (Bright light Self-Knowledge which removes ignorance (mind doesn't know clearly what it is) causing superimposition (…therefore the mind superimposes a false snake onto it). Once false notions of reality are removed, one's understanding  “Truth of self and world is Brahman” is actualized.witness Consciousness/Higher Knowledge= Brahm Janan)
    👉रज्जु -सर्प के उदाहरण का उपयोग करके अद्वैत को समझना: 
रस्सी को साँप के रूप में देखना = ब्रह्म को जगत के रूप में देखना। (मन की सम्मोहित अवस्था / भ्रम /भूल / = माया/ [ एक वस्तु में दूसरे का भ्रम जैसे रस्सी को सांप समझना। – माया को ब्रह्म की शक्ति कहा गया है। माया का शाब्दिक अर्थ भ्रम है। परन्तु माया भ्रम न होकर भ्रम पैदा करने वाली शक्ति (Energy) है।  यह शक्ति अघटन-घटना पटीयसी है, अर्थात जो नहीं है, उसको घटित करने में वह सक्षम है। इस कारण इसको रहस्यमय, अचिन्त्य , विचित्र तथा अनिर्वचनीय कहा गया है। प्रश्न यह है कि यदि त्रिगुणों से परे कोई परम अव्यय तत्त्व है तो सामान्य मनुष्य उसे क्यों नहीं जान पाता है ? पूर्ण साक्षात्कार न भी सहज हो तब भी कम से कम उसके अस्तित्व के विषय में तो उसे शंका नहीं होनी चाहिए। मुझ में और मेरे स्वरूप के मध्य कौन सा आवरण पड़ा हुआ है ? जगत् को  यह अज्ञान किस कारण से है; उस रहस्य को उद्घाटित करते हुए भगवान श्रीकृष्ण गीता 7 श्लोक 13 में कहते हैं  -
 त्रिभिः गुणमयैः भावैः एभिः सर्वम् इदं जगत्।   
मोहितं न अभिजानाति मामेभ्यः परम् अव्ययम् ॥ १३ ॥
त्रिगुणों से उत्पन्न इन भावों (ऐषणाओं ) से सम्पूर्ण जगत् (लोग) मोहित हुआ इन (गुणों) से परे अव्यय स्वरूप मुझे नहीं जानता है।   ।।7.13।। व्याख्या  त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः ৷৷. परम् अव्ययम् पद से भगवान् कहते हैं कि मैं त्रिगुणात्मक शरीर से पर हूँ अर्थात् इन गुणों से सर्वथा रहित असम्बद्ध निर्लिप्त हूँ। जो प्रतिक्षण नष्ट होनेवाले तीनों गुणों से परे हैं अत्यन्त निर्लिप्त हैं और नित्यनिरन्तर एक रूप रहने वाले हैं ऐसे परमात्मा स्वाभाविक हैं। परमात्मा की यह स्वाभाविकता बनायी हुई नहीं है कृत्रिम नहीं है अभ्याससाध्य नहीं है प्रत्युत स्वतः स्वाभाविक है।   परंतु शरीर तथा संसार में अहंता-ममता अर्थात् मैं और मेरा भाव उत्पन्न हुआ है एवं नष्ट होने वाला है, यह केवल माना हुआ है इसलिये यह अस्वाभाविक है। इस अस्वाभाविक को स्वाभाविक मान लेना ही मोहित होना है जिसके कारण  मोहित मनुष्य  शरीर के जन्मने में अपना जन्मना।  शरीर के मरने में अपना मरना, शरीर के बीमार होने में अपना बीमार होना और शरीर के स्वस्थ होने में अपना स्वस्थ होना मान लेता है। जीव पहले परमात्मा से विमुख हुआ या पहले संसार के सम्मुख (गुणोंसे मोहित) हुआ इसमें दार्शनिकों का मत यह है कि परमात्मा से विमुख होना और संसार से सम्बन्ध जोड़ना ये दोनों अनादि हैं इनका आदि नहीं है। अतः इनमें पहले या पीछेकी बात नहीं कही जा सकती। परन्तु मनुष्य यदि मिली हुई स्वतन्त्रता (शाश्वत-नश्वर विवेक-प्रयोग शक्ति) का दुरुपयोग न करे उसे केवल भगवान में ही लगाना शुरू कर दे तो यह संसार से (जन्म-मृत्यु से ) ऊपर उठ जाता है अर्थात् इसका जन्म-मरण मिट जाता है।
          इससे यह सिद्ध होता है कि प्रभु की दी हुई स्वतन्त्रता का दुरुपयोग करके ही यह मनुष्य बन्धन में पड़ा है। अपनी स्वतन्त्रता (विवेक-प्रयोग शक्ति ) का दुरुपयोग करके नष्ट होने वाले पदार्थों में उलझ जाने से यह परमात्मतत्त्व (परम् सत्य =अल्ला , ब्रह्म, काली या गॉड)  को जान नहीं सकता।  स्वाभाविक है कि मिथ्या नाम-रूप में इस आसक्ति के कारण स्वस्वरूप की ओर इनका ध्यान तक नहीं जाता। यह जीव बाह्य जगत् में व्यस्त और आसक्त होकर अपने शुद्ध स्वरूप को पहचानने में स्वयं को असमर्थ पाता है। स्वयं में स्वयं के साथ स्वयं का चल रहा लुकाछिपी का यह खेल विचित्र एवं रहस्यमय है। जिसके कारण यह अपने लिए और जगत् के लिए अनन्त दुख और विक्षेप उत्पन्न करता रहता है।
त्रिगुणों से उत्पन्न राग- द्वेष और मोह (ऐषणाओं) आदि विकारों के कारण अपने अविनाशी दिव्य स्वरूप को भूलकर, और नश्वर नाम-रूप   के साथ तादात्म्य स्थापित करके यह मनुष्य मोहित अर्थात् 'Hypnotized' या  विवेक-शून्य कर दिया गया है।  विवेक-प्रयोग द्वारा वि-सम्मोहित (De-hypnotized) की पद्धति नहीं जानने के कारण ही तीनों गुणों से मोहित मनुष्य (भेंड़ -शिशु ) ऐसा मान ही नहीं सकता कि मैं परमात्मा का अंश (सिंह -शावक) हूँ। यह उस भगवत्तत्त्व को तभी जान सकता है जब त्रिगुणात्मक शरीर के साथ इसकी अहंता-ममता मिट जाती है। 
 व्यष्टि अहं (एक व्यक्ति) में कार्य कर रही माया को ही अविद्या कहते हैं। ऋषियों ने इस अविद्या का जो कि जीव के सब दुखों का कारण कहा है। उन्होंने अविद्या माया का  जब सूक्ष्म अध्ययन किया तब  यह उद्घाटित किया कि यह तीन गुणों से युक्त है जो मनुष्य को प्रभावित करते हैं। ये तीन गुण हैं सत्त्व रज और तम जो एक सम पार्श्व आयत  (prism) का सा काम करते हैं और जिनके माध्यम से हमें इस बहुविधि सृष्टि का अनुभव होता है। जिस प्रकार सफेद प्रकाश को जब एक प्रिज़्म के माध्यम से पारित किया जाता है तो वह 7 अलग-अलग रंगो (बैनीआहपीनाला) की धारियों वाले समूह में दृष्टिगोचर होता है। माया भी ठीक प्रिज्म (prism) के समान एक ऐसी उपाधि है जिसके माध्यम से अवर्ण अद्वैत स्वरूप तत्त्व (ब्रह्म या सच्चिदानन्द) जब व्यक्त होता है तब वह सप्तरंगी प्रकाश के समान अनन्त नाम-रूपों वाली सृष्टि (जगत ब्रह्माण्ड) के रूप में प्रतीत होता है। कामाग्नि (तीन गुणों से उत्पन्न तीनो ऐषणाओं) में सुलगते अज्ञानी जीव इन्द्रिय विषय उपभोगों में नित्य सुख की खोज तभी तक करता है जब तक आवरण और विक्षेप की निवृत्ति नहीं हो जाती।  
      जैसे किसी अनपढ़ ग्रामीण व्यक्ति को  बल्ब में विद्युत का अभाव प्रतीत होता है क्योंकि वह अव्यक्त होती है। उस व्यक्ति को विद्युत प्रवाह का प्रत्यक्षतः (directly) अनुभव  करने के लिए -(AC) Alternating Current और (DC) Direct Current  के  सैद्धान्तिक  ज्ञान तथा प्रत्यक्ष प्रयोग की आवश्यकता होती है। [AC - आमतौर पर घरों मे उपयोग होने वाली धारा AC होती है। जिसका उपयोग हम बल्बों, कूलर, पंखा, TV आदि मे करते हैं । DC - हमारे मोबाइल की बैट्री में और सेल में DC करंट होता है ।]  एक बार विद्युत शक्ति के गुण-धर्म का ज्ञान हो जाने पर यदि वह मनुष्य उसी बल्ब में प्रकाश देखे तो उसे अव्यक्त विद्युत का ज्ञान तत्काल हो जाता है। इसी प्रकार श्रवण, मनन और निदिध्यासन रूपी आत्मसयंम द्वारा जब साधक का क्षुब्ध मन प्रशान्त हो जाता है;  तब आवरण के अभाव में वह मुझ अजन्मा अविनाशी स्वरूप को पहचान लेता है।   
    रजोगुण का कार्य है विक्षेप और तमोगुण का कार्य बुद्धि पर पड़ा आवरण है। यह सिद्धान्त है कि मन अपने को दो भागों में बाँट सकता है,  एक द्रष्टा -मन (observer) या साक्षी चेतना  दूसरा दृश्य-मन (visible mind)!  मनुष्य संसार से (दृश्य मन, reflected  consciousness)  से  सर्वथा अलग होने पर ही (द्रष्टा मन)  संसार को जान सकता है और साक्षी चेतना  (witness consciousness) से सर्वथा अभिन्न होने पर ही  परमात्मा (ब्रह्म -existence -consciousness -bliss) को  जान सकता है। त्रिगुणों के विकारों से मोहित और भ्रान्त पुरुष को आत्मा का साक्षात् ज्ञान नहीं होता।  उस आत्मज्ञान के लिए गुरु के उपदेश तथा स्वयं की साधना की आवश्यकता होती है। गुरु =  " स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर Be and Make' वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा " प्रशिक्षित और शिक्षा देने का चपरास प्राप्त किसी नेता [C-IN-C -नवनीदा जैसे ]/ जीवनमुक्त शिक्षक के उपदेश अर्थात प्रशिक्षण तथा स्वयं की साधना (3'H'-विकास के 5 -अभ्यास) की आवश्यकता होती है। अतः मनःसंयोग का अभ्यास किसी प्रशिक्षित शिक्षक से सीखना ही होगा।  
नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः। मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्।। गीता 7.25।।
[पदच्छेदः - न अहं प्रकाशः सर्वस्य योगमाया समावृतः / मूढः अयं न अभिजानाति लोकः माम् अजम् अव्ययम् ॥ गीता ७.२५ ॥] 
7.25। योग-माया अर्थात सम्मोहन के जादू या 'ट्रिक-ऑफ-योग-इल्यूजन' (नश्वर नाम-रूप) से ढका हुआ होने के कारण मैं सभी के लिए प्रकट नहीं होता; [और इसलिए] इस सम्मोहित जगत [के 'इब्लिश' जैसे सामान्य द्रष्टा] मुझ, अजन्मा  और अविनाशी (आत्मा या ब्रह्म) को नमस्कार नहीं कर पाते हैं।
7.25. Being surrounded by yoga-maya 'the trick-of-yoga-Illusion' ,I do not become manifest to all ; [and hence] this deluded world [of perceivers] does not recognise Me, the unborn and the  Imperishable.
7.25 Commentary : योगमाया समावृतः being enveloped by yoga-maya-Yoga means the combination, the coming together, of the (three) gunas; that (combination) is itself maya, yoga-maya; being enveloped, i.e. veiled, by that yoga-maya; न अहं प्रकाशः aham, I;  do not become manifest; सर्वस्य , to all the people. I am not visible to those who are deluded by the three Gunas and the pairs of opposites? The idea is that I become manifest only to the chosen few who are My devotees- who have taken sole refuge in Me alone. For this very reason, अयं , this; मूढः, deluded;  लोकः, (Public) world; न अभिजानाति, does not know; माम्, Me; who am अजम्, birthless; and   अव्ययम् , undecaying. This YogaMaya is under the perfect control of the Lord. Isvara is the wielder of Maya. Therefore it cannot obscure His own knowledge? just as the illusion created by the juggler cannot obstruct his,own knowledge or deceive him. The illusion which binds the worldly people cannot in the least affect the Lord Who has keep Maya under his perfect subjugation.
 तीनों गुणों के मिश्रण का नाम योग है और वही माया है; उस योगमाया से आच्छादित हुआ मैं समस्त प्राणि -समुदाय के लिये प्रकट नहीं रहता हूँ।  अभिप्राय यह कि किन्हीं किन्हीं भक्तों 'the Chosen Few ' के लिये ही मैं प्रकट होता हूँ। इसलिये यह मूढ़ जगत् ( प्राणिसमुदाय ) मुझ जन्मरहित अविनाशी परमात्मा को नहीं जानता। मानो नाम और रूप की इस सृष्टि ने आत्मा को आवृत्त कर दिया है। यह आवरण उसी प्रकार का है जैसे  मृगमरीचिका रेत को और तरंगे समुद्र को आच्छादित कर देती हैं; इसलिये यह मूढ़ जगत् ( प्राणिसमुदाय ) मुझ जन्मरहित अविनाशी परमात्माको नहीं जानता। यह प्राणी अपनी मूढ़ता को दूर करके अपने नित्य स्वरूप को जान सकता है। परन्तु सर्वथा भगवत्तत्त्व का बोध तो भगवान् श्रीरामकृष्ण देव की कृपा से ही हो सकता है। भगवान् जिसको जनाना चाहें वही उनको जान सकता है--" सोइ जानइ जेहि देहु जनाई "(मानस 2। 127। 2)। अगर मनुष्य अवतार वरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्णदेव के सर्वथा  शरण हो जाय तो भगवान् उसके अज्ञान को भी दूर कर देते हैं और अपनी माया को भी दूर कर देते हैं।
 "किन्हीं किन्हीं भक्तों 'the Chosen Few ' के लिये ही मैं प्रकट होता हूँ " =  " स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर बनो और बनाओ नेतृत्व प्रशिक्षण परम्परा' में प्रशिक्षित शिक्षकों [नवनीदा जैसे जीवनमुक्त नेता वरिष्ठ 'C- IN-C' ] के लिये ही 'मैं ' (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण देव) प्रकट होता हूँ "[ Swami Vivekananda -Captain Sevier Be and Make Leadership Training Tradition. ] 
 क्योंकि 'विद्या गुरुमुखी ' अर्थात अविद्या को हटाने वाली विद्या का श्रवण गुरुमुख (गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित जीवनमुक्त शिक्षक/नेता/गुरु  के मुख ) से ही करना चाहिए। इसीलिये  विष्णुसहस्रनाम में भगवान विष्णु का एक नाम 'नेता' है। क्योंकि  सच्चे नेता  हर जगह जय पाने की आकांक्षा करते  हैं , किन्तु अपने पुत्र और शिष्य से पराजय ही पाना चाहते हैं - " सर्वत्र जयमिच्छेत पुत्रात् शिष्यात् पराजयम्।" -   शिष्य (भावी नेता)  तो  गुरुदेव (नेता नवनीदा)  का वह रथ है जिसके अंदर स्वयं गुरुदेव आरूढ़ होना चाहते हैं, परंतु उस रथ को  योग्य रथ होना चाहिए, कमज़ोर रथ पर बैठ कर युद्ध नहीं लड़ा जाता। 
     इसलिए श्रवण करने या सुनने का हमारे जीवन में बोलने से अधिक महत्त्व है। तभी तो  ईश्वर से प्रार्थना की  जाती है कि  "ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः" - अर्थात  हम सदैव भला अथवा शुभ सुनें, शुभ ही देखें। इंटरनेट, फेसबुक , या यूट्यूब में गंदे दृश्य या गाने नहीं देखें न सुने। क्योंकि जैसी बातें सुनो या देखो वैसा ही मन होने लगता है।  दादा कहते थे - 'तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु '  शान्त वाणी सुनो अथवा ईश्वर के भजन सुनो तो मन शान्ति पाता है।  हँसी भरे वातावरण में मन को अच्छा लगता है वहीं किसी के क्लेश सुनो, किसी के रोते हुए स्वर को सुनो (फिर वह चाहे पशु ही क्यों न हो) तो मन उद्विग्न होने लगता है। इसीलिए हमारे तीन उपनिषदों का -  प्रश्न, मुण्डक और  माण्डूक्य उपनिषद का शांतिमंत्र है  :   
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः । भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ॥
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिः । व्यशेम देवहितं यदायुः ॥
 स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः । स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ॥
स्वस्तिनस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः । स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शांतिः । शांतिः ॥ शांतिः॥।
अब आसानी से ऐसे पढ़ें :
" ॐ (भद्रम् कर्णेभिः शृणुयाम देवाः भद्रम् पश्येम अक्षभिः यजत्राः / स्थिरैः अङ्गैः तुष्टुवांसः तनूभिः वि-अशेम देव-हितम् यत् आयुः।)
भावार्थ:— हे देववृंद, हम अपने कानों से कल्याणमय वचन सुनें। जो याज्ञिक अनुष्ठानों के योग्य हैं (यजत्राः) ऐसे हे देवो, हम अपनी आंखों से मंगलमय दृश्यों को घटित होते देखें। नीरोग इंद्रियों एवं स्वस्थ देह के माध्यम से आपकी स्तुति करते हुए (तुष्टुवांसः) हम प्रजापति ब्रह्मा द्वारा हमारे हितार्थ (देवहितं) सौ वर्ष अथवा उससे भी अधिक जो आयु नियत कर रखी है, उसे प्राप्त करें (व्यशेम)। तात्पर्य है कि हमारे शरीर के सभी अंग और इंद्रियां स्वस्थ एवं क्रियाशील बने रहें और हम सौ या उससे अधिक लंबी आयु पावें।
 स्वस्ति न इन्द्रो वृद्ध श्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्व वेदाः।  
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्ट नेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर द धातु।।  
भौतिक अर्थ-  वृद्धश्रवा इन्द्र अर्थात राजा हमारा स्वस्ति= कल्याण करें। इसी प्रकार विश्व के ज्ञाता पूषा (सूर्य) , 'प्रचुर ऐश्वर्यों' (वाजों ) का प्रभु एवं  हमारी अभिवृद्धियों का  स्वामी तार्क्ष्य (गरुड़) ,  बृहस्पति गुरु, पूषा पोषण देने वाला तथा विष्णु पालन कर्त्ता। रक्षक राजा, ज्ञानदायक गुरु, पालन कर्त्ता विष्णु और पोषक पूषा कल्याण करें।ॐ शांतिः । शांतिः ॥ शांतिः॥।
                      हर आध्यात्मिक साधक को यह चुनौति [मुझ में और मेरे स्वरूप के मध्य कौन सा आवरण पड़ा हुआ है ? इसी प्रकार ईश्वर [जगन्माता (माँ काली)] की प्रार्थना करके और उनकी कृपा प्राप्त करके ही पार करनी पड़ती हैं।  इनसे कोई लड़ नहीं सकता। इन्हें स्वीकार कर ही इनको पार  करने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं है। इनको पार करना , अर्थात जगतजननी माँ काली की  कृपा प्राप्त करना ही हमारा पुरुषार्थ है। प्रार्थना और भक्ति के द्वारा इन्हें पार किया जा सकता है, और इन्हें पार करना ही पड़ेगा।) / 
(रस्सी = ब्रह्म, सर्प = जगत ) / (प्रकाश = वह ज्ञान जो पूर्ण है , शुद्ध चेतना, ब्रह्म-अस्तित्व-चेतना-परमानन्द / ज्ञान / (मन्द प्रकाश = प्रतिबिंबित चेतना / अल्प ज्ञान> मैं 100% नहीं जानता कि यह नाम-रूप (M/F) क्या है, इसलिए मेरी बुद्धि अपने भोलेपन या अविवेक के कारण उस वस्तु के विषय में मनमाने ढंग से अपना कोई अन्य निष्कर्ष निकाल लेती है। / (उज्ज्वल प्रकाश = आत्म-ज्ञान जो अज्ञानता को दूर करता है (बुद्धि को स्पष्ट रूप से पता नहीं है कि यह क्या है) जिससे अध्यास (superimposition एक वस्तु पर दूसरी वस्तु का आरोप) पैदा होता है (… इसलिए बुद्धि उस रज्जु पर एक मिथ्या सर्प को आरोपित (superimpose) कर लेती है )। टॉर्च लाईट (एकाग्र मन ) के उज्ज्वल प्रकाश में जब विवेक-सम्पन्न बुद्धि सत्य (ब्रह्म=रज्जु) पर आरोपित (सर्प = जगत) की  मिथ्या अवधारणा को हटाकर सत्य (ब्रह्म) का दर्शन कर लेती है; तब उसका भ्रम और भय न जाने कहाँ गायब हो जाता है ! उसे इस सत्य की अनुभूति हो कि -  “Truth of self and world is Brahman” -- स्वयं का (अहं नहीं आत्मा का ) और जगत का यथार्थ स्वरुप ब्रह्म ही हैं ! "  साक्षी चेतना / पूर्ण ज्ञान = ब्रह्म ज्ञान  =  ज्ञान के बाद विज्ञान = नित्य-अनित्य विवेक = नित्य भी सत्य लीला भी सत्य (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्णदेव भी सत्य) समझकर हृदय में धारण करना= ब्रह्म को जानना नहीं - ब्रह्म हो जाना Being and Becoming - अर्थात मनुष्य (जीवनमुक्त शिक्षक,नेता) बनकर जगत की सेवा करना = अर्थात महामण्डल के 'Be and Make ' (मनुष्य बनो और बनाओ आन्दोलन) के साथ जुड़ जाना! ] श्री अश्विनीकुमार दत्त के इन विचारों का प्रभाव ही था कि वर्ष 1898 में [अल्मोड़ा में 1897 ई. में 'नरेन्द्रनाथ दत्त ' (स्वामी विवेकानन्द) से उनकी मुलाकात के बाद ही ] उनको पंडित मदनमोहन मालवीय, दीनशावाचा आदि के साथ कांग्रेस का नया संविधान बनाने का काम सौपा गया था। उनके पिता ब्रज मोहन दत्त डिप्टी कलक्टर थे, जो बाद में ज़िला न्यायाधीश भी बने थे। 
         श्री रामकृष्ण देव का साक्षात् दर्शन उन्हें पहली बार 1881 ई० में प्राप्त हुआ था।  इस प्रथम दर्शन के आलावा भी वे अन्य कुछ बार उनसे मिले थे। अश्विनीकुमार प्रथम बार जब श्री रामकृष्ण से मिलने दक्षिणेश्वर गये थे, उसी दिन केशव सेन भी वहाँ आने वाले थे। केशव सेन उस दिन संध्या के समय भक्तों के साथ वहाँ पहुँचे थे, और उनके साथ ईश्वरीय चर्चा करते हुए ठाकुर समाधिस्थ भी हो गए थे। उनकी अवस्था को देखकर ठाकुर के प्रथम दर्शन में ही अश्विनीकुमार यह जान गए थे कि श्री रामकृष्णदेव एक 'सच्चे परमहंस' हैं! ठाकुर के साथ वे चार-पाँच बार ही मिले थे, लेकिन इस थोड़े समय में ही वे श्री रामकृष्णदेव के अंतरंग शिष्यों में एक शिष्य   बन गए थे। श्रीरामकृष्णदेव (ठाकुर) के साथ होने वाले इन चन्द मुलाकातों की अनुभूति ने ही उनके जीवन को मीठी सुगन्ध से भर दिया था। अश्विनीकुमार के पिता ने भी श्रीरामकृष्ण का दर्शन प्राप्त किया  था ।
            श्री रामकृष्ण (ठाकुरदेव) चाहते थे कि अश्विनीकुमार स्वयं उस नरेन्द्र से मिलें जो भविष्य में सम्पूर्ण मानवजाति को 'राजयोग विद्या' से परिचित करवाने के उद्देश्य से भावी मार्गदर्शक नेताओं  (जीवनमुक्त शिक्षकों)  का निर्माण करने के लिये मायावती, अलमोड़ा में एक 'अद्वैत आश्रम ' की स्थापना करने वाले थे ! " श्री रामकृष्ण की वही इच्छा-  बारह वर्ष के बाद अलमोड़ा में पूर्ण हुई थी ।"  
         इसीलिये   'श्री रामकृष्ण - विवेकानन्द ' Be and Make' वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा' में स्वयं प्रशिक्षित आचार्य विवेकानन्द ने अलमोड़ा में अश्विनी कुमार से मुलाकात होने पर 'कांग्रेसी'  बनने से पहले मनुष्य बनने और बनाने वाली शिक्षा - " मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा ' के विषय में प्रकाश डालते हुए कहा था -
       " सब प्रकार के शरीरों में मानव-शरीर ही श्रेष्ठतम है;  मनुष्य ही श्रेष्ठतम जीव है। मनुष्य सब प्रकार के प्राणियों से -- यहाँ तक कि देव-आदि से भी श्रेष्ठ है। मनुष्य से श्रेष्ठतर कोई और प्राणी नहीं है। देवताओं को भी ज्ञान-लाभ करने के लिये मनुष्य -देह धारण करनी पड़ती है। एकमात्र मनुष्य ही ज्ञानलाभ का अधिकारी है। यहाँ तक कि देवता भी नहीं।  हिन्दू ,यहूदी और मुसलमानों के मतानुसार , ईश्वर ने देवदूत (फ़रिश्ता) और अन्य प्रकार के छोटे -बड़े से बड़े प्राणियों की रचना की, लेकिन उनको आनन्द नहीं आ रहा था। सबसे अन्त में जब उन्होंने  मनुष्य की सृष्टि तो वे बहुत प्रसन्न हुए ! भागवत का कथन है-
'सृष्ट्वा पुराणि विविधान्यजयाऽऽत्म-शक्त्या
वृक्षान् सरीसृप-पशून् खग-दंश-मत्स्यान्।

तैस् तैर् अतुष्ट-हृदयः पुरुषं विधाय
ब्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देवः।।
       सृष्ट्वा पुराणि - अर्थात परमात्मा ने अपनी मंगलमयी अनादि आत्म-शक्ति द्वारा विभिन्न प्रकार के सुन्दरातिसुन्दर पुरों का निर्माण किया तथापि सन्तुष्ट न हुए। जो सब पुरों में शयन करता है उसे  पुरुष कहते हैं । देव-दानव-मानव, कीट-पतंग, पशु-पक्षी आदि विभिन्न देहों, अर्थात पुरों में निवास करने वाला परमात्मा ही पुरुष है।  या यूँ कहें कि विश्व की मूलभूत शक्ति सृष्टि के रूप में अभिव्यक्त हुई। इस क्रम में वृक्ष, रेंगने वाले- सरीसृप, बड़े बड़े डायनासोर जैसे पशु, उड़ने वाले  पक्षी, डंक मारने वाले बिच्छू,  कीड़े, मकोड़े, मत्स्य आदि अनेक रूपों के जीवों के अनेक शरीर रचे, परन्तु उससे उस चेतना की  पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं हुई, अत: ईश्वर को उनमें संतोष नहीं हुआ। उसने जब ब्रह्म साक्षात्कार करने में समर्थ बुद्धिवाले मानव की सृष्टि की, तब उसे संतोष हुआ। मनुष्य को बनाकर परमात्मा ने प्रसन्नता का अनुभव इसलिये किया क्योंकि ‘ब्रह्मावलोकधिषणं’ - उसकी बुद्धि ब्रह्म को जानने (परमात्मा को समझने) में समर्थ है।
                इसी प्रकार ईसाई और मुसलमान पुराणों में भी कहा गया है - मनुष्य का सृजन करने के बाद ईश्वर ने सभी देवदूतों या फ़रिस्तों को बुलवाभेजा ,  और उन्हें मनुष्य के सामने अपना सिर झुकाने , प्रणाम और अभिनन्दन करने के लिये कहा। इबलीस को छोड़कर बाकी सब ने ऐसा किया। अतएव ईश्वर ने इबलीस को अभिशाप दे दिया।  इससे वह शैतान बन गया ! इस रूपक से यह शिक्षा मिलती है कि - जो जातिधर्म का विचार किये बिना मानवमात्र के समक्ष अपना सिर नहीं झुकाता , उसका अभिवादन नहीं करता , वह शैतान बन जाता है। क्योंकि केवल नश्वर मनुष्य शरीर प्राप्त होने पर ही ब्रह्म (इन्द्रियातीत सत्य- अविनाशी आत्मा ) को जानकर, परब्रह्म (परमात्मा-'ब्रह्मविद -मनुष्य') बन जाने की सम्भावना है ! - आत्मा और परमात्मा के अद्वैत को अपने अनुभव से जान लेने की सम्भावना है
अद्वैत की मूल बातें:
     👉1. ब्रह्म : पूर्ण, निरपेक्ष सत्य, इन्द्रियातीत सत्य या परम सत्य (The Absolute Truth or the Ultimate Reality- जिसको देखकर एथेन्स का सत्यार्थी देवकुलिश अँधा हो गया था ?) को ब्रह्म कहा जाता है। ब्रह्म शब्द का शाब्दिक अर्थ है, बृहद - जो दीर्घ या अनन्त विशाल है। तथापि यह दीर्घता (bigness) या असीमता किसी भी वस्तु द्वारा सीमित नहीं हो सकती है। यह बृहद से भी बृहदतम है- 'It is bigger then the biggest.' इसके एक चौथाई में ही " मन और वाणी सहित सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड" अवस्थित है, हमलोगों का यथार्थ स्वरुप (आत्मा या ब्रह्म ) मन से भी तीन चौथाई बड़ा है ! यह मन को मुट्ठी में बाँध सकता है। ब्रह्म - देश ,काल और निमित्त (space, time and causation) से भी परे है। अर्थात ब्रह्म स्वयंभू है; उसका कोई कारण नहीं है- nothing caused Brahman!' उदाहरण के लिए, हर बच्चे (के शरीर) का कारण उसके माता-पिता होते हैं।  Brahman has no ‘parents'. किन्तु ब्रह्म (आत्मा) का कोई माता-पिता नहीं है। पूर्ण से पूर्ण को निकालने पर पूर्ण ही बचता है। ब्रह्म का सर्वोत्तम अन्तःस्फुरण (intuition) है - “not this, not this”---"यह नहीं, यह नहीं" (नेति नेति)। अर्थात ब्रह्म वह पहला नेति (first neti - स्थूल शरीर जो नजर आता है) नहीं है, और ब्रह्म वह दूसरा नेति (second neti -सूक्ष्म शरीर या मन जो नजर नहीं आता, भी नहीं है !! अर्थात , यह समझना भी गलत है कि "ब्रह्म कुछ भी नहीं है"। क्योंकि "कुछ भी नहीं" एक अन्य सूक्ष्म विचार है। ब्रह्म शब्द के तात्पर्य से जो बोध होता है उसके लिये सबसे निकटतम शब्द या नाम है- " infinite existence-consciousness -bliss " (satcitānanda) या " सच्चिदानन्द !" पूर्ण होने के कारण ब्रह्म - एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म { छान्दोग्य 6/2/1 }है।  [ला इलाह इल्लल्लाह : अर्थात ईश्वर एक ही है और अद्वितीय है : उपनिषद् और कुरआन एक साथ कह रहे हैं।  एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म { छान्दोग्य 6/2/1 } एकम् + एव + अद्वितीयम्  = ब्रह्म one without a second (non-dual) ] है! ब्रह्म के सन्दर्भ में श्रुति के "एकमेव" कथन से अभिप्राय है कि ब्रह्म "एक" ही है। "एव" कार पूर्ण विश्वास का प्रतीक है जो उन समस्त शंकाओं को निरस्त कर देता है जो ब्रह्म के एक होने पर उठती हैं। इसके पश्चात् "अद्वितीय" पद इस एकत्व के सापेक्षत्व का भी निरसन कर देता है। निरपेक्ष में ही अद्वितीयता संगत है। तात्पर्य यह काबा-काशी या राम-बुद्ध की मूर्ति या स्थूल और सूक्ष्म (कोबिड -19 भी )  कुछ भी ब्रह्म से अलग नहीं है-nothing is separate from Brahman.  इस श्रुति वाक्य से आपकी सहमति या असहमति भी कोई माने नहीं रखती। 
     👉2. नित्य-अनित्य विवेक: वह वस्तु जो हमेशा - तीनो काल में सत्य रहता है, वह चाहे जो कुछ भी हो, उसे अबाध रूप से परम् सत्य, नित्य या ' सत् ' कहा जाता है। और वह वस्तु जो हमेशा असत्य है, पहले भी नहीं था , आज भी नहीं है , बाद में भी नहीं होगा, वह चाहे जो कुछ भी हो -उसे बिल्कुल असत्य (असत्) कहा जाता है। जैसे मनुष्य का सींग, खरहे का सींग , आकाश-कुसुम , वर्गाकार -वृत्त (human horns, or a square circle.) कुछ लोग कह सकते हैं कि " काल्पनिक चित्रों या कार्टून -पत्रिकाओं सींग वाले मनुष्य" का अस्तित्व होता है। किन्तु हमलोग यहाँ प्रातिभासिक सत्य (subjective reality) की बात नहीं कह रहे हैं। हमलोग यहाँ व्यावहारिक सत्य (objective-कर्म सम्बन्धी, empirical reality) की चर्चा कर रहे हैं। जो वस्तु अपने अस्तित्वके लिए किसी अन्य चीज़ पर निर्भर है, उसे ऊपरी तौर से सत्य (apparently real-सापेक्षिक या प्रातिभासिक सत्य) या 'मिथ्या' कहा जाता है। परिवर्तनशील होने के कारण अभी दीखता है, किन्तु बाद में नहीं रहेगा -अर्थात न तो पूर्ण रूप से सत्य है, न पूर्ण रूप से असत्य है। संक्षेप में कहें तो जिस जगत  का हम अनुभव करते हैं, वह केवल दिखने वाली वास्तविकता -अर्थात प्रातिभासिक सत्य ( apparent
 reality) है। 
    'ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापर:।' ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है तथा जीव ब्रह्म ही है, कोई अन्य नहीं। यह सिद्धांत सत्य है, पर इस सिद्धांत को समझने में प्रायः भ्रम हो जाता है।‘जगत मिथ्या’ की मान्यता से कर्म से (चार पुरुषार्थ से)  विरत होकर उस परम् सत्य की खोज ही सम्भव नहीं है। जीवन का अस्तित्व कर्म पर ही टिका है। कर्म (पुरुषार्थ)  के बिना तो एक क्षण भी नहीं रहा जा सकता है। जीवनमुक्त भी लोक कल्याण के लिए कार्य करते हैं। संसार को माया मानकर कर्म को त्यागकर बैठना, एक प्रकार का पलायनवाद है। ‘ईशावास्योपनिषद्’ कर्मवाद का समर्थन करते हुए कहता है- कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः। एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे॥अर्थात्- श्रेष्ठ कर्म करते हुए सौ वर्ष तक जीवित रहने की इच्छा करनी चाहिए। ऐसा करते रहने से मनुष्य कर्म बन्धन से मुक्त हो जाता है। ब्रह्म सत्य तो है किन्तु उस सत्य तक पहुँचने के लिए जगत को भी सत्य मानकर चलना होगा। निष्काम भाव से कर्म करते हुए तभी परम लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है। इसी को श्रीरामकृष्णदेव कहते थे  " ज्ञान के बाद विज्ञान " की अवस्था, नित्य और अनित्य दोनों को स्वीकार करना पड़ता है, जैसे नित्य सत्य है, वैसे ही लीला भी सत्य है !
         👉3. जीव: ब्रह्म या साक्षी चैतन्य (Witness consciousness) ही सूक्ष्म शरीर ( subtle body, अन्तःकरण या मन) में प्रतिबिम्बित होता है।'ब्रह्म या शुद्ध चेतना (Pure consciousness) जब व्यष्टि मन पर प्रतिबिम्बित होकर, परावर्तित चेतना (Reflected consciousness) के रूप में अभिव्यक्त होता है, तो वैयक्तिक मन भ्रमित होकर समझने लगता है कि " मैं केवल इस मन- शरीर-इन्द्रियों द्वारा संचालित एक पुतला हूँ। " किन्तु सच्चाई यही है कि जीव कभी ब्रह्म से अलग नहीं है।   जिस तरह से सारी प्रकृति जड़ है | इस जड़ प्रकृति को चेतनता प्रदान करती है, ब्रह्म की उपस्थिति | ब्रह्म के प्रकाश से ही, प्रकृति प्रतिभासित होती है,उसी प्रकार जीव की उपस्थिति ही जड़ शरीर को प्रतिभासित करती है |जैसे ब्रह्म शाश्वत है,उसी तरह जीव भी शाश्वत है | इसलिए जिस तरह ब्रह्म का कभी भी नाश नहीं होता, उसी प्रकार जीव का भी कभी नाश नहीं होता |  जीव के चेतन होने का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि शरीर से जीव के निकल जाने के बाद, शरीर जड़ हो जाता है | यह जीव ब्रह्म की ही तरह अविनाशी है | इसका कभी भी नाश नहीं होता | नाश शरीर का होता है आत्मा का नहीं | "वासांसि जीरणानि यथा विहाय,नवानि गृह्णाति नारोपराणि | तथा शरीराणि विहाय जीर्ण|न्यन्यानि संयाति नवानि देहि |" जिस प्रकार नर, वस्त्र पुराने हो जाने पर, नए वस्त्र ग्रहण कर लेता है, उसी प्रकार जीव, शरीर पुराना हो जाने पर, नया शरीर ग्रहण कर लेता है।   
[ Basics of Advaita
     1. BRAHMAN :  The Absolute or the Ultimate Reality is referred as Brahman.The word Brahman literally means what is big or vast. However the bigness is not limited by any object. It is bigger then the biggest. It accommodates everything. Brahman is beyond mind (concepts-thoughts/emotions) which doesn't exclude speech (words). Brahman is beyond space, time and causation. Meaning nothing caused Brahman. For example, every child has it's cause, the parents. However, Brahman has no ‘parents'. Nothing have birth to the Absolute.The best intuition of Brahman is “not this, not this” (neti neti). Meaning Brahman is nothing that one can indicate (first neti), also not that it is nothing (second neti). Meaning, it's also false to understand that “Brahman is nothing“. Because “nothing” is another subtle thought. The best conceptual / verbal approximation using words is that Brahman is infinite existence-consciousness (satcitānanda).Brahman is one without a second (non-dual) – being absolute reality. Meaning nothing is separate from Brahman. Not even your agreement or disagreement to this statement.
       2. Real/Unreal:That which is always real, no matter what, is called absolutely real (sat).That which is always unreal, no matter what, is called absolutely unreal (asat).For example: human horns, or a square circle. Yes, we know some will say “human horns exist in imagination”. But we're not talking about prātibhāsika (subjective reality). We're talking about vyāvahārika (objective, empirical reality).
That which is dependent on something else for it's reality, is called apparently real (mithyā). Meaning it's neither absolutely real, nor absolutely unreal. In short: The world we experience only has an appearing/apparent reality. (brahman satyam jagat mithyā)
       3. JIVA : Jīva refers to when Brahman (consciousness) reflects on an individual mind, and the mind falsely assumes “I am the contents of this mind-body”. In truth, jīva is not apart from Brahman.
👉Understanding Advaita using the rope-snake example :
Seeing the rope as snake = Seeing the Brahman as world>Illusion / Mistake = Māyā.>Rope = Brahman.Snake = World.> Light = Knowledge aligned with Absolute Reality; consciousness (Brahman). Meaning, clarity is complete.> Dim light = Partial Knowledge of what-is. I don't know 100% what it is, therefore my mind choicelessly and innocently projects it's own conclusion.> Bright light = Self-Knowledge which removes ignorance (mind doesn't know clearly what it is) causing superimposition (…therefore the mind superimposes a false snake onto it).Once false notions of reality are removed, one's understanding  “Truth of self and world is Brahman” is actualized.]
     स्वामी विवेकानन्द कहते हैं -  " सभी धर्मों में इन्द्रियातीत -ज्ञान या तुरीय अवस्था (superconscious state) बिल्कुल एक समान (identical) है।  देहज्ञान का अतिक्रमण करने पर हिन्दू, ईसाई , मुसलमान , बौद्ध -इतना ही नहीं , जो लोग नास्तिक हैं (अर्थात जो मन की चौथी अवस्था को स्वीकार नहीं करते), या किसी प्रकार का धर्ममत स्वीकार नहीं करते; सभी को ठीक एक ही प्रकार की अनुभूति होती है। "
                   [वेदों के अनुसार जन्म और मृत्यु के बीच और फिर मृत्यु से जन्म के बीच तीन अवस्थाएं ऐसी हैं जो अनवरत और निरंतर चलती रहती हैं। वह तीन अवस्थाएं हैं : जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति। ४.तुरीय अवस्था=चेतन्य की यह चतुर्थ अवस्था हैं जिसे मोक्ष की अवस्था कह सकते हैं।  इसमें प्रत्येक प्रकार के शरीर का अभाव पाया जाता हैं।  यहाँ अविद्या (ईश्वर की माया शक्ति ) न आवरण रूप में और न विक्षेप रूप में ही कार्य करती हैं।  किसी भी प्रकार के अज्ञान से रहित होने  के कर्ण यह पूर्ण मोक्ष या आनंद की अवस्था हैं। गौड़पाद  जी ने इन अवस्थाओ का वर्णन करते हुये लिखा हैं कि “ रज्जू, सर्प की भांति तत्व से विपरीत ग्रहण होने पर स्वप्न होता हैं और केवल तत्व को न जानने से निद्रा होती हैं। पर इन दोनों विपर्यय के क्षीण हो जाने पर साधक तुरीय अवस्था को प्राप्त होता हैं।"  इस प्रकार जीव, जब अनादि माया से सोया हुआ तत्वबोध के द्वारा भली भांति प्रकार से जग जाता हैं, तभी उसे जन्म-मृत्यु , निद्रा तथा स्वप्न से रहित अद्वैत आत्म- तत्व का बोध प्राप्त होता हैं। जो व्यक्ति उक्त तीनों अवस्था से बाहर निकलकर खुद का अस्तित्व कायम कर लेता है वही मोक्ष के, मुक्ति के और ईश्वर के सच्चे मार्ग पर है।]

  [" In all religions the superconscious state is identical. Hindus, Christians, Mohammedans, Buddhists, and even those of no creed, all have the very same experience when they transcend the body. " (Volume 7, Inspired Talks, July 11, 1895.)]
       👉 इस तरह के ज्ञान की उपयोगिता क्या है ? ..... यह ज्ञान हमारे समस्त दुःखों का करेगा ! जब मनुष्य अपने मन का विश्लेषण करते-करते ऐसी एक वस्तु के साक्षात् दर्शन कर लेता है, जिसका किसी काल में नाश नहीं, जो स्वरूपत: नित्यपूर्ण और नित्यशुद्ध है, तब उसको फिर दु:ख नहीं रह जाता, उसका सारा विषाद न जाने कहाँ गायब हो जाता है... वह समझ जाता है कि 'उसकी मृत्यु किसी काल में नहीं है ' ~ तब उसे फिर मृत्यु -भय नहीं रह जाता। वह अभिः बन जाता है। इसी देह में उसे परमानन्द की प्राप्ति हो जाती है !  [राजयोग -अवतरणिका , पृष्ठ  ४०]    
                    [ What is the use of such knowledge? ..... When by analysing his own mind, man comes face to face, as it were, with something which is never destroyed, something which is, by its own nature, eternally pure and perfect, he will no more be miserable, no more unhappy. All misery comes from fear, from unsatisfied desire. Man will find that he never dies, and then he will have no more fear of death. When he knows that he is perfect, he will have no more vain desires, and both these causes being absent, there will be no more misery — there will be perfect bliss, even while in this body. " (Volume 1, Raja-Yoga/ CHAPTER I/INTRODUCTORY-पेज 130) ]  
     👉 उस ज्ञान को प्राप्त करने का उपाय क्या है ? स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " There is only one method by which to attain this knowledge, that which is called concentration." [देहभाव (M/F अहं बोध) का अतिक्रमण कर, चित्त की वृत्तियों का निरोध (योग) होने पर, जो इन्द्रियातीत ब्रह्मज्ञान प्राप्त होता है] .... इस ज्ञान की प्राप्ति के लिये एकमात्र उपाय है ~ एकाग्रता !" एवं अभ्यास अर्थात मनःसंयोग और वैराग्य के द्वारा चित्त की वृत्तियों का निरोध (एकाग्रता) सम्भव हो जाता है ! 3 जुलाई,  1897 को अल्मोड़ा से शरतचन्द्र चक्रवर्ती को लिखित पत्र में स्वामीजी कहते हैं -  "न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः" इत्यत्र त्यागेन वैराग्यमेव लक्ष्यते।" Neither by rituals, nor by progeny, nor by riches, but by renunciation alone a few (rare) people attained immortality" (Kaivalya, 2). Here, by the word renunciation Vairagya is referred to."  - " न धार्मिक अनुष्ठान से, न वंशविस्तार करने से , न धनदौलत से , बल्कि त्याग से ही कुछ असाधारण लोग (ईश्वरकोटि ?) अमरत्व प्राप्त करते हैं ! यहाँ 'त्याग' शब्द का तात्पर्य [गृहस्थ लोगों को कमण्डल लेकर संन्यासी बन जाने का नहीं] बल्कि 'वैराग्य' का द्योतक है। "
जब इस ज्ञान की प्राप्ति का एकमात्र उपाय -  में मनःसंयोग के  अभ्यास का प्रशिक्षण देने में समर्थ प्रशिक्षित शिक्षक बनना और बनाना ही है !!" तब ~ फिर  ' किसी गृहस्थ (प्रवृत्तिधर्म का पालन करने वाले व्यक्ति)   के लिये 'ब्रह्मविद' -अर्थात ब्रह्म को जानने में समर्थ 'मनुष्य बनना और बनाना ' क्यों सम्भव नहीं होना चाहिये ?'  संसार में  मनुष्य जब उत्पन्न होता है वह अल्पज्ञ , अधूरे या  सीमित ज्ञान वाला होता है। अल्पज्ञता व अविद्या के कारण मनुष्यों में जन्मजात रूप से लोकैषणा, वित्तैषणा तथा पुत्रैषणा पायी जाती है। इसलिये प्रत्येक मनुष्य इनसे सम्मोहित hypnotized बना रहता है। 
      स्वामीजी कहते हैं - " मनःसंयोग का विज्ञान यह शिक्षा देता है कि जिस प्रकार वासनाएँ और अल्पज्ञता ( desires and wants) मनुष्य के अन्तर में हैं, उसी प्रकार उन अभावों को पूर्ण करने की शक्ति ( the power of supply) भी उसके भीतर ही रहती है। और जहाँ कहीं और जब कभी किसी वासना, अभाव या प्रार्थना की पूर्ति होती है, तो समझना होगा कि वह इस अन्तर्निहित शक्ति के अनन्त भण्डार से ही पूर्ण होती है , बादलों के ऊपर अवस्थित किसी अप्राकृतिक पुरुष विशेष  से नहीं ! अप्राकृतिक पुरुष (supernatural being) की भावना मानव में कार्य की शक्ति को भले ही कुछ परिमाण में उद्दीप्त कर देती हो,  पर उससे आध्यात्मिक अवनति भी आती है। उससे स्वाधीनता चली जाती है, भय और कुसंस्कार ह्रदय पर अधिकार जमा लेते हैं तथा 'मनुष्य स्वभाव से ही दुर्बल प्रकृति है ' ऐसा भयंकर विश्वासhorrible belief in the natural weakness of man.--अर्थात मनुष्य तो जन्मजात रूप से मन और इन्द्रियों का गुलाम बने रहने के लिए ही पैदा हुआ है ?) हममें घर कर लेता है।  योगी कहते हैं कि अप्राकृतिक नाम की कोई चीज नहीं है ; पर हाँ, प्रकृति में दो प्रकार की अभिव्यक्तियाँ हैं - एक है स्थूल और दूसरी सूक्ष्म।  सूक्ष्म कारण है और स्थूल , कार्य।  स्थूल को इन्द्रियों के द्वारा सहज ही उपलब्ध किया जा सकता है , पर सूक्ष्म नहीं।  मनःसंयोग के अभ्यास से सूक्ष्मतर अनुभूति अर्जित होती है। " [The practice of Manahsanyog  will lead to the acquisition of the more subtle perceptions.१/३२ ]            
         एषणा का अर्थ है-कामना। ऐसी कामना जिसमें मुख्यत: विवेक का अभाव रहता है। एषणाएं मुख्य रूप से तीन प्रकार की होती हैं- पुत्रैषणा , वित्तैषणा, और लोकैषणा। हमारे शास्त्रों में एषणाओं को मोक्ष मार्ग में पड़ने वाली खाई बताया गया है। भ्रममुक्त या ब्रह्मविद बनने के लिए हमें एषणाओं से मुक्ति पानी होगी। एषणाओं का त्याग करके ही आध्यात्मिक मार्ग पर बढ़ते हुए ब्रह्म (परम् सत्य) की प्राप्ति की जा सकती है। [पूज्य नवनीदा ने 'प्रथम बिहार राज्य स्तरीय युवा-प्रशिक्षण शिविर' (२७-२९ मई , 1988) में कहा था, श्रद्धा के बल से तीनों ऐषणाओं के बन्धनों को तोड़ कर अवश्य आगे बढ़ सकते हो ! Are you a Beast ? - क्या तुम कोई पशु हो ? अपने आप पर श्रद्धा रखो ! तुम सोचना कि तुम एक गृहस्थ शिक्षक हो , तुम्हें श्रद्धा, विवेक और मनुष्य जीवन सार्थक कैसे होता है; स्वयं यह समझकर दूसरों को समझाना होगा।] 
             सभी लोगों की इच्छा होती है कि उनकी गिनती श्रेष्ठ और महान लोगों [C-IN-C] में हो,  लेकिन बहुत ही कम लोग इस इच्छा को पूरा कर पाते हैं। महानता प्राप्त करने के लिए तीन ऐसी बातें हैं, जिनसे बचना चाहिए। जो भी व्यक्ति इन 3 बातों से बच जाता है, वह महान बन सकता है।
    पहली बात है-पुत्रैषणा :  पुत्रैषणा का सरल अर्थ है कामवासना। अधिकांश लोग दैहिक कामुकता से अधिक मानसिक कामुकता के बंधन में जकड़े हुए हैं। अपनी चिंतन करने की क्षमता को नष्ट कर रहे हैं। युवा लोग अपने अमूल्य समय को प्रेम जैसे पवित्र शब्द को मलिन करने वाली वासना  या कामुक-चिंतन  में नष्ट करते रहते हैं। कामवासना की आसक्ति और लत (Attachment and Addiction)  का  त्याग किये  बिना कोई भी इंसान महान नहीं बन सकता है। इसीलिए महान लोग (भावी नेता -जीवन्मुक्त शिक्षक ) गृहस्थ जीवन में भी 2 -3 बच्चे हो जाने के बाद कामवासना त्यागकर ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं।
       दूसरी बात है-वित्तैषणा।   मनुष्य जीवन का उद्देश्य -अभ्युदय और निःश्रेयस अर्थात भोग के साथ योग है। इन समस्त भोगों का आधार धन-संपत्ति है। इसके बिना जीवन संभव नहीं है। शास्त्रों में कहा गया है 'भूखा व्यक्ति कौन-सा पाप नहीं करता' - है ?  परंतु हम इस दुनिया में पाते हैं कि पेट भरे व्यक्ति भूखों से अधिक पाप करते दिखाई देते हैं। क्योंकि  जब वित्तैषणा यानी धन का लालच  अत्यधिक  हो जाता है, तब व्यक्ति के लिये अपने मूल जीवन लक्ष्य - मोक्ष या ब्रह्मज्ञान  तक पहुंच पाना असंभव हो जाता है। व्यक्ति कोई छोटा-मोटा दान-धर्म कर भी ले तब भी उसकी इच्छाएं धन से लिपटी रहती हैं। वेद आदि शास्त्रों में पुरुषार्थ करते हुए धन कमा कर ऐश्वर्य प्राप्त करने पर बल दिया गया है और यह कहा गया है कि धन का उचित उपयोग और उपभोग करना चाहिए।   इसी कारण राजर्षि जनक जैसे  से महान लोग सबसे पहले अपने मन से वित्तैषणा को खत्म करते हैं।   और पुरुषार्थ  करके या जन्मजात राजा होने से भी अपने को ईश्वरेच्छा से प्राप्त धन का संरक्षक (custodian) समझते है, मालिक नहीं समझते ! और जरूरत से अधिक धन को जन-कल्याण के कार्यों में व्यय करते हैं ! वहीं भारत में  सिद्धार्थ जैसे कुछ राजकुमार , बुद्ध बनने के लिये जैसे  स्वेच्छा से गरीबी का जीवन भी अपनाते हैं।
  तीसरी बात है -  लोकैषणा : ऐसी ही एक अमरता की कामना है- लोकैषणा जिसका अर्थ है यश, ख्याति, मान-सम्मान आदि की चाह करना।  शास्त्रों में परोपकार और दान आदि की महिमा बताई गई है, परंतु साथ ही इसका आडंबर वर्जित किया गया है।  इस कामना के वशीभूत व्यक्ति अपने सारे कार्य इस प्रकार लोगों के सामने प्रचारित करते हैं कि उन्हें सम्मान मिले।  ऐसे लोगों को जिस क्षेत्र में खुद के प्रचार का अवसर मिलता है, वे उसी ओर चल देते हैं। जहां यश-कीर्ति, सम्मान नहीं मिलता है, वे लोग वहां नहीं जाते हैं। वे वर्तमान समय की प्रशंसा से ही संतुष्ट नहीं रहते, बल्कि चाहते हैं कि मरने के बाद, या जीवित अवस्था में  भी उनकी  मूर्तियां चौराहों पर स्थापित रहें।  कीर्ति की चाहना कोई बुरी बात नहीं, परन्तु यश की चाहना और बात है और मान-प्रतिष्ठा की भूख दूसरी बात है। जब नेता लोग प्रतिष्ठा पाने के लिए व्याकुल हो जाते हैं तो सभा-संस्थाएँ पतनोन्मुख हो जाती हैं। अधिकांश नेता लोग अपनी यश-कीर्ति बढ़ाने और सस्ती वाह-वाही लुटने के लिए सामाजिक कार्यों में लगे रहते हैं।  लेकिन  क्या  सांसारिक अभ्युदय की कामना से समाज-सेवा के कार्य करना बुरा है ?- नहीं , बिल्कुल नहीं! किन्तु सेवा करते समय आत्मनिरीक्षण भी करते रहना चाहिये कि उस सेवा कार्य से मेरे ह्रदय का (निःश्रेयस का) विकास हो रहा है, या कहीं मेरा 'अहं' तो और नहीं बढ़ रहा है ? क्या मैं शिवज्ञान से जीवसेवा कर पा रहा हूँ , ज्ञान-के बाद विज्ञान का पालन हो रहा है या नहीं ? जैसे-  चक्रवाती तूफान अम्फान (Cyclone Amphan), या  COVID-19 के समय अन्नदान, वस्त्रदान , विद्यादान या वॉट्सएप्प ग्रुप बनाकर, महामण्डल के मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी आन्दोलन का प्रचार -प्रसार करना । ये सभी अच्छे कार्य हैं , पर समाज-सेवा करते समय यह ध्यान रखना है कि मेरी श्रद्धा या श्येन-दृष्टि कहीं नाम-यश की आकांक्षा में तो निबद्ध नहीं है ? 
       जबकि उच्च आदर्श वाले --पूज्य नवनीदा जैसे महान नेता समाज कल्याण के लिए अपने आप को समर्पित कर देते हैं और कोई प्रचार-प्रसार भी नहीं चाहते हैं। लोकैषणा या यश-लोलुपता एक ऐसी मानसिक दुर्बलता है, जिससे पीड़ित व्यक्ति न तो अपनी महानता विकसित कर पाता है और न समाज के लिए उपयोगी बन सकता है। महान बनने के लिए इन तीनों बातों से बचना बहुत जरूरी है।
       अंग्रेजी कवि जॉन मिल्टन की प्रसिद्द उक्ति है - "Fame is ...That last infirmity of noble mind."अर्थात  ' नाम की आकांक्षा ही उच्च अन्तःकरण की अन्तिम दुर्बलता है !' प्रसिद्धि मनुष्य को महान (नेता) नहीं बनाती, बल्कि श्रेष्ठ आचरण ही मनुष्य को प्रसिद्ध (शिक्षक) बनाता है। जब उच्च विचारों से अनुप्रेरित होकर, श्रेष्ठ आचरण करने वाला कोई व्यक्ति प्रसिद्धि पाने के लिये महत्वाकांक्षी होकर महान होने का ढोंग (गुरुगिरि) करने लगता है, तो उसे महान शिक्षक या नेता की दृष्टि से नहीं देखा जाता है। महान व्यक्ति , आदर्श शिक्षक (noble ,ठाकुरदेव) बनने का अर्थ है - बिना किसी नाम -यश या पद पाने की आकांक्षा के , निःस्वार्थपरता के साथ संघ के समस्त कार्यों को करते जाना। मानवजाति के सच्चे मार्गदर्शक नेता (अवतार या पैगम्बर) अपने लिए किसी राष्ट्रीय -पुरस्कार जैसे भारतरत्न या पद्मपुरस्कार को प्राप्त करने की आकांक्षा नहीं रखते है। उच्च अन्तःकरण (सर्वव्यापी विराट अहं बोध में रूपान्तरित अहं) का व्यक्ति निःस्वार्थ भाव से, फल में अनासक्त होकर कार्य करता है , इस सेवा-कार्य के लिये चुने जाने को ही अपने कार्य का पुरस्कार (reward) समझता है।              
    उच्च अन्तःकरण का व्यक्ति (भावी नेता या शिक्षक ) कामिनी-कांचन में आसक्ति और लत को - अर्थात पुत्रैषणा और वित्तैषणा को तो जीत सकता है, लेकिन वह अन्तिम ऐषणा -लोकैषणा या प्रसिद्धि हासिल करने की इच्छा का अतिक्रमण नहीं कर पाता ! पवित्र व्यष्टि अहं भी यदि जादूगर के जादू से पुनः कामनी -कांचन में कभी फँस भी गया तो , बहुत जल्दी ही अभ्यास और वैराग्य के बल या श्रद्धा के बल से बाहर निकल आता है। किन्तु जिस दिन किसी का उच्चतर अन्तःकरण  यदि नाम-यश की (प्रसिद्धि की) लोलुपता से ग्रस्त हो जाता है, तो नाम-यश की वासना के खिंचाव की डिग्री तक उसका ठाकुरत्व कम हो जाता है।  इस बात में कोई सन्देह नहीं कि महान मन या महापुरुष की आखिरी दुर्बलता ... प्रसिद्धि की आकांक्षा है ! (महापुरुष महाराज, नवनीदा  या ठाकुर के माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट अहं -बोध में रूपान्तरित अहं को छोड़कर... प्रसिद्धि की आकांक्षा ही उच्च अन्तःकरण की अन्तिम दुर्बलता है !) दूसरे शब्दों में महापुरुष या मानवजाति के भावी नेता के जीवनमुक्त शिक्षक बनने में आखरी बाधा लोकैषणा है ! 
                  श्रीरामकृष्ण अपने साधारण गृही शिष्यों को -'कामिनी-कांचन '  के प्रति मन की आसक्ति और लत (Attachment and addiction ) का त्याग करने की शिक्षा देते थे। वे अपने गृहस्थ भक्तों को दो ऐषणाओं पुत्रैषणा और वित्तैषणा (lust and wealth) मानसिक रूप से त्याग करने करने की शिक्षा देते थे।  किन्तु, चाहे वे प्रवृत्ति मार्गी गृहस्थ हों या निवृत्ति मार्गी संन्यासी ,  स्वामीजी सभी भावी नेताओं या भावी जीवनमुक्त शिक्षकों [Mahamandal Leaders : C-IN- C ] के लिये , 'कामिनी -कांचन' (lust and wealth) में आसक्ति और लत ( Attachment and addiction) का त्याग करने  के साथ -साथ अन्तिम ऐषणा -लोकैषणा का त्याग करना भी अनिवार्य समझते थे।       
     स्वामीजी कहते थे - " I want a band of young Bengal -- who alone are the hope of this country..... If I get ten or twelve boys with the faith of Nachiketa, I can turn the thoughts and pursuits of this country in a new channel."  - वास्तव में मैं चाहता हूँ -युवक बंगालियों का एक दल। वे ही देश की आशा हैं। ....[किन्तु दादा ने अन्तिम कैम्प में कहा था मुझे बिहार पर ही आशा है। ] नचिकेता की तरह श्रद्धावान (अर्थात तीनों ऐषणाओं से मुक्त ) 10 -12 लड़के पाने पर मैं देश की चिन्तन -धारा और प्रयत्न को नवीन पथ - " Be and Make " पर परिचालित कर सकता हूँ।"
      लेकिन लोकैषणा का त्याग करना सर्वत्यागी सन्यासियों के लिये भी अत्यन्त कठिन है; इसी बात का उल्लेख करते हुए स्वामीजी 1901 ई ० के 'स्वामी- शिष्य संवाद'- ३८ में आगे कहते हैं - " कामिनी -कांचन का त्याग करके भी 99 % साधु नाम-यश के मोह में आबद्ध हो जाते हैं। (सिंह-शावक आत्मा से भ्रम में पड़कर पुनः भेंड़-शिशु बन जाते हैं। ) "Fame . . . that last infirmity of noble mind"-- haven't you read?"  ' नाम की आकांक्षा ही उच्च अन्तःकरण की अन्तिम दुर्बलता है ' , पढ़ा है न ? फल की कामना बिल्कुल छोड़कर 'काम' किये जाना होगा। [मनुष्य बनने और बनाने का काम किये जाना होगा।] अपने जूनियर-या सीनियर से मान -अपमान तो मिलेगा ही,  परन्तु उच्च आदर्श को सामने रखकर हमें सिंह की तरह काम करते रहना होगा।"
निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु
लक्ष्मीः स्थिरा भवतु गच्छतु वा यथेष्टम्।
अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा
न्याय्यात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः॥

नीति में निपुण मनुष्य चाहे निंदा करें या प्रशंसा, लक्ष्मी आयें या इच्छानुसार चली जायें, आज ही मृत्यु हो जाए या युगों के बाद हो परन्तु धैर्यवान मनुष्य कभी भी न्याय के मार्ग से अपने कदम नहीं हटाते हैं॥ ] ६/१९६
[ Yours RABI[01/06, 8:25 pm] Bijay Kumar Singh: Thakur used to say , renounce the ' Kamini- Kanchan' or lust and wealth , that is Kama Aishna and Witta Ashna , grihastha like us should renounce the Attachment and addiction for it. But Swami ji says the last " Lok Aishna" is very difficult to renounce even by Sadhus. He says - "Ninety - nine per cent of the Sadhus, even after renouncing lust and wealth, get bound at the last by the desire of name and fame. "Fame . . . that last infirmity of noble mind"-- haven't you read? We shall have to work, giving up altogether all desire for results. People will call us both good and bad. But we shall have to work like lions, keeping the ideal before us, without caring whether "the wise ones praise or blame us". [vol 7, Conversations and Dialogues : xxi]
                           इस 'एकाग्रताजन्य~ ज्ञान' या 'विवेकज-ज्ञान ' को प्राप्त करने का उपाय बतलाते भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमदभगवतगीता  (4 . 39) में कहा है कि - 'श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं'   'ब्रह्म-ज्ञान' की प्राप्ति के लिए 'श्रद्धा' के अलावा इंद्रियों के 'संयम' तथा  'तत्परता' (एथेन्स के सत्यार्थी वाली ज़िद - भले अँधा हो जाऊँ पर सत्य को अवश्य देखूँगा !)  आवश्यक है। इन तीनों गुणों के होने से ज्ञान की प्राप्ति होती है और उस ज्ञान से मोक्ष (परम शांति-भ्रम से मुक्ति ) मिलता है। पूरा श्लोक है -
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।।

जो जितेन्द्रिय तथा इतना साधन- परायण (अभ्यासयोग परायण) है कि  'समुद्र -मंथन से विष निकलने  के बाद भी अमृत मिलने तक' अध्यवसाय पूर्वक परम् सत्य की खोज में तत्पर रहता है - ऐसा श्रद्धावान् मनुष्य ज्ञान को प्राप्त होता है और ज्ञान को प्राप्त होकर वह तत्काल परम शान्ति (मोक्ष) को प्राप्त हो जाता है।
 हमारे शास्त्रों में मनुष्य जन्म को सार्थक करने के चार पुरुषार्थ - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष कहे गये हैं।  इनमें से  सर्वश्रेष्ठ पुरुषार्थ है मोक्ष ! -अर्थात ब्रह्म को जानकर, ब्रह्म बन जाना ! या भेंड़त्व के भ्रम से मुक्ति , या सिंहशावक होकर भी भेंड़ों की झुण्ड में पले -बढ़े होने के कारण स्वयं को आजीवन  भेंड़ (देह-मन-इन्द्रियों का पुतला ) समझकर आजीवन -आहार, निद्रा, भय, मैथुन में रमे रहने से मुक्ति।
आहार निद्रा भय मैथुनं च
सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।
धर्मो हि तेषामधिको विशेष:
धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ॥

आहार, निद्रा, भय और मैथुन – ये तो इन्सान और पशु में समान है । इन्सान में विशेष केवल धर्म है, अर्थात् बिना धर्म के लोग पशुतुल्य है । और मोक्ष प्राप्ति (भ्रममुक्त या डी-हिप्नोटाइज्ड होने)  का सबसे सुगम उपाय है- धर्म !
     👉धर्म का तात्पर्य  है: जिसका पालन करने से अभ्युदय और निःश्रेयस दोनों प्राप्त होते हों ! अपने अपने जन्म से प्राप्त कर्तव्य-दायित्व का भली भांति निर्वाह । अर्थात  समस्त कर्तव्य-कर्मों का मेहनत, ईमानदारी, भरोसे के साथ , धर्म समझ कर पालन करना । मनुष्य को चाहिये कि वह अपने कर्तव्य से भागे नहीं-विमुख न हो, उसका पूरी निष्ठा से पालन करे। गृहस्थ धर्म (प्रवृत्ति धर्म) का पालन संन्यास (निवृत्ति धर्म) से भी उत्तम है पिता की भक्ति से इहलोक, माता की भक्ति से मध्य लोक (position of gods) और गुरु की भक्ति से इंद्र लोक (rulers of cycles ) प्राप्त होते हैं। जो इन तीनों की सेवा करता है, उसके सभी धर्म सफल हो जाते हैं; और जो इनका निरादर करता है उसकी  सभी क्रियाएं निष्फल होती हैं। जब तक ये जीवित हैं, तब तक इनकी नित्य सेवा-शुश्रूषा और इनका हित करना चाहिये। इन तीनों की सेवा-शुश्रूषा रूपी धर्म में पुरुष का सम्पूर्ण कर्तव्य पूरा हो जाता है, यही साक्षात धर्म  है।
     हमारी प्राचीन भारतीय संस्कृति ने हमें सदैव बताया है, "माता, पिता, गुरु, दैवम"।  इस उक्ति का वास्तव में क्या अर्थ है ? जब तुम्हारा  जन्म होता है तब तुम्हारे  जीवन में सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति कौन होता है? ईश्वर तो बिलकुल ही नहीं! न ही गुरु, और न ही पिता !! ये प्रथम गुरु माँ ही होती है। जो बच्चे को उसके पिता पर श्रद्धा रखने की शिक्षा देती है। इसीलिये - 'गुरु शास्त्र वाक्येषु आस्तिक्य बुद्धि: श्रद्धा उच्यते। ' अर्थात  गुरुवाक्य एवं शास्त्रवाक्य में अविचल विश्वास को आस्तिक बुद्धि या श्रद्धा कहा जाता है।  बंगला में एक कहावत पूज्य नवनीदा अक्सर कहते थे जो अभी पूरी तरह याद नहीं है, पर सार इस प्रकार था - "माता -पिता -गुरु ये तीन जिनि, माथार मणि। अतिथियो जिनि नारायण-नारायणी।। "
      वेदान्त के प्रवेशिका ग्रन्थ “वेदान्तसार” में विश्वास को श्रद्धा कहा है- ” गुरूपदिष्ट-वेदान्त-वाक्येषु विश्वास:एव श्रद्धा ”अर्थात् गुरुओं के द्वारा बताए गये वैदिक वचनों -महावाक्यों में विश्वास रखना ही श्रद्धा है। सन्त  तुलसीदास  ने माँ को श्रद्धा और पिता को विश्वास कह डाला है। “भवानी-शङ्करौ वन्दे श्रद्धा-विश्वास-रूपिणौ” भगवती माँ है और भगवान् शिव पिता।एक स्थान पर दोनों एकाकार हैं। शिवाशिवयोरभेद: ।अर्थात् जो शिव हैं वही शिवा हैं और जो शिवा हैं वही शिव हैं। विश्वास ही श्रद्धा है।इस प्रकार मंथन से एक बात निकलती है कि श्रद्धा-विश्वास एक सिक्के के दो पहलू हैं। 
      जब बच्चा चलना शुरू करता है तो पिता महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि पिता को बाहरी दुनिया की परिस्थितियों के बारे में जानकारी है, वहाँ उसकी पहुँच है। अगर बच्चे को दुनिया के बारे में, जीवन के कौशलों के बारे में तथा समाज में कैसे रहना है, इसके बारे में जानना हो तो पिता की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है । जब ये सब हो जाता है तो एक उच्चतर संभावना को प्राप्त करने के लिये, योगाभ्यास के द्वारा तर्क और श्रद्धा में समन्वय रखना सीखने के लिये " विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर, 'Be and Make'  अद्वैत शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा " में प्रशिक्षित किसी नवनीदा जैसे {C. IN . C } जीवनमुक्त शिक्षक, नेता के निर्देशों का अनुसरण करना आवश्यक हो जाता है। उसी प्रकार अभ्युदय और निःश्रेयस में भी समन्वय की आवश्यकता है। गुरु, नेता या नीवनमुक्त शिक्षक और वेदान्त वाक्यों में जो निश्चयात्मिका सत्यस्वरूपिणी बुद्धि है, वही श्रद्धा  है। अगर तुम्हें  एक उच्चतर संभावना (परम् सत्य या ब्रह्म)  के बारे में जिज्ञासा है, उसे पाने की ललक है और तुम  उसे पाने में सफल हो जाते हैं तो दिव्यता या ब्रह्मत्व तुम्हारे लिये एक स्वाभाविक वास्तविकता हो जाती है।
            
👉 योगाभ्यास में श्रद्धा का महत्व : योगाभ्यास के क्षेत्र में श्रद्धा का स्थान कितना महत्वपूर्ण है, यह  योग सू. (1/20) पर व्यासभाष्य के ‘श्रद्धा जननी की तरह योगी की रक्षा करती है’ वाक्य से जाना जाता है। योग सूत्र (1/20) में कहा गया है - श्रद्धा-वीर्य-स्मृति-समाधि-प्रज्ञा-पूर्वक इतरेषाम् ॥२०॥ अर्थात् प्रथम श्रद्धा अर्थात चार महावाक्यों में विश्वास , श्रद्धा से वीर्य (energy) अर्थात मन का तेज , वीर्य से स्मृति (memory), स्मृति से समाधि अर्थात एकाग्रता (concentration) , समाधि से प्रज्ञा अर्थात 'discrimination of the real ' नित्य-अनित्य वस्तु विवेक और प्रज्ञा से परवैराग्य तथा परवैराग्य से असम्प्रज्ञात समाधि होती है, इसी अभिप्राय से सूत्र में श्रद्धादि उपायों का क्रम दिखलाया गया है।
      प्रज्ञा अर्थात प्रकृति- पुरूष का विवेक - या 'माता और पिता में अभेद दृष्टि' मोक्ष का कारण है, उस विवेक का साधन योग  मुझको प्राप्त हो, उस प्रकार की इच्छा से लोक तथा परलोक के विषयों में तृष्णा रहित पुरूष की योग में होनेवाली रूचि को “श्रद्धा” कहते हैं। जो लोग देवतापद या किसी कल्प के शासनकर्ता होने की कामना (नाम-यश) का भी त्याग करने में समर्थ हैं, उन्हीं की बात की जा रही है ! वैसे पुरुष तीनो प्रकार की ऐषणाओं का त्याग करने में समर्थ हैं - वे मुक्ति (भ्रममुक्त अवस्था) प्राप्त करते हैं।
    श्रद्धा संस्कृत का शब्द है इसका अंग्रेजी में अनुवाद नहीं हो सकता। Dictionary (अंग्रेजी शब्दकोश) में श्रद्धा के लिये कुछ अंग्रेजी  शब्द हैं - asphyxia (एस्फिक्सिया - श्वासावरोध, प्राणस्थगन), strong or vehement desire - किसी काम या बात (वासना) की प्रबल इच्छा। acuity vision या श्येन दृष्टि [Courtesy -MHRDभारतवाणी | https://bharatavani.in/dictionary-surf/] किन्तु इसका वास्तविक अर्थ है - 'आस्तिक्य-बुद्धि। ' अर्थात (स्वानुभूति  न होने पर भी) संस्कारवश या शास्त्रों में पढ़कर अथवा संत-महात्माओं से सुनकर सत्य, आत्मा, या ब्रह्म (माँ काली) के प्रति पूज्य भाव रखने की भावना ही श्रद्धा है । ईश्वर (परम् सत्य या ब्रह्म और माँ काली में अभेद दृष्टि ) वेद (चार महावाक्य) और परलोक (या पुनर्जन्म) पर विश्वास ।            
     इसी श्येन-दृष्टि वाली श्रद्धा को जीवन में धारण करने पर जोर देते श्रीरामकृष्ण ने ईश्वरचन्द्र विद्यासागर से कहा था -  " बाहर भाषण आदि देने से क्या होगा ? जो लोग केवल किताबी ज्ञान वाले पण्डित होते हैं, वे केवल रटी -रटाई  बातें कंठस्थ सुनाने वाले हैं।  किन्तु उनकी आसक्ति और लत कामिनी-कांचन में होती है - गिद्ध बहुत ऊँचे पर उड़ता है , परन्तु उसकी दृष्टि रहती है सड़े हुए मुर्दों की ओर। उसी प्रकार उनकी आसक्ति अविद्या के संसार में होती है। दया, भक्ति , वैराग्य -ये सब विद्या के ऐश्वर्य हैं ! आतशबाजी 'फूंस '  करके पहले आकाश में उड़ जाती है,  परन्तु दूसरे ही क्षण जमीन पर गिर पड़ती है।
[ " শকুনি খুব উঁচুতে ওঠে | কিন্তু নজর ভাগাড়ে | যারা শুধু পণ্ডিত‚ শুনতেই পন্ডিত | কিন্তু তাদের কামিনীকাঞ্চনে আসক্তি — শকুনের মতো পচামড়া খুঁজছে | আসক্তি অবিদ্যার সংসারে | দয়া‚ ভক্তি‚ বৈরাগ্য বিদ্যার ঐশ্বর্য | "
  August 5, 1882:??? Vultures soar very high in the sky, but their eyes are fixed on rotten carrion on the ground. The book-learned are reputed to be wise, but they are attached to 'woman and gold'. Like the vultures, they are in search of carrion. They are attached to the world of ignorance. Compassion, love of God, and renunciation are the glories of true knowledge." নাস্তিক ঈশ্বরচন্দ্র বিদ্যাসাগরের সঙ্গে সাক্ষাৎ হয়েছিল ঠাকুর শ্রী শ্রী রামকৃষ্ণ পরমহংসদেবের | কেমন ছিল দুই কিংবদন্তির সাক্ষাৎ ? (১৬ আগস্ট‚ ১৮৮২ |শনিবার | তিথি‚ শ্রাবণমাসের কৃষ্ণাষষ্ঠী |সময়‚ বিকেল চারটে | স্থান‚ কলকাতার বাদুড়বাগান |ঠাকুরের প্রয়াণদিবসে দুই মহাপুরুষের সেই সাক্ষাৎ নিয়ে বিশেষ রচনা |]    Sil’s next attempt to construct Śrī Rāmakṛṣṇa is in this line – that Śrī Rāmakṛṣṇa is opposed to Social Work!   Let us check Sil’s citation from Śrī Rāmakṛṣṇa Kathāmṛta.“The Gospel of Śrī Rāmakṛṣṇa” (Diary of July 21, 1883) -    Śrī Rāmakṛṣṇa has the highest respect for Vidyāsāgar because he has both compassion and learning: (KA, 3.1.4; Diary of 5 August 1882)” ]   
          इस विषय पर अंग्रेजी साहित्य के एसोसिएट प्रोफेसर, कॉलेज के एक शिक्षक और जीवन विश्वविद्यालय के एक छात्र- श्री इंद्रजीत बंद्योपाध्याय अपने विचारोत्तेजक शोधपत्र - ' Narasingha P. Sil, "Vulture-Lila," and Shri Ramakrishna' में श्रीरामकृष्ण वचनामृत के [ 19 सितंबर, 1884 और 19 अक्टूबर, 1884 ]  के प्रसंगों का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि-   " Prof. Narasingha P. Sil begins the very first line with a wrong premise (गलत आधार वाक्य) that Kāminī Kāñcana is an “external devil” to Śrī Rāmakṛṣṇa."  प्रो नरसिंह पी सिल अपनी पहली पंक्ति की शुरुआत ही एक गलत आधार वाक्य के साथ करते हैं कि - 'श्रीरामकृष्ण 'कामिनी-कांचन ' को किसी 'बाह्य-शैतान' “external devil” के रूप में देखा करते थे।'
             सच्चाई यह है कि श्रीरामकृष्ण अपने पुरुष शिष्यों से जब  'कामिनी ' शब्द का उल्लेख करते थे -तो यह जितना बाह्य या वास्तविक नारी  के भौतिक-नामरूप के प्रति था, उतना ही 'कामिनी'  शब्द से जिस
' नारी'  की छवि मन में उभरती है "Woman in the Mind" अथवा "Kāma in the Brain" मस्तिष्क के दर्शन स्नायु-केन्द्रों (optic nerve या दृक् तंत्रिका) में संचित काम (भोगेच्छा) की प्रवृत्ति उभरती है, उसके  त्याग के लिये भी था। अधिकाधिक रूप से  वे अपने गृहस्थ शिष्यों और भक्तों को बाहर से सहवास सहित सामान्य सुखी दाम्पत्य जीवन का निर्वाह करते हुए, भीतर से 'कामिनी-कांचन' के प्रति आसक्ति (Attachment ) और व्यसन-लिप्तता (Addiction) का त्याग करने की शिक्षा देते थे। [ more so in case of householder disciples and devotees, because he teaches them to give up Attachment and Addiction for Kāma Kāñcana internally while maintaining normal conjugal life including Sex ‘externally'.]
   श्री रामकृष्ण वचामृत : परिशिष्ट A:
                आज 1 जनवरी, 1882 ई,रविवार, शाम के 5 बजे का समय है श्रीरामकृष्ण भक्तों साथ "सिमुलिया  ब्राह्म समाज के वार्षिक महोत्सव " में पधारे हैं। ज्ञान चौधरी के मकान में महोत्सव हो रहा है । ... नरेन्द्र ने , केवल थोड़े ही दिन हुए , राम आदि के साथ जाकर दक्षिणेश्वर में श्रीरामकृष्ण का दर्शन किया है।  आज भी इस उत्सव में वे सम्मिलित हुए हैं।  ... चारों ओर गृहस्थ (प्रवृत्ति मार्गी) भक्तों को बैठे देखकर : 
              श्रीरामकृष्ण हँसते हुए कह रहे हैं - " गृहस्थी में धर्म होगा क्यों नहीं ? पर बात क्या है जानते हो ? मन अपने पास नहीं है। अपने पास मन हो तब तो ईश्वर को देगा ! मन को तो 'कामिनी और कांचन '  [lust and lucre] के पास गिरवी रख दिया है। इसीलिये तो सदा साधु-संग आवश्यक है। 
            " मन जब अपने पास लौट आयेगा , तभी साधन-भजन होगा।  सदा ही गुरु का संग, गुरु की सेवा , साधु-संग आवश्यक है। या तो निर्जन में [कैम्प में ]  दिन-रात उनका चिन्तन किया जाय और नहीं तो साधुसंग। मन अकेला रहने से धीरे धीरे सूख जाता है। जैसे एक बर्तन में यदि अलग जल रखो तो धीरे धीरे सूख जायेगा , परन्तु गंगा के भीतर यदि उस बर्तन को डुबोकर रखो तो नहीं सूखेगा ! "
                [ किसी व्यक्ति के लिये गृहस्थी में रहते हुए भी एथेन्स का सत्यार्थी बने रहना - अर्थात परम् सत्य, ब्रह्म या माँ काली का खोजी बने रहना, क्यों सम्भव नहीं होना चाहिये ? गृहस्थ के लिए अपना मन भगवान को देना क्यों  संभव नहीं होना चाहिए?]  " प्रत्याहार और धारणा के अभ्यास से खींच कर सामने लाया हुआ 'मन ' यदि अकेला रहेगा, तो धीरे धीरे सूख जायेगा। जैसे एक बर्तन में यदि यदि अलग जल रखो तो धीरे धीरे सूख जायेगा। परन्तु उस बर्तन को गंगाजी में डुबोकर रखो , तो नहीं सूखेगा। लोहे की गेंद को आग में रखने से अच्छा लाल जाता है। अलग रख दो तो फिर काले का काला।  इसलिए लोहे को बीच-बीच में आग में डालते रहना चाहिये ! [पाठचक्र -एनुअल कैम्प] में भाग लेते रहना चाहिये। 
           [Why shouldn't it be possible for a householder to give his mind to God? But the truth is that he no longer has his mind with him. If he had it, then he could certainly offer it to God. But, alas, the mind has been mortgaged — mortgaged to 'woman and gold'. So it is necessary for him constantly to live in the company of holy men. When he gets back his own mind, then he can devote it to spiritual practice; but first it is necessary to live constantly with the guru, wait on him, and enjoy the company of spiritual people. Either he should think of God in solitude day and night, or he should live with holy men. The mind left to itself gradually dries up. Take a jar of water, for instance. If the jar is set aside, the water dries up little by little. But that will not happen if the jar is kept immersed in the Ganges. ]
                 " मैं करने वाला हूँ, मैं कर रहा हूँ तभी गृहस्थी चल रही है,  मेरा घर , मेरा परिवार ' -यह सब अज्ञान है। पर 'मैं प्रभु का दास , उनका भक्त , उनकी सन्तान हूँ ' - यह बहुत अच्छा भाव है। 'मैं' -पन एकदम नहीं जाता।  .... उनके दर्शन  के बाद वे जिस 'मैं ' रख  देते हैं , उसे कहते हैं - 'पक्का मैं' --जिस प्रकार तलवार पारसमणि को छूकर सोना बन गयी है। उसके द्वारा अब और हिंसा का काम नहीं होता।
            ज्ञानबाबू के दुमंजले के कमरे में श्री रामकृष्ण तथा केशव आदि के जलपान की व्यवस्था हो रही है।  वे जलपान करके फिर नीचे उतरे। ...  उन्होंने कुछ मिनट आराम किया और फिर केशब से बोले : "तुमने अपने लड़के के विवाह की सौगात मुझे क्यों भेजी थी ? वापस मँगवा लेना।  उन चीजों को लेकर मैं क्या करूंगा?" केशव मुस्कुरा रहे हैं।
            श्री रामकृष्ण फिर कह रहे हैं , " मेरा नाम समाचार-पत्रों में क्यों निकालते हो ? पुस्तकों या संवाद-पत्रों में लिख कर [फेसबुक या वॉट्सऐप में ग्रुप बनाकर] किसी को बड़ा नहीं बनाया जा सकता। भगवान जिसे बड़ा (मानवजाति का मार्गदर्शक नेता/जीवनमुक्त शिक्षक) बनाते हैं , जंगल में भी रहने पर उसे सभी लोग जान सकते हैं। घने जंगल में फूल खिला है, मधुमक्खियाँ और भौंरा इसका पता लगा ही लेता है;  पर दूसरी मक्खियाँ पता नहीं पातीं। जो स्वयं अभी तक 'कामिनी -कांचन ' या नाम-यश में ही फँसे हों, वैसे मनुष्य क्या कर सकते हैं ? उनके मुँह की ओर न ताको। वे कीड़े जैसे मनुष्य जिस मुँह से आज अच्छा कह रहे हैं,  उसी मुँह से कल बुरा कहेंगे। मैं प्रसिद्धि नहीं चाहता। मैं तो ईश्वर से यही प्रार्थना करता हूँ, कि वे सदैव मुझे बिल्कुल अभिमान-रहित ,विनम्र लोगों में भी अत्यन्त साधारण सेवक बनाये रखें। "    
[" You cannot make a man great by writing about him in books and magazines. If God makes a man great, then everybody knows about him even though he lives in a forest. "]
      श्रीरामकृष्ण अपने गृही भक्त श्री मनोमोहन के घर पर : आज शनिवार है , 3 दिसंबर, 1881 : श्री मनमोहन का घर , 23 no.  सिमुलिया स्ट्रीट में है। दिन के लगभग चार बजे मनोमोहन के घर पधारे हैं,  भवानीपुर के ईशान मुखर्जी के साथ श्रीरामकृष्ण बातचीत कर रहे हैं -
                ईशान - आपने गृहस्थाश्रम का त्याग क्यों किया ? शास्त्रों में तो गृहस्थाश्रम को श्रेष्ठ कहा गया है।
                  श्रीरामकृष्ण - मैं भला -बुरा के बारे में ज्यादा कुछ नहीं जानता। वे (माँ) जो कुछ कराती हैं , वही करता हूँ , जो कहलाते हैं , वही कहता हूँ। 
      ईशान : सभी लोग यदि गृहस्थी को छोड़ दें , तो क्या वह ईश्वर की इच्छा का अनादर करना नहीं होगा ?
         श्रीरामकृष्ण -" सभी लोग क्यों छोड़ेंगे ? और क्या उनकी यही इच्छा है कि सभी लोग पशुओं की तरह आजीवन कामिनी -कांचन में ही मुंह डुबोकर रहें ? क्या और कुछ भी उनकी इच्छा नहीं है ? क्या तुम सब जानते हो कि उनकी क्या इच्छा है और क्या नहीं ?  ... माया जानने नहीं देती कि उनकी इच्छा क्या है ? वे मनुष्य में क्या गुण देखने से खुश होते हैं ? उनकी माया में अनित्य  नित्य जैसा लगता है , और फिर नित्य अनित्य -सा जान पड़ता है। [Unreal appears as Real, and the Real as Unreal.अर्थात 'सत्य-असत्य -मिथ्या विवेक -प्रयोग' नहीं करने से जो परिवर्तनशील होने के कारण नश्वर है, वही अपरिवर्तनशील या अविनाशी प्रतीत होता है, और जो अवतार -नेता राम, कृष्ण , बुद्ध , ईसा , मोहम्मद ..... नवनीदा आदि अविनाशी हैं, उनका शरीर जाने से हम उनको नश्वर मान बैठते हैं ?]
        " संसार अनित्य (मिथ्या-Unreal) है - अभी है , अभी नहीं , परन्तु उनकी माया से ऐसा लगता है, जैसे यही सत्य (टिकाऊ-Real) है ! उनकी माया से 'मैं करता हूँ ' ऐसा बोध होता है। और ये सब स्त्री -पुत्र, भाई-बहन , माँ -बाप, घर-बार मेरे ही हैं - ऐसा प्रतीत होता रहता है। 
           " माया में विद्या और अविद्या दोनों हैं।  अविद्या  माया भुला देती है, (संसार भोग Bh में सम्मोहित करके भेंड़ बना देती हैं) और विद्या माया - स्वरुप का ज्ञान , भक्ति , साधुसंग -(नवनीदा जैसे जीवनमुक्त नेता/शिक्षक से विवेक-प्रयोग और मनःसंयोग आदि 5 अभ्यास का प्रशिक्षण) हमें ईश्वर (अद्वैत -माँ, ठाकुर, स्वामीजी) की ओर ले जाती है।
          " उनकी कृपा से जो व्यक्ति (नवनीदा) माया से परे (देश-काल -निमित्त से परे ) चले गये हैं, उनके लिये सभी पुरुष राम जैसे और विद्या -अविद्या सभी स्त्रियाँ मातृ स्वरूपा सीता जैसी हैं। 
          " गृहस्थ-आश्रम (25 से 50 वर्ष तक) भोग का आश्रम है। और फिर आजीवन कामिनी-कांचन के भोग में लगे रहना कौन सी मर्दानगी या पौरुष है ? मिठाई गले के नीचे उतर जाते ही याद नहीं रहती कि खट्टी थी या मीठी ?
           " परन्तु सब लोग क्यों त्याग करेंगे ? समय हुए बिना क्या त्याग करना सम्भव है ? भोग का अन्त हो जाने पर तब त्याग का समय होता है। जबरदस्ती क्या कोई त्याग कर सकता है ?   {" But why should everybody renounce? Is renunciation possible except in the fullness of time? The time for renunciation comes when one reaches the limit of enjoyment. Can anybody force himself into renunciation? सबुकछ भोग कर उसकी निस्सारता का अनुभव जाने के बाद ? }
           “एक प्रकार का वैराग्य है, जिसे कहते है मर्कट-वैराग्य। हीन-बुद्धवालों को वह वैराग्य होता है। जैसे विधवा का लड़का, - माँ सूत कातकर गुजर करती है - लड़के की मामूली नौकरी थी, वह भी अब नहीं रही। तब वैराग्य हुआ - गेरुआ वस्त्र पहना, काशी चला गया। फिर कुछ दिनों  के बाद पत्र लिख रहा है ~ "माताजी को मालूम हो कि ' मुझे एक नौकरी मिली है। 5000 रूपये माहवारी वेतन है। ' उसी में एक स्कूटर,  सोने की अंगूठी और जींस का पैंट -शर्ट खरीदने की चेष्टा कर रहा है ! भोग की इच्छा जायेगी कहाँ ? { मर्कट- वैराग्य मिथ्या वैराग्य का सूचक हैै।   बंदर वस्त्र ग्रहण न कर के जंगल में नंगे रहकर वैराग्य का दिखावा करते हैं। इस तरह वह अपने आप को दिगम्बर साधु जैसा बैरागी मानते हैं किंतु वास्तव में वे दर्जनों बंदरियों के साथ विषय भोग करने में लगे रहते हैं। ऐसा वैराग्य मर्कट- वैराग्य कहलाता है। जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं को स्वीकार करना चाहिए, किंतु व्यर्थ ही आवश्यक्ताओं को नहीं बढ़ाना चाहिए न ही उनमें व्यर्थ की कटौती करनी चाहिए।  जब तक मनुष्य स्वतः भौतिक कर्म से उदासीन नहीं हो जाता और इसे आध्यात्मिक उन्नति में बाधक नहीं मानने लगता तब तक वह वास्तव में वैराग्य प्राप्त नहीं कर सकता।
       श्रीरामकृष्ण - (केशव आदि के प्रति ) जो लोग गृहस्थी में रहकर उन्हें पुकार सकते  हैं,वे वीर भक्त हैं। सिर पर बीस मन का बोझा है , फिर भी ईश्वर को पाने की चेष्टा (उस सत्य को खोजने की चेष्टा जिसे देखकर देवकुलीश अँधा हो गया था ?) कर रहा है -इसी का नाम है वीर भक्त।
      " तुम कहोगे , यह बड़ा कठिन है। पर क्या कोई ऐसी कठिन समस्या हो सकती है , जो भगवान की कृपा से क्षण भर में दूर नहीं हो सकती हो ? उनकी कृपा से असम्भव भी सम्भव हो जाता है। हजार वर्षों से बन्द अँधेरे कमरे यदि प्रकाश लाया जाय तो क्या अँधेरा जाने में भी हजार वर्ष लगेगा ? या दिया जलते ही कमरा एकदम आलोकित हो जायेगा ?
             10 दिसंबर 1881 :  आज शनिवार है, राजेन्द्र मित्र के घर ठनठनिया में बेचू चटर्जी गली में उत्सव होगा। ... केशव राजेन्द्र आदि भक्तों के साथ वार्तालाप कर रहे हैं।  कमरे में श्रीरामकृष्ण का समाधि में लीन -चित्र टँगा हुआ है।
       राजेन्द्र - (केशव के प्रति) - श्रीरामकृष्णदेव को अनेक लोग चैतन्य का अवतार कहते हैं। केशव - (समाधि -चित्र को देखकर) इस प्रकार की समाधि प्रायः नहीं देखी जाती।  ईसा मसीह , मुहम्मद और चैतन्य इनको हुआ करती थी।  दिन के तीन बजे के समय श्रीरामकृष्ण मनोमोहन के घर पर पधारे।  फिर सुरेन्द्र उन्हें गाड़ी पर चढ़ाकर ' Bengal Photographer' के स्टूडियो में ले गये।  ... श्रीरामकृष्ण का फोटो लिया जा रहा है, काँच के पीछे 'silver nitrate' लगाकर , उस पर फोटो उतारा जायेगा। उसी समय वे समाधि -मग्न हो गये।
        अब श्रीरामकृष्ण राजेन्द्र मित्र के मकान पर आये हैं।  राजेन्द्र रिटायर्ड डिप्टी मैजिस्ट्रेट हैं। श्री महेन्द्र गोस्वामी आंगन में भागवत का प्रवचन कर रहे हैं। अनेक भक्तगण उपस्थित हैं - केशव अभी तक नहीं आये हैं।
         श्रीरामकृष्ण -(भक्तों के प्रति ) गृहस्थी में धर्म (ब्रह्मज्ञान) होगा क्यों नहीं ? परन्तु है बड़ा कठिन। ... गृहस्थों के अनेक बन्धन हैं , ईश्वर की कृपा के बिना उन बंधनों के कटने का उपाय नहीं है। उनका दर्शन होने पर फिर कोई भय नहीं है। उनकी माया में विद्या और अविद्या दोनों ही हैं, पर दर्शन के बाद मनुष्य निर्लिप्त हो जाता है। परमहंस -स्थिति ? प्राप्त होने पर यह बात ठीक तरह से समझ में आती है। दूध में जल है , हंस दूध लेकर जल छोड़ देता है। पर केवल हंस ही ऐसा कर सकता है , बत्तख नहीं। "
    एक भक्त - फिर गृहस्थ के लिये क्या उपाय है ?
    श्रीरामकृष्ण - गुरु-वाक्य में विश्वास  उनकी वाणी का सहारा लेकर , उनके वाक्यरूपी खम्भा (नाममंत्र) पकड़कर घुमो ,  साथ साथ गृहस्थी का कर्तव्य (प्रवृत्ति धर्म ) का पालन भी करते रहो।(4 महावाक्य में श्रद्धा ? प्रत्याहार -धारणा के लिये निर्देशित आदर्श His instructions for Concentration ) गृहस्थी  का कर्तव्य बड़ा कठिन है।  खाली गोल-गोल घूमने से (चकवा-चकैया खेलने से ) सिर में चक्कर आकर मनुष्य बेहोश हो जाता है , परन्तु खम्भा पकड़कर गोल-गोल चक्कर काटने से फिर गिरने का भय नहीं रहता। कर्तव्य कर्मों का पालन (प्रवृत्ति धर्म ) अवश्य करो , परन्तु ईश्वर (माँ काली के अवतारवरिष्ठ ) को न भूलो। 
           " यदि कहो ,' यह तो बड़ा कठिन है। फिर उपाय क्या है ? --तो उपाय है 'अभ्यासयोग' -(-constant practice of concentration) ।  उस देश (कामारपुकुर ) भड़भूजों की औरतों को देखा ; वे एक ओर तो चिउड़ा कूट रही है, हाथ पर मूसल गिरने का भय है ,फिर दूसरी ओर बच्चे को दूध पीला रही है; और फिर खरीददार के साथ तगादा भी कर रही हैं , 'देखो , तुम्हारे ऊपर इतने पैसे बाकी हैं,  सो दे जाना।
    "व्यभिचारिणी औरत (आशिक़)  गृहस्थी के सभी कामों को करती है, परन्तु मन सदा उप-पति (sweetheart- माशूक़ ) की ओर रहता है। " [ आशिक़ है तो माशूक़ को हर रूप में पहचान !]
    " परन्तु मन की ऐसी अवस्था होने के लिये थोड़ी साधना चाहिये , बीच -बीच में निर्जन में [ एनुअल कैम्प में] जाकर भगवान को पुकारना चाहिये।  भक्ति प्राप्त करके [एथेन्स का सत्यार्थी बनकर के] फिर कर्म किया जा सकता है। ऐसे ही यदि कटहल काटने जाओ तो हाथ में चिपक जायेगा , पर हाथ में तेल लगाकर कटहल काटने से फिर नहीं चिपकेगा। "
     " गुरु (प्रशिक्षित नेता विवेकानन्द -नवनीदा ) को मनुष्य नहीं मानना चाहिये।  सच्चिदानन्द (existence-consciousness-bliss) ही गुरु/नेता / जीवनमुक्त शिक्षक के रूप में आते हैं।  गुरु की कृपा से इष्ट का दर्शन होता है। उस समय गुरु इष्ट में लीन हो जाते हैं। 
         " माँ पर सरल विश्वास - से क्या नहीं हो सकता ? एक समय किसी गुरु? के यहाँ अन्नप्राशन हो रहा था। (सर्वत्यागी संन्यासी नहीं बालबच्चेदार गृही होकर भी दीक्षा देने वाले गुरु के नाती का मुंहजुट्ठी - the first offering of boiled rice to a baby. हो रहा था )। इस अवसर पर शिष्यगण जिससे जैसा बना , उत्सव का आयोजन कर रहे थे। उनमे एक दीन विधवा भी शिष्या थी। उसके एक गाय थी।  वह  एक लोटा दूध लेकर आयी।  गुरूजी ने सोचा था कि दूध-दही का भार वही लेगी ;  किन्तु सिर्फ एक लोटा दूध देखे !  क्रोधित होकर उन्होंने लोटा फेंक दिया और कहा , ' तू जल में डूबकर मर क्यों नहीं गयी ?'  स्त्री ने गुरु का यही आदेश समझा और नदी में डूबने के लिये गयी।  उस समय नारायण ने दर्शन दिया और प्रसन्न होकर कहा , ' इस बर्तन में दही है, जितना निकलोगी उतना ही निकलता जायेगा। इससे गुरु सन्तुष्ट  जायेंगे।  ' वह बर्तन जब गुरु को दिया गया तो वे दंग रह गये। और सारी कहानी सुनकर नदी के किनारे आकर उस स्त्री से बोले - 'यदि मुझे नारायण का दर्शन न कराओगी तो मैं इस जल में कूदकर प्राण छोड़ दूँगा। ' नारायण प्रकट हुए , परन्तु गुरु उन्हें न देख सके।  तब स्त्री ने कहा , 'प्रभो,  गुरुदेव को यदि दर्शन न दोगे मैं भी शरीर छोड़ दूँगी। फिर नारायण ने एकबार गुरु को भी दर्शन दिया।
         " देखो , गुरु-भक्ति रहने से अपने को भी दर्शन हुआ , फिर गुरुदेव को भी दर्शन हुआ ।
"  इसीलिए कहता हूँ ' यदि मेरा गुरु कलेवार घर जाये (बीयर-बार ) में भी जाये , तो भी मेरे गुरु 'नित्यानन्द राय'  हैं। 
" सभी गुरु (चपरास प्राप्त नेता ) बनना चाहते हैं , पर शिष्य बनना कोई शायद ही चाहता है। परन्तु देखो , ऊँची में वर्षा का जल नहीं जमता , वह तो नीची जमीन में -गढे में ही जमता है। 
" गुरु जो नाम दें,  विश्वास करके उस नाम को लेकर साधन-भजन करना चाहिये।    
       " जिस सीप में मुक्ता तैयार होता है , वह सीप स्वाति नक्षत्र का जल लेने के लिये तैयार रहती है। उसमें वह जल गिर जाने पर फिर एकदम अथाह जल में डूब जाती है , और वहीँ चुपचाप पड़ी रहती है।  तभी मोती बनता है। "

कैम्प से जाने के बाद घर में किस प्रकार रहना चाहिये : 
       अनेक ब्राह्म भक्त आये हैं।  यह देखकर [C-in- C ] श्री रामकृष्ण कह रहे हैं - “क्या ब्राह्म मत से जुड़े लोगों की यह  बैठक सचमुच एक भक्ति सभा है या केवल एक दिखावा (show-3 घंटे का तमाशा)  है? ब्राह्मसभा में नियमित उपासना होती है,  यह बहुत अच्छा है , परन्तु डुबकी लगानी पड़ती है। ईश्वर (The Holy Trio ) से प्रार्थना करनी पड़ती है, जिससे भोग आसक्ति (attachment to worldly enjoyment) दूर होकर उनके चरण-कमलों में शुद्धा भक्ति हो !  
    " भोगासक्ति का त्याग हो जाने पर देह-त्याग होते समय ईश्वर की ही स्मृति आयेगी।  और नहीं तो इस संसार की ही चीजों की याद आएगी - स्त्री, पुत्र , गृह, धन , मान , इज्जत आदि।  तोता अभ्यास करके राम-राम रटना सीख जाता है , परन्तु जब बिल्ली पकड़ती है तो ' टें-टें ' करने लगता है। इसीलिये सदा 5 अभ्यास करना चाहिये - उनके नाम-गुणों का कीर्तन , उनका ध्यान -खुली आँखों से विवेक-प्रयोग ? , चिन्तन, प्रार्थना और व्यायाम -- जिससे भोगासक्ति (प्रवृत्ति ) छूट जाय और उनके चरणकमलों में (निवृत्ति में ) मन लगा रहे।
       " इस प्रकार के भक्त -गृहस्थ संसार में नौकरानी की तरह रहते हैं।  वे सब कामकाज तो करते हैं , परन्तु मन देश में पड़ा रहता है। अर्थात मन को ईश्वर (माँ जगदम्बा ) पर रखकर वे सब काम करते हैं। गृहस्थी करने से ही देह में कीचड़ लगती है।  यथार्थ भक्त-गृहस्थ 'पंकाल ' मछली की तरह होते हैं , पंक में रहकर भी देह में कीच नहीं लगता। 
         " ब्रह्म और शक्ति अभिन्न (identical) हैं। उन्हें (अपने नेता या दादा को) माँ कहकर पुकारने से शीघ्र ही भक्ति होती है, प्रेम होता है।  " 
            [ प्रतिवर्ष  कैम्प में 6 दिनों तक एकाग्रता और लीडरशिप, चरित्र-निर्माण , जीवनगठन,  व्यायाम , परेड ,प्रार्थना आदि विषयों पर जो कक्षायें ली जाती  हैं, वह सब बहुत अच्छा है,  किन्तु यहाँ से घर जाने के बाद दैनन्दिन 5 अभ्यास भी जारी रहनी चाहिये।] mere ceremonial worship or lectures are of no avail.  मात्र औपचारिक पूजा या व्याख्यान आदि सुनने से कोई फायदा नहीं होता।
                मनःसंयोग का अभ्यास शुरू करने से पहले प्रतिदिन दो बार सुबह उठने के बाद और रात में सोने से पहले 'मनुष्य-निर्माण संकल्प सूत्र '  (ऑटोसजेशन फॉर्मूला-एमिल कौए द्वारा स्वामीजी से सीखी हुई - '3H-evolution' मनुष्य के तीन प्रमुख अवयवों- शरीर, मन और हृदय को क्रम- विकसित करने या आत्म-विकास 'self-improvement'  के लिए एक प्रणाली जो 1920 और 1930 के दशक में लोकप्रिय थी :  autosuggestion formula:-  a system for  self-improvement or developed by Emile Coue which was popular in the 1920s and 1930s ) ]
                        Outer Tusks and Inner Grinders :   " हाथी के दिखाने के दाँत और होते हैं तथा दिखाने के दाँत और।  बाहर के दाँत शोभा के लिये हैं , परन्तु भीतर की दाँतों से वह खाता है।   [C-in- C ]नवनीदा कहते थे--- नेता के श्वेत वस्त्र कहीं दिखावे के लिये तो नहीं हैं ? इस पर काला धब्बा दूर से ही दिखाई पड़ता है !] इसी प्रकार भीतर कामिनी -कांचन का भोग करने पर मन की ईश्वर -भक्ति की हानि होती है।    
           श्रीरामकृष्ण अपने पुरुष भक्तों को दो श्रेणी- गृहस्थ (प्रवृत्ति धर्म) और संन्यासी (निवृत्ति धर्म ) के आधार या अधिकारी के हिसाब से में बाँट कर , 'कामिनी -कांचन ' का त्याग करने का उपदेश देते थे। निवृत्ति मार्ग के अधिकारी भावी संन्यासी शिष्यों के लिये जहाँ भौतिक रूप से और मानसिक रूप से , बाह्यतः और अन्तरतः ‘External or the Real Woman' स्त्री का त्याग करना आवश्यक मानते थे। वहीं प्रवृत्ति मार्ग के अधिकारी, किन्तु भावी नेता/शिक्षक बनने वाले अपने पुरुष गृही भक्तों  को --जैसे राखाल महाराज (Svāmī Brahmānanda) को दाम्पत्य जीवन में सहवास सहित सामान्य कर्तव्यों  का निर्वहन (प्रवृत्ति धर्म पालन ) करते हुए बाह्यतः स्त्री में आसक्ति  का त्याग जितना आवश्यक है, उतना ही – मन में रहने वाले 'काम -कांचन' "Woman in the Mind" या मस्तिष्क में स्थित स्नायु केन्द्रों में संचित काम 'desires ' (Kāma in the Brain) के प्रति  आसक्ति और लत (Attachment and Addiction) को त्यागना आवश्यक मानते थे।
      👉 ' महासमाधि के पश्चात् श्रीरामकृष्ण भक्त के हृदय में निवास करते हैं !' [परिशिष्ट (ग) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ३/ ६४६ -६८७ :  जैसे पूज्य नवनीदा (15 अगस्त 1931 - 26 सितम्बर, 2016) अपना शरीर छोड़ने के बाद अपने समस्त त्यागी और गृहस्थ भक्तों के हृदय में निवास करते हैं !
                 अपने भक्तों को दुःख के असीम समुद्र में बहाकर जब श्रीरामकृष्ण , रविवार , 15 अगस्त 1886 को अपने स्वधाम को चले गये। तबतक विवाहित (प्रवृत्ति धर्म के आधार वाले शिष्य) और अविवाहित (निवृत्ति धर्म के आधार वाले शिष्य) भक्तगण, काशीपुर उद्यान-बाड़ी में (निर्जन में ) श्रीरामकृष्ण की सेवा करते समय आपस में जिस स्नेह-सूत्र में बँध गये थे , वह कभी छिन्न होने का न था। एकाएक कर्णधार को न देखकर आरोहियों को भय हो रहा रहा था। वे एक दूसरे का मुँह ताक रहे थे।  ... जब वे लोग एकान्त में रहते हैं,  उसी [नवनीदा की ] आनन्दमयी मूर्ति की याद आती है।  रास्ता चलते हुए भी उन्हीं की स्मृति बनी रहती है; अकेले रोते फिरते हैं। किशोर भक्तों (निवृत्ति के अधिकारी ) में से किसी ने अभी तक संन्यासी का बाहरी चिन्ह (गेरुआ वस्त्र आदि ) धारण नहीं किया है।  ... परन्तु उन्हें श्रीरामकृष्ण हृदय से त्यागी [कामिनी-कांचन त्यागी]  कर गये थे। उनकी महासमाधि के पश्चात् , इच्छा न होते हुए भी, सब के सब अपने -अपने घर चले गए थे।
     लाटू,  तारक (स्वामी शिवानन्द ) और बूढ़े गोपाल के लिये कोई स्थान न था जहाँ वे वापस जाते। उनसे गृही भक्त सुरेन्द्र ने कहा , 'भाइयो, तुम लोग अब कहाँ जाओगे ? '  आओ , एक मकान लिया जाय।  वहाँ तुमलोग 'श्रीरामकृष्ण की गद्दी ' लेकर रहोगे , तो हमलोग भी कभी-कभी हृदय की दाह मिटाने के लिये वहाँ आ जाया करेंगे , अन्यथा संसार में इस तरह दिन-रात कैसे रहा जायेगा ?   उनके लिये वराहनगर (कोन्नगर ?) में एक मकान किराये पर लिया गया था। जो बाद में वराहनगर मठ के नाम से परिचत हुआ।
       ... काली (स्वामी अभेदानन्द ) नरेन्द्र (स्वामी विवेकानन्द ) से मुकदमे की बातें पूछने लगे। नरेन्द्र की आयु ठीक 24 वर्ष है; उन्होंने   विरक्ति पूर्वक कहा -'इन  सब बातों से तुम्हें क्या काम ? नरेन्द्र मास्टर आदि से बात कर रहे हैं - " कामिनी -कांचन का त्याग जब तक न होगा,  तब तक कुछ न होगा। जितने आदमी हैं (विवाहित पुरुष ) हैं, सब स्त्रियों के वश में हैं। श्रीरामकृष्ण ने गृहस्थ -धर्म का पालन तो किया था , परन्तु वे 'कामिनी-कांचन ' से कैसे निर्लिप्त थे।  उन्होंने वृन्दावन [भुवन-भवन , खड़दह ] कैसे एकदम छोड़ दिया ! "
       राखाल - और द्वारका [ऑफिसियल पदवी ?] का भी उन्होंने कैसा त्याग किया !
    नरेन्द्र - मैं साधारण ब्रह्मसमाज का मेम्बर बना था , आप जानते हैं न ?
         मास्टर- हाँ, मैं जानता हूँ। 
           नरेन्द्र -  श्रीरामकृष्ण जानते थे कि वहाँ स्त्रियाँ भी जाया करती हैं।  स्त्रियों को सामने रखकर ध्यान हो नहीं सकता। इस लिये इस प्रथा की वे निन्दा करते थे। परन्तु मुझे वहाँ जाने से मना नहीं किया।  सिर्फ इतना कहा कि तुम राखाल से यह मत कहना कि तू मेम्बर बन गया है। नहीं तो फिर उसे भी वहाँ जाने की इच्छा होगी
        मास्टर- श्रीरामकृष्ण कहते थे , ' जब तक कोई यह सोचता है कि मैं ध्यान कर रहा हूँ , तब तक वह आदिशक्ति के ही राज्य में है। शक्ति को मानना ही पड़ता है। 
    नरेन्द्र - 'सोऽहं ' कहने पर जिस 'मैं ' का ज्ञान ज्ञान होता है , वह यह 'मैं '  नहीं है।  मन, देह का अतिक्रमण कर जाने पर जो कुछ शेष रहता है, वही वह 'मैं '  है। ३/६५३
    मास्टर-तुम्हारा मन अधिक शक्तिशाली है, इसलिए उन्होंने तुम्हें मेम्बरी से Bh के यहाँ जाने से मना नहीं किया।
        नरेन्द्र (Svāmī Vivekānanda)-  " बड़े दुःख और कष्टों के झेलने के बाद यह अवस्था हुई है।  मास्टर महाशय,  आपको दुःख-कष्ट नहीं मिला - मैं मानता हूँ कि बिना दुःख-कष्ट के हुए कोई ईश्वर (माँ काली) को आत्मसमर्पण नहीं करता! ... उस अवस्था में मुझे ऐसा जान पड़ा कि मेरे शरीर है ही नहीं;  केवल केवल मुँह देख रहा हूँ। कर्म जो कुछ हैं, कर डालो।  करने से फिर सब समाप्त हो जायेंगे।
         मास्टर - इस समय तुम मानो एक वैद्य हो। सब भार तुम्हीं पर है। मठ के भाइयों को तुम मनुष्य बनाओगे। वे सोच रहे हैं --' सब तो है, --अयोध्या तो वही है, परन्तु बस राम नहीं हैं। '
      राखाल (Svāmī Brahmānanda) - बहुतेरे सोचते हैं , स्त्री को न देखा तो बस फतह है। स्त्री को देख कर सिर झुका लेने या नजरें नीची कर लेने से क्या होगा ? कल रात को नरेन्द्र ने खूब कहा , " यह चित्त (Mind-Stuff) में संचित काम  (desires ) ही है जो एक ही सत्ता (existence-consciousness -bliss आत्मा या ब्रह्म ) को पुरुष (Man) और स्त्री (Woman) की उपाधि से युक्त करके मन में उनकी अलग अवधारणा को पुष्ट कर देता है ! (it is Kāma in Mind-Stuff that creates the perception of Man and Woman as separate) दूसरे शब्दों में कहें तो-"Kāma in the Mind/Brain" मस्तिष्क में अवस्थित - दृक् तंत्रिका (optic nerve, दर्शन -इन्द्रिय या स्नायु-केन्द्र) में काम (desires या भोगेच्छा) के प्रति जन्मजन्मान्तर से जो आसक्ति (Attachment) और लत (Addiction) या -व्यसनलिप्तता लगी हुई (आदत पक्की हो गयी है) ; वह पुरानी लत ही (माँ अन्नपूर्णा , माँ पार्वती , माँ सरस्वती या माँ सारदा देवी के स्थान पर) किसी 'कामिनी' (Sexual Woman या यौन महिला) की सत्ता का सृजन करता है। ( in other words,  "Kāma in the Mind/Brain" creates the entity of Kāmiṇī – the Sexual Woman.) इसलिये 'जब तक अपने भीतर काम है, तभी तक स्त्री की सत्ता है; अन्यथा स्त्री और पुरुष में कोई भेद नहीं रह जाता।                    
    उदाहरण के लिए, समाधिपाद सूत्र २ - 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः'  की व्याख्या करते स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - "  चित्त को वृत्तियों में परिवर्तित होने से रोकना , अर्थात चित्त को विभिन्न आकार (नर-नारी रूप ) में परिणत होने से रोकना ही योग है। इसके लिये दर्शन-क्रिया को समझने की  आवश्यकता है। मेरी ये ऑंखें हैं,  ऑंखें वास्तव में नहीं देखतीं।  यदि मस्तिष्क में स्थित दर्शनेन्द्रिय या द्रिक -शक्ति को नष्ट कर दो , तो भले ही तुम्हारी आँखे रहें , आँखों की पुतलियाँ भी सबूत रहें और आँख के ऊपर जिस (माँ जगदम्बा -सरस्वती माँ सारदा की)  छवि  के पड़ने से दर्शन होता है, वह भी रहे , पर फिर भी आँखें देख न सकेंगी। अतः आँख दर्शन का एक यंत्र मात्र है। परन्तु यह वास्तव में दर्शनेन्द्रिय नहीं है। 
        दर्शनेन्द्रिय तो मस्तिष्क के अन्तर्गत स्नायु-केन्द्र में अवस्थित है। अतएव हमने देखा कि दर्शन-क्रिया के लिये केवल दो ऑंखें ही पर्याप्त नहीं हैं। कभी कभी मनुष्य ऑंखें खुली रखकर सो जाता है। वस्तु का चित्र आँखों पर बना हुआ है, दर्शनेन्द्रिय भी है, पर और एक तीसरी वस्तु की आवश्यकता है -और वह है मन।  मन को इन्द्रिय के साथ संयुक्त रहना चाहिये। 
    अतः दर्शन-क्रिया के लिये चक्षुरूप बाह्य -यंत्र, मस्तिष्क में स्थित स्नायु -केन्द्र और मन -ये तीन चीजें चाहिये। कभी कभी ऐसा होता है कि सामने से बारात गुजर गयी , परन्तु ईश्वरचन्द्र विद्यासागर को बैण्ड की आवाज नहीं सुन सके।  क्यों ? इसलिये कि उनका मन उस समय पढ़ने में इतना तल्लीन था कि उनका मन श्रवणेन्द्रिय के साथ संयुक्त न हो सका। अतएव प्रत्येक अनुभव क्रिया के लिये पहले तो बाहर का यंत्र , उसके बाद इन्द्रिय , और तृतीयतः इन दोनों के साथ मन का योग चाहिये।
           मन,  विषय के अभिघात से उत्पन्न हुई संवेदना को और भी अंदर ले जाकर निश्चात्मिका बुद्धि के सामने पेश करता है।  तब बुद्धि से प्रतिक्रिया होती है। इस प्रतिक्रिया के साथ अहं-भाव जाग उठता है।  फिर क्रिया और प्रतिक्रिया का यह मिश्रण पुरुष अर्थात मानव-शरीर में रहने वाले ब्रह्म या आत्मा के सामने लाया जाता है।  तब वे पुरुष इस मिश्रण को [ कामिनी या माँ सरस्वती का विवेक-प्रयोग करके ] एक ससीम वस्तु के रूप में अनुभव करते हैं ! .... बाहर जो कुछ (कामिनी-कांचन) है, वह केवल इस प्रतिक्रिया को उत्पन्न करने वाला संकेत मात्र है 
       किसी सरोवर  के शांत जल में यदि कंकड़ का एक टुकड़ा गिर जाए तो उसमें अनेक तरंगें उत्पन्न हो जाती हैं। उसमें छोटी-छोटी और बड़ी बड़ी  आकार के वृत्तों वाली कई तरंगें उत्पन्न होने लगती हैं। उस अशांत जल में हमलोग सरोवर की तली को नहीं देख सकते।  यदि जल की तरंग समाप्त हो तो जल पुन: शांत हो जाता है। इस स्थिति में सरोवर की तली स्पष्ट दिखाई पडऩे लगेगी। ठीक इसी प्रकार हमारे चित्त की वृत्तियां हैं। इंद्रियों के विषयों के आघात से उसमें अनेक तरंगें उत्पन्न हो जाती हैं और उत्पन्न तरंगों के कारण मानव अपने निज स्वरूप को नहीं देख पाता। मनुष्य का जो असल स्वरुप है , वह मन के अतीत है।  मन तो उसके हाथों एक यंत्र स्वरुप है।  उसी का चैतन्य इस मन के माध्यम से परावर्तित हो रहा है।  जब तुम इस मन के पीछे द्रष्टास्वरूप में स्थित हो जाते हो, तभी वह चैतन्यमय होता है।  जब मनुष्य इस मन में उठने वाले स्त्री-पुरुष के आकृति में भेद देखकर उसकी वासना जन्य आसक्ति और लत को बिलकुल त्याग देता है , तो उस मन का सम्पूर्ण नाश हो जाता है, उसका अस्तित्व ही नहीं रह जाता।  
    अब समझ में आया कि चित्त का तात्पर्य क्या है ? यह चित्त मन का उपादान-स्वरुप है, और मानो उस सरोवर के सामान है।  तथा  हमारा असल स्वरुप मानों उसकी तली है , और  वृत्तियाँ उस पर उठने वाली वृत्ताकार छोटी-बड़ी लहरें और तरंगे हैं। चित्त में नाम-रूप (M/F) को देख कर उठने वाले विचार की तरंगों को वृत्ति (शाब्दिक रूप से "भँवर") कहा जाता है। [ The waves of thought in the Chitta are called Vrittis (literally "whirlpool") Volume 1, Raja-Yoga/ PATANJALI'S YOGA APHORISMS/ CHAPTER I/CONCENTRATION: ITS SPIRITUAL USES.]  यदि उसकी चित्तवृत्तियां (M/F में भेद-दृष्टि) समाप्त हों तो वह अपने निज आत्मस्वरूप को देखने में सक्षम हो जाए। यह चित्त अपनी स्वाभाविक पवित्र अवस्था को फिर से प्राप्त करने के लिये सतत चेष्टा कर रहा है ,किन्तु इन्द्रियाँ उसे बाहर खींचे रखती हैं। उसका दमन करना , उसकी सांसारिक भोगवृत्ति या तीनो ऐषणाओं में परिवर्तित होने की बहिर्मुखी होने की प्रवृत्ति को रोकना और उसे लौटाकर अन्तर्मुखी करके चैतन्यघन पुरुष -सरोवर की तली को देखने वाले रास्ते पर ले आना -यही योग का पहला सोपान है ; क्योंकि केवल इसी उपाय से चित्त अपने यथार्थ रास्ते पर आ सकता है।  [To restrain it, to check this outward tendency, and to start it on the return journey to the essence of intelligence is the first step in Yoga, because only in this way can the Chitta get into its proper course.] जब तक यह चित्त बुद्धि (विवेक-सम्पन्न बुद्धि) का रूप नहीं धारण कर लेता , तब तक उसके लिये इन सब विभिन्न सोपानों (मन-बुद्धि-चित्त -अहंकार -माँ जगदम्बा के मातृहृदय के रूपान्तरित सर्वव्यापी विराट अहं बोध) में से होते हुए लौटकर आत्मा को मुक्त करना सम्भव नहीं है। 
     " यद्यपि गाय और कुत्तों के भी मन है, पर उनके लिये सद्योमुक्ति असम्भव है, क्योंकि उनका चित्त अभी बुद्धि का रूप धारण नहीं कर सकता !"  यह चित्त अवस्था-भेद से बहुत से रूप धारण करता है, जैसे क्षिप्त , मूढ़ , विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध। [ स्वामीजी की इसी उक्ति- 'Immediate salvation is impossible for the cow or the dog, although they have mind, because their Chitta cannot as yet take that form which we call intellect..... The one-pointed form is when it tries to concentrate, and the concentrated form is what brings us to Samādhi.' में 'उच्च-अन्तःकरण का मनुष्य भी प्रसिद्धि की आकांक्षा को क्यों नहीं त्याग पाता ?' इसका रहस्य छिपा है ! "Fame . . . that last infirmity of noble mind"-- haven't you read?" का रहस्य छिपा है। गाय के स्तर तक सरल या कुत्ते के स्तर तक कामी मनुष्य का चित्त अभी 'विवेक-सम्पन्न बुद्धि ' का रूप धारण नहीं कर सकता। क्योंकि उनका चित्त -आहार,निद्रा , भय , मैथुन के प्रति,  या तीनो ऐषणाओं के प्रति  आसक्ति और लत के अवस्था भेद से बहुत से रूप धारण करता है, जैसे क्षिप्त (scattering-बिखराव) , मूढ़ (darkening-निस्तेज) , विक्षिप्त (gathering- देवकुलिश वाला सत्योन्मुख चित्त ) , एकाग्र (one-pointed, एकबिंदु नेत्र दृश्य) और निरुद्ध (concentrated, दत्तचित्त या समाधिस्त)  । ]  यहाँ पर 'Centripetal'  या केंद्राभिमुखी चित्त और  'Centrifugal' केन्द्रापसारी चित्त की व्याख्या करते हुए भाष्यकार व्यासदेव कहते हैं - चित्त की विक्षिप्त या केन्द्राभिमुखी अवस्था देवताओं (Devas, the angels पैगम्बरों ,भावी शिक्षकों /नेताओं) के लिये स्वाभाविक हैं, और क्षिप्त तथा मूढ़ावस्था असुरों (दलबन्दी करने वालों) के लिये।  एकाग्र अवस्था तभी होती है , जब मन निरुद्ध होने के लिये प्रयत्न करता है ! और निरुद्ध अवस्था ही हमें समाधि में ले जाती है।" [- वि० साहित्य १/११५-११८ ] 
“सम्प्रज्ञात एवं असम्प्रज्ञात” समाधियाँ “धर्ममेध समाधि” के पूर्व घटित स्थितियां हैं, जिनका अनुभव साधना की गहराई में उतरने अर्थात सूक्ष्म जगत में प्रवेश करने के बाद ही होता है। वस्तुतः “सम्प्रज्ञात समाधि” ज्ञान-विज्ञान की अवस्था है, जबकि “असम्प्रज्ञात समाधि” आनंद की।] 
    “धर्ममेध समाधि” का परिणाम " जब मनुष्य इतने सत्कार्य एवं सतचिन्तन कर चुकता है कि उसकी इच्छा न होते हुए भी उसमें सत्कार्य करने की एक अनिवार्य प्रवृत्ति उत्पन्न हो जाती है, तब फिर यदि वह दुष्कर्म करना भी चाहे , तो इन संस्कारों की समष्टि रूप से उसका मन उसे ऐसा करने से तुरन्त रोक देगा।  इतना ही नहीं , वरन उसके वे संस्कार उसे मार्ग पर से हटा देंगे।  तब वह अपने सत्संस्कारों के हाथ की एक कठपुतली जैसा हो जायेगा।  जब ऐसी स्थिति हो जाती है, तभी उस मनुष्य का चरित्र स्थिर कहलाता है। " [कर्म का रहस्य -३/३० ]  
When you have done so much good work and thought so many good thoughts that there is an irresistible tendency in you to do good, in spite of yourself and even if you wish to do evil, your mind will not allow you to do so. The tendencies will turn you back. You are then completely under the influence of the good tendencies. When such is the case, your good character is said to be established." 
Class on Karma Yoga. [ New York, December 20, 1895. Complete Works, 1. 54-55.]
              पातंजल योगसूत्र राजयोग का शास्त्र है और उस पर सर्वोच्च प्रामाणिक ग्रन्थ है। महर्षि पंतजलि ने अपने योग-सूत्र में इस राजयोग विद्या  की व्यापक विवेचना की है। तथा इसे आठ अंग या सोपानों में विभक्त किया है , और ये सोपान हैं-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। हम समझ सकते हैं कि यम और नियम चरित्र-निर्माण के प्रशिक्षण (Moral Trainings- नैतिक प्रशिक्षण ) हैं ; अतः इसे " विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर 'Be and Make' वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण -परम्परा " में प्रशिक्षित शिक्षक/ नेता [नवनीदा जैसे (C-IN-C)] के निर्देशन में ही सीखना चाहिये ! क्योंकि प्रशिक्षित शिक्षकों /नेताओं का निर्माण किये बिना,  योग का कोई (प्रशिक्षण-शिविर ) अभ्यास सफल नहीं होगा। जैसे ही किसी भावी नेता /शिक्षक के जीवन में ये दोनों स्थापित हो जाएंगे, उस योगी/शिक्षक/ नेता  को अपने अभ्यास के फल की अनुभूति होनी प्रारम्भ हो जायेगी।  इस - 'Be and Make Vedanta Leadership Training Tradition' में प्रशिक्षण लिये बिना,  यह अष्टांग योग कभी फल नहीं देगा। अष्टांग योग की इस पद्धति के माध्यम से साधना करने की इच्छा रखने वाला व्यक्ति किसी नवनीदा जैसे प्रशिक्षित सद्गुरु/ (C-IN-C) नेता/जीवनमुक्त शिक्षक  के सान्निध्य में इन सोपानों पर यम-नियम को साधते हुए ध्यान और समाधि की उच्चतम अवस्था पर पहुंच कर चिन्मय आत्मा का साक्षात्कार कर सकता है। फिर अपने आत्मा में परब्रह्म परमात्मा के दर्शन प्राप्त कर तद्स्वरूप होता हुआ आनंद को प्राप्त कर सकता है। [ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति । - मुण्डकोपनिषत् ३-२-९/ ) जो ब्रह्मबिद सो ब्रह्म है ताको वाणी वेद , संस्कृत या प्राकृत में करत भ्रम का छेद। दादू-पंथी सम्प्रदाय के त्यागी सन्त निश्चलदास का 'विचारसागर। '    
[ " The Yama and Niyama, as we see, are moral trainings; without these as the basis no practice of Yoga will succeed. As these two become established, the Yogi will begin to realise the fruits of his practice; without these it will never bear fruit."-Volume 1, Raja-Yoga/CHAPTER II/ THE FIRST STEPS ]    
         अभ्यास योग : आधारों की विशेषता होती है : शुक्रवार, 19 सितंबर, 1884 :
          श्रीरामकृष्ण : " ईश्वर पर सबका मन नहीं लगता।  आधारों की विशेषता होती है। पूर्व-जन्मों के संस्कार रहने से होता है। नहीं तो बागबाजार (झुमरीतिलैया) में इतने आदमी थे , उनमें केवल तुम्हीं यहाँ (बेलघड़िया -कैम्प 1987 ) में क्यों आये ?
         " मलय-पर्वत की हवा के लगने पर सब पेड़ चन्दन के हो जाते हैं;  सिर्फ पीपल, बट,  सेमर (बीरेन) ... ऐसे ही कुछ पेड़ चन्दन नहीं बनते ! तुम लोगों को रूपये-पैसे का कुछ अभाव थोड़े ही है। योगभ्रष्ट होने पर भाग्यवानों के यहाँ (शाण्डिल्य गोत्र ) में जन्म होता है। इसके पश्चात फिर वह ईश्वर (परमसत्य ) को पाने के लिए तपस्या करता है।  "  महेन्द्र मुखर्जी - मनुष्य योगभ्रष्ट क्यों होता है ?
             श्री रामकृष्ण -  " पूर्व जन्म में ईश्वर की चिन्ता करते हुए एकाएक भोग करने (परकीया रति-paramour-अवैध प्रेम ) की लालसा हुई होगी।  इस तरह होने पर योग-भ्रष्ट हो जाता है।  और दूसरे जन्म में फिर उसी के अनुसार जन्म होता है।
                 महेन्द्र - इसके बाद उपाय ?
     "श्रीरामकृष्ण - कामना के रहते , भोग की लालसा के रहते , मुक्ति   नहीं होती। इसलिये खाना-पहनना, रमण करना , यह सब कर लेना। (सहास्य ) तुम क्या कहते हो ? स्वकीया के साथ या परकीया के साथ ? [ वैध या नाजायज? Legitimate or illegitimate? भोग-लालसा का रहना अच्छा नहीं है।  नहीं तो ' गिद्ध-लीला ' नहीं होगी। ["Vulture-Lila" से मुक्ति का उपाय ज्ञान के बाद विज्ञान - स्थाई रूप से d-hypnotized) ]
         " इसलिये मेरे मन में जो कुछ उठता था , मैं कर डालता था।  .... एक बार जी में आया कि खूब जरी का साज पहनूँ और चाँदी की गुड़गुड़ी में तम्बाकू पीऊं।  सेजो बाबू ने नया साज , गुड़गुड़ी सब भेज दिया। साज पहना , गुड़गुड़ी कितनी ही से पीने लगा। एक बार इस ओर से एक बार उस ओर से।  --खड़ा होकर और बैठकर।  तब मैंने कहा , मन , देख ले , इसीका नाम है चाँदी की गुड़गुड़ी में तम्बाकू पीना।  बस इतने से ही गुड़गुड़ी का त्याग हो गया। साज (expensive-robe) थोड़ी देर में खोल डाला -पैरों से उसे रौंदने लगा - कहा, इसी नाम है साज ! इसी पोशाक के कारण रजोगुण बढ़ता है
          " राखाल साकार की श्रेणी का है -(प्रवृत्ति धर्म से होकर निवृत्ति धर्म का पालन करने वालों की श्रेणी का है। ) निराकार की बात सुनकर उठ जायेगा।  उसके लिये मैंने चण्डी से मन्नत की। उसने घर-द्वार छोड़कर मेरा सहारा लिया था न ? उसकी स्त्री पास उसे मैं ही भेज दिया करता था , भोग कुछ बाकी रह गया था
      " नरेन्द्र (निराकार की श्रेणी का है --निवृत्ति मार्ग के सप्तऋषियों में से एक है ), जब पहले पहल आया , एक मैली चादर ओढ़े था , परन्तु उसका चेहरा और उसकी ऑंखें देखकर जान पड़ता था कि उसके भीतर कुछ है।  जब आता था तब घरभर आदमी रहते थे , परन्तु मैं उसीकी ओर नजर करके बातचीत करता था। जब वह कहता था -'इससे भी बातचीत कीजिये ' - तब दूसरे लोगों से बातचीत करता था।  [बिजन पांडा और पाढ़ी। ... ] साधनावस्था में संन्यासियों को स्त्रियों का चित्र भी न देखना चाहिये। मैं उनसे कहता हूँ , स्त्री अगर भक्त भी हो तो भी उसके पास अकेले में बैठकर बातचीत न करनी चाहिये।  खड़े होकर चाहे कुछ कह लिया जाय।  सिद्ध होने पर भी इसी तरह चलना पड़ता है।  अपनी सावधानी के लिये भी और लोकशिक्षा के लिये भी। औरतों के आने पर मैं थोड़ी ही देर में कहता हूँ , तुम लोग मंदिर घूमो। इससे भी अगर वे न उठीं तो मैं खुद उठ जाता हूँ।  मुझे देखकर दूसरे शिक्षा ग्रहण करेंगे।  [राँची कैम्प में दादा एक औरत को बैठा छोड़कर मेरे साथ बाहर आ गए थे !]
           " शंखचील (सफेद परवाली चील ) को देखकर लोग प्रणाम क्यों करते हैं ? कंस जब मारने के लिये चला था तब भगवती शंखचील का रूप धारण कर उड़ गयी थीं।  इसलिये अब भी लोग जब शंखचील को देखते हैं, तो उसे प्रणाम करते हैं।
         गृहस्थ, अभ्यास योग के लिए आगे बढ़ो ! (वचनामृत -२.३२०) "Sir, our legs are in chains. We cannot go forward. "सर, हमारे पैर में जंजीरें बँधी हैं। हम आगे नहीं बढ़ सकते।"
       श्रीरामकृष्ण मुखर्जी बन्धुओं (Mukherji brothers) से बातचीत कर रहे हैं। बड़े भाई , महेंद्र का अपना कारोबार था। छोटे, प्रियनाथ, एक इंजीनियर थे। अब उन्होंने कुछ धनोपार्जन कर लिया है, अब नौकरी नहीं करते। बड़े भाई की उम्र 35 के लगभग होगी। इनलोगों का गाँव में और बागबाजार में भी उनका अपना मकान है।
   श्रीरामकृष्ण - (सहास्य ) " ईश्वर (भक्ति या सत्य की खोज-spiritual consciousness के प्रति ) कुछ उद्दीपना हो रही है, यह देखकर चुप्पी न साध जाना। Don't sit idle ,  Go forward. Beyond the forest of sandal-wood, निश्चिन्त होकर बैठ मत जाओ , चन्दन के जंगल के आगे और भी चीजें हैं - आगे बढ़ते जाओ ! चाँदी की खान --सोने की खान  !
    प्रिय - (सहास्य) जी , पैरों में बेड़ियाँ जो पड़ी हुई है ; उनके कारण बढ़ा नहीं जाता। 
    श्रीरामकृष्ण - " पैरों के बन्धन से क्या होता है,  बात असल मन की है !  "What if the legs are chained? The important thing is the mind. Bondage is of the mind, and freedom also is of the mind.
             " मन के द्वारा ही आदमी बँधा हुआ है, और उसी के द्वारा छूटता भी है। दो मित्र थे।  एक वेश्या के घर गया।  दूसरा भागवत सुन रहा था। पहला सोच रहा था , मुझे धिक्कार है। मेरा मित्र भागवत सुन रहा है और मैं वैश्या के यहाँ पड़ा हुआ हूँ। उधर दूसरा सोच रहा था , मैं बड़ा बेवकूफ हूँ , मेरा मित्र तो मजा लूट रहा है और मैं यहाँ आकर फंस गया।  पर देखो, वेश्या के यहाँ जानेवाले को तो विष्णुदूत आकर वैकुण्ठ में लेगये और दूसरे को यमदूतों ने घसीटकर नरक में डाल दिया। 
       प्रिय - किन्तु मेरा मन , तो मेरे बस में है ही नहीं ! "But the mind is not under my control."
         श्रीरामकृष्ण - यह क्या ! हार मान लिये ? अभ्यासयोग - ' Yoga through practice' मनःसंयोग का अभ्यास करो,  फिर देखोगे मन को जिस ओर ले जाओगे , उसी ओर जायगा। मन एक धोबी (नेता) के यहाँ से धुलकर आये - सफेद कपड़े (प्रशिक्षित मन) की तरह है।   यदि तुम इस धुले हुए सफ़ेद कपड़े (प्रशिक्षित मन)  को लाल रंग में रंगो , तो लाल हो जायेगा, और नीले से रंगो तो नीला।  जिस रंग से रँगोगे वही रंग उस पर चढ़ जायेगा !
       " आज अमावस्या (दूज का चाँद - new moon, छोटा किन्तु वर्धमान अर्धचन्द्राकार ) है, माँ के मन्दिर में जाना।  " संध्या के बाद आरती का शब्द सुनाई दे रहा है। श्रीरामकृष्ण बाबूराम से कह रहे हैं -"चल  रे,चल काली-मंदिर में। " साथ मास्टर भी हैं।  माता की आरती हो रही है। श्रीरामकृष्ण मंदिर में मूर्ति के सामने पहुँचकर भूमिष्ट हो माता को प्रणाम करने लगे।  चामर लेकर व्यजन करने लगे।  आज अमावस्या है।  श्रीरामकृष्ण को पूर्ण मात्रा में भावावेश हो गया।  बाबूराम का कंधा पकड़कर मतवाले की तरह झूमते हुए अपने कमरे की ओर जा रहे हैं। 
        "ज्ञानलाभ के बाद भी लोक-शिक्षा के लिये पूजा आदि कर्मों को लोग किया करते हैं। मैं काली-मन्दिर जाता हूँ, और इस कमरे के सब चित्रों को भी प्रणाम किया करता हूँ।  मुझको देखकर दूसरे भी प्रणाम करते हैं। फिर तो अभ्यास हो जाने पर मनुष्य से वैसा किये बिना रहा ही नहीं जाता।  अविद्या का नाश बिना किये न होगा।  इसलिये मैं हिमालय-दुहिता पार्वती का वाहन शेर  बन जाता था और अविद्या को खा जाता था। दस बार गीता का उच्चारण करने पर जो कुछ होता है,  वही गीता का सार है।  अर्थात त्यागी -त्यागी ! राष्ट्र की पुकार है - 'त्याग', दोनों आधार - 'प्रवृत्ति और निवृत्ति' के अधिकारी युवाओं में - 'त्यागी' मनुष्यों का निर्माण !(या गुरु-शिष्य परम्परा में जीवनमुक्त शिक्षकों/ -नेताओं का निर्माण !) वचनामृत 
       विजय कृष्ण गोस्वामी को लक्ष्य करके श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं - ' किसी का स्वभाव साँप के समान होता है। तुम्हारे बिना जाने ही तुम्हें काट सकता है।  उसके दंश से बचने के लिये बहुत विचार करना पड़ता है। नहीं तो तुम्हें ही ऐसा क्रोध आ जायेगा कि उलटे उसी के नाश करने की चिन्ता में पड़ जाओगे। बुरे आदमी (prddrs) को देखते ही मैं सावधान हो जाता हूँ।  अगर कोई आकर पूछता है, क्या हुक्का-सुक्का है ? तो मैं कहता हूँ , हाँ है ! इतने पर भी निर्जन में सत्संग की बड़ी आवश्यकता है।  सत्संग करने पर ही विवेक जाग्रत होता है - सत्संग करने पर ही सत् -असत् का विचार आता है। 
        विजय - अवकाश नहीं  है, यहाँ काम में फँसा रहता हूँ।
            श्रीरामकृष्ण - तुमलोग आचार्य (नेता, पैगम्बर, जीवनमुक्त शिक्षक) हो, दूसरों को छुट्टी भी मिलती  है,परन्तु आचार्य को छुट्टी नहीं मिलती।  नायब जब एक हल्के का अच्छा इन्तजाम कर लेता है,  तब जमींदार उसे दूसरे महाल के इन्तिजाम के लिये भेज देता है। इसिलिये तुम्हें छुट्टी नहीं मिलती।  २/ ३६१
      "स्थूल, सूक्ष्म , कारण और महाकारण।  महाकारण में जाने पर चुप है।  वहाँ बातचीत नहीं हो सकती। ईश्वरकोटि के मनुष्य -महाकारण में पहुँचकर भी लौट सकते हैं। वे ऊपर चढ़ते हैं, फिर नीचे भी आ सकते हैं। छत के ऊपर चढ़कर , फिर सीढ़ी से उतरकर नीचे चलफिर सकते हैं। अनुलोम और विलोम। ... जो जीवकोटि साधक हैं, बहुत प्रयत्न करने पर उन्हें समाधि हो सकती है,  परन्तु समाधि के बाद न वे नीचे उतर सकते और न उतरकर खबर ही दे सकते हैं। इसलिये नेता , आचार्य , जीवनमुक्त शिक्षक नहीं बन सकते।  " २/३६५
               " जो शुद्ध आत्मा है , वही महाकारण --कारण का कारण हैं। स्थूल,सूक्ष्म , कारण और महाकारण -ये इतने हैं।  पाँच भूत स्थूल है। चित्त, मन, बुद्धि और अहंकार सूक्ष्म हैं।  प्रकृति अथवा आद्याशक्ति सबकी कारण-रूपिणी हैं ! ब्रह्म या शुद्ध आत्मा कारण का कारण हैं।  यही शुद्ध आत्मा हमारा स्वरुप है ! ज्ञान किसे कहते हैं ? इसी स्वरुप का ज्ञान प्राप्त करना और मन को उसी में लगाये रहना - इस शुद्ध आत्मा को जानना - ब्रह्मविद बन जाना --यही ज्ञान है ! २/४०४ 
  👉 क्या जगतजननी माँ काली असत् हैं ? जड़ जगत का मूल कारण क्या ”सर्वथैव शशविषाणदिवत् अविद्यमान” था जो सर्वथा नहीं होते, जैसे शशविषाण-खरहे का सींघ , वन्ध्यापुत्र, आकाश-कुसुम आदि असत् होते हैं, वैसे ही क्या माँ काली या स्वधा असत् हैं ? परमात्मा ने स्वयं इस जगत को अपने सामर्थ्य से बना लिया ? (अग्रे + तमः + आसीत्) सृष्टि के पूर्व भी  जगन्मूल कारण माँ काली प्रधान थी । और उसी मूल कारण से वर्तमानकालिक यह सम्पूर्ण दृश्यमान जगत् आच्छादित था अर्थात केवल कारण विद्यमान था, कार्य नहीं। वह कारण भी ‘तुच्छयेन’ अव्यक्तावस्था से ढका हुआ था , तब परमात्मा की कृपा से एक होकर इस वर्तमानकालिक रूप में परिणत हुआ। सत्त्व, रज, तम इनकी साम्यावस्था का नाम प्रकृति है। उस प्रकृति के प्रधान , अव्यक्त , और अदृश्य आदि अनेक नाम हैं।  वेद में  इसका संबंध ब्रह्माण्ड विज्ञान और ब्रह्मांड की उत्पत्ति के साथ बतलाया गया है। --ऋग्वेद के सृष्टि की रचना का नासदीय सूक्त  [ऋग्वेद 10-129] : उसी को ‘तमः’  शब्द से कहा है ।
             न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः ।
           आनीदवातं स्वधया तदेकं तस्माद्धान्यन्न परः किं चनास ॥
पदच्छेद अन्वय :–  न  मृत्युः  आसीत् / अमृतम्  न  तर्हि/  न  रात्र्याः  अह्नः / आसीत्  प्रऽकेतः।  आनीत्  अवातम्  स्वधया/  तत्  एकम्  तस्मात् / ह  अन्यत्  न  परः /  किम्  च न  आस ॥ १०.१२९.२
        व्याख्या --उस प्रलय कालिक समय में (जब आत्मा ने परमात्मा का साक्षात्कार किया था !) मृत्यु नहीं थी और अमृत=मृत्यु का अभाव भी नहीं था। रात्री और दिन का ज्ञान भी नहीं था। जब सत् भी नहीं था, असत् भी नहीं था, तम के द्वारा तम ढँका हुआ था,  तब वह निस्पन्द अवस्था में था। इस प्राण की सत्ता तब भी थी, किन्तु उसमें कोई गति न थी; आनीत् — प्राणनार्थक ‘अन’ धातु का ‘आनीत्’ यह रूप है, ( अवातम् ) वायुरहित । बिना वायु का वह एक ब्रह्म अस्तित्ववान था। ‘ जब वायु भी नहीं थी, वह ब्रह्म अकेला अपने ही दम पर सांसे ले रहा था, वह विद्यमान था ! स्पन्दन का विराम हो जाने पर भी ‘वह’ था ! किन्तु केवल वह ‘एक’ ही नहीं था , उसकी शक्ति  ‘स्वधा’ भी उसके साथ थी।  उस समय बस एक अनादि पदार्थ था (जिसे प्रकृति कहा गया है), मतलब जिसका आदि या आरंभ न हो और जो सदा से बना चला आ रहा हो।  ‘माया’ और ‘प्रकृति’ या ‘अव्यक्त’ इत्यादि शब्द की अपेक्षा ‘स्वधा’ शब्द बहुत उपयुक्त है। क्योंकि स्व = निज सत्ता । जो निज सत्ता को धा = धारण किये हुये विद्यमान हो , उसे स्वधा कहते हैं । जैसे परमात्मा की सत्ता बनी रहती है , तद्वत् जड़ जगत् के मूल कारण की भी सत्ता सदा बनी रहती है। इसलिए उसको 'स्वधा ' कहते हैं । ‘सह युक्तेsप्रधाने [अ. 2-3-19] इस सूत्रानुसार सह [ सहार्थ के योग में स्वधा ] शब्द का तृतीया के एकवचन में स्वधया रूप है। वेदान्त में इसी का नाम ‘अज्ञान’ (अविवेक) है क्योंकि वह ज्ञानस्वरूप परमात्मा को भी ढक लेता है। इस विषय का संग्रह मनु महाराज  ने इस प्रकार किया है कि --
आसीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम् |
अप्रतर्क्यमनिर्देश्यम् प्रसुप्तमिव सर्वतः || ( मनु - १-५ )
यह वर्तमानकालीन जगत् प्रलयावस्था में तमोमय , अप्रज्ञात , अलक्षण , अप्रतर्क्य , अनिर्देश्य और मानो सर्वत्र प्रसुप्त था।
तब एक बहुत लम्बे विराम के उपरान्त जब कल्प का आरम्भ होता है, तब आनीदवातम् निस्पन्द परमाणु)स्पन्दन आरम्भ कर देता है। और प्राण आकाश को आघात पर आघात प्रदान करता है। परमाणु घनीभूत होते हैं, और उनके संगठन की इस प्रक्रिया में विभिन्न तत्व बन जाते हैं।  जब जीवों के कर्म फलोन्मुख होते हैं , तब परमेश्वर की सृष्टि करने की इच्छा होती है।  यह ईश्वरीय सिसृक्षा ( सृष्टि करने की इच्छा) ही तप कहलाती है और उसी तप की महिमा से वह कारण रूप जड़ प्रधान मानो एक रूप होकर परिणत होने लगता है , तब उससे क्रमपूर्वक महदादि सृष्टि होती है |     
       जो लोग ईश्वर को कामनारहित कहते हैं , वे वास्तव में तात्पर्य को नहीं समझते क्योंकि  'सोsकामयत' ( तै . उप . २-६ ) = उसने कामना की , 'तदैक्षत' ( छा . उप . ६-२-१ ) = उसने ईक्षण किया इत्यादि श्रुतिवाक्यों से ब्रह्म में काम का सद्भाव प्रसिद्ध है।  यदि काम न होता तो यह सृष्टि भी नहीं होती।   इस हेतु जीवों के स्व-स्व कर्मानुसार फल भोगने के लिए सृष्टि करने की ईश्वर की कामना अवश्य थी।  और यही कामना मानो , जगद्रचना का बीजभूत थी।  उस कर्त्ता-धर्त्ता परमात्मा को कविगण अपनी बुद्धि से इसी विनश्वर हृदय में प्राप्त करते हैं। किसी तत्पर सत्यार्थी को उस परम् सत्य (आत्मा, ब्रह्म या माँ काली) के अन्वेषण के लिए बाह्य जगत् में इतस्ततः दौड़ना नहीं पड़ता।
' कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्।
 सतो बन्धुमसति निरविन्दन्हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा ॥ ऋग्वेद १०.१२९.४ वां सूक्त '
सतो बन्धुम् = सतो बन्धुम् = जड़ जगत् के ‘कारण प्रकृति’ का नाम है – ‘सत् ’ ! उस कारण प्रकृति (ह्रीं) को परमेश्वर  अपने वश में रखता है । इस हेतु वह [नेता -नवनीदा]  ‘सतो बन्धु’ कहलाते है । जो अपने साथ बाँध ले, बन्धु नाम बाँधने वाला
[courtesy : Pt. Santosh Bhardwaj. (https://jagatgurusantosh.wordpress.com/tag/sequence-of-evolution-)]
    " अवतारों के साथ जो आते हैं,  वे नित्यसिद्ध होते हैं , कोई अन्तिम जन्मवाले होते हैं। (विजय से ) तुम लोगों को दोनों ही है - योग भी है और भोग भी।  जनक राजा को योग भी था और भोग भी था। इसलिए उन्हें लोग राजर्षि कहते हैं। राजा और ऋषि दोनों ही । नारद देवर्षि हैं, और शुकदेव ब्रह्मर्षि।  शुकदेव ज्ञानी बने नहीं थे,  वे पुंजीकृत ज्ञान की मूर्ति थे। ज्ञानी किसे कहते हैं ? जिसे प्रयत्न करके ज्ञान हुआ है। शुकदेव ज्ञान मूर्ति हैं , अर्थात ज्ञान की जमाई हुई राशि -घनीभूत ज्ञान मूर्ति हैं। यह ऐसे ही हुआ है , साधना करके नहीं।  " २/३६६
         महामण्डल के किसी गृही नेता को मंत्र-दीक्षा देने का अधिकार क्यों नहीं है ? " जिनके द्वारा वे लोक-शिक्षा (मंत्र-दीक्षा ?) देना चाहते हैं,  उन्हें संसार का त्याग करना चाहिये। केवल भीतर ही त्याग के होने से काम नहीं होता। बाहर भी त्याग होना चाहिये।  लोक-शिक्षा (मंत्र-दीक्षा का अधिकार) तभी हो सकती है।  नहीं तो लोग सोचते हैं , ये मुझे कामिनी -कांचन का त्याग करने के लिये कह तो रहे हैं, परन्तु भीतर ये खुद उसका भोग कर रहे हैं। और जो भावी आचार्य हैं, चरित्र-निर्माण और मनुष्य-निर्माण की पद्धति सिखलाने में समर्थ जीवनमुक्त शिक्षक हैं  उन्हें कामिनी और कांचन में आसक्ति और लत का त्याग करना चाहिये।  नहीं तो उनके उपदेश लोग मानते नहीं।  २/३९८    
              19 अक्टूबर, 1884 : सिंती के वेणीमाधव पाल के उद्यान-बाड़ी में ब्रह्मसमाज का अधिवेशन। विद्यार्थियों और उनके गृही अभिभावकों के लिये महामण्डल द्वारा आयोजित 6 दिवसीय एनुअल यूथ ट्रेनिंग कैम्प में भाग लेना क्यों अनिवार्य है :
       एक ब्राह्मसमाजी 'Sub-Judge' पूछता है - क्या ईश्वर (ब्रह्म, माँ काली या परम सत्य ) को जानने के लिये गृहस्थ (प्रवृत्ति मार्ग के अधिकारी ) लोगों को भी घर-परिवार या संसार का त्याग करना होगा ?
           श्रीरामकृष्ण - नहीं , तुम्हें क्यों त्याग करना होगा ?' A man can realize God even in the world.' कोई सत्यार्थी घर-परिवार में रहते हुए ही आत्मानुभूति या ईश्वर-का साक्षात्कार कर सकता है।  परन्तु पहले कुछ दिन निर्जन में रहना पड़ता है।  अर्थात प्रत्येक वर्ष छह दिनों तक किसी 'विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर Be and Make शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा ' में प्रशिक्षित नवनीदा जैसे नेता ~  'C-IN- C' के नेतृत्व में 'चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने का प्रशिक्षण'  प्राप्त करना अनिवार्य होता है। निर्जन में रहकर ईश्वर की साधना करनी पड़ती है।  अर्थात 5 अभ्यास का प्रशिक्षण प्राप्त करना होता है। घर के पास एक ऐसा अड्डा बनाना पड़ता है,  जहाँ से बस रोटी खाने के समय घर पर आकर रोटी खाकर पुनः क्लास करने के लिए जा सको । [ स्कूल बिल्डिंग में शिक्षक-छात्रों को एक साथ ठहरने की व्यवस्था , परेड -ग्राउण्ड , डॉयनिंग -हॉल , किचेन , ऑडोटोरियम , स्टेज-फ्लैग पोल की व्यवस्था करनी होगी।  ]
        "  निर्जन में बिना गये 'कठिन रोग '  (serious disease) अच्छा कैसे होगा ? प्रत्येक संसारी मनुष्य (ईश्वरकोटि या अवतार को छोड़कर) धरती पर जन्म लेते ही ~ 'बेसुध बना देने वाला ज्वर '  (Delirious Fever~  चैतन्यरहित, भ्रान्तचित्त  या सम्मोहित कर देने वाला बुखार) से ग्रस्त हो जाता है। और ईश्वरकोटि के मनुष्यों जैसा 'गुरु-शिष्य परम्परा में श्रेय-प्रेय विवेक ' करने की शक्ति को विकसित करने का अभ्यास ,अथवा  मनःसंयोग का अभ्यास करना छोड़ देता है,  या बेसुध होकर भूल जाता है। जिस जीवकोटि के सामान्य मनुष्य के पास आँवला -ईमली विवेक नहीं है,  ऐसे मोहग्रस्त रोगी (जो सिंहशावक होकर भी अपने को भेंड़ समझ रहा है ?) उसी घर में लगातार रहना पड़े -जिसमें इमली के अचार का घड़ा रखा हो , तब क्या उसका रोग कभी अच्छा हो सकता है ? देखो , अचार ,ईमली का नाम लेते ही मेरी जीभ में पानी भर आया !( सब हँसते हैं। ) इनके  साथ-साथ रहते हुए,  या बिल्कुल बगल में रहते हुए कभी रोग अच्छा हो सकता है ?  (To a man, a woman is the pickled tamarind, and his desire for enjoyment, the jars of water. ) गुरु-रहित अप्रशिक्षित मन या 'विवेक-प्रयोग शक्ति ' से रहित, सामान्य व्यक्ति के लिये स्त्री (या उप -पत्नी ? ) इमली का अचार है ,  और चित्त में पड़े जन्मजन्मान्तर के भोगवासना के संस्कार अचार का बोइयाम/ घड़ा है।
              न  तो सांसारिक  विषय-भोगों की इस इच्छा का कोई अन्त है, और न इसकी कोई सीमा है।       हमलोग जानते हैं - पाँच इन्द्रियों के पाँच विषय हैं - और इन्द्रियाँ महापेटू हैं ! भोगने से कभी तृप्त नहीं होतीं। आग में घी डालने से आग और भड़क उठता है   'अली-मृग-मीन -पतंग -गज , जरै एक ही आँच ! तुलसी वे कैसे जियें जिन्हें जरावे पाँच ?' फिर जिस मनुष्य की पाँच इन्द्रियाँ हैं,  वे कैसे जीवित रहें ? ( There is neither end nor limit to this desire for worldly enjoyment.) और मन को बेसुध कर देने वाली ये सब चीजें रोगी के कमरे में ही हैं !! क्या इससे उसका 'बेसुध बना देने वाला ज्वर '  (Delirious Fever~  चैतन्यरहित, भ्रान्तचित्त  या सम्मोहित कर देने वाला बुखार) कभी अच्छा हो सकता है ?
   " इसीलिये बीच-बीच में कुछ दिन घर छोड़कर , कैम्प में चपरास प्राप्त गुरु [C-IN-C] के सानिध्य में रहकर अभ्यास -योग की पद्धति का प्रशिक्षण लेना चाहिये। वहाँ न अचार है, न इमली और अचार का कोई बोइयाम ही है। यदि स्त्रियाँ आती भी  हैं, तो सर्वत्र सिर्फ माँ सारदा देवी का ही साक्षात् दर्शन होता है ! एनुअल कैम्प में 6 दिन का प्रशिक्षण रूपी उपचार से निरोग होकर (भ्रममुक्त होकर या विसम्मोहित होकर) फिर अपने उसी घर में जाने कोई भय न रह जायेगा
       " उन्हें प्राप्त करके (ब्रह्म को जानकर ब्रह्म हो जाने के बाद)  संसार में आकर रहने से फिर 'कामिके नी-कांचन ' की दाल नहीं गलती। तथा तब जनक की तरह संसार से निर्लिप्त होकर संसार में रहा जा सकता है। परन्तु पहली अवस्था में [चपरास प्राप्त होने तक ]  खूब सावधान होना चाहिये, हर तीन-तीन महीने  के बाद  कोन्नगर महामण्डल स्थित आचार्य नवनीदा के निरे निर्जन कमरे में रहकर साधना करनी चाहिये। 
          " पीपल का पेड़ जब छोटा रहता है , तब उसे चारों ओर से घेर रखते हैं, नहीं तो बकरी चर जाएगी।  परन्तु जब वह बड़ा होकर मोटा हो जाता है, तब उसे घेर रखने की आवश्यकता नहीं रहती।  फिर हाथी बाँध देने पर भी पेड़ का कुछ नहीं बिगड़ता। अगर निर्जन में साधना करके ईश्वर (आचार्य नवनीदा ) के चरण-कमलों में भक्ति करके -आध्यात्मिक बल (विवेक-वैराग्य बल ) बढ़ाकर घर जाकर संसार करो,  तो कामिनी -कांचन फिर तुम्हारा कुछ न बिगाड़ सकेंगे।
            "निर्जन में दही जमाकर मक्खन निकाला जाता है। ज्ञान और विज्ञान (भक्ति ) रूपी मक्खन अगर एक बार मन रूपी दूध से निकाल सको, तो वह ' transformed mind' (व्यष्टि अहं से माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट अहं में रूपांतरित अहं) संसाररूपी पानी में डाल देने से वह निर्लिप्त होकर पानी पर तैरता रहेगा ; परन्तु मन को कच्ची अवस्था में - दूध-वाली अवस्था में -अगर संसाररूपी पानी में छोड़ दोगे , तो दूध और पानी एक हो जायेंगे।  तब फिर मन निर्लिप्त होकर (भ्रममुक्त ) होकर उससे अलग न रह सकेगा। 
              " ईश्वर-प्राप्ति के लिये संसार में रहकर एक हाथ से ईश्वर (आचार्य नवनीदा ) के पादपद्म पकड़े रहना चाहिये , और दूसरे हाथ से संसार का काम करना चाहिये।  जब काम से छुट्टी मिले , तब दोनों हाथों से ईश्वर के पादपद्म पकड़ लो,  तब निर्जन में वास करके एकमात्र उन्हीं की चिन्ता और सेवा करते रहो।
   सब-जज - संसार का त्याग करने की जरूरत नहीं,  घर पर रहकर भी लोग ईश्वर को पा सकते हैं, यह सुनकर मुझे शांति और आनन्द हुआ।
             श्रीरामकृष्ण :  तुम्हें त्याग क्यों करना होगा ? जब लड़ाई करनी है , तो किले में रहकर ही लड़ाई करो।  लड़ाई इन्द्रियों से  है,भूख-प्यास इन सबके साथ लड़ाई करनी होगी।  यह लड़ाई संसार में रहकर ही करना अच्छा है।  ... किसी ने अपनी बीबी से कहा - 'मैं संसार छोड़कर जाता हूँ। '  उसकी बीबी कुछ समझदार थी।  उसने कहा - क्यों तुम चक्कर लगाते फिरोगे ? अगर पेट भरने के लिये दस घरों में चक्कर न लगाना पड़े, तब तो कोई बात नहीं , जाओ।  लेकिन अगर चक्कर लगाना पड़े तो यही अच्छा होगा कि तुम घर में रहो। '
                 " तुम लोग त्याग क्यों करोगे ? घर में रहने से तो बल्कि सुविधाएँ हैं। भोजन की चिन्ता नहीं करनी होती।  सहवास भी पत्नी के साथ , इसमें दोष नहीं है। शरीर के लिए जब जिस वस्तु की जरूरत होगी, वह पास ही तुम्हें मिल जायेगी। रोग होने पर सेवा करने वाले आदमी भी पास ही मिलेंगे।
             " जनक , व्यास, वशिष्ठ ने ज्ञानलाभ करके , निश्चिन्त होकर और बहुत धैर्य के साथ संसार-धर्म या प्रवृत्ति-धर्म का पालन किया था।  ये दो तलवारें चलाते थे।  एक ज्ञान की और दूसरी कर्म की।
       विजय - ब्रह्म अगर माँ हैं,  तो वे साकार हैं या निराकार ?
      श्रीरामकृष्ण - जो ब्रह्म हैं , वही माँ काली भी हैं। .. उनके सम्बन्ध जोर देकर ऐसा न कहना कि वे यह हो सकते हैं, और यह नहीं।  ... जब तक 'मैं ' है तब तक ईश्वर साकार रूप में ही मिलते हैं ! इसलिये जब तक 'मैं ' है,  भेद-बुद्धि है,  तब तक ब्रह्म निर्गुण है,  यह कहने का अधिकार नहीं।  तब तक सगुण ब्रह्म ही मानना होगा। इसी सगुण ब्रह्म को वेदों , पुराणों और तन्त्रों में काली या आद्याशक्ति कहा गया है।  २/५०७    
      
         
Appendix B -'A Letter '  'अलमोड़ा का आकर्षण' (Magic of Almora ) ~  से सम्बन्धित श्री अश्विनी कुमार दत्त द्वारा श्री 'म '  को लिखित ' एक पत्र ' ~   ' A Letter'
              मेरे प्रिय भाई 'एम',

                                    तुम्हारा भेजा हुआ श्री रामकृष्ण वचनामृत का चौथा भाग मुझे तीन दिन पहले मुझे प्राप्त हुआ था, और आज ही मैंने इसे पढ़कर समाप्त किया है। वास्तव में तुम धन्य हो। तुमने   तो मानो पूरे देश में ही सर्वत्र स्वर्गिक अमृत की वर्षा कर दी है। बहुत समय पहले तुमने इच्छा व्यक्त की थी कि  श्रीरामकृष्ण देव के साथ हुए मेरे वार्तालाप को मैं भी कागज पर उतारूँ। इसलिये तुम्हें उस सम्बन्ध में कुछ वार्तालाप लिखने की चेष्टा कर रहा हूँ।   मुझे कुछ श्री 'म ' की तरह भाग्य तो मिला नहीं कि उन श्रीचरणों के दर्शन का दिन , तारीख , मुहूर्त और उनके श्रीमुख से निकली हुई सब बातें बिल्कुल ठीक ठीक लिख रखता ; जहाँ तक मुझे याद है  लिख रहा हूँ।  सम्भव है एक दिन की बात को दूसरे दिन की कहकर लिख डालूँ। और बहुत सी बातें तो भूल ही गया हूँ।  
              ....... सम्भवतया 1881 की पूजा की छुट्टियों के समय , पहले पहल मुझे श्री रामकृष्ण के दर्शन हुए थे।   मैं एक नाव में दक्षिणेश्वर पहुंचा और घाट की सीढ़ियों पर चढ़कर किसी से पूछा - परमहंस जी कहां रहते हैं? उस व्यक्ति ने श्री रामकृष्ण देव के कमरे के उत्तरी बरामदे की ओर इंगित करते हुए कहा, वहाँ एक परमहंस रहते हैं। वे एक चौकी पर रखे गोल लम्बे तकिये से टिक कर बैठे हुए थे। उनके काले पाढ़ की धोती, और गोल तकिये की ओर देखकर मैंने मन में सोंचा -'ये किस तरह के परमहंस हैं ?' ... उनके दाईं ओर, तकिए के पास, एक सज्जन बैठे थे, जिनका नाम मुझे बाद में पता चला, राजेंद्र लाल मित्रा थे, जो बंगाल सरकार के 'Assistant Secretary' पद पर थे। थोड़ी दूर पर कुछ और लोग बैठे थे।
               कुछ क्षणों के बाद गुरुदेव ने राजेंद्र बाबू से कहा, "जरा देखो तो सही , केशव आया है या नहीं?" स्पष्ट तौर से यह समझा जा सकता था, कि उस दिन केशव सेन भी आने वाले थे। एक व्यक्ति दरवाजे के थोड़ा बाहर तक गया और लौट कर बताया कि, 'जी नहीं-वे अभी तक नहीं पहुँचे हैं।' थोड़े देर बाद बाहर से कोई आहट सुनकर उन्होंने कहा -'एक बार और बाहर जाकर देखो तो। ' फिर से कोई व्यक्ति बाहर गया और उसी प्रकार वापस लौट कर वही उत्तर दिया। तब राधा-कृष्ण प्रेम की उपमा देकर श्रीरामकृष्ण ने सहास्य कहा - " बाहर की पत्तों की खड़खड़ाहट को सुनकर राधा कहती हैं - ' पत्तों की जरा सी आहट होती है, तो दिल सोचता है- ... कहीं ये 'वो' (Sweetheart : प्रियतम -माखनचोर-नवनीहरण) तो नहीं ....??' बात को दुबारा प्रारम्भ करते हुए उन्होंने कहा - " तुम देख सकते हो कि केशव हर समय मुझे इसी प्रकार से कष्ट पहुँचाता है। यह उसका अपना तरीका है।  
       ...कुछ देर बाद संध्या हो ही रही थी कि दलबल -समेत केशव आ गये  । केशब ने अपने सिर को भूमि से छुलाते हुए गुरुदेव को प्रणाम किया। और ठीक उसी अंदाज में गुरुदेव ने भी अपना अभिवादन लौटाया। कुछ समय के बाद श्री रामकृष्ण अर्ध-बाह्य दशा में कहने लगे , " देखो तो , इसने  कलकत्ते की पूरी भीड़ ही एकत्रित कर ली है, मानो उनके समक्ष मैं कोई भाषण देने वाला हूँ। जबकि, मैं ऐसा कुछ भी नहीं करने जा रहा। यदि तुम्हारी इच्छा है, तो तुम स्वयं भाषण दे सकते हो। मैं भाषण देने जैसा कोई काम नहीं करूँगा। भाषण देना मेरा काम नहीं है।" अभी भी भावविभोर मनोदशा बनी हुई है, फिर उन्होंने एक दिव्य मुस्कान के साथ कहा- " मैं तो खा-पीकर आनन्द-मगन रहूँगा। मैं क्रीड़न-खेल करूँगा और सोऊँगा। किन्तु मैं भाषण नहीं दे सकता।"
         केशवबाबू देख रहे हैं और श्रीरामकृष्ण  दिव्य-आवेश से अभिभूत हो रहे हैं ।   और भावावेश में जब तब 'ऍह ऍह ' कर रहे हैं।  [ Every now and then he said, "Ah me! Ah me!"]  श्री रामकृष्णदेव की उस अवस्था को देखकर मैं सोच रहा था - 'यह ढोंग तो नहीं है ? ऐसा तो मैंने और कभी देखा ही नहीं। ' और मैं जैसा विश्वासी हूँ , यह तो आप जानते हैं। 
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              आइये  श्रीरामकृष्ण वचनामृत के दूसरे लेखक तथा कांग्रेसी देशभक्त अश्विनीकुमार के अविश्वास या श्रद्धा में कमी के कारण को समझने के लिये, उनके मित्र और श्रीरामकृष्ण वचनामृत के प्रथम लेखक श्री 'म' के श्रद्धा में कमी के कारण को समझते हैं ~वचनामृत 9 दिसंबर, 1883' में श्री 'म' स्वयं लिखते हैं - यद्यपि ' म ' पिछले दो वर्षों से श्री रामकृष्ण से मिलने आ रहे थे, लेकिन चूँकि उनकी शिक्षा-दीक्षा अंग्रेजी (पाश्चात्य) शिक्षा -पद्धति में हुई थी , इसीलिये पाश्चात्य तर्क-शास्त्र विद्या (Western  Philosophy) और विज्ञान के प्रति विशेष -लगाव पैदा हो गया था। इसीलिये भारतीय संस्कृति के गुरुदेव को अपना इष्टदेव स्वरुप समझ कर गुरु-मूर्तिपूजा (नेता /गुरु में परब्रह्म दर्शन करने वाली  Indian Philosophy) के विरुद्ध भाषण देने वाले केशव सेन तथा दूसरे ब्राह्म लोगों की भाषणों को सुनना अधिक पसन्द करते थे। इसीलिये श्रीरामकृष्ण उनको समय समय पर 'अंग्रेज ' (Englishman) भी कह देते थे ! 
( M. had been visiting Sri Ramakrishna for the past two years. Since he had been educated along English lines, he had acquired a fondness for Western philosophy and science, and had liked to hear Keshab and other scholars lecture. Sri Ramakrishna would address him now and then as the "Englishman".)
                    " भक्तियोग और ब्रह्मज्ञान "  [पहले ईश्वर (माँ जगतजननी) हैं , फिर जगत] : बुधवार, 2 जनवरी, 1884 : श्रीरामकृष्ण अपने कमरे में बैठे हुए हैं। रात के आठ बजे होंगे। कमरे में राखाल औमणि हैं .... श्री 'म'  को श्री रामकृष्ण के साथ रहते हुए आज इक्कीसवाँ दिन है -श्रीरामकृष्ण ने मणि को तर्क-विचार करने से मना किया है।  (The Master had forbidden him to indulge in reasoning.)   
"You are my very own, my relative; otherwise, why should you come here so frequently?]
        श्री रामकृष्ण -" बहुत ज्यादा तर्क-विचार करना अच्छा नहीं -' It is not good to reason too much.'   पहले ईश्वर (माँ जगतजननी) हैं , फिर जगत। उन्हें पा लेने पर उनके जगत के सम्बन्ध में भी ज्ञान हो जाता है। इसीलिए तो देवर्षि नारद ने वाल्मीकि को 'मरा' ('mara') जपने के लिये उपदेश दिया था।
     इसका एक विशेष अर्थ है।  'मा' का अर्थ है माँ जगदम्बा, और 'रा' का अर्थ है जगत - पहले ईश्वर (जगतजननी-रामोकृष्णो) , फिर जगत। (First comes God, and then the world. 'mara'. 'Ma' means God, and 'ra' the world)
        " कृष्णकिशोर ने कहा था , 'मरा -मरा '  शुद्ध मन्त्र है , क्योंकि वह देवर्षि नारद का दिया हुआ है। 'म' अर्थात ईश्वर (माँ भगवती) और 'रा '  अर्थात संसार।         
       " इसलिये वाल्मीकि की तरह पहले सब कुछ छोड़कर निर्जन में व्याकुल हो रो-रोकर ईश्वर को पुकारना चाहिये। [ निर्जन का अर्थ है - बड़ादिन की छुट्टियों में प्रतिवर्ष 25 से 30 दिसम्बर तक 6 दिनों  जगत की  आसक्ति को छोड़कर तक 'महामण्डल ऐनुअल कैम्प ' में व्याकुल हो रो-रोकर ईश्वर (माँ भगवती या अपरिवर्तनीय परम सत्य) को पुकारना चाहिये। ] पहले आवश्यक है ईश्वर-दर्शन (विवेकानन्द -दर्शन की पद्धति मनःसंयोग सीखना ); उसके बाद है--शास्त्र और जगत के विषय में तर्क-विचार, नित्य और लीला या सत्य-असत्य-मिथ्या विचार। 
              " इसीलिये तुमसे कहता हूँ ,  अब और अधिक तर्क-विचार न करना। यही बात कहने के लिये मैं झाउतल्ले ? से उठकर आया हूँ। ज्यादा तर्कविचार करने पर अन्त हानि होती है। अन्त में हाजरा की तरह हो जाओगे। मैं (कैम्प में ?) रात में अकेला रास्ते पर रो-रोकर टहलता और माँ को पुकारता था - " माँ , तुम अपने वज्र से ( thunderbolt :निःस्वार्थपरता) से मेरी तर्क-शक्ति  को विश्वास में बदल दो।  ( ....I used to roam at night in the streets, all alone, and cry to the Divine Mother, 'O Mother, blight with Thy thunderbolt my desire to reason!) -वादा करो , अब तर्क-विचार न करोगे ?
M- जी नहीं, अब और (आपकी कृपा के विषय में) कोई तर्क-विचार नहीं करूँगा।
             श्रीरामकृष्ण : भक्ति (लीला पर विश्वास ) से ही सब कुछ प्राप्त होता है।  जो लोग ब्रह्मज्ञान चाहते हैं , यदि वे भक्ति का मार्ग पकड़े रहें, तो उन्हें ब्रह्मज्ञान भी हो जाता है। उनकी कृपा रहने पर क्या कभी ज्ञान का अभाव भी हो सकता है ?.... माँ ही ज्ञान की राशि  (16-जनवरी सरस्वतीपूजा -Bh विषय में) पूरी करती जाती है।
        " उन्हें प्राप्त कर लेने पण्डितगण (गेरुआ टाई -कोट वाले बड़े लोग) सब घास पात की तरह जान पड़ते हैं। भक्ति के द्वारा सब मिलते हैं।  उन्हें प्यार करने पर (माँ सारदा का पुत्र बन जाने पर) फिर किसी चीज का अभाव नहीं रह जाता। माता भगवती के पास कार्तिक और गणेश बैठे हुए थे।  माँ पार्वती के गले में मणियों माला पड़ी थी। माता ने कहा , जो पहले इस ब्रह्माण्ड की परिक्रमा करके आ जायेगा , उसी को यह माला दे दूँगी। (निवृत्ति बिजन-पण्डा को चपरास ?) कार्तिक उसी समय फौरन ही मयूर पर चढ़कर चल दिये। (कार्तिक मयूर पर चढ़कर बाह्य-प्रकृति में सत्य की खोज या ब्रह्माण्ड की परिक्रमा करने चले ?) और गणेश ने धीरे -धीरे माता की परिक्रमा कर उन्हें प्रणाम किया। गणेश जानते थे , माँ जगदम्बा  के भीतर ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड है। माँ ने प्रसन्न होकर गणेश को हार पहना दिया। बड़ी देर बाद कार्तिक ने आकर देखा कि 'उनके दादा' हार (चपरास) पहने हुए बैठे हैं।
               " मैंने माँ से रो -रोकर कहा था , ' माँ ! वेद-वेदान्त में क्या है , मुझे बता दो , -पुराणों -तंत्रों में क्या है , मुझे बता दो। माँ ने मुझे सब कुछ बता दिया है - कितनी बातें साक्षात् दिखला दी हैं !  "Yes, She has taught me everything. Oh, how many things She has shown me!         
           "सच्चिदानन्द गुरु को रोज प्रातःकाल पुकारते हो न ? [अर्थात विवेकानन्द -दर्शन का अभ्यास मनःसंयोग रोज सुबह में करते हो न ?] मणि - जी हाँ !
        श्रीरामकृष्ण - " गुरु कर्णधार हैं ! ( " विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर 'Be and Make '  वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित नेता  नवनीदा ही कर्णधार हैं ! )   फिर देखा, 'मैं ' एक अलग हूँ , 'तुम ' एक अलग। फिर कूदा और मछली बन गया। देखा कि सच्चिदानन्द -समुद्र में आनन्दपूर्वक विचर रहा हूँ। ... दूसरे दिन दिखाया कि नर-मुण्डों की राशि लगी हुई है ! -पर्वताकार -और कहीं कुछ नहीं है ! उनके बीच में मैं अकेला बैठा हुआ हूँ । और एक बार दिखाया , महासमुद्र में 'नमक का पुतला' होकर मैं उसकी थाह लेने जा रहा हूँ ! थाह लेते समय श्रीगुरु की कृपा से पत्थर बन गया ! देखा, एक जहाज आ रहा है, बस उमड़ पड़ा! -श्रीगुरुदेव कर्णधार थे। "
        " ये सब बड़ी ही गुह्य कथायें हैं। तर्क-विचार करने से क्या होगा ?वे जब दिखा देते हैं, तब सब प्राप्त होता है, किसी वस्तु का अभाव नहीं रहता। "...(व्यष्टि अहं के विराट अहं में रूपांतरण के बाद ) इस स्थिति में प्रकृति भाव होता है; अपने को पुरुष मानने की  बुद्धि नहीं रहती         
             " मीराबाई के स्त्री होने के कारण रूप गोस्वामी  जी उनसे मिलना नहीं चाहते थे। Mira inquired.सन्त मीराबाई समझ गयीं - वाह महाराज अभी तक स्त्री-पुरुष (M/F) में ही उलझे हैं, अर्थात समदृष्टि नहीं हुए हैं।  मीराबाई ने कहला भेजा , " श्रीकृष्ण (अवतार) ही एकमात्र पुरुष हैं, वृन्दावन में सभी लोग उस पुरुष की दासियाँ (handmaid) हैं।  ' क्या गोस्वामीजी को 'पुरुष-पन' का अभिमान करना उचित था ? " 'Was it right of Sanatana to think of himself as a man?'  वचनामृत २/८ 
     
                OPEN EYED MEDITATION : श्री 'म'  को श्री रामकृष्ण के साथ रहते हुए आज 23 वां दिन है आज शनिवार है -5 जनवरी 1884 :  श्री रामकृष्ण दक्षिण के बरामदे में M ' से वार्तालाप कर रहे हैं -
           श्री रामकृष्ण - " तुम लोग किस तरह ध्यान करते हो ? [ऑंखें मूँदकर या खोलकर ?] --मैं तो बेल के पेड़ के नीचे कितने ही रूप साफ साफ देखता था। ' One day I saw in front of me money, a shawl, a tray of sandesh, and two women.' एक दिन देखा, सामने रूपये,  दुशाला , सन्देश की एक थाल, और दो औरतें !  तब मैंने मन (अहं) से पूछा , मन ! तू इनमें से कुछ चाहता है? -फिर सन्देशों को देखा , विष्ठा है।
       [याद हो आया  9th क्लास 'झाजी सर'  ~ कबीर ने शरीर को ‘विष की बेल’ क्यों कहा है? 'यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान, शीश दिए जो गुरु मिले तो भी सस्ता जान ।' क्योंकि इस बेल रूपी तन में रसगुल्ला भी डालो - सबेरे विष्ठा , फिर उसी शरीर पर विषय- वासनाओं के फल लगते हैं। गुरु अमृत की खान है जो अमृत रूपी ज्ञान से इन विषय वासना रूपी विकारों से आपको दूर करेंगे और उस परम सत्य (अविनाशी  ईश्वर) के दर्शन कराएंगे, जिसको देखकर एथेन्स का सत्यार्थी-देवकुलीश अँधा हो गया था ।]   
         औरतों में एक (अविद्या ) नाक में बुलाक पहने हुई थी। (विवेक-दृष्टि से बुलकनि रोड) उनका भीतर बाहर सब मुझे  दीख पड़ता था--आतें, मलमूत्र , हाड़ -मांस , खून ! मन ने - रुपया , शॉल, मिठाई या औरतें  में से किसी को भी नहीं चाहा। 'It remained fixed at the Lotus Feet of God. ' मन माँ काली के पाद-पद्मों में लगा रहा। "
    " काँटे वाला तराजू में नीचे भी काँटा होता है, और ऊपर भी। मन नीचे वाला काँटा है। मुझे सदा ही भय लगा रहता था कि कहीं ऐसा न हो कि उपरवाले काँटें से (माँ काली के अवतार से ) मन विमुख हो जाये। तिस पर एक आदमी सदा ही हाथ में त्रिशूल लिये मेरे पास बैठा रहता था। उसने डराया , कहा - " नीचे वाला काँटा उपरवाले काँटे से (माँ काली के अवतार वरिष्ठ के नाम-रूप से ) इधर-उधर झुका नहीं कि यही त्रिशूल भोंक दूँगा
          God alone is the Doer: "जिसने एक बार यह समझ लिया कि ईश्वर (माँ जगदम्बा) ही कर्ता हैं और जीव अकर्ता , 'उसका' पैर कभी बेताल नहीं पड़ सकता । [ वह कोई भी कार्य पौरुष के साथ करता है। इंग्लिशमैन (whose ways and thoughts were largely influenced by Western ideas. ) जिसे स्वाधीन इच्छा  (Free Will ) कहते हैं , वह उन्होंने ही दे रखी हैं।  [free will theory : ' संकल्प-ग्रहण स्वातंत्र्य सिद्धांत ' को भारत में श्रेय-प्रेय विवेक-प्रयोग के बाद 'श्रेय पथ' पर चलने का संकल्प लेना है। जिसको महामण्डल में 'autosuggestion' स्व-सम्मोहन कहा जाता है। ' मुक्ताभिमानी मुक्तो हि बद्धो बद्धाभिमान्यपि। किवदन्तीह सत्येयं या मतिः सा गतिर्भवेत्अष्टावक्रगीता -१ /११॥ स्वयं को मुक्त मानने वाला मुक्त ही है और बद्ध मानने वाला बंधा हुआ ही है, यह कहावत सत्य ही है कि जैसी बुद्धि होती है वैसी ही गति होती है॥ If you think you are free you are free. If you think you are bound you are bound. It is rightly said: You become what you think.॥11॥ जिन्होंने ईश्वरलाभ कर लिया है,  जानते हैं कि स्वाधीन इच्छा नाममात्र की है , वे ड्राइवर हैं,  मैं गाड़ी हूँ !  
           दिव्य भावावेश (ecstatic mood) ~अर्थात 'autosuggestion' का परिणाम : ' संकल्प-ग्रहण स्वातंत्र्य सिद्धांत ' ही हृदय (3rd 'H') को पूर्ण विकसित करने का अभ्यास है ! श्री रामकृष्ण भावावेश (ecstatic mood) में गा रहे हैं - " ऐ सखी , कृष्ण का नाम सुनकर मेरे जी में जी आ गया।" श्रीरामकृष्ण ने कहा - " (निर्जन या कैम्प में) सदैव शास्त्रीय -भक्ति संगीत (फ़िल्मी धुन में भजन भी नहीं) ही गाना /  सुनना चाहिये। मुख्य बात यही है कि भगवान से प्रेम करना और सदैव भक्तों की संगति में ही रहना चाहिये।  इसके अलावा यहाँ और क्या है? ' (Always sing devotional songs. To love God and live in the company of the devotees: that is all. What more is there?) 
              " श्रीकृष्ण के मथुरा जाने पर यशोदा राधिका के पास गयीं थीं। राधिका उस समय ध्यान में थीं। [अर्थात श्रीकृष्ण को मन से हटाने का प्रयास कर रही थीं ,पर कृष्ण निकल नहीं रहे थे ?] फिर उन्होंने यशोदा से कहा -" मैं आदिशक्ति (Primordial Energy-मूल ऊर्जा ?) हूँ ! तुम मुझसे वर माँगों। यशोदा ने कहा और वर क्या दोगी , --बस यही कहो (आशीर्वचन कहो) जिससे मन, वचन और कर्मों से उनकी सेवा कर सकूँ -इन आँखों से उनके भक्तों के ही दर्शन हों। इस मन से उनका ध्यान और उनका चिन्तन हो और वाणी से उनके नाम और गुणों का कीर्तन हो।
              " परन्तु जिनकी भक्ति दृढ़ हो गयी है , उनके लिये भक्तों का संग न होने पर भी कुछ हर्ज नहीं है। जिनको भीतर-बाहर सदैव ईश्वर के ही दर्शन होते हैं - उन्हें तो कभी कभी भक्तों से भी विरक्ति हो जाती है। जैसे मुक्ता जड़ित दीवाल पर चूना का पोचाड़ा नहीं टिकता है ! अर्थात जिनके अन्तर -बाहर सर्वत्र 'वे' ही हैं, उन्हीं की यह अवस्था है।  
          बाबूराम (বাবুরাম মহারাজ/कैम्पर - Swami Premananda , जिनकी माता ने बड़े दिन के अवसर पर सभी गुरुभाइयों को आटपुर आने का निमंत्रण दिया था । )  की ओर इशारा करते हुए, मणि से कहते हैं - " देखो, जो मेरे अपने आदमी थे वे अब परदेशी (strangers) प्रतीत होते हैं; --रामलाल तथा और सब लोग को देखने से लगता जैसे कोई परदेशी  हों। और जो परदेशी (foreigners) हैं वे मेरे अपने बन गए हैं। देखो न , बाबूराम से कहता हूँ , hurry up ! hurry up !  दिशा-मैदान जा , हाथ-मुँह धो। अब तो भक्त लोग ही अपने आत्मीय 'relatives'  हैं। (माँ काली के अवतार के भक्तगण-  (पंचवटी की ओर इशारा करके) मैं इसी पंचवटी में जाकर बैठ जाता था --ऐसा भी समय आया कि मुझे उन्माद हो गया ! वह समय भी बीत गया। ( "You see, my own people have become strangers; Ramlal and my other relatives seem to be foreigners. And strangers have become my own. Don't you notice how I tell Baburam to go and wash his face? The devotees have become relatives.)  
             काली कौन हैं ? -- ( Kala, Siva, is Brahman. That which sports with Kala is Kali, the Primal Energy. Kali moves even the Immutable. काल  ही ब्रह्म है। जो काल (Siva-शिवजी ) के साथ रमण करती है, वही काली है-आद्याशक्ति (the Primal Energy-pure consciousness) अटल को टाल सकती है। [ जो काल के साथ क्रीड़ा (sports -रमण) करती है, वही काली है -आद्याशक्ति; जो  अचल (Immutable-जड़ पदार्थ या matter ) को भी संचालित कर देती हैं,  moves-जड़ मन को चैतन्यता (reflected consciousness ) प्रदान करती है, मन को विवेक-प्रयोग शक्ति प्रदान करती है ; और अटल को टाल देती है ? ] श्री रामकृष्ण गाने लगे ~  { विश्वास चाहिये ---गुरुवाक्य (4 महावाक्य) में विश्वास ---बालक जैसा विश्वास ! One needs faith — faith in the words of the guru, childlike faith.  गुरुमुख से सुना हुआ अवतार का बीजसंयुक्त नाम -Her very name removes The fear of Kala, ) माँ जगदम्बा के रहस्य पर मनन करने से - मेरा मन आश्चर्य से अभिभूत है, माँ काली का नाम काल के भय को दूर कर देता है,  महा-काल - स्वयं मृत्यु, उनके चरणों के नीचे पड़े हैं !" फिर उन्होंने M से कहा: "आज शनिवार है,आज काली मंदि जाना ।" (^ मंगलवार और शनिवार माँ जगदम्बा की पूजा के लिए शुभ दिन माना जाता है।)
                जैसे ही लौटकर M बकुल के पेड़ के नीचे खड़े ठाकुर के निकट पहुँचे , उन्होंने फिर से कहा - " चिदात्मा और चित-शक्ति। चिदात्मा (अवतार-वरिष्ठ ) पुरुष हैं और चित -शक्ति (उनकी शक्ति माँ श्री श्री सारदा देवी ) प्रकृति। चिदात्मा श्रीकृष्ण हैं और चित-शक्ति हैं जगत-जननी श्रीराधा। भक्तगण (स्त्री-पुरुष) उसी चित-शक्ति के एक-एक स्वरुप हैं। भक्त लोग सखी-भाव या दास- भाव को लेकर रहेंगे। यही असली बात है। [ एक ही शक्ति के दो रूप है - राधा और माधव (श्रीकृष्ण) तथा ये रहस्य स्वयं श्री कृष्ण द्वारा राधा रानी को बताया गया है। अर्थात राधा ही कृष्ण हैं और कृष्ण ही राधा हैं।  यही 'ज्ञान के बाद विज्ञान' सूत्र का मूल रहस्य है
[The devotees are so many forms of the Chitsakti. They should think of themselves as companions or handmaids of the Chitsakti, Sri Radha.  You don't whitewash a wall inlaid with mother of pearl — the lime won't stick.   
               भक्तों के लिये माँ के पास रो रहे हैं -" Mother, may those who come to You have all their desires fulfilled! But please don't make them give up everything at once, Mother. " माँ , तुम्हारे पास जो लोग आते हैं , उनकी सभी इच्छाएँ  पूर्ण हो जायें । लेकिन माँ , इतनी कड़ाई भी मत करना कि उन्हें अपनी समस्त प्रवृत्तियों को एक झटके में छोड़ना पड़े।  अच्छा , अन्त में जैसा तुम्हें समझ पड़े करना ! ... परन्तु कहने से तू सुनेगी काहे को ? --तू इच्छामयी जो है। "
           " माँ , मेरे भक्तों को (~ अर्थात रिलेटिव्स को ) अगर संसार में रखना तो एक एक बार बार दर्शन देना। नहीं तो कैसे रहेंगे? एक एक बार दर्शन दिए बिना उत्साह कैसे होगा ? --इसके बाद अन्त में चाहे जो करना। " श्रीरामकृष्ण अब भी भावावेश में हैं। ... उसी अवस्था में एकाएक M से कह रहे हैं -" देखो इधर , तुम्हारे पास युक्ति-तर्क क्षमता बहुत थी , Bh से कैसे मिले ? इस पर बहुत विचार कर लिया ; अब बस करो ! वादा करो , अब तो विचार नहीं करोगे ? " No more of 'it' . Promise that you won't reason any more." M-हाथ जोड़ कर कह रहे हैं - 'जी नहीं अब नहीं करूँगा। "
          श्रीरामकृष्ण - .... -बहुत हो चुका ! --तुम्हारे आते ही तो मैंने तुम्हारा आध्यात्मिक ध्येय तुम्हें बतला दिया था।  I know everything about you, do I not?" तुम्हारे बारे में क्या मैं सब कुछ नहीं जानता?  (26 -12 -1987 बेलघड़िया कैम्प में -  'त्वेमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि। त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि। ऋतं वदिष्यामि। सत्यं वदिष्यामि।' नहीं कहा था ?)
M -(हाथ जोड़कर) : जी, हाँ। 
श्रीरामकृष्ण : " हाँ , तुम्हारे अन्दर और बाहर , तुम्हारे बीते जीवन की बातें, और आगे तुम्हारा क्या होगा , तुम कौन हो , तुम्हारा आदर्श क्या है --यह सब क्या मैं नहीं जानता ?
M- (हाथ जोड़कर) : जी, हाँ। 
श्री रामकृष्ण : " तुम्हारे लड़के हुए हैं, सुनकर तुम्हें फटकारा था ---अब जाकर घर में रहो !  Let them know that you belong to them. --उन्हें अभिनय में दिखाना कि तुम उनके अपने आदमी हो, परन्तु भीतर से समझे रहना , तुम भी उनके अपने नहीं हो, और वे भी तुम्हारे अपने नहीं है।" M चुपचाप बैठे हैं,  श्री रामकृष्ण फिर कहने लगे- " अब तुमने उड़ना सीख लिया है।  (देह-मन के अध्यास से भ्रममुक्त हो गए हो) तो भी घर-परिवार के सभी सदस्यों के साथ वात्सल्य-पूर्ण सम्बन्ध (loving relationship) रखना। उन्हें सन्तुष्ट रखना।
" तुम्हें और ज्यादा क्या कहूँ ? तुम तो सब जानते हो।  सब समझते हो - समझते हो न भाई ? (M चुपचाप बैठे हैं।)  श्री रामकृष्ण : सब समझ गये हो न ?
M- जी हां, कुछ कुछ समझा है।
श्री रामकृष्ण : "  नहीं,तुम्हारी समझ बहुत कुछ आता है। राखाल यहाँ है,  इससे उसके पिता  सन्तोष है। "M हाथ जोड़े चुपचाप बैठे हैं। श्रीरामकृष्ण फिर कह रहे हैं - " तुम जो कुछ सोच रहे हो, .... Bh त्याग ---वह भी सम्भव  जायेगा।
श्री रामकृष्ण भावावेश से अब अपनी साधारण दशा में आ गये हैं ! ....
आज शनिवार है :Saturday, February 2, 1884 " श्रीरामकृष्ण फिर से भावाविष्ट हो गये।  भावावेश में ही कह रहे हैं - 'ॐ,ॐ,ॐ -माँ मैं क्या कह रहा हूँ ! माँ,मुझे ब्रह्मज्ञान देकर बेहोश न करना। मैं तेरा बच्चा जो हूँ ! --डरता हूँ -मुझे माँ चाहिये। -ब्रह्मज्ञान  को मेरा कोटि कोटि नमस्कार ! वह जिसे देना हो, उसे दो। आनन्दमयी ! -आनन्दमयी ! ...."मैं महिमाचरण चक्रवर्ती हूँ , मैं विद्वान् हूँ ! इसी 'मैं ' का त्याग करना होगा। विद्या के 'मैं ' में दोष नहीं है।  शंकराचार्य ने लोगों को  शिक्षा देने के लिए विद्या का 'मैं ' रखा था।
           " स्त्रियों के सम्बन्ध में खूब सावधान रहे बिना ब्रह्मज्ञान नहीं होता ; इसीलिये गृहस्थी में उसकी प्राप्ति कठिन बात है। चाहे जितने बुद्धिमान क्यों न बनो काजल की कोठरी में रहने से स्याही दाग जरूर लग जाएगी। युवतियों के साथ निष्काम मन में भी कामना की उत्पत्ति हो सकती  है। " इसीलिये गृहस्थों की अपेक्षा संन्यासियों के लिये कठोर नियम हैं !
         'राम के मकान में ' - शनिवार  23 मई 1885 : [ AT RAM'S HOUSE ( The Gospel of Sri Ramakrishna / Volume 2 ) Saturday, May 25, 1885 ?]   के प्रसंग में इस प्रकार से किया  है .....
        श्रीरामकृष्ण राम के यहाँ आये हुए हैं। उनके नीचे के बैठकखाने में भक्तों के साथ बैठे हुए हैं।  मुख पर प्रसन्नता झलक रही है। आनन्दपूर्वक भक्तों से बातचीत कर रहे हैं। ..... कीर्तन हो रहा है। खोल की आवाज से श्रीरामकृष्ण को भावावेश हो रहा है। गौरचन्द्रिका सुनते सुनते वे समाधिमग्न हो गये।  .... कुछ प्रकृतिस्थ होकर श्रीरामकृष्ण वार्तालाप करने लगे।  "नित्य से लीला और लीला से नित्य।  नृत्यगोपाल से पूछते हैं-  तुम्हारा आदर्श (ideal) क्या है ? " NITYAGOPAL: "दोनों अच्छे हैं।                
               श्री रामकृष्ण ऑंखें बन्द करके कह रहे हैं : " क्या केवल इस तरह ही रहना है ? क्या ऑंखें बन्द कर लेने पर वे हैं, और ऑंखें खोलने पर वे नहीं हैं ? जिनकी नित्यता है, लीला भी उन्हीं की है। जिनकी लीला है, उन्हीं की नित्यता है।
              " कोई ऊपर चढ़कर फिर उतर नहीं सकता, और कोई ऊपर चढ़कर, फिर नीचे उतरकर घूम-फिर सकता है। उद्धव ने गोपियों से कहा था , तुम जिन्हें अपना कृष्ण बना रही हो, वे सर्वभूतों में हैं , वे ही जीव-जगत हुए हैं।
               " इसलिये कहता हूँ, क्या ऑंखें बंद करने से ही ध्यान होता -है और ऑंखें खोलने से कुछ नहीं ? क्या ऑंखें खोलने ही से वे गायब हो जाते हैं ? मैं 'नित्य' और 'लीला' दोनों को स्वीकार करता हूँ। न्हें प्राप्त करने पर यह समझ में आ जाता है कि वे ही स्वराट हैं और वे ही विराट हैं। वे ही अखण्ड सच्चिदानन्द हैं और वे ही जीव-जगत हुए हैं। "
            " जिस भक्त में विष्णु का अंश रहता है, उसमें भक्ति का बीज नष्ट नहीं होता।  मैं एक ज्ञानी (न्यांगटा) के पंजे में फंस गया, उसने ग्यारह महीने तक वेदान्त सुनाया। परन्तु वह मुझमें भक्ति का बीज बिल्कुल नष्ट नहीं कर सका। घूम-फिरकर वही 'माँ -माँ ' ! ... भक्ति का बीज अगर एक बार पड़ गया , तो क्रमशः उससे पेड़ और फूल-फल होते ही हैं ! चाहे लाख ज्ञान और विचार करो, भक्ति का बीज अगर भीतर रहा , घूमफिरकर वही 'भज राम -- भज सीताराम ! '
Rama and Lakshmana wanted to go to Ceylon. अपने अंतिम समय में 2015 में ही गाड़ी से सीलोन जाने की कहानी कहते थे तब शुभाशीष दा और प्रमोद दा भी उनके मानसिक सन्तुलन पर शंका व्यक्त करते थे। किन्तु माँ की कृपा से मुझे उनके अंतिम जमशेदपुर कैम्प में भी एक क्षण के लिये  उनके ' कैप्टन सेवियर ' का अवतार होने शंका नहीं हुई !}  
            सामने सागर देखकर लक्ष्मण ने धनुष लेकर कहा था , "मैं वरुण का वध कर दूँगा। यह समुद्र ही हमें लंका नहीं जाने दे रहा है। राम ने समझाया , तुम जगत को स्वप्नवत अनित्य बतलाते हो न ? - अतएव समुद्र भी अनित्य है, और तुम्हारा क्रोध भी अनित्य है। मिथ्या के द्वारा मिथ्या को मारना भी मिथ्या है। " 3 /175)
          एक भक्त - महाराज संसारियों के लिए क्या उपाय है ? श्री रामकृष्ण : " साधुसंग (साप्ताहिक पाठ-चक्र) -ईश्वर की बातें सुनना। और सद्गुरु (गुरु-शिष्य वेदान्त परम्परा में प्रशिक्षित और चपरास प्राप्त नेता - 'नवनीदा') के पास उपदेश लेना चाहिए। सद्गुरु (नेता , आकाशदीप, प्रकाशस्तम्भ -beacon) के लक्षण होते हैं ! जो वाराणसी गया हो,  और काशी-विश्वनाथ का जिसने दर्शन किया हो,  उसी से वाराणसी की बातें सुननी चाहिये। जिसे 'नित्य-अनित्य-मिथ्या ' का विवेक नहीं हुआ ~ अर्थात जिसे यह बोध नहीं हुआ कि संसार असत्य नहीं है,  बल्कि अनित्य होने के कारण मिथ्या है, उससे उपदेश नहीं लेना चाहिये। फिर जिस चपरास प्राप्त नेता / जीवनमुक्त शिक्षक (नवनीदा) जैसा विवेक के साथ-साथ वैराग्य भी हो वही उपदेश दे सकता है ! [अर्थात जो व्यक्ति प्रवृत्ति से निवृत्ति में लौट चुका हो, या प्रयासरत भी हो ? वही लीडरशिप क्लास लेने योग्य होता है!]
       " समाध्यायी ने कहा था ,  ईश्वर (माँ सारदा ) नीरस हैं।  जो रसस्वरुप हैं,  उन्हीं को नीरस कहता था ! जैसे कोई यह कहे - 'मेरे मामा के यहाँ गौशाले में बहुत घोड़े हैं ! '  (सब हँसते हैं )
   ' संसारी (जो प्रवृत्ति से पुनः निवृत्ति में लौटने की इच्छा नहीं रखते ?) वे मतवाले हो रहे हैं। वे सदा सोचते हैं , मैं ही सब कर रहा हूँ , और घर-द्वार , यह सब मेरा है ! दाँत निकालकर कहता है, ' इनके लिए (पत्नी-पुत्र आदि के लिये ) फिर क्या होगा ? मैं न रहूँगा तो इनके दिन कैसे कटेंगे ? मेरी स्त्री और मेरे परिवार को कौन सँभालेगा ? राखाल ने भी कहा था -' मेरी स्त्री की फिर क्या दशा होगी ? 
  केवल पण्डित होने से नहीं होता। मैंने विद्यासागर को देखा है, निःसन्देह उसने बहुत अध्यन किया है, लेकिन उसके अपने हृदय में क्या है, उसकी अनुभूति उसे नहीं हुई है। छात्रों को निःशुल्क पढ़ाना -लिखाना ही वह आनन्द की बात समझता है। किन्तु ईश्वर के आनन्द , का स्वाद उसने अभीतक नहीं चखा है। केवल पढ़ने से क्या होगा ? सच्चिदानन्द की धारणा कहाँ है ? [Vidyasagar had no doubt read a great deal, he had not realized what was inside him; he was satisfied with helping boys get their education, but had not tasted the Bliss of God. Nitya and Lila —
            जिसे यह बोध नहीं हुआ कि यह संसार अनित्य (मिथ्या) है, तो वह उपदेश क्या देगा , और यदि लीला को स्वीकार नहीं करेगा तो उपदेश किसको देगा ? पण्डित (शिक्षक / नेता) में विवेक और वैराग्य रहने पर ही वह उपदेश दे सकता है। "जैसे किसी के पैर में एक काँटा लगा है। वह उस काँटे को निकालने के लिए एक और काँटा ले आता है। फिर उस काँटे से काँटा निकाल कर दोनों काँटे फेंक देता है। अज्ञान -काँटे को निकालने के लिये ज्ञान -काँटे की जरूरत होती है। फिर ज्ञान और अज्ञान दोनों काँटे फेंक देने पर - जो कुछ रह जाता है (माँ जगदम्बा के मातृहृदय का सर्वव्यापी विराट 'अहं ' बोध) वह विज्ञान  है ! ईश्वर है, इसका आभास मात्र लेकर उन्हें अच्छी तरह से जानना पड़ता है। और उनके साथ खास तौर से जो बातचीत की जाती है, वह विज्ञान (vijnana) है। इसीलिए श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा है, 'भाई, तीनो गुणों से पार हो जाओ। "
          " इस विज्ञान को प्राप्त करने के लिये 'विद्यामाया ' (माँ श्री सारदा देवी) को अपनाना पड़ता है।  ईश्वर सत्य हैं, संसार अनित्य है, यह विवेक-विचार (discrimination and renunciation ) है अर्थात विवेक और वैराग्य है। और उनके नामों और गुणों का कीर्तन , ध्यान , साधुसंग , प्रार्थना आदि 5 अभ्यास ये सब विद्यामाया के अन्दर हैं। विद्यामाया की तुलना छत के ऊपर चढ़ने की अंतिम कुछ सीढ़ियों से की जा सकती है। और बस एक सीढ़ी (Bh से ) उठने के बाद ही छत है।  Next is the roof, the realization of God. छत में उठने का अर्थ है- ईश्वरलाभ !
           " संसारी लोग ~ ' कामिनी -कांचन ' में आसक्त लोग ओलावृष्टि (hail) की चोट खाये हुए आम के सदृश होते हैं। यदि तुम उन आमों को ईश्वर को अर्पण करना चाहो तो, उन्हें गंगाजल से धोकर शुद्ध कर लेना पड़ता है। परन्तु फिर भी ऐसे फल बहुत कम पूजा में चढ़ाये जाते हैं। लेकिन यदि उन्हें चढ़ाना ही पड़े , तो तुम्हें 'ब्रह्मज्ञान (Brahmajnana) का प्रयोग' करना पड़ता है ! अर्थात तुम्हें पहले यह समझ लेना पड़ता है कि सब कुछ ईश्वर ही हुए हैं ! [ओला और आम (Bh -Bk ) दोनों ईश्वर ही बने हैं ?"
श्री अश्विनीकुमार दत्त तथा बिहारी भादुड़ी के पुत्र के साथ एक थिऑस्फ़िस्ट भी आये हुए हैं।   मुखर्जियों ने आकर श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया। आंगन में संकीर्तन का आयोजन हो रहा है। ज्योंही खोल बजा , श्रीरामकृष्ण घर छोड़कर आंगन में जा बैठे।  साथ ही साथ भक्तगण भी उठ गए।  भवनाथ अश्विनी का परिचय दे रहे हैं। ... नरेन्द्र भी आँगन में आये , श्रीरामकृष्ण अश्विनी से कह रहे हैं - ' इसी का नाम नरेन्द्र है।'   
      " 13 जून, 1885 का श्री रामकृष्ण वचनामृत " : जादूगर और उसका जादू (Magician and his magic ~बाजीगर और उसका इन्द्रजाल ~ ' जन्म और मृत्यु , यह सब इन्द्रजाल सा है। अभी है, अभी गायब ! ईश्वर ही सत्य हैं, और सब अनित्य । )   
        श्री रामकृष्ण : " कप्तान के साथ बातचीत चल रही थी। मैंने कहा - जगत में पुरुष (अवतार) और प्रकृति (शक्ति)  के सिवा अन्य किसी वस्तु का अस्तित्व नहीं हैं ! 'Nothing exists except Purusha and Prakriti.'  नारद ने कहा था , 'हे राम, जितने पुरुष (नेता/शिक्षक) देखते हो, सब में तुम्हारा अंश है, और जितनी स्त्रियाँ देखते हो , सब में सीता का अंश है। ....अभी तो तुमने कहा - जितने पुरुष देखते हो, सब 'पुरुष (अवतार) राम' के अंश से हुए अतएव राम हैं, और सब स्त्रियाँ सीता (प्रकृति) के अंश से हुईं अतएव सीता हैं। ... मैंने कहा , 'आपो नारायण ' water is God- अर्थात जल ईश्वर है। (बाढ़ आने पर) हमलोग सर्वत्र जल ही जल देखते हैं , परन्तु कोई जल पीया जाता है, किसी से बर्तन धोये जाते हैं, कोई शौच के काम आता है। यह जो तुम्हारी बीबी और लड़की बैठी हुई देख रहा हूँ, ये साक्षात् माँ आनन्दमयी की अवतार (embodiments)  हैं। कप्तान कहता है , आपकी जीवात्मा (Your embodied soul) शुद्ध चैतन्य के आकाश (चिदाकाश) में उड़ जाती है, इसीलिये आपको समाधि होती है।
            " पक्षी का घोंसला अगर कोई जला देता है, तो वह उड़ता फिरता है , आकाश में आश्रय लेता है। जिस समय कोई व्यक्ति यह साक्षात् अनुभव करता है कि देह और जगत मिथ्या हैं, (the body and the world are unreal- अर्थात पिण्ड और ब्रह्माण्ड मिथ्या हैं !) तब उसकी आत्मा (अहं नहीं) समाधिमग्न हो जाती है ! 3 /181 [If a man truly realizes that the body and the world are unreal, then his soul attains samadhi.]
          फिर कप्तान ने बंगालियों की धारणा -शक्ति पर आक्षेप करते हुए सहास्य कहा , " बंगाली कितने बेवकूफ हैं। उनके बंगाल  प्रान्त में ही मणि (श्री रामकृष्ण) है, लेकिन वे लोग अभीतक उन्हें पहचान नहीं सके हैं। [और न जाने कितने गृहस्थ ढोंगियों को अवतार मानकर उनकी पूजा करते हैं। 13 जून ,1885]  (Captain said: 'Your embodied soul flies into the akasa of Consciousness. Thus you go into samadhi.' (Smiling) "He criticized the Bengalis. He said: The Bengalis are fools. They have a gem (Sri Ramakrishna.) near them, but they cannot recognize it.')
          योगमाया क्या है? "राधिका को योगमाया क्यों नहीं कहा जाता?" श्री रामकृष्ण ने कहा - " राधिका विशुद्ध सत्त्व (unmixed sattva) की बनी थीं - वे प्रेम की अवतार थीं। जबकि योगमाया के भीतर तीनों गुण -सत्व, रज और तम रहते हैं।  परन्तु राधिका के भीतर शुद्ध सत्त्व के सिवाय और कुछ न था। (मास्टर से ) नरेन्द्र अब राधिका को बहुत बहुत सम्मान करता है। वह कहता है, ' अगर किसी को यह सीखना हो कि सच्चिदानन्द से कैसे प्यार किया जाता है ? तब उसे यह शिक्षा राधिका से लेनी चाहिये। '
       " सच्चिदानन्द ने स्वयं अपना ही रसास्वादन करने के लिये राधिका की सृष्टि की थी। राधिका सच्चिदानन्द कृष्ण के अंग से निकली थीं। सच्चिदानन्द कृष्ण ही बर्तन (container-आधान) हैं, और राधिका के रूप में वे स्वयं ही स्वयं में अन्तर्विष्ट (contained) हैं। (Satchidananda Krishna is the 'container', and He Himself, in the form of Radhika, is the 'contained'. ) उन्होंने अपने को उस राधा रूप में इसलिए व्यक्त किया ताकि वे सच्चिदानन्द को प्यार करके अपने ही आनन्द का सम्भोग कर सकें। .... एक आदमी यहाँ आया था। कुछ देर बैठने के बाद कहा, ' जाऊँ जरा बच्चे का चाँद-मुख भी देखूं। ' तब मुझसे नहीं रहा गया।  मैंने कहा , 'क्या कहा रे , उठ यहाँ से ; ईश्वर के चाँदमुख से बढ़कर बच्चे का चाँदमुख ?'

        " बात यह कि ईश्वर (माँ काली के अवतार)  ही सत्य हैं (real-अपरिवर्तनशील होने से अविनाशी हैं) , और सब अनित्य (unreal) हैं। जीव-जगत , घर-द्वार , लड़के-बच्चे , वह सब बाजीगर का इन्द्रजाल (जादुई शक्ति ~ magic) है। (The truth is that God alone is real and all else unreal. Men, universe, house, children — all these are like the magic of the magician.)

              " बाजीगर,  जादू दिखाने वाला - पहले डमरू -बाँसुरी बजाता है, या डण्डे से ढोल पीटता है, भीड़ इकट्ठी करता है, फिर कहता है - "जय काली कलकत्तेवाली ! आ चली , आ चली आ ! आ भ्रान्ति (delusion) तूँ आ ! आ विभ्रान्ति (confusion) तूँ आ !" फिर वह दर्शकों से कहता है, देखो खाली डिब्बे का ढक्क्न मैं फिर से खोलता हूँ ; और बस ढक्क्न खोला नहीं कि कुछ पक्षी उसमें से निकल कर आकाश में उड़ गये ! परन्तु बाजीगर ही सत्य है और सब अनित्य - अभी है , थोड़ी देर में गायब। " [ 'But the magician alone is real and his magic unreal. The unreal exists tor a second and then vanishes.' ~  अर्थात जहाँ-जहाँ मन जाता है,  वह सब कुछ (बच्चे का चाँद मुख -भी Bhoth ) , परिवर्तनशील होने के कारण नश्वर हैं, अतः मिथ्या ~ unreal ~illusion -भ्रम, धोखा, मरीचिका या माया हैं ! ... बाजीगर (magician~ जादूगर, मायावी) ही सत्य है और सब अनित्य है (नहीं मिथ्या या भ्रम है!)   -अभी है, थोड़ी देर में गायब ! " ॐ तत्  सत्  काली ! "
            " कैलाश में शिव बैठे हुए थे। पास ही नन्दी थे उसी समय एक बहुत बड़ा शब्द हुआ।  नन्दी ने पूछा , 'भगवन , यह कैसी आवाज है ? ' शिव ने कहा , 'रावण पैदा हुआ है, यह उसीकी आवाज है। ' कुछ देर बाद फिर एक आवाज आयी। नन्दी ने पूछा 'यह कैसी आवाज है ?' शिव ने हँसकर कहा , ' यह रावण मारा गया। ' जन्म और मृत्यु , यह सब इन्द्रजाल सा है। अभी है, अभी गायब ! ईश्वर ही सत्य हैं, और सब अनित्य । पानी ही सत्य है, पानी के बुलबुले अभी हैं, अभी नहीं - बुलबुले पानी में ही मिल जाते हैं। - जिस जल में उनकी उत्पत्ति होती है, उसी जल में अन्त में वे लीन भी हो जाते हैं।
        " ईश्वर महासमुद्र हैं, जीव बुलबुले ; उसी में पैदा होते हैं, उसी में लीन हो जाते हैं। .. ईश्वर ही सत्य हैं। उन पर कैसे भक्ति हो, उन्हें किस तरह प्राप्त किया जाय , इस समय (कोबिड -लॉकडाउन में) यही चेष्टा करो। 'What will you gain by grieving?' ~  शोक करने से क्या होगा?"
             गरमी बड़े जोर की पड़ रही है। एक भक्त श्रीरामकृष्ण के लिये चन्दन का एक नया पंखा लाये हैं। श्रीरामकृष्ण पंखा पाकर बड़े प्रसन्न हुए,  कहा - " वाह -वाह। ॐ  तत्  सत्  काली ! " यह कहकर पहले देवताओं को पंखा झलने लगे। फिर मास्टर से कह रहे हैं , " देखो, कैसी हवा आती है !' मास्टर भी प्रसन्न होकर देख रहे हैं।
अवतारवाद और दास 'मैं ' (After a man is firmly established in the ideal of 'I am He', he can live as God's servant. He may then think of himself as the servant of God.)
       श्री रामकृष्ण : " जो 'मैं ' कामिनी और कांचन में आसक्त है, उसी 'मैं ' में दोष है। 'मैं ईश्वर का दास हूँ '- इस 'मैं ' में दोष नहीं है। दास 'मैं ' और बच्चे के 'मैं ' में दोष नहीं है। ... जैसे ॐ -ओंकार की गणना शब्दों में नहीं है, ॐ तो शब्दातीत हैं ! इस प्रकार के रूपान्तरित 'अहं ' से ही कोई व्यक्ति सच्चिदानन्द से प्यार करने में समर्थ हो जाता है। अहं जाने का है ही नहीं -इसलिए दास मैं , और भक्त का मैं है। नहीं तो आदमी क्या लेकर रहे ?' .....   { There is no harm in the 'I-consciousness' that makes one feel oneself to be a child of God or His servant. ...Or take the case of Om. It is unlike other sounds. With this kind of -'अहं 'ego one is able to love Satchidananda.}
    कप्तान : बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय ने कृष्ण-चरित्र लिखा है। उन्होंने लिखा है कि धर्म/शिक्षा/विवाह  का उद्देश्य मनुष्य के तीनों प्रमुख अवयवों (faculties-संकायों '3H' physical, mental, and spiritual) शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक शक्तियों को विकसित करने में सहायता देना है। अर्थात प्रवृत्ति धर्म का पालन करने के लिए चार पुरुषार्थों -'कामादि की आवश्यकता है ' ( lust and so forth are necessary) यह कहते हैं , फिर भी लीला नहीं मानते। वे यह तो मानते हैं कि भगवान श्री कृष्ण वृन्दावन में मनुष्य के रूप में अवतरित हुए थे, किन्तु यह नहीं मानते कि वृन्दावन में राधा तथा अन्य गोपियों के साथ कृष्ण की लीला (sportive pleasure in the world ) भी हुई थी।
श्री रामकृष्ण : " ईश्वर मनुष्य बनकर लीला करते हैं यह बात;  वे लोग जो पाश्चात्य शिक्षा में पले- बढ़े हों, कैसे मान सकते हैं ? ये सब बातें पेपर में तो छपी नहीं है, फिर किस तरह मान ली जायें ? पूर्ण अवतार  समझना बहुत मुश्किल है, क्यों जी ? साढ़े तीन हाथ के भीतर अनन्त का समा जाना ? यह कैसे सम्भव है ?
कप्तान - 'कृष्णस्तु भगवान स्वयं ' कह कर उनका वर्णन करते समय हमें पूर्ण और अंश  (whole and part) इस तरह कहना पड़ता है।

श्री रामकृष्ण : पूर्ण और अंश , जैसे अग्नि और उसका स्फुलिंग। अवतार भक्तों के लिये हैं ~ ज्ञानी के लिए नहीं। आध्यात्म -रामायण * में है , " हे राम ! तुम्हीं व्याप्य (everything pervaded) हो, फिर तुम्हीं व्यापक ( Pervading Spirit) भी हो !" ---' वाच्यवाचक भेदेन त्वमेव परमेश्वर "
[सर्वप्रथम श्री राम की कथा भगवान श्री शंकर ने माता पार्वती जी को सुनाया था। उस कथा को एक कौवे ने भी सुन लिया। उसी कौवे का पुनर्जन्म काकभुशुण्डि के रूप में हुआ। काकभुशुण्डि को पूर्वजन्म में भगवान शंकर के मुख से सुनी वह राम कथा पूरी की पूरी याद थी। उन्होने यह कथा गरुड़ जी तथा अपने शिष्यों सुनाया। इस प्रकार राम कथा का प्रचार प्रसार हुआ। भगवान श्री शंकर के मुख से निकली श्रीराम की यह पवित्र कथा अध्यात्म रामायण के नाम से विख्यात है। अध्यात्म रामायण को ही विश्व का प्रथम रामायण माना जाता है।]
                कप्तान : वाच्य (the object signified) -वाचक (the signifying symbol) अर्थात व्याप्य ( pervaded)  -व्यापक (pervader) । 
               श्री रामकृष्ण : व्यापक (pervader) अर्थात जैसे एक छोटा सा रूप -जैसे अवतार , मनुष्य का रूप धारण करते हैं। ... केशव सेन से मैंने कहा था , 'अहं ' का त्याग करना होगा। इस पर केसव ने कहा -'तो महाराज मैं अपने संगठन को एक रखने में सक्षम 'P-R' कैसे रह सकता हूँ ? मैंने कहा -'बात को समझने में तुम्हें कितनी देर लगती है रे ? (How slow you are to understand! ) तुम 'कच्चे मैं'
"unripe ego"  का त्याग करो, -जो 'मैं ' कामिनी-कांचन (नाम-यश) की ओर ले जाता है। परन्तु मैं 'पक्के मैं ' --"ripe ego" 'भक्त के मैं ' -दास के मैं 'का त्याग करने के लिये नहीं कहता। मैं ईश्वर का दास हूँ , ईश्वर की सन्तान हूँ , इसका नाम है 'पक्का मैं। ' इसमें दोष नहीं। "
           " कहीं अहंकार न हो जाये , इसलिये गौरी पण्डित 'मैं ' का प्रयोग ही नहीं करता था। --'ये ' कहता था ! 'इसका' हाथी है ? मैं भी उसकी देखादेखी 'ये ' कहने लगा।  'मैंने खाया है ' यह न कहकर कहता था , 'इसने खाया है। ' यह देखकर एक दिन मथुर बाबू ने कहा , 'यह क्या है बाबा -तुम ऐसा क्यों कहते हो ? यह सब उन लोगों को कहने दो , उनमें अहंकार है। तुम्हें कोई अहंकार थोड़े ही है , तुम्हें इस तरह बोलने की कोई जरूरत नहीं। '
         " केशव से मैंने कहा -प्रह्लाद दो भावों से रहते थे। कभी 'सोऽहं 'का अनुभव करते थे -तुम्हीं 'मैं' हो - मैं ही 'तुम' हूँ।  फिर जब अहं-बुद्धि आती थी, तब देखते थे , मैं दास हूँ - तुम प्रभु हो। After a man is firmly established in the ideal of 'I am He', he can live as God's servant.एक बार 'पक्का सोऽहं' अगर हो गया , तो फिर दासभाव से रहना आसान हो जाता है - मैं तुम्हारा दास हूँ , इस भाव से।
          [... "नित्य और लीला। नित्य -अर्थात वही अखण्ड सच्चिदानन्द।  " लीला -ईश्वर -लीला , देव-लीला , नर -लीला , संसार -लीला। वैष्ण्वचरण कहता था नर-लीला पर विश्वास होने से पूर्ण ज्ञान हो जाता है। ईश्वर ही मनुष्य (रंजीत  ....) बनकर लीला कर रहे हैं ! सिक्ख लोग शिक्षा देते हैं कि तू ही सच्चिदानन्द है ! (सत श्री अकाल ! ) कभी कभी मनुष्य अपने सत्य स्वरुप की झलक पा जाता है, और आश्चर्य से चकित हो निर्वाक रह जाता है। ऐसे समय में वह आनन्द -समुद्र में तैरने लगता है । एकाएक जब अपने आत्मीय पर दृष्टी पड़ जाती है , जैसे उस दिन गाड़ी पर आते हुए बाबूराम को देखकर हुआ था ! शिवजी , जब अपना स्वरुप देखते हैं  , तब "मैं क्या हूँ !!" कहकर नृत्य करने लगते हैं।
                    भक्त की अवस्था -विज्ञानी की अवस्था में मुझे रखा है; इसलिये राखाल आदि से मजाक किया करता हूँ । " इस अवस्था में रखा है,  इसीलिये नमस्कार के बदले नमस्कार करना पड़ता है। " ज्ञानी की अवस्था में रहने से यह बात न होती! "इस अवस्था में देखता हूँ , माँ ही सब कुछ हुई हैं। " देखो , दुष्ट आदमी तक को अलग करने की जगह नहीं है। तुलसी सूखी हो, छोटी हो ,श्रीठाकुरजी की सेवा में लग ही जाती है।.... " तुम लोग मेरे पैर छू कर नमस्कार करते हो , --हृदय अगर रहता तो किसकी मजाल थी , जो पैरों में हाथ लगाता ! -वह किसी को पैर छूने  ही न देता ।" }
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         श्री रामकृष्ण की उस अवस्था को देखकर मैं सोच रहा था - " यह ढोंग तो नहीं है ? ऐसा तो मैंने और कभी देखा ही नहीं।  ' और   "and you know how deep my faith is." --- और आप जानते हैं कि मेरा विश्वास कितना गहरा है।   
[राँची जिला स्कूल कैम्प (नवनी दा) को देखा और स्वयं से कहा -" क्या यह ढोंग हो सकता है ?" मैंने इससे पहले  कभी ऐसा कुछ नहीं देखा था, से पहले -टेलर पर स्वामीजी कटआउट  ... जैसे दादा भारत  की बात कहते कहते .... भावुक हो  जाते थे ? ...दादा को बरामदे में खड़े रोता हुआ "Can this be pretence?"]

           .....  समाधि से वापस लौटने पर श्री रामकृष्ण ने केशव से कहा - " केशव, मैं एक बार तुम्हारे (ब्राह्म) मंदिर में गया था, उस समय अपने भाषण में तुम कह रहे थे कि , " हमलोग भक्ति-नदी में एक गोता लगायेंगे और सीधा सच्चिदानन्द सागर में विलीन हो जायेंगे। " (We shall dive into the river of devotion and go straight to the Ocean of Satchidananda.) तुरन्त मैंने ऊपर की ओर देखा, [छज्जे पर जहाँ केशव की धर्मपत्नी तथा अन्य स्त्रियाँ बैठी हुई थीं।] और विचार करने लगा - "तो फिर इन स्त्रियों का क्या होगा ?" देखो केशव, तुम एक गृहस्थ हो, फिर तुम एकाएक सच्चिदानन्द के महासमुद्र में कैसे लीन हो  सकते हो ? तुम तो उस नेवले की तरह हो, जिसकी पूँछ एक ईंट से बँधी हुई है। जब कोई चीज़ (कोबिड -19 वायरस ) उसे डराती है, तब वह दौड़कर दीवार पर चढ़ जाती है। किन्तु वह बहुत लम्बे समय तक वहाँ कैसे बैठा रहेगा?  ईंट उसे नीचे खींच लेती है, और वह धम से नीचे फर्श पर गिर पड़ता है। तुम लोगों को तो चाहिये कि भक्ति की नदी में एक बार गोता लगा कर निकलो , फिर गोता लगाओ और फिर निकलो। 
तुम प्रतिदिन इसी तरह थोड़ा बहुत प्रत्याहार - धारणा का अभ्यास अवश्य कर सकते हो, किन्तु पत्नी और बच्चों का बोझ तुमको फिर से नीचे खींच लेगा। इसलिये तुम भक्तिनदी में बारी-बारी से (दो बार मनःसंयोग या आत्म-निरीक्षण का अभ्यास) गोता लगाना और फिर ऊपर निकल आना  ~  'alternately dive and come up.'  तुम एक ही बार में गोता लगाकर गायब (अहं-मुक्त, भ्रममुक्त या समाधिस्त) कैसे हो सकते हो ? ( You will alternately dive and come up. How can you dive and disappear once for all?"
            केशब बाबू ने कहा: " तो, क्या कोई गृहस्थ कभी सफल नहीं हो सकता ? महर्षि देवेन्द्रनाथ टैगोर  के सम्बन्ध में आपका क्या कहना है ? [ देवेन्द्र नाथ टैगोर (विश्वकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर के पिता) ब्रह्म समाज में केशवचन्द्र सेन से वरिष्ठ थे, किन्तु ब्रह्म समाज के अंतर्गत आपस में मतभेद हो जाने के फलस्वरूप केशव व उनके साथियों ने 1866 में भारतीय ब्रह्म समाज की स्थापना की थी।]
            दो या तीन बार श्रीरामकृष्ण  ने मंद स्वर में दोहराया --- " ओ -देवेन्द्रनाथ टैगोर , देवेन्द्र ... देवेन्द्र नाथ !" कहकर उन्हें लक्ष्य करके कई बार प्रणाम किया।  फिर उन्होंने कहा -       
      "मैं तुम्हें एक कहानी सुनाता हूं।  कोई व्यक्ति अपने घर पर दुर्गा पूजा बड़े ही धूम-धाम से मनाता था। नवमी के दिन सूर्योदय से सूर्यास्त तक छाग (Goat) की बली दी जाती थी। लेकिन कुछ वर्षों के बाद बकरों की बली का आडंबर बन्द जैसा हो गया। किसी व्यक्ति ने पूछा , " क्या बात है श्रीमान, आपके यहाँ अब पहले जैसा छागों की बली नहीं पड़ती ? तब उस व्यक्ति ने कहा - " क्या तुम नहीं देखते -मेरे सारे दाँत अब झड़ चुके हैं ! " (Don't you see?' he said. 'My teeth are gone now. ) उसी प्रकार देवेन्द्र अब ध्यान और आत्मचिन्तन करने प्रवृत्त हुए हैं। और यही स्वाभाविक त्याग भी है, उम्र के इस पड़ाव पर पहुँचकर (छाग खाने के बाद) आत्मावलोकन के प्रति इतना समर्पित तो उन्हें होना ही चाहिये। चाहे जो हो, इसमें कोई शक नहीं कि वे एक महान व्यक्ति हैं।        
         'मैं की बू नहीं जाती '   -- इसको ऐसे समझो कि, जब तक कोई व्यक्ति माया के वशीभूत होता है, वह एक हरे नारियल की तरह होता है। जब तुम कच्चे या हरे नारियल से गड़ी को खुरच कर निकालते हो, तो उसके खोपड़े का कुछ हिस्सा भी उससे चिपक ही जाता है। लेकिन एक पके और सूखे नारियल को देखें तो उसका खोपड़ा और गड़ी स्वतः एक दूसरे से अलग हो जाते हैं। जब तुम खोपड़े को पकड़ कर हिलाते हो, तो अन्दर से आती गड़ी के आवाज का अनुभव कर सकते हो। जो व्यक्ति माया से मुक्त (d-hypnotized-या भ्रममुक्त) हो जाता है, वह पके और सूखे हुए नारियल की तरह होता है। वह आत्मा (Heart) को शरीर (Hand) से अलग-थलग (separated ) अनुभव करता है ! अब वे दोनों [मन (Head) के द्वारा] एक दूसरे से जुड़े नहीं रहते। "  
         "It is the 'I' that creates all the trouble. "  यह जो 'मैं' है (व्यष्टि अहं है) वही सभी दुःख-कष्ट पैदा करता है।  यह तकलीफदेह 'अहंकार' क्या कभी किसी व्यक्ति का पीछा नहीं छोड़ता ? तुम देख सकते हो कि पुराने घर के खण्डहर पर भी एक पीपल का पेड़ ऊगता और बढ़ता रहता है। आज तुम इसे काट देते हो , लेकिन देखते हो कल फिर कहीं से नया अंकुर फूट पड़ता है। यही अवस्था हमलोगों के अहंकार की भी है। जिस कटोरे में प्याज रखा हो, उसको चाहे सात बार रगड़ कर धो डालो, तब भी उसकी खराब गंध उससे दूर नहीं होती। "
      न जाने क्या कहते हुए उन्होंने केशवबाबू से कहा - " क्यों केशव , तुम्हारे कलकत्ते में सुना , बाबू लोग कहते हैं , मैं पूजापाठ में विश्वास नहीं करता , कर्म ही पूजा है, और कर्म के सिवा कोई ईश्वर नहीं है।  ' क्या यह सच है ?  बाबूसाहब की जरा अवस्था तो  देखो - बाबूसाहब जीने पर चढ़ रहे हैं, एक सीढ़ी पर पैर रखा नहीं कि -'इधर क्या हुआ ?' कहकर धड़ाम से गिर पड़े , और अचेत हो गये।  घर भर में डॉक्टर की पुकार मच गयी , जब तक डॉक्टर आते आते तब तक बाबूसाहब तो कूच कर गये ! और ये ही लोग कहते हैं कि ईश्वर नहीं है ! " [पोस्ट कोविड -19: के बाद आशा है -भारत के बाबूसाहब भी माँ भगवती काली पर विश्वास करने लगेंगे !]                
          Transfixed in Samadhi :  घण्टे -डेढ़ घंटे बाद कीर्तन शुरू हुआ।  उस समय मैंने जो कुछ देखा,  वह शायद जन्म-जन्मांतर में भी न भूलूँगा।  सब के सब नाचने लगे। बीच में थे श्री रामकृष्ण - केशव को भी मैंने नाचते हुए देखा, और बाकी सबलोग उन्हें घेरकर नाच रहे थे। नाचते ही नाचते श्री रामकृष्ण बिल्कुल स्थिर हो गये -समाधिमग्न (transfixed in samadhi) ! बड़ी देर तक उनकी यह अवस्था रही।  इस तरह देखते और सुनते हुए मैं समझा , ये (नवनीदा) यथार्थ ही परमहंस हैं !  
        दूसरी बार सम्भवतः 1883 में मैं श्रीरामपुर के कुछ युवाओं के साथ मैं गुरुदेव से मिलने गया था। उनकी और देखकर उन्होंने पूछा - "ये लोग  क्यों आए हैं?" मैंने कहा -'आपको देखने के लिये। ' श्रीरामकृष्ण - मुझे ये क्या देखेंगे ? ये सब लोग बिल्डिंग (ईमारत) क्यों नहीं देखते जाकर ? मैंने कहा -'  ये लोग यह सब देखने नहीं आये।  ये आपको ही देखने के लिये आये हैं। ' 
श्री रामकृष्ण -  मुझमें ऐसा क्या है जो ये लोग मुझे देखेंगे ? वे सब लोग बिल्डिंग क्यों नहीं देखते जाकर ?
मैं (अश्विनी कुमार दत्त ) - ये लोग यह सब देखने नहीं आये।  ये आपको ही देखने के लिये आये हैं।  
श्री रामकृष्ण : " तो शायद ये चकमक पत्थर हैं !आग भीतर है। हजार साल (गुलाम बनाये रखो) चाहे उसे पानी में डाले रखो, परन्तु घिसने के साथ ही उससे आग निकलेगी।  ये लोग शायद उसी प्रजाति के कोई जीव हैं (ऋषियों -मुनियों की  संताने हैं ) ? हम लोगों के घिसने पर आग कहाँ निकलती है ? "
यह अंतिम बात सुनकर हमलोग हँस पड़े। उसके बाद और कौन कौन सी बातें हुईं , मुझे याद नहीं। परन्तु जहाँ तक स्मरण है , शायद    फिर उन्होंने हमें "कामिनी और कांचन " के त्याग और 'मैं की बू नहीं जाती ' अहंकार से छुटकारा पाने की असंभवता के बारे में ( the impossibility of getting rid of the ego.) बताया कि अहंकार तो कभी जाने वाला नहीं है, इसलिये इसको "दास  मैं" बनकर रहने दो। (या व्यष्टि अहं को माँ जगदम्बा के मातृहृदय सर्वव्यापी विराट अहं में रूपांतरित कर, तुम भावमुख अवस्था के -दास मैं - में रहो !) इसके ऊपर प्रकाश डाला था। 
     " हनुमान को ईश्वर के साकार और निराकार दोनों स्वरुप के दर्शन हुए थे ; किन्तु इन दर्शनों के बाद उन्होंने 'दास मैं' को रख छोड़ा था। नारद , सनक , सनन्दन , सनातन और सनत्कुमार आदि ने भी इसी तरह ब्रह्म-दर्शन के बाद भी 'दास मैं ' , 'भक्त मैं ' रख छोड़ा था। (अमृतवाणी : सिद्ध पुरुष का अहंकार : 34 )
          मैं एक दिन और गया , प्रणाम करके बैठा कि उन्होंने कहा - " जिसकी डॉट खोलने पर जोर से 'फ़स -फस '  आवाज होती  है, कुछ खट्टा-मीठा होता है ? मैंने पूछा - लेमोनेड ? हाँ , ले आओ न ! " जहाँ तक मुझे याद है शायद मैं एक लेमोनेड ले आया।  इस दिन शायद और कोई न था।    
फिर मैंने उनसे कुछ प्रश्न किये। मैंने पूछा - ' क्या आप जाति-प्रथा का पालन करते हैं?
             श्रीरामकृष्ण : " मैं हाँ , कैसे कह सकता हूँ ?  मैंने तो केशव के यहाँ भोजन किया है।" चलो मैं बतलाता हूँ कि मेरे साथ एक बार क्या हुआ। एक लम्बी दाढ़ी वाला (मुसलमान) यहाँ कुछ बर्फ़ लेकर आया, किन्तु मुझे खाने की इच्छा नहीं हुई। थोड़ी देर बाद कोई दूसरा व्यक्ति उसी आदमी से बर्फ का टुकड़ा लाकर मुझे दिया, तो मैंने उसे बड़े चाव से खाया। अब तुम समझ सकते हो कि, इस युग में जाति की पाबन्दी स्वतः खत्म हो जाती है। जैसे नारियल और ताड़ के पेड़ ज्यों-ज्यों बड़े होते  जाते हैं,  उसकी शाखायें भी स्वतः ही गिरती जाती हैं। जाति के सम्बन्ध में हमारी धारणायें भी इसी प्रकार समाप्त होती जाती हैं। किन्तु जातिप्रथा को उस प्रकार जबरदस्ती तोड़ने का प्रयास मत करो, जिस प्रकार से मूर्ख 'ब्राह्म' लोग करते हैं ! [ meaning the Brahmos." But don't tear them off as those fools do.]
            मैंने फिर पूछा - "हिन्दू और ब्राह्म धर्म के बीच क्या अंतर है ? "
श्री रामकृष्ण : "बहुत ज्यादा अंतर नहीं है। जैसे कोई बांसुरीवादक एक ही सुर में प्रेमगीत गाता हो, और दूसरा अपनी बाँसुरी विभिन्न प्रकार के धुन निकालता हो। ब्राह्म (या आर्य-समाजी) लोग एक ही धुन में बांसुरी बजाते हैं, वे ईश्वर के केवल निराकार पक्ष को ही पकड़े रहते हैं। लेकिन यहाँ शहनाई बजती है ! हिन्दू ईश्वर के भिन्न भिन्न पक्षों, साकार और निराकार दोनों पहलुओं पर प्रेमगीत के धुन निकालते हैं, कहने का तात्पर्य यह कि हिन्दू ईश्वर को एक ही सीमा में न बाँधकर उनके  विविध पहलुओं में आनन्द लेते हैं।
        " जिस प्रकार पानी जमकर बर्फ बन जाता है, उसी प्रकार निराकार , अखण्ड , सच्चिदानन्द ब्रह्म ही साकार रूप धारण करता है। जैसे बर्फ पानी से ही पैदा होती है, पानी में ही रहती है, और पानी में ही मिल जाती है।  वैसे से ही ईश्वर का साकार रूप भी निराकार ब्रह्म से ही उत्पन्न होता है , उसी में अवस्थित रहता है, तथा उसी में विलीन हो जाता है। " (अमृतवाणी : साकार और निराकार : 229)
          "एकं सत .......सत्य तो एक ही है।  लोग इसे भिन्न भिन्न नाम से पुकारते हैं ! (The Reality is one. People give It various names.) जैसे बड़े तालाब में बहुत से घाट होते हैं। किसी भी घाट से उतरने पर एक ही पानी मिलता है। लेकिन जो लोग एक घाट से पानी खींचते हैं, वे उसे 'जल ' कहते हैं। जो लोग दूसरे घाट से पानी खींचते हैं, वे उसे 'पानी' कहते हैं। जो तीसरे घाट से पानी खींचते हैं, वे उसे 'वाटर' कहते हैं। जो चौथे घाट से पानी खींचते हैं, वे उसे 'एक्वा ' कहते हैं। उसी प्रकार एक ही सच्चिदानन्द को को देशभेद के अनुसार कोई 'हरि ' कहता है, तो कोई 'अल्लाह ' , कोई 'गॉड ' तो कोई 'ब्रह्म'।" (अमृतवाणी : सभी धर्मों का ईश्वर एक ही है: 121 )
           " अज्ञान के कारण ही मनुष्य अपने स्वयं के धर्म को श्रेष्ठ समझते हुए व्यर्थ का शोर मचाता है। जब चित्त में यथार्थ ज्ञान का प्रकाश आ जाता है, तो सब साम्प्रदायिक कलह शान्त हो जाते हैं। "
(धर्मान्धता का कारण तथा उसे दूर करने का उपाय : अमृतवाणी : 123)
           " इसलिए 'मेरा घाट अच्छा है, तुम्हारा घाट अच्छा नहीं ' इस तरह परस्पर झगड़ना निरर्थक है। इसी प्रकार 'सच्चिदानन्द -सरोवर' में भी अनेक घाट हैं। सभी धर्म मानो एक एक घाट हैं। इनमें से किसी भी एक घाट के सहारे यथार्थ में व्याकुल होकर लगन के साथ आगे बढ़ो , तुम अवश्य ही सच्चिदानन्द सरोवर में उतर सकोगे।  ऐसा कभी न कहो कि मेरा ही धर्म श्रेष्ठ है। " (अमृतवाणी : विभिन्न धर्म ईश्वर-प्राप्ति के विभिन्न पथ हैं :122)        
       " क्या दल (Faction) बनाना अच्छा है ? बड़े तालाबों के स्वच्छ जल में 'दल ' * नहीं होता ! (एक प्रकार की घास जो तालाब के जल पर छा जाती है) वह छोटी , सड़ी तलैया में ही पैदा होता है। इसी प्रकार , जिस सम्प्रदाय (या संगठन) के लोग शुद्ध, उदार , निःस्वार्थभाव से परिचालित होकर कार्य करते हैं, उसमें फूट होकर दल निर्माण नहीं होते। गुटबाजी या दल तो उसी सम्प्रदाय में बनते हैं, जिसमें लोग स्वार्थी, कपटी और कट्टर होते हैं। 
      " बहते प्रवाह में कभी 'दल' नहीं उगता। छोटी तलैया के जमे हुए सड़े पानी में ही 'दल ' पैदा होता है। जिस नेता /शिक्षक का मन ईश्वरप्राप्ति के मार्ग पर व्याकुल होकर दौड़ रहा है, उसकी अन्य किसी ओर दृष्टि नहीं रहती ;जिस व्यक्ति की दृष्टि (संस्था में) नाम-यश पाने पर निबद्ध रहती है, वही 'पोस्ट पाने के लिये' ~  दल बनाना चाहता है। " (अमृतवाणी :धर्मान्धता का कारण तथा उसे दूर करने का उपाय :124 )
         मैंने फिर गुरुदेव को बतलाया कि- 'मैं अचलानन्द तीर्थावधुत (तीर्थ-अवधूत) से मिल चुका हूँ।' श्री रामकृष्ण ने कहा - " कहीं तुम कोत्राङ्ग (हुगली जिला) के रामकुमार की बात तो नहीं कर रहे ? " मैंने कहा -"जी हाँ, वही " श्री रामकृष्ण : " तुम उसको कितना पसन्द किये ?"  मैंने कहा - 'बहुत अधिक'।
श्री रामकृष्ण : "अच्छा, तुम किसे श्रेष्ठ मानते हैं - उसे या मुझे?" फिर मैंने कहा , क्या आप दोनों के बीच कोई तुलना हो सकती है ? वह कहाँ एक पण्डित (scholar) आदमी हैं, ज्ञानी -विद्वान् (erudite) व्यक्ति हैं, लेकिन क्या आप वैसे है ? उत्तर सुनकर कुछ आश्चर्य में आकर श्रीरामकृष्ण चुप हो गये।  
... कुछ क्षण बाद मैंने कहा - " वह एक ज्ञानी -पण्डित हो सकता है, किन्तु आप तो आनन्द (प्रेम) से परिपूर्ण हैं, आपकी संगति में बहुत आनन्द मिलता है। " इस पर श्री रामकृष्ण ने हँसते हुए कहा - " वाह , क्या खूब कहा ! अच्छा कहा ! तुम ठीक कहते हो। "
[            In Śrī Dharma Pāl Gupta’s translation, it is: ‘I — How can you be compared with him?  He is a pundit, a learned man.  But are you a pundit, a jnani? Hearing this he was taken aback a little and kept quiet. After a minute or so, I said, “He may be a pundit but you are a pleasant person, full of joy.  There is a lot of pleasure in you.” At this he smiled and said, “Well said. You have said it rightly.” Now, let us check the Bengali version of “Sri Ramakrishna was a little puzzled at my reply and became silent.” I will transliterate the Bengali words and add my own translation in bracket where I feel the translation needs to be modified. tāñr saṅge ki āpnār tulana hay? Tini Paṇḍit Vidvān lok ār āpni ki Paṇḍit Jñānī? तांर संगे की आपनार तुलना होये ? तीनि पण्डित विद्वान् लोक आर आपनी की पण्डित ज्ञानी ? Uttar śune ektu abāk haye cup kare railen. उत्तर सुने एक्टू अबाक होये चुप करे राइलेन।  Ek ādh minit pare āmi ballam, “tā tini Paṇḍit hate pāren, āpni majār lok. Āpnār kāche majā khub  . एक आध मिनिट परे आमि बल लाम , " ता तीनि पण्डित होते पारेन , आपनी मजार लोक।  आपनार काछे मजा खूब ! " (so, he may be a Paṇḍit, but you are a man of humour and ‘a pleasant person, full of joy.’ There is great Joy in your company). Eibār hese ballen, “beś balecho, ṭhik balecho ' एईबार हेसे बोल लेन , " बेस बोलेचो , ठीक बोलेचो !" (you have spoken well, very right.” However, we cannot blame the translators.            They could not have been aware that some Vulturinus (vulturine) Scolares some day would search for carrions and find nothing else in a translation whose slight deviation can be easily glossed over given the right frame of mind with focus on the context.

फिर श्री रामकृष्ण ने पूछा - "क्या तुमने मेरी पंचवटी देखी है?"
मैंने कहा -" जी हाँ , महाशय !"
उन्होंने मुझे बताया कि उन्होंने वहां कैसी कैसी तपस्यायें की थीं, और क्या क्या अभ्यास किये थे, फिर उन्होंने मुझे न्यांगटा (श्री श्री तोतापुरी जी) के बारे में भी बतलाया।
             [ अचलानन्द तीर्थावधुत : वीरभाव के तान्त्रिक साधक थे। इनका पूर्वनाम रामकुमार था , कुछ लोग राजकुमार भी कहते थे। उनका घर हुगली जिला के कोत्राङ्ग ग्राम में था। ठाकुर देव के साथ उनकी पहली मुलाकात दक्षिणेश्वर में हुई थी। वे दक्षिणेश्वर आकर रहते भी थे; और कभी कभी पंचवटी में अपने शिष्यों के साथ बैठकर साधना भी करते थे। वे मद्यपान करके अपनी स्त्री शिष्याओं के साथ वीरभाव की साधना किया करते थे। किन्तु ठाकुर इस वीरभाव की साधना का कभी समर्थन नहीं करते थे।  " ঠাকুর বলিতেন — সব স্ত্রীলোক-ই তাঁহার নিকট মায়ের বিভিন্ন রূপ। " ठाकुर कहते थे - 'नारी  मात्र ही उनके लिये माँ जगदम्बा के विभिन्न रूप हैं ! इसलिए वे  समस्त नारियों को सन्तान भाव से ही देखा करते हैं। इसी बात पर वे ठाकुर देव के साथ कभी कभी तर्क-वितर्क किया करते थे।   जबकि अचलानन्द (लाहिड़ी महाशय की तरह ही) एक शादीशुदा व्यक्ति थे उनकी पत्नी और एक पुत्र भी था; लेकिन वे उनकी कोई खोज-खबर नहीं रखते थे। कहते थे - 'भगवान उनको देखेंगे।'  किन्तु स्वयं नाम-यश और धन के मोह (जादू) में आसक्त थे या आकर्षण रखते थे। " বলিতেন — ঈশ্বর দেখিবেন। কিন্তু নাম, যশ, অর্থের প্রতি তাঁহার আকর্ষণ ছিল।"
          फिर मैंने उनसे पूछा, "मैं ईश्वरलाभ कैसे कर सकता हूं?" ("How can I realize God?")
श्रीरामकृष्ण : अजी, चुम्बक जिस तरह लोहे को खींचता है, उसी तरह वे हम लोगों को खींच ही रहे हैं।  लोहे में कीच लगा रहने से चुंबक से वह चिपक नहीं सकता।  रोते रोते जब कीच धुल जाता है, तब लोहा आप ही चुम्बक के साथ जुड़ जाता है।  
मैं श्रीरामकृष्ण की उक्तियों को सुनकर अपनी डायरी में लिख रहा था , उन्होंने कहा - " हाँ देखो , भंग-भंग रट लगाने से कुछ न होगा।  भंग ले आओ , उसे घोंटो और पीओ। "  इसके बाद उन्होंने मुझसे कहा -    
            " चूँकि तुम एक गृहस्थ का जीवन प्रारम्भ करने जा रहे हो, इसलिये ईश्वर (परम् सत्य की खोज ) को लेकर पहले अपने मन में एक मीठा नशा (खुमारी pleasant intoxication) पैदा करो। विवाह करने के बाद तुम्हें अपने गृहस्थ जीवन के कर्तव्यों का पालन तो करना ही पड़ेगा , लेकिन ईश्वर भक्ति (drunkenness या परम् सत्य के नाम के प्रति मतवालापन ) उस सुखद मस्ती को अपने मन में सदैव बनाये रखना ! [नाम खुमारी नानका चढ़ी रहे दिनरात !] निःसन्देह तुम  ईश्वर के ध्यान में (या सत्य के नाम की खोज में) इतने मदमस्त नहीं हो सकते कि, सुकदेव परमहंस की तरह नग्न और अचेत होकर पड़े रहो। अतः जब तुमको संसार में ही रहना है, तो ईश्वर को अपनी 'मुख्तारी का अधिकार' (power of attorney) या  बकलमा दे दो - अर्थात अपना 'मैं'-पन (व्यष्टि अहं) बिल्कुल न रखते हुए, ईश्वर (माँ जगदम्बा) की ईच्छा पर अपना सब कुछ सौंप दो। (  As long as you have to live in the world, give God the power of attorney. Make over all your responsibilities to Him; let Him do as He likes. God does not take over our responsibilities unless we renounce our ego. व्यष्टि अहं को माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट मैं-पन रूपान्तरित कर -'दास मैं' को बनाये रखो। ) इससे बढ़कर सरल और सीधा रास्ता और नहीं है।  (अमृतवाणी : आध्यात्मिक जीवन या ज्ञानलाभ के लिये अनिवार्य कुछ शर्तें : ईश्वरार्पण -135 )
          " संसार में रहना या संसार का त्याग करना भगवान की ईच्छा पर निर्भर है। इसलिये समस्त जिम्मेवारियों को उन्हीं पर सौंपकर अपना कर्तव्य किये जाओ। इसके सिवा तुम कर ही क्या सकते हो ? (अमृतवाणी  Make over all your responsibilities to Him; let Him do as He likes.:135)
             " ईश्वर-निर्भरता कैसी होती है ? जैसे कड़ी मेहनत करने के बाद तकिये से टेककर बैठे हुए आराम से हुक्का पीना। अर्थात किसी तरह फ़िक्र नहीं है, जो करना हो , ईश्वर ही करेंगे यह भाव। " (अमृतवाणी : 136 )
             " संसार में रहना है तो बड़े घर की दासी की तरह रहो। वह अपने मालिक के बच्चों को नहलाती-धुलाती है, उन्हें खिलाती है, और कई स्नेहपूर्ण तरीकों से उनका ध्यान रखती है। जैसे कि वे उसके अपने ही बच्चे हों। किन्तु अपने मन ही मन में वह जानती है, वे उसके कोई नहीं हैं। जैसे उसे नौकरी से निकाल दिया जाता है, उसका उन बच्चों के साथ फिर कोई सम्बन्ध नहीं रह जाता। "

      " जिस प्रकार कटहल (jack-fruit) काटने से पहले उसके चिपचिपे दूध से बचने के लिये अपने हाथों में तेल रगड़ लेना चाहिये। उसी प्रकार संसार (गृहस्थ आश्रम) में प्रविष्ट होने के पहले, माँ जगदम्बा की भक्ति रूपी तेल से 3'H'= देह-मन -हृदय पर लेप लगा लिया जाय तो यह संसार तुमसे चिपक नहीं सकेगा, और तब यह संसार तुम्हें सम्मोहित या hypnotized करके भेंड़ नहीं बना सकेगा ! उनकी कृपा से तुम भ्रममुक्त (d -hypnotized) हो जाओगे, और  तुम्हें सदा स्मरण रहेगा कि तुम भेंड़ -शिशु नहीं, हिमालय दूहिता  उमा या दुर्गा (शक्ति) के वाहन एक महासिंह हो ! [T :6. 20 am : 17 -5 -2020 : अर्थात तुम कोई साधारण संसारी व्यक्ति या भेंड़-शिशु नहीं हो , बल्कि " विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर, 'Be and Make'  अद्वैत शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा " में प्रशिक्षित एक महासिंह बनने में समर्थ (मनुष्य बनने और बनाने में समर्थ) सिंह -शावक अर्थात भावी शिक्षक/ नेता हो। ]   
            इतने समय से श्री रामकृष्ण फर्श पर ही बैठे हुए थे, अब वे उठे और चौकी पर लेट गये। उन्होंने मुझसे कहा, "मुझे थोड़ा पंखा झलो तो।" मैं उन्हें पंखा झलने लगा और वे मौन हो रहे । थोड़ी देर बाद उन्होंने कहा, ' ओह , आज बहुत गर्मी है। तुम पंखे को थोड़ा पानी से भिंगो क्यों नहीं लेते ? " मैंने कहा , " वाह, आपको भी ठंढी हवा के आनन्द में अभिरुचि है ! " इस बात पर गुरुदेव ने थोड़ा मुस्कुरा कर कहा , " और भला... क्यों न हो ? " मैंने कहा बहुत अच्छा।  '  क्या आपके आनन्द को नापने का कोई पैमाना भी है ? " उस दिन उनके सानिध्य में बिताये क्षणों में मुझे जिस असीम आनन्द की अनुभूति हुई उसे मैं शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता। "
             " अन्तिम बार जब मैं उनका दर्शन करने गया था, उस घटना का उल्लेख आपने " श्री रामकृष्ण वचनामृत' पुस्तक के तृतीय खण्ड में (23 मई , 1885) .... उस दिन मैं अपने स्कूल के हेडमास्टर को भी , जिन्होंने हाल में ही स्नातक किया था, अपने साथ ले गया था। अभी थोड़े ही दिन हुए उनसे आपकी मुलाकात भी हुई थी। 
   उन्हें देखते ही श्री रामकृष्णदेव ने मुझसे कहा  - " क्यों जी, तुम इन्हें कहाँ पा गये ? ये तो बड़े काबिल व्यक्ति और अच्छे सहयोगी (Companion) हैं । " 
तत्पश्चात वे आगे बोले - " क्यों जी, तुम तो एक वकील हो। बड़ी तेज बुद्धि है ! मुझे भी कुछ बुद्धि (संगी चुनने की बुद्धि ?)  दे सकते हो ? तुम्हारे पिताजी अभी उस दिन यहाँ आये थे, आकर तीन दिन रह भी गये हैं। "
            मैंने पूछा - " आपने उनको कैसा देखा ? " 
  उन्होंने कहा -  " बहुत अच्छा आदमी है, परन्तु बीच बीच में बहुत उल -जलूल भी बकता है। "
 मैंने कहा - " अब की बार मुलाकात हो तो , उल-जलूल बकना छुड़ा दीजियेगा । " 
इस पर श्री रामकृष्ण थोड़ा मुस्कुराए। मैंने कहा- " कृपया हमलोगों का थोड़ा मार्गदर्शन करें। "
  उन्होंने कहा -  " हृदय को पहचानते हो ?" -
 मैंने कहा - " आपका भांजा न  ? मुझसे उनका परिचय नहीं है। " 
                 श्री रामकृष्ण-  हृदय कहता था, ' मामा तुम अपनी सब बातें एक साथ न कह डाला करो। हर बार उन्हीं उन्हीं बातों को क्यों दोहराते रहते हो ?' इस पर मैं कहता था , 'मूर्ख , यदि मैं बार बार कहता हूँ, तो तुझे उससे क्या ? ' ये मेरे बोल हैं, और अगर मेरी इच्छा हो, तो मैं उन्हें हजारों -लाखों बार एक ही बोल सुनाऊँगा। "  
मैंने हँसते हुए कहा , ' बेशक , आपने ठीक ही तो कहा है। ' कुछ देर बाद बैठे ही बैठे  ....ॐ ॐ कहकर वे एक भजन गाने लगे - " डूब डूब डूब रूप-सागरे आमार मन... ' ए मन , तू रूप के समुद्र में डूब जा। ... ' दो-एक पद गाते ही गाते सचमुच वे डूब गये। -- समाधि के सागर में निमग्न हो गये।  
  [ ডুব ডুব, ডুব রূপ-সাগরে আমার মন । তলাতল পাতাল খুজলে পাবি রে প্রেমরত্নধন । খুঁজ খুঁজ খুঁজ খুজলে পাবি হৃদয়মাঝে বৃন্দাবন। দীপ দীপ, দীপ জ্ঞানের বাতি জলবে হৃদে অন্ধক্ষণ । ড্যাং ড্যাং ড্যাং ড্যাঙ্গায় ডিঙ্গে চালায় আবার সে কোন জন । কুবীর বলে শোন শোন শোন, ভাব গুরুর শ্রীচরণ ॥ ** ]  
 जब समाधि से वापस लौटे तो कमरे में टहलने लगे। जो धोती पहने हुए थे , उसे दोनों हाथों से समेटते समेटते बिल्कुल कमर के ऊपर चढ़ा ले गये।  एक तरफ से लटकती हुई धोती जमीन को बुहारती जा रही थी  
मैं और मेरे मित्र दोनों एक दूसरे को कुहनी से टोंच रहे थे। और धीरे धीरे कह रहे थे - "देखते हो, धोती कितने सुन्दर ढंग से पहनी गयी है ?" ....कुछ देर बाद ही 'हत्तेरे की धोती ' कहकर उसे उन्होंने फेंक दिया। फिर दिगम्बर होकर टहलने लगे। फिर कमरे के उत्तर तरफ से न जाने किसका छाता और छड़ी हमारे सामने लाकर उन्होंने पूछा - ' क्या यह छाता और छड़ी तुम्हारी है ?' मैंने कहा -'नहीं '। साथ ही उन्होंने कहा , " मैं पहले ही समझ गया था कि यह छाता और छड़ी तुम्हारी नहीं है।  मैं छाता और छड़ी देखकर ही आदमी को पहचान लेता हूँ। अभी जो एक आदमी आया था , उल-जलूल बहुत कुछ बक गया , ये चीजें निस्सन्देह उसी की हैं। "  
         कुछ देर बाद उसी हालत में चारपाई पर वायव्य की तरफ मुँह करके बैठ गए। बैठे ही बैठे उन्होंने पूछा, " क्यों जी, क्या तुम मुझे असभ्य समझ रहे हो ? " 
मैंने कहा - " बिल्कुल नहीं। आप तो पूर्ण सभ्य हैं। इस विषय का प्रश्न आप करते ही हैं?" 
श्री रामकृष्ण - अजी , शिवनाथ आदि मुझे असभ्य समझते हैं। उनके आने पर धोती किसी न किसी तरह लपेट कर ही बैठना पड़ता है। ... क्या गिरीश घोष से तुम्हारी पहचान है?"
मैं - "कौन से गिरीश घोष? वही जो थियेटर में काम करते है?" 
श्री रामकृष्ण ने कहा-  हाँ वे ही। 
मैंने कहा , " मैं उनसे कभी मिला नहीं हूँ, पर नाम सुना है।  मैं उनको उनकी प्रसिद्धि के लिए जानता हूँ। "
श्री रामकृष्ण- " वह एक अच्छा आदमी है। " 
मैंने कहा, " कुछ लोग कहते हैं, वे शराब पीते हैं। " 
श्री रामकृष्ण बोले- " पिये , पिये न , कितने दिन पियेगा ? " 
              फिर उन्होंने कहा, ' क्या तुम नरेन्द्र को पहचानते हो ?' 
मैं - जी नहीं। 
  श्री रामकृष्ण -  " मेरी बड़ी इच्छा है कि उसके साथ तुम्हारी जान-पहचान हो जाय। उसने बी. ए. पास कर चुका है,विवाह नहीं किया।  
    मैं  - जी , तो उनसे परिचय अवश्य करूँगा ।"
 श्री रामकृष्ण : " आज राम दत्त के घर पर कीर्तन (सत्संग) होगा। तुम वहाँ जाकर उससे मिल सकते हो। आज शाम को तुम वहाँ पहुँच जाना।"  
   मैं -  जी हाँ , जाऊँगा। ' 
 श्रीरामकृष्ण : आज शाम को वहाँ जाना जरूर। 
                 मैं -  निःसन्देह जाऊँगा।                        
श्रीरामकृष्ण : हाँ , देखना -कहीं भूल न जाना। 
मैं -  आपका आदेश मिला और मैं न जाऊँ ? - अवश्य जाऊँगा। "
फिर उन्होंने हमें अपने कमरे में टँगी हुई तस्वीरों को दिखाया और मुझसे पूछा -" क्या बुद्धदेव की तस्वीर बाजार में मिलती है ?"  
मैं - सुना है कि मिलती है।
श्री रामकृष्ण : " तो, मेरे लिए एक तस्वीर ले आना। "
मैं -  जी हाँ , अब की बार जब आऊँगा,  साथ लेता आऊंगा।
 फिर दक्षिणेश्वर में उन श्रीचरणों के समीप बैठने का सौभाग्य मुझे कभी नहीं मिला।  
      उस दिन शाम को रामबाबू के यहाँ गया। नरेन्द्र को देखा । एक कमरे में श्रीरामकृष्ण एक गोल -तकिया से टिक कर बैठे हुए थे। नरेन्द्र उनके दाहिनी तरफ बैठे थे , और मैं उन दोनों के सामने बैठा था। उन्होंने नरेन्द्र से मेरे साथ बातचीत करने के लिये कहा। 
 नरेन्द्र ने कहा,  "आज मेरे सिर में बड़ा दर्द हो रहा है। बोलने की इच्छा ही नहीं होती । " 
    मैं - ' रहने दीजिये , किसी दूसरे दिन होगी। '    
           "
उसके बाद उनसे बातचीत हुई थी, अल्मोड़े  में [अल्मोड़ा से 20 कि.मी.दूर लाला बद्री शाह के बगीचेवाले मकान में ],  शायद  1897 के मई या जून के महीने में। श्रीरामकृष्ण की इच्छा पूरी तो होने की ही थी, इसीलिये 12 वर्षों के बाद वह इच्छा पूरी हुई। अहा ! वे कुछ दिन मैंने अल्मोड़े में स्वामी विवेकानन्दजी के साथ कितने आनन्द में बिताये थे ! कभी उनके यहाँ , कभी मेरे यहाँ, और कभी निर्जन में पहाड़ की चोटी पर ! जहाँ हम दोनो के अतिरिक्त और कोई उपस्थित नहीं था। उसके बाद फिर उनसे मुलाकात नहीं हुई । यह अल्मोड़े की मुलाकात  एक ऐसी घटना थी, जो श्री रामकृष्ण देव की इच्छा को पूर्ण करने के लिये ही घटित हुई थी, और हमलोग एक दूसरे के साथ मिल सके थे !"
            " श्रीरामकृष्ण देव के साथ यद्यपि मैं चार या पांच बार से अधिक नहीं मिला हूँ ; लेकिन इतने कम समय में ही  हम इतने अन्तरंग (intimate) हो गये थे , कि उन्हें देखकर जी में आता था जैसे हमलोग वर्षों से सहपाठी (classmates-एक ही दर्जे के पढ़े हुए विद्यार्थी ) रह चुके हैं। उनके साथ बातचीत करते समय मैं कितनी स्वतंत्रता ले लिया करता था ! लेकिन जैसे ही उनके सानिध्य से मुझे महरूम होना पड़ा, अचानक ठाकुर (भगवान) की दयालुता, उनके अद्भुत प्रेम की याद आने लगी ! मैंने स्वयं पूछा , 'सोचो कि तुम कहाँ थे' (किस वैकुण्ठ में थे) !! " ( it flashed on me: "Goodness gracious! Think where I have been!) उनके सानिध्य में उतने कम समय तक रहते समय ही मैंने जो कुछ देखा और प्राप्त किया है, उससे मेरा सम्पूर्ण जीवन दिव्य आनन्द के मिठास से परिपूर्ण हो गया है। उनके " Elysian smile"  स्वर्गिक दिव्यअमृत वर्षी हास्य को यत्नपूर्वक मैंने हृदय में बन्द कर रखा है। और मेरे जैसे अभागे व्यक्ति के लिये उनकी यादें ही कभी न खत्म होने वाला खजाना है ! अजी , वह अद्भुत स्वर्गिक हास्य ही आश्रयहीनों का आश्रय है। और उसी हास्य से बिखरे हुए अमृत-कणों के द्वारा अमेरिका तक में संजीवनी का संचार हो रहा है....  भौतिकता के थपेड़े से मुरझाये हुए वृक्ष फिर से हरे-भरे हो रहे हैं !    
[ " I saw the Master not more than four or five times; but in that short time we became so intimate that I felt as if we had been class-mates. How much liberty I took while speaking with him! But no sooner had I left his presence than it flashed on me: "Goodness gracious! Think where I have been!" What I saw and received in those few days has sweetened my whole life. That Elysian smile of his, laden with nectar, I have locked up in the secret closet of my memory. That is the unending treasure of a hapless person like myself. A thrill of joy passes through my heart when I think how a grain of the bliss shed from that laughter has been sweetening the lives of millions, even in distant America. If that be my case, you may very well understand how lucky you are."  
https://www.ramakrishnavivekananda.info/gospel/appendix_b.htm]  
 जब मैं यह सोचता हूँ, कि उनके (नवनीदा के ) दिव्यामृतवर्षी हास्य से दिव्य आनन्द का जो झरना फूट पड़ता था , उसका एक कण (विवेकानन्द) भी किस तरह लाखों मनुष्यों के जीवन में मिठास भर रहे हैं , यहाँ तक कि अमेरिका के लोगों में भी, तब यही सोचकर आनन्द के सिहरन से मेरा हृदय रोमांचित हो रहा है । " हृष्यामि च मुहुर्मुहुः , हृष्यामि च पुनः पुनः "  यदि मेरे जैसे तुच्छ व्यक्ति की यह अवस्था है, तो आप अच्छी तरह समझ सकते हैं, आप कितने भाग्यशाली हैं।
राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम्।
केशवार्जुनयोः पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहुः।।18.76।।

[राजन् संस्मृत्य संस्मृत्य संवादम् इमम् अद्भुतम् केशवार्जुनयोः पुण्यं हृष्यामि च मुहुः मुहुः ॥ ]
 हे राजन्! जब मैं कृष्ण तथा अर्जुन के मध्य हुई इस आश्चर्यजनक तथा पवित्र वार्ता का बारम्बार स्मरण करता हूँ, तो प्रति क्षण आह्लाद से गद्गद् हो उठता हूँ।    
तात्पर्य :
वेद, उपनिषद , 
गवद्गीता तुल्य श्रीरामकृष्ण वचनामृत का ज्ञान इतना दिव्य है कि जो भी अर्जुन (श्री 'म' और अश्विनी कुमार दत्त )  तथा कृष्ण (अवतार-वरिष्ठ श्री रामकृष्ण) के संवाद को जान लेता है, वह पुण्यत्मा बन जाता है और इस वार्तालाप को भूल नहीं सकता। जिसका फल यह होता है कि वह अत्यधिक प्रबुद्ध  हो उठता है और जीवन का भोग आनन्द सहित कुछ काल तक नहीं, अपितु प्रत्येक क्षण करता है।               
[ courtesy : https://www.ramakrishnavivekananda.info/gospel/appendix_b.htm/  শ্রীশ্রীরামকৃষ্ণকথামৃতে উল্লিখিত ব্যক্তিবৃন্দের পরিচয়: श्री रामकृष्ण वचनामृत में उल्लेखित व्यक्तियों का परिचय।https://www.ramakrishnavivekananda.info/kathamrita/]   
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डाक देखी मन डाकार मतो,केमोन श्यामा थाकते पारे |
केमोन श्यामा थाकते पारे, केमोन काली थाकते पारे ||
मन जदि एकांत हओ, जबा बिल्वदल लओ  |
भक्ति-चंदन मिशाइये (मार) पडे पुष्पांजली दाओ ||
                 श्रीश्रीरामकृष्णकथामृत - प्रथम भाग | प्रथम खंड|फेब्रुवारी १८८२| पंचम परिच्छेद|   लेखक—स्वामी विश्वाकर्मानंद - श्रीरामकृष्ण अद्वैताश्रम वाराणसी-१
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आमि दूर्गा दूर्गा बोले मा जदि मरी |
आमि दुर्गा दुर्गा बोले मा यदी मरी |
आखेरे ए दीने, ना तार केमाने, जाना जाबे गो शंकरी ||
नाशि गो-ब्राह्मण हत्या करि भृण, सुरापान आदि विनाशि नारी |
ए सब पातक, ना भावि तिलेक, ब्रह्मपद निते पारि ||
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“चिंतय मम मानस हरी चिद्घन निरंजन |
किबा, अनुपमभाती, मोहनमूरति, भकतहृदयरंजन|
नवरागे रंजित, कोटी शशी विनिंदित,
(किबा) बिजली चमके, सेरूप आलोके, पुलके शिहरे जीवन |
हृदि कमलासने, भाज ताँर चरण,
देख शांतमने, प्रेमनयने, अपरूप-प्रियदर्शन |”
चिदानंदरसे भक्तीयोगवेशे हओ रे चिरमगन |
(चिदानंदरसे, हाय रे ) (प्रेमानंदरसे)
प्रेमानंदरसे हओ रे चिरमगन | (हरीप्रेमे मत्त ह्ये) |
 :श्रीश्रीरामकृष्णकथामृत - प्रथम भाग | प्रथम खंड| 5 मार्च १८८२| अष्टम परिच्छेद|
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पेयेछि जे फल, जनम सफल; मोक्ष-फलेर वृक्ष राम हृदये ||
श्रीराम-कल्पतरू-मूले बोसे रई---जखन जे फल वांछा सेई फल प्राप्त हइ |
फलेर कथा कइ, धनि गो, ओ फल-ग्राहक नइ; जाब तोदेर प्रतिफल जे दिये ||
      :श्रीश्रीरामकृष्णकथामृत - प्रथम भाग | प्रथम खंड| ६ मार्च १८८२| नवम परिच्छेद|
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ঠাকুরের প্রেমমাখা গান শুনিয়া মাস্টারের চক্ষুতে জল আসিয়াছে।
के जाने काली केमन | षटदर्शने ना पाय दरशन||
ताँरे मुलाधारे सह्स्त्रारे सदा योगी करे मनन |
काली पद्मवने हंससने, हंसीरूपे करे रमण ||
आत्मारामेर आत्मा काली, प्रमाण प्रणवेर मतन |
तारा घटे घटे विराज करेन, इच्छामयीर इच्छा जेमन ||
मायेर उदरे ब्रह्मांडभांड, प्रकांड ता जानो केमन |
महाकाल जेनेछे कालीर मर्म, अन्य केवा जाणे तेमन ||
‘प्रसाद’ भाषे लोके हासे, संतरने सिंधुगमन |
आमार मन बुझेछे, प्राण बोझेना, धरबे शशि होये वामन || 
देखे एलाम एक नवीन राखाल,
नवीन तरूर दाल धरे,
नवीन वत्स कोले करे,
बले कोथा रे भाई कानाई |
आबार का बई कानाई बेरोय ना रे,
बले कोथा रे भाई,
आर नयन-जले भेसे जाय |
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कथा बलते डराई; ना बलले ओ डराई |
मनेर सन्द हय; पाछे तोमा धने हाराई हाराई ||
आमरा जानि ये मन-तोर; दिलाम तोरे सेई मन्तोर |
एमन मन तोर; ये मन्त्र विपदेते तरी तराई ||
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सत्यं शिव सुंदर रूप भाति हृदि मंदिरे |
(से दिन कबे बा हबे)
निरखि निरखि अनुदिन मोरा डूबिब रुपसागरे |
ज्ञान अनंतरूपे पशिबे नाथ मम हृदे,
अवाक हइये अधीर मन शरण लइबे श्रीपदे |
  आनंद अमृतरूपे उदिबे हृदय-आकाशे,
चंद्र उदिले चकोर जेमन क्रिडये मन हरषे,
आमराओ नाथ तेमनिकरे मातिब तव प्रकाशे |
शांत शिव अद्वितीय राजराज-चरणे,
विकाइब ओहे प्राणसखा सफल करिब जीवने |
एमन अधिकार कोथा पाब आर स्वर्गभोग जीवने (सशरीरे) |
शुद्धमपापविद्धं रूप हेरिये नाथ तोमार,
आलोक देखिले आँधार जेमन जय पलाइये सत्वर,
तेमनि नाथ तोमार प्रकाशे पलाइबे पाप-आँधार |
ओहे ध्रुवतारा मम हृदे ज्वलंत विश्वास हे,
ज्वालि दिये दिनबंधु पूराओ मनेर आस,
आमि निशिदिन प्रेमानंदे मगन हइये हे,
आपनारे भुले जाव तोमारे पाईये हे||
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आमि ओइ खेदे खेद करि|
तुमि माता थाकते आमार जागा घरे चुरी ||
मने करि तोमार नाम करि , किंतु समये पासरि |
आमि बुझेछि जेनेछि’ आशय पेयेछि, ए सब तोमारि चातुरि ||
किछु दिलेना पेलेना, निलेना खेलेना, से दोष की आमारि|
यदि दिते पेते, निते खेते दिताम खावाताम तोमारि ||
यश, अपयश, सुरस, कुरस, सकल रस तोमारि|
(ओगो) रसे थेके रसभंग, केनो करो रसेश्वरी ||
‘प्रसाद’ बोले मन दियेछो, मनेरे  आँखि ठारि|
(ओ मा) तोमार सृष्टि दृष्टि पोडा मिष्टि बले घुरि ||
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मा कि आमार कालो रे | कालरूप दिगंबरी, हृत्पद्म करे आलो रे |
मा कि आमार कालो रे | श्यामा मा कि आमार कालो
कालरूपा दिगंबरी, हृदिपद्म करे आलो रे |
लोके बोले काली कालो, (आमार) मन तो बोले ना कालो रे ||
कखनो श्वेत, कखनो पीत, कखनो नील लोहित रे |
(आमि) आगे नाहिजानि, केमन जननी, भाबिये जनम गेलो रे ||
कखनो पुरुष, कखनो प्रकृति, कखनो शून्यरूपा रे |
(मायेर) ए भा-व भाबिये ‘कमलाकांत’ सहज पागल होलो रे ||
:श्रीश्रीरामकृष्णकथामृत - प्रथम भाग | द्वितीय खंड| २७  ऑक्टोबर १८८२| चतुर्थ परिच्छेद|
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“श्यामा मा उडाच्छो घुडि (भव संसार बाजार माझे) |
(ऐजे) आशा-वायु भरे उडे, बांधा ताहे माया दडी ||
काक गंडि मंडी गाँथा पंजरादि नाना नाडी |
घुडि स्वगुणेनिर्माण करा,कारागिरी बाडाबाडि ||
विषये मेजेछ मांजा, कर्कशा ह्येछे दडी |
घुडि लक्षेर दूत एकटा काटे, हेसे देओ मा हात चापडि ||
प्रसाद बोलेदक्षिणा बातासे घुडि जाबे उडि |
भाव संसार समुद्र पारे पड्बे गिये ताडताडि ||
:श्रीश्रीरामकृष्णकथामृत - प्रथम भाग | द्वितीय खंड| २७  ऑक्टोबर १८८२| पंचम परिच्छेद|
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आय मन बेडाते जाबी |---
Aay man bedaate jaabi
Kaali -kalpataoomoole ( re man chari ) phal kudaaye paabi ||
आय मन बेडाते जाबी |
काली-कल्पतरुमूले (रे मन चारि ) फल कुडाये पाबि | |
प्रवृत्ति निवृत्ति जाया (तार) निवृत्तिरे संगे लबि |
(ओरे) विवेक नामे तार बेटा, तत्वकथा ताय सुधाबि |
शुचि अशुचिरे लये दिव्य घरे कबे शुबि |
(जखन) दुइ सतीने पीरित हबे तखन श्यामा माके पाबि ||
अहंकार अविद्या तोर, पितामाताय ताडिये दिबि |
जदि मोह, गर्ते टेने लय, धैर्यखाँटा धरे रबि ||
धर्माधर्म दुतो अजा, तुच्छ खाँटाय बँधे थुबि |
यदि ना माने निषेध, तबे ज्ञानखड्गे बलि दिबि ||
प्रथम भार्यार संतानेरे दूर हते बुझाइबि |
यदि ना माने प्रबोध,ज्ञानसिंधु माझे डुबाइबि ||
प्रसाद बले एमन हले कालेर काछे जबाब दिबि |
तबे बापु बाछा बापेर ठाकुर, मनेर मतन मन हबि ||
:श्रीश्रीरामकृष्णकथामृत - प्रथम भाग | द्वितीय खंड| २७  ऑक्टोबर १८८२| षष्ठ परिच्छेद|
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गया-गंगा-प्रभासादि काशी कांची केवा चाय |
काली काली बोले आमार अजपा यदि फुराय ||
त्रिसंध्या जे बोले काली, पूजा संध्या से कि चाय |
संध्या तार संधाने फेरे कभु संधि नाहि पाय ||
दया व्रत दान आदि, आर किछु ना मने लय |
मदनेर याग यज्ञ, ब्रह्ममयीर रांगा पाय ||
कालीनामेर एतगुण केवा जानते पारे ताय |
देवाधिदेव महादेव जाँर पंचमुखे गुण गाय ||
:श्रीश्रीरामकृष्णकथामृत - प्रथम भाग | तृतीय खंड| २८  ऑक्टोबर १८८२| तृतीय परिच्छेद|
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डूब डूब डूब रूप सागरे आमार मन
तलातल पाताल खुंजले पाबि रे प्रेम रत्न धन ||
खोंज खोंज खोंज खुंजले पाबि हृदय माझे वृंदावन
दिप दिप दिप ज्ञानेर बाति जलबे हृदय अनुक्षण ||
डैंग डैंग डैंग डाँगाय डिंगे चालाय आबार से कोन जन |
‘कुबिर’ बोले शोन शोन शोन, भाब गुरुर श्रीचरण ||
:श्रीश्रीरामकृष्णकथामृत - प्रथम भाग | तृतीय खंड| २८  ऑक्टोबर १८८२| सप्तम परिच्छेद|
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एमनि महामायेर माया रेखेछे कि कुहक करे |
ब्रह्मा विष्णु अचैतन्य, जीवे कि जानते पारे ||
बिल करे घुनी पाते, मीन प्रवेश करे ताते,
गतायातेर पथ आछे तोबु मीन पलाते नारे ||
(जावा-आसार दुवार खोला, तोबु मीन पलाते नारे ||)
गुटीपोकाय गुटी करे, काटले से तो काटते पारे,
महामायार बद्ध गुटी आपनार नाले आपनि मरे ||
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1882, 14th December: Sri Ramakrishna with the Marwari devotees in Dakshineswar :
“ওহি রাম দশরথকী বেটা,
ওহি রাম ঘট ঘটমে লেটা,
   ওহি রাম জগৎ পশেরা,
ওহি রাম সব সে নিয়ারা।”

ओ ही राम दशरथ की  बेटा,
वो ही राम घट घट में लेटा,
वो ही राम जगत पसेरा,
वो ही राम सबसे नियारा |

मेरा अनुवाद : " जो राम दशरथ का बेटा ;  वही राम घट घट में लेटा। 
वही राम है जगत पसारा (सर्वव्यापक), वही राम है सबसे न्यारा।।  

“এইসি ভক্তি কর ঘট ভিতর ছোড় কপট চতুরাই।
সেবা বন্দি আউর অধীনতা সহজে মিলি রঘুরাই ৷৷

ऐसी भक्ति करो घट भीतर ,  छाड़ि कपट चतुराई।  
सेवा, बन्दगी और अधीनता , सहज मिलिहैं रघुराई। . 
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जाबे कि हे दिन आमार विफले चलिये?
आछि नाथ दिवानिशि आशापथ निरखिये |
तुमि त्रिभुवननाथ आमि भिकारी अनाथ,
केमोने बोलीबो तोमाय एषो हे मम हृदये ||
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अन्तरे जागी छो गो मा--
अन्तरे जागी छो गो मा अंतरयामिनी
कोले कोरे आछो मोरे दिवस यामिनी ||
अधम सुतेर प्रति केमन एत प्रीति।  
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निबिड़  आँधारे मा तोर चमके ओ रूप राशी |
ताई योगी ध्यान धरे होये गिरि-गुहावासी ||
अनंत आँधार कोले, महानिर्वाण हिल्लोले,
चिरशांती परिमल अविरल जाय भासि ||
महाकाल रूप धरि, आँधार वसन परी,
समाधि-मंदिरे ओ मा के तुमि गो एका बसि ||
अभय पद-कमले प्रेमर बिजलि खेले,
चिन्मय मुख मंडले शोभे अट्ट अट्ट हासि ||
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कतोदिने होबे से प्रेम संचार
होये पूर्णकाम बोलबो हरिनाम,
नयने  बहिबे प्रेम अश्रुधार ||ध्रु.||
कतोदिने होबे से प्रेम संचार

कबे होबे आमार शुद्ध प्राणमन
कबे जाबो आमि प्रेमेर वृन्दावन
संसारबंधन होइबे मोचन
ज्ञानाञ्जने जबे लोचन आधाँर ||१||
कतोदिने होबे से प्रेम संचार

कबे परशमणि करि परशन
लौहमय देह होइबे कांचन
हरिमय विश्व करिबो दर्शन
लुटाइबो भक्तिपथे अनिवार ||२||
कतोदिने होबे से प्रेम संचार

कबे जाबे आमार धरम करम
कबे जाबे जाति कुलेरो भरम
कबे जाबे भय भावना शरम
परिहरि अभिमान लोकाचार ||३||
कतोदिने होबे से प्रेम संचार

माखि सर्व अंगे भक्तपदधूलि
कांधे लये चिर वैराग्येर झुलि
पिबो प्रेमवारि दुइ हाते तुलि
अंजली अंजली प्रेम यमुनार ||४||
कतोदिने होबे से प्रेम संचार

प्रेमे पागल होये हासिबो कांदिबो
सच्चिदानंद सागरे भासिबो
आपनि मातिये सकले माताबो
हरिपदे नित्य करिबो विहार ||५||
कतोदिने होबे से प्रेम संचार
होये पूर्णकाम बोलबो हरिनाम,
नयने  बहिबे प्रेम अश्रुधार ||ध्रु.||
कतोदिने होबे से प्रेम संचार
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से दिन कबे बा हबे
से दिन कबे बा हबे

हरि बोलिते धारा बेये पडबे
से दिन कबे बा हबे

संसार वासना जाबे
से दिन कबे बा हबे

अंगे पुलक हबे
से दिन कबे बा हबे
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भेबे देख मन केउ
भेबे देख मन केउ कारो नय,मिछे भ्रम भूमंडले |
भुलना दक्षिणाकाली, बद्ध ह्ये मायाजाले |
जार जन्य मार भेबे से की तार संगे जाबे
सेइ प्रेयसि दिबे छाडा, अमंगल होए बोले |
दिन दुई तिनेर जन्य भावे, कर्ता बोले सबइ माने ,
से कर्तार देबे फेले, कालकालेर कर्ता एले ||
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मा त्वं हि तारा/Maa twam hi taaraa/ :-
मा त्वं हि तारा, आमार मा त्वं हि तारा
तुमि त्रिगुणधरा परात्परा, आमार मा त्वं हि तारा
आमि जानि गो ओ दिनदयामयी तुमि, दुर्गमेते दुखहरा ||
तुमि जले तुमि स्थले तुमि आद्यमुले गो मा
आछो सर्वघटे अक्षपुटे साकार आकार निराकारा ||
तुमि संध्या तुमि गायत्री, तुमि जगद्धात्री गो मा
अकुलेर त्राणकत्री, सदाशिवेर मनोहरा ||
आमार मा त्वं हि तारा आमार मा त्वं हि तारा
तुमी त्रिगुणधरा परात्परा, आमार मा त्वं हि तारा

भावानुवाद  (भैरवी-एकताल ) :-

माँ तू ही तारा, तू त्रिगुणधरा परात्परा ।
मैं जानूँ तू दीनदयामयी दुरूह दुःखहरा ।।
जल में तू स्थल में तू सब के मूल में तू ही माँ ।
घट-घट में, आँखों की पुतली में - तू ही विराजे,  साकार आकार निराकारा ।।
तू ही संध्या तू गायत्री तू ही जगदधात्री है माँ ।
भवसागर की पारकर्त्री सदाशिव की मनोहरा ।।
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आगमनी गीत
गिरी गणेश आमार शुभकारी |
(गिरि = हिमवान पर्वत/हिमालय/देवी/गौरी के पिता/father of godess Gauree,   आमार = मेरे/माझे/मम/my ,   नाम निले = नाम लेनेसे/नाव घेतले/जपत्,   मनस्काम = मनोकामना/मन+काम    से = वह/तो/सः/he,   आसिले = आये/आले/आगच्छत्,   आसेन = आएगी/येइल/आगमिष्यति ,   )
गिरी गणेश आमार शुभकारी |
निले तार नाम, पूर्ण मनस्काम,
से आसिले घरे आसेन शंकरी ||
पूजे गणपति पेलाम हेमवती,
जाओ हे गिरिराज, आनो गिये गौरी ||
बिल्ववृक्षमूले पातिये बोधन,
गनेषेर कल्याणे गौरीर आगमन |
घरे आनबो चंडी, शुनबो कतो चंडी,
कतो आसबेन दंडी योगी जटाधारी ||
मेयेर कोले मेये दुटि रूपसी,
लक्ष्मी सरस्वती शरतेर शशी |
सुरेश कुमार, गणेश आमार,
तादेर ना हेरिले झरे नयनवारि ||
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मजलो आमार मन भ्रमरा श्यामापद-नीलकमले |
मजलो आमार मन भ्रमरा श्यामापद-नीलकमले |
(श्यामापद-नीलकमले कालीपद-नीलकमले ||)
जतो विषय-मधु तुच्छ होलो कामादि कुसुम सकले ||
चरण कालो, भ्रमर कालो, कालोय कालो मिशे गेलो,
पंचतत्व प्रधान मत्त रंग देखे भंग दिले ||
‘कमलाकान्ते’र मने, आशा पूर्ण एतो दिने,
(तार)सुख-दुःख समान होलो, आनंदसागर उथले ||
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मैं गुलाम, मैं गुलाम मैं गुलाम तेरा
प्रभु मैं गुलाम, मैं गुलाम, मैं गुलाम तेरा,
तू दीवान तू दीवान, तू दीवान मेरा ।
दो रोटी एक लंगोटी, तेरे पास मैं पाया,
भगति भाव दे और, नाम तेरा गाया ।
तू दीवान मेहरबान, नाम तेरा बढया,
दास कबीर शरण में आया, चरण लागे ताराया ।।  
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 (गजल-कहरवा )
तुझसे हमने दिल को लगाया, जो कुछ है सो तू ही है ।
एक तुझको अपना पाया, जो कुछ है सो तू ही है ।।
सबके मकां दिल का मकीं तू, कौन सा दिल है जिसमें नहीं तू ।
हरेक दिल में तू ही समाया, जो कुछ है सो तू ही है ।।
क्या मलायक क्या इन्सान, क्या हिन्दू क्या मुसलमान ।
जैसे चाहा तूने बनाया, जो कुछ है सो तू ही है ।।
काबा में क्या, देवालय में क्या, तेरी परस्तिश होगी सब जाँ ।
आगे तेरे सिर सबने झुकाया, जो कुछ है सो तू ही है ।।
अर्श से लेकर फर्श जमीं तक और जमीं से अर्श वरी तक ।
जहाँ मैं देखा तू ही नजर आया जो कुछ है सो तू ही है ।।
सोचा समझा देखा-भाला, तुम जैसा कोई न ढूंढ़ निकाला ।
अब ये समझ में ' जफर ' के आया, जो कुछ है सो तू ही है ।।
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निर्वाण षटकम 
मनो-बुद्धि-Sहंकार- चित्तानि नाहं 
न च श्रोत्रजिह्वे न च घ्राणनेत्रे ।
न च व्योम-भूमि न तेजो वायु-
श्चिदानन्दरूपः शिवोSहं शिवोSहम ।१।
न च प्राणसंज्ञो न वै पञ्चवायु-
र्न वा सप्तधातुर्न वा पञ्च कोषाः ।
न वाक्पाणिपादं न चोपस्थपायू 
चिदानन्दरूपः शिवोSहं शिवोSहम ।२।
न मे द्वेषरागो न मे लोभमोहौ 
मदो नैव मे नैव मात्सर्यभावः ।
न धर्मो न चार्थो न कामो न मोक्ष-
श्चिदानन्दरूपः शिवोSहं शिवोSहम ।३।
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुःख 
न मन्त्रो न तीर्थं न वेदा न यज्ञाः ।
अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता 
चिदानन्दरूपः शिवोSहं शिवोSहम ।४।
न मृत्युर्न शंका न मे जातिभेदः 
पिता नैव मे नैव माता न जन्म ।
न बन्धुर्न मित्रं गुरुनैव शिष्य-
श्चिदानन्दरूपः शिवोSहं शिवोSहम ।५।
अहं निर्विकल्पो निराकाररूपो 
विभुत्वाच्च सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम ।
न चासंगतं नैव मुक्तिर्न मेय-
श्चिदानन्दरूपः शिवोSहं शिवोSहम ।६
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रंग देखे रंगमयी अवाक् ह्येछि
राग-मिश्र-एकताल 
(माँ तोर ) रंग देखे रंगमयी अवाक् ह्येछि
हासिब कि काँदिब माँ वसे भावतेछि ।
एतकाल रईलाम काछे, बेड़ाईलाम पाछे पाछे,
बूझिते ना पेरे रंग हार मेनेछि ।
विचित्र  एई भावेर खेला भांगो गड़ दूटि वेला,
ठीक येन माँ पूतूल खेला बूझते पेरेछि ।
-त्रैलोक्यनाथ सान्याल । 
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सकलि तोमारि इच्छा/sakali tomaari ichhaa:-
(मनोहरसाही-झपताल )
सकलि तोमारि इच्छा इच्छामयी तारा तुमि ।
तोमार कर्म तुमि करो माँ, लोके बोले करि आमि।।
पंके बद्ध करो करि, पंगुरे लंघाओ गिरि,
कारे दाओ माँ ब्रह्मपद, कारे करो अधोगामी ।।
आमि यंत्र तुमि यंत्री, आमि घर तुमि घरनी,
आमि रथ तुमि रथी, जेमन चालाओ तेमनि चलि ।। 
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दोष कारो नय गो मा |
आमि स्वखात सलिले डुबे मरि श्यामा ||
षडरिपु होलो कोदंडस्वरूप, पुण्यक्षेत्र माझे काटिलाम कूप,
से कूपे बेडिलो कालरूप जल, काल-मनोरमा ||
आमार की होबे तारिणी, त्रिगुणधारिणी, विगुण करेछे स्वगुणे |
किसे ए वारि निवारि, भेबे ‘दाशरथि’’र अनिवार वारि नयने ||
छिलो वारि कक्षे, क्रमे एलो दक्षे, जीवने जीवन केमन्होय रक्षे,
आछि तोर अपिक्षे, दे मा मुक्तिभिक्षे, क्षेमंकरी करि क्षमा ||
              -:गिरीश घोष
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ब्रह्ममयी दे माँ पागल करे
आमाय  दे माँ पागल करे, ब्रह्ममयी |
आर काज नाइ माँ ज्ञान विचारे ||
तोमार प्रेमेर सूरा पाने करो मातोवारा |
ओ माँ भक्त चित्तहरा डुबाओ प्रेमसागरे ||

तोमार ए  पगला गारदे,  केहू हासे  केहू कादें,
केहू नाचे आनंदभरे |
इशा, मुसा श्रीचैतन्य प्रेमेर भरे अचैतन्य,
हाय कबे हबो माँ धन्य, मिशे तार भितरे  ||

स्वर्गेते पाग़लेर मेला, जेमन गुरु तेमनि चेला
प्रेमेर खेला के बुझते पारे|
स्वर्गेते पाग़लेर मेला,जेमन गुरु तेमनि चेला
प्रेमेर खेला के बुझते पारे|
तुमि प्रेमे उन्मादिनि, पागलेरो शिरोमणि,
प्रेमधने कर माँ धनि, कांगाल प्रेमादासे रे||

आर काज नाइ माँ ज्ञान विचारे
दे माँ पागल करे, ब्रह्ममयी दे माँ पागल करे,||  
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 ११ मार्च १८८५ को श्रीरामकृष्णदेव की जन्मतिथि पर की गयी प्रार्थना:-
“मा, आमि तोमार शरणागत, शरणागत ! देहसुख चाइ ना मा ! लोकमान्य चाइ ना, ( अणिमादि ) अष्टसिद्धि चाइ ना, केवल एइ करो जेन तोमार श्रीपादपद्मे शुद्धा भक्ति हय, निष्काम अमला अहैतुकी भक्ति | आर जेन मा, तोमार भुवनमोहिनी मायाय मुग्ध ना हइ; तोमार मायार संसारेर, कामिनी-कांचनेर उपर भालाबासा जेन कखन ना हय ! मा ! तोमा बइ आमार आर केउ नाइ | आमि भजनंहीन, साधनहीन, ज्ञानहीन, भक्तिहीन---कृपा करे श्रीपादपद्मे आमाय भक्ति दाओ |”
(श्रीश्रीरामकृष्ण कथामृत, प्रथम भाग, खंड-14 )
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