श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर
(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली )
(26)
(A)
" प्रार्थना तथा भक्तिभाव "
[श्रीरामकृष्ण वचनामृत (7 सितंबर,1884)]
श्रीरामकृष्ण की अनूठी प्रार्थना
(Unique prayer of Sri Ramakrishna)
*माँ, यहीं से मन को मोड़ दो ! *
'सुधामुखीर रान्ना (cooking) आर ना , आर ना ~खेये पाए कान्ना (blubber-बिलखना)'
*মা, ওইখানেই মোড় ফিরিয়ে দাও!*
সুধামুখীর রান্না — আর না, আর না — খেয়ে পায় কান্না!”]
*O Mother, please change the direction of my mind right now *
so that I may not have to flatter rich people.'
[ 'Sudhamukhi cooking - no more, no more' --सन्तोष — Contentment ]
254 मुख से कहत सब तोर प्रभु , मन मन कहहि मोर।
447 सुनहि न प्रभु तिन्ह के विनय , कपटी कुटिला चोर।।
तुम्हारे भीतर जो भाव हो , बाहर तुम्हारी वाणी भी उसी के अनुसार होनी चाहिए। मन और मुख एक होना चाहिए। यदि तुम केवल मुख से कहो कि- 'भगवान' मेरे सर्वस्व हैं " पर मन ही मन संसार को सर्वस्व मानो तो इससे तुम्हें कुछ लाभ नहीं होगा।
(God always Hear the prayers of the devout heart.)
252 भक्त हृदय की प्रार्थना सुनत सदा भगवान।
446 जोर करो या धीर करो, या मन मन इंसान।।
प्रश्न -क्या भगवान से प्रार्थना जोर से करनी चाहिए ?
उत्तर - उनसे चाहे जिस प्रकार प्रार्थना करो वे अवश्य ही सुनेंगे। वे चींटी के पग की आवाज तक सुन सकते हैं।
253 हो व्याकुल प्रार्थना करो , कर मन मुख दुइ एक।
447 करहि सफल भगवान सदा , मन धर धीर विवेक।।
प्रश्न -क्या सचमुच ही वे प्रार्थना सुनते हैं ?
उत्तर -हाँ , यदि मन और मुख एक करके किसी वस्तु के लिए व्याकुल होकर प्रार्थना की जाती है तो वह प्रार्थना सफल हुआ करती है। पर जो मुँह से तो कहता है कि 'प्रभो , यह सब कुछ तुम्हारा है ' -पर मन ही मन सोचता है कि 'यह सब मेरा है' उसकी प्रार्थना का कोई फल नहीं होता।
255 तज छल मन मुख एक कर , सरल हृदय जे गांहि।
448 तिन्हके विनय सुनत हरि , निश्चय संसय नाही।।
तुम्हारे भावों में किसी प्रकार का छल-कपट न हो। सच्चे,निष्कपट बनो , मन- मुख एक करो , तुम्हें अवश्य ही फल मिलेगा। सरल , आन्तरिक भाव प्रार्थना करो , वे तुम्हारी प्रार्थना अवश्य ही सुनेंगे।
[क्या है भक्ति और किसकी भक्ति करें ? सत्य, शील, सौन्दर्य और शक्ति के पर्याय का नाम है- श्री रामकृष्ण (काली) । अतएव श्रीरामकृष्ण के चारित्रिक गुणों का गान है- भक्ति। सब धर्मों-प्रपंचों का पूर्ण विराम है भक्ति।
परोपकार, दया, विद्या -दान (गुरु-शिष्य परम्परा) आदि धर्म के समस्त मान मूल्यों का आचरण ही भक्ति की वह शक्ति है जो व्यक्ति को टूटने से बचाती है, धरती को बैकुंठ बनाती है, जीवन जीने में रस प्रदान करती है। मनुष्य को ~ * Be and Make वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण -पद्धति * में प्रशिक्षित कर उसे बेहतर (चरित्रवान) मनुष्य बनने और बनाने; अथवा उसे नर से नारायण बनाने के लिए स्वयं नारायण ही विविध रूपों ( काली -श्री रामकृष्ण ,स्वामी विवेकानन्द -Captain James Henry Sevier, a disciple of Swami Vivekananda..... C-IN-C श्रीनवनीदा आदि के गुरु-शिष्य परम्परा ) में अवतरित होते रहते हैं। वरना, क्या जरूरत है उस अनादि अनन्त अजन्मा श्रीरामकृष्ण को यहाँ अवतरित होने की? ]
========
श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर
(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली )
(26)
(B)
" भक्त का परिवार "
246 जा हिय भक्ति अनन्य अति , जा को प्रिय भगवान।
442 ताके वश नारी दुरजन , और नरेश महान।।
247 हरि पथ बाधक जो नारी , अरि सम तिनको जान।
442 मरे जिए कुछ भी करे , तजहु विष समान।।
प्रश्न - अगर साधक से उसकी स्त्री कहे कि तुम मेरा ठीक तरह से देखभाल नहीं करते , मैं आत्महत्या करुँगी , तो क्या करना चाहिए ?
उत्तर - ऐसी स्त्री को जो ईश्वर के मार्ग में विघ्न डालती हो , त्याग देना चाहिए -चाहे वह आत्महत्या करे या कुछ भी करे। जो स्त्री ईश्वर के मार्ग में विघ्न डालती है वह अविद्या -रूपिणी स्त्री है। परन्तु जिसकी ईश्वर पर आन्तरिक भक्ति है, सभी उसके वश में आ जाते हैं - राजा , दुर्जन व्यक्ति , स्त्री -सब। स्वयं के भीतर यदि सच्ची आंतरिक भक्ति हो तो स्त्री भी धीरे धीरे ईश्वर की राह पर आ सकती है। स्वयं भले होने पर ईश्वर की इच्छा से वह भी अच्छी बन सकती है।
248 मातु पितु ऋषि देवगण , अरु नारी ऋण पांच।
443 बिना चुकाए सकल नर , जीवन सफल न सांच।।
" माता-पिता क्या कम हैं ? उनके प्रसन्न हुए बिना धर्म-कर्म कुछ नहीं हो पाता। श्री चैतन्यदेव को ही लो। वे तो प्रेम में उन्मत्त हो गए थे (लज्जा, घृणा ,भय तीनों को त्याग चुके थे !) , परन्तु फिर भी संन्यास लेने के पहले वे कितने ही दिनों तक अपनी माता को मनाते रहे ! उन्होंने कहा था , " माँ! मैं बीच बीच में आकर तुम्हें देख जाया करूँगा।
मनुष्य के कुछ ऋण होते हैं -देवऋण , ऋषिऋण , फिर मातृऋण , पितृऋण , स्त्रीऋण। माता-पिता के ऋण को चुकाए बिना कोई कार्य सफल नहीं हो पाता। स्त्री के प्रति भी ऋण होता है। हरीश अपनी पत्नी को त्याग कर यहाँ आकर रहता है। अगर उसकी स्त्री के गुजर -बसर की व्यवस्था न होती तो मैं कहता कि साला ढोंगी है।
“ज्ञान के पश्चात उसी पत्नी को तुम साक्षात् भगवती देखोगे ! सप्तशती में है, ‘या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता ।’ वे ही माँ हुई हैं ! “जितनी स्त्रियाँ देखते हो, सब वे ही हैं; इसीलिए मैं वृन्दा (नौकरानी) को कुछ कह नहीं सकता । कोई-कोई लोग श्लोक झाड़ते हैं – लम्बी-लम्बी बातें बघारते हैं, परन्तु उनका व्यवहार कुछ और ही होता है ।
उस हठयोगी के लिए अफीम और दूध का बन्दोबस्त कैसे हो इसी फ़िक्र में रामप्रसन्न सदा मारा मारा फिरता है। कहता है मनु ने साधुसेवा का विधान दिया है। इधर बूढी माँ को खाने नहीं मिलता , वह खुद सौदा लेने हाट-बाजार जाया करती है। यह सब देखकर ऐसा गुस्सा आता है कि क्या कहूं !
[5 अप्रैल 1884, श्रीरामकृष्ण वचनामृत ~परिच्छेद 79]
249 प्रभु पद जाको प्रीत अति , जाको नहि तन भान।
444 ताके नहि कछु ऋण कहे , रामकृष्ण भगवान।।
परन्तु एक बात है। यदि किसी की प्रेमोन्माद अवस्था हो जाये , तो फिर कौन बाप, कौन माँ और कौन स्त्री ! ईश्वर पर इतना प्रेम हो कि दीवाना बन जाये ! फिर उसके लिए कुछ कर्तव्य नहीं रह जाता। वह सभी ऋणों से मुक्त हो जाता है। यह प्रेमोन्माद की अवस्था आने पर मनुष्य को संसार का विस्मरण हो जाता है , अपनी देह जो इतनी प्यारी होती है , उसकी भी सुध नहीं रह जाती।
250 मातु पितु है परम् गुरु , करो जतन सह प्रीत।
445 देह गये श्रद्धा सहित , श्राद्ध करम सब रीत।।
संसार में माता-पिता परम् गुरु हैं। वे जब तक जीवित रहें तब तक यथाशक्ति उनकी सेवा करनी चाहिए और उनकी मृत्यु के बाद यथासाध्य उनका श्राद्ध करना चाहिए। जो पुत्र अत्यन्त निर्धन है, जिसमें श्रद्धादि करवाने की सामर्थ्य नहीं है , उसे भी वन में जाकर उनका स्मरण करते हुए रोना चाहिए , तभी उनके ऋण का चुकता होता है।
251 मातु पितु आदेश नर , धरहु शीस अम्लान।
445 जो हरि पथ बाधा बने , सुनहु न तिन्हके ज्ञान।।
केवल ईश्वर के लिए माता-पिता की आज्ञा का उल्लंघन किया जा सकता है। जैसे, प्रह्लाद ने पिता के मना करने पर भी कृष्णनाम लेना नहीं छोड़ा। माँ के मना करने पर भी ध्रुव तपस्या करने वन में गया। इससे उन्हें कोई दोष नहीं लगा।
================
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें