शुक्रवार, 4 जून 2021

श्री रामकृष्ण दोहावली (12) संसारी नहीं भजन करे , करे न धर्म क्षणिक है और संस्कार ---अर्थात मनुष्य बनो और बनाओ - " Be and Make " एक दीर्धकालीन प्रक्रिया है

श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर 

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(12) 

" संसारियों की भक्ति की अस्थिरता " 

114 संसारी नहीं भजन करे , करे न धर्म प्रसंग। 

195 हँसी उड़ावे भक्त का , मारे कटु कटु व्यंग।।

संसारी जीव को धर्मप्रसङ्ग नहीं सुहाता। वह स्वयं तो कभी भजन-कीर्तन या हरिनाम सुनता ही नहीं , बल्कि दूसरों को भी सुनने नहीं देता। वह धार्मिक संस्थाओं और धर्मात्माओं की निन्दा करता है , और कोई ईश्वर की उपासना करे तो उसकी हँसी उड़ाता है। 

यहाँ [ठाकुर के पास ] भक्तों के साथ कभी-कभी विषयासक्त संसारी लोग भी आ जाते हैं। उन्हें धर्म-सम्बन्धी बातें बिल्कुल नहीं सुहातीं। अगर उनके साथी अधिक देर तक धर्मप्रासांग सुनते रहें तो वे बेचैनी से अधीर हो उठते हैं। जाने के लिए उतावले होकर अपने साथी को केहुनी के इशारे से कहते हैं , " चलो न , और कब तक बैठोगे ! " यदि उसके साथी न उठें और कहें कि " थोड़ा रुक जाओ , अभी चलेंगे ," तो थोड़ी देर में उकताकर वे कहते हैं ," अच्छा , तो तुम यहीं बैठो , हम तब तक नाव पर बैठकर तुम्हारी राह देखते हैं। "  

भय का कारण है अनेकता का भ्रांतिपूर्ण बोध। इस भ्रान्तिजन्य भय या अपने मिथ्या अहंकार को दूर करने का सबसे सरल उपाय है, दक्षिणेश्वर काली मंदिर के माँ भवतारिणी काली का 'अश्विनी भिड़े देशपांडे' द्वारा गाया यह राजस्थानी भजन ! 


मैं धरूँ तिहारो ध्यान, ज्ञान मोहे दीजै हे काली ! 

मैं धरूँ तिहारो ध्यान, ज्ञान मोहे दीजै हे काली !

मुख में बीड़ा पान बिराजे, मुख सोहे लाली। 

नाकन में नकबेसर सोहे, कर्ण फूल बाली ।। १।। 

मैं धरूँ तिहारो ध्यान, ज्ञान मोहे दीजै हे काली ! .... 

 ऊँचे पर्वत वास तिहारो , भोला घरवारी । 

नीचे शहर बसाया जामें, बिजली की उजियारी।। २।। 

मैं धरूँ तिहारो ध्यान, ज्ञान मोहे दीजै हे काली ! .... 

ऐसा तुम्हरा रूप भयंकर , श्याम वर्ण वाली। 

कालीराम कहे सुन भन्ना , कलकत्ते वाली।। २।।

मैं धरूँ तिहारो ध्यान, ज्ञान मोहे दीजै हे काली ! .... 

सवा पहर ले बीच भवन में, खप्पर भर खाली |

कर दुष्टन का नाश, भगत की करना रखवाली ।। ३ ।।  

मैं धरूँ तिहारो ध्यान, ज्ञान मोहे दीजै हे काली ! .... 

126 जब तक मन में भोग है , और अशुभ संस्कार। 

209 बद्ध जीव तब तक नहीं , त्याग सके संसार।। 

इच्छा होते हुए भी मनुष्य संसार का त्याग नहीं कर सकता क्योंकि वह पूरी तरह प्रारब्ध कर्म और पूर्व जन्म के संस्कारों के वशीभूत होता है। एक बार एक योगी ने किसी राजा से कहा , " तुम इस वन में मेरे पास बैठकर भगवान का ध्यान चिंतन करो।  " तब राजा बोला , " नहीं महाराज , अभी भी मेरे भोग बाकी हैं। मैं आपके निकट रह तो रह तो सकता हूँ, मगर विषयभोग की तृष्णा मेरे भीतर बनी ही रहेगी।  अगर मैं इस वन में रहूं तो हो सकता है कि यहीं पर एक राज्य बस जाए ! 

115 अति घुँघराले बाल सम , होवत दुर्जन मन। 

198 कबहुँ न होवत शुद्ध सरल , कर लो लाख जतन।। 

दुर्जन व्यक्ति का मन घुँघराले बाल की तरह होता है। जिस प्रकार कितनी भी कोशिश करो पर घुँघराले बाल को सीधा नहीं किया जा सकता। उसी प्रकार दुर्जन व्यक्ति के मन को प्रयत्न करने पर भी सरल , शुद्ध नहीं किया जा सकता। 

116 घूमे कमण्डल तीर्थ सब , जात न कडुवापन। 

199 तस विषयी के भोग सब , कर लो लाख जतन।। 

साधु का कमण्डलु चारों धाम घूम आता है , पर उसका कडुआपन ज्यों का त्यों ही रह जाता है। विषयी जीव का मन भी ऐसा ही होता है। 

117 पक्की माटी चढ़त नहि , पुनि कुम्हार के चाक। 

200 तस मन से हरि भजन नहीं , जला जो विषयन आग।।

कच्ची मिट्टी से कुम्हार चाहे जैसी वस्तु गढ़ लेता है , परन्तु मिट्टी यदि एक बार जलकर पक्की हो जाये ; तो उसके द्वारा गढ़ना नहीं हो सकता। इसी तरह यदि हृदय विषयवासना की आग में एक बार जलकर पक जाये , तो उस पर ईश्वरीय भावों का प्रभाव नहीं होता , उसे अभीप्सित आकार नहीं दिया जा सकता। 

118 पाथर जल सोखत नहि , जदपि डूबा दिन रात। 

201 बद्ध जीव तस धरत नहिं , धरम  करम की बात।। 

जिस प्रकार पत्थर पानी को नहीं सोखता , उसी प्रकार बद्ध जीव धर्मोपदेश को आत्मसात नहीं करता है। 

119 पाथर में नहि कील धसे , बद्ध न सत उपदेश। 

202 सरल हृदय मन ग्रहण करे , जस जमीन बिन क्लेश।।

पत्थर पर यदि कील ठोकी जाये , तो वह अंदर नहीं जाती। परन्तु जमीन में आसानी से चली जाती है ; उसी प्रकार सत्पुरुषों का उपदेश बद्ध्जीवों के हृदय में प्रवेश नहीं कर पाता, किन्तु विश्वासी व्यक्तियों के हृदय में सरलता के साथ गहराई तक चला जाता है।    

120 बद्ध धरे सत वाणी कस , पुल नीचे जस वारी। 

204 एक कान से ग्रहण करे , दूजे से निकारी।।

जिस प्रकार पुल के नीचे नाले का पानी एक ओर से आता और दूसरी ओर से निकल जाता है, उसी प्रकार धार्मिक बातें बद्ध जीवों के एक कान से भीतर प्रवेश करती है और दूसरे कान से बाहर निकल जाती है , उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता।    

121 विषय सुख विषयी तजे नहीं , ऊँट न काँटा घास। 

207 भोगत घर घर खून गिरे , छोड़त जनु बिनु स्वास।।

बद्धजीवों -संसारी जीवों - को किसी तरह होश नहीं आता। वे इतना दुःख भोगते हैं , इतना धोखा खाते हैं , इतनी विपदायें झेलते हैं , फिर भी वे नहीं चेतते - उन्हें चैतन्य नहीं होता। 

ऊँट कटीली घास खाना बहुत पसंद करता है , किन्तु जितना खाता है उतना ही मुँह से खून गिरता है।  फिर भी वह कटीली घास खाते ही रहता है , उसे  खाना नहीं छोड़ता। संसारी लोग भी इतना शोक -ताप पाते हैं , परन्तु कुछ ही दिनों के अंदर सब कुछ भूलकर ज्यों के त्यों हो जाते हैं। बीबी गुजर गयी या बदचलन निकली , फिर भी वह दूसरी शादी कर लेता है। बच्चा चल बसा , कितना शोक हुआ , पर कुछ ही दिनों में सब भूल बैठता है। बच्चे की वही माँ जो शोक के मारे अधीर हो रही थी , कुछ दिनों बाद फिर केश संवारती है , गहने पहनती है। ऐसा व्यक्ति बेटी के व्याह में सारा धन खर्च कर तबाह हो जाता है , फिर भी उसके घर हर साल बच्चे पैदा होते ही जाते हैं। मुकदमेबाजी में सब कुछ गंवाकर कंगाल हो जाता है , तो भी मुकदमा लड़ने के लिए सदा तैयार ही रहता है। जितने लड़के -बच्चे हुए हैं , उन्हीं को ठीक से खिला-पिला नहीं सकता , पढ़ा नहीं सकता , अच्छी जगह में रख नहीं सकता , और ऊपर से हर साल बच्चा पैदा करता जाता है।    

122 विष्ठा कीट सम विषयी , विषय भोग मन भाय। 

207 जो हठ सत संगत दीजै , तड़प तड़प मर जाय।।

   अगर उसे संसार से हटाकर किसी अच्छे वातावरण में रखा जाये तो वह क्लेश से तड़प तड़प कर मर जायेगा। विष्ठा का कीट विष्ठा में ही आनंद से रहता है , उसी में वह हृष्ट -पुष्ट होता है।  अगर उसे चावल के बोरे में रख दिया जाए तो वह मर जायेगा।  

123 जग असार बद्ध जानहिं , जो हो भाग सहाइ। 

207 निगल सके न उगल सके , साँप छुछुंदर नाइ।।

फिर कभी - कभी तो 'साँप -छछूँदर ' वाली स्थिति हो जाती है - (ओह !)  न निगल सकता है और न उगल सकता है। बद्धजीव (अहंकारी मनुष्य ? ) अगर कभी समझ भी गया कि संसार में कुछ सार नहीं है , अमड़े के फल की तरह सिर्फ 'गुठली ' और 'छिलका ' ही है , तो भी वह उसे छोड़ नहीं सकता , मन को ईश्वर की ओर नहीं लगा सकता।  

124 दूध फटे दधि हांड पड़े ,सुधा वचन बद्ध जीव। 

208 उच्च ज्ञान गुरु देत नहीं , पा विषयी निर्जीव।।

जिस हाँडी में एक बार दही जमाया गया हो , उसमें कोई दूध नहीं रखता कि कहीं वह फट न जाये।  उस हांडी को रसोई बनाने के काम में भी नहीं लाया जा सकता , क्योंकि चूल्हे पर चढ़ाने से उसके तड़ककर फूट जाने का डर रहता है। इस प्रकार वह हाँडी करीब करीब बेकार ही हो जाती है।

125 उपदेश तेहि न दीजिये , जिससे धरा न जाये। 

208 दही हांड में दूध पड़े , पड़त सकल फट जाये।।

जो यथार्थ अनुभवी गुरु /नेता होता है , वह संसारी शिष्य को कभी ऊँचे और मूल्यवान उपदेश प्रदान नहीं करता , क्योंकि वह जानता है कि ऐसा करने पर शिष्य निश्चित ही उसका उल्टा अर्थ समझकर अपनी कार्यसिद्धि के लिए उनका मनमाना प्रयोग करेगा। वह गुरु ऐसे शिष्य को ऐसा कोई काम नहीं बताता जिसमें थोड़ी मेहनत लगे , जिससे कहीं शिष्य ऐसा न सोचने लगे कि गुरूजी अपने फायदे के लिए हमसे यह काम करवा ले रहे हैं।

[अहंकार और संस्कार की तुलना भ्रान्तिपूर्ण है। अहंकार:- 'अहंकार' का शाब्दिक अर्थ- "औरों से भिन्न अपनी पृथक सत्ता का भान। यह व्यक्ति विशेष (या पूरे कुर्थौल ग्राम) का ऐसा अवगुण है, जो समूचे विश्व को अपने से हीन भावना से देखता, जानता और समझता है। उन्हें लगता हैं जो उन्होने सोचा, समझा और जाना वही सर्वोपरि है। ऐसे व्यक्ति भ्रम को ही वास्तविकता मान लेते हैं। 

 और  संस्कार:- शाब्दिक अर्थ है "व्यवस्थित करना"। यह श्रेष्ठ मानव (ऋषियों) द्वारा निर्मित नियम कायदों की वह प्रथा है, जो मनुष्य-जीवन को व्यवस्थित रूप प्रदान करती है। अंहकार क्षणिक है और संस्कार  एक दीर्धकालीन प्रक्रिया है ---अर्थात मनुष्य बनो और बनाओ - " Be and Make " (युवा प्रशिक्षण शिविर या साप्ताहिक पाठचक्र)  एक दीर्धकालीन प्रक्रिया है

संस्कार  पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाली, समूह आधारित प्रक्रिया  है और अहंकार व्यक्ति आधारित। यास्क मुनि के अनुसार-  " जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् भवेत द्विजः। अर्थात – व्यक्ति जन्मतः शूद्र है। संस्कार से वह द्विज बन सकता है। संस्कार मानवचरित्र में स्थायित्व प्रदान करने वाली प्रक्रिया है, वहीं अहंकार अस्थायी। संस्कार  का अभिप्राय उस शिक्षा (प्रशिक्षण)' से है जो किसी व्यक्ति को अपने देश का प्रबुद्ध नागरिक बनाने के उद्देश्य से उसके शरीर (Hand), मन (Head) और हृदय (Heart 3H) को पवित्र करने के लिए किए जाते हैं । व्यक्ति  के अहंकार को परिष्कृत करने या संस्कारित करने के उद्देश्य से जो पद्धति (5 अभ्यास की प्रक्रिया) अपनाई जाती है, उसे ही संक्षेप में 'मनुष्य -निर्माण और चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया' कहते हैं।

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[देखें पुराने ब्लॉग : रविवार, 2 अगस्त 2015/ पंचम वेद -४ : " परमात्मा यदि दयालु है तो संसार में इतने दुख क्यों हैं? " ' पुनर्जन्मवाद और कर्मवाद' ] 


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