श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर
(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली )
(51)
विरह तथा महाभाव का ज्वार
423 ज्वाला भगवन विरह की , जब भभके हिय माहिं।
789 अति असह दुःख शरीर का , तरुवर झुलस जाहिं।।
ईश्वर-विरह की ज्वाला साधारण नहीं है। कहते हैं कि जब रूप-सनातन * [*श्रीचैतन्य के दो प्रमुख शिष्य। इन्होने ही वृन्दावन में प्रसिद्द गोविन्दजी के मंदिर की प्रतिष्ठा की थी। ] को यह अवस्था होती थी, तब वे जिस पेड़ के नीचे होते थे उसके पत्ते झुलस जाते थे।
मैं इस अवस्था में तीन दिन तक बेहोश पड़ा था। होश लौट आने पर भैरवी ब्राह्मणी मुझे पकड़ कर स्नान करवाने ले गयी। परन्तु हाथों से मेरे तप्त शरीर का स्पर्श करना सम्भव नहीं था। मेरे शरीर पर मोटी चादर ढक , उस पर से मुझे पकड़कर ब्राह्मणी लेगयी थी। देह पर जो मिट्टी लगी थी वह तक झुलस गयी थी। जब यह अवस्था आती है तब ऐसा लगता है कि मानो कोई रीढ़ की हड्डी के बीच से हल चला रहा है। 'प्राण निकल गए ' 'प्राण निकल गए ' कहकर चिल्लाता था। पर उसके बाद आनंद होता था।
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