शनिवार, 5 जून 2021

$$$श्री रामकृष्ण दोहावली (40)~पुरुषार्थ और हरिकृपा

श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(40)

पुरुषार्थ और हरिकृपा 

{Self Effort and the God's grace} 

354 व्याकुलता बिन कृपा नहीं , कृपा बिना भगवान। 

673 ब्याकुल हिय पुकार नर , प्रभु का धर ले ध्यान।।

प्रश्न - किस प्रकार के कर्म से हम ईश्वर को पा सकते हैं ? 

उत्तर - मनुष्य उन्हें अमुक कर्म से पा सकता है , अमुक से नहीं -ऐसी बात नहीं है। उनकी प्राप्ति होना उन्हीं की कृपा पर निर्भर है। पर उनकी कृपा के लिए व्याकुल होकर कुछ कर्म करते रहना चाहिए। उनकी कृपा से सुयोग मिल जाता है , अनुकूलता हो जाती है। 

     कभी ऐसा सुयोग हो जाता है कि भाई ने परिवार का पूरा भार ले लिया , तुम निश्चिन्त हो गए। स्त्री 'विद्याशक्ति ' धार्मिक निकली -उसकी ओर से कोई बाधा नहीं रही ; या किसीका विवाह ही नहीं हुआ। 

इस प्रकार का सुयोग के मिलने से काम बन जाता है। 

355 जस अँधियारा तुरत नशे , पाकर तीली प्रकाश। 

674 तस हरि कृपा पड़त नर , सकल पाप कै नाश।।

हजारों साल से बंद कमरे का अंधकार भी दियासलाई की एक तीली के जलते ही  उसी क्षण दूर हो जाता है ! वैसे ही एक बार ईश्वर(नेता विवेकानन्द) की कृपादृष्टि के पड़ते ही जीव के जनजन्मान्तर के पापपुंज तत्काल दूर हो जाते हैं।   

356 मलय पवन के छुवत जस , चंदन होवहि झार। 

676 तस पूरन पा हरिकृपा , जिनके हिय कछु सार। 

मलय पवन के लगने से जिन पेड़ों में कुछ सार है , वे सब चंदन बन जाते हैं। परन्तु बाँस , केला आदि साररहित वृक्षों पर कुछ असर नहीं होता। इसी तरह भगवत्कृपा पाकर , जिनमें कुछ सार है वे तो तत्काल सद्भाव से परिपूर्ण हो जाते हैं , किन्तु सारहीन # विषयासक्त मनुष्य का सहज में कुछ नहीं होता।  

[# सारग्राही जनार्दनः ? विषयासक्त मनुष्य के सर्जरी के बाद 'रोग निवर्ती कमरा' (recovery room)में गए बिना कुछ नहीं होता ?] 

357 कृपा वायु दिन रात बहे , खोल नाव के पाल। 

677 तज चतुराई भजन कर , प्रभु मिले तत्काल।।

एक भक्त बहुत जप किया करता था। श्रीरामकृष्ण ने उससे कहा , " तुम एक ही जगह क्यों अड़े हो ? आगे बढ़ो ! " इस पर भक्त ने कहा , " यह तो उनकी कृपा के बिना नहीं हो सकता। " तब श्रीरामकृष्ण बोले , " उनका कृपारूपी पवन तो दिन रात बह ही रहा है। भवसागर पार करना है तो अपनी नाव की पाल तान दो। 

358 कृपा वायु दिन रात बहे , आलस लेत न सार। 

678 पाल तान उद्यमी नर , उतरत सागर पार।।

भगवत्कृपा का पवन सदा बह रहा है। आलसी लोग उसका सदुपयोग नहीं करते। परन्तु जो उद्यमशील होते हैं वे अपनी नौका का पाल फहरा देकर आसानी से पार हो जाते हैं। 

359 बंसी चारा डाल धरे , मछली धींवर धीर। 

680 एक चित्त तस भजन कर जो चाहत रघुबीर।।

एक गृहस्थ भक्त - महाराज हमने सुना है कि आप ईश्वरदर्शन करते रहते हैं ! तो हमें भी करा दीजिये। उनके दर्शन कैसे हों ? 

श्रीरामकृष्ण - सब कुछ ईश्वर की इच्छा के अधीन है। परन्तु कर्म चाहिए , तब ईश्वरदर्शन होते हैं। केवल 'ईश्वर हैं ' कहकर बैठे रहने से कुछ नहीं होगा। 

    तालाब में बहुत सी मछलियां हैं , परन्तु 'मछलियां हैं ' कहकर केवल बैठे रहने से क्या कहीं मछली पकड़ी जा सकती है ? बंसी-डोर ले आओ , पानी में चारा डालो , धीरे-धीरे गहरे पानी में से मछलियां जब निकलकर चारे के पास आएंगी , तब तो तुम उन्हें पकड़ सकोगे ! 

यह भी कमाल की सोच है , ईश्वर से मिला दो , और आप चुपचाप बैठे रहेंगे ? दही जमाकर , उसे मथकर मक्खन निकलकर उनके मुख तक कोई पहुंचा दे ! या मछली पकड़ कर उनके हाथ में रख दी जाय ! अच्छी बला है !  

360 उड़ उड़ पाखी थकहिं जब , बैठहिं मस्तूल नाव। 

681 तस साधक हो विफल थकित , बैठहिं श्री हरि पांव।।

बीच समुद्र में जहाज के मस्तूल पर बैठा हुआ पक्षी उकता कर नई जगह पाने के लिए एक-एक करके पूरब-पश्चिम , उत्तर-दक्षिण सभी दिशाओं में उड़ आता है, पर पानी के सिवा कहीं कुछ दिखाई नहीं देता। थक कर , निरुपाय होकर वह फिर उसी मस्तूल पर आकर बैठ जाता है।

       इसी प्रकार साधक भी अनुभवसिद्ध (जीवनमुक्त) , हितैषी गुरु के द्वारा निर्देशित साधना-विधि (3H विकास के 5 अभ्यास ) का नित्य पालन करते करते उकता जाता है तथा हताश हो जाता है।  और अपने गुरु/नेता में विश्वास खोकर निजी-प्रयत्न के द्वारा भगवत्प्राप्ति करने के लिए  मनमाने साधन-मार्गों में भटकने लगता है। पर उसका सब परिश्रम विफल ही होता है। 

अंत में हारकर उसे उसी गुरु की शरण में लौट आना पड़ता है। 

361 चलन लगे मारुत जब , नहिं पंखा के काज। 

683 तस हरि किरपा होत नर , काम न साधन साज।।

हवा बहने लगे तब पंखे की जरूरत नहीं रह जाती। ईश्वर की कृपा हो जाये तो साधन-भजन की आवश्यकता नहीं रहती। 

362 जे हिय कर्तापन अहम , ते हिय नहिं भगवान। 

685 हरि कृपा ते नशे अहम , उदित होत तब ज्ञान।।

कितनी भी चेष्टा करो , भगवान की कृपा के बिना कुछ नहीं होता। उनकी कृपा के बिना उनके दर्शन नहीं मिलते। 

परन्तु उनकी कृपा भी सहज में नहीं होती। उसके लिए अहंकार का सम्पूर्ण त्याग कर देना पड़ता है। 'मैं कर्ता हूँ ' --इस बोध के रहते उनके दर्शन नहीं हो सकते। विवाह के मौके पर  भण्डारघर में अगर कोई हो , और उस समय घर के मालिक से अगर कोई कहे कि आप भण्डार से अमुक चीज निकाल दीजिये , तो मालिक यही कहता है कि वहाँ तो -अमुक [सोनपुर के फूफाजी] है न , फिर मेरे जाने की  क्या जरूरत ?  जो खुद ही कर्ता  बना बैठा है , उसके हृदय में भगवान आसानी से नहीं आते।   

363 निज मुख धरहि प्रकाश जब , कृपासिन्धु भगवान। 

686 तब जीव पाहिं दरस अरु , होहि उदित हिय ज्ञान।।

[फाइनल बात -- ] उनकी कृपा से ही उनके दर्शन होते हैं ! वे ज्ञानसूर्य हैं। उनकी एक किरण से ही संसार में यह ज्ञान का प्रकाश फैला हुआ है। 

उसीकी सहायता से हम एकदूसरे को पहचानते हैं और संसार में तरह तरह की विद्याएं सीखते हैं। यदि वे एक बार अपना प्रकाश अपने चेहरे पर डालें तो हमें उनके दर्शन हो सकते हैं। 

================

{माँ तारा की कृपा से  'तारा निकेतन' में जन्म ......भाई , परिवार !  }     


कोई टिप्पणी नहीं: