श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर
(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली )
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*धर्मपथ के सहायक गुरु (अवतार, नेता) क्या हैं *
376 सच्चिदानन्द वृक्ष में , गुच्छे गुच्छे राम।
706 समय समय आवत धरा , लोक शिक्षण के काम।।
सच्चिदानन्द -वृक्ष पर गुच्छे के गुच्छे राम , कृष्ण आदि फल फले हुए हैं। समय-समय पर इनमें से एक-दो इस संसार में आकर कितनी बड़ी क्रांति कर जाते हैं।
"मनुष्य निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा- "Be and Make Leadership Training Tradition " का प्रचार-प्रसार करने में समर्थ, 'स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त - शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' में प्रशिक्षित, धर्मपथ के सहायक, भवतारिणी माँ काली से जीवन-मुक्त लोकशिक्षक होने का चपरास प्राप्त गुरु /नेता; महामण्डल के प्राणपुरुष "C-IN-C श्री नवनी दा" क्या हैं ?
वे निम्नोक्त कहानी में वर्णित वह 'चौथा आदमी' हैं , जो "चारदीवारी पर चढ़ा~ देश-काल की सीमा से परे कूद कर फिर नीचे वापस उतर आया। और जो भी दिखाई देता उसी को पकड़ पकड़ कर उस जगह के विषय में बतलाने लगा......
" चारदीवारी से घिरी हुई एक जगह थी। उसके भीतर क्या है ? इसका बाहर के लोगों को कुछ भी पता नहीं था। एकदिन चार जनों मिलकर सलाह की कि सीढ़ी लगाकर चारदीवारी पर चढ़ा जाय , और देखाजाय कि उसके भीतर है क्या ?
पहला आदमी सीढ़ी के सहारे दीवार पर जैसे ही चढ़ा वैसे ही 'हा -हा ' कर हँसते हुए चारदीवारी के भीतर कूद पड़ा। क्या हो गया ? समझ न पाकर दूसरा आदमी भी दीवार पर चढ़ा और उसी प्रकार 'हा -हा ' कर हँसते हुए भीतर कूद पड़ा। तीसरे आदमी का भी वही हाल हुआ।
अन्त में चौथा आदमी चारदीवारी पर चढ़ा। उसने देखा कि भीतर दिव्य उपभोग की वस्तुओं से भरा अपूर्व शोभामय एक उपवन है।
उसके मन में उन सुंदर वस्तुओं का उपभोग करने की तीव्र कामना उठी , पर उसने उस अदम्य इच्छा का भी 'दमन' कर दिया ; और दूसरों को भी अपने साथ लेकर उसका आनन्द चखाने की इच्छा से वह नीचे वापस उतर आया। और जो भी दिखाई देता उसी को पकड़ पकड़ कर उस जगह के विषय में बतलाने लगा।
ब्रह्मवस्तु भी इसी उपवन की तरह है। जो उसे एक बार देख लेता है , वही आनन्दमग्न होकर उसमें विलीन हो जाता है !
परन्तु जो विशेष शक्तिमान पुरुष [नेता, 'C-IN-C' ] होते हैं वे ब्रह्मदर्शन के पश्चात् वापस शरीर में लौटकर लोगों को उसकी खबर बताते हैं और दूसरों को साथ लेकर उस ब्रह्मानन्द में निमग्न होते हैं।
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*चपरास (C-IN-C) प्राप्त नेता का सामर्थ्य *
384 कर कर साधन कठोर अति , सिद्ध टारे दू -चार।
721 तरत सकल जग नाव चढ़ , आवत जब अवतार।।
प्रश्न : श्री विष्णु सहस्रनामम में भगवान विष्णु का एक नाम 'नेता' क्यों पड़ा ? Lighthouse (प्रकाश स्तम्भ- जिसमें जहाज वालों कों रास्ता दिखलाने के लिये ऊंचे पर रोशनी होती है) जैसे मार्गदर्शक नेता की उत्पत्ति क्यों होती है ?
लकड़ी का बड़ा भारी कुन्दा पानी पर बहता है तब उसपर चढ़कर कितने ही लोग आगे निकल जाते हैं , उनके वजन से वह डूबता नहीं। परन्तु सड़ियल लकड़ी पर एक कौआ भी बैठे तो वह डूब जाती है। इसी प्रकार , जिस समय अवतार -महापुरुष आते हैं उस समय उनका आश्रय ग्रहण कर कितने लोग तर जाते हैं , परन्तु सिद्धपुरुष काफी श्रम करने के बाद किसी तरह स्वयं तर पाता है।
385 जस इंजन डिब्बा खींचे , भरे लोग हजार।
723 बद्ध जीव तस सहज तरे , आवत जब अवतार।।
रेल का इंजन खुद भी गंतव्य को जाता है , और अपने साथ माल से लदे कितने ही डिब्बों को खींच ले जाता है। उसी प्रकार अवतार पाप के बोझ से लदे संसारास्कत जीवों को ईश्वर के निकट खींच ले जाते हैं।
386 गगन रवि सम अवतारी , तेहि कठिन कछु नहिं।
728 युग युग संचित पाप समुह , क्षण मँह जात नशाहिं।।
अवतार के लिए कुछ भी कठिन नहीं होता। जीवन की जटिल और गूढ़ समस्याओं को इतनी सरलता से हल कर देते हैं कि एक बच्चा भी उसे समझ ले। वे ज्ञानसूर्य हैं। उनके प्रकाश से युगों का संचित अज्ञान-अंधकार दूर हो जाता है।
379 ईश्वर जो अनंत है , आवहिं धर नर देह।
715 पान करावन जगत को , भाव भगति अरु नेह।।
ईश्वर अनन्त-असीम हैं , परन्तु उनकी इच्छा हो तो वे सान्त -ससीम मनुष्य के रूप में अवतीर्ण हो सकते हैं। अवतार के भीतर से ही हम ईश्वर की प्रेम-भक्ति का आस्वादन कर सकते हैं। वे अवतार ग्रहण करते हैं , इसका हमें स्वयं अनुभव होना चाहिए। यह बात उपमा के द्वारा नहीं समझायी जा सकती।
गाय के सींग , पैर या पूँछ को छूने पर गाय को छूना ही हुआ। परन्तु हमारे लिए तो गाय का दूध ही गाय की सार वस्तु है। और यह दूध हमें केवल गाय के थन से ही प्राप्त होता है।
इसी तरह, अवतार मानो गाय का थन हैं - ईश्वरीय-प्रेम- भक्ति ,निःस्वार्थ भक्ति का दर्शन हमें केवल अवतार के भीतर होता है।
*गुरु (नेता) ईश्वर की ही अभिव्यक्ति है *
380 परसत गंग परसन भयो, जद्यपि आदि न अन्त।
716 तस दरसत अवतार को , दरसन भयो अनन्त।।
ईश्वर की सम्पूर्ण धारणा कौन कर सकता है ? और इसकी आवश्यकता भी नहीं है। उनके प्रत्यक्ष दर्शन कर सकें तो वही काफी है। उनके अवतार (नवनीदा) को देखने से उन्हीं को देखना हुआ। यदि कोई गंगाजी में जाकर उसके जल का स्पर्श कर आये तो वह गदगद होकर यही कहता है कि -मैं गंगाजी के दर्शन -स्पर्शन कर आया ! इसके लिए उसे हरिद्वार से गंगासागर तक फैली समूची गंगा का स्पर्श नहीं करना पड़ता।
381 जदपि जग मँह वास करे , कण कण में भगवान।
717 तदपि मानुष हृदय हरि , बहुतहि प्रकाशवान।।
382 जिन्हके हिय भगति उमड़े , पावत प्रेम प्रकाश।
717 तिन्हके हिय नर जानहु , करत नित्य प्रभु वास।।
यदि ईश्वर-तत्व को [निःस्वार्थ -प्रेमभक्ति, परम् सत्य को ] खोजना ही हो , तो मनुष्य में खोजो ! मनुष्य के भीतर ही वे सबसे अधिक प्रकाशित होते हैं। जिस मनुष्य के भीतर देखो कि प्रेम-भक्ति उमड़ रही है - जो ईश्वर के प्रेम में मतवाला हो गया है , उनके लिए पागल हो गया है , उस मनुष्य में --- 'नवनीदा में' निश्चित ही ईश्वर अवतीर्ण हुए हैं !
383 नर लीला जग में करे , नर रूप धर भगवान।
718 राह दिखावन जगत को , करन प्रेम का दान।।
387 पावन हिय भगतन जब , करत प्रभु गुणगान।
730 तिन्ह के हित नर देह धरे , कृपा सिंधु भगवान।।
ईश्वर नित्य हैं ; फिर वे लीला भी करते हैं --ईश्वरलीला , देवलीला , जगत-लीला , नरलीला ! नरलीला में वे अवतार बनकर आते हैं। नरलीला कैसी होती है जानते हो ?
जैसे परनाले के भीतर से होकर बड़ी छत का पानी धड़-धड़ करते हुए नीचे गिरता है। उसी सच्चिदानन्द की शक्ति मानो परनाले के भीतर से आ रही है।
अवतार को सबलोग नहीं पहचान सकते। रामचंद्र को भरद्वाज आदि केवल सात ही ऋषियों ने अवतार के रूप में पहचाना था।
ईश्वर मनुष्य को ज्ञान-भक्ति सिखाने के लिए नररूप (नवनीदा रूप) धारण कर अवतीर्ण होते हैं।
अवतारों (सच्चे मार्गदर्शक नेता) को पहचानना कठिन है
377 अनन्त हरि अवतार बन , लीला करे अपार।
709 सहज नहीं पहचानना , जन कोउ पाहि पार।।
अवतार को पहचान सकना बहुत कठिन है। यह मानो अनन्त का सान्त बनकर लीला करने जैसा है।
378 दीप तले अँधियार पर , करत दूर अंजोर।
713 संत भाव तस पास नहीं , फैलहि दूर चहु ओर।।
है। दीपक के नीचे अँधेरा ही रहता है , उसका प्रकाश दूर में पड़ता है। साधु-महात्माओं को उनके पास के लोग नहीं समझ पाते ; दूर के लोग उनके भाव से मुग्ध होते हैं।
[हिन्दी कहावत -घर का जोगी जोगड़ा आन गाँव का सिद्ध। घर का नेता चाहे कितना ही योग्य क्यों न हो, उसकी प्रतिष्ठा नहीं होती क्योंकि मानवीय स्वभाव है, आसानी से उपलब्ध अपने गाँव के ज्ञानी-ध्यानी का आदर न करके दूसरे गांव नामी ज्ञानियों को श्रद्धास्पद समझना। ]
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महामण्डल के प्राणपुरुष श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय के जन्मदिन पर,
उनके श्रीचरणों में प्रार्थना ------
' पुनर्जन्म में'
(In reincarnation)
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रात्रि - समाप्त हो जाने के बाद भी, मैं सो रहा था,
तभी तो उषा का प्रकाश होने के बाद भी,
मेरे मूँदे नेत्र खुल न सके ;
परमपुरुष के सानिध्य को पाकर भी,
उनके पवित्र अंगों को छू कर भी,
मेरे हृदय में उनका आह्वान , उनके कितने गीत,
कभी बज न सके !
मायावी --संसार के सुख में,
डूबा रहा मैं --खेदपूर्ण चेहरे से ,
उनके उपदेश सारे खो गए ,
तरह- तरह की शब्दों की भीड़ में।
विकट व्यस्तता, असफल जीवन ---
सरल समीकरण !
(लेकिन) समझते समझते ही , रात ढल गई,
महा- सिन्धु के तट पर!
हे परमपुरुष, यह तुच्छ प्राणी आपसे,
चाहता है -- केवल इतनी कृपा !
आपके उदेश रूपी -वारि की
केवल एक बून्द ही , मेरे हृदय में समा जाये !
प्रभु , तुम्हारी महिमा का मुझे पता है,
मैं जानता हूँ, तुम देश-काल से परे--- मुक्त !
पैदा होओगे ,अपने ही महासमुद्र में,
शायद इसी जन्म में , नहीं तो पुनर्जन्म में !
(रचयिता -अरूप माइती )
মহাপ্রাণের শুভ জন্মদিনে,
তাঁর কাছে প্রার্থনা -----
জন্মান্তরে
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ঘুমিয়ে ছিলাম রাতের শেষেও,
ভোরের আলো তাইতো এসেও,
পড়ল না এ চোখে;
মহাপ্রানের সঙ্গ পেয়েও,
পবিত্র তাঁর অঙ্গ ছুঁয়েও,
তাঁর আহ্বান, তাঁর যত গান,
বজল না এ বুকে!
সংসারের-ই অলীক সুখে,
ডুবে আছি কাতর মুখে,
তাঁর কথা সব হারিয়ে গেল,
নানান কথার ভীড়ে।
ব্যস্ত ভীষণ, ব্যর্থ জীবন,
সরল সমীকরণ,
বুঝতে বুঝতে রাত পোহালো,
মহা-সিন্ধুর তীরে!
হে মহাপ্রাণ, তোমার কাছে,
ক্ষুদ্র এ প্রাণ, শুধু কৃপা যাচে!
এক বিন্দু বারি যেন,
আসে এ অন্তরে!
জানি, প্রভু জানি,
তোমার মহিমাখানি,
মুক্ত জন্মিবে ঠিক মহাসমুদ্রে তোমার,
সময়ের পরপারে,
হয়তো এ জন্মে নয়, জন্মান্তরে!
----- অরূপ মাইতি
[ स्वप्न में नवनीदा का नरसिंहदेह धारण और 'सिम्हाचलम' मन्दिर, विशाखापत्तनम का दर्शन।]
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