श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर
(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली )
(63)
*समाधि तथा ब्रह्मज्ञान*
472 जस अँधेरा तुरत नशे , होत कुटी दीपवान।
915 तस तुरन्त अज्ञान नशे , प्रगट होत हिय ज्ञान।।
जिस प्रकार दीपक के जलाते ही हजार वर्षों की अँधेरी कोठरी भी तुरन्त आलोकित हो जाती है , उसी प्रकार ज्ञान का प्रकाश जीव के हृदय से जन्मजन्मान्तर के अज्ञानान्धकार को दूर कर उसे प्रकाशित कर देता है।
474 ले सहाय हिय ज्ञान की , कर अज्ञान का नाश।
919 फिर दोनों के पार चल , परम् ब्रह्म के पास।।
ज्ञान -अज्ञान दोनों के पार हो जाओ , तभी उन्हें जान पाओगे। नानत्व का नाम ही अज्ञान है। पाण्डित्य का अहंकार भी अज्ञान-जन्य ही है। एक ईश्वर सर्वभूतों में विराजमान हैं -इस निश्चयात्मक बुद्धि का नाम ज्ञान है। उन्हें विशेष रूप से जानना ही विज्ञान है।
" मानलो कि पैर में कांटा चुभा है। उस कांटे को निकालने के लिए और एक कांटे की जरूरत पड़ती है। फिर उस कांटे के निकल जाने पे दोनों काँटों को फेंक देना पड़ता है, वे ज्ञान अज्ञान के परे जो हैं !
"लक्ष्मण ने कहा था , 'राम ! कितना आश्चर्य है ! इतने बड़े ज्ञानी वशिष्ठदेव भी पुत्रशोक से अधीर होकर रो पड़े ! राम ने कहा , 'भाई ! जिसमें ज्ञान है , उसमें अज्ञान भी है ; जिसे एक का ज्ञान है , उसे अनेक का ज्ञान भी है। जिसे प्रकाश का अनुभव है , उसे अंधकार का भी अनुभव है। ब्रह्म ज्ञान-अज्ञान के पार है , पाप-पुण्य के पार है , धर्म-अधर्म के पार है , शुचि-अशुचि के पार है। '
भक्त - 'दोनों काँटों के फेंक देने के बाद क्या रह जाता है ?
श्रीरामकृष्ण - " नित्य शुद्ध बोधस्वरूपं ! वह तुम्हें कैसे समझाऊँ ? अगर तुमसे कोई पूछे , 'कहो घी कैसा लगा ?' तो तुम उसे घी का स्वाद कैसे कैसे समझाओगे ? ज्यादा से ज्यादा तुम उससे इतना ही कह सकते हो कि 'घी घी के ही जैसा लगता है। ' एक नवबधु से उसकी सखी ने पूछा था , 'तेरे पति आये हुए हैं , अच्छा बहन , पति के आने पर किस तरह का आनन्द होता है ? ' वह नवबधु बोली , 'बहन , तेरा विवाह होने के बाद जब तेरे पति आएंगे , तब तू यह समझ पाएगी ; अभी तुझे मैं कैसे समझाऊँ ? '
*अतीन्द्रिय -अवस्था का मनोभाव*
[Sentiment of Transcendental- state]
475 जहाँ विचार का अन्त है , तहाँ समाधि होय।
922 तहाँ नहिं मैं- तुम- जगत , जल कपूर सम खोय।।
कपूर को जलाने पर कुछ भी नहीं बचता। विचार का अंत हो जाने पर समाधि होती है ; उस समय 'मैं ' 'तूम ' 'जगत ' इन सब का चिन्ह मात्र नहीं रहता , मन परब्रह्म में लीन हो जाता है।
473 सिर पे सूरज हो अगर , दिखे नहीं निज छाँह।
917 तस नर समाधिवान को , नहि अहम का बाँह।।
यथार्थ ज्ञान होने पर अहंकार नहीं रहता। समाधि हुए बिना ठीक-ठीक ज्ञान नहीं होता। भरे दोपहर के समय मनुष्य चारों ओर देखता है , पर उसे अपनी छाया नहीं दिखाई देती ; वैसे ही यथार्थ ज्ञान होने पर, समाधि होने पर , अहंकाररूपी छाया नहीं रहती। यदि ठीक-ठीक ज्ञान होने के पश्चात् भी किसी में 'अहं ' दिखाई पड़े तो ऐसा जानना कि वह 'विद्या का अहं ' है , 'अविद्या का अहं ' नहीं।
471 तड़पत मीन जस पावहिं , आनन्द पावत नीर।
913 तस मन आनन्द पावहिं , पा समाधि गंभीर।।
समाधि-अवस्था में मन में किस प्रकार का अनुभव होता है ? मछली को कुछ देर तक पानी के बाहर निकाल रखने के बाद फिर पानी में छोड़ देने पर उसे जिस प्रकार का आनन्द होता है , समाधि में मन में उसी प्रकार का अनुभव होता है।
476 शुद्ध बुद्धि, शुद्ध आत्मा , शुद्ध मन- तीन एक।
924 अवांगमनोसगोचर को , शुद्ध मन से देख।।
किसी भक्त के यह कहने पर कि ' ईश्वर अवांगमनोसगोचर हैं -मन , बुद्धि तथा वाणी के अगोचर हैं ', श्रीरामकृष्ण ने कहा , " नहीं , यद्यपि वे इस मन के गोचर नहीं हैं , तथापि वे शुद्ध मन के गोचर हैं , इस बुद्धि के गोचर नहीं हैं , परन्तु शुद्ध बुद्धि के गोचर हैं।
कामिनी-कांचन की आसक्ति के दूर होते ही शुद्ध मन और शुद्ध बुद्धि का उदय होता है। शुद्ध मन , शुद्ध बुद्धि , और शुद्ध आत्मा एक ही है। वे इस शुद्ध बुद्धि के गोचर हैं। क्या ऋषि-मुनियों ने उनके दर्शन नहीं किये ? उन्होंने शुद्ध बुद्धि के द्वारा शुद्ध आत्मा का साक्षात्कार किया था।
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