गुरुवार, 22 दिसंबर 2022

सच्चे नेतृत्व की उत्पत्ति [Genesis Of true Leadership ]/

(1) सच्चे नेतृत्व की उत्पत्ति [Genesis Of true Leadership ]

 (1.1)>>>नेतृत्व का मौलिक सिद्धांत (Fundamental principle of Leadership)




 

/(1.2) >>>All this creation has manifested from the 'Whole' !(यह सारी सृष्टि पूर्ण से 'Whole' या ब्रह्म से ही प्रकट हुई है !)/




(1.3)>>>Truth is of two kinds: The Absolute (Transcendental) and Relative truth. (सत -असत- मिथ्या विवेक : 'इन्द्रियगोचर सत्य और इन्द्रियातीत सत्य', सापेक्षिक सत्य और पूर्ण सत्य।" / 




(1.4 *** ब्रह्म ही जगत हो गया)>>> What is the theory of evolution?/




(1.5) >>> Education and Religion : [LOVE or Unselfishness tending towards zero is animality;/




(1.6) >>> Be and Make a Heart-Whole-Man >"हृदयकमल -पूर्ण विकसित- मनुष्य" बनो और बनाओ !/ 




(1.7 ** '3H- evolution' ) >>>Selection of would be leader trainee for 3H Development, (especially 'LOVE' evolution) is duty of a Leader ! /





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 (1)

सच्चे नेतृत्व की उत्पत्ति

[Genesis Of true Leadership ]

(1.1)>>>नेतृत्व का मौलिक सिद्धांत (Fundamental principle of Leadership) 

 नेता किसे कहते हैं ? नेतृत्व कैसे किया जाता हैं? *नेतृत्व दरअसल मानव में दिया हुआ ईश्वर का गुण है *  किन्तु वर्तमान समय में 'नेता' शब्द इतना बदनाम हो गया है कि नेता शब्द सुनने मात्र से ही मन वितृष्णा से भर उठता है।  किन्तु हमे इस शब्द को केवल गलत अर्थों में न लेकर इसके यथार्थ मर्म को भी समझने की चेष्टा करनी चाहिये।  आइये, हमलोग यह समझने का प्रयास करें कि 'नेतृत्व - Leadership' किसे कहते हैं, क्यों और कहाँ हमें एक मार्गदर्शक नेता की आवश्यकता महसूस होती है ? तथा सच्चे नेता 'Leader' होते कैसे हैं?

नेता शब्द संस्कृत के 'नी' धातु से निकला है । 'नयति इति नायकः' अर्थात जो आगे ले जाये वो नेता है। नेता शब्द के अर्थ हैं : आगे ले चलनेवाला, अगुआ, नायक,  सरदार। स्वामीजी कहते थे -सिरदार तो सरदार। अर्थात जो जगत में विद्यमान असमानता को दूर हटाकर सार्वभौमिक साम्यावस्था प्राप्त करने की दिशा में,सबको साथ लेकर चले। यह नेतृत्व का मौलिक सिद्धान्त है। इसी सिद्धान्त को आधार बनाकर आत्मविकास के सारे प्रयास होने चाहिये। हमारी सारी योजनायें और विकास कार्यक्रम इसी मूलभूत सिद्धान्त पर आधारित होने चाहिए। 

    सृष्ट जगत में शारीरिक , मानसिक और आध्यात्मिक दृष्टि से रूप-रंग, अभिरुचि और सामर्थ्य आदि में विभिन्नतायें रहेंगी ही। इसे सत्य को स्वीकार करते हुए भी, हमें अपने सामर्थ्य, शक्ति और संभावनाओं का उपयोग भारत का कल्याण और वैश्विक साम्यावस्था को प्राप्त करने के लिए करना होगा। समस्त चराचर जगत की कार्य-प्रणाली, मनुष्य जीवन का उद्देश्य, उसको क्रियान्वित करने का उपाय और उसे आगे ले जाने का सही पथ, पद्धति या Method बतलाने वाले आध्यात्मिक शिक्षक, मार्गदर्शक नेता कि जरूरत पड़ती है। वैसे नेता की जरूरत आज जीवन के हर क्षेत्र में पड़ती है, चाहे वो शिक्षा हो, व्यापार हो , समाज हो, या राजनीति । अतएव भारत के राष्ट्रीय आदर्श 'त्याग और सेवा ' को पुनः स्थापित करने के प्रयास में अपने प्राणो को भी न्योछावर करने से न हिचके,ऐसे मानव-जाति के सच्चे मार्ग-दर्शक नेता या आध्यात्मिक शिक्षक प्राचीन समय से ही रहे हैं, आज भी हैं , और भविष्य में भी रहेंगे।          

['स्वामी विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' में प्रशिक्षित (C-IN-C नवनीदा) जैसे नेता; आध्यात्मिक शिक्षक, गुरु,अवतार,पैगम्बर - जिनकी अपनी ज्ञानपिपासा (thirst for knowledge) माँ जगदम्बा और  गुरु विवेकानन्द की कृपा से  तृप्त हो चुकी है, वैसे आध्यात्मिक शिक्षक ही दूसरों की ज्ञानपिपासा को तृप्त करने में समर्थ हैं। ऐसे मानव-जाति के सच्चे मार्ग-दर्शक नेता प्राचीन समय से ही रहे हैं, आज भी हैं, और भविष्य में भी रहेंगे। ] 

(1.2) >>>All this creation has manifested from the 'Whole' !(यह सारी सृष्टि पूर्ण से 'Whole' या ब्रह्म से ही प्रकट हुई है !) 

हमारे देश के शास्त्रों के अनुसार - 'चैत्न्यात् सर्वं उत्पन्नं' ( Everything arises from consciousness) एक मात्र वस्तु ब्रह्म या पूर्ण (the Absolute)  से यह सारी सृष्टि प्रकट (Manifested ) हुई है !  "जन्मादि अस्य यतः" -  (जन्मादि) जन्म-मृत्यु आदि (अस्य यतः) अर्थात जिससे इस समस्त संसार की उत्पत्ति एवं प्रलयादि होती है, वह ब्रह्म है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि सृष्टि के प्रारम्भ से पहले केवल साम्य और संतुलन की अवस्था थी। उस समय जब केवल एक ही वस्तु विद्यमान हो, उस समय समता न हो, ऐसा हो नहीं सकता। लेकिन जैसे ही उस  आदि साम्यावस्था (Fundamental equilibrium) में विक्षोभ उत्पन्न हुआ कि, उसी क्षण सृजन-लीला का प्रारम्भ हो गया। 

ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् , पूर्ण मुदच्यते, 

पूर्णस्य पूर्णमादाय, पूर्ण मेवा वशिष्यते।

 ॐ शांति: शांति: शांतिः 

(ईश उपनिषद)

 - अर्थात वह 'परब्रह्म' (अल्ला,गॉड या ईश्वर) जो दिखाई नहीं देता है, वह अनंत और पूर्ण है। क्योंकि पूर्ण से पूर्ण की ही उत्पत्ति होती है। यह दृश्यमान जगत भी अनंत है। उस अनंत से ही विश्व-ब्रह्माण्ड बहिर्गत हुआ। यह अनंत विश्व उस अनंत से बहिर्गत होने पर भी अनंत ही रह गया है!

 और सृष्टि का अर्थ ही होता है, भिन्न भिन्न प्रकार की वस्तुऐं, अनेकों प्रकार के नाम-रूप । विविधताओं से रहित सृष्टि की कल्पना भी नहीं की जा सकती। 'विभिन्नता' ही सृष्टि का आधार है, इसीलिये सृष्ट जगत में  स्वाभाविक तौर पर विविधतायें रहती हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि सृष्टि प्रारंभ होने से पूर्व इसके उपादान तत्त्व सन्तुलन में थे तथा बिल्कुल साम्यावस्था थी। उस अवस्था में जब एकमेवा-द्वितीय ब्रह्म या पूर्ण (the Absolute, परम् सत्य या ईश्वर) को छोड़ कर दूसरी कोई वस्तु थी ही नहीं, तब नैसर्गिक रूप से सभी एक समान थे। किन्तु जैसे ही उस आद्य साम्यावस्था में विक्षोभ उत्पन्न हुआ, कि सृष्टि का प्रकटीकरण और विस्तार होने लगा।

स्पष्ट है कि ब्रह्म या आत्मा की शक्ति से ही सूर्य, चंद्रमा, पृथ्वी, अंतरिक्ष, वायु, प्राणियों के शरीर आदि उत्पन्न होते हैं। इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि पूर्ण से सृजन, अभिव्यक्ति या प्रकटीकरण (Manifestation) के किसी भी स्तर में, पशु  से लेकर मनुष्य या देवता तक विविधताओं का अस्तित्व तो रहेगा ही।  इस वैषम्य को कभी टाला नहीं जा सकता, किन्तु हमें यह बात भी समझनी होगी कि इसी अनेकता में एकता भी छुपी हुई है। इस मूल बात को हमे अपने मन में बैठा लेना होगा। इसीलिये दूसरों की भलाई की बात सोचना, दूसरों का हित सोचना सचमुच एक महा मन्त्र है : हमलोग प्रार्थना करते हैं -  

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्।।

सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मंगलमय के साक्षी बनें और किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े। इन्हीं मंगलकामनओं के साथ आपका दिन मंगलमय हो। 

दूसरों की भलाई की बात सोचना, दूसरों का हित सोचना ही महा मन्त्र है। अपने मन में नकारात्मक सोच हम न सोचें, और दूसरों के मन में भी सकारात्मक विचार भरने की चेष्टा करें तो सदैव हमारा मन्त्र फलीभूत होगा। किसी पेपर पिन बनाने वाली फैक्ट्री के मालिक ने एकबार पूज्य नवनीदा को बताया था कि यद्यपि सारे पेपर पिन एक ही ऑटोमेटिक मशीन द्वारा निकलते हैं, तथापि बनावट की दृष्टि से प्रत्येक पिन का हत्था या नोक एक दूसरे से भिन्न हो जाता है।इसलिए पूज्य नवनी दा कहते थे- "Be and Make- Whole Hearted Man ! पूर्ण हृदयवान मनुष्य बनो और बनाओ। "  

[सच्ची घटना : मधुमक्खियाँ भी  हृदय की भाषा  समझतीं  हैं।  कोरोना के समय जब फिज़िकल पाठचक्र दो साल से बन्द था , हमलोगों के झुमरी तिलैया महामण्डल के ऑफिस के ठीक दरवाजे पर एकबार मधुमक्खियों ने बहुत बड़ा छत्ता बना दिया था। जब हमलोग अन्दर घुसना चाहे तो सेक्रेटरी अजय अग्रवाल एकदम सिर को नीचे करके घुसा और लाईट जलाया। जैसे ही लाईट जलाया, सारी मधुमक्खियाँ  अन्दर आने लगीं। मैंने मजाक में हँसते हुआ कहा " हे मधुमखियौं हमलोग तुम्हारा कोई अहित नहीं करेंगे। तूम भी हमलोगों का अपकार नहीं करना।” अजय अग्रवाल भाई ने कहा कि क्या वे समझेगी ? इसके नीचे आग जलाकर भगा देना चाहिए। बलराम मिश्रा (DAV) ने कहा वे एक खास मौसम समाप्त होने के बाद खुद चली जाएँगी। हम सबों ने सुदीप, पिन्टू, धर्मेन्द्र सिंह, प्रेम से और निष्कपट भाव से, हँसते हुए  यह बात मधुमख्खियों से कह दिया। बाहर का लाईट जला देने पर खुद बाहर चली गयीं। प्रमाणित हो गया कि मधुमक्खियाँ भी  हृदय की भाषा  समझतीं  हैं ! केवल दिल खोल कर -उनके साथ, सहृदयता पूर्वक वार्तालाप करना पड़ा । उन मधुमक्खियों के अंदर तथा हमारे अंदर एक ही आत्मा का निवास है, इसे जानना चाहिए। ]

(1.3)>>>Truth is of two kinds:  [The Absolute (Transcendental) and Relative truth.] [(सत -असत- मिथ्या विवेक : नश्वर और शाश्वत सत्य , परिवर्तनीय और अपरिवर्तनीय सत्य, 'इन्द्रियगोचर सत्य और इन्द्रियातीत सत्य', सापेक्षिक सत्य और पूर्ण सत्य।" ]

स्वामीजी ने  कहा है " सत्य के दो भेद हैं-- 1. पहला वह सत्य जिसे मनुष्य अपनी पंचेन्द्रियों के माध्यम से, और उस पर आधारित तर्क द्वारा ग्रहण करता है। जैसे डाली से टूटकर सेव नीचे ही क्यों आया, ऊपर क्यों नहीं गया ? इस प्रकार इन्द्रियों (दर्शन-इन्द्रिय) की गवाही, एवं तर्क -आधारित अनुमान के द्वारा संकलित ज्ञान को विज्ञान कहते हैं। [जैसे गुरुत्वाकर्षण का नियम (Law of gravitation) को विज्ञान और न्यूटन को वैज्ञानिक कहते हैं ! ]  

2. दूसरा वह सत्य जिसे अतीन्द्रिय सूक्ष्म योगज शक्ति या 'आध्यात्मिक शक्ति' के द्वारा ग्रहण किया जाता है। 'which is cognizable by the subtle, supersensuous power of Yoga.'  यह 'अतीन्द्रिय ज्ञान ' जिस मनुष्य में आविर्भूत अथवा प्रकशित होती है, उसका नाम है ऋषि, और उस आध्यात्मिक शक्ति के द्वारा वे जिस अलौकिक सत्य (अविनाशी,पूर्ण -सत्य) की अनुभूति करते हैं, उसका नाम है -'वेद'। इस ऋषित्व तथा वेद-दृष्टत्व को प्राप्त करना ही यथार्थ धर्मानुभूति है। साधक के जीवन में जब तक इस वेद-दृष्टत्व का विकास नहीं होता, तब तक 'धर्म' केवल 'कहने भर की बात' है; एवं समझना चाहिये कि उसने धर्मराज्य के प्रथम सोपान भी पैर नहीं रखा है। (खंड १०/१३९) 

(1.4 *** ब्रह्म ही जगत हो गया)>>> What is the theory of evolution? क्रमविकासवाद क्या है ? ' नेति से इति' >>Life is the unfoldment and development of a being under circumstances tending to press it down. स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " जो ब्रह्म अनन्त असीम है , वह सीमित, ससीम कैसे हुआ? अब मैं इसी प्रश्न को लेकर आलोचना करूँगा। अनन्त सीमित कैसे हुआ , यह प्रश्न ही भ्रमात्मक और स्वविरोधी है। हमलोग यह जानते हैं कि ब्रह्म ही जगत हो गया है। 

ब्रह्म और जगत 

The Absolute and Manifestation

सत्य-मिथ्या विवेक और श्रद्धा 

इन्द्रियातीत सत्य और अभिव्यक्ति 

यह ब्रह्म (A - पूर्ण, परम् सत्य, 100 % unselfishness, या प्रेमस्वरूप ईश्वर) ही, देश-काल-निमित्त (C-कार्य-कारणवाद की धारणा) में से होकर आने से जगत (B) बन गया है। यही अद्वैतवाद की मूल बात है।  " हमलोग  ब्रह्म को देश-काल-निमित्त रूपी चश्में से देख रहे हैं , और इस प्रकार नीचे की ओर देखने पर ब्रह्म (आत्मा) हमें जगत के रूप में दीखता है।"

 क्रमविकासवाद का सिद्धान्त क्या है ? इसके दो प्रमुख अवयव हैं। एक है प्रबल अन्तर्निहित शक्ति (100 % निःस्वार्थपरता-प्रेम) , जो अपने को व्यक्त करने की चेष्टा कर रही है, और दूसरा है बाहर की परिस्थितियाँ और परिवेश का दबाव (तीनों ऐषणाओं)  जो उसे अवरुद्ध किये हुए हैं, जो उसे व्यक्त नहीं होने देतीं। इस बाह्य परिवेश के दबाव को हटाकर व्यक्त हो जाना ही जीवन है।  

और जो " बाह्य परिस्थितियाँ और परिवेश का जो दबाव (वासना और धन में तुम्हारे मन की आसक्ति- ऐषणाएँ )  तुम्हारे जीवनपुष्प को विकसित नहीं होने दे रही है, उस पर विजय प्राप्त करने की प्रक्रिया यह है -`through the subjective, by perfecting the subjective." -  या स्वयं के माध्यम से स्वयं को पूर्ण बनाओ ! "उद्धरेत् आत्मना आत्मानं " (गीता 6. 5)

     ---वासना और धन ( lust and lucre ) के दास मत बनो।  'वासना और धन ' में  लालच और गुस्सा मत रखो । सांसारिक (worldliness) के मोह-माया के भ्रमजाल   से ऊपर उठो? " Become divine and attain Godhead" - 'दिव्य मनुष्य बनो और भगवान को प्राप्त करो !

'दिव्य मनुष्य' बनने का अर्थ हुआ नवनीदा के जैसा  'शरीर से कर्मठ, मन से ज्ञानवान और ह्रदय से प्रेममय' मनुष्य बनो और बनाओ , और क्रमशः निःस्वार्थी होते हुए पशुत्व से मनुष्यत्व और मनुष्यत्व से देवत्व में उन्नत हो जाओ-या पूर्णतया निःस्वार्थी हो जाओ ! [One should raise oneself by one's Self alone;  Do not become a slave of lust and lucre ? greed and anger. Rise above worldliness? ] 

" (नेति, नेति  करते हुए) जब कोई मनुष्य अपने मन का विश्लेषण करते करते ऐसी एक वस्तु (ब्रह्म) के साक्षात् दर्शन कर लेता है,  जिसका किसी काल में नाश नहीं, जो अजर-अमर-अविनाशी है, जो स्वरूपतः सच्चिदानन्द है ! तब उसको फिर दुःख नहीं रह जाता, उसका सारा विषाद न जाने कहाँ गायब हो जाता है। भय और अपूर्ण वासना ही समस्त दुःखों का मूल है। पूर्वोक्त अवस्था के प्राप्त होने पर मनुष्य समझ जाता है कि -उसकी मृत्यु किसी काल में नहीं है, तब उसे फिर 'मृत्यु-भय' नहीं रह जाता। अपने को पूर्ण समझ लेने-अनुभव कर लेने के बाद असार वासनायें फिर नहीं रहतीं। पूर्वोक्त कारण द्वय - " मृत्यु-भय तथा वासना और धनदौलत (Lust and lucre) का लालच नहीं रहने, (तीनो ऐषणाओं से अनासक्त  हो जाने) पर फिर कोई दुःख नहीं रह जाता, इसी जगह इसी देह में परमानन्द की प्राप्ति हो जाती है।  इस ज्ञान की प्राप्ति के लिए एकमात्र उपाय है एकाग्रता ! " (१/४०)

स्वामी विवेकानन्द ने भी पूछा था -  हे भगवन, भला किसको जान लेने पर यह सबकुछ जान लिया जाता है ?`कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति ।'  उनके गुरु श्रीरामकृष्ण कहते हैं , जिसने अपने जीवन के समस्या द्वय- "मृत्यु का  भय और वासना और धन (Lust and lucre) में आसक्ति की समस्या को हल कर लिया है। अतीन्द्रिय सत्य को प्रत्यक्ष करने के लिए एक ऐसे व्यक्ति के चरणों के पास बैठकर शिक्षालाभ करना आवश्यक है , जिसने स्वयं उस सत्य का साक्षात्कार कर लिया है।  तथा जगत के करणरूपी उस भूमा को जान लिया है, जिनकी अपनी ज्ञान-पिपासा तृप्त हो गयी है और जो  दूसरों को भी तृप्त करने में समर्थ हैं।  [वि० चरित ५०]  

[' नेति से इति' >>  निषेध के बाद स्वीकरण -Negation to Affirmation)  अर्थात  एक बार अखण्ड सच्चिदानन्द तक पहुँचकर फिर वहाँ से उतरकर, ऋषि की दृष्टि से यह सब (जगत को) देखो। .... ब्रम्ह निश्चल है, जगत चल रहा है, संसार के सभी पदार्थ परिवर्तन-शील हैं किंतु परिवर्तन का नियम भी अपरिवर्तनीय नियम-ऋत से बँधा हुआ है।  जिसके कारण सूर्य-चंद्र-पृथ्वी  गतिशील हैं। पृथ्वी अपने अक्ष पर 23½° झुकी हुई है और सूर्य की परिक्रमा करती है ,जिसके कारण ऋतुपरिवर्तन होता है। पृथ्वी अपनी धुरी पर 1700 kms/ per hour की गति से पश्चिम से पूरब की ओर घूम रही है। पृथ्वी गोल है पर हमें चपटी दिखती है। सूरज स्थिर है पर हमें चलता दिखाई है। [(सत्य वचन अधीनता परस्त्री मात समान। इतने पे हरि ना मिले, तो तुलसी झूठ जुबान।।आकर चारि लाख चौरासी। जाति जीव जल थल नभ बासी॥ सीय राममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी॥) "निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आये थे लेकिन,बहुत बे-आबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले।"/यह भी सही वह भी सही: क्या हार में क्या जीत में,किंचित नहीं भयभीत मैं। संधर्ष पथ पर जो मिले, यह भी सही वह भी सही। वरदान मांगूंगा नहीं।-शिवमंगल सिंह सुमन/)इसीलिए उत्तम भक्त नरेन्द्र कहते थे - तब लोटा भी ब्रह्म है और थाली भी ब्रह्म है ?14 अप्रैल 1986 हरिद्वार कुम्भ में तारा-पुत्र कौन्तेय के लिए भी -'लोटा ब्रह्म , थाली ब्रह्म' हो गया था ! ( 2 मार्च, 1884) -श्रीरामकृष्ण वचनामृत-77/]  

स्वामी विवेकानंद जी ने शिकागो धर्म महासभा में 15 सितम्बर,1893 को 'हमारे मतभेद का कारण' विषय पर बोलते हुए  'कुँए का मेंढ़क' नामक एक कहानी सुनाई थी- 

एक कुएँ में बहुत समय से एक मेंढ़क रहता था। वह वहीं पैदा हुआ था और वहीं उसका पालन-पोषण हुआ, पर फिर भी वह मेंढ़क छोटा ही था। धीरे-धीरे यह मेंढ़क उसी कुएँ में रहते- रहते मोटा और चिकना हो गया। अब एक दिन एक दूसरा मेंढ़क, जो समुद्र में रहता था, वहाँ आया और कुएँ में गिर पड़ा।

"तुम कहाँ से आये हो?" 

"मैं समुद्र से आया हूँ।" 

"समुद्र! भला कितना बड़ा है वह? क्या वह भी इतना ही बड़ा है, जितना मेरा यह कुआँ?" और यह कहते हुए उसने कुएँ में एक किनारे से दूसरे किनारे तक छलाँग मारी। समुद्र वाले मेंढ़क ने कहा, "मेरे मित्र! भला, सुमद्र की तुलना इस छोटे से कुएँ से किस प्रकार कर सकते हो?" 

तब उस कुएँ वाले मेंढ़क ने दूसरी छलाँग मारी और पूछा, "तो क्या तुम्हारा समुद्र इतना बड़ा हैं?" समुद्र वाले मेंढ़क ने कहा, "तुम कैसी बेवकूफी की बात कर रहे हो! क्या समुद्र की तुलना तुम्हारे कुएँ से हो सकती है?" 

अब तो कुएँ वाले मेंढ़क ने कहा, "जा, जा! मेरे कुएँ से बढ़कर और कुछ हो ही नहीं सकता। संसार में इससे बड़ा और कुछ नहीं है! झूठा कहीं का? अरे, इसे बाहर निकाल दो।" यही कठिनाई सदैव रही है। मैं हिन्दू (अर्थात सामान्य मनुष्य की तरह एक मूर्तिपूजक) हूँ। मैं अपने क्षुद्र कुएँ में बैठा यही समझता हूँ कि मेरा कुआँ ही संपूर्ण संसार है। ईसाई भी अपने क्षुद्र कुएँ में बैठे हुए यही समझता है कि सारा संसार उसी के कुएँ में है। और मुसलमान भी अपने क्षुद्र कुएँ में बैठे हुए उसी को सारा ब्रह्माण्ड मानता है।

श्री रामोकृष्णो (गिरीश, मणि ओ अन्यान्य भक्त देर प्रति) - " एरा एकटा पातकूयार बैंग कोखोनो पृथिबी देखे नाई ; पातकूयाटि जाने; ताई विश्वास कोरबे ना जे, एकटा पृथिबी आछे। भगवानेर आनन्देर सन्धान पाय नाई, ताई 'संसार , संसार ' कोरछे।"

...किन्तु 'अनेक और एक', विभिन्न समयों पर विभिन्न वृत्तियों में मन के द्वारा देखा जाने वाला एक ही तत्व है। उसी सत्य को श्रीरामकृष्ण ने इस प्रकार व्यक्त किया है - " ईश्वर साकार और निराकार, दोनों ही है। ईश्वर वह भी है, जिसमें साकार और निराकार दोनों ही समाविष्ट हैं

To know God, the Absolute or Brahman, both self-effort and divine grace are required." ईश्वर, पूर्ण या ब्रह्म को जानने के लिए आत्मप्रयास और दैवी अनुग्रह दोनों चाहिए। किसी भक्त ने श्रीश्री माँ सारदा देवी से पूछा था - "अनन्त ईश्वर को  कैसे जानें? आत्म-प्रयास से या दैवीय अनुग्रह से ?" श्री माँ ने उत्तर दिया था - "यद्यपि कोई मनुष्य अनन्त ईश्वर को  केवल उनकी ही कृपा से जान सकता है। तथापि एकाग्रता का अभ्यास ( ध्यान और जप)  करना चाहिए। इससे  मन की अशुद्धियाँ -अपवित्रता आदि दूर हो जाते  हैं।"  [सर्वोपरि है नेता वरिष्ठ 'C-IN-C' Nabani Da की कृपा :द्वार दया का जब तू खोले, पंचम सुर में गूंगा बोले ।अंधा देखे, लंगड़ा चल कर पँहुचे काशी रे ।। 

(1.5) >>> Education and Religion : [LOVE or Unselfishness tending towards zero is animality; and LOVE or Unselfishness tending from 50% to 100%  is divinity (godliness) !]

 (3 मार्च, 1894 को शिकागो से -सिंगारवेलु मुदलियार उर्फ़ "किडी" को लिखा गया पत्र में) स्वामी विवेकानन्द कहते हैं -

   शिक्षा का अर्थ है, उस पूर्णता (perfection Unselfishness 100 %) की अभिव्यक्ति, जो सब मनुष्यों में पहले से ही विद्यमान है। [ इसीलिए उपनिषद परम्परा (तैत्तरीय-परम्परा) में दी जाने वाली शिक्षा का नाम है 'शीक्षा'! ] 

और धर्म का अर्थ है, उस ब्रह्मत्व (Divinity> निःस्वार्थ प्रेम या LOVE 100%) की अभिव्यक्ति, जो सब मनुष्यों में पहले ही से विद्यमान है। अतः दोनों स्थलों पर शिक्षक का कार्य है  रास्ता साफ कर देना, केवल रास्ते से सब रुकावट हटा देना-शेष सब भगवान ही करते हैं।जैसा मैं कहता हूँ -हस्तक्षेप बंद करो! सब ठीक हो जायेगा।

पूर्ण निःस्वार्थपरता (100 %) से शून्य की (0%)ओर अग्रसर होना  घोरस्वार्थपरता की ओर अग्रसर होना पशुता है; तथा मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माण, जीवनगठन की प्रक्रिया द्वारा बाह्य परिस्थितियों और परिवेश के दबाव को हटाकर, अर्थात 'Lust and Lucre' में अपनी आसक्ति/लालच को कम करते हुए, 100 % निःस्वार्थपर बनने की दिशा में अग्रसर होना, या ह्रदय कमल को पूर्ण विकसित करने की ओर अग्रसर रहना ही देवत्व का जीवन (सत्य-युग में वास) है! 

इसी जन्म में पशु से मनुष्य और मनुष्य से देवत्व तक की ऊंचाई (लक्ष्य) तक पहुँचने की यात्रा, भावी नेता की अंतर्निहित पूर्णता  (100% निःस्वार्थता, दिव्यता, ब्रह्मत्व) को प्रकट करने की क्षमता पर निर्भर करती है। [अर्थात  घने अहं (काचा आमि) Thick Ego को पारदर्शी अहं (पाका आमि) Transparent Ego  बना  लेने की क्षमता पर , यानि सब भूतों में वही प्रेममय हैं - यह देखने की क्षमता पर निर्भर करती है।  उठो जागो और लक्ष्य प्राप्त किये बिना रुको मत, विश्राम मत लो !  

मंजिल उन्हीं को मिलती है, जिनके सपनों में जान होती है। 

पंखों से कुछ नहीं होता, हौसलों से (आत्मश्रद्धा से) उड़ान होती है।

इसलिए 8 साल का बालक नचिकेता, आत्मा के रहस्य को जानने के लिए यम के दरवाजे पर पहुंचकर 3 दिनों तक उनकी प्रतीक्षा में बैठा रहता है !

[मनु महाराज ने कहा है - 'निवृत्तिस्तु महाफला' - अर्थात आहार, निद्रा, भय, मैथुन में प्रायः सभी जीवों की प्रवृत्ति रहती है, और अज्ञानवश वे इसमें दोष भी नहीं मानते हैं। परन्तु इन सब का परित्याग कर देना, यदि गृहस्थ हों तो वासना और धनदौलत के लालच से अनासक्त हो जाना महाफल (मोक्ष) का देने वाला है।]  2nd day:  

(1.6) >>> Be and Make a Heart-Whole-Man >"हृदयकमल -पूर्ण विकसित- मनुष्य" बनो और बनाओ ! इस लक्ष्य पर पहुँच जाना- या 'हर्टहोल मैन बनने और बनाने' की क्षमता प्राप्त कर लेना और पूज्य नवनीदा जैसा "हृदयकमल -पूर्ण विकसित- मनुष्य" बन जाना, या 'हर्टहोल मैन' बन जाना 40 वर्ष की साधना या आयु पर निर्भर नहीं करता, यह ईश्वर (ठाकुर-माँ- स्वामीजी) की कृपा और अपने हौसला (आत्मश्रद्धा और विवेक-प्रयोग क्षमता) दोनों पर निर्भर करता है। एक नेता या आध्यात्मिक शिक्षक होने का अर्थ है बाह्य परिस्थितियों और परिवेश के दबाव (कामिनी-कांचन में आसक्ति के दबाव को हटाकर) ह्रदय कमल को पूर्णविकसित कर लेना अर्थात (100% selflessness of Heart) वाला व्यक्ति बन जाना। ['स्वामी विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर त्याग और सेवा माली-शिक्षक  -प्रशिक्षण परम्परा " Be and Make "  में प्रशिक्षित (2022 के मालीवरिष्ठ 'C-in-C' प्रमोद दा, ) का काम है- संगठन के खर-पतवार को साफ कर देना और  जड़ को सींचना- शेष सब काम यानि जीवन-पुष्प के प्रस्फुटन का काम भगवान (श्रीरामकृष्ण-माँ -स्वामीजी) स्वयं करते हैं।]

      यद्यपी सभी मनुष्य एक ही 'वस्तु' (ब्रह्म या आत्मा ) द्वारा निर्मित हुए हैं, तथापि  व्यक्तावस्था में पूर्णता की अभिव्यक्ति में तारतम्य रहता ही है। इसी पूर्णता की अभिव्यक्ति में तारतम्य रहने के कारण इस सृष्ट जगत में -सांस्कृतिक, आर्थिक, नैतिक, सामाजिक, राजनैतिक, और धार्मिक दृष्टि से समाज में एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य की अवस्था में असामनता (Differences) दिखाई देती है ।  इस पूर्णत्व की अभिव्यक्ति में तारतम्य रहने के कारण ही , एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य में शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिकदृष्टि से भी अन्तर रहता है, और इसी आधार पर उनके चेहरे की बनावट, क्षमता और रूचि में भी असंख्य अंतर रहता है। 

 इस तथ्य को स्वीकार करके ही हमें आगे बढ़ना होगा। इसीलिये हमारा सारा प्रयास इसी बात के लिये होना चाहिये  कि सतही तौर से दिखाई पड़ने वाले समस्त ऊँच-नीच आदि असमानताओं की उपेक्षा करके सम्पूर्ण विश्व में एक सार्वभौमिक समानता एवम वैश्विक साम्यभाव [~ " वसुधैव कुटुंबकं " का भाव] स्थापित हो जाय।और यही नेतृत्व का उद्गम एवं नेतृत्व की मौलिक अवधारणा है ! इसीको आधार बनाकर हमलोगों का आत्मविकास,समाज-कल्याण और मानव-कल्याण के सभी प्रयास संचालित करने होंगे।  

(1.7 ** '3H- evolution' ) >>>Selection of would be leader trainee for 3H Development, (especially 'LOVE' evolution) is duty of a Leader !  

किन्तु, थोड़ा रुककर हमें पहले यह विचार कर लेना चाहिये कि इस कार्य [Leadership Training] का प्रारम्भ समाज के किस स्तर पर रहने वाले व्यक्ति से किया जाय ? यदि गम्भीरता से इस बात पर विचार किया जाय तो हम पायेंगे कि जो मनुष्य '3H' क्रमागत उन्नति' या '3H- evolution' की साधना में जो सर्वाधिक निम्नावस्था में हों, उनकी अपेक्षा जो थोड़े ऊँचे स्तर पर पहुँच चुके हों, वहीं से इस कार्य को प्रारम्भ करना अच्छा होगा। 

    क्योंकि जो व्यक्ति स्वयं पूर्णत्व प्राप्ति की दिशा में थोड़े उन्नत हो गए हैं, वे ही अपने से निम्न सोपान पर खड़े भाइयों को हाथ पकड़ कर ऊपर उठा सकते हैं। नेता और नेतृत्व की यही मौलिक अवधारणा है। और सच्चे नेतृत्व की उत्पत्ति भी यहीं से होती है। युगों -युगों में मानवजाति के सच्चे नेता हुए हैं , जिन्होंने पथ-प्रदर्शक बनकर मनुष्य का जीवन लक्ष्य क्या है तथा उसे प्राप्त करने के उपाय को युवावर्ग के सम्मुख सरल भाषा में रखा है। उन्हीं में से कुछ को आज हमलोग श्रीराम, श्रीकृष्ण, बुद्ध, ईसा, मोहम्मद, श्रीचैतन्य, श्रीरामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द के नाम से जानते हैं। ये सभी मनुष्य जाति के सच्चे नेता हैं। 

मानव समाज की समस्त ऊर्जा युवाओं में निहित है, जिस प्रकार अग्नि की लहलहाती हुई शिखा में सर्वग्रसिता शक्ति होती है, ठीक उसी प्रकार यौवन का जीवन भी अत्यन्त चंचल और जोशीला होता है। किन्तु कोई भी शक्ति नियंत्रण में नहीं रखने से कार्यकर नहीं होती । इसलिए कुछ बड़े-बुजुर्ग या युवाओं ऊर्जा शक्ति और  यौवन के जोश से असहज होकर उनकी भर्तस्ना करके उन्हें शान्त करने की चेष्टा करते हैं, तो कुछ politicians तरह के समाज के अभिभावक उन्हें अन्नदान, वस्त्रदान- Amphan Cyclone relief work, आदि में लगाकर या 12 जनवरी को हर साल  युवा-महोत्सव में नाच-गान आयोजित कर झूठी प्रशंसा पाने के उद्देश्य से की गयी समाज-सेवा लगा देने की चेष्टा करते हैं। 

आधुनिक युग में भगवान (श्रीरामकृष्ण) ही सबसे प्रथम युवा नेता थे, जिन्होंने कटुवचनों से युवा शक्ति की कभी पीड़ित-प्रताड़ित नहीं किया, अपितु जैसा अग्नि का आह्वान करते हुए,वेदों में कहा गया है -' नि नो होता वरेण्यः सदा यविष्ठ मन्मभिः। अग्ने दिवित्मता वचः॥ ऋग्वेद १.२६.२॥ - अर्थात हे सदा 'यविष्ठ' रहने वाले, तरुण रहने वाले अग्निदेव! आप हमारे सर्वोत्तम होता (यज्ञ सम्पन्न कर्ता, भावी नेता) के रूप मे यज्ञकुण्ड मे स्थापित रहते हुए, मेरे स्तुति वचनो का श्रवण करें॥ यज्ञ का अर्थ होता है, 'त्याग और सेवा' की भावना से या यज्ञ की भावना से  प्रेरित होकर 'बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय' सम्पादित कर्म। (यानि निःस्वार्थभाव से, या अनासक्त भाव से सम्पादित समाज सेवा- 'Be and Make' आन्दोलन ! )

 जिस प्रकार श्रीरामकृष्ण देव ने अपने स्तुति-वचनों से 18 वर्ष के तरुण नरेन्द्र नाथ का भावी नेता नेता के रूप में जीवनगठन कर , उनकी  यौवन ऊर्जा को समाजोपयोगी बनाकर उन्हें 'यविष्ठ' --चिर युवा रहने वाले स्वामी विवेकनन्द में रूपान्तरित कर दिया था ! उसी प्रकार स्वामी विवेकानन्द  ने अग्निस्वरूप युवा-समुदाय को, 'उत्तिष्ट-जाग्रत ' जैसे दीप्तिमान (ओजस्वी) स्तुति -वचनों के द्वारा, उन्हें उनकी अन्तर्निहित शक्ति के संबन्ध में जाग्रत करने के लिए प्रेरित करने का संकल्प ले लिया है।

      जब हमलोग अंग्रेजी में Leader शब्द लिखते हैं, तो कैपिटल L से उसकी शुरुआत करनी पड़ती है। अंग्रेजी भाषा के ' L' अक्षर से शुरू होने वाला सबसे सुन्दर शब्द है - LOVE प्रेम। एक बार स्वामी विवेकानन्द से बार बार अनुरोध किया गया कि अपने गुरु श्रीरामकृष्ण के ऊपर कुछ कहिये। वे उनके परम- प्रेम के धन थे, उनके पथ-प्रदर्शक और गुरु (guide and teacher) थे, उनके सर्वस्व थे -उनके लिए उन्होंने अपना सारा जीवन न्योछावर कर दिया था। किन्तु, उनके बारे में एक शब्द बोलने में भी स्वामीजी अपने को असमर्थ पा रहे थे, वैसे तो वे जगत के विभन्न विषयों पर लम्बे व्याख्यान दे सकते थे, कई ग्रन्थ लिख सकते थे, किन्तु उन्होंने कहा मैं उनके विषय में कुछ नहीं कह सकता। उनको संकोच हो रहा था कि उनके मुख से निकला कोई शब्द उनके जीवन-सर्वस्व उनके मार्गदर्शक नेता की महानता को, उनकी महिमा को कहीं सीमित तो नहीं कर देगा ?  वे तो इतने विशाल हैं, इतने अगाध समुद्र जितने गहरे हैं, आकाश जैसे अनन्त हैं ! उनकी सर्वव्यापकता को कैसे  मापा कैसे जाय, वे सोच भी नहीं पा रहे थे कि उस विशालता को शब्दों में व्यक्त किया जाय? बहुत अनुरोध करने पर अपने नेता के अद्भुत व्यक्तित्व को केवल एक शब्द में व्यक्त करते हुए कहा था -वे 'LOVE' हैं, श्रीरामकृष्ण मूर्तमान प्रेम हैं !-Sri Ramakrishna is Love Personified! "

अब हमलोग यह समझ सकते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण, बुद्ध, ईसा, मुहम्मद, प्रेममय श्री रामकृष्ण, स्वामी विवेकानन्द आदि गुरु, तथा मानवजाति के अन्य सभी पथ-प्रदर्शक नेता  उसी अनन्त प्रेम की विभिन्न अभिव्यक्तियां हैं। उसी प्रकार वर्तमान के महामण्डल नेताओं में  जैसे नवनीदा > प्रमोद दा आदि में) के विविध नाम-रूपों की विशाल तरंगों की विभिन्न आकृतियों में भी केवल अनंत प्रेम-सिन्धु ही मूर्तमान हुआ है । जिस व्यक्ति के हृदय में इस प्रेम का एक छोटा सा अंश 'spark of Love' भी विद्यमान नहीं है, वह कभी दूसरों को उन्नततर मनुष्य बनने, आत्म-विकास करने या अन्तर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्त करने की दिशा में अग्रसर होने के लिए प्रेरित नहीं कर सकता। 

क्या हमलोग भी नेता नहीं बन सकते ? क्या उस अनंत प्रेम का एक छोटा सा अंश भी अपने हृदय में जागृत नहीं कर सकते ? क्या अपने आस-पास रहने वाले भाइयों से थोड़ा भी प्रेम नहीं कर सकते ? क्या हम उन्हें इस अनित्य और दुःखपूर्ण संसार के कष्ट, अभाव और विवशता के दल-दल से निकलने में उनकी कोई सहायता नहीं कर सकते,उन्हें थोड़ा भी ऊपर नहीं उठा सकते ? निश्चय ही हमलोग ऐसा कर सकते हैं था हमें ऐसा करना ही चाहिए। हमलोगों को भी स्वामी विवेकानन्द की तरह युवाओं से प्रेम करना चाहिए तथा उनका पथ-प्रदर्शक अवश्य बनना चाहिए।     श्रीरामकृष्ण कहते थे- " कुछ तख्ते इस प्रकार की लकड़ियों से बने होते हैं कि उस पर यदि एक कौवा भी बैठ जाये तो वह डूब जाता है; पर कुछ तख्ते ऐसी लकड़ियों से बने होते हैं जो स्वयं डूबे बिना अपने साथ- साथ अपने ऊपर लदे बोझ को भी नदी के उस पार तक पहुँचा सकते हैं।

        सच्चे नेता इसी प्रकार के न डूबने वाले लकड़ी तख्ते जैसे होते हैं। वे दूसरों की जिम्मेवारी को भी अपने कन्धों पर उठा लेते हैं। तथा इसके बदले में वे कोई पारिश्रमिक, लाभ या पुरष्कार (नाम-यश) पाने की आशा नहीं रखते बल्कि केवल लोक-कल्याण की इच्छा से दूसरों का भार उठाते हैं । उनके सामने जीवन का केवल एक ही लक्ष्य रहता है - दूसरों की उन्नति, सुधार, विकास, समानता और पूर्णत्व को अभिव्यक्त करने में सहायता करना, तथा इस उद्देश्य के पीछे इच्छा और आग्रह का जो प्रेरणा श्रोत होता है, वह होता है -'LOVE'! प्रेम ही ईश्वर है ! -ईश्वर प्रेमस्वरूप हैं, तभी तो वे मनुष्य को ईश्वर बनाने के लिये बार बार इस धरती पर विभिन्न नाम-रूपों में अवतरित होते रहते हैं !

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(2) महामंडल का प्रतीक चिन्ह और नेतृत्व प्रशिक्षण 

[Symbol of Mahamandal  and Leadership training]/

(2.1)>>>The Symbol of Mahamandal depicts the Ideal, Objective and Methodology of a LEADER for leading a 'New Youth Movement' capable of taking India to the highest peak of prosperity./



(2.2)>>> 'धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायाम्। महाजनो येन गतः स पन्थाः।'/ 




(2.3) >>>Creating 'Diligent, Knowledgeable and Loving' teachers: -एक ही आधार में 'कर्मठ, ज्ञानवान और प्रेममय' शिक्षक/नेता बनना और बनाना।  महामण्डल नेता/ बागवानी शिक्षक (gardening instructor) का कार्य है  




(2.4 विशाल ह्रदय)>>>The hallmark of a leader is a big heart : नेता की पहचान है -उसका विशाल ह्रदय /




(2.5***जीवन मुक्ति! ) >>> What is the ultimate Goal of the soul ?‘‘जीवन्मुक्ति-सुखप्राप्ति-हेतवे जन्म धारितम्।/





(2.6***'सर्वभूते सेई प्रेममय') >>>'The Gift Unopened' अभी तक स्वामी जी विश्व के लिए एक 'बन्द उपहार ' हैं ! /




(2.7)>> India's religion is Sanatana Dharma: /  वक्ष्ये सनातनं धर्मं नारायण-मुखात्—श्रुतम्  ॥अन्नाद्यादे: संविभागो भूतेभ्यश्च यथार्हत:।/ 




  (2.8 ***) >> महामण्डल का अभियान मंत्र 'Campaign chant', या महामण्डल की 'समरनीति' है - "चरैवेति, चरैवेति" ! / 






    (2.9 ***समृद्ध-भारत निर्माण का रहस्य ) >> Methodology of Swami Vivekananda for the welfare of India:  (एक भारत श्रेष्ठ भारत' या हर दृष्टि से समृद्ध भारत का निर्माण करने के लिए स्वामी विवेकानन्द की कार्य-प्रणाली)  /






(2.10**तुलाधर वैश्य) >>> Carrying on trade or business is not a crime./





 (2.11 ) >>>Qualities of Leader (Serve and Inspire others: सेवा करो और प्रेरणा भरो) एतावत् जन्मसाफल्यं देहिनामिह देहिषु । 




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महामंडल का प्रतीक चिन्ह और नेतृत्व प्रशिक्षण 

[Symbol of Mahamandal  and Leadership training]

(2.1)>>>The Symbol of Mahamandal depicts the Ideal, Objective and Methodology of a LEADER for leading a 'New Youth Movement' capable of taking India to the highest peak of prosperity.
 
    'एक भारत श्रेष्ठ भारत का निर्माण' करने,  या भारत को समृद्धि के सर्वोच्च शिखर पर ले जाने में सक्षम एक 'नया युवा आन्दोलन' का नेतृत्व करने वाले 'नेता' (C-IN-C नवनीदा) के आदर्श, उद्देश्य और कार्यप्रणाली को महामण्डल  युवा प्रशिक्षण शिविर के बैज, प्रतीक चिन्ह या 'Symbol'  में ही अंकित कर दिया गया है। 

महामंडल द्वारा आयोजित युवा प्रशिक्षण शिविर का 'Theme Word', विशेष-धुन या  बार -बार सुनाई देने वाला शब्द,  या वादी स्वर है-'Be and Make!'- अर्थात बुद्ध, चैतन्य, ठाकुर देव, स्वामीजी जैसा  "हृदयकमल -पूर्ण विकसित- मनुष्य" बनो और बनाओ ! "Be and Make a Heart-Whole-Man ! > और  संवादी स्वर है - 'चरैवेती चरैवेती '। जिन्हें बैज के नीचे और ऊपर अंकित कर दिया गया है। 
 
[ दादा महामण्डल के प्रतीक चिन्ह को  logo या emblem नहीं कहते थे वे इसे 'त्याग और सेवा का Symbol (चपरास)' कहते थे। क्योंकि शिविर में आने के लिये सर्वोपरि है, ठाकुर-माँ स्वामीजी और ('C-IN-C Nabani Da') की कृपा]

(2.2)>>> 'धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायाम्। महाजनो येन गतः स पन्थाः।'- अर्थात धर्म का तत्व या रहस्य इतना गहन है, मानो वह गुफाओं में छिपा है। अतएव सुगम मार्ग यही है कि जिन्होंने घोर तपस्या कर उस परम तत्व को जान लिया, तथा जिस रास्ते वे चले, उसी मार्ग पर चलना चाहिए। दादा कहते थे स्वामीजी जैसे नेताओं का अनुसरण ही सच्चा स्मरण है।'   
 
स्वामीजी के जन्मदिन पर आयोजित स्मरण सभा, या युवामहोत्सव के कार्यक्रम में बारह बजे रात तक एक बजे रात तक लाइव टेलीकास्ट देखना, बड़े बड़े विद्वानों का भाषण सुनना, और ठाकुर-माँ -स्वामी जी का जन्मस्थान देखने जाना, दृश्य देखने, प्रकृति देखने में अच्छा लगता है।    वहाँ अच्छी-अच्छी बातें सुनना अच्छा है, पर उससे फल क्या मिल रहा है ? चरित्र-निर्माण कहाँ  हो रहा है ? हमलोगों की जीवनयात्रा में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, प्रिंट मिडिया के माध्यम से आजकल जो चल रहा है उसमें कुछ अच्छा भी है, लेकिन अच्छी औषधि तो  धीरे -धीरे काम करती है , किन्तु यदि विष या जहरीला शराब पी लिया जाय तो उसका असर जल्दी होता है।  अभी बिहार में जहरीला शराब पीने से 200 मनुष्य मर गए हैं। उसी प्रकार विषैला आहार केवल मुख से नहीं लिया जाता, इंटरनेट मोबाईल द्वारा आँखों से और कानों से लेने वाला आहार भी विषैला ही मिल रहा है उससे युवाओं का चरित्र नष्ट हो रहा रहा है। मंत्री जेल में पकड़ाने पर ED से से कहता है दूध बेचकर और छत पर गार्डन में गोभी लगाकर, या लॉटरी का टिकट से करोड़ो कमाया है। पढ़लिखकर बहुत कमउम्र में IAS टॉपर बनी थी पूजा सिंघल - लेकिन चरित्र-निर्माण की शिक्षा नहीं मिलने से कितने उच्च अधकारी, मंत्री, नेता जेल में हैं ? आज कल G.K में प्रश्न आता है- कितने हैं ?-हरि अनंत, हरि कथा अनन्ता। अब यदि किसी चरित्र-भ्रष्ट IAS या दिल्ली के नामी नेता (सत्येन्द्र जैन) को 'कट्टर ईमानदार' या महापुरुष 
 - समझकर उनके पथ का अनुकरण करें तो हमारी जीवनयात्रा भी तिहाड़ जेल में जाएगी। .
     ...और ठीक यहीं पर युवाओं को मनुष्य जीवन का उद्देश्य , जीवन-गठन (Individual life building), चरित्र -निर्माण की पद्धति का पथ सिखलाने वाले प्रेम-स्वरूप स्वामी विवेकान्द, (C-IN-C नवनीदा) जैसे मार्गदर्शक नेताओं (नबियों, पैगम्बरों-ब्रह्मविदों) की आवश्यकता उत्पन्न हो जाती है। 
    हमलोगों को भी उन्हीं के द्वारा दिखलाये मार्ग का अनुसरण करना चाहिये, स्वयं पूर्णहृदयवान मनुष्य बनना चाहिए और दूसरों को मनुष्य बंनने में सहायता करनी चाहिए। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - "धर्म (या शिक्षा) वह वस्तु है जिससे पशु मनुष्य तक और मनुष्य परमात्मा तक उठ सकता है।" उनकी इसी मनुष्यनिर्माण और चरित्र-निर्माणकारी 'शीक्षा' (या धर्म) का प्रचार-प्रसार करने के लिए महामण्डल को 1967 में आविर्भूत होना पड़ा है।

(2.3) >>>Creating 'Diligent, Knowledgeable and Loving' teachers: महामण्डल नेता/ बागवानी शिक्षक (gardening instructor) का कार्य है एक ही आधार में 'कर्मठ, ज्ञानवान और प्रेममय' शिक्षक/नेता बनना और बनाना।  
जो भविष्य के बागवान/ को 'जीवन-पुष्प खिलाने का प्रशिक्षण' --यानी शरीर, मन और हृदय (3H) को विकसित करने के लिए 5 अभ्यास का प्रशिक्षण देना चाहता है, वह गुरु-माली (प्रशिक्षित बागवान) स्वयं कैसा हो? 
How should a teacher-gardener (Leader) Be who teaches 5 exercises to future gardeners to Make the flower of life,  ie body, mind and heart (3H) blossom?
[16 मार्च, 1900 को सैन फ्रांसिस्को  के वाशिंगटन हॉल में  दिये गये अपने भाषण में  स्वामीजी ने कहा था, और जिसे एक शौकिया stenographer,  इडा अंसेल ( Ida Ansell) द्वारा रिकॉर्ड किया गया था।-  
" हम उस 'मनुष्य ' (प्रशिक्षित बागवान, शिक्षक या नेता) को देखना चाहते हैं, जिसका विकास सामंजस्यपूर्ण ढंग से हुआ हो, ' शरीर से कर्मठ, मन से ज्ञानमय  और ह्रदय से प्रेममय' हम ऐसा मनुष्य देखना चाहते हैं (विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर Be and Make परम्परा में प्रशिक्षित C-IN-C नवनीदा जैसा बागवान, शिक्षक या मार्गदर्शक नेता देखना चाहते हैं), जिसका ह्रदय संसार के दुःख-कष्टों को, (अज्ञानवश 'पंचभूतों के फन्दों में फंसकर रोते हुए ब्रह्म' के दुःख-दर्दों को) अपने ह्रदय की गहराई से अनुभव करे। और न केवल अनुभव करे, बल्कि  'Be and Make' परम्परा में जीवनपुष्प (3H) प्रस्फुटित करने के लिए 5 अभ्यास की प्रशिक्षण-पद्धति सीखने और सिखलाने के लिए, महामण्डल  के पाठचक्र, युवा-प्रशिक्षण शिविर आदि में भाग लेने के  लिए अनुप्रेरित भी करे। हम हाथ, मस्तिष्क और ह्रदय का ऐसा ही संयोजन (नवनीदा जैसा) देखना चाहते हैं। 
" इस संसार में बहुत से शिक्षक हैं (तथा महामण्डल में भी बहुत से ऑन लाइन पढ़ाने वाले शिक्षक, नेता हैं।),किन्तु तुम पाओगे कि उनमें से अधिकांश शिक्षक एकपक्षीय (one-sided) हैं। तब हम, हर दृष्टि से 'हृदयकमल पूर्ण-विकसित' उस महान मनुष्य (नेता/शिक्षक) को क्यों न प्राप्त करें जो समान रूप से- 'कर्मठ, ज्ञानवान और प्रेममय' हैं?  क्या ऐसा करना असम्भव है ? निश्चय ही नहीं। यह है भविष्य का मनुष्य, इस समय ऐसे -'हृदयकमल पूर्ण-विकसित' मनुष्य 'Whole -hearted -Man' नेता या शिक्षक केवल थोड़े से हैं। लेकिन मैं जानता हूँ कि ऐसे मनुष्यों (जीवनमुक्त शिक्षकों, नेताओं) की संख्या जो " कर्मठ और ज्ञानवान होने के साथ-साथ प्रेम-मय भी हों", उस समय तक बढ़ती रहेगी, जब तक विश्व का प्रत्येक मनुष्य यह नहीं जान लेता कि वह ईश्वर के साथ अभिन्न है !" (३/२१४)   
[अर्थात तब हम हर दृष्टि से विकसित मनुष्य, -'हृदयकमल पूर्ण-विकसित मनुष्य' [भगवान विष्णु जैसे नेता / शिक्षक-वरिष्ठ C-IN-C नवनीदा/प्रमोद दा जैसे जीवनमुक्त शिक्षकों] या नेताओं का बड़े पैमाने पर निर्माण क्यों न करें? जो समान रूप से, कर्मठ-ज्ञानवान और प्रेममय हैं!? और महामण्डल के 55 वर्ष बीत जाने के बाद, हम अपने अनुभव के आधार पर कह सकते हैं कि ऐसा होना बिल्कुल असम्भव नहीं है, क्योंकि स्वामीजी अपने वादे के अनुसार आज भी कार्य कर रहे हैं और युवाओं को 'जीवनमुक्ति-सुखप्राप्ति' के लिए अनुप्रेरित कर रहे हैं। ] 
         
आपलोगों ने सुना है कि स्वामी जी ने स्वामी विवेकानन्द ने एकपक्षीय मनुष्य नहीं, बल्कि जिस प्रकार के 'कर्मठ, ज्ञानवान (ब्रह्मविद) और प्रेममय' मनुष्यों के निर्माण का कार्य युवाओं को सौंपा था, महामण्डल में उसी की चेष्टा की जाती है। हमलोगों ने सुना है कि मनुष्य-निर्माण का फॉर्मूला देते हुए स्वामीजी ने कहा था '3H' निर्माण। मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव हैं -`शरीर, मन और ह्रदय', इन तीनो का विकास करने से सुन्दर चरित्र के मनुष्य का निर्माण हो सकता है।   
यहाँ  'आत्मा' को शरीर  (Hand) और मन (Head) से पृथक समझाने के लिए, उन्होंने सीधा आत्मा शब्द का प्रयोग नहीं किया था। उन्होंने सरल शब्दों में कहा था  'ह्रदय' (Heart) का विकास। आत्मा के विषय में उन्होंने अन्यत्र बहुत कुछ कहाँ है , यहाँ (खुले सत्र में या आर्डिनरी कैंपर्स के सामने) उसकी चर्चा करने का समय नहीं है , और इस पर चर्चा करना आवश्यक भी नहीं है।

     शरीर को किस प्रकार ठीक बनाया जाता है , पौष्टिक आहार और व्यायाम द्वारा शरीर को कैसे  बलिष्ठ बनाया जाता है, कर्मठ बनाया जाता है,  निरोग बनाया जाता है ? उसके लिए हमारे 'व्यायाम शिक्षक' (physical instructor) यहाँ शारीरिक प्रशिक्षण देते हैं। 

      मन को किस प्रकार अपने वश में लाया जाता है ? मन को किस प्रकार 'एकाग्र' किया जाता है? एकाग्र मन के द्वारा ही समस्त प्रकार ज्ञान (ब्रह्म और जगत का ज्ञान) अर्जित होता है। स्मरण शक्ति में वृद्धि होती है। और उस एकाग्र  मन की सहायता से मनुष्य सब कुछ कर सकता है। इसके लिए मनःसंयोग की पद्धति (यम -नियम का अभ्यास 24 X 7 तथा आसन-प्रत्याहार-धारणा 2 times/day) को जानना आवश्यक है। क्योंकि मन ही मनुष्यों के बन्धन और मुक्ति का भी कारण है। 

    लेकिन यदि ह्रदय का विकास ही नहीं हुआ, तब तो उसे मनुष्य कहा ही नहीं जा सकता है। पत्थल जैसा ह्रदय यदि द्रवित नहीं हुआ, हृदय का यदि परिवर्तन नहीं हुआ तब तो उसे 'मनुष्य' कहा ही नहीं जा सकता। पशु और मनुष्य में सबसे बड़ा पार्थक्य यही है कि पशु की हृदयवत्ता के विषय में कहीं सुनने को नहीं मिलता है। हमलोगों ने किसी बाघ के ह्रदय-वत्ता की बात नहीं  सुनी है, कोई बहुत हिंसक बाघ था जो बाद में बहुत बड़ा सन्त बन गया। किन्तु मनुष्य हृदयवत्ता से ही बड़ा बनता है। उदाहरण के लिये डाकू रत्नाकर,आगे चलकर देवर्षि नारद की कृपा से आगे चलकर अपने ह्रदय का विकास करके महर्षि बाल्मीकि हो गए थे। 

[पशु निःस्वार्थी बनकर अपने ह्रदय का विकास नहीं कर सकता, किन्तु घोर स्वार्थी मनुष्य भी अपने प्रयास और गुरु/ नेता/ बागवानी शिक्षक (gardening instructor) नारद की कृपा से पूर्णतः निःस्वार्थी बन सकता है। नास्तिक और स्वतंत्र विचारों वाले बंगला थियेटर के निर्देशक गिरीश चन्द्र घोष श्री रामकृष्ण देव की कृपा से बाद में ईश्वरलाभ किये थे।] 
(2.4 विशाल ह्रदय)>>>The hallmark of a leader is a big heart : नेता की पहचान है -उसका विशाल ह्रदय
       जिस मनुष्य का ह्रदय जितना बड़ा और विशाल होता है, वह मनुष्य उतना ही महान और बड़ा होता है। स्वामी जी को हमलोग महान क्यों कहते हैं ? उनको युवा आदर्श क्यों मानते हैं ? उनके जैसा विशाल ह्रदय, दूसरा कभी हुआ ही नहीं है, इसलिए उनको महान या बड़ा आदमी कहते हैं! दादा कहते थे, ' मेरा सौभाग्य रहा है कि मैंने जन्म से ही कई प्रत्यक्ष दर्शियों से उनके जीवन से जुड़ी कई कहानी सुनी है। और जैसे जैसे बाह्यजगत के इतिहास को जानने -समझने का अवसर मिला तो समझ में आया कि विवेकानन्द कोई दूसरा हृदयवान मनुष्य पूरे विश्व मानव के इतिहास में कभी जन्मा ही नहीं है।" 
         दादा ने जब यह बात एक बार उड़ीसा में कुछ लड़कों से कहा था, तब उनलोगों ने बताया था कि बिल्कुल स्वामी जी जैसा एक अन्य व्यक्ति यहाँ हैं, बहुत दूर नहीं है पास में ही रहते हैं । उन्होंने पूछा किस प्रकार वे बिल्कुल स्वामी जी जैसे हैं ? लड़कों ने कहा उनका शस्त्रज्ञान अद्भुत है , ऐसा कोई शास्त्र नहीं जो उन्होंने नहीं पढ़ा है। दर्शन शास्त्र के तो महान विद्वान् हैं। अन्य शास्त्र फिजिक्स, केमिस्ट्री , मैथेमेटिक्स ऐसा कोई प्रश्न नहीं जिसका उत्तर वे तुरंत न बता दें। त्याग ?  का तो कहना ही क्या है ? किसी दिन  यदि उनको भोजन न दिया जाये , तो भोजन पाने की चेष्टा भी नहीं करते। अद्भुत त्यागी हैं।  
    सभी कॉलेज के छात्र थे , दादा ने उनसे पूछा था वे रहते कहाँ हैं ? यहाँ से बहुत नजदीक के एक जंगल में रहते हैं, कोई कोई खाने को देता है तभी खाते हैं ।  मैंने कहा नहीं भाई वहाँ जाने की आवश्यकता नहीं है , कह रहे थे चलकर स्वयं देख लीजिये। नहीं भाई जाने की जरूरत नहीं है। क्यों ? तुमलोगों की सब बात मान लेता हूँ कि वे भी स्वामी जी जैसे शास्त्रज्ञ हैं , किन्तु अभी भी वे जंगल में रहते हैं , इसलिए नहीं जाऊँगा ।
(2.5***जीवन मुक्ति! ) >>> What is the ultimate Goal of the soul ? आत्मा का अंतिम लक्ष्य है -जीवन मुक्ति! 
स्वामीजी ने एक बार कहा था , अपना बाकी जीवन क्या मैं हिमालय की एक गुफ़ा में बैठकर मैं नहीं बिता सकता था ? किन्तु मैं क्या करूँ रे ? मनुष्य इतने दुःख में हैं , और मैं अपनी मुक्ति के लिए चेष्टा करूँगा ? केवल अपनी मुक्ति (मोक्ष) में क्या रखा है ? हाँ, विवेकानंद ने अपने लिए मुक्ति से तब तक इन्कार किया है , जब तक कि ब्रह्मांड के सभी प्राणियों को वे उस मुक्ति-द्वार तक  ले नहीं जाते। 

‘‘जीवन्मुक्ति-सुखप्राप्ति-हेतवे जन्म धारितम्।

आत्मना नित्यमुक्तेन न तु संसारकाम्यया॥

     नित्यमुक्त आत्मा ने जीवनमुक्ति का सुख प्राप्त करने के लिए ही शरीर धारण किया है – संसार कामना के लिए नहीं। या तीनों ऐषणाओं में आबद्ध होने के लिए नहीं। 

उन्होंने कहा था -" हो सकता है कि किसी पुराने वस्त्र को त्याग देने के भाँति, अपने शरीर से बाहर निकल जाने को मैं श्रेष्ठ (excellent) समझूँ। लेकिन मैं काम करना नहीं छोड़ूँगा। मैं लोगों को तब तक प्रेरित करता रहूँगा, जब तक सारी दुनिया यह न जान ले कि वह परमात्मा के साथ एक है। " (खंड 10, सूक्तियाँ एवं सुभाषित-४४)

  जीवन-मुक्ति का यह सर्वोच्च आदर्श भी अब मनुष्य के लिए दुरूह कल्पना की वस्तु नहीं रह गयी है। ठाकुर और माँ के आशीर्वाद तथा स्वामी जी की प्रेरणा - 'जंग मत खाओ बल्कि घिस जाओ ----don't rust out but wear out' की दृष्टि से, किसी प्रवृत्ति-मार्गी अर्थात 'राग और संग्रह' के क्षेत्र में रहने वाले किसी अनासक्त गृहस्थ के लिए भी जीवनमुक्ति का सर्वोच्च आदर्श - अब दैनिक जीवन में व्यवहार्य हो गया है। 
         'नित्यमुक्त आत्मा' के विषय में उनके  जो विचार थे उसका उल्लेख करते हुए किसी प्रत्यक्षदर्शी ने दादा से कहा था कि 1902 में जिस दिन बेलूर मठ में स्वामीजी ने अपने शरीर का त्याग किया था,  उस दिन सुबह में किसी सेवक शिष्य को कहा था थोड़ा मुझे बाहर घुमा दोगे ? बहुत दिन से मनुष्य नहीं देखा हूँ। मनुष्य से उनका तात्पर्य था साधारण मनुष्य। थोड़ा मठ के बाहर उनको बाजार की तरफ ले जाया गया , 2-4 साधारण मनुष्य - जनता जनार्दन को देखकर वापस लौट आये। उसके बाद की घटना सब जानते हैं।       
      जब स्वामी जी चले गए तो उनके गुरु भाई बहुत दुःखी हो गए, और रात में उनके एक गुरुभाई ने उन्हें (नवनीदा को ?) स्वप्न में देखा। वे कह रहे थे - " शशि, शशि ! क्या तुम समझते हो मैं मर गया हूँ?  विश्व मानव को प्रेरित करने के लिए पुराने वस्त्र की तरह मैंने अपना शरीर छोड़ दिया है रे!" 
(2.6***'सर्वभूते सेई प्रेममय') >>>'The Gift Unopened' अभी तक स्वामी जी विश्व के लिए एक 'बन्द उपहार ' हैं !  
       भारतीय कम्युनिस्ट पार्टि के संस्थापक मानवेन्द्रनाथ राय [M. N. Roy ( 1887–1954)]  ने स्वामी विवेकानन्द के नये हिन्दू धर्म को  'मानवता-वाद' का नाम दिया था।  लेकिन दादा कहते थे - स्वामीजी का नया हिन्दू धर्म, 'मानवता-वाद' नहीं है ,  उनका नया धर्म है "ब्रह्म-वाद" ! 'सर्व खलु इदं ब्रह्म।'...केवल मनुष्य ही नहीं ! मनुष्य तो एक बहुत छोटा प्रतीक है। जो कुछ है, ब्रह्म ही है। ब्रह्म ही से सबकी उत्पत्ति होती है और फिर उसी में सब लीन हो जाते हैं। ब्रह्म ही जगत् में एक मात्र सत्ता है, उसके अतिरिक्त संसार में और कुछ नहीं है।                स्वामीजी का यही मूल उपदेश है - 'सर्वभूते सेई प्रेममय !' ब्रह्म से लेकर कीट परमाणु तक, सब भूतों में वही प्रेममय, व्यर्थ है खोज ,बहुरूपों में खड़े तुम्हारे आगे, और कहाँ हैं ईश?  और सभी में उनको देखकर प्रत्येक का जीवन-गठन करके, प्रत्येक मनुष्य के अंदर उसी सत्ता को, उसी सत्य को जाग्रत करके सभी को आलिंगन करना। सारा विश्व एक हो जायेगा। स्वामीजी के इस नए भाव को भारत ने अभी तक ग्रहण नहीं किया है।
     प्रसिद्द समाज विज्ञानी प्रोफेसर बिनय कुमार सरकार ने शतवार्षिकी के अवसर पर अपने भाषण कहा था  .... "with 5 words he conquered the west !" "स्वामी जी ने केवल 5 शब्द कह कर पाश्चात्य जगत को जीत लिया था वे शब्द थे - "Ye divinities on earth — sinners! It is a sin to call a man so; it is a standing libel on human nature. Come up, O lions, and shake off the delusion that you are sheep  you are souls immortal."
"आप ईश्वर की सन्तान हैं , अमर आनन्द के भागी हैं, आप पवित्र और पूर्ण आत्मा हैं, आप इस मर्त्यभूमि पर देवता हैं । आप भला पापी ? मनुष्य को पापी कहना ही पाप है, वह मानव स्वरूप पर घोर लांछन हैं । आप उठें ! हे सिंहो ! आएँ , और इस मिथ्या भ्रम को झटक कर दूर फेक दें की आप भेंड़ हैं । आप हैं आत्मा, वह आत्मा जिसे शस्त्र नहीं काट सकते, अग्नि नहीं जला सकती, जल इसे गीला नहीं कर सकता है और वायु इसे सुखा नहीं सकती है। आप नश्वर शरीर और मन से पृथक अविनाशी आत्मा हैं।  आप जड़ नहीं हैं , आप शरीर नहीं हैं; जड़ तो आपका दास हैं , न कि आप हैं जड़ के दास ।" (शिकागो वक्तृता : हिन्दू धर्म - 19 सितम्बर,1893 ) 
        दादा कहते थे "अमृतस्य पुत्राः " 'divinities on earth' यह है प्राच्य का सन्देश! तथा 'sinners' यह है पाश्चात्य का सन्देश

शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्राः आ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः॥

वेदाहमेतं पुरुषं महान्तं आदित्य वर्णं  तमसः परस्तात् ।

तमेव विदित्वा अतिमृत्युम्  एति,
 
नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ॥ 

हे अमृत के पुत्रों ! सुनो ! हे दिव्यधामवासी देवगण !! तुम भी सुनो ! मैंने उस अनादि, सनातन साक्षी उस सगुण ब्रह्म श्रीरामकृष्ण को प्राप्त कर लिया हैं, जो समस्त अज्ञान-अन्धकार और माया से परे है । केवल उस पुरुष को जानकर ही तुम मृत्यु के चक्र से छूट सकते हो । दूसरा कोई पथ नहीं ।' -- श्वेताश्वतरोपनिषद् ॥ २।५, ३।८ ॥     
     जिस समय स्वामी जी अमेरिका के धर्मसभा में 'पाप' (sin) के सम्बन्ध में कहा था, उस समय अमेरिकी महिला ने एक कविता लिखी थी जो बाद में एक पेपर में प्रकाशित हुई थी। वे बहुत अच्छी क्रिश्चियन महिला थीं , कविता में लिखा था -"A young man in ochre robe" उसने मेरे सब भावों को उलट दिया। मैं बाइबिल में लिखी 'original sin' की कहानी  को सुन -सुन कर के मैं अपने को 'sinner हूँ, sinner हूँ, sinner हूँ ' सोंच-सोंच कर इस वृद्धावस्था में बिल्कुल अवसादग्रस्त हो गयी थी। जगत छोड़ने के पहले मेरी आँखों के अश्रु कभी थमते नहीं थे। लेकिन जब स्वामी जी को यह कहते सुना कि -हमलोग sinner नहीं है,उन्होंने कहा है -" नहीं, तुम sinner नहीं हो!" प्रत्येक प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है !' अर्थात हम लोग पापी नहीं हैं , यह सुनकर हमें नव-जीवन मिला है !! 
              
      भारत ने उनसे केवल lip service या दिखावटी प्रेम किया। स्वामीजी का मन्दिर बनाया, पूजा किया , जन्मदिन मनाया, एक लेक्चर दिया हो गया । इससे कुछ नहीं होगा , जब तक उनका यह मूल उपदेश -'सर्वभूते सेई प्रेममय !' हमारी  सत्ता के साथ मिलकर एकाकार नहीं हो जाता, तब तक श्रद्धा दिखाने से कोई लाभ नहीं होगा। 
       हम सोचते हैं कि शायद इंग्लैण्ड, अमेरिका ने उनके इस मूल उपदेश को ग्रहण कर लिया होगा ? नहीं ऐसा नहीं है। कुछ समय पूर्व एक क्रिश्चियन महिला 'Eleanor Stark (एलेनोर स्टार्क)  ने एक पुस्तक लिखी थी उस पुस्तक का नाम दिया था - 'The Gift Unopened'  उस पुस्तक में उन्होंने कहा था -कि स्वामीजी ने अमेरिका को एक गिफ्ट दिया था। उपहार दिया था, उस उपहार के पैकेट को अभी तक खोल कर देखा नहीं गया है। 
[उस पुस्तक में उन्होंने लिखा है कि स्वामी विवेकानंद ने अमेरिकी लोगों को 'ब्रह्म-वाद' की  नई दृष्टि से धर्म को  देखने के विषय में अपना जो शक्तिदायी सन्देश दिया था, जगत को " सिया-राम मय" देखने की उस दृष्टि ने,  उनके जीवन की दिशा को किस प्रकार हमेशा के लिए बदल दिया है। ] 
 अमेरिका ने भी उनके 'ब्रह्म-वाद' के गिफ्ट को ग्रहण नहीं किया, तो भारत ने भी नहीं किया है। भारत में तो अभी भी कई लोग ऐसे हैं जिन्होंने न स्वामीजी का नाम सुना है न, ठाकुरदेव का नाम ही सुना है। यूनिवर्सिटी के टीचर भी नहीं जानते हैं। लेकिन  सिर्फ नाम जानने से काम नहीं उनकी शिक्षाओं का मूल्य समझना होगा। 
(2.7)>> India's religion is Sanatana Dharma: 
        
       स्वामी विवेकानन्द हिन्दू धर्म का प्रचार करने वाले हिन्दू संन्यासी नहीं थे। वे हिन्दू धर्म का प्रचार करने के लिए अमेरिका नहीं गए थे। स्वामी जी हिन्दू धर्म का प्रचार करने के लिए नहीं, ब्रह्म-वाद का प्रचार करने अमेरिका गए थे। कम्प्लीट वर्क्स में तीन जगह लिखा है -हिन्दू धर्म नाम का कोई धर्म नहीं है। पर्सियन लोगों ने सिन्धु सभ्यता, दर्शन, संस्कृति के विषय में जब कुछ कहना चाहा तो, वे 'सिन्धु' नहीं बोल सकते थे सिन्धु उच्चारण  उन्होंने हिन्दू कहकर किया। क्योंकि पारसी लोग 'स' को 'ह' कहते थे। 'सप्त सिंधु' अवेस्तन भाषा (पारसियों की भाषा) में जाकर 'हप्त हिंदू' में परिवर्तित हो गया। उनके पारसी धर्म ग्रन्थ जिन्दावेस्ता में वेदों में वर्णित 'सप्तसिन्धु' को 'हप्त हिन्दू' कहकर उल्लेख किया गया है। जैसे पूर्वी बंगाल के लोग भी शाला को हाला कहते हैं। ऐसा होता है। हिन्दू शब्द किसी शास्त्र में नहीं है। वेदों-उपनिषदों में नहीं है, गीता, रामायण या महाभारत में कहीं नहीं है। 
भारत का जो धर्म है उसको सनातन धर्म कहते हैं। सनातन अर्थात जो शाश्वत है -उसको किसी व्यक्ति ने जन्म नहीं दिया। कोई मनुष्य उस धर्म का संस्थापक नहीं है। जिस धर्म की स्थापना कोई व्यक्ति करता है , उसको धर्म नहीं मत या सम्प्रदाय कहते हैं। भागवत में सुंदर ढंग से कहा गया है  - युधिष्ठिर नारद से पूछते हैं -हे ब्राह्मण श्रेष्ठ, आप कृपा करके बताइये कि सनातन धर्म क्या है ? 
नत्वा भगवतेऽजाय लोकानां धर्मसेतवे । 

               वक्ष्ये सनातनं धर्मं नारायण-मुखात्—श्रुतम्  ॥ ७/११/५ ॥

युधिष्ठिर ! अजन्मा भगवान्‌ ही समस्त धर्मों के मूल कारण हैं। उन नारायण भगवान्‌ को नमस्कार कर के उन्हीं के मुख से सुने हुए सनातन-धर्म का मैं वर्णन करता हूँ। और उन्होंने भारतवर्ष के धर्म का जो अर्थ बतलाया वह अन्य किसी देश में नहीं है -

अन्नाद्यादे: संविभागो भूतेभ्यश्च यथार्हत:।
 
                 तेषु आत्मदेवता बुद्धि: सततं कुरु पाण्डव ॥ ७/११/१० ॥ 

नारद कहते हैं - देश में जो कुछ भी उत्पादन होगा, कृषि से लेकर, पनबिजली या ज्ञान आदि तक जिस किसी वस्तु का उत्पादन होगा- `भूतेभ्यश्च  यथा अर्हत:' उसका यथायोग्य विभाजन करो यानि समस्त मनुष्यों को जिसकी जितनी आवश्यकता हो उतना देदो। यह बात कम्युनिज्म में कहने की चेष्टा हुई थी, लेकिन वैसा हुआ नहीं। `तेषु आत्म देवता बुद्धि ! देवता बुद्धि:! सततं कुरु पाण्डव' नारद जी युधिष्ठिर से कहते हैं- 'सततं कुरु पाण्डव' - इन समस्त मनुष्यों को अपनी आत्मा या अपना इष्टदेव समझकर, कि ये सभी मनुष्य मेरी ही आत्मा हैं , मेरे ही इष्टदेव हैं - इनकी ही पूजा करनी होगी। समझकर उनकी आवश्यकतानुसार उनमें वितरण कर दो। जीवन की बुनियादी आवश्यकताओं >अन्न आदि का यथायोग्य विभाजन धर्म है,सभी में देव-भाव रखना धर्म है।  जगत को ब्रह्ममय देख कर, 'सीयराम मय सब जग जानी !” उनकी सेवा करना धर्म है। समस्त साधारण मनुष्यों को आत्मबुद्धि -देवताबुद्धि से देखकर सेवा करो। यही है भारतवर्ष का धर्म। 
      सभी जीवों (पशुओं तथा मनुष्यों) में अन्न का समान वितरण करना, प्रत्येक आत्मा को (विशेषतया मनुष्य को) परमेश्वर का अंश मानना।  यही हमारे देश में चलता आ रहा था। किन्तु पिछले 1000 वर्षों से कितने विदेशी आक्रांताओं -लुटेरों ने बार-बार आक्रमण किया और हमारे सिद्धान्त धूमिल हो गए। फिर यहाँ के कुछ कर्मकाण्डी गुरुगिरि करने वालों ने भी यथार्थ धर्म को लुप्त करने की चेष्टा की थी, इसीलिए स्वामीजी ने एकबार तो उनके घड़ी-घंट गंगाजी में फेंकने के लिए कह दिया था । 
         सभी मनुष्यों में ब्रह्मदृष्टि, मनुष्य मात्र को 'सिया-राममय ' देखने वाली दृष्टि केवल मंदिर में पूजा करने से नहीं आती ,ऐसा स्वामी जी जैसा विशाल ह्रदय बनाये बिना नहीं होता है। स्वामीजी ने एक बार बोलते-बोलते अद्भुत बात कही थी - " बुद्ध की आत्मा 'मैं' हूँ , ईसामसीह की आत्मा मैं हूँ, मुहम्मद की आत्मा मैं हूँ , और अद्वैत के महा समुद्र में ये सब एकाकार हो जाते हैं ! किसी शास्त्र में हिन्दू धर्म नाम नहीं है। क्या वे विश्व धर्म सभा में हिन्दू धर्म बोलने गए थे ?
   
   (2.8 ***) >> महामण्डल का अभियान मंत्र 'Campaign chant', या महामण्डल की 'समरनीति' है - "चरैवेति, चरैवेति" !    
       स्वामीजी ने सम्पूर्ण जगत को जो दिया है, हमने अभी तक उसे सही ढंग से समझने की चेष्टा ही नहीं की हैं। स्वामी जी को केवल 'lip service' देने से, स्वामीजी 'बहुत बड़े थे!' बोलकर उनकी शान में कसीदे पढ़ने से नहीं होगा। केवल एक भाषण में उनको महान बोल देने से उनके द्वारा सौंपा गया कार्य पूरा नहीं होगा। उनके प्रति यदि अपनी श्रद्धा व्यक्त करनी है, तो स्वामीजी के भावों का, स्वामी जी के मूल उपदेश -'सर्वभूते सेई प्रेममय !' का आत्मसातीकरण करना होगा, अपनी आत्मा के साथ मिला लेना होगा। 
और युवा आदर्श स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं को या उनके विचारों  को आत्मसात करके अपने जीवन से व्यक्त करने का जो एक सुनिश्चित उपाय है उसी उपाय को,सदैव 'यविष्ठ' बने रहने का जो एक सुनिश्चित विज्ञान (Exact Science) है - उस विज्ञान को ही महामण्डल के 'symbol' में, उसके जन्म के समय से ही "चरैवेति, चरैवेति" शब्द द्वारा निर्देशित किया गया है। 

 आस्ते भग आसीनस्य उर्ध्वो, तिष्ठति तिष्ठतः । 

शेते निपद्यमानस्य चराति चरतो भगः, चरैवेति,चरैवेति ॥ 

अर्थ - जो सोया रहता हैं, उसका भाग्य भी सोया  रहता हैं। जो मनुष्य बैठा रहता है, उसका सौभाग्य (भग) भी बैठा रहता हैं। जो उठकर खड़ा हो गया हैं उस का भाग्य भी उठकर खड़ा हो जाता हैं।  और जो चलता रहता है , उसका सौभाग्य भी चलता रहता है, जो विचरण में लगता है, उसका सौभाग्य भी चलने लगता है। इसलिए (चर एव इति) इसी प्रकार - चलते रहो। उद्यमशील मनुष्य को ही भाग्य का साथ मिलता हैं। 

 लेकिन किस दिशा में चलेंगे, कहाँ चलेंगे ? महामण्डल का उद्देश्य है 'भारत का कल्याण' और उसके माध्यम से सम्पूर्ण विश्व का कल्याण, सभी मनुष्यों का सर्वांगीण मंगल। एकभारत श्रेष्ठ भारत का निर्माण कोई अकेला व्यक्ति या एक संगठन भी नहीं कर सकता, और इस उद्देश्य को  प्राप्त करने के लिए हम सभी को संघबद्ध होकर प्रयास करना होगा। भारत महान तब होगा जब इसके सभी मनुष्य 'महान' बन जायेंगे। जब भारत के मनुष्यों का '3H' सामंजस्यपूर्ण ढंग से विकसित होगा, अर्थात जब वे " शरीर से कर्मठ, मन से ज्ञानवान और ह्रदय से प्रेममय" मनुष्य बनने और बनाने के आन्दोलन में जुट जायेंगे। यह सद्संकल्प हमारे मन में सदैव जाग्रत रहे इसीलिए महामण्डल के 'symbol' में इसके जन्म से ही हमारा आदर्श वाक्य अंकित है -Be and Make " क्योंकि भारत के 'युवा आदर्श' स्वामी विवेकानन्द का यही आदेश तथा निर्देश है।
      फिर स्वामीजी का ही आदेश है - 'आगे बढ़ो, आगे बढ़ो', और आगे बढ़कर देखो ! 'जैसे लकड़हारे ने जंगल में आगे बढ़कर देखा तो उसे चन्दन की लकड़ी, चाँदी की खान, सोने की खान आदि मिले थे। ... अर्थात 3H विकास की यात्रा में अभी तक हम जहाँ पहुँचे हैं, वहीं रुक जाने से काम पूरा नहीं होगा। इसीलिये महामण्डल के जन्म के समय जब इसका प्रतीक-चिन्ह या 'symbol' निर्धारित किया गया तब इसमें ऐतरेय ब्राह्मण से दो संस्कृत शब्दों को लिया गया-  “चरैवेति, चरैवेति” जिसका प्रयोग स्वामीजी बार-बार करते थे। अर्थात आगे बढ़ो ! आगे बढ़ो ! विवेकानन्द हमें किस दिशा में आगे बढ़ने का आदेश दे रहे हैं ? 'वसुधैव -कुटुंबकम' या सम्पूर्ण पृथ्वी के कल्याण के सुदूर स्वप्न को मूर्तमान करने के कार्य में आगे बढ़ने का आदेश दे रहे हैं। 
    किन्तु पृथ्वी का आकार तो गोल वृत्त जैसा है, फिर अपनी यात्रा का प्रारम्भ हम कहाँ से करेंगे,  किस दिशा से करेंगे ? इस यात्रा का प्रारम्भ हमें इस पुण्य भूमि भारतवर्ष से ही करना होगा। फिर हमारे प्रतीक-चिन्ह या 'symbol' के भीतर भारतवर्ष का एक रेखाचित्र भी अंकित हो गया। अब इस- 'शरीर से कर्मठ, मन से ज्ञानवान और ह्रदय से प्रेममय' मनुष्य बनो और बनाओ के पथ पर चलने का पथप्रदर्शक, मार्गदर्शक नेता कौन हो सकता है ? यदि मार्ग में चलते-चलते हम थक जाएँ, या कभी पतनोन्मुख होने लगें -तब पुनः सीना तान कर चलने में हमें संबल कहाँ से मिलेगा ? इसीलिए महामण्डल के  'symbol' में अपने मार्गदर्शक नेता के रूप में परिव्राजक स्वामी विवेकानन्द को अंकित किया गया। क्योंकि हमारे हीरो, हमारे प्रेरणा स्रोत, हमारे बन्धु, हमारे बड़े भाई जैसे सुहृद मार्गदर्शक नेता स्वामी विवेकानन्द ही हमारे आदर्श पुरुष हैं। 
    उनके आदेशानुसार 'पंचभूतों के फन्दों में फंसकर रोते हुए ब्रह्म को देखकर (प्रेममय ठाकुर देव को देख कर,' In service of ‘Divine in Man’) "बहुजन हिताय-बहुजन सुखाये - चरैवेति, चरैवेति" करते हुए, उनकी सेवा करने और प्रेरणा भरने के लिए आगे बढ़ो। भारत के गाँव -गाँव में  स्थान-स्थान पर, स्वामीजी के जागरण मंत्र - ' उठो जागो और जब तक लक्ष्य पर न पहुँचो रुको मत ' का  प्रचार-प्रसार करते रहो। राजसिक कामना भी नहीं, तामसिक कामना भी नहीं, केवल सात्विक कामना से चलते रहना है, चलते रहना है, चलते रहना है ! इसी भारत के राष्ट्रीय आदर्श - त्याग और सेवा को अपने जीवन में धारण करने के उपाय  (The way to assimilate Swamiji's teachings)को महामण्डल के 'symbol' में 'बहुजन हिताय , बहुजन सुखाय “चरैवेति, चरैवेति ” शब्द से निर्देशित किया गया है।  
          और जब कोई व्यक्ति पशुत्व (0%100 % Unselfishness) से मनुष्यत्व और मनुष्यत्व  से (50 %से Unselfishness से) पूर्णत्व या ब्रह्मत्व *( 100 % Unselfishness) की ओर चलते हुए पूर्णतः निःस्वार्पर हो जाता है तो वह व्यक्ति वज्र की तरह अप्रतिरोध्य हो जाता है। -'That 100 % Unselfish person becomes irresistible like a thunderbolt.' महामण्डल के Symbol में उसी प्रकार के निवृत्ति मार्ग के सप्तऋषियों को और प्रवृत्तिमार्ग के वज्रतुल्य सप्तऋषिओं को, पृथ्वी के दोनों ओर 'कृण्वन्तो विश्वमार्यम्' यानि सम्पूर्ण विश्व में स्वामी विवेकानन्द की मनुष्यनिर्माण और चरित्र-निर्माणकारी की शिक्षा का प्रचार-प्रसार करते हुए दिखलाया गया है। 
[और यदि पारसी धर्मग्रन्थ ज़ेंद अवेस्ता  (Zend-avesta) की भाषा में कहना पड़े 
 तो हप्तहिन्दु (सप्तसिन्धु) के हिन्दू हप्तऋषियों (सिन्धु नदी के किनारे बसे सप्तऋषियों) को 'नेति,नेति' वैदिक पद्धति से (C) को (transcend) या अतिक्रमण करते हुए;  (B) manifestation से (A) absolute  में पहुँचकर, फिर वहाँ से लौटने पर,  इति -इति करते हुए, मनुष्य मात्र के ह्रदय में उसी प्रेममय को देखकर सेवा करो और प्रेरणा भरो का सन्देश देते हुए अंकित किया गया है।] 
     (2.9 ***समृद्ध-भारत निर्माण का रहस्य ) >> Methodology of Swami Vivekananda for the welfare of India:  (एक भारत श्रेष्ठ भारत' या हर दृष्टि से समृद्ध भारत का निर्माण करने के लिए स्वामी विवेकानन्द की कार्य-प्रणाली) : 
         प्रबुद्ध भारत पत्रिका को दिए एक साक्षात्कार में स्वामी विवेकानन्द कहते हैं,  “हमारी कार्य-विधि बहुत सरलता के साथ समझायी जा सकती है। वह है – बस, भारत के राष्ट्रीय आदर्श को पुनः स्थापित कर देना ! (राजकुमार) बुद्ध ने "त्याग" का प्रचार किया था, भारत ने उन्हें सुना और फिर भी केवल छह शताब्दियों में ही वह अपनी समृद्धि के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच गया। यही रहस्य है। भारत के राष्ट्रीय आदर्श हैं – त्याग और सेवा। आप उसकी इन धाराओं में तीव्रता लाइए और बाकी सब अपने-आप ठीक हो जाएगा।” 
(राष्ट्रीय आधार पर हिन्दुत्व का पुनर्जागरण : 'प्रबुद्ध भारत'-1898/४.२६५) 

["Our method", said the Swami, "is very easily described. It simply consists in reasserting the national life. Buddha preached renunciation. India heard, and yet in six centuries she reached heir greatest height. The secret lies there. The national ideals of India are renunciation and service. Intensify her in those channels, and the rest will take care of itself." 
[Reawakening Of Hinduism On A National Basis (Prabuddha Bharata, September, 1898-Volume 5, Interviews)] 
 अर्थात भारत-कल्याण के राष्ट्रीय आदर्श 'त्याग और सेवा' को  सही रूप से  समझ लेने के बाद,(अर्थात भारत कल्याण के उद्देश्य से,अनासक्त भाव से नेति से इति करते हुए या प्रवृत्ति से होकर 'निवृत्तिस्तु महाफला' में लौटने के कौशल को सही रूप से समझ लेने के बाद) केवल छह शताब्दियों में ही भारत अपनी समृद्धि के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच गया। यही रहस्य है। 
     और सनातन धर्म का यह रहस्य मानो पहाड़ों की गुफाओं में और मठों की चहार-दीवारियों के भीतर छिपा हुआ था। इसीलिए स्वामीजी ने कहा था  - " भारत में किसी प्रकार का सुधार या उन्नति की चेष्टा करने के पहले धर्म-प्रचार आवश्यक है। सर्वप्रथम, हमारे उपनिषदों, पुराणों और अन्य सब शास्त्रों में जो महान सत्य छिपे हुए हैं, उन्हें सब  ग्रन्थों के पन्नों से बाहर निकालकर, मठों की चहारदीवारियाँ भेदकर, वनों-आश्रमों से बाहर  निकालकर, कुछ सम्प्रदाय-विशेषों के हाथों से छीनकर देश में सर्वत्र बिखेर देना होगा। ताकि ये सत्य दावानल के समान सारे देश को चारों ओर से लपेट लें -उत्तर से दक्षिण और पूर्व  पश्चिम तक सब जगह फ़ैल जायें -हिमालय से कन्याकुमारी और सिन्धु से ब्रह्मपुत्र तक सर्वत्र वे धधक उठें ।" 
     " और जो भी व्यक्ति अपने शास्त्रों के महान सत्यों को -'चरैवेति,चरैवेति' को  दूसरों को सुनाने में सहायता पहुँचायेगा -वह आज एक ऐसा कर्म करेगा, जिसके समान कोई दूसरा कर्म ही नहीं है। महर्षि व्यास ने कहा है, " इस कलियुग में मनुष्यों के एक ही कर्म शेष रह गया है। आजकल यज्ञ और कठोर तपस्याओं का कोई फल नहीं होता। इस समय दान ही एकमात्र कर्म है। और दानों में धर्मदान, अर्थात आध्यात्मिक ज्ञान का दान ही सर्वश्रेष्ठ है।"५/११६ 
        भगिनी निवेदिता कहती हैं, “भारत ही स्वामी जी का महानतम भाव था। …भारत ही उनके हृदय में धड़कता था, भारत ही उनकी धमनियों में प्रवाहित होता था, भारत ही उनका दिवा-स्वप्न था और भारत ही उनकी सनक थी। इतना ही नहीं, वे स्वयं भारत बन गए थे। वे भारत की सजीव प्रतिमूर्ति थे। उन्होंने स्वयं को एकबार ‘घनीभूत भारत’ कहा था। सचमुच वे भारत से एकरूप हो गए थे।
         भगिनी निवेदिता विवेकानन्द साहित्य की भूमिका में लिखती हैं - " यदि एक और अनेक यदि सचमुच एक ही सत्य है, यदि सचमुच ब्रह्म ही जगत बन गए हैं, तो मन्दिर, मस्जिद, गिरजा, या वेद, कुरान, बाइबिल आदि उपासना के विभिन्न प्रकार ही नहीं, वरन दैनन्दिन कर्म के सभी संघर्ष, सृजन के सभी प्रकार भी, उसी सत्य तक पहुँचने के विभिन्न मार्ग हैं। अतः अब लौकिक (secular) और धार्मिक (sacred) कोई भेद नहीं रह जाता। कर्म करना (अनासक्त भाव से बिजनेस-व्यापार आदि करना) ही उपासना करना है। विजय प्राप्त (To conquer) करना ही त्याग (renounce) करना है। जीवन ही धर्म (क्रमविकास-evolution) है। धनदौलत अर्जित करना और अपने अधिकार में रखना (अर्थात प्रवृत्ति से होकर निवृत्तिस्तु महाफला में आना) भी उतनी ही जिम्मेदारी का काम है , जितना कि त्याग करना और विरक्त होना। .... लेकिन इसे समझने के लिए निश्चय ही हमें अद्वैत का सिद्धान्त चाहिए। " ( But in order to understand this we must have the theory of Advaita.) 

         हम सब भी यही सोचते हैं कि हमारा देश आगे बढ़े और विश्व में अग्रणी हो। हम सोचते हैं कि जब हम दूसरे देशों में जाएँ, तो लोग भारतीय समझकर हमारा सम्मान करें। यहाँ तक तो हमारी देशभक्ति ठीक ही है। किन्तु इसके लिए प्रत्येक भारतवासी को कंधे-से-कंधा मिलाकर चलना होगा। ह्रदय की संकीर्णता से दूर होना होगा। स्वामीजी ने इसे ही 'त्याग और सेवा' का मार्ग कहा है।

              जब जहाज से जापान के मार्ग में स्वामी विवेकानन्द और जमशेदजी टाटा की अप्रत्याशित भेंट 1883 में  हुई, तब स्वामीजी ने उनके वहाँ आने का कारण पूछा। उन्होंने कहा कि वे दियासलाई यहाँ से लेकर भारत में आयात करते हैं। स्वामीजी ने कहा कि यदि वे दियासलाई का आयात न करके इसका कारखाना भारत में ही खोलते हैं, तो इससे भारत की सम्पत्ति भारत में ही रहेगी और अनेक लोगों को रोजगार भी प्राप्त होगा। इसके साथ ही उन्होंने जमशेदजी टाटा के साथ भारत में ऐसी व्यवस्था स्थापित करने के बारे में भी चर्चा की थी, जिससे कृषि-अनुसन्धान तथा science and technology के क्षेत्र में अनुसन्धान किया जा सके।

      इसके बाद हम देखते हैं कि स्वामी विवेकानन्द ने Indian Institute of Science. की स्थापना करने में  जमशेदजी टाटा की सहायता भी की थी। स्वामीजी चाहते थे कि भारत अपनी कला एवं लघु उद्योगों से उत्पन्न उत्पादों का विदेशों में विक्रय कर, भारत की आर्थिक स्थिति में सुधार लाया जाय। science and technology के नए-नए अविष्कारों के सम्बन्ध में भी स्वामीजी सदैव उत्सुक रहते थे। 
(2.10**तुलाधर वैश्य) >>> Carrying on trade or business is not a crime.
        वर्णाश्रम-धर्म के अनुसार बिजनेस -व्यापार करना कोई अपराध नहीं है। बनिया लाभ न कमाए तो अपने परिवार का पालन-पोषण कैसे करेगा ? नफा कमाना (making profits, शुभ-लाभ कमाना)  वैसे तो कोई अपराध नहीं है, किन्तु अनुचित लाभ (undue profits) लेना गुनाह है। (Although making profit is not a crime, but taking undue profit is a crime.) महाभारत में ऐसे कई दृष्टांत है कि जिनमे यह बताया गया  है कि महाज्ञानी ब्राह्मण भी वैश्य के घर सत्संग के हेतु से जाते थे। महाभारत में यही बात तुलाधर वैश्य और जाजलि ब्राह्मण की कथा में भी आती है। 
         एक बार सिन्धु तट पर महान तपस्वी ब्राह्मण जाजलि ने एक ही आसन पर बैठकर इतनी देर तक जप किया कि, चिड़िया उसकी जटाओं पर घोशला बनाकर उसमें  अंडे देने लगी। फिर उनसे चिड़या बनकर उड़ गयीं। यह देखकर वे अपने को महान धर्मात्मा समझने लगे. और मन ही मन कहा - ‘‘ मैंने धर्म को प्राप्त कर लिया है। " इतने में आकाशवाणी हुई - ‘‘जाजलि, तुम नहीं जानते कि धर्म क्या है?" यदि तुम यह जानना चाहते हो कि धर्म क्या है?  तो तुम काशी जाकर तुलाधर वैश्य से मिलो, उससे बड़ा धार्मिक व्यक्ति अभी कोई नहीं है।  (पूज्य 'C-IN-C दादा' ने मुझसे सैंकड़ो बार पूछा होगा कि बताओ धर्म क्या है ?)
   
       उसको खोजते हुए , जाजलि ब्राह्मण जब काशी पहुंचे तो उन्होंने तुलाधर को सौदा बेचते हुए देखा। उनको देखते ही तुलाधर उठकर खड़े हो गए, और स्वागत करते हुए बोले -‘‘प्रणाम मुनिवर, आपने समुद्र तट पर बड़ी भारी तपस्या की। आपके मस्तक पर चिड़ियों ने अण्डे दिये। वे जब चले गये, तो अपने स्वयं को बड़ा धर्मात्मा समझा। तभी आकाशवाणी हुई तथा उसी के कारण आप यहाँ आये हैं। बताइये मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ।’’ 

        तब जाजलि ब्राह्मण ने पूछा - 'हे वैश्यपुत्र, तुम तो व्यापार करते हो, तुम्हें यह ज्ञान कैसे उपलब्ध हो गया?  तब सनातन वर्णाश्रम -धर्म (चार आश्रम और चारो पुरुषार्थ - "धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ) को तत्व से जानने वाले तुलाधर वैश्य ने धर्म के सूक्ष्म रहस्य को (त्याग और सेवा तथा 'तेन त्यक्तेन भुञ्जितः' के सूक्ष्म रहस्य को) उजागर करते हुए कहा-
 
वेदाहं जाजले धर्मं सरहस्यं सनातनम्।

सर्वभूतहितं मैत्रं पुराणं यं जना विदुः।।

तुलाधार वैश्य ने तपस्वी जाजालि से कहा -" हे  जाजले  जिस प्राचीन धर्म को लोग सभी प्राणियों  के लिये हितकर या कल्याणकारी रूप में जानते हैं, मुझे उसी सनातन धर्म के सार-तत्व का पता चल गया है । वह क्या है ?  जो व्यक्ति सभी प्राणियों के सुहृत हैं और सदा समस्त जीवों का हित करने में ही लगे रहते हों, वास्तव में उन्हीं को धर्मज्ञ कहा जा सकता है। 
       किसी भी प्राणी से द्रोह न करके अपने-अपने  वर्ण और आश्रम के अनुसार कर्तव्य - कर्म का पालन करना जीविका चलाना धर्म माना गया है। मैं उसी धर्म के अनुसार जीवन-निर्वाह करता हूँ। मैं समस्त प्राणियों के प्रति एक समान भाव रखता हूँ। किसी का अहित नहीं करता सबसे मृदुल व्यवहार करता हूँ। यही मेरा व्रत है। धर्म-तत्त्व अत्यन्त सूक्ष्म है तथा कोई भी धर्म निष्फल नहीं होता। व्यवसाय ही मेरा धर्म है। उसका पालन करना मेरा कर्तव्य।’’

  स्वामी विवेकानन्द भी ठीक ऐसी ही शिक्षा देते हैं । वे कहते हैं- "यह जीवन क्षणस्थायी है, संसार के भोग-विलास की सामग्रियाँ भी क्षणभंगुर हैं। वे ही यथार्थ में जीवित हैं, जो दूसरों के लिये जीवन धारण करते हैं। बाकि लोग तो मृत से भी अधम हैं।" 
    
इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने कहा था, “एक नवीन भारत निकल पड़े – हल पकड़कर, किसानों की कुटी भेदकर, मछुए, माली, मोची, मेहतरों के कुटीरों से। निकल पड़े बनियों की दुकानों से, भुजवा के भाड़ के पास से, कारखाने से, हाट से, बाजार से । निकल पड़े झाड़ियों, जंगलों, पहाड़ों से।”
     (2.11 ) >>>Qualities of Leader (Serve and Inspire others: सेवा करो और प्रेरणा भरो) :           
     तुम अपने सहयोगियों या अधीन काम करने वाले दूसरे लोगों से सम्मान और सेवा लेना चाहते हो, परन्तु क्या तुम अपने छोटे भाइयों या कनिष्ठ सहयोगियों के सम्मान का भी ध्यान रखते हो ? क्या तुम अपने से बड़ों की आज्ञा का पालन करते हो, तथा उन्हें सम्मान देते हो ? तभी, दूसरे लोग तुम्हारा सम्मान करेंगे, तुम्हारी आज्ञा का पालन करेंगे।  क्या तुम स्वयं दूसरों को पूजनीय दृष्टि से देखकर (भक्त की दृष्टि से देखकर) उनकी सेवा कर सकते हो ? यदि हाँ, तो नेता बनने का पहला गुण तुममें विद्यमान है !  इसी प्रकार प्रत्येक नेता को विनम्र, मधुरभाषी और अहंकार रहित बनने की चेष्टा करनी चाहिये।
              हमें यही सोचना चाहिये कि श्री रामकृष्ण और माँ सारदा देवी के आशीर्वाद से तथा स्वामी विवेकानन्द की प्रेरणा से ही मुझे अपने अन्य युवा भाइयों का मार्गदर्शन करने का, उन्हें मनुष्य जीवन का लक्ष्य - और उसे प्राप्त करने का उपाय बता कर,  उनकी सेवा करने का, सौभाग्य प्राप्त हुआ है। लेकिन केवल स्वयं दूसरों की सेवा में सदैव तत्पर रहने से ही काम नहीं होगा, बल्कि हमें अपने जीवन में 'Lust and lucre' में अपनी आसक्ति या लालच को त्याग कर, और  नाम-यश पाने की कामना को भी त्याग कर, अपने आस-पास रहने वाले भाइयों को भी ऐसा करने के लिए उत्साहित तथा उत्प्रेरित करना होगा। ताकि वे भी आगे आयें और, और मेरे उदाहरण से  प्रेरणा लेकर तीनों ऐषणाओं अनासक्त होना सीखें,  और दूसरों को अपने अन्दर भी वैसा ही सेवाभाव जाग्रत करने के लिए प्रेरित कर सकें। 
       यदि हममें से कुछ लोगों के अन्दर, नाम-यश पाने के लिए नहीं केवल  'जनताजनार्दन की सेवा' दूसरों  अधिक करने का सौभाग्य प्राप्त करने का संकल्प हो, तो वैसे लोग ही सच्चे नेता बन सकते हैं। और दूसरों को भी इसके लिए अनुप्रेरित कर सकते हैं। आज हमें इसी प्रकार के नेतृत्व की आवश्यकता है, जो स्वयं के मोक्ष के लिए नहीं, बल्कि भारत माता को समृद्धि शिखर पर आसीन करने के उद्देश्य से अपने जीवन तक को न्योछावर कर दें। 
      श्रीमद्भागवत महापुराण (के दशम स्कन्ध के २२ वें अध्याय में श्लोक ३२-३५ ) में वर्णित एक कथा में कहा गया है -कि एक दिन भगवान् श्रीकृष्ण गोचारण करते हुए वृन्दावन से बहुत दूर निकल गये। ग्रीष्म ऋतु के संताप से व्यकुल होकर सभी गऊयेँ तथा ग्वाल-बाल आदि घने वृक्षों की शीतल छाया में विश्राम करने लगे। वे वृक्षों की टहनियों से पंखों का काम ले रहे थे। यह सब देख कर,अचानक श्रीकृष्ण अपने साथियों को सम्बोधित करते हुए कहने लगे—
पश्यैतान् महाभागान् परार्थैकान्त जीवितान्। 
वात-वर्षा-ताप-हिमान् सहन्तो वारयन्ति नः ।।३२।।
अर्थात् - ‘‘प्रिय मित्रो, देखो। ये वृक्ष कितने भाग्यवान हैं !!  इनका सारा जीवन केवल दूसरों की भलाई करने के लिये ही समर्पित है। ये स्वयं तो हवा, वर्षा, धूप, और पाला सहते हैं, परन्तु उनसे हमारी रक्षा करते हैं।
अहो एषां वरं जन्म सर्व प्राण्युपजीवनम् ।
सुजनस्यैव येषां वै विमुखा यान्ति नार्थिनः।।
 
-अहो (प्यारे भाइयो),  मैं तो कहता हूँ कि इन वृक्षों का जीवन ही सबसे श्रेष्ठ है। क्योंकि ये सब प्राणियों को उपजीवन (सहारा) देते हैं, अर्थात इनके द्वारा सब प्राणियों का जीवन-निर्वाह होता है। ये वृक्ष धन्य हैं कि जिनसे याचक कभी निराश नहीं होते । जैसे कोई सज्जन पुरुष किसी याचक को खाली नहीं लौटाता, वैसे ही ये वृक्ष भी लोगों को खाली हाथ न लौटाकर उन्हें कुछ न कुछ अवश्य देते हैं। वृक्ष किस प्रकार दूसरों के कल्याण में अपना सब कुछ न्योछावर कर देते हैं? यह सब विस्तारपूर्वर समझाते हुए श्री कृष्ण आगे कहते हैं -
पत्र, पुष्प, फलच्छाया, मूल, वल्कल दारुभिः। 

 गन्धः निर्यास भस्मास्थि तोक्मैः कामान् वितन्वते।।

अर्थात् ये वृक्ष पत्र (पत्ती), पुष्प, फल, छाया, मूल (Roots,जड़), वल्कल (Bark,छाल), दारू या लकड़ी (Timbers), गंध (Scent), निर्यास या गोंद (Gum), भस्म (Ash,राख), अस्थि (coal,कोयला), तोक्म (Seeds, बीज) आदि पदार्थों के द्वारा हमारा उपकार करते हैं। अपने गाय चराने वाले मित्रों को मनुष्य जीवन की सार्थकता क्या है, यह समझाते हुए कहते हैं -
 
एतावत् जन्मसाफल्यं देहिनामिह देहिषु । 

प्राणैरर्थैर्धिया वाचा श्रेयआचरणं सदा ॥

 मेरे प्यारे मित्रों! वास्तव में इनका जीवन ही सार्थक है, क्योंकि ये वृक्ष दूसरों की भलाई के लिये ही जीवित हैं। संसार में प्राणी तो बहुत हैं; परन्तु उनके जीवन की सार्थकता इसमें  ही है-  कि जहाँ तक सम्भव हो सके-इन वृक्षों की भाँति ही मनुष्य को भी अपने शब्दों या विचारों के माध्यम से, अपनी धी या बुद्धि से, या अपने मन के विवेक-विचार से, अर्थ का त्याग करके, और आवश्यकता पड़ने पर- प्राणैः, अर्थात अपने प्राणों की आहुति देकर भी केवल धर्म अर्थात सद्कर्म ही करना चाहिये। हमें केवल ऐसे ही कर्म करने चाहिए, जिनसे दूसरों की भलाई होती हो। यही तो है संसार के समस्त धर्मों में निहित गूढ़ तत्व, या धर्म का वास्तविक रहस्य !

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