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शुक्रवार, 4 जून 2021

श्री रामकृष्ण दोहावली (22) - (A) संगत का प्रभाव (B) सिद्धियों से हानि (C) दान-धर्म (D) शरीर विषयक दृष्टिकोण

श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर 

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(A)  

 संगत का प्रभाव    

215 जस घेरा लघु पेड़ का ; करत सदा बचाव। 

387 तस सुसंगत दूर रखे , अशुभ कुसंगत  भाव।। 

      शुरू-शुरू में पौधे के चारों ओर घेरा लगाकर गाय -बकरी आदि से बचाना पड़ता है। पर एक बार वह पौधा बढ़कर बड़ा वृक्ष बन जाय तो फिर कोई भय नहीं रह जाता। तब तो सैंकड़ों गाय -बकरियाँ आकर उस बटवृक्ष के नीचे आसरा लेती हैं, उसके पत्तों से पेट भरती हैं। इसी तरह, साधना की प्रथम अवस्था में स्वयं को कुसंगति और सांसारिक विषयबुद्धि के प्रभाव से बचाना चाहिए। पर एक बार सिद्धि लाभ हो जाने से फिर कोई भय नहीं रहता। तब कुभाव या संसारासक्ति तुम्हारा कुछ बिगाड़ नहीं सकेगी। बल्कि अनेक संसारी लोग तुम्हारे पास आकर शान्ति प्राप्त करेंगे।  

216 ऐसी भोजन पाइये, शुद्ध सदा सुपाचु।  

394  तन उत्तेजित होइ ना , नहिं मन चंचल आपु।।

ज्ञानी भोजन नहीं करता , वह तो कुण्डलिनी को आहुति देता है ! परन्तु भक्त की बात अलग है। भक्त को शुद्ध अन्न ही ग्रहण करना चाहिए - जो अन्न वह अपने इष्टदेव को निस्संकोच अर्पित कर सके। भक्त के लिए मांसाहार उचित नहीं।  फिर यह भी है कि शूकर -मांस कहते हुए भी अगर किसी में ईश्वर के प्रति अनुराग हो तो वह धन्य है , और निरामिष या हविष्यान्न भोजन करके भी अगर किसी का मन कामिनी -कांचन में डूबा रहे तो उसे धिक्कार है। 

        भक्त को ऐसा भोजन करना चाहिए , जिससे शरीर उत्तेजित न हो , मन चंचल न बने।  

(B)

' सिद्धियों से हानि '

212 मूरख जिमि कुम्हड़ा माँगहिं , राज दुवारे जाइ। 

380 तिमि अबोध अठ सिद्धि को , हरि को सम्मुख पाइ।।

राजप्रासाद में भीख माँगने जाकर जो लौकी , कुम्हड़े जैसी तुच्छ वस्तु की प्रार्थना करता है , वह कितना मूर्ख है! उसी प्रकार , राजाधिराज ईश्वर के दरबार में खड़ा होकर जो ज्ञान , भक्ति, विवेक-वैराग्य आदि रत्नों को न माँगकर अष्टसिद्धि जैसी तुच्छ वस्तु की याचना करता है , वह कितना अबोध है ! 

एक बार एक शिष्य ने श्रीरामकृष्ण से कहा - " ध्यान करते हुए  मुझे दूर घटती हुई घटनायें , वहां के लोगों के क्रियाकलाप आदि दिखाई पड़ते हैं। बाद में जाँच करने पर वे दर्शन सही निकलते हैं। " श्रीरामकृष्ण यह सुनते ही बोले - " अभी कुछ दिन ध्यान   मत कर। ये सब ईश्वरप्राप्ति के मार्ग में अन्तराय हैं। "  

211 विष्ठा सम अठ सिद्धियाँ , देवे ब्रह्म बिसराइ। 

376 अहम बढ़त मेरु समान , यश- कीर्ति को पाइ।।

सिद्धियों को विष्ठातुल्य हेय जानकर उनकी ओर ध्यान नहीं देना चाहिये। साधना और संयम का अभ्यास करते करते कभी-कभी वे अपने आप आ जाती हैं , परन्तु जो उनकी और ध्यान देता है , वह उन्हीं में अटक जाता है। भगवान की ओर अग्रसर नहीं हो पाता।  

(C)

दान-धर्म 

218 शिव जान जो जीव को , देहि भोजन कराइ। 

383 परम् प्रभु होवहि प्रसन्न , मानहु आहुति पाइ।। 

धार्मिक अनुष्ठानों में लोगों को भोजन क्यों कराया जाता है ? लोगों को खिलाना क्या एक प्रकार से भगवान की ही सेवा नहीं है ? - सब जीवों के भीतर वे अग्नि के रूप में विद्यमान हैं, अतः खिलाना यानि उन्हीं में आहुति चढ़ाना। 

213 दुर्जन को न खिलाइये , करे जो पापाचार। 

383 जहँ बैठे वह जमीं तुरत , होत अपावन छार।।

धार्मिक अनुष्ठानों में लोगों को भोजन क्यों कराया जाता है ? लोगों को खिलाना क्या एक प्रकार से भगवान की सेवा नहीं है ? ---सब जीवों के भीतर वे अग्नि के रूप में विद्यमान हैं, अतः खिलाना यानि उन्हीं में आहुति चढ़ाना। 

परन्तु जो दुर्जन हैं , जो भगवान को नहीं मानते, जिन्होंने व्यभिचार आदि महापाप किये हैं,  ऐसे लोगों को कभी नहीं खिलाना चाहिए। ऐसे पापी लोग जहाँ बैठकर भोजन करते हैं , उसके नीचे की सात हाथ तक की जमीन अपवित्र हो जाती है।

214 अन्न दान नर कीजिये , करके सदा विचार। 

384 सज्जन को दुर्जन नहि , जो रत पापाचार।।

एक कसाई एक गाय को दूर कसाईखाने की ओर ले जा रहा था। बीच रास्ते में एक जगह गाय ने आगे बढ़ने से इंकार कर दिया। कसाई उसे इतना पीटता , पर वह टस से मस न होती। बड़ी मुसीबत थी ! आखिर कसाई भूख-प्यास और थकावट से तंग आ गया।  तब गाय को एक पेड़ से बांध वह गाँव में एक अतिथिशाला में जा  पहुंचा। वहां भरपेट भोजन करने के बाद उसमें ताकत आयी और तब आसानी से उसने गाय को कसाईखाने ले जाकर उसकी हत्या कर दी। गो-हत्या के पाप का बहुत सा भाग उस अतिथिशाला के अन्नदान करनेवाले मालिक को लगा ; क्योंकि उसकी सहायता के बिना कसाई गाय ले जाने में समर्थ न होता। इसलिए भोजन या अन्य वस्तु का दान देते समय यह विचार करना चाहिए कि दान ग्रहण करने वाला व्यक्ति कहीं दुर्जन या पापी तो नहीं है, कहीं वह उस दान का दुरूपयोग तो नहीं करेगा।  

[22-D] 

शरीर विषयक दृष्टिकोण 

 217 आग ताप पीटे बहुत , बनत लौह कृपाण। 

399 शोक ताप सह सह तसहि , नम्र बनत इन्सान।।

प्रश्न - शरीर के प्रति आसक्ति कैसे दूर की जाय ? 

उत्तर - यह शरीर नाशवान वस्तुओं का बना हुआ है। इसमें हड्डियाँ , मांस , रक्त , मल , मूत्र आदि गन्दी चीजें ही भरी हुई हैं। सदा इस प्रकार वस्तु और अवस्तु का विवेक करते रहने पर देहविषयक आसक्ति चली जाती है।  

लेकिन अच्छा फौलाद बनाने के लिए पहले लोहे को बार- बार भट्ठी में तपाना पड़ता है और बार-बार हथौड़े से पीटना पड़ता है। तभी उससे पतली धारदार तलवार बन सकती है , जिसे चाहे जैसा झुकाया जा सकता है। इसी तरह शुद्ध नम्र बनकर ईश्वरदर्शन की योग्यता प्राप्त करने के पहले मनुष्य को भी शोक-ताप में जलना पड़ता है ; दुःख -क्लेश की चोट सहनी पड़ती है।     

219 शरीर जाने रोग निज , मन रह आनन्द ठाँव। 

402 कह ठाकुर भव बीच रहो , वन ते मन बिलगाव।

रोग के प्रति अपना मनोभाव व्यक्त करते हुए श्रीरामकृष्ण कहते , " देह का रोग देह ही जाने , मन , तुम आनन्द में रहो। " 

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