श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर
(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली )
(56)
*सेवाभाव से किया जानेवाला कर्म (समाज सेवा : Be and Make) पूजा के समान है *
442 दया करन को कौन तू , मूरख पामर जीव।
824 कर सेवा सब जीव का , सह श्रद्धा जनु शिव।।
एक दिन श्रीचैतन्य देव द्वारा प्रवर्तित वैष्णवधर्म की चर्चा के प्रसंग में श्रीरामकृष्ण ने कहा - " इस मत में मनुष्य को इन तीन बातों का पालन करने के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहने का उपदेश दिया जाता है - भगवान के नाम में रूचि , जीवों पर दया , वैष्णवों का पूजन। जो नाम है , वही ईश्वर है , नाम और नामी अभिन्न हैं - यह जानकर सदा अनुराग सहित नाम लेते रहना चाहिए।
"कृष्ण और वैष्णव , भक्त और भगवान अभिन्न हैं ; यह जानकर सदा साधु-भक्तजनों की सेवा -वंदना श्रद्धापूर्वक करनी चाहिए। तथा यह जगत-संसार श्रीकृष्ण का ही है , इस बात की हृदय में धारणा कर सब जीवों पर दया .....।" ' सब जीवों पर दया ' इतना कहते ही श्रीरामकृष्ण एकाएक समाधिमग्न हो गए।
कुछ देर बाद अर्ध-बाह्य अवस्था में आकर वे कहने लगे , " जीवों पर दया ? जीवों पर दया ? धत मूर्ख! तू स्वयं कीटाणुकीट होकर जीवों पर दया करेगा ? दया करनेवाला तू कौन है ? नहीं ,नहीं , 'जीवों पर दया ' -नहीं , 'शिव-बुद्धि से जीवों की सेवा !'
* कर्म उपाय है , उद्देश्य नहीं *
443 प्रथम हरि को जान ले , कर कर साधन प्रेम।
825 कर जनहित जो शक्ति दें , वृथा उल्टा नेम।।
कुछ उत्साही समाजसुधारकों से श्रीरामकृष्ण ने कहा - " तुम लोग जगत का उपकार करने की बात कहते हो। पर जगत क्या इतनी छोटी चीज है ? और फिर जगत का उपकार करने वाले भला तुम कौन हो ? पहले साधनभजन के द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार कर लो , उनका लाभ कर लो। वे शक्ति दें तभी तुम लोगों का हित कर सकते हो , अन्यथा नहीं। "
एक भक्त -महाराज , जब तक उनकी उनकी प्राप्ति न हो तब तक क्या सब कर्म त्याग दें ?
श्रीरामकृष्ण - नहीं , कर्म त्याग क्यों दोगे ? ईश्वर का चिंतन , उनका नाम गुणगान , उपासना आदि नित्यकर्म -यह सब करते रहना चाहिए।
भक्त - और सांसारिक कर्म ? विषय कर्म ?
श्रीरामकृष्ण - हाँ , उन्हें भी किया करो , संसार -यात्रा के लिए जितना आवश्यक हो उतना ही। परन्तु साथ ही निर्जन में रोते हुए प्रभु से प्रार्थना करनी होगी , ताकि कर्म निष्काम भाव से किये जा सकें।
444 होवहिं संध्या करम सब , गायत्री में लीन।
832 पुनि गायत्री प्रणव मँह , प्रणव समाधि हि लीन।।
संध्या गायत्री में लीन होती है , गायत्री प्रणव में लीन होती है , प्रणव समाधी में लीन होता है। इस प्रकार संध्या सन्ध्यादि कर्म का समाधि में लय होता है।
*कर्म तथा नैष्कर्म्य*
445 जस-जस पग हरि दृग बढे , तस तस करम त्याग।
834 अंत कर्म सब त्याग है , जले समाधि आग।।
इसलिए कहता हूँ , शुरू शुरू में कर्म की बड़ी चहल-पहल रहती है। परन्तु तुम ईश्वर की ओर जितना ही अग्रसर होंगे , उतना ही तुम्हारा कर्म कम होता जायेगा। अंत में सर्वकर्म-त्याग होकर समाधि होगी। समाधि के बाद प्रायः देह नहीं टिका करती।
किसी-किसी की देह लोकशिक्षा के लिए रह जाती है -जैसे नारदादि ऋषि और चैतन्यदेव आदि अवतारों का हुआ। कुआँ खोद चुकने के बाद कोई कोई कुदाल , टोकरी आदि की बिदाई कर देते हैं , पर कोई कोई उन्हें रख लेते हैं -सोचते हैं रहने दो, मुहल्लेवालों में से किसी के काम आएगा। ऐसे महापुरुष लोग जीवों का दुःख देखकर कातर होते हैं। ये ऐसे स्वार्थी नहीं होते कि सोचें , हमें ज्ञानलाभ हुआ कि सब हो गया।
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