पत्र की पृष्ठभूमि : [श्री रामकृष्णवचनामृत तृतीय खण्ड ( The Gospel of Sri Ramakrishna) के Appendix B में दिये इस पत्र को समझने के लिये पहले Appendix A को देखना आवश्यक है। ]
अश्विनीकुमार दत्त (1856-1923) - 19 वीं शताब्दी के , अविभाजित बंगाल (पूर्वी बंगाल) के बारीसाल शहर में जन्मे भारत के प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ, सामाजिक कार्यकर्ता और देश भक्त थे। एक अध्यापक के रूप में उन्होंने अपना व्यावसायिक जीवन प्रारम्भ किया था। बाद में वर्ष 1880 में बारीसाल से वकालत की शुरुआत की। उन्होंने वर्ष 1886 में कांग्रेस के दूसरे कोलकाता अधिवेशन में प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया था। 1887 में आयोजित अमरावती कांग्रेस अधिवेशन में उन्होंने कहा था - " यदि Vedanta का संदेश ग्रामीण जनता तक नहीं पहुँचा तो - यह कांग्रेस सिर्फ़ तीन दिन का तमाशा बनकर रह जाएगी।"
[Understading Advaita using the rope-snake example :
Seeing the rope as snake = Seeing the Brahman as world. Hypnotized state of Mind/ Illusion / Mistake/ = Maya/ ( Rope = Brahman,Snake = World) /(Light = Knowledge aligned with Absolute Reality; Pure consciousness (Existence-Consciousness-Bliss, Brahman). Meaning, clarity is complete./Knowledge. /( Dim light = Partial Knowledge of what-is. I don't know 100% what it is, therefore my mind choiclessly and innocently projects it's own conclusion.Reflected Consciousness/Lower Knowledge )/ (Bright light= Self-Knowledge which removes ignorance (mind doesn't know clearly what it is) causing superimposition (…therefore the mind superimposes a false snake onto it). Once false notions of reality are removed, one's understanding “Truth of self and world is Brahman” is actualized.witness Consciousness/Higher Knowledge= Brahm Janan)
👉रज्जु -सर्प के उदाहरण का उपयोग करके अद्वैत को समझना:
रस्सी को साँप के रूप में देखना = ब्रह्म को जगत के रूप में देखना। (मन की सम्मोहित अवस्था / भ्रम /भूल / = माया/ [ एक वस्तु में दूसरे का भ्रम जैसे रस्सी को सांप समझना। – माया को ब्रह्म की शक्ति कहा गया है। माया का शाब्दिक अर्थ भ्रम है। परन्तु माया भ्रम न होकर भ्रम पैदा करने वाली शक्ति (Energy) है। यह शक्ति अघटन-घटना पटीयसी है, अर्थात जो नहीं है, उसको घटित करने में वह सक्षम है। इस कारण इसको रहस्यमय, अचिन्त्य , विचित्र तथा अनिर्वचनीय कहा गया है। प्रश्न यह है कि यदि त्रिगुणों से परे कोई परम अव्यय तत्त्व है तो सामान्य मनुष्य उसे क्यों नहीं जान पाता है ? पूर्ण साक्षात्कार न भी सहज हो तब भी कम से कम उसके अस्तित्व के विषय में तो उसे शंका नहीं होनी चाहिए। मुझ में और मेरे स्वरूप के मध्य कौन सा आवरण पड़ा हुआ है ? जगत् को यह अज्ञान किस कारण से है; उस रहस्य को उद्घाटित करते हुए भगवान श्रीकृष्ण गीता 7 श्लोक 13 में कहते हैं -
त्रिभिः गुणमयैः भावैः एभिः सर्वम् इदं जगत्।
मोहितं न अभिजानाति मामेभ्यः परम् अव्ययम् ॥ १३ ॥
त्रिगुणों से उत्पन्न इन भावों (ऐषणाओं ) से सम्पूर्ण जगत् (लोग) मोहित हुआ इन (गुणों) से परे अव्यय स्वरूप मुझे नहीं जानता है। ।।7.13।। व्याख्या त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः ৷৷. परम् अव्ययम् पद से भगवान् कहते हैं कि मैं त्रिगुणात्मक शरीर से पर हूँ अर्थात् इन गुणों से सर्वथा रहित असम्बद्ध निर्लिप्त हूँ। जो प्रतिक्षण नष्ट होनेवाले तीनों गुणों से परे हैं अत्यन्त निर्लिप्त हैं और नित्यनिरन्तर एक रूप रहने वाले हैं ऐसे परमात्मा स्वाभाविक हैं। परमात्मा की यह स्वाभाविकता बनायी हुई नहीं है कृत्रिम नहीं है अभ्याससाध्य नहीं है प्रत्युत स्वतः स्वाभाविक है। परंतु शरीर तथा संसार में अहंता-ममता अर्थात् मैं और मेरा भाव उत्पन्न हुआ है एवं नष्ट होने वाला है, यह केवल माना हुआ है इसलिये यह अस्वाभाविक है। इस अस्वाभाविक को स्वाभाविक मान लेना ही मोहित होना है जिसके कारण मोहित मनुष्य शरीर के जन्मने में अपना जन्मना। शरीर के मरने में अपना मरना, शरीर के बीमार होने में अपना बीमार होना और शरीर के स्वस्थ होने में अपना स्वस्थ होना मान लेता है। जीव पहले परमात्मा से विमुख हुआ या पहले संसार के सम्मुख (गुणोंसे मोहित) हुआ इसमें दार्शनिकों का मत यह है कि परमात्मा से विमुख होना और संसार से सम्बन्ध जोड़ना ये दोनों अनादि हैं इनका आदि नहीं है। अतः इनमें पहले या पीछेकी बात नहीं कही जा सकती। परन्तु मनुष्य यदि मिली हुई स्वतन्त्रता (शाश्वत-नश्वर विवेक-प्रयोग शक्ति) का दुरुपयोग न करे उसे केवल भगवान में ही लगाना शुरू कर दे तो यह संसार से (जन्म-मृत्यु से ) ऊपर उठ जाता है अर्थात् इसका जन्म-मरण मिट जाता है।
इससे यह सिद्ध होता है कि प्रभु की दी हुई स्वतन्त्रता का दुरुपयोग करके ही यह मनुष्य बन्धन में पड़ा है। अपनी स्वतन्त्रता (विवेक-प्रयोग शक्ति ) का दुरुपयोग करके नष्ट होने वाले पदार्थों में उलझ जाने से यह परमात्मतत्त्व (परम् सत्य =अल्ला , ब्रह्म, काली या गॉड) को जान नहीं सकता। स्वाभाविक है कि मिथ्या नाम-रूप में इस आसक्ति के कारण स्वस्वरूप की ओर इनका ध्यान तक नहीं जाता। यह जीव बाह्य जगत् में व्यस्त और आसक्त होकर अपने शुद्ध स्वरूप को पहचानने में स्वयं को असमर्थ पाता है। स्वयं में स्वयं के साथ स्वयं का चल रहा लुकाछिपी का यह खेल विचित्र एवं रहस्यमय है। जिसके कारण यह अपने लिए और जगत् के लिए अनन्त दुख और विक्षेप उत्पन्न करता रहता है।
त्रिगुणों से उत्पन्न राग- द्वेष और मोह (ऐषणाओं) आदि विकारों के कारण अपने अविनाशी दिव्य स्वरूप को भूलकर, और नश्वर नाम-रूप के साथ तादात्म्य स्थापित करके यह मनुष्य मोहित अर्थात् 'Hypnotized' या विवेक-शून्य कर दिया गया है। विवेक-प्रयोग द्वारा वि-सम्मोहित (De-hypnotized) की पद्धति नहीं जानने के कारण ही तीनों गुणों से मोहित मनुष्य (भेंड़ -शिशु ) ऐसा मान ही नहीं सकता कि मैं परमात्मा का अंश (सिंह -शावक) हूँ। यह उस भगवत्तत्त्व को तभी जान सकता है जब त्रिगुणात्मक शरीर के साथ इसकी अहंता-ममता मिट जाती है।
व्यष्टि अहं (एक व्यक्ति) में कार्य कर रही माया को ही अविद्या कहते हैं। ऋषियों ने इस अविद्या का जो कि जीव के सब दुखों का कारण कहा है। उन्होंने अविद्या माया का जब सूक्ष्म अध्ययन किया तब यह उद्घाटित किया कि यह तीन गुणों से युक्त है जो मनुष्य को प्रभावित करते हैं। ये तीन गुण हैं सत्त्व रज और तम जो एक सम पार्श्व आयत (prism) का सा काम करते हैं और जिनके माध्यम से हमें इस बहुविधि सृष्टि का अनुभव होता है। जिस प्रकार सफेद प्रकाश को जब एक प्रिज़्म के माध्यम से पारित किया जाता है तो वह 7 अलग-अलग रंगो (बैनीआहपीनाला) की धारियों वाले समूह में दृष्टिगोचर होता है। माया भी ठीक प्रिज्म (prism) के समान एक ऐसी उपाधि है जिसके माध्यम से अवर्ण अद्वैत स्वरूप तत्त्व (ब्रह्म या सच्चिदानन्द) जब व्यक्त होता है तब वह सप्तरंगी प्रकाश के समान अनन्त नाम-रूपों वाली सृष्टि (जगत ब्रह्माण्ड) के रूप में प्रतीत होता है। कामाग्नि (तीन गुणों से उत्पन्न तीनो ऐषणाओं) में सुलगते अज्ञानी जीव इन्द्रिय विषय उपभोगों में नित्य सुख की खोज तभी तक करता है जब तक आवरण और विक्षेप की निवृत्ति नहीं हो जाती।
जैसे किसी अनपढ़ ग्रामीण व्यक्ति को बल्ब में विद्युत का अभाव प्रतीत होता है क्योंकि वह अव्यक्त होती है। उस व्यक्ति को विद्युत प्रवाह का प्रत्यक्षतः (directly) अनुभव करने के लिए -(AC) Alternating Current और (DC) Direct Current के सैद्धान्तिक ज्ञान तथा प्रत्यक्ष प्रयोग की आवश्यकता होती है। [AC - आमतौर पर घरों मे उपयोग होने वाली धारा AC होती है। जिसका उपयोग हम बल्बों, कूलर, पंखा, TV आदि मे करते हैं । DC - हमारे मोबाइल की बैट्री में और सेल में DC करंट होता है ।] एक बार विद्युत शक्ति के गुण-धर्म का ज्ञान हो जाने पर यदि वह मनुष्य उसी बल्ब में प्रकाश देखे तो उसे अव्यक्त विद्युत का ज्ञान तत्काल हो जाता है। इसी प्रकार श्रवण, मनन और निदिध्यासन रूपी आत्मसयंम द्वारा जब साधक का क्षुब्ध मन प्रशान्त हो जाता है; तब आवरण के अभाव में वह मुझ अजन्मा अविनाशी स्वरूप को पहचान लेता है।
रजोगुण का कार्य है विक्षेप और तमोगुण का कार्य बुद्धि पर पड़ा आवरण है। यह सिद्धान्त है कि मन अपने को दो भागों में बाँट सकता है, एक द्रष्टा -मन (observer) या साक्षी चेतना दूसरा दृश्य-मन (visible mind)! मनुष्य संसार से (दृश्य मन, reflected consciousness) से सर्वथा अलग होने पर ही (द्रष्टा मन) संसार को जान सकता है और साक्षी चेतना (witness consciousness) से सर्वथा अभिन्न होने पर ही परमात्मा (ब्रह्म -existence -consciousness -bliss) को जान सकता है। त्रिगुणों के विकारों से मोहित और भ्रान्त पुरुष को आत्मा का साक्षात् ज्ञान नहीं होता। उस आत्मज्ञान के लिए गुरु के उपदेश तथा स्वयं की साधना की आवश्यकता होती है। गुरु = " स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर Be and Make' वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा " प्रशिक्षित और शिक्षा देने का चपरास प्राप्त किसी नेता [C-IN-C -नवनीदा जैसे ]/ जीवनमुक्त शिक्षक के उपदेश अर्थात प्रशिक्षण तथा स्वयं की साधना (3'H'-विकास के 5 -अभ्यास) की आवश्यकता होती है। अतः मनःसंयोग का अभ्यास किसी प्रशिक्षित शिक्षक से सीखना ही होगा।
नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः। मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्।। गीता 7.25।।
[पदच्छेदः - न अहं प्रकाशः सर्वस्य योगमाया समावृतः / मूढः अयं न अभिजानाति लोकः माम् अजम् अव्ययम् ॥ गीता ७.२५ ॥]
7.25। योग-माया अर्थात सम्मोहन के जादू या 'ट्रिक-ऑफ-योग-इल्यूजन' (नश्वर नाम-रूप) से ढका हुआ होने के कारण मैं सभी के लिए प्रकट नहीं होता; [और इसलिए] इस सम्मोहित जगत [के 'इब्लिश' जैसे सामान्य द्रष्टा] मुझ, अजन्मा और अविनाशी (आत्मा या ब्रह्म) को नमस्कार नहीं कर पाते हैं।
7.25. Being surrounded by yoga-maya 'the trick-of-yoga-Illusion' ,I do not become manifest to all ; [and hence] this deluded world [of perceivers] does not recognise Me, the unborn and the Imperishable.
7.25 Commentary : योगमाया समावृतः being enveloped by yoga-maya-Yoga means the combination, the coming together, of the (three) gunas; that (combination) is itself maya, yoga-maya; being enveloped, i.e. veiled, by that yoga-maya; न अहं प्रकाशः aham, I; do not become manifest; सर्वस्य , to all the people. I am not visible to those who are deluded by the three Gunas and the pairs of opposites? The idea is that I become manifest only to the chosen few who are My devotees- who have taken sole refuge in Me alone. For this very reason, अयं , this; मूढः, deluded; लोकः, (Public) world; न अभिजानाति, does not know; माम्, Me; who am अजम्, birthless; and अव्ययम् , undecaying. This YogaMaya is under the perfect control of the Lord. Isvara is the wielder of Maya. Therefore it cannot obscure His own knowledge? just as the illusion created by the juggler cannot obstruct his,own knowledge or deceive him. The illusion which binds the worldly people cannot in the least affect the Lord Who has keep Maya under his perfect subjugation.
तीनों गुणों के मिश्रण का नाम योग है और वही माया है; उस योगमाया से आच्छादित हुआ मैं समस्त प्राणि -समुदाय के लिये प्रकट नहीं रहता हूँ। अभिप्राय यह कि किन्हीं किन्हीं भक्तों 'the Chosen Few ' के लिये ही मैं प्रकट होता हूँ। इसलिये यह मूढ़ जगत् ( प्राणिसमुदाय ) मुझ जन्मरहित अविनाशी परमात्मा को नहीं जानता। मानो नाम और रूप की इस सृष्टि ने आत्मा को आवृत्त कर दिया है। यह आवरण उसी प्रकार का है जैसे मृगमरीचिका रेत को और तरंगे समुद्र को आच्छादित कर देती हैं; इसलिये यह मूढ़ जगत् ( प्राणिसमुदाय ) मुझ जन्मरहित अविनाशी परमात्माको नहीं जानता। यह प्राणी अपनी मूढ़ता को दूर करके अपने नित्य स्वरूप को जान सकता है। परन्तु सर्वथा भगवत्तत्त्व का बोध तो भगवान् श्रीरामकृष्ण देव की कृपा से ही हो सकता है। भगवान् जिसको जनाना चाहें वही उनको जान सकता है--" सोइ जानइ जेहि देहु जनाई "(मानस 2। 127। 2)। अगर मनुष्य अवतार वरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्णदेव के सर्वथा शरण हो जाय तो भगवान् उसके अज्ञान को भी दूर कर देते हैं और अपनी माया को भी दूर कर देते हैं।
"किन्हीं किन्हीं भक्तों 'the Chosen Few ' के लिये ही मैं प्रकट होता हूँ। " = " स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर बनो और बनाओ नेतृत्व प्रशिक्षण परम्परा' में प्रशिक्षित शिक्षकों [नवनीदा जैसे जीवनमुक्त नेता वरिष्ठ 'C- IN-C' ] के लिये ही 'मैं ' (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण देव) प्रकट होता हूँ ! "[ Swami Vivekananda -Captain Sevier Be and Make Leadership Training Tradition. ]
क्योंकि 'विद्या गुरुमुखी ' अर्थात अविद्या को हटाने वाली विद्या का श्रवण गुरुमुख (गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित जीवनमुक्त शिक्षक/नेता/गुरु के मुख ) से ही करना चाहिए। इसीलिये विष्णुसहस्रनाम में भगवान विष्णु का एक नाम 'नेता' है। क्योंकि सच्चे नेता हर जगह जय पाने की आकांक्षा करते हैं , किन्तु अपने पुत्र और शिष्य से पराजय ही पाना चाहते हैं - " सर्वत्र जयमिच्छेत पुत्रात् शिष्यात् पराजयम्।" - शिष्य (भावी नेता) तो गुरुदेव (नेता नवनीदा) का वह रथ है जिसके अंदर स्वयं गुरुदेव आरूढ़ होना चाहते हैं, परंतु उस रथ को योग्य रथ होना चाहिए, कमज़ोर रथ पर बैठ कर युद्ध नहीं लड़ा जाता।
इसलिए श्रवण करने या सुनने का हमारे जीवन में बोलने से अधिक महत्त्व है। तभी तो ईश्वर से प्रार्थना की जाती है कि "ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः" - अर्थात हम सदैव भला अथवा शुभ सुनें, शुभ ही देखें। इंटरनेट, फेसबुक , या यूट्यूब में गंदे दृश्य या गाने नहीं देखें न सुने। क्योंकि जैसी बातें सुनो या देखो वैसा ही मन होने लगता है। दादा कहते थे - 'तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ' शान्त वाणी सुनो अथवा ईश्वर के भजन सुनो तो मन शान्ति पाता है। हँसी भरे वातावरण में मन को अच्छा लगता है वहीं किसी के क्लेश सुनो, किसी के रोते हुए स्वर को सुनो (फिर वह चाहे पशु ही क्यों न हो) तो मन उद्विग्न होने लगता है। इसीलिए हमारे तीन उपनिषदों का - प्रश्न, मुण्डक और माण्डूक्य उपनिषद का शांतिमंत्र है :
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः । भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ॥
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिः । व्यशेम देवहितं यदायुः ॥
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः । स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ॥
स्वस्तिनस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः । स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शांतिः । शांतिः ॥ शांतिः॥।
अब आसानी से ऐसे पढ़ें :
" ॐ (भद्रम् कर्णेभिः शृणुयाम देवाः भद्रम् पश्येम अक्षभिः यजत्राः / स्थिरैः अङ्गैः तुष्टुवांसः तनूभिः वि-अशेम देव-हितम् यत् आयुः।)
भावार्थ:— हे देववृंद, हम अपने कानों से कल्याणमय वचन सुनें। जो याज्ञिक अनुष्ठानों के योग्य हैं (यजत्राः) ऐसे हे देवो, हम अपनी आंखों से मंगलमय दृश्यों को घटित होते देखें। नीरोग इंद्रियों एवं स्वस्थ देह के माध्यम से आपकी स्तुति करते हुए (तुष्टुवांसः) हम प्रजापति ब्रह्मा द्वारा हमारे हितार्थ (देवहितं) सौ वर्ष अथवा उससे भी अधिक जो आयु नियत कर रखी है, उसे प्राप्त करें (व्यशेम)। तात्पर्य है कि हमारे शरीर के सभी अंग और इंद्रियां स्वस्थ एवं क्रियाशील बने रहें और हम सौ या उससे अधिक लंबी आयु पावें।
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्ध श्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्व वेदाः।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्ट नेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर द धातु।।
भौतिक अर्थ- वृद्धश्रवा इन्द्र अर्थात राजा हमारा स्वस्ति= कल्याण करें। इसी प्रकार विश्व के ज्ञाता पूषा (सूर्य) , 'प्रचुर ऐश्वर्यों' (वाजों ) का प्रभु एवं हमारी अभिवृद्धियों का स्वामी तार्क्ष्य (गरुड़) , बृहस्पति गुरु, पूषा पोषण देने वाला तथा विष्णु पालन कर्त्ता। रक्षक राजा, ज्ञानदायक गुरु, पालन कर्त्ता विष्णु और पोषक पूषा कल्याण करें।ॐ शांतिः । शांतिः ॥ शांतिः॥।
हर आध्यात्मिक साधक को यह चुनौति [मुझ में और मेरे स्वरूप के मध्य कौन सा आवरण पड़ा हुआ है ? ] इसी प्रकार ईश्वर [जगन्माता (माँ काली)] की प्रार्थना करके और उनकी कृपा प्राप्त करके ही पार करनी पड़ती हैं। इनसे कोई लड़ नहीं सकता। इन्हें स्वीकार कर ही इनको पार करने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं है। इनको पार करना , अर्थात जगतजननी माँ काली की कृपा प्राप्त करना ही हमारा पुरुषार्थ है। प्रार्थना और भक्ति के द्वारा इन्हें पार किया जा सकता है, और इन्हें पार करना ही पड़ेगा।) /
(रस्सी = ब्रह्म, सर्प = जगत ) / (प्रकाश = वह ज्ञान जो पूर्ण है , शुद्ध चेतना, ब्रह्म-अस्तित्व-चेतना-परमानन्द / ज्ञान / (मन्द प्रकाश = प्रतिबिंबित चेतना / अल्प ज्ञान> मैं 100% नहीं जानता कि यह नाम-रूप (M/F) क्या है, इसलिए मेरी बुद्धि अपने भोलेपन या अविवेक के कारण उस वस्तु के विषय में मनमाने ढंग से अपना कोई अन्य निष्कर्ष निकाल लेती है। / (उज्ज्वल प्रकाश = आत्म-ज्ञान जो अज्ञानता को दूर करता है (बुद्धि को स्पष्ट रूप से पता नहीं है कि यह क्या है) जिससे अध्यास (superimposition एक वस्तु पर दूसरी वस्तु का आरोप) पैदा होता है (… इसलिए बुद्धि उस रज्जु पर एक मिथ्या सर्प को आरोपित (superimpose) कर लेती है )। टॉर्च लाईट (एकाग्र मन ) के उज्ज्वल प्रकाश में जब विवेक-सम्पन्न बुद्धि सत्य (ब्रह्म=रज्जु) पर आरोपित (सर्प = जगत) की मिथ्या अवधारणा को हटाकर सत्य (ब्रह्म) का दर्शन कर लेती है; तब उसका भ्रम और भय न जाने कहाँ गायब हो जाता है ! उसे इस सत्य की अनुभूति हो कि - “Truth of self and world is Brahman” -- स्वयं का (अहं नहीं आत्मा का ) और जगत का यथार्थ स्वरुप ब्रह्म ही हैं ! " साक्षी चेतना / पूर्ण ज्ञान = ब्रह्म ज्ञान = ज्ञान के बाद विज्ञान = नित्य-अनित्य विवेक = नित्य भी सत्य लीला भी सत्य (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्णदेव भी सत्य) समझकर हृदय में धारण करना= ब्रह्म को जानना नहीं - ब्रह्म हो जाना Being and Becoming - अर्थात मनुष्य (जीवनमुक्त शिक्षक,नेता) बनकर जगत की सेवा करना = अर्थात महामण्डल के 'Be and Make ' (मनुष्य बनो और बनाओ आन्दोलन) के साथ जुड़ जाना! ] श्री अश्विनीकुमार दत्त के इन विचारों का प्रभाव ही था कि वर्ष 1898 में [अल्मोड़ा में 1897 ई. में 'नरेन्द्रनाथ दत्त ' (स्वामी विवेकानन्द) से उनकी मुलाकात के बाद ही ] उनको पंडित मदनमोहन मालवीय, दीनशावाचा आदि के साथ कांग्रेस का नया संविधान बनाने का काम सौपा गया था। उनके पिता ब्रज मोहन दत्त डिप्टी कलक्टर थे, जो बाद में ज़िला न्यायाधीश भी बने थे।
श्री रामकृष्ण देव का साक्षात् दर्शन उन्हें पहली बार 1881 ई० में प्राप्त हुआ था। इस प्रथम दर्शन के आलावा भी वे अन्य कुछ बार उनसे मिले थे। अश्विनीकुमार प्रथम बार जब श्री रामकृष्ण से मिलने दक्षिणेश्वर गये थे, उसी दिन केशव सेन भी वहाँ आने वाले थे। केशव सेन उस दिन संध्या के समय भक्तों के साथ वहाँ पहुँचे थे, और उनके साथ ईश्वरीय चर्चा करते हुए ठाकुर समाधिस्थ भी हो गए थे। उनकी अवस्था को देखकर ठाकुर के प्रथम दर्शन में ही अश्विनीकुमार यह जान गए थे कि श्री रामकृष्णदेव एक 'सच्चे परमहंस' हैं! ठाकुर के साथ वे चार-पाँच बार ही मिले थे, लेकिन इस थोड़े समय में ही वे श्री रामकृष्णदेव के अंतरंग शिष्यों में एक शिष्य बन गए थे। श्रीरामकृष्णदेव (ठाकुर) के साथ होने वाले
इन चन्द मुलाकातों की अनुभूति ने ही उनके जीवन को मीठी सुगन्ध से भर दिया था।
अश्विनीकुमार के पिता ने भी श्रीरामकृष्ण का दर्शन प्राप्त किया था ।
श्री रामकृष्ण (ठाकुरदेव) चाहते थे
कि अश्विनीकुमार स्वयं उस नरेन्द्र से मिलें जो भविष्य में सम्पूर्ण मानवजाति को 'राजयोग विद्या' से परिचित करवाने के उद्देश्य से भावी मार्गदर्शक नेताओं (जीवनमुक्त शिक्षकों) का निर्माण करने के लिये