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Saturday, June 5, 2021

*Devotion to Ma Kali leads to knowledge.*श्री रामकृष्ण दोहावली (53)~* Name and Form is "Blanket Energy"(आवरण शक्ति)* भक्तिमार्ग ही सार है -माँ जगदम्बा -सम्पूर्ण ईश्वरों की भी अधीश्वरी हैं ,की भक्ति ज्ञान की ओर ले जाती है !

श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(53)

*माँ काली (दुर्गा) की भक्ति से ज्ञान की प्राप्ति होती है! *

[The devotion of Mother Kali leads to knowledge.]

432 भक्ति मार्ग से भजन कर , माँ को प्रथम मनाओ । 

803 पुनि प्रसाद रूप तिन्हके , ब्रह्म ज्ञान को पाओ ।। 

मेरी माँ (जगन्माता ) ने कह दिया है कि वही वेदान्त का ब्रह्म है। जीव के 'कच्चे मैं' को पूरी तरह नष्ट कर उसे ब्रह्मज्ञान देने की शक्ति उसी में है। माँ की इच्छा हुई तो तुम या तो विचारमार्ग से ब्रह्मज्ञान लाभ कर सकते हो , या फिर उसी ज्ञान को भक्तिमार्ग से भी प्राप्त कर सकते हो। 

भक्तिमार्ग ही सार है -ज्ञानभक्ति के लिए व्याकुल होकर निरंतर प्रार्थना करना , माँ के चरणों में आत्मनिवेदन करना। इस तरह पहले माँ की शरण आओ। मेरी बात पर विश्वास रखो कि यदि तुम हृदय से पुकारोगे तो माँ अवश्य तुम्हारी पुकार सुनेगी -तुम्हारी इच्छा पूरी करेगी। फिर यदि तुम उसके निर्गुणनिराकर स्वरुप का दर्शन करना चाहते हो तो उसी से प्रार्थना करो। सर्वशक्तिरूपिणी जगन्माता की कृपा से तुम समाधि में ब्रह्मज्ञान लाभ कर सकते हो।  

429 माया किरपा करहि जब , हटावहि पथ विघ्न। 

799 तब पाहिं दुःख अंत सकल , प्रभु दरसन निर्विघ्न।।

पंचभूतों के फन्दे में पड़कर ब्रह्म को भी रोना पड़ता है। तुम आँख मूँदकर स्वयं को समझते हुए बार बार का सकते हो कि 'कांटा नहीं है , कांटा नहीं है। ' पर ज्योंही तुम कांटे को हाथ लगते हो त्योंही वह तुम्हें चुभ जाता है , और तुम दर्द से उफ़ करके हाथ खींच लेते हो। तुम मन को कितना भी क्यों न समझाओ कि तुम्हारे जन्म नहीं , मृत्यु नहीं , पुण्य नहीं , शोक नहीं दुःख नहीं ; क्षुधा नहीं , तृष्णा नहीं ; तुम जन्मरहित , निर्विकार , सच्चिदानन्दस्वरूप आत्मा  हो , परन्तु ज्यों ही रोग होकर देह अस्वस्थ हो जाती है , ज्योंही मन संसार में कामकांचन के आपात सुख के भुलावे पड़कर कोई कुकर्म कर बैठता है , त्यों ही मोह , यातना , दुःख आ खड़े होते हैं।  और वे तुम्हारे सारे विवेक-विचार को भुलाकर तुम्हें बेचैन कर देते हैं। 

इसलिए यह जान लो कि ईश्वर की कृपा हुए बिना , माया के द्वार छोड़े बिना किसी को आत्मज्ञान नहीं होता , दुःख-कष्टों का अंत नहीं होता। सुना नहीं दुर्गासप्तशती में कहा है , "सैषा प्रसन्ना वरदा नृणां भवति मुक्तये *.....   (दु.स.श. 1./53---58) जब तक महामाया पथ के विघ्नों को हटा न दे तब तक कुछ नहीं हो पाता। ज्योंही महामाया की कृपा होती है , त्योंही जीव को ईश्वरदर्शन होते हैं ; और वह समस्त दुःख-कष्टों के हाथ से छुटकारा पा जाता है। नहीं तो लाख विचार करो, कुछ नहीं होता। ऐसा कहते हैं कि अजवायन का एक दाना चावल के सौ दानों को पचा डालता है। पर जब पेट की बीमारी होती है तब सौ अजवायन के दाने भी एक चावल के दाने को हजम नहीं करा सकते। यह भी ऐसा ही जानना।  

430 दरसन ज्ञान समाधि सब , हरि कृपा ते होय। 

800 भक्ति योग अति सहज पथ , भज शरणागत होय।।

ज्ञान-योगी निर्गुण , निराकार , निर्विशेष ब्रह्म को जानना चाहता है। परन्तु इस युग के लिए भक्तियोग ही सहज मार्ग है। भक्तिभाव से ईश्वर की प्रार्थना करनी चाहिए , उनके पूर्ण शरणागत होना चाहिए। भगवान भक्त की रक्षा करते हैं। और यदि भक्त चाहे तो भगवान उसे ब्रह्मज्ञान भी देते हैं।

साधारणतः भक्त ईश्वर का सगुणसाकार रूप ही देखना चाहता है। परन्तु इच्छामय ईश्वर यदि चाहें तो भक्त को सब ऐश्वर्यों का अधिकारी बनाते हैं , भक्ति भी देते हैं और ज्ञान भी। उसे भावसमाधि में रूपदर्शन भी होते हैं , और निर्विकल्प समाधि में निर्गुण स्वरुप के दर्शन भी। अगर कोई किसी तरह एक बार कलकत्ता आ पहुँचे तो उसे वहाँ के प्रसिद्द किले का मैदान , मानुमेंट , अजायबघर सभी कुछ दिख सकता है। 

428 उपास्य उपासक भाव से , भज लो श्री भगवान। 

797 राह सहज अति सरल यह , होवहि अद्वैत ज्ञान।।

अद्वैत ज्ञान श्रेष्ठ है , परन्तु शुरू में ईश्वर की आराधना सेव्य -सेवक भाव से , उपास्य-उपासक भाव से  करनी चाहिए। यह सबसे सहज पथ है , इसी से आगे चलकर सरलता से अद्वैत ज्ञान प्राप्त होता है। 

431 चीनी बनन नहि चाहहि , रखे स्वाद की चाह। 

802 तस भगत नहिं ब्रह्मसुख , चाहत रूप अथाह।।

साधारणतया भक्त ब्रह्मज्ञान नहीं चाहता। वह ईश्वर के साकार रूप के दर्शन करना चाहता हैं -जगज्जननी काली या श्रीकृष्ण , श्रीचैतन्य आदि अवतारों के रूप ही उसे अच्छे लगते हैं। वह नहीं चाहता कि समाधि मैं-पन का पूर्ण नाश हो जाये। वह इतना मैं-पन बनाये रखना चाहता है , जिसके द्वारा वह भगवान के साकार रूप के दरशन का आनंद लूट सके। वह चीनी खाना चाहता है , स्वयं चीनी बनना नहीं चाहता।   

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          श्री दुर्गासप्तशतीः एक अध्ययन

सामान्य जन इसे शाक्त सम्प्रदाय का अति विशिष्ट ग्रन्थ मानते हैं।   श्रीदुर्गासप्तशती मूलतः अष्टादश पुराणान्तर्गत श्री मार्कण्डेय महापुराण का अंश है । मार्कण्डेयपुराण में ‘श्रीदुर्गासप्तशती’ नाम न होकर “देवीमाहात्म्य” कहा गया है।
 मातृभाव से (शक्तिभाव से) – जगदम्बा की उपासना सप्तशती का मुख्य उद्देश्य है।  और देवीसूक्त को इसकी भूमिका कह सकते हैं। ये भी कहा गया है कि यदि सम्पूर्ण सप्तशती का पाठ सम्भव न हो सके तो सिर्फ मध्यम चरित्र का पाठ किया जाए। ये वातें अति महत्वपूर्ण हैं और रहस्यपूर्ण भी। सच्चिदानन्दस्वरुपा चामुण्डा(चंडिका) सिंह पर सवार हैं । सिंह संयम और अप्रतिम ऊर्जा का प्रतीक है ।  एक ओर संयम है, शिव है तो दूसरी ओर असंयम और अशिव (अमंगल) है। सप्तशती के मध्यम चरित्र से सुस्पष्ट है कि मानवी-चेतना के महाविध्वंसक महिषासुर के नाश के लिए अपने भीतर के दुर्गा (यहाँ महालक्ष्मी) (समस्त दैवीशक्तियों का एकीकृत पुञ्ज) को प्रकट करने की आवश्यकता है।
  प्रथम चरित्र मात्र प्रथम अध्याय में ही पूरा हो जाता है। इसके अन्तर्गत योगनिद्रा से विष्णु को मुक्त होने की प्रार्थनोपरान्त ब्रह्मा के आसन्न संकट का नाश हो जाता है - उनके ग्रास हेतु तत्पर मधु-कैटभ नामधारी दो भयंकर असुरों का , जो विष्णु कर्णमलोद्भूत थे,  विष्णु के द्वारा वध कर दिया जाता है। अद्भुत रुपक है यहाँ। द्वितीय (मध्यम) चरित्र—द्वितीय से चतुर्थ अध्याय पर्यन्त महिषासुर वध तथा इन्द्रादि देवताओं द्वारा शक्ति की स्तुति का प्रसंग है। तृतीय (उत्तम) चरित्र पाँचवें से तेरहवें अध्याय पर्यन्त, सच में उत्तम चरित्र है। देवीसूक्त इसी का अंग है, जिसकी तुलना श्रीमद्भगवद्गीता के विभूतियोग से की जा सकती है, जहाँ श्रीकृष्ण ने सृष्टि में अपनी सर्वव्याकता का निरुपण किया है। विविध शत्रुओं (असुरों) का वध इसी चरित्र के अन्तर्गत हुआ है साथ ही अभिलषित वरप्राप्ति भी इसी चरित्र का अंग है। शंकराचार्यजी ने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘आनन्दलहरी’ में कहा है—
शिवःशक्त्यायुक्तो यदि भवति शक्तः प्रभवितुम ।
 न चेदेवं देवो न खलु कुशलः स्पन्दितुमपि ।। 

अर्थात् शक्ति से युक्त होने पर ही शिव प्रभावशाली हैं। शक्ति की रंजना न होने पर उनमें कोई संचार व गति सम्भव नहीं। ‘ शि ’ से शक्ति रुपी इकार की मात्रा को यदि हटा दें तो शेष जो रहेगा वह ‘ शव ’ (प्राणहीन) होगा । सत्, चैतन्य और आनन्द के साथ ब्रह्म के जो तीनों रुप हैं, अस्ति , भाति और प्रिय ; वही बाद में नाम और रुप (जगत् रुप) भासित होता है। वस्तुतः ये पाँचो एकसाथ ही भासित होते हैं। किन्तु प्राणिमात्र को सिर्फ नाम और रुप का ही अनुभव प्रथमतः होता है। ये नाम-रुप ही आवरण शक्ति है, जिसने सच्चिदानन्द को आवर्णित (आच्छादित) कर रखा है। इस आवरण को ही प्रथमतः पार करना (लब्ध-transcend, अतिक्रमण करना, पहुँचना)  है, इस प्रकार शक्ति की आराधना की प्राथमिकता सिद्ध होती है।  समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त परशिव की इस आवरणात्मिका शक्ति को वेदान्तियों ने माया कहा है। इसका वाचक नाम या प्रणव ‘ह्रीं’ है। सृष्टि के लय काल में यही माया शक्ति - "ह्रीं " समस्त सृष्टिबीज को अपने कोख में पालती हुयी सुरक्षित रखती है। यही कारण है कि तान्त्रिक ग्रन्थों में इसे प्रतिपालिका कहा गया है। यही महामाया जब सृष्टि की पुनः कामना करती है, तो इसका अभिधान या वाचक बीज ‘क्लीं’  होता है और सृष्टिसंरचना में प्रवृत्त यही महाशक्ति ‘ऐं’ बीज से वाच्य होती है। रुद्रयामल (गौरीतन्त्रम्) कुञ्जिकास्तोत्रम् में इसी की चर्चा है—ऐंकारी सृष्टिरुपिण्यै ह्रींकारी प्रतिपालिका क्लींकारी कामरुपिण्यै बीजरुपे नमोऽस्तुते
 दृष्यमान प्रपंचात्मक जगत् का ज्ञान नाम के अधीन है और नाम निर्भर है वाक् पर । ये वाक् स्वयं परमेश्वरी है तथा वाक् से प्रतिपाद्य समस्त अर्थ स्वयं शिव है। वस्तुतः ये दोनों परस्पर संपृक्त हैं। इसे ही शिवका अर्धनारीश्वररुप कहा गया है।इस दृष्य जगत् में ऐसा कोई प्रत्यय,पदार्थ वा वस्तु नहीं, जिसे शब्द के बिना जाना जा सके। माला के मणियों के बीच से गुजरने वाले सूत्र की तरह सबकुछ शब्द-गुम्फित है, अनुस्यूत है। “ऊँ” बीज को ही ईश्वर कहा गया है। तीनों स्वरुप—ब्रह्मा-विष्णु-महेश इसमें विद्यमान हैं। ऊँकार के अन्तर्गत अ इ उ तीन अक्षर हैं, जो क्रमशः आवरण, दल और अंकुर है। इनके अतिरिक्त एक अनिर्देश्य, अव्यवहार्थ, अग्राह्य चतुर्थ मात्रा भी है—चन्द्रविन्दु । ये चौथी मात्रा ही अव्यक्त अणिमाशक्ति है।
सप्तशती में देवी के चरित्र को तीन भागों में विभाजित किया गया—प्रथम चरित्र, मध्य चरित्र एवं उत्तम चरित्र। जिज्ञासा होना स्वाभाविक है कि  देवी के मात्र तीन चरित्र ही क्यों? हालाँकि सत्व, रज, तम तीन गुणोंवाली त्रिगुणात्मिका सृष्टि के अनुसार महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती के रुप में त्रिगुणात्मिका शक्तिस्वरुपा मान कर निःशंक हुआ जा सकता है। सत्, रज, तम इनके तारतम्य से तथा इनके तादात्म्य से कर्मज, सहज और भ्रामज — ये तीन प्रकार की ग्रन्थियाँ बनती हैं जीव में। ये ही कर्मबीज है, जो जीव के बन्धन और मोक्ष के कारण बनते हैं। इन्हें ही हम दूसरे शब्दों में क्रियमाण, संचित एवं प्रारब्ध कर्म की संज्ञा देते हैं।तन्त्र की भाषा में ये ही त्रिग्रन्थियाँ हैं। यथा—ब्रह्मग्रन्थि, विष्णुग्रन्थि एवं रुद्रग्रन्थि । श्रीदुर्गासप्तशती में इन त्रिविध ग्रन्थियों के तारतम्य से ही तीन चरित्र— प्रथममध्यमोत्तमचरित्र संकलित हैं। प्रथम चरित्र में मधुकैटभबध का प्रसंग है। यही हमारी ब्रह्मग्रन्थि है। द्वितीयचरित्र में महिषासुरबध का प्रसंग है। यही विष्णुग्रन्थि है। तृतीयचरित्र वर्णित शुम्भादिबध ही रुद्रग्नन्थि है। उक्त सम्पूर्ण आख्यान में उक्त तीनों ग्रन्थियों के भेदन की प्रक्रिया सम्पन्न होती है। सप्तशती का यही आध्यात्मिक रहस्य है।
[साभार http://punyarkkriti.blogspot.com/2020/05/2.html]

[* अथ श्रीदुर्गासप्तशती -॥ प्रथमोऽध्याय:॥ मेधा ऋषि (मेधा नाड़ी ?)  का राजा सुरथ और समाधि को भगवतीकी महिमा बताते हुए मधु – कैटभ- वध का प्रसंग सुनाना : .... सुरथ का प्रभुत्व नष्ट हो चुका था, इसलिये वे शिकार खेलने के बहाने घोड़े पर सवार हो वहाँ से अकेले ही एक घने जंगल में चले गये ॥९॥

वहाँ उन्होंने विप्रवर मेधा मुनि का आश्रम देखा , जहाँ कितने ही हिंसक जीव ( अपनी स्वाभाविक हिंसावृति छोड़कर ) परम शांतभाव से रहते थे । मुनि के बहुत से शिष्य उस वन की शोभा बढ़ा रहे थे ॥१०॥ 

अत्यन्त कष्ट से जमा किया हुआ मेरा वह खजाना खाली हो जायेगा। ’ ये तथा और भी कई बातें राजा सुरथ निरंतर सोचते रहते थे । एक दिन उन्होंने वहाँ विप्रवर मेधाके आश्रम के निकट एक वैश्य को देखा और उससे पूछा – ‘भाई ! तुम कौन हो? यहाँ तुम्हारे आने का क्या कारण है ? १७। 

वैश्य बोला – ॥२०॥ मेरे विश्वसनीय बंधुओं ने मेरा ही धन लेकर मुझे दूर कर दिया है , इसलिये दु:खी होकर मैं वन में चला आया हूँ । यहाँ रहकर मैं इस बात को नहीं जानता कि मेरे पुत्रों की , स्त्रीकी और स्वजनों की कुशल है या नहीं। 

राजा ने पूछा – ॥२६॥ जिन लोभी स्त्री-पुत्र आदि ने धन के कारण तुम्हें घर से निकाल दिया, उनके प्रति चित्त में इतना स्नेहका बन्धन क्यों है ॥२७-२८॥ मार्कण्डेयजी कहते हैं – ॥३५॥ ब्रह्मन्! तदनन्तर राजाओं में श्रेष्ठ सुरथ और वह समाधि नामक वैश्य दोनों साथ-साथ मेधा मुनिकी सेवा में उपस्थित हुए।

 राजा ने कहा – ॥३९॥ भगवन् ! मैं आपसे एक बात पूछना चाहता हूँ, उसे बताइये ॥४०॥ मेरा चित्त अपने अधीन न होने के कारण वह बात मेरे मनको बहुत दु:ख देती है । जो राज्य मेरे हाथ से चला गया है , उसमें और उसके सम्पूर्ण अंगों में मेरी ममता बनी हुई है॥४१॥यह जानते हुए भी कि वह मेरा नहीं है , अज्ञानी की भाँति मुझे उसके लिये दु:ख होता है; यह क्या है ? इधर यह वैश्य भी घर से अपमानित होकर आया है । इसके पुत्र ,स्त्री और भृत्योंने इसे छोड़ दिया है॥४२॥ स्वजनों ने भी इसका परित्याग कर दिया है , तो भी यह उनके प्रति अत्यन्त हार्दिक स्नेह रखता है । इस प्रकार यह तथा मैं दोनों ही बहुत दु:खी हैं ॥४३॥

जिसमें प्रत्यक्ष दोष देखा गया है, उस विषय के लिये भी हमारे मन में ममताजनित आकर्षण पैदा हो रहा है । ममास्य च भवत्येषा विवेकान्धस्य मूढता॥४५॥  महाभाग ! हम दोनों समझदार हैं ; तो भी हम में जो मोह पैदा हुआ है, यह क्या है ? विवेक-शून्य पुरुष की भाँति मुझमें और इसमें भी यह मूढ़ता प्रत्यक्ष दिखायी देती है ॥४४- ४५॥ 

ज्ञानिनो मनुजाः सत्यं किं* तु ते न हि केवलम्॥४९॥ यह ठीक है कि मनुष्य समझदार होते हैं; किंतु केवल वे ही ऐसे नहीं होते॥४९॥ पशु, पक्षी और मृग आदि सभी प्राणी समझदार होते हैं । मनुष्यों की समझ भी वैसी ही होती है, जैसी उन मृग और पक्षियों की होती है ॥५०॥ मनुष्याणां च यत्तेषां तुल्यमन्यत्तथोभयोः।॥५१॥ यह तथा अन्य बातें में भी ----(आहार , निद्रा, भय, मैथुन के मामले में भी)  प्राय: दोनोंमें समान ही हैं।

समझ होने पर भी इन पक्षियोंको तो देखो, ये स्वयं भूख से पीड़ित होते हुए भी मोहवश बच्चों की चोंच में कितने चाव से अन्न के दाने डाल रहे हैं। मानुषा मनुजव्याघ्र साभिलाषाः सुतान् प्रति ॥५२॥ नरश्रेष्ठ! क्या तुम नहीं देखते कि ये मनुष्य समझदार होते हुए भी----*लोभात् प्रत्युपकाराय नन्वेतान् किं न पश्यसि ।तथापि ममतावर्त्ते मोहगर्ते निपातिताः॥५३॥ लोभवश अपने किये हुए उपकार का बदला पाने के लिये पुत्रों की अभिलाषा करते हैं - (वंश-विस्तार करने में लगे रहते हैं) ?

यद्यपि उन सबमें समझ की कमी नहीं है, तथापि वे संसार की स्थिति (जन्म-मरण की परम्परा ) बनाये रखने वाले भगवती महामाया के प्रभाव द्वारा ममता-मय भँवर से युक्त मोह के गर्त में गिराये गये हैं ।इसलिये इसमें आश्चर्य नहीं करना चाहिये । जगदीश्वर भगवान विष्णु की योगनिद्रारूपा जो भगवती महामाया हैं, उन्हीं से यह जगत मोहित हो रहा है । ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा।  बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति।।सा विद्या परमा मुक्तेर्हेतुभूता सनातनी ॥ ५७॥ संसारबन्धहेतुश्च सैव सर्वेश्वरेश्वरी ॥ ५८॥ 

वे भगवती महामाया देवी ज्ञानियों के भी चित्त को बलपूर्वक खींचकर मोह में डाल देती है । वे ही इस सम्पूर्ण चराचर जगत की सृष्टि करती हैं। तथा वे ही प्रसन्न होनेपर मनुष्यों को मुक्ति के लिये वरदान देती हैं । वे ही परा विद्या संसार-बन्धन और मोक्ष की हेतुभूता सनातनी (अविनाशी, eternal) देवी तथा सम्पूर्ण ईश्वरों की भी अधीश्वरी हैं ॥५१- ५८॥

[साभार https://www.durgasaptashati.in/first-chapter]

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