श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर
(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली )
(65)
*ईश्वरोपलब्धि के बाद की अवस्था*
482 भगवन (श्रीरामकृष्ण) सबके हिय बसे , जो खोजे सो पाय।
944 पावत निज जन जानहि , मिटहि बोध पराय।।
ज्ञानलाभ होने पर ईश्वर (श्रीठाकुर देव) दूर के नहीं प्रतीत होते। तब फिर वे 'वे ' नहीं रह जाते , 'ये ' बन जाते हैं। हृदय में ही उनके दर्शन होते हैं। वे सबके भीतर हैं , जो उन्हें खोजता है , वही पाता है।
["वे सबके भीतर हैं", -एक राम घट-घट में लेटा ! "One Rama is residing in all ! "इस गुरु वाक्य (महावाक्य) पर विश्वास कर जब हम किसी अपरिचित व्यक्ति को देख कर 'जय श्री रामकृष्ण' कहते हैं, और यदि वह भी 'जय श्रीरामकृष्ण ' बोलकर उत्तर देता है , तो वह पराया नहीं प्रतीत होता अपना बन जाता है ! Belief in this guru sentence (Mahavakya) - One Rama is residing in all !
^ प्रत्येक रामभक्त का ह्रदय "अयोध्या" है- जहाँ श्रीराम रहते हैं ! (Ayodhya is the heart of every devotee of Sri Rama.!)
^ श्रीठाकुर के प्रत्येक भक्त का ह्रदय कामारपुकुर (The heart of every devotee of Sri Thakur is Kamarpukur.और बेलुड़ मठ) है-जहाँ श्री ठाकुर देव रहते हैं !
* श्रीनवनी दा (नरसिंह) के प्रत्येक भक्त का ह्रदय - "भुवनभवन ,बलराम धर्म सोपान, खरदह" और 'महामण्डल भवन ,कोन्नगर' है - जहाँ श्री नवनी दा रहते हैं !
* Heart of every devotee of Shri Navani Da (Narasimha) - "Bhuvan Bhavan, Balaram Dharma Sopan, Khardah" and 'Mahamandal Bhavan, Konnagar' - where Shri Navani Da lives!
483 जिनको ईश्वर लाभ हुआ , डूबे कुम्भ समान।
945 भीतर बाहर देखहिं , आनन्द मय भगवान।।
जिस प्रकार जल में डुबोया कुम्भ * भीतर -बाहर जल से ही पूर्ण रहता है , उसी प्रकार ईश्वर में मग्न हुआ व्यक्ति भीतर-बाहर सर्वत्र सर्वव्यापी ईश्वर को ही देखता है।
[ संत कबीर ने कहा था -
जल में कुम्भ कुम्भ में जल है बाहर भीतर पानी ।
फूटा कुम्भ जल जलहि समाना यह तथ कह्यौ गयानी ॥
अर्थ: जब पानी भरने जाएं तो घडा जल में रहता है और भरने पर जल घड़े के अन्दर आ जाता है इस तरह देखें तो – बाहर और भीतर पानी ही रहता है – पानी की ही सत्ता है। जब घड़ा फूट जाए तो उसका जल जल में ही मिल जाता है – अलगाव नहीं रहता – ज्ञानी जन इस तथ्य को कह गए हैं! आत्मा-परमात्मा दो नहीं एक हैं, आत्मा परमात्मा में - और परमात्मा आत्मा में; विराजमान है। अंतत: परमात्मा की ही सत्ता है। – जब देह विलीन होती है – वह परमात्मा का ही अंश हो जाती है – उसी में समा जाती है। एकाकार हो जाती है।
481 आत्मज्ञानी तेहि जानिए , जिनके हिय नहिं भोग।
942 जीवितहि मृत सामान जो, व्याप्त नहि भव रोग।।
यथार्थ आत्मज्ञानी तो वही है , जो जीवित रहते हुए भी मृत के समान है , अर्थात जो मृत देह की भाँति कामना -वासना से रहित हो गया है।
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