श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर
(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली )
(13)
" संसारियों की भक्ति की अस्थिरता "
133 गर्म तवा बून्द सम , विषयी जन का मन।
215 पा सत्संग क्षुण क्षुण करे , फिर से वही खन खन।।
विषयी लोगों का ' भगवान ' कैसा होता है , जानते हो ? जैसे घर में चाचियों या ताइयों को परस्पर लड़ते समय कसम खाते देख बच्चे भी खेलते समय आपस में कहते हैं -'भगवान कसम ! ' या जैसे कोई शौक़ीन बाबू सज-धजकर पान चबाते चबाते , हाथ में छड़ी घुमाते हुए बगीचे में शान से टहलते एक फूल तोड़कर मित्र से कहता है - " वाह ! भगवान ने कितना beautiful -फूल बनाया है ! " विषयी लोगों का यह भाव क्षणिक होता है, जैसे- " तप्त लोहे पर पानी के छींटे !" *
इसीलिए कहता हूँ , भगवान के लिए व्याकुल होओ। डुबकी लगाओ। भक्तिसमुद्र में गहरी डुबकी लगाओ।
127 सुख हित विषयी धरम करे, दुःख में दुखड़ा रोय।
210 जस तोता श्री राम रटे , दुःख में टें टें होय।।
विषयी लोग संसार में पार्थिव लाभ की आशा से अनेक दान-पुण्य आदि धार्मिक कृत्य किया करते हैं , परन्तु दुःख, दैन्य , दुर्दशा के आते ही वे यह सब भूल जाते हैं। तोता वैसे तो दिनभर ' राधाकृष्ण राधाकृष्ण ' रटता है, पर बिल्ली के धर दबाते ही 'राधाकृष्ण ' भूल कर ' टें टें ' चिल्लाने लग जाता है।
128 उपदेश ताको व्यर्थ है , विषय में जाको मन।
210 विषय भोग अति प्रिय लगे , कबहुँ न रुचे भजन।।
इसीलिये तुमसे कहता हूँ कि ऐसे लोगों को धर्मोपदेश देना व्यर्थ है। तुम कितना भी उपदेश दो , ये तो ज्यों के त्यों विषयासक्त बने रहेंगे।
129 स्प्रिंग सम तेहि जानिए , विषयी जन का मन।
211 दबा रखो तो धरम करे , फिर से विषय जतन।।
स्प्रिंग लगी हुई गद्दी किसी के बैठते ही दब जाती है , और उसके उठते ही पहले जैसी हो जाती है। संसारी लोग भी इसी तरह के होते हैं। जब तक वे धर्मप्रसङ्ग सुनते हैं तबतक उनमें धर्मभाव बना रहता है , पर ज्योंही वे अपने रोज के सांसारिक कामों में प्रवेश करते हैं, त्योंही सबकुछ भूलकर पूर्ववत विषयी बन जाते हैं।
130 भट्टी भीतर लोह सम , विषयी जन का मन।
212 सत्संग में धरमी रहे , फिर से विषय जतन।।
लोहा जब तक भट्ठी में रहता है तब तक लाल दिखाई देता है , बाहर निकालते ही काला बन जाता है। इसी तरह , संसारी मनुष्य जब तक किसी मन्दिर या धार्मिक व्यक्तियों के सत्संग में (Recovery Room या रोगनिवृत्ति कमरा में ?) रहते हैं , तब तक वे धर्मभावपूर्ण रहते हैं , परन्तु जैसे ही वे वहाँ से बाहर आते हैं , उनका वह भक्तिभाव का उच्छवास जाने कहाँ चला जाता है।
131 जस मक्खी की चाल है , तस विषयी का मन।
213 क्षण मँह धर्म प्रसंग करे , क्षण मँह विषयन रंग।।
जिस प्रकार मक्खी अभी भगवान के भोग पर बैठती है , तो दूसरे ही क्षण सड़े घाव पर। कमिनी -कांचन के भोग-सुख में मग्न हो जाता है।
132 गोबर कीड़ा जानिए , विषयी जन का मन।
214 विषय रहत सुख चैन है , तेहि बिन तजहहिं तन।।
विषयी लोगों का मन गोबर के कीड़े की तरह होता है। गोबर का कीड़ा सदा गोबर में ही रहता है और गोबर में ही रहना पसंद करता है। यदि कोई उसे उठाकर कमल के फूल पर बैठा दे तो वह छटपटाकर मर जाता है। इसी तरह विषयी पुरुष संसार की विषय-वासनाओं से भरे दूषित वातावरण को छोड़ एक क्षण के लिए भी बाहर नहीं रहना चाहता।
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{ *विषयी लोगों के भगवान को जानने की व्याकुलता के ऊपर मैथिल कवि विद्यापति कहते है -
‘‘ तातल सैकत वारि-विंदू सम सुत वित रमनि समाजे,
तोहे विसारि मन ताहे समरपिलु अब मझु होवे कोन काजे’’
माधव हम परिणाम निराशा।
‘‘जिस प्रकार गर्म रेत पर पानी की एक बूंद का अस्तित्व होता है, वैसे ही पुत्र, धन और प्रेयसी का संबंध व्यक्ति के जीवन में है। माधव (ईश्वर) तुम्हें विसरा कर (भुला कर) हमने अपना जीवन उन्हें समर्पण कर दिया। अब हमारा क्या होगा।’’
[Like offering a drop of water unto the burning hot sands of the beach, I have offered my mind unto the society of women, children, and friends, abandoning You; now what use am I?]
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