शनिवार, 22 जुलाई 2023

🔱🙏परिच्छेद~123~* गृहस्थाश्रम तथा संन्यासाश्रम* [ ( 22 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-123] 🔱🙏@@@मनोपदेश ।>> ईश्वरलाभ का विज्ञान है राजयोग : निर्जन में प्रशिक्षण लेने के बाद गृहस्थी में रहो🙏 गृहस्थों के लिए महामण्डल शिविर में नाईट हॉल्ट करना क्यों अनिवार्य है ?

 *परिच्छेद~ १२३*

(१)

श्यामपुकुर वाले उद्यान  में श्री रामकृष्ण के साथ ईशान, 

डॉक्टर सरकार, गिरीश आदि भक्तों की आनन्द वार्ता ~  

* गृहस्थाश्रम के प्रसंग में चर्चा *

आज बृहस्पतिवार है, २२ अक्टूबर १८८५ । आज आश्विन की शुक्ला चतुर्दशी है । सप्तमी, अष्टमी और नवमी ये तीन दिन श्रीजगन्माता की पूजा और उत्सव में कटे हैं । दशमी को विजया थी । उस समय पारम्परिक मिलने-जुलने का जो शुभ संयोग था, वह भी हो चुका । श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ कलकत्ते के श्यामपुकुर नामक स्थान में रहते हैं ।

शरीर में कठिन व्याधि है । गले में कैन्सर हो गया है । जब वे बलराम के घर पर थे तब कविराज गंगाप्रसाद देखने के लिए आये थे । श्रीरामकृष्ण ने उनसे पूछा था - 'यह रोग साध्य है या असाध्य?’ इसका कोई उत्तर कविराज ने नहीं दिया । चुप हो रहे थे । अंग्रेजी चिकित्सा के डाक्टरों ने भी रोग के असाध्य होने का इशारा किया था । इस समय डाक्टर सरकार चिकित्सा कर रहे हैं ।

আশ্বিন শুক্লাচর্তুদশী। সপ্তমী, অষ্টমী ও নবমী তিনদিন মহামায়ার পূজা মহোৎসব হইয়া গিয়াছে। দশমীতে বিজয়া; তদুপলক্ষে পরস্পরের প্রেমালিঙ্গন ব্যাপার সম্পন্ন হইয়াছে। ভগবান শ্রীরামকৃষ্ণ ভক্তসঙ্গে কলিকাতার অন্তর্বর্তী সেই শ্যামপুকুর নামক পল্লীতে বাস করিতেছেন। শরিরে কঠিন ব্যাধি, গলায় ক্যান্সার। বলরামের বাড়িতে যখন ছিলেন কবিরাজ গঙ্গাপ্রসাদ দেখিতে আসিয়াছিলেন। তাঁহাকে ঠাকুর জিজ্ঞাসা করিয়াছিলেন, এ-রোগ সাধ্য না অসাধ্য। কবিরাজ এ প্রশ্নের উত্তর দেন নাই, চুপ করিয়াছিলেন। ইংরেজ ডাক্তারেরাও রোগটি অসাধ্য, এ-কথা ইঙ্গিত করিয়াছিলেন। এক্ষণে ডাক্তার সরকার চিকিৎসা করিতেছেন।

आज बृहस्पतिवार है, २२ अक्टूबर १८८५ । श्यामपुकुर के एक दुमँजले मकान में श्रीरामकृष्ण का पलंग बिछाया गया है, उसी पर श्रीरामकृष्ण बैठे हुए हैं । डाक्टर सरकार, श्रीयुत ईशानचन्द्र मुखोपाध्याय और भक्तगण सामने तथा चारों ओर बैठे हुए हैं । ईशान बड़े दानी हैं, पेन्शन लेकर भी दान किया करते हैं, ऋण करके दान करते हैं और सदा ईश्वर की चिन्ता में रहते हैं ।

আজ বৃহস্পতিবার, ২২শে অক্টোবর, ১৮৮৫ খ্রীষ্টাব্দ (৭ই কার্তিক, ১২৯২, শুক্লা চতুর্দশী)। শ্যামপুকুরস্থিত একটি দ্বিতল গৃহমধ্যে শ্রীরামকৃষ্ণ — দুতলা ঘরের মধ্যে শয্যা রচনা হইয়াছে, তাহাতে উপবিষ্ট। ডাক্তার সরকার শ্রীযুক্ত ঈশানচন্দ্র মুখোপাধ্যায় ও ভক্তেরা সম্মুখে এবং চারিদিকে সমাসীন। ঈশান বড় দানী, পেনশন লইয়াও দান করেন, ঋণ করিয়া দান করেন আর সর্বদাই ঈশ্বরচিন্তায় থাকেন। 

पीड़ा का हाल सुनकर वे देखने के लिए आये हुए हैं । डाक्टर सरकार चिकित्सा के लिए आते हैं तो छः सात घण्टे तक रहते हैं । श्रीरामकृष्ण पर उनकी बड़ी श्रद्धा है और भक्तों को तो वे अपने आत्मीयों की तरह मानते हैं ।

পীড়া শুনিয়া তিনি দেখিতে আসিয়াছেন। ডাক্তার সরকার চিকিৎসা করিতে আসিয়া ছয়-সাত ঘণ্টা করিয়া থাকেন, শ্রীরামকৃষ্ণকে সাতিশয় ভক্তিশ্রদ্ধা করেন ও ভক্তদের সহিত পরম আত্মীয়ের ন্যায় ব্যবহার করেন।

शाम के सात बजे का समय है । बाहर चाँदनी छिटकी हुई है । पूर्णांग निशानाथ चारों ओर सुधावृष्टि कर रहे हैं । भीतर दीपक का प्रकाश है । कमरे में बहुत से आदमी बैठे हुए हैं । बहुतसे लोग श्रीरामकृष्णदेव के दर्शन करने के लिए आये हैं । सब के सब एकदृष्टि से उनकी ओर देख रहे हैं । उनकी बातें सुनने के लिए लोगों की इच्छा प्रबल हो रही है । उनके कार्य देखने के लिए लोग उत्सुक हो रहे हैं ।

রাত্রি প্রায় ৭টা হইয়াছে। বাহিরে জ্যোৎস্না — পূর্ণাবয়ব নিশানাথ যেন চারিদিকে সুধা ঢালিয়াছেন। ভিতরে দীপালোক, ঘরে অনেক লোক। অনেকে মহাপুরুষ দর্শন করিতে আসিয়াছেন। সকলেই একদৃষ্টে তাঁহার দিকে চাহিয়া রহিয়াছেন। শুনিবেন তিনি কি বলেন ও দেখিবেন তিনি কি করেন। ঈশানকে দেখিয়া ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ বলিতেছেন —

October 22, 1885,  It was Thursday evening, a few days after the Durga Puja. Sri Ramakrishna sat on his bed in his room on the second floor, with Dr. Sarkar, Ishan, and other devotees. Although Dr. Sarkar was a very busy physician, he would spend a long time — sometimes six or seven hours — in Sri Ramakrishna's company. He had great love for the Master and looked on the devotees as his own kith and kin. A lamp was burning in the room. Moon-light illumined the outside world.

ईशान को देखकर श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं –

 [ ( 22 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-123]

🔱🙏अनासक्त होकर गृहस्थ जीवन जीने का उपाय🔱🙏 

[নির্লিপ্ত সংসারী — নির্লিপ্ত হবার উপায় ]

“जो संसारी व्यक्ति ईश्वर के पादपद्यों में भक्ति करके संसार का काम करता है, वह धन्य है, वह वीर है । जैसे किसी के सिर पर दो मन का बोझा रखा हुआ हो, और एक बरात जा रही हो । इधर तो सिर पर इतना बड़ा बोझा है, फिर भी वह खड़े होकर बरात को देखता है । इस प्रकार संसार में रहना बिना अधिक शक्ति के नहीं होता ।

Addressing Ishan, a householder devotee, the Master said: "Blessed indeed is the householder who performs his duties in the world, at the same time cherishing love for the Lotus Feet of God. He is indeed a hero. He is like a man who carries a heavy load of two maunds on his head and at the same time watches a bridal procession. One cannot lead such a life without great spiritual power. 

“যে সংসারী ঈশ্বরের পাদপদ্মে ভক্তি রেখে সংসার করে, সে ধন্য, সে বীরপুরুষ! যেমন কারু মাথায় দুমন বোঝা আছে, আর বর যাচ্ছে, মাথায় বোঝা — তবু সে বর দেখছে। খুব শক্তি না থাকলে হয় না।

 जैसे पाँकाल मछली, रहती तो कीच के भीतर है, परन्तु देह में कीच छू नहीं जाता । 'पनडुब्बी' पानी में डुबकियाँ लगाया करती है, परन्तु एक ही बार परों को झाड़ने से फिर पानी नहीं रह जाता।

Again, such a man is like the mudfish, which lives in the mud but is not stained by it. Further, such a householder may be compared to a waterfowl. It is constantly diving under water; yet, by fluttering its wings only once, it shakes off all trace of wet.

 যেমন পাঁকাল মাছ পাঁকে থাকে, কিন্তু গায়ে একটুকুও পাঁক নাই। পানকৌটি জলে সর্বদা ডুব মারে, কিন্তু পাখা একবার ঝাড়া দিলেই আর গায়ে জল থাকে না।

 [ ( 22 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-123]

🔱🙏निर्जनवास का तात्पर्य क्या है, और यह क्यों जरुरी है ?🔱🙏

[ईश्वर को पाने का विज्ञान है राजयोग -इसको समझने के लिए निर्जनवास अनिवार्य है !]

 Spend some time in solitude 

নির্জনে থাকা দরকার

“परन्तु संसार में यदि निर्लिप्त भाव से रहना है तो कुछ साधना चाहिए । कुछ दिन निर्जन में रहना जरूरी है, एक वर्ष के लिए हो या छः महीने के लिए, अथवा तीन महीने के लिए या महीने ही भर के लिए [कमसे कम वर्ष में छः दिवसीय ऐनुअल कैम्प में ही रहिये -या 10 दिन गुजारो गुजरात में फिर देखो~ईश्वर को पाने का विज्ञान राजयोग, समझ में आ जायेगा !!] उसी एकान्त में ईश्वर की चिन्ता करनी चाहिए। और मन ही मन कहना चाहिए - 'इस संसार में मेरा कोई नहीं है, जिन्हें मैं अपना कहता हूँ, वे दो दिन के लिए हैं, भगवान ही मेरे अपने हैं, वे ही मेरे सर्वस्व हैं । हाय ! किस तरह मैं उन्हें पाऊँ ?’

"But a man must practise some spiritual discipline in order to be able to lead a detached life in the world. It is necessary for him to spend some time in solitude — be it a year, six months, three months, or even one month. In that solitude he should fix his mind on God and pray with a longing heart for love of God. [At least stay in the six day annual camp in a year - or spend 10 days in Gujarat then see~ Raja Yoga, the science of attaining God, will be understood!!] He should also say to himself: 'There is nobody in this world who is my own. Those whom I call my own are here only for two days. God alone is my own. He alone is my all in all. Alas, how shall I realize Him?'

“কিন্তু সংসারে নির্লিপ্তভাবে থাকতে গেলে কিছু সাধন করা চাই। দিনকতক নির্জনে থাকা দরকার; তা একবছর হোক, ছয়মাস হোক তিনমাস হোক বা একমাস হোক। সেই নির্জনে ঈশ্বরচিন্তা করতে হয়। সর্বদা তাঁকে ব্যাকুল হয়ে ভক্তির জন্য প্রার্থনা করতে হয়। আর মনে মনে বলতে হয়, ‘আমার এ-সংসারে কেউ নাই, যাদের আপনার বলি, তারা দুদিনের জন্য। ভগবান আমার একমাত্র আপনার লোক, তিনিই আমার সর্বস্ব; হায়! কেমন করে তাঁকে পাব!’

 [ ( 22 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-123]

गृहस्थों के लिए महामण्डल शिविर में नाईट हॉल्ट करना क्यों अनिवार्य है ?

🙏 ईश्वरलाभ का विज्ञान है राजयोग : निर्जन में प्रशिक्षण लेने के बाद गृहस्थी में रहो🙏  

[Raja Yoga is the science of knowing God, 

whose first guru was Sri Ramakrishna in the modern era.

ईश्वर को जानने का विज्ञान है राजयोग, जिसके प्रथम गुरु आधुनिक युग में श्रीरामकृष्ण थे !

संसार-पानी, मन-दूध, निर्जनवास- दहीजमाना,  समाधि- मक्खननिकालना,

 दूध-पानी विवेक या अनासक्तिलाभ]    

भक्तिलाभ (दूध-पानी विवेक या अनासक्तिलाभ) के पश्चात् गृहस्थ जीवन में रहा जा सकता है । जैसे हाथ में तेल लगाकर कटहल काटने से फिर उसका दूध हाथ में नहीं चिपकता । संसार पानी की तरह है और मनुष्य का मन जैसे दूध पानी में अगर दूध रखना चाहते हो तो दूध और पानी एक हो जायेगा; इसीलिए निर्जन स्थान में दही जमाना चाहिए । दही जमाकर मक्खन निकालना चाहिए । मक्खन निकालकर अगर पानी में रखो तो फिर वह पानी में नहीं मिलता, निर्लिप्त होकर तैरता रहता है

"One can live in the world after acquiring love of God. It is like breaking the jack-fruit after rubbing your hands with oil; the sticky juice of the fruit will not smear them. The world is like water and the mind like milk. If you put milk in water it will mix with the water. But first keep the milk in a quiet place and let it turn into curd. Then from the curd extract butter. That butter you may keep in water; it will not mix with the water, but will float on it.

“ভক্তিলাভের পর সংসার করা যায়। যেমন হাতে তেল মেখে কাঁটাল ভাঙলে হাতে আর আঠা লাগে না। সংসার জলের স্বরূপ আর মানুষের মনটি যেন দুধ। জলে যদি দুধ রাখতে যাও, দুধে-জলে এক হয়ে যাবে। তাই নির্জন স্থানে দই পাততে হয়। দই পেতে মাখন তুলতে হয়। মাখন তুলে যদি জলে রাখ, তাহলে জলে মিশবে না; নির্লিপ্ত হয়ে ভাসতে থাকবে।

"ब्रह्मसमाजवालों ने मुझसे कहा था, 'महाराज, हमारा वह मत है जो राजर्षि जनक का था । हम लोग उनकी तरह निर्लिप्त रहकर संसार करेंगे ।’ मैंने कहा, 'निर्लिप्त भाव से संसार करना बड़ा कठिन है । मुँह से कहने से ही राजा + ऋषि  जनक (या कवि+राजा भर्तृहरि) नहीं हो सकते । राजर्षि जनक ने सिर नीचे और पैर ऊपर करके वर्षों तपस्या की थी । तुम्हें सिर नीचे और पैर ऊपर नहीं करना होगा । परन्तु साधना करनी चाहिए, निर्जन में वास करना चाहिए । निर्जन में ज्ञान और भक्ति प्राप्त करके फिर संसार कर सकते हो दही एकान्त में जमाया जाता है । हिलाने-डुलाने से दही नहीं जमता ।’

"Some members of the Brahmo Samaj said to me: 'Sir, our attitude toward the world is that of King Janaka . Like him, we want to enjoy the world in a detached spirit.' I said to them: To live in the world in a detached spirit is very difficult. By merely saying so you cannot be a King +Rishi Janaka.[or Poet + King Bhartrihari]  How much austerity Janaka practised! How long he remained in one posture, with head down and feet up! You don't have to practise these extreme disciplines. But you need sadhana; you should live in solitude. You may lead the life of a householder after having attained divine knowledge and love in solitude. Milk turns into curd only when it is not disturbed. The curd does not set if the milk is often moved from place to place or is too much disturbed.'

“ব্রহ্মজ্ঞানীরা আমায় বলেছিল, মহাশয়! আমাদের জনক রাজার মত। তাঁর মতো নির্লিপ্তভাবে আমরা সংসার করব। আমি বললুম, ‘নির্লিপ্তভাবে সংসার করা বড় কঠিন। মুখে বললেই জনক রাজা হওয়া যায় না। জনক রাজা হেঁটমুণ্ড হয়ে উর্ধ্বপদ করে কত তপস্যা করেছিলেন! তোমাদের হেঁটমুণ্ড বা উর্ধ্বপদ হতে হবে না, কিন্তু সাধন চাই। নির্জনে বাস চাই! নির্জনে জ্ঞানলাভ, ভক্তিলাভ করে তবে গিয়ে সংসার করতে হয়। দই নির্জনে পাততে হয়। ঠেলাঠেলি নাড়ানাড়ি করলে দই বসে না।’

 [ ( 22 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-123]

🔱🙏हीरो का अर्थ है जीवनमुक्त, जो ज्ञानी (ब्रह्मविद) होकर भी कर्मी हो🔱🙏   

“जनक निर्लिप्त थे, इसलिए उनका एक नाम विदेह भी था - अर्थात् देह में बुद्धि नहीं रहती थी, - संसार में रहकर भी जीवन्मुक्त होकर घूमते थे । परन्तु देह-बुद्धि का नाश होना बहुत दूर की बात है । बड़ी साधना चाहिए ।

"Because of his detachment from the world, Janaka was also known as the 'Videha', that is, one free from the body's consciousness. Though living in the world, he moved about as a jivanmukta, a free soul living in a body. But for most people, freedom from body consciousness is very far off. Intense spiritual discipline is necessary.

“জনক নির্লিপ্ত বলে তাঁর একটি নাম বিদেহ; — কিনা, দেহে দেহবুদ্ধি নাই। সংসারে থেকেও জীবন্মুক্ত হয়ে বেড়াতেন। কিন্তু দেহবুদ্ধি যাওয়া অনেক দূরের কথা! খুব সাধন চাই!

“जनक बड़े वीर थे । वे दो तलवारें चलाते थे । एक ज्ञान की दूसरी कर्म की ।

"Janaka was a great hero. He fenced with two swords, the one of knowledge and the other of work.

“জনক ভারী বীরপুরুষ। দুখানা তরবার ঘুরাতেন। একখানা জ্ঞান একখানা কর্ম।”

 [ ( 22 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-123]

🔱🙏गृहस्थ आश्रम का (प्रवृत्ति मार्गी) ज्ञानी और संन्यास आश्रम (निवृत्ति) का ज्ञानी🔱🙏

Marriage renouncer Aatmgyani 

[সংসার আশ্রমের জ্ঞান ও সন্ন্যাস আশ্রমের জ্ঞান ]

“अगर पूछो, 'गृहस्थाश्रम के ज्ञानी और संन्यासाश्रम के ज्ञानी में कोई अन्तर है या नहीं’, तो उसका उत्तर यह है कि दोनों वास्तव में एक ही हैं - यह भी ज्ञानी है और वह भी ज्ञानी है; परंतु इतना ही है कि संसार में गृहस्थ ज्ञानी के लिए एक भय रह जाता है । कामिनी और कांचन के भीतर रहने से ही कुछ न कुछ भय है । तुम चाहे जितने ही बुद्धिमान होओ, पर काजल की कोठरी में रहने से देह में स्याही का थोड़ासा दाग लग ही जायगा ।

"You may ask, 'Is there any difference between the realizations of two jnanis, one a householder and the other a monk?' (विवाह त्यागी आत्मज्ञानी और विवाहित आत्मज्ञानी)  The reply is that the two belong to one class. Both of them are jnanis, they have the same experience. But a householder jnani has reason to fear. He cannot altogether get rid of his fear as long as he is to live in the midst of 'woman and gold'. If you constantly live in a room full of soot, you are sure to soil your body(BH), be it ever so little, no matter how clever you may be.

“যদি বল, সংসার আশ্রমের জ্ঞানী আর সন্ন্যাস আশ্রমের জ্ঞানী, এ-দুয়ের তফাত আছে কিনা? আর উত্তর এই যে দুই-ই এক জিনিস। এটিও জ্ঞানী উটিও জ্ঞানী — এক জিনিস। তবে সংসারে জ্ঞানীরও ভয় আছে। কামিনী-কাঞ্চনের ভিতর থাকতে গেলেই একটু না একটু ভয় আছে। কাজলের ঘরে থাকতে গেলে যত সিয়ানাই হও না কেন কালো দাগ একটু না একটু গায়ে লাগবেই।

“मक्खन निकालकर अगर नयी हण्डी में रखो तो मक्खन के नष्ट होने की सम्भावना नहीं रहती । अगर मट्ठे की हण्डी में रखो तो सन्देह होता है । (सब हँसे)

"After extracting the butter, it you keep it in a new pot, then there is no chance of its getting spoiled. But if you keep the butter in a pot where curd has been kept, well, then it is doubtful whether it will keep its flavour. (Laughter.)

“মাখন তুলে যদি নূতন হাঁড়িতে রাখ, মাখন নষ্ট হবার সম্ভাবনা থাকে না। যদি ঘোলের হাঁড়িতে রাখ, সন্দেহ হয়। (সকলের হাস্য)

“धान के लावे जब भूने जाते हैं तब दो-चार भाड़ के बाहर चिकटकर गिर पड़ते हैं । वे चमेली/ मल्लिका के फूल की तरह शुभ्र होते हैं, देह में कही एक भी दाग नहीं रहता । जो लावे कड़ाही में रहते हैं, वे भी अच्छे होते हैं, परन्तु उन बाहरवालों के समान नहीं होते, देह में कुछ दाग होते हैं ।

"When they parch rice, a few grains jump out of the frying-pan to the ground. These are white, like mallika flowers, without the slightest stain on them. But the grains that remain in the pan are also good, though not as immaculate as the fresh mallika flower. They are a little stained.

“খই যখন ভাজা হয় দু চারটে খই খোলা থেকে টপ্‌ টপ্‌ করে লাফিয়ে পড়ে। সেগুলি যেন মল্লিকা ফুলের মতো, গায়ে একটু দাগ থাকে না। খোলার উপর যে-সব খই থাকে, সেও বেশ খই, তবে অত ফুলের মতো হয় না, একটু গায়ে দাগ থাকে। 

संसार-त्यागी संन्यासी अगर ज्ञानलाभ करता है तो ठीक इसी चमेली के फूल की तरह बेदाग होता है; और ज्ञान के पश्चात् संसाररूपी कड़ाही में रहने पर देह में ऊपर से कुछ लाल दाग लग सकता है । (सब हँसते हैं)

 In the same way, if a monk who has renounced the world attains divine wisdom, he appears as spotless as the white flower; but one who stays in the frying-pan of the world after attaining Knowledge may get a little blemish. (All laugh.)

সংসারত্যাগী সন্ন্যাসী যদি জ্ঞানলাভ করে, তবে ঠিক এই মল্লিকা ফুলের মতো দাগশূন্য হয়। আর জ্ঞানের পর সংসার খোলায় থাকলে একটু গায়ে লালচে দাগ হতে পারে। (সকলের হাস্য)

“जनक राजा की सभा में एक भैरवी आयी हुई थी । स्त्री देखकर जनक राजा ने सिर झुका लिया । यह देखकर भैरवी ने कहा, ‘जनक ! स्त्री को देखकर अब भी तुम डरते हो !’ पूर्ण ज्ञान होने पर पाँच साल के बच्चे का स्वभाव हो जाता है, तब स्त्री और पुरुष में भेद- बुद्धि नहीं रह जाती ।

"Once a bhairavi came to King Janaka's court. At the sight of the woman, the king bent his head and cast his eyes to the ground. At this the bhairavi said, 'O Janaka, even now you are afraid of a woman!' Through Perfect Knowledge a man becomes like a child five years old; he does not know the distinction between a man and a woman.

“জনক রাজার সভায় একটি ভৈরবী এসেছিল। স্ত্রীলোক ধেখে জনক রাজা হেঁটমুখ হয়ে চোখ নিচু করেছিলেন। ভৈরবী তাই দেখে বলেছিলেন, ‘হে জনক, তোমার এখনও স্ত্রীলোক দেখে ভয়!’ পূর্ণজ্ঞান হলে পাঁচ বছরের ছেলের স্বভাব হয় — তখন স্ত্রী-পুরুষ বলে ভেদবুদ্ধি থাকে না।

 [ ( 22 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-123]

🔱🙏ब्रह्मविद के देह पर दाग (मस्सा) का असर उसकी निःस्वार्थपरता पर नहीं पड़ता🔱🙏 

“कुछ भी हो, संसार में (अर्थात गृहस्थ जीवन में) रहनेवाले ज्ञानी की देह पर दाग चाहे लग जाय, परन्तु उससे उसकी कोई हानि नहीं होती । चाँद में कलंक तो है, परन्तु उससे किरणों के निकलने में कोई रुकावट नहीं होती ।

"Although a jnani living in the world may have a little blemish, yet this does not injure him. The moon undoubtedly has dark spots, but these do not obstruct its light.

“যাই হোক যদিও সংসারের জ্ঞানীর গায়ে দাগ থাকতে পারে, সে দাগ কোন ক্ষতি হয় না। চন্দ্রে কলঙ্ক আছে বটে কিন্তু আলোর ব্যাঘাত হয় না।”

  [ ( 22 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-123]

🔱🙏जनक-नारद हीरो थे ज्ञान के बाद कर्म (पार्टनरशिप बिजनेस-CA) लोकसंग्रहार्थ 🔱🙏 

[জ্ঞানের পর কর্ম — লোকসংগ্রহার্থ ]

“कोई कोई लोग ज्ञानलाभ के पश्चात् लोक-शिक्षा के लिए कर्म करते हैं, जैसे जनक और नारद आदि । लोक-शिक्षा के लिए शक्ति के रहने की जरूरत है । ऋषिगण अपने-ही-अपने ज्ञानोपार्जन में व्यस्त रहते थे । नारदादि आचार्य दूसरों के हित के लिए विचरण किया करते थे । वे वीर पुरुष थे ।

"After realizing God, some souls perform work in order to teach men. Janaka, Narada, and others like them, belong to this group. But one must possess power in order to be able to teach others. The sages of old were busy attaining knowledge for themselves. But teachers like Narada went about doing good to others. They were real heroes.

“কেউ কেউ জ্ঞানলাভের পর লোকশিক্ষার জন্য কর্ম করে, যেমন জনক ও নারদাদি। লোকশিক্ষার জন্য শক্তি থাকা চাই। ঋষিরা নিজের নিজের জ্ঞানের জন্য ব্যস্ত ছিলেন। নারদাদি আচার্য লোকের হিতের জন্য বিচরণ করে বেড়াতেন। তাঁরা বীরপুরুষ

  [ ( 22 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-123]

🔱🙏समाधि के बाद (ज्ञानलाभ के बाद) भक्ति की शक्ति से नेतृत्व की उत्पत्ति 🔱🙏

Genesis of leadership after samadhi

সমাধির পর নেতৃত্বের উৎপত্তি

सड़ी हुई लकड़ी जब बह जाती है, तो उस पर कोई चिड़िया के बैठने से ही वह डूब जाती है, परन्तु मोटी लकड़ी का लट्ठा जब बहता है, तब गौ, आदमी, यहाँ तक कि हाथी भी उसके ऊपर चढ़कर पार हो सकता है । “स्टीम बोट खुद भी पार होता है और कितने ही आदमियों को भी पार कर देता है । “नारदादि आचार्य काठ के लट्ठे की तरह हैं, स्टीम बोट की तरह ।

"A worthless stick floating on the water sinks under the weight of a bird; but a heavy and substantial log floating on the water can support a cow, a man, or even an elephant. A steamboat not only crosses the water itself but carries many human beings with it. Teachers like Narada may be compared to the heavy log of wood or the steamboat.

“হাবাতে কাঠ যখন ভেসে যায়, পাখি একটি বসলে ডুবে যায়, কিন্তু বাহাদুরী কাঠ যখন ভেসে যায়, তখন গরু, মানুষ, এমন কি হাতি পর্যন্ত তার উপর যেতে পারে। স্টীমবোট আপনিও পারে যায়, আবার কত মানুষকে পার করে দেয়।“নারদাদি আচার্য বাহাদুরী কাঠের মতো, স্টীমবোট-এর মতো।

“कोई खाकर अँगौछे से मुँह पोंछकर बैठा रहता है कि कहीं किसी को खबर न लग जाय । (सब हंसते है) और कोई कोई अगर एक आम पाते है तो जरा जरासा सब को देते है और आप भी खाते हैं । “नारदादि आचार्य सब के कल्याण के लिए ज्ञानलाभ के बाद भी भक्ति लेकर रहे थे ।”

"One man, after eating a tasty morsel, removes every trace of it by wiping his face carefully with a towel, lest anyone should know. (All laugh.) Another, again, having got a mango, not only enjoys it himself but shares it with others."Even after having attained Perfect Knowledge, teachers like Narada retained love of God in their minds for the welfare of others."

“কেউ খেয়ে গামছা দুএ মুখে মুছে বসে থাকে, পাছে কেউ টের পায়। (সকলের হাস্য) আবার কেউ কেউ একটি আম পেলে কেটে একটু একটু সকলকে দেয়, আর আপনিও খায়। “নারদাদি আচার্য সকলের মঙ্গলের জন্য জ্ঞানলাভের পরও ভক্তি লয়ে ছিলেন।”

(२)

  [ ( 22 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-123]

*भक्तियोग तथा ज्ञानयोग*

🔱🙏ज्ञान होने पर आँसू बह चलते हैं, तब भक्ति की आवश्यकता होती है🔱🙏  

डाक्टर - " ज्ञान होने पर मनुष्य अवाक् हो जाता है, आँखें मुँद जाती है और आँसू बह चलते हैं। तब भक्ति की आवश्यकता होती है ।" 

DOCTOR: "Jnana makes a man speechless. He closes his eyes and sheds tears. Then he needs bhakti."

ডাক্তার — জ্ঞানে মানুষ অবাক্‌ হয়, চক্ষু বুজে যায়, আর চক্ষে জল আসে। তখন ভক্তি দরকার হয়।

श्रीरामकृष्ण - भक्ति स्त्री है । इसीलिए अन्त: पुर तक उसकी पैठ है । ज्ञान बहिर्द्वार तक ही जा सकता है । (सब हँसते हैं)

MASTER: "Bhakti may be likened to a woman who has access to the inner court of a house. Jnana can go only as far as the outer rooms."

শ্রীরামকৃষ্ণ — ভক্তি মেয়েমানুষ, তাই অন্তঃপুর পর্যন্ত যেতে পারে। জ্ঞান বারবাড়ি পর্যন্ত যায়। (সকলের হাস্য)

डाक्टर - परन्तु अन्त:पुर में हरएक स्त्री को घुसने नहीं दिया जाता, वेश्यायाएँ वहाँ नहीं जाने पाती। ज्ञान चाहिए

DOCTOR: "All women are not allowed to enter the inner court, for instance, prostitutes. Hence the need of jnana."

ডাক্তার — কিন্তু অন্তঃপুরে যাকে তাকে ঢুকতে দেওয়া হয় না। বেশ্যারা ঢুকতে পারে না। জ্ঞান চাই।

श्रीरामकृष्ण - यथार्थ मार्ग जो नहीं जानता, परन्तु ईश्वर पर जिसकी भक्ति है - उन्हें जानने को जिसे इच्छा है, वह भक्ति के बल पर ही ईश्वर को प्राप्त कर सकता है । एक आदमी बड़ा भक्त था, वह जगन्नाथजी के दर्शन करने के लिए घर से निकला । पुरी का कोई रास्ता वह जानता नहीं था, - दक्षिण की ओर न जाकर वह पश्चिम की ओर चला गया । रास्ता भूल गया था सही, परन्तु व्याकुल होकर आदमियों से वह पूछा करता था । लोगों ने कह दिया, ‘यह मार्ग नहीं है, उस मार्ग से जाओ ।’ अन्त में वह भक्त पुरी पहुँच ही गया और वहाँ उसने जगन्नाथजी के दर्शन भी किये । देखो, न जानने पर भी कोई न कोई मार्ग बतला ही देता है ।

MASTER: "A man may not know the right path, but if he has bhakti and the desire to know God, then he attains Him through the force of sheer bhakti. Once a sincere devotee set out on a pilgrimage to the temple of Jagannath in Puri. He did not know the way; he went west instead of south. He no doubt strayed from the right path, but he always eagerly asked people the way, and they gave him the right directions, saying, This is not the path; follow that one.' At last the devotee was able to get to Puri and worship the Deity. So you see, even if you are ignorant, someone will tell you the way if you are earnest."

শ্রীরামকৃষ্ণ — ঠিক পথ জানে না, কিন্তু ঈশ্বরে ভক্তি আছে, তাঁকে জানবার ইচ্ছা আছে — এরূপ লোক কেবল ভক্তির জোরে ঈশ্বরলাভ করে। একজন ভারী ভক্ত জগন্নাথদর্শন করতে বেরিয়েছিল। পুরীর কোন্‌পথ সে জানত না, দক্ষিণদিকে না গিয়ে পশ্চিমদিকে গিছিল। পথ ভুলেছিল বটে, কিন্তু ব্যাকুল হয়ে লোকদের জিজ্ঞাসা করত। তারা বলে দিলে, ‘এ পথ নয়, ওই পথে যাও।’ ভক্তটি শেষে পুরীতে গিয়ে জগন্নাথদর্শন করলে। দেখ, না জানলেও কেউ না কেউ বলে দেয়।

डाक्टर - वह भूल तो गया था ।

DOCTOR: "But the devotee in his ignorance did lose his way."

ডাক্তার — সে ভুলে তো গিছিল।

श्रीरामकृष्ण – हाँ, ऐसा हो जाता है जरूर, परन्तु अन्त में वह पाता भी है ।

MASTER: "Yes, such a thing happens, no doubt. But a man reaches the goal in the end."

শ্রীরামকৃষ্ণ — হাঁ, তা হয় বটে, কিন্তু শেষে পায়।

  [ ( 22 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-123]

🔱🙏ब्रह्म के दो रूप हैं - मूर्त और अमूर्त 🔱🙏 

एक ने पूछा - ईश्वर साकार भी हैं या निराकार ?

A DEVOTEE: "Has God a form or is He formless?"

একজন জিজ্ঞাসা করিলেন, ‘ঈশ্বর সাকার না নিরাকার।’

श्रीरामकृष्ण - वे साकार भी हैं और निराकार भी । एक संन्यासी जगन्नाथजी के दर्शन करने गया था । जगन्नाथजी के दर्शन करके उसे सन्देह हुआ कि ईश्वर साकार हैं या निराकार । हाथ में उसके दण्ड था, उसी दण्ड को वह जगन्नाथजी की देह में छुआने लगा, यह देखने के लिए कि दण्ड छू जाता है या नहीं । एक बार दण्ड के एक सिरे से छुआया तो दण्ड नहीं लगा, फिर दूसरे सिरे से छुआया तो वह उनकी देह से लग गया । तब संन्यासी ने समझा कि ईश्वर साकार भी हैं और निराकार भी ।

MASTER: "God has form and, again. He is formless. Once upon a time, a sannyasi entered the temple of Jagannath. As he looked at the holy image he debated within himself whether God had a form or was formless. He passed his staff from left to right to feel whether it touched the image. The staff touched nothing. He understood that there was no image before him; he concluded that God was formless. Next, he passed the staff from right to left. It touched the image. The sannyasi understood that God had form Thus he realized that God has form and, again, is formless.

শ্রীরামকৃষ্ণ — তিনি সাকার আবার নিরাকার। একজন সন্ন্যাসী জগন্নাথদর্শন করতে গিছিল। জগন্নাথদর্শন করে সন্দেহ হল ঈশ্বর সাকার না নিরাকার। হাতে দণ্ড ছিল, সেই দণ্ড দিয়ে দেখতে লাগল, জগন্নাথের গায়ে ঠেকে কিনা। একবার এ-ধার থেকে ও-ধারে দণ্ডটি নিয়ে যাবার সময় দেখলে যে, জগন্নাথের গায়ে ঠেকল না — দেখে যে সেখানে ঠাকুরের মূর্তি নাই! আবার দণ্ড এ-ধার থেকে ও-ধারে লয়ে যাবার সময় বিগ্রহের গায়ে ঠেকল; তখন সন্ন্যাসী বুঝলে যে ঈশ্বর নিরাকার, আবার সাকার।

“परन्तु इसको धारणा करना बड़ा कठिन है । जो निराकार हैं, वे फिर साकार कैसे हो सकते हैं ? यह सन्देह मन में उठता है । और यदि वे साकार हों भी, तो ये अनेक रूप क्यों हैं ?

"But it is extremely difficult to understand this. Naturally, the doubt arises in the mind: if God is formless, how then can He have form? Further, if He has a form, why does He have so many forms?"

“কিন্তু এটি ধারণা করা বড় শক্ত। যিনি নিরকার, তিনি আবার সাকার কিরূপে হবেন? এ-সন্দহ মনে উঠে। আবার যদি সাকার হন, তো নানারূপ কেন?”

  [ ( 22 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-123]

🔱उन्होंने विभिन्न देह बनाई,इसीलिए वे साकार हैं, मन बनाया इसलिए निराकार भी हैं🔱    

डाक्टर - उन्होंने नाना रूपों (M/F) की सृष्टि की है, इसलिए वे साकार हैं । उन्होंने मन की सृष्टि की है, इसलिए वे निराकार हैं । वे सब कुछ हो सकते है ।

DOCTOR: "God has created all these forms in the world; therefore He Himself has a form. Again, He has created the mind; therefore He is formless. It is possible for God to be everything."

ডাক্তার — যিনি আকার করেছেন, তিনি সাকার। তিনি আবার মন করেছেন, তাই তিনি নিরাকার। তিনি সবই হতে পারেন।

श्रीरामकृष्ण - ईश्वर को प्राप्त किये बिना ये सब बातें समझ में नहीं आतीं । साधक को वे अनेक भावों में और अनेक रूपों में दर्शन देते हैं । एक के पास गमला भर रंग था । बहुतेरे उसके पास कपड़े रँगाने के लिए आया करते थे । वह आदमी पूछा करता था, 'तुम किस रंग से रँगाना चाहते हो ?' किसी ने कहा, 'लाल रंग से ।' बस, वह आदमी गमले में कपड़ा छोड़ देता था और निकालकर कहता था, 'यह लो, तुम्हारा कपड़ा लाल रंग से रँग गया । 

कोई दूसरा कहता था, 'मेरा कपड़ा पीले रंग से रँग दो । रंगरेज उसी समय उसका कपड़ा भी उसी गमले में डुबाकर कहता था, 'यह लो, तुम्हारा पीले रंग से रँग गया ।' अगर कोई आसमानी रंग से रँगाना चाहता था, तो वह रंगरेज फिर उसी गमले में डुबाकर कहता, 'यह लो, तुम्हारा आसमानी रंग से रँग गया ।'इसी तरह, जो जिस रँग से कपड़ा रँगाना चाहता था, उसका कपड़ा उसी रंग से और उसी गमले में डालकर वह रँग देता था । 

एक आदमी यह आश्चर्यजनक कार्य देख रहा था । रंगरेज ने उससे पूछा, ‘क्यों जी, तुम्हारा कपड़ा किस रंग से रँगना होगा ?’ तब उस देखनेवाले ने कहा, 'भाई, तुमने जो रंग इस गमले में डाल रखा है, 'वही' वाला रंग मुझे दो ।' (सब हँसते हैं)  

'MASTER: 'These things do not become clear until one has realized God. He assumes different forms and reveals Himself in different ways for the sake of His devotees. A man kept a solution of dye in a tub. Many people came to him to have their clothes dyed. He would ask a customer, 'What colour should you like to have your cloth dyed?' If the customer wanted red, then the man would dip the cloth in the tub and say, 'Here is your cloth dyed red.' If another customer wanted his cloth dyed yellow, the man would dip his cloth in the same tub and say, 'Here is your cloth dyed yellow.' If a customer wanted his cloth dyed blue, the man would dip it in the same tub and say, 'Here is your cloth dyed blue.' Thus he would dye the clothes of his customers different colours, dipping them all in the same solution. One of the customers watched all this with amazement. The man asked him, 'Well? What colour do you want for your cloth?' The customer said, 'Brother, dye my cloth the colour of the dye in your tub.' (Laughter.)

শ্রীরামকৃষ্ণ — ঈশ্বরকে লাভ না করতে পারলে, এ-সব বুঝা যায় না। সাধকের জন্য তিনি নানাভাবে নানারূপে দেখা দেন। একজনের এক গামলা রঙ ছিল। অনেকে তার কাছে কাপড় রঙ করাতে আসত। সে লোকটি জিজ্ঞাসা করত, তুমি কি রঙে ছোপাতে চাও। একজন হয়তো বললে, ‘আমি লাল রঙে ছোপাতে চাই।’ অমনি সেই লোকটি গামলার রঙে সেও কাপড়খানি ছুপিয়ে বলত, ‘এই লও, তোমার লাল রঙে ছোপানো কাপড়।’ আর-একজন হয়তো বললে, ‘আমার হলদে রঙে ছোপানো চাই।’ অমনি সেই লোকটি সেই গামলায় কাপড়খানি ডুবিয়ে বলত, ‘এই লও তোমার হলদে রঙ।’ নীল রঙে ছোপাতে চাইলে আবার সেই একই গামলায় ডুবিয়ে সেই কথা, ‘এই লও তোমার নীল রঙে ছোপানো কাপড়।’ এইরকমে যে যে রঙে ছোপাতে চাইত, তার কাপড় সেই রঙে সেই একই গামলা হতে ছোপানো হত। একজন লোক এই আশ্চর্য ব্যাপার দেখছিল। যার গামলা, সে জিজ্ঞাসা করলে, ‘কেমন হে! তোমার কি রঙে ছোপাতে হবে?’ তখন সে বললে, ‘ভাই! তুমি যে রঙে রঙেছ, আমায় সেই রঙ দাও!’ (সকলের হাস্য)

[इंद्रधनुष के सात रंगों को याद रखने के लिए क्रमानुसार नाम है : बैनी आह पिनाला : ~ 1.बैंगनी 2.नीला 3.आसमानी 4.हरा 5.पीला 6.नारंगी 7.लाल।  
VIBGYOR: ~ V= Violet, I= Indigo, B= Blue, G= Green, Y= Yellow, O= Orange, R= Red |
एक कहावत है कि दुनिया में जितने भी रंग हैं, वे सारे किसी न किसी रूप में इंसान के शरीर में मौजूद हैं। रंग प्रकृति से साक्षात्कार कराते हैं। इन्हें जीवन से अलग नहीं किया जा सकता। अध्यात्म में माना जाता है कि हर रंग ऊर्जावान है। इंद्रधनुष के सातों रंग शरीर के भीतर मौजूद सात चक्रों से जुड़े हैं। रंगों का संतुलन हमारे स्वास्थ्य और सोच को सही दिशा देता है। इनका सही अनुपात जीवन के मधुर संगीत के लिए जरूरी है। रंग हमें जीवन-दर्शन समझाते हैं और बताते हैं कि जीवन इंद्रधनुषी है। हर रंग में रंगना ही तो जिंदगी है।
1.बैंगनी >Violet रंग - सातवां चक्र सहस्नार आध्यात्मिकता, ध्यान, विवेक, आत्मत्याग और मनुष्यता को दर्शाता है। ये गुण बैंगनी रंग के संतुलन से आते हैं। 
2.नीला >Indigo रंग - छठा चक्र आज्ञाचक्र  अन्तर्ज्ञान  के अलावा निडरता और वफादारी को दर्शाता है, इस चक्र को नीला रंग संतुलित करता है। मनोविज्ञान के अनुसार नीला रंग बल, पौरुष व धीरता का प्रतीक है। यह दृढ़ता, साहस, शौर्य के साथ ही गंभीरता को भी दर्शाता है।
3.आसमानी >Blue रंग- पांचवां चक्र विशुद्ध संवाद की शक्ति, समझदारी, न्याय के अलावा धैर्य, सम्मान, इच्छाशक्ति और नम्रता को दर्शाता है। जो आसमानी रंग की कमी या अधिकता पर निर्भर है। 
4.हरा > Green रंग चौथा और अत्यंत महत्वपूर्ण चक्र अनाहत शांति, विश्वास, दया, अकेलेपन और ईर्ष्या को दर्शाता है। हरा रंग इन मनोभावों में संतुलन स्थापित करता है। यह रंग स्फूर्ति व समृद्धि का प्रतीक है। यह प्रकृति और अध्यात्म का रंग है। 
5.पीला >Yellow रंग - तीसरे महत्वपूर्ण चक्र मनिपुर पर आधारित है। यह इंसान की रचनात्मक क्षमता, ज्ञान, बुद्धिमता, विद्या, आत्मविश्वास, डर, निराशा जैसे गुण-दोषों को नियंत्रित करता है।
6.नारंगी> Orange  रंग दूसरा चक्र स्वाधिष्ठान खुशी, आशीर्वाद, सफलता और शालीनता को दर्शाता है। ये समस्त गुण नारंगी रंग से संतुलित होते हैं।

 7.लाल>Red रंग - पहला चक्र मूलाधार लाल रंग को दर्शाता है। यह काम ऊर्जा सहित सफलता, उत्साह, शक्ति, सौभाग्य एवं ताकत को दर्शाता है। ] 

  [ ( 22 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-123]

🔱🙏उस बहुरूपिये (गिरगिट-chameleon) के अनेक रंग हैं🔱🙏  

“एक आदमी जंगल गया था । उसने देखा, पेड़ पर एक बहुत सुन्दर जीव बैठा है । उसने एक आदमी से आकर कहा, 'भाई, अमुक पेड़ पर मैंने एक लाल रंग का जीव देखा है ।' उस आदमी ने कहा, 'मैंने भी देखा है । पर वह लाल क्यों होने लगा ? वह तो हरा है ।” तीसरे ने कहा, ‘नहीं जी, वह हरा नहीं, पीला है ।’

"Once a man went into a wood and saw a beautiful creature on a tree. Later he told a friend about it and said, 'Brother, on a certain tree in the wood I saw a red-coloured creature.' The friend answered: 'I have seen it too. Why do you call it red? It is green.' A third man said: 'Oh, no, no! Why do you call it green? It is yellow.' 

“একজন বাহ্যে গিছিল — দেখলে, গাছের উপর একটি সুন্দর জানোয়ার রয়েছে। সে ক্রমে আর একজনকে বললে, ‘ভাই! অমুক গাছে আমি একটি লাল রঙের জানোয়ার দেখে এলুম।’ সে লোকটি বললে, ‘আমিও দেখেছি, তা সে লাল রঙ হতে যাবে কেন? সে যে সবুজ রঙ।’ 

अन्त में लड़ाई ठन गयी । तब उन लोगों ने पेड़ के नीचे जाकर देखा, वहाँ एक आदमी बैठा हुआ था । पूछने पर उसने कहा, 'मैं इसी पेड़ के नीचे रहता हूँ । उस जीव को मैं खूब पहचानता हूँ । तुम लोगों ने जो कुछ कहा सब ठीक है । वह कभी तो लाल होता है, कभी आसमानी, और भी न जाने क्या क्या होता है । फिर कभी देखता हूँ, उसमें कोई रंग नहीं ।’

Then other persons began to describe the animal variously as violet, blue, or black. Soon they were quarrelling about the colour. At last, they went to the tree and found a man sitting under it. In answer to their questions, he said: 'I live under this tree and know the creature very well. What each of you has said about it is true. Sometimes it is red, sometimes green, sometimes yellow, sometimes blue, and so forth and so on. Again, sometimes I see that it has no colour whatsoever.'

আর একজন বললে, না, না; সে সবুজ হতে যাবে কেন, কালো ইত্যাদি। শেষে ঝগড়া। তখন তারা গাছতলায় গিয়ে দেখে একজন লোক বসে। জিজ্ঞাসা করায়, সে বললে, ‘আমি এই গাছতলায় থাকি, আমি সে জানোয়ারটিকে বেশ জানি। তোমারা যা যা বলছো সব সত্য, সে কখনও লাল, কখনও সবুজ, কখনও হলদে, কখনও নীল আরও সব কত কি হয়। আবার কখনও দেখি কোন রঙই নাই!’

“जो आदमी सदा ही ईश्वर-चिन्तन करता है, वही समझ सकता है कि उनका स्वरूप क्या है । वही मनुष्य जानता है कि ईश्वर अनेक रूपों से दर्शन देते हैं । वे सगुण भी हैं और निर्गुण भी । जो आदमी पेड़ के नीचे रहता है, वही जानता है कि उस बहुरूपिये के अनेक रंग हैं और कभी कोई रंग नहीं रहता । दूसरे आदमी तर्क-वितर्क करके केवल कष्ट ही उठाते हैं ।

"Only he who constantly thinks of God can know His real nature. He alone knows that God reveals Himself in different forms and different ways, that He has attributes and, again, has none. Only the man who lives under the tree knows that the chameleon can assume various colours and that sometimes it remains colourless. Others, not knowing the whole truth, quarrel among themselves and suffer.

“যে ব্যক্তি সদাসর্বদা ঈশ্বরচিন্তা করে, সেই জানতে পারে, তাঁর স্বরূপ কি। সে ব্যক্তিই জানে যে ঈশ্বর নানারূপে দেখা দেন। নানাভাবে দেখা দেন। তিনি সগুণ আবার নির্গুণ। গাছতলায় যে থাকে সেই জানে যে, বহুরূপীর নানারঙ, আবার কখন কখন কোন রঙই থাকে না। অন্য লোকে কেবল তর্ক ঝগড়া করে কষ্ট পায়

“वे साकार हैं और निराकार भी । यह किस प्रकार है, जानते हो ? जैसे सच्चिदानन्द एक समुद्र हों, जिसका कहीं ओर छोर नहीं । भक्ति की हिम-शक्ति से उस समुद्र का पानी जगह जगह जमकर बर्फ बन गया हो, - मानो पानी बर्फ के आकार में बँधा हुआ हो; अर्थात् भक्त के पास वे कभी कभी साकार रूप में दर्शन देते हैंज्ञान-सूर्य के उगने पर वह बर्फ गलकर फिर (निराकार सच्चिदानन्द) पानी हो जाता है !”

"Yes, God has form and, again. He has none. Do you know how it is? Brahman, Existence-Knowledge-Bliss Absolute, is like a shoreless ocean. In the ocean, visible blocks of ice are formed here and there by intense cold. Similarly, under the cooling influence, so to speak, of the bhakti of Its worshippers, the Infinite transforms Itself into the finite and appears before the worshipper as God with form. That is to say, God reveals Himself to His bhaktas as an embodied Person. Again, as, on the rising of the sun, the ice in the ocean melts away, so, on the awakening of jnana, the embodied God melts back into the infinite and formless Brahman."

“তিনি সাকার, তিনি নিরাকার। কিরকম জানো? যেন সচ্চিদানন্দ-সমুদ্র। কূল কিনারা নাই। ভক্তিহিমে সেই সমুদ্রের স্থানে স্থানে জল বরফ হয়ে যায়, যেন জল বরফ আকারে জমাট বাঁধে; অর্থাৎ ভক্তের কাছে তিনি সাক্ষাৎ হয়ে কখন কখন সাকাররূপ হয়ে দেখা দেন। আবার জ্ঞানসূর্য উঠলে সে বরফ গলে যায়।”

डाक्टर - सूर्य के उगने पर बर्फ गलकर पानी हो जाता है; और आप जानते हैं - बाद में सूर्य की उष्णता से पानी निराकार बाष्प बन जाता है ?

DOCTOR: "Yes. When the sun is up, the ice melts; and what is more, the heat of the sun turns the water into invisible vapour."

ডাক্তার — সূর্য উঠলে বরফ গলে জল হয়; আবার জানেন, জল আবার নিরাকার বাষ্প হয়?

श्रीरामकृष्ण - अर्थात् 'ब्रह्म सत्य है और संसार मिथ्या' इस विचार के बाद समाधि के होने पर रूप आदि कुछ नहीं रह जाते । तब फिर ईश्वर के सम्बन्ध में किसी को यह नहीं मालूम होता कि वे व्यक्ति हैं अथवा अन्य कुछ । वे क्या हैं, यह मुख से नहीं कहा जा सकता ।

MASTER: "Yes, that is true. As a result of the discrimination that Brahman alone is real and the world illusory, the aspirant goes into samadhi. Then, for him, the forms or attributes of God disappear altogether. Then he does not feel God to be a Person. Then he cannot describe in words what God is. 

শ্রীরামকৃষ্ণ — অর্থাৎ ‘ব্রহ্ম সত্য, জগৎ মিথ্যা’ এই বিচারের পর সমাধি হলে রূপ-টুপ উড়ে যায়। তখন আর ঈশ্বরকে ব্যক্তি (Person) বলে বোধ হয় না। কি তিনি মুখে বলা যায় না। 

कहे भी कौन ? जो कहेंगे, वे ही नहीं रह गये ! वे अपने 'मैं' को फिर खोजकर भी नहीं पाते ! उनके लिए ब्रह्म निर्गुण है । तब केवल बोध रूप में ब्रह्म का बोध होता है । मन और बुद्धि के द्वारा कोई उसे पकड़ नहीं सकता ।

And who will describe it? He who is to describe does not exist at all; he no longer finds his 'I'. To such a person Brahman is attributeless. In that state God is experienced only as Consciousness, by man's inmost consciousness. He cannot be comprehended by the mind and intelligence.

কে বলবে? যিনি বলবেন তিনিই নাই। তিনি তাঁর ‘আমি’ আর খুঁজে পান না। তখন ব্রহ্ম নির্গুণ (Absolute)। তখন তিনি কেবল বোধে বোধ হন। মন-বুদ্ধি দ্বারা তাঁকে ধরা যায় না। (Unknown and Unknowable)

“इसीलिए कहते हैं, भक्ति चन्द्र है और ज्ञान सूर्य । मैंने सुना है, बिलकुल उत्तर में और दक्षिण में समुद्र हैं । वहाँ इतनी ठण्डक है कि पानी पर बर्फ की चट्टानें बन जाती हैं । जहाज नहीं चलते । वहाँ जाकर अटक जाते हैं ।”

"Therefore people compare bhakti, love of God, to the cooling light of the moon, and jnana, knowledge, to the burning rays of the sun. I have heard that there are oceans in the extreme north and extreme south where the air is so cold that it freezes the water into huge blocks of ice here and there. Ships cannot move there; they are stopped by the ice."

.“তাই বলে, ভক্তি — চন্দ্র; জ্ঞান — সূর্য। শুনেছি, খুব উত্তরে আর দক্ষিণে সমুদ্র আছে। এত ঠাণ্ডা যে, জল জমে মাঝে মাঝে বরফের চাঁই হয়। জাহাজ চলে না। সেখানে গিয়ে আটকে যায়।”

डाक्टर - भक्ति के मार्ग में आदमी अटक जाते हैं ।

DOCTOR: "Then in the path of bhakti the aspirant meets with obstacles."

श्रीरामकृष्ण - हाँ, ऐसा होता तो है, परन्तु इससे हानि नहीं होती । उस सच्चिदानन्द-सागर का पानी ही बर्फ के आकार में जमा हुआ है । यदि और भी विचार करना चाहो, यदि 'ब्रह्म सत्य है और संसार मिथ्या' यह विचार करना चाहो तो इसमें भी कोई हानि नहीं है । ज्ञानसूर्य से वह बर्फ गल जायेगा, और वह गलकर भी उसी सच्चिदानन्द-सागर में रहेगा

MASTER : "Yes, that is true. But it does not cause the devotee any harm. After all, it is the water of the Ocean of Brahman, Existence-Knowledge-Bliss Absolute, that is frozen into ice. It will not injure you if you continue to reason, saying, for instance, that Brahman alone is real and the world illusory. This reasoning will awaken in you jnana, which, like the sun, will melt the ice of divine forms and hack into the infinite Ocean of Brahman, Existence-Knowledge-Bliss Absolute.

শ্রীরামকৃষ্ণ — হাঁ, তা যায় বটে, কিন্তু তাতে হানি হয় না, সেই সচ্চিদানন্দ-সাগরের জলই জমাট বেঁধে বরফ হয়েছে। যদি আরও বিচার করতে চাও, যদি ‘ব্রহ্ম সত্য জগৎ মিথ্যা’ এই বিচার কর, তাতেও ক্ষতি নাই। জ্ঞানসূর্যেই বরফ গলে যাবে; তবে সেই সচ্চিদানন্দ-সাগরই রইল।

  [ ( 22 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-123]

🔱🙏कच्चा 'मैं' हम्बा -हम्बा और पका हुआ मैं',भक्तों का मैं  कहेगा नाहं नाहं नाहं 🔱🙏

[কাঁচা আমি ও পাকা আমি —ভক্তের আমি — বালকের আমি ]

"ज्ञान- विचार के बाद समाधि (योग) के होने पर 'मैं' 'मेरा' यह कुछ नहीं रह जाता । परन्तु समाधि (योग) का होना बहुत मुश्किल है । 'मैं' किसी तरह जाना नहीं चाहता । और जाना नहीं चाहता, इसीलिए फिर-फिरकर इस संसार में उसे आना पड़ता है

"In the samadhi that comes at the end of reasoning and discrimination, no such thing as 'I' exists. But it is extremely difficult to attain it; 'I-consciousness' lingers so persistently. That is why a man is born again and again in this world.

“জ্ঞানবিচারের শেষে সমাধি হলে, আমি-টামি কিছু থাকে না। কিন্তু সমাধি হওয়া বড় কঠিন। ‘আমি’ কোন মতে যেতে চায় না। আর যেতে চায় না বলে, ফিরে এই সংসারে আসতে হয়।

"गौ 'हम्बा' (हम-हम) करती है, इसलिए उसे इतना दुःख मिलता है । बैल को दिन भर हल जोतना पड़ता है - गरमी हो या वर्षा । और फिर उसे कसाई काटते हैं । इतने पर भी बचाव नहीं होता, चमार चमड़े से जूते बनाते हैं । अन्त में आँत की ताँत बनती है । धुनिया के हाथ में जब वह ‘तूँ’ ‘तूँ’ करती है, तब कहीं उसका निस्तार होता है ।

"The cow suffers so much because she says, 'Hamba! Hamba!', that is, 'I! I!' She is yoked to the plough all day long, rain or shine. Or she is slaughtered by the butcher. But even that doesn't put an end to her misery. The cobbler tans her hide to make shoes from it. At last the carder makes a string for his bow from her entrails and uses the string in carding; then it says, 'Tuhu! Tuhu!', that is, 'Thou! Thou!' Only then does the cow's suffering come to an end.

“গরু হাম্বা হাম্বা (আমি, আমি) করে তাই এত দুঃখ! সমস্ত দিন লাঙল দিতে হয় — গ্রীষ্ম নাই, বর্ষা নাই। কিম্বা তাকে কসাইয়ে কাটে। তাতেও নিস্তার নাই। চামারে চামড়া করে, জুতা তৈয়ারি করে। অবশেষে নাড়ীভুঁড়ি থেকে তাঁত হয়। ধুনুরীর হাতে পড়ে যখন তুঁহু তুঁহু (তুমি তুমি) করে, তখন নিস্তার হয়।

“जब जीव कहता है, "नाहं नाहं नाहं, हे ईश्वर, मैं कुछ भी नहीं हूँ, तुम्हीं कर्ता हो; मैं दास हूँ, तुम प्रभु हो', तब उसका निस्तार होता है, तभी उसकी मुक्ति होती है ।”

"Likewise, only when a man says: 'Not I! Not I! I am nobody. O Lord, Thou art the Doer and I am Thy servant; Thou art the Master', is he freed from all sufferings; only then is he liberated."

“যখন জীব বলে, ‘নাহং’ ‘নাহং’ ‘নাহং’ আমি কেহ নি, হে ঈশ্বর! তুমি কর্তা; আমি দাস তুমি প্রভু — তখন নিস্তার; তখনই মুক্তি।”

डाक्टर - परन्तु धुनिये के हाथ में पड़े तब तो ! (सब हँसते हैं)

DOCTOR: "But one must fall into the hands of the carder." (All laugh.)

ডাক্তার — কিন্তু ধুনুরীর হাতে পড়া চাই। (সকলের হাস্য)

श्रीरामकृष्ण - जब 'मैं' जाने का है ही नहीं, तो पड़ा रहे दास 'मैं' बना हुआ ! (सब हँसते हैं)

MASTER: "If this ego cannot be got rid of, then let the rascal remain as the servant of God. (All laugh.)

শ্রীরামকৃষ্ণ — যদি একান্ত ‘আমি’ না যাস, থাক শালা ‘দাস আমি’ হয়ে। (সকলের হাস্য)

  [ ( 22 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-123]

🔱समाधि के बाद जो विद्या का मैं या भक्त का मैं रहता है वह 'ripe ego'- पक्का मैं है🔱 

“समाधि के बाद भी किसी किसी का 'मैं' रह जाता है - 'दास मैं', 'भक्त का मैं’ । शंकराचार्य ने लोकशिक्षा के लिए ‘विद्या का मैं’ रख छोड़ा था । 'दास मैं, विद्या का मैं, भक्त का मैं' यह पक्का 'मैं' है ।

"A man may keep this ego even after attaining samadhi. Such a man feels either that he is a servant of God or that he is a lover of God. Sankaracharya retained the 'ego of Knowledge'1 to teach men spiritual life. The 'servant ego', the 'Knowledge ego', or the 'devotee ego' may be called the 'ripe ego'. 

“সমাধির পর কাহারও ‘আমি’ থাকে — ‘দাস আমি’, ‘ভক্তের আমি’। শঙ্করাচার্য ‘বিদ্যার আমি’ লোকশিক্ষার জন্য রেখে দিয়েছিলেন। ‘দাস আমি’, ‘বিদ্যার আমি’, ‘ভক্তের আমি’ — এরই নাম ‘পাকা আমি’।

  [ ( 22 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-123]

🔱कच्चा 'मैं' चोर-पकिटमार को पीट-पाटकर पुलिस को देता है🔱  

"कच्चा ‘मैं’ क्या है, जानते हो ? मैं कर्ता हूँ, मैं इतने बड़े आदमी का लड़का हूँ, विद्वान् हूँ, धनवान हूँ, मुझे ऐसी बात कही जाय ! - ये सब कच्चे 'मैं' के भाव है । अगर कोई घर में चोरी करे और उसे अगर कोई पकड़ ले, तो पहले सब चीजें उससे छुड़ा लेता है, फिर मार-पीटकर उसे सीधा कर देता है, फिर पुलिस को सौंप देता है कहता है, ‘हँ, नहीं जानता किसके घर में चोरी की

!’It is different from the 'unripe ego', which makes one feel: 'I am the doer. I am the son of a wealthy man. I am learned. I am rich. How dare anyone slight me?' A man with an 'unripe ego' cherishes such ideas. Suppose a thief has entered such a man's house and stolen some of his belongings. If the thief is caught, all the articles will be snatched away from him. Then he will be beaten. At last he will be handed over to the police. The owner of the stolen goods will say: 'What! This rogue doesn't know whose house he has entered!'

 কাঁচা আমি কি জান? আমি কর্তা, আমি এত বড়লোকের ছেলে, বিদ্বান, আমি ধনবান আমাকে এমন কথা বলে! — এই সব ভাব। যদি কেউ বাড়িতে চুরি করে, তাকে যদি ধরতে পারে, প্রথমে সব জিনিসপত্র কেড়ে লয়; তারপর উত্তম-মধ্যম মারে, তারর পুলিসে দেয়! বলে, ‘কি! জানে না, কার চুরি করেছে!’

  [ ( 22 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-123]

🔱ईश्वरलाभ के बाद बालक का मैं कभी तमोगुण के वश में नहीं आता।🔱  

“ईश्वर-प्राप्ति होने पर पाँच वर्ष के बच्चे जैसा स्वभाव हो जाता है । 'बालक का मैं' और 'पक्का मैं'। बालक किसी गुण के वश नहीं है । वह तीनों गुणों से परे है । सत्त्व, रज और तम में से किसी गुण के वश नहीं । देखो, बच्चा तमोगुण के वश में नहीं है ।

"After realizing God, a man becomes like a child five years old. The ego of such a man may be called the 'ego of a child', the 'ripe ego'. The child is not under the control of any of the gunas. He is beyond the three gunas. He is not under the control of any of the gunas — sattva, rajas, or tamas. Just watch a child and you will find that he is not under the influence of tamas.

“ঈশ্বরলাভ হলে পাঁচ বছরের বালকের স্বভাব হয়। ‘বালকের আমি’ আর ‘পাকা আমি’। বালক কোন গুণের বশ নয়। ত্রিগুণাতীত। সত্ত্ব রজঃ তমঃ কোন গুণের বশ নয়। দেখ, ছেলে তমোগুণের বশ নয়। 

अभी तो उसने लड़ाई की और देखते ही देखते फिर गले से लिपट गया । कितना प्रेम और कितना खेल ! वह रजोगुण के भी वश में नहीं है । अभी उसने घरौंदा बनाया, कितनी मेहनत की, पर कुछ देर में सब पड़ा रह गया ! वह माता के पास दौड़ चला । कभी देखो तो एक सुन्दर धोती पहने हुए घूम रहा है, पर कुछ देर बाद देखो तो वह कपड़ा खुलकर गिर गया है । कभी देखो, वह कपड़े की बात ही बिलकुल भूल गया है या उसे बगल में ही दबाये घूम रहा है । (हास्य)

 One moment he quarrels with his chum or even fights with him, and the next moment he hugs him, shows him much affection and plays with him again. He is not even under the control of Rajas. Now he builds his play house and makes all kinds of plans to make it beautiful, and the next moment he leaves everything behind and runs to his mother. Again, you see him wearing a beautiful piece of cloth worth five rupees. After a few moments the cloth lies on the ground; he forgets all about it. Or he may carry it under his arm. 

এইমাত্র ঝগড়া মারামারি করলে, আবার তৎক্ষণাৎ তারই গলা ধরে কত ভাব, কত খেলা! রজোগুণেরও বশ নয়। এই খেলাঘর পাতলে কত বন্দোবস্ত, কিছুক্ষণ পরেই সব পড়ে রইল; মার কাছে ছুটেছে। হয়তো এখখানি সুন্দর কাপড় পরে বেড়াচ্ছে। খানিকক্ষণ পরে কাপড় খুলে পড়ে গেছে। হয় কাপড়ের কথা একেবারে ভুলে গেল — নয় বগলদাবা করে বেড়াচ্ছে! (হাস্য)

“अगर बच्चे से कहो, 'यह बड़ी अच्छी धोती है, यह किसकी धोती है ?' तो वह कहेगा, 'यह मेरी धोती है - मेरे बाबूजी ले आये हैं ।' अगर कहो, 'वाह, बच्चू, तू बड़ा अच्छा है, बच्चू, मुझे यह धोती दे दे' तो वह कहेगा - 'नहीं, मेरी धोती है, मेरे बाबूजी की दी हुई है । उँहूँ, मैं न दूँगा ।' फिर उसे एक खिलौने पर या एक बाजे पर फुसला लो - वह पाँच रुपये की धोती तुम्हें देकर चला जायगा ।

If you say to the child: 'That's a beautiful piece of cloth. Whose is it?', he answers: 'Why, it is mine. My daddy gave it to me.' You may say, 'My darling, won't you give it to me?' and he will reply: 'Oh no, it is mine. My daddy gave it to me. I won't give it to you.' Some minutes later you may coax him with a toy or a music box worth a penny, and he will give you the cloth. 

“যদি ছেলেটিকে বল, ‘বেশ কাপড়খানি, কার কাপড় রে?’ সে বলে, ‘আমার কাপড়, আমার বাবা দিয়েছে।’ যদি বল, ‘লক্ষ্মী ছেলে, আমায় কাপড়খানি দাও না।’ সে বলে, ‘না, আমার কাপড়, আমার বাবা দিয়েছে, না আমি দেবো না।’ তারপর ভুলিয়ে একটি পুতুল কি আর একটি বাঁশি যদি দাও তাহলে পাঁচটাকা দামের কাপড়খানা তোমায় দিয়ে চলে যাবে। 

पाँच वर्ष का बच्चा सत्वगुण के भी वश में नहीं है, पड़ोस के बच्चों से कितना प्यार है, बिना देखे रहा नहीं जाता, परन्तु माँ- बाप के साथ अगर किसी दूसरी जगह चला गया तो वहाँ नये साथी मिल जाते हैं, उन्हीं पर सब प्यार हो जाता है, पुराने साथियों को एक प्रकार से एकदम भूल जाता है ।

Again, a child five years old is not attached even to the sattva. You may find him today very fond of his playmates in the neighborhood; he doesn't feel happy for a moment without seeing them; but tomorrow, when he goes to another place with his parents, he finds new playmates; all his love is now directed to his new friends, and he almost forgets about his old ones. 

আবার পাঁচ বছরের ছেলের সত্ত্বগুণেরও আঁট নাই। এই পাড়ার খেলুড়েদের সঙ্গে কত ভালবাসা, একদণ্ড না দেখলে থাকতে পারে না। কিন্তু বাপ-মার সঙ্গে যখন অন্য জায়গায় চলে গেল, তখন নূতন খেলুড়ে হল। তাদের উপর তখন সব ভালবাসা পড়ল; পুরানো খেলুড়েদের একেবারে ভুলে গেল। 

बच्चे को फिर जाति आदि का अभिमान भी नहीं होता । माता ने कह दिया है कि वह तेरा दादा है, बस उसे पूरा विश्वास हो गया कि यह मेरा दादा है । चाहे एक ब्राह्मण का लड़का हो और दूसरा कुम्हार का, दोनों एक ही पत्तल पर खा सकते हैं । बच्चे में शुचिता और अशुचिता का भी विचार नहीं है, न लोक-लज्जा ही है ।

Further, a child has no pride in caste or family. If his mother says to him about a certain person, 'This man is your elder brother', he believes this to be one hundred percent true. One of the two may have been born in a Brahmin family and the other may belong to a low caste, say that of the blacksmiths, but they will take their meal from the same plate. A child is beyond all ideas of purity and impurity. He is not bound by social conventions. He doesn't hesitate to come out naked before others.

তারপর জাত অভিমান নাই। মা বলে দিয়েছে, ও তোর দাদা হয়, তা সে ষোল আনা জানে যে, এ আমার ঠিক দাদা। তা একজন যদি বামুনের ছেলে হয় আর-একজন যদি কামারের ছেলে হয়, তো একপাতে বসে ভাত খাবে। আর শুচি-অশুচি নাই, হেগোপোঁদে খাবে! আবার লোকলজ্জা নাই, ছোঁচাবার পর যাকে-তাকে পেছন ফিরে বলে — দেখ দেখি, আমার ছোঁচানো হয়েছে কি না?

“और ‘वृद्ध का मैं’ भी है । (डाक्टर हँसते हैं) वृद्ध के बहुत से पाश हैं, - जाति, अभिमान लज्जा, घृणा, भय, विषय-बुद्धि, पटवारी-बुद्धि, कपटाचरण । अगर किसी से वह नाराज हो जाता है तो सहज ही उसका रंज नहीं मिटता । सम्भव है, जीवन भर के लिए वह कसकता रहे । तिसपर पाण्डित्य का अहंकार और धन का अहंकार भी है । 'वृद्ध का मैं' कच्चा 'मैं' है ।

"Then there is an 'ego of old age'. (Dr. Sarkar laughs.) An old man has many shackles: caste, pride, shame, hatred, and fear. Furthermore, he is bound by the ideas of worldly cleverness, calculating intelligence, and deceit. If he is angry with anybody, he cannot shake it off easily; perhaps he keeps the feeling as long as he lives. Again, there is the 'ego of scholarship' and tile 'ego of wealth'. The 'ego of old age' is an 'unripe ego'.

“আবার, ‘বুড়োর আমি’ আছে। (ডাক্তারের হাস্য) বুড়োর অনেকগুলি পাশ। জাতি, অভিমান, লজ্জা, ঘৃণা, ভয়, বিষয়বুদ্ধি, পাটোয়ারী, কপটতা। যদি কারুর উপর আকোছ হয়, তো সহজে যায় না — হয়তো যতদিন বাঁচে ততদিন যায় না। তারপর পাণ্ডিত্যের অহংকার, ধনের অহংকার। ‘বুড়োর আমি’ কাঁচা আমি।”

  [ ( 22 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-123]

*🔱ज्ञान किनको नहीं होता है ?*🔱

[জ্ঞান কাহাদের হয় না ]

(डाक्टर से) “चार-पाँच आदमी ऐसे हैं जिन्हें ज्ञान नहीं होता । जिसे विद्या का अहंकार है, जिसे धन का अहंकार है, पाण्डित्य का अहंकार है, उसे ज्ञान नहीं होता । इस तरह के आदमियों से अगर कहा जाय, 'वहाँ एक बहुत अच्छे महात्मा आये हैं, दर्शन करने चलोगे ?’ - तो कितने ही बहाने करके कहता है, ‘न: मैं न जाऊँगा ।’ और मन ही मन कहता है, 'मैं इतना बड़ा आदमी हूँ, मैं क्यों जाऊँ ?'

(To the doctor) "There are a few men who cannot attain knowledge of God: men proud of their scholarship, proud of their education, or proud of their wealth. If you speak to such people about a holy man and ask them to visit him, they make all kinds of excuses and will not go. But in their heart of hearts, they think: 'Why, we are big people ourselves. Must we go and visit someone else?'

(ডাক্তারের প্রতি) — “চার-পাঁচজনের জ্ঞান হয় না। যার বিদ্যার অহংকার, যার পাণ্ডিত্যের অহংকার, যার ধনের অহংকার, তার জ্ঞান হয় না। এ সব লোককে যদি বলা যায় যে অমুক জায়গায় বেশ একটি সাধু আছে, দেখতে যাবে? তারা অমনি নানা ওজর করে বলে, যাব না। আর মনে মনে বলে, আমি এতবড় লোক, আমি যাব?”

  [ ( 22 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-123]

🔱🙏*तीन गुण - सत्त्वगुण से ईश्वर-लाभ। इन्द्रियसंयम के उपाय।*🔱🙏

"तमोगुण का स्वभाव अहंकार है । अहंकार, अज्ञान (मतिभ्रम), यह सब तमोगुण से होता है ।

'A characteristic of tamas is pride. Pride and delusion come from tamas.

“তমোগুণের স্বভাব অহংকার। অহংকার অজ্ঞান, তমোগুণ থেকে হয়।

"पुराणों में है, रावण में रजोगुण था, कुम्भकर्ण में तमोगुण और विभीषण में सतोगुण । इसीलिए विभीषण श्रीरामचन्द्रजी को पा सके थे । तमोगुण का एक और लक्षण है क्रोध क्रोध में उचित और अनुचित का ज्ञान (विवेक) नहीं रहता । हनुमान ने लंका जला दी, परन्तु यह ज्ञान नहीं था कि इससे सीताजी की कुटी भी जल जायेगी ।

"It is said in the Purana that Ravana had an excess of rajas, Kumbhakarna of tamas, and Bibhishana of sattva. That is why Bibhishana was able to receive the grace of Rama. Another characteristic of tamas is anger. Through anger one loses one's wits and cannot distinguish between right and wrong. In a fit of anger Hanuman set fire to Lanka, without thinking for a moment that the fire might also burn down the hut where Sita lived.

“পুরাণে আছে রাবণের রজোগুণ, কুম্ভকর্ণের তমোগুণ, বিভীষণের সত্ত্বগুণ। তাই বিভীষণ রামচন্দ্রকে লাভ করেছিলেন। তমোগুণের আর একটি লক্ষণ — ক্রোধ। ক্রোধে দিক-বিদিক জ্ঞান থাকে না, হনুমান লঙ্কা পুড়ালেন, এ-জ্ঞান নাই যে সীতার কুটির নষ্ট হবে।

"तमोगुण का एक लक्षण और है, कामपथुरियाघाटा के गिरीन्द्र घोष ने कहा था, 'काम, क्रोध आदि रिपु जब कि नहीं हटने के, तो इनका मोड़ फेर दो ।' ईश्वर की कामना करो । सच्चिदानन्द के साथ रमण करो । क्रोध अगर न जाता हो तो भक्ति का तम धारण करो

"Still another feature of tamas is lust. Girindra Ghosh of Pathuriaghata once remarked. 'Since you cannot get rid of your passions — your lust, your anger, and so on — give them a new direction. Instead of desiring worldly pleasures, desire God. Have intercourse with Brahman. If you cannot get rid of anger, then change its direction. Assume the tamasic attitude of bhakti,

“আবার তমোগুণের আর একটি লক্ষণ — কাম। পাথুরেঘাটার গিরীন্দ্র ঘোষ বলেছিল, কাম-ক্রোধাদি রিপু এরা তো যাবে বা, এদের মোড় ফিরিয়ে দাও। ঈশ্বরের কামনা কর। সচ্চিদানন্দর সহিত রমণ কর। ক্রোধ যদি না খায়, ভক্তির তমঃ আন।

   [ ( 22 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-123]

🙏जिसने भी (अजामिल) ठाकुर को अवतार वरिष्ठ के रूप में पूजा, उसका उद्धार निश्चित🙏 

'क्या ! मैंने 'उनका' नाम लिया  और मेरा उद्धार न होगा ?(ठाकुरदेव को किस नाम से पुकारना है, मैंने अपने गुरुदेव से सीखा और मेरा उद्धार न होगा ?) मुझे फिर पाप कैसा ? बन्धन कैसा ?' ईश्वर की प्राप्ति के लिए लोभ करो । ईश्वर के रूप पर मुग्ध हो जाओ । अगर अहंकार करना है तो इस तरह का अहंकार करो, ‘मैं ईश्वर का दास हूँ, मैं ईश्वर का पुत्र हूँ ।’ इस तरह छहों रिपुओं (चित्तवृत्ति-passions) का मोड़ फेर दिया जाता है ।"

 and say: 'What? I have repeated the hallowed name of Durga, and shall I not be liberated? How can I be a sinner any more? How can I be bound any more?' If you cannot get rid of temptation, direct it toward God. Be infatuated with God's beauty. If you cannot get rid of pride, then be proud to say that you are the servant of God, you are the child of God. Thus turn the six passions toward God."

 কি! আমি দুর্গানাম করেছি, উদ্ধার হব না? আমার আবার পাপ কি? বন্ধন কি? তারপর ঈশ্বরলাভ করবার লোভ কর। ঈশ্বরের রূপে মুগ্ধ হও। আমি ঈশ্বরের দাস, আমি ঈশ্বরের ছেলে, যদি অহংকার করতে হয়, তো এই অহংকার কর। এইরকমে ছয় রিপুর मोड़ /মন ফিরিয়ে দিতে হয়।”

   [ ( 22 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-123]

🔱🙏एक बार यदि ठाकुर देव की कृपा हो जाये छः रिपु कुछ नहीं बिगाड़ सकते🔱🙏  

'डाक्टर - इन्द्रियों का संयम करना बड़ा कठिन है । घोड़े की आँख के दोनों बगल आड़ लगायी जाती है, किसी किसी घोड़े की आँखें बिलकुल बन्द कर दी जाती हैं

DOCTOR: "It is very hard to control the sense-organs. They are like restive horses, whose eyes must be covered with blinkers. In the case of some horses it is necessary to prevent them from seeing at all."

ডাক্তার — ইন্দ্রিয়সংযম করা বড় শক্ত। ঘোড়ার চক্ষের দুদিকে ঠুলি দাও। কোন কোন ঘোড়ার চক্ষু একেবারে বন্ধ করতে হয়।

श्रीरामकृष्ण – अगर एक बार भी उनकी कृपा हो जाय, एक बार भी अगर ईश्वर के दर्शन मिल जायँ, आत्मा का साक्षात्कार हो जाय, तो फिर कोई भय नहीं रह जाता । छहों रिपु फिर कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते ।

MASTER: "A man need not fear anything if but once he receives the grace of God, if but once he obtains the vision of God, if but once he attains Self-Knowledge. Then the six passions cannot do him any harm.

শ্রীরামকৃষ্ণ — তাঁর যদি একবার কৃপা হয়, ঈশ্বরের যদি একবার দর্শনলাভ হয়, আত্মার যদি একবার সাক্ষাৎকার হয়, তাহলে আর কোন ভয় নাই — তখন ছয় রিপু আর কিছু করতে পারবে না।

"नारद और प्रह्लाद जैसे नित्यसिद्ध महापुरुषों को उस तरह दोनों ओर से आँखों में आड़ लगाने की आवश्यकता नहीं थी । जो लड़का स्वयं ही बाप का हाथ पकड़कर खेत की मेड़ पर से चल रहा है, वह, सम्भव है, असावधानी के कारण पिता का हाथ छोड़कर गड्ढे में गिर पड़े, परन्तु पिता जिस लड़के का हाथ पकड़ता है, वह कभी गढ्ढे में नहीं गिरता ।"

"Eternally perfect souls like Narada and Prahlada did not have to take the trouble to put blinkers on their eyes. The child who holds his father's hand, while walking along the narrow balk in the paddy-field, may loosen his hold in a moment of carelessness and slip into the ditch. But it is quite different if the father holds the child's hand. Then the child never falls into the ditch."

“নারদ, প্রহ্লাদ এই সব নিত্যসিদ্ধ মহাপুরুষদের অত করে চক্ষের দুদিকে ঠুলি দিতে হয় না। যে ছেলে নিজে বাপের হাত ধরে মাঠের আলপথে চলছে সে ছেলে বরং অসাবধান হয়ে বাপের হাত ছেড়ে দিয়ে খানায় পড়তে পারে। কিন্তু বাপ যে ছেলের হাত ধরে, সে কখনও খানায় পড়ে না।”

डाक्टर - परन्तु बच्चे का हाथ बाप पकड़े यह अच्छा नहीं मालूम होता ।

DOCTOR: "But it is not proper for a father to hold his child by the hand."

ডাক্তার — কিন্তু বাপ ছেলের হাত ধরা ভাল নয়।

श्रीरामकृष्ण - बात ऐसी नहीं । महापुरुषों का स्वभाव बालकों जैसा होता है । ईश्वर के पास वे सदा ही बालक हैं, उनमें अहंकार नहीं है । उनकी सब शक्ति ईश्वर की शक्ति है, पिता की शक्ति है, अपनी स्वयं की शक्ति कुछ भी नहीं । यही उनका दृढ़ विश्वास है

MASTER: "It is not quite like that. Great sages have childlike natures. Before God they are always like children. They have no pride. Their strength is the strength of God, the strength of their Father. They have nothing to call their own. They are firmly convinced of that."

শ্রীরামকৃষ্ণ — তা নয়। মহাপুরুষদের বালক স্বভাব। ঈশ্বরের কাছে তারা সর্বদাই বালক, তাদের অহংকার থাকে না। তাদের সব শক্তি ঈশ্বরের শক্তি, বাপের শক্তি, নিজের কিছুই নয়। এইটি তাদের দৃঢ় বিশ্বাস।

   [ ( 22 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-123]

🔱🙏मनःसंयोग (या राजयोग) के साथ भक्तियोग का समन्वय🔱🙏   

डाक्टर - घोड़े के दोनों ओर आँखों में आड़ लगाये बिना क्या घोड़ा कभी बढ़ना चाहता है ? रिपुओं को वशीभूत किये बिना क्या ईश्वर कभी मिल सकते हैं ?

DOCTOR: "Can you make a horse move forward without first covering his eyes with blinkers? Can one realize God without first controlling the passions?"

ডাক্তার — আগে ঘোড়ার চক্ষের দুইদিকে ঠুলি না দিলে, ঘোড়া কি এগুতে চায়? রিপু বশ না হলে কি ঈশ্বরকে পাওয়া যায়?

श्रीरामकृष्ण - तुम जो कुछ कहते हो, उसे विचार-मार्ग कहते हैं – ज्ञानयोग । उस रास्ते से भी ईश्वर मिलते हैं । ज्ञानी कहते हैं, पहले चित्त की शुद्धि आवश्यक है । साधना चाहिए तब ज्ञान होता है ।

MASTER: "What you say is according to the path of discrimination. It is known as jnanayoga. Through that path, too, one attains God. The jnanis say that an aspirant must first of all purify his heart. First he needs spiritual exercises; then he will attain Knowledge.

শ্রীরামকৃষ্ণ — তুমি যা বলছো, ওকে বিচারপথ বলে — জ্ঞানযোগ বলে। ও-পথেও ঈশ্বরকে পাওয়া যায়। জ্ঞানীরা বলে, আগে চিত্তশুদ্ধি হওয়া দরকার। আগে সাধন চাই, তবে জ্ঞান হবে।

“भक्तिमार्ग से भी वे मिलते हैं । यदि ईश्वर के पादपद्मों में एक बार भक्ति हो, यदि उनका नाम लेने में जी लगे तो फिर प्रयत्न करके इन्द्रियों का संयम नहीं करना पड़ता । रिपु (कर्मेन्द्रियाँ) आप ही आप वशीभूत हो जाते हैं ।

"But God can also be realized through the path of devotion. Once the devotee develops love for the Lotus Feet of God and enjoys the singing of His name and attributes, he does not have to make a special effort to restrain his senses. For such a devotee the sense-organs come under control of themselves.

“ভক্তিপথেও তাঁকে পাওয়া যায়। যদি ঈশ্বরের পাদপদ্মে একবার ভক্তি হয়, যদি তাঁর নামগূনগান করতে ভাল লাগে, ইন্দ্রিয় সংযম আর চেষ্টা করে করতে হয় না। রিপুবশ আপনা-আপনি হয়ে যায়।

“यदि किसी को पुत्र का शोक हो, तो क्या उस दिन वह किसी से लड़ाई कर सकता है ? - या न्योते में खाने के लिए जा सकता है ? वह क्या लोगों के सामने अहंकार कर सकता है या सुख-सम्भोग कर सकता है ?

"Suppose a man has just lost his son and is mourning his death. Can he be in a mood to quarrel with others that very day, or enjoy a feast in the house of a friend? Can he, that very day, show his pride before others or enjoy sense pleasures?

“যদি কারও পুত্রশোক হয়, সেদিন সে কি আর লোকের সঙ্গে ঝগড়া করতে পারে, না, নিমন্ত্রণে গিয়ে খেতে পারে? সে কি লোকের সামনে অহংকার করে বেড়াতে পারে, না, সুখ সম্ভোগ করতে পারে?

    [ ( 22 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-123]

🔱🙏दीपक की लौ पर कूदने से भी 'ज्ञानी भक्त ' कभी पतंगे की तरह जल नहीं जाते🔱🙏  

“दीवाली का पतंगा (भृंग-बीटल) अगर एक बार उजाला देख लें तो क्या फिर वे कभी अँधेरे में रह सकते हैं ?”

"If the moth discovers light, can it remain in darkness any longer?"

“বাদুলে পোকাদি একবার আলো দেখতে পায়, তাহলে কি সে আর অন্ধকারে থাকে? 

डाक्टर (सहास्य) - चाहे जल जायँ, फिर भी उजाला नहीं छोड़ेंगे !

DOCTOR (with a smile): "Of course, it cannot. It would rather fly into the flame and perish."

ডাক্তার (সহাস্যে) — তা পুড়েই মরুক সেও স্বীকার।

श्रीरामकृष्ण - नहीं जी, भक्त कीड़े की तरह जलकर नहीं मरते । भक्त जिस उजाले को देखकर उसके पीछे दौड़ते हैं, वह मणि का उजाला है । मणि का उजाला बहुत उज्ज्वल तो है, परन्तु स्निग्ध और शीतल है । इस उजाले से देह नहीं जलती । इससे शान्ति और आनन्द होता है ।

MASTER: "Oh no, that's not so. A lover of God does not burn himself to death, like a moth. The light to which he rushes is like the light of a gem. That light is brilliant, no doubt, but it is also cooling and soothing. That light does not scorch his body; it gives him joy and peace.

শ্রীরামকৃষ্ণ — না গো! ভক্ত কিন্তু বাদুলে পোকার মতো পুড়ে মরে না। ভক্ত যে আলো দেখে ছুটে যায়, সে যে মণির আলো! মণির আলো খুব উজ্জ্বল বটে, কিন্তু স্নিগ্ধ আর শীতল। এ-আলোতে গা পুড়ে না, এ-আলোতে শান্তি হয়, আনন্দ হয়।

    [ ( 22 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-123]

🔱🙏ज्ञानयोगी होना बहुत कठिन है-काँटे (कर्मबन्धन) को ज्ञानाग्नि में जलाना होगा🔱🙏

[জ্ঞানযোগ বড় কঠিন ]

“नेति-नेति विचार-मार्ग से - ज्ञानयोग के मार्ग से भी वे मिलते हैं; परन्तु यह पथ बड़ा कठिन है । मैं न शरीर हूँ, न मन, न बुद्धि, मन में न रोग है, न शोक, न अशान्ति; मैं सच्चिदानन्दस्वरूप हूँ, मैं सुख और दुःख से परे हूँ, मैं इन्द्रियों के वश में नहीं हूँ - इस तरह की बातें मुख से कहना बहुत सरल है, परन्तु कार्य में इन्हें परिणत करना या इनकी धारणा करना बहुत कठिन है ।

"One realizes God by following the path of discrimination and knowledge. But this is an extremely difficult path. It is easy enough to say such things as, 'I am not the body, mind, or intellect; I am beyond grief, disease, and sorrow; I am the embodiment of Existence Knowledge-Bliss Absolute; I am beyond pain and pleasure; I am not under the control of the sense-organs, but it is very hard to assimilate these ideas and practice them. 

“বিচারপথে জ্ঞানযোগের পথে, তাঁকে পাওয়া যায়। কিন্তু এ-পথ বড় কঠিন। আমি শরীর নই, মন নই, বুদ্ধি নই। আমার রোগ নাই, শোক নাই, অশান্তি নাই; আমি সচ্চিদানন্দস্বরূপ, আমি সুখ-দুঃখের অতীত, আমি ইন্দ্রিয়ের বশ নই, এ-সব কথা মুখে বলা খুব সোজা। কাজে করা, ধারণা হওয়া বড় কঠিন।

काँटे से हाथ छिदा जा रहा है, धर धर खून गिर रहा है, परन्तु फिर भी यह कहे जा रहा है कि 'कहाँ हाथ में काँटा चुभा ? मैं तो बहुत अच्छी तरह हूँ ।’ ये सब बातें शोभा नहीं देती । पहले उस काँटे (कर्मबन्धन) को ज्ञानाग्नि में जलाना होगा, नहीं ?

Suppose I see my hand cut by a thorn and blood gushing out; then it is not right for me to say: 'Why, my hand is not cut by the thorn! I am all right.' To be able to say that, I must, first of all, burn the thorn itself in the fire of Knowledge.

 কাঁটাতে হাত কেটে যাচ্ছে, দরদর করে রক্ত পড়ছে, অথচ বলছি, কই কাঁটায় আমার হাত কাটে নাই, আমি বেশ আছি। এ-সব বলা সাজে না। আগে ওই কাঁটাকে জ্ঞানাগ্নিতে পোড়াতে হবে তো।”

    [ ( 22 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-123]

🔱🙏विवेकानन्द के गुरु श्री रामकृष्ण की शिक्षा पद्धति-विदेह ही अनासक्त होंगे 🔱🙏

[বইপড়া জ্ঞান বা পাণ্ডিত্য — ঠাকুরের শিক্ষাপ্রণালী ]

“बहुतेरे यह सोचते हैं कि बिना पुस्तकें पढ़े ज्ञान नहीं होता, विद्या नहीं होती; परन्तु पढ़ने की अपेक्षा सुनना अधिक अच्छा है और सुनने की अपेक्षा देखना अच्छा है वाराणसी (ज्ञानवापी मस्जिद?) के सम्बन्ध में पढ़ने या सुनने तथा दर्शन करने में बड़ा अन्तर है ।

"Many people think they cannot have knowledge or understanding of God without reading books. But hearing is better than reading, and seeing is better than hearing. Hearing about Benares is different from reading about it; but seeing Benares is different from either hearing or reading.

“অনেকে মনে করে, বই না পড়ে বুঝি জ্ঞান হয় না, বিদ্যা হয় না। কিন্তু পড়ার চেয়ে শুনা ভাল, শুনার চেয়ে দেখা ভাল। কাশীর বিষয় পড়া, কাশীর বিষয় শুনা, আর কাশীদর্শন অনেক তফাত।

“जो लोग खुद शतरंज खेलते हैं, वे खुद चाल उतनी नहीं समझते, परन्तु जो लोग खेलते नहीं और तटस्थ रहकर चाल बतला देते हैं, उनकी चाल खेलनेवालों की चाल से बहुत अंशों में ठीक होती है। संसारी लोग सोचते हैं, हम बड़े बुद्धिमान हैं, परन्तु वे विषयासक्त हैं, वे खुद खेल रहे हैं । अपनी चाल स्वयं नहीं समझ सकते; परन्तु संसार-त्यागी साधु-महात्मा विषयों से अनासक्त हैं, वे संसारियों से बुद्धिमान हैं । खुद नहीं खेलते, इसीलिए चाल अच्छी बतला सकते हैं ।”

"Those actually engaged in a game of chess do not always judge the moves on the board correctly. The onlookers often judge the moves better than the players. Worldly people often think themselves very intelligent, but they are attached to the things of the world. They are the actual players and cannot understand their own moves correctly. But holy men, who have renounced everything, are unattached to the world; they are really more intelligent than worldly people. Since they do not take any part in worldly life, their position is that of onlookers, and so they see things more clearly."

“আবার যারা নিজে সতরঞ্চ খেলে, তারা চাল তত বুঝে না, কিন্তু যারা না খেলে, উপর চাল বলে দেয়, তাদের চাল ওদের চেয়ে অনেকটা ঠিক ঠিক হয়। সংসারী লোক মনে করে, আমরা বড় বুদ্ধিমান কিন্তু তারা বিষয়াসক্ত। নিজে খেলছে। নিজেদের চাল ঠিক বুঝতে পারে না। কিন্তু সংসারত্যাগী সাধুলোক বিষয়ে অনাসক্ত। তারা সংসারীদের চেয়ে বুদ্ধিমান। নিজে খেলে না, তাই উপর চাল ঠিক বলে দিতে পারে।”

डाक्टर (भक्तों से) - पुस्तक पढ़ने से इनको (यदि श्रीरामकृष्ण दूसरी क्लास से अधिक पढ़ लेते तो उनको) इतना ज्ञान न होता । फैरडे (एक वैज्ञानिक) खुद प्रकृति से बातें किया करते थे, इसीलिए वह इस तरह के वैज्ञानिक सत्यों का आविष्कार कर सका । किताबी ज्ञान के होने पर इतना न हो सकता था । गणित के नियम मस्तिष्क को उलझन में डाल देते हैं, मौलिक आविष्कार के रास्ते में वे विघ्न ला खड़ा कर देते हैं ।

DOCTOR (to the devotees): "If he [meaning Sri Ramakrishna] had studied books he could not have acquired so much knowledge. Faraday communed with nature; that is why he was able to discover many scientific truths. He could not have known so much from the mere study of books. Mathematical formulas only throw the brain into confusion and bar the path of original inquiry."

ডাক্তার (ভক্তদিগের প্রতি) — বই পড়লে এ-ব্যক্তির (পরমহংসদেবের) এত জ্ঞান হত না। Faraday communed with Nature. প্রকৃতিকে ফ্যারাডে নিজে দর্শন করত, তাই অত Scientific truth discover করতে পেরেছিল। বই পড়ে বিদ্যা হলে অত হত না। Mathematical formulae only throw the brain into confusion — Original inquiry-র পথে বড় বিঘ্ন এনে দেয়।

    [ ( 22 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-123]

🔱🙏ईश्वरीय ज्ञान (योग और याग में जागना) और किताबी शिक्षा🔱🙏

[ঈশ্বর-প্রদত্ত জ্ঞান — Divine wisdom and Book learning]

श्रीरामकृष्ण (डाक्टर से) - जब पंचवटी में जमीन पर लोटता हुआ मैं माँ को - पुकारा करता था तब मैंने माँ से कहा था, 'माँ, मुझे वह सब दिखा दो जो कर्मियों ने कर्म के द्वारा पाया है, योगियों ने योग के द्वारा और ज्ञानियों के ज्ञान के द्वारा ।' और भी बहुतसी बातें हैं, उनके सम्बन्ध में अब क्या कहूँ ?

MASTER: "There was a time when I lay on the ground in the Panchavati and prayed to the Divine Mother, 'O Mother, reveal to me what the karmic (The ritualists.) have realized through their ritualistic worship, what the yogis have realized through yoga, and what the jnanis have realized through discrimination.' How much I communed with the Divine Mother! How can I describe it all?

শ্রীরামকৃষ্ণ (ডাক্তারের প্রতি) — যখন পঞ্চবটীতে মাটিতে পড়ে পড়ে মাকে ডাকতুম, আমি মাকে বলেছিলাম, মা, আমায় দেখিয়ে দাও কর্মীরা কর্ম করে যা পেয়েছে, যোগীরা যোগ করে যা দেখেছে, জ্ঞানীরা বিচার করে যা জেনেছে। আরও কত কি তা কি বলব!

"अहा ! कैसी अवस्था बीत गयी है ! नींद बिलकुल चली गयी थी !"

"Ah, what a state I passed through! Sleep left me completely."

“আহা! কি অবস্থাই গেছে! ঘুম যায়!”

 यह कहकर श्रीरामकृष्णदेव गाने लगे -

घूम भेंगेछे आर कि घूमाई, योगे -यागे जेगे आछि। 

एखन योगनिद्रा तोरे दिये माँ, घूमेरे घूम पाड़ायेछि !       

 'नींद टूट गयी है, अब मैं कैसे सो सकता हूँ ? योग (चित्तवृत्ति निरोध -पूर्ण एकाग्रता) और याग (योगनिद्रा-^समाधि, जो व्यक्ति को सोया हुआ सा प्रतीत कराती है।) में जाग रहा हूँ...।' हे माँ,  सारदा अंततः योग-निद्रा में आपके साथ एक हो गया हूँ, मैंने अपनी नींद (मोहनिद्रा) को हमेशा के लिए सुला दिया है। एक मनुष्य (ब्रह्मविद गुरु) ऐसे देश से मेरे पास आया जहां रात ही नहीं होती; इसलिए अब जप-अनुष्ठान और भक्ति सभी मेरे लिए बेकार हो गए हैं।

The Master sang: My sleep is broken; how can I slumber anymore? For now, I am wide awake in the sleeplessness of yoga. O Divine Mother made one with Thee in yoga-sleep2 at last, My slumber I have lulled asleep for evermore. A man has come to me from a country where there is no night; Rituals and devotions have all grown profitless to me.

এই বলিয়া পরমহংসদেব গান করিয়া বলিতে লাগিলেন —“ঘুম ভেঙেছে আর কি ঘুমাই, যোগে-যাগে জেগে আছি। এখন যোগনিদ্রা তোরে দিয়ে মা, ঘুমেরে ঘুম পাড়ায়েছি!

    [ ( 22 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-123]

(शम्भु मल्लिक ठाकुर के बारे में कहते थे) 

 🔱🙏'न ढाल है, न तलवार, केवल माँ जगदम्बा की कृपा से शान्तिराम सिंह बने है !'🔱🙏

ঢাল নাই, তরোয়াল নাই, শান্তিরাম সিং?

"मैंने तो पुस्तक एक भी नहीं पढ़ी ! परन्तु देखो, माता का नाम लेता हूँ, इसलिए सब लोग मुझे मानते हैं । शम्भु मल्लिक ने मुझसे कहा था, 'न ढाल है, न तलवार, और शान्तिराम सिंह बने है !' " (सब हँसते हैं)

He continued: "I have not read books. But people show me respect because I chant the name of the Divine Mother. Sambhu Mallick said about me, 'Here is a great hero without a sword or shield!'" (Laughter.)

“আমি তো বই-টই কিছুই পড়িনি, কিন্তু দেখ মার নাম করি বলে আমায় সবাই মানে। শম্ভু মল্লিক আমায় বলেছিল, ঢাল নাই, তরোয়াল নাই, শান্তিরাম সিং?” (সকলের হাস্য)

(३)

[>>>अवतार तथा जीव : प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है, अर्थात जीव (आत्मा) निराकार है तथा गोचर शरीर भी धारण करता है, एक नहीं अनेक बार , इसीलिए प्रत्येक जीव ईश्वर का अवतार है ! प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है ! लेकिन अन्तःप्रकृति =अहंकार,(मन) बाह्य प्रकृति =शरीर (इन्द्रिय) दोनों पर संयम नहीं होने के कारण विश्वास नहीं होता। अहंकार चूर्ण होने से ही परमात्मा के दोनों रूपों पर विश्वास होता है !(बिबू विश्वास कहते थे -  तुमको तो किसी प्रकार का दुःख-तकलीफ  नहीं है ?  तुमको ठाकुर -माँ-स्वामीजी से प्रेम कैसे हुआ ? कई जन्मों के बाद ?.....केशव धृत बुद्ध शरीर- जय जगदीश हरे ! भगवान विष्णु ने ही बुद्ध के रूप अवतार लिया था ! अवतार के रूप में जिसने अभिनय किया था ...?]  

    [ ( 22 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-123]

अवतार तथा जीव

🔱🙏अहंकार चूर्ण हो जाने पर आत्मविश्वास (ईश्वर पर विश्वास) दृढ़ हो जाता है 🔱🙏 

श्रीयुत गिरीश घोष के बुद्धदेव-चरित  के अभिनय की चर्चा होने लगी । उन्होंने डाक्टर को निमन्त्रण देकर वह अभिनय दिखलाया था । डाक्टर को अभिनय देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई थी ।

The conversation turned to the performance of a drama by Girish Ghosh called The Life of Buddha. The doctor had seen the play and been much pleased with it.

শ্রীযুক্ত গিরিশচন্দ্র ঘোষের বুদ্ধদেবচরিত অভিনয় কথা হইতে লাগিল। তিনি ডাক্তারকে নিমন্ত্রণ করিয়া ওই অভিনয় দেখাইয়াছিলেন। ডাক্তার উহা দেখিয়া যারপরনাই আনন্দিত হইয়াছিলেন।

डाक्टर (गिरीश से) - तुम बड़े बुरे आदमी हो, अब मुझे रोज थिएटर देखने के लिए जाना होगा !

DOCTOR (to Girish): "You are a very bad man. Must I go to the theatre every day?"

ডাক্তার (গিরিশের প্রতি) — তুমি বড় বদলোক! রোজ থিয়েটারে যেতে হবে?

श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - क्या कहता है ? मैं नहीं समझा ।

MASTER (to M.): "What does he say? I don't quite understand."

শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — কি বলছে, আমি বুঝতে পারছি না।

मास्टर - थिएटर उन्हें बहुत अच्छा लगा है ।

M: "The doctor liked the play very much."

মাস্টার — ওঁর থিয়েটার বড় ভাল লেগেছে।

श्रीरामकृष्ण - (ईशान के प्रति) - तुम कुछ कहो; यह (डॉक्टर) अवतार नहीं मान रहा है । 

[अर्थात डाक्टर- इस बात पर विश्वास नहीं करता कि ब्रह्म या ईश्वर, जो कभी कृष्ण बने थे वे ही फिर से बुद्ध के रूप में अवतरित हो सकते हैं !)

MASTER (to Ishan): "Why don't you say something? (Pointing to the doctor) He does not believe that God can incarnate Himself in a human form."

শ্রীরামকৃষ্ণ (ঈশানের প্রতি) — তুমি কিছু বল না; এ (ডাক্তার) অবতার মানছে না।

ईशान - जी, अब क्या विचार करूँ ? तर्क-वितर्क अब नहीं सुहाता ।

[जब इस युग के अवतार वरिष्ठ को पहचान गया - तो अब तर्क क्यों करें ? ]

ISHAN: "What shall I say, sir? I don't like to argue anymore."

ঈশান — আজ্ঞা, কি আর বিচার করব। বিচার আর ভাল লাগে না।

श्रीरामकृष्ण (विरक्ति से) – क्यों ? यथार्थ बात भी नहीं कहोगे ?

MASTER (sharply): "Why? Won't you say the right thing?"

শ্রীরামকৃষ্ণ (বিরক্ত হইয়া) — কেন? সঙ্গত কথা বলবে না?

ईशान (डाक्टर से) - अहंकार के कारण हम लोगों में विश्वास कम है । काकभुषुण्डि ने श्रीरामचन्द्रजी को पहले अवतार नहीं माना था । अन्त में जब चन्द्रलोक, देवलोक और कैलाश में उसने भ्रमण करके देखा कि राम के हाथ से उसका किसी प्रकार निस्तार ही नहीं हो रहा है, तब खुद वह राम की शरण में आया । राम उसे पकड़कर निगल गये ।

ISHAN (to the doctor): "Our faith is shallow on account of our pride. It is said in the Ramayana that a crow named kag -Bhushandi did not at first accept Rama as an Incarnation of God. Once it incurred Rama's displeasure. It traveled through the different worlds — the lunar, solar, and so forth — and through Mount Kailas, to escape Rama's wrath. But it found that it could not escape. Then it surrendered itself to Him and took refuge at His feet. Rama took the crow in His hand and swallowed it. 

ঈশান (ডাক্তারের প্রতি) — অহংকারের দরুন আমাদের বিশ্বাস কম। কাকভূষণ্ডী রামচন্দ্রকে প্রথমে অবতার বলে মানে নাই। শেষে যখন চন্দ্রলোক, দেবলোক, কৈলাস ভ্রমণ করে দেখলে যে রামের হাত থেকে কোনরূপেই নিস্তার নাই, তখন নিজে ধরা দিল, রামের শরণাগত হল। রাম তখন তাকে ধরে মুখের ভিতর নিয়ে গিলে ফেললেন। 

भुषुण्डि ने तब देखा कि वह अपने पेड़ ही पर बैठा हुआ है ! उसका अहंकार जब चूर्ण हो गया तब उसने समझा कि राम देखने में तो मनुष्य की तरह हैं, परन्तु ब्रह्माण्ड उनके उदर में समाया हुआ है उन्हीं के पेट में आकाश, चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र, समुद्र, पर्वत जीव-जन्तु, पेड़-पौधे आदि हैं ।

Thereupon the crow found that it was seated in its own nest in a tree. After its pride had thus been crushed, the bird came to realize that though Rama looked like any other man, yet He contained in His stomach the entire universe — sky, moon, sun, stars, oceans, rivers, men, animals, and trees."

ভূষণ্ডী তখন দেখে যে, সে তার গাছে বসে রয়েছে। অহংকার চূর্ণ হলে কাকভূষণ্ডী জানতে পারলে যে, রামচন্দ্র দেখতে আমাদের মতো মানুষ বটে, কিন্তু তাঁরই উদরে ব্রহ্মাণ্ড। তাঁরই উদরের ভিতর আকাশ, চন্দ্র, সূর্য, নক্ষত্র, সমুদ্র, পর্বত, জীব, জন্তু, গাছ ইত্যাদি।

    [ ( 22 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-123]

🙏अहंकार चूर्ण हो जाने पर यह विश्वास होता है कि ब्रह्म ही जगत के रूप में दिख रहे हैं🙏 

श्रीरामकृष्ण (डाक्टर से) - इतना समझना ही मुश्किल है कि वे ही स्वराट् हैं और वे ही विराट् हैं जिनकी नित्यता है, उन्हीं की लीला भी है । ‘वे आदमी नहीं हो सकते’ यह बात क्या हम अपनी क्षुद्र बुद्धि द्वारा कह सकते हैं ? हमारी क्षुद्र बुद्धि में क्या इन सब की धारणा हो सकती है ? एक सेर भर के लोटे में क्या चार सेर दूध समा सकता है ?

MASTER (to the doctor): "It is very difficult to understand that God can be a finite human being and at the same time the all-pervading Soul of the universe. The Absolute and the Relative are His two aspects. How can we say emphatically with our small intelligence that God cannot assume a human form? Can we ever understand all these ideas with our little intellect? Can a one-seer pot hold four seers of milk?

শ্রীরামকৃষ্ণ (ডাক্তারের প্রতি) — ওইটুকু বুঝা শক্ত, তিনিই স্বরাট তিনিই বিরাট। যাঁরই নিত্য তাঁরই লীলা। তিনি মানুষ হতে পারেন না, এ-কথা জোর করে আমরা ক্ষুদ্র বুদ্ধিতে কি বলতে পারি? আমাদের ক্ষুদ্র বুদ্ধিতে এ-সব কথা কি ধারণা হতে পারে? একসের ঘটিতে কি চারসের দুধ ধরে?

    [ ( 22 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-123]

🔱🙏गुरु (नेता वरिष्ठ) के मुख से सुने -युगावतार का नाम पर पूर्ण विश्वास करें🔱🙏  

श्रीरामकृष्ण (डाक्टर से) “इसीलिए जिन साधु और महात्माओं ने ईश्वर को प्राप्त कर लिया है उनकी बात पर विश्वास करना चाहिए । साधु-महात्मा ईश्वर की ही चिन्ता लेकर रहते हैं, जैसे वकील मुकदमे की चिन्ता लेकर । क्या काकभुषुण्डि की बात पर तुम्हें विश्वास होता है ?

"Therefore one should trust in the words of holy men and great souls, those who have realized God. They constantly think of God, as a lawyer of his lawsuits. Do you believe the story of the crow Bhushandi?"

“তাই সাধু মহাত্মা যাঁরা ঈশ্বরলাভ করেছেন, তাঁদের কথা বিশ্বাস করতে হয়। সাধুরা ঈশ্বরচিন্তা লয়ে থাকেন, যেমন উকিলরা মোকদ্দমা লয়ে থাকে। তোমার কাকভূষণ্ডীর কথা কি বিশ্বাস হয়?”

    [ ( 22 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-123]

🔱🙏छुपकर बाली को मारना, और सीता का त्याग दोनों अवतार लीला है 🔱🙏

डाक्टर - जितना अच्छा है, उतने पर मैंने विश्वास कर लिया । पकड़ में आ जाने से ही हुआ, फिर कोई शिकायत नहीं रहती; परन्तु राम को कैसे हम अवतार मानें ? पहले बालि का वध देखो । छिपकर चोर की तरह तीर चलाकर उसे मारा । यह तो मनुष्य का काम है, ईश्वर का कैसे कहा जाय ?

DOCTOR: "I accept as much as I want to. All difficulties come to an end if only God reveals His true nature to the seeker. Then there can be no confusion. How can I accept Rama as an Incarnation of God? Take the example of His killing Bali, the monkey chieftain. He hid Himself behind a tree, like a thief, and murdered  Bali. This is how a man acts, and not God."

ডাক্তার — যেটুকু ভাল, বিশ্বাস করলুম। ধরা দিলেই চুকে যায়, কোন গোল থাকে না। রামকে অবতার কেমন করে বলি? প্রথমে দেখ বালীবধ। লুকিয়ে চোরের মত বাণ মেরে তাকে মেরে ফেলা হল। এ তো মানুষের কাজ, ঈশ্বরের নয়।

गिरीश घोष - महाशय, यह काम ईश्वर ही कर सकते हैं ।

GIRISH: "But, sir, such an action is possible only for God."

গিরিশ ঘোষ — মহাশয়, এ-কাজ ঈশ্বরই পারেন।

डाक्टर - फिर देखो, सीता का परित्याग।

DOCTOR: "Then take the example of His sending Sita into exile."

ডাক্তার — তারপর দেখ সীতাবর্জন।

गिरीश घोष - महाशय, यह काम (राम-राज्य में राजधर्म का पालन, और छुपकर बाली को मारना दोनों काम ?) भी ईश्वर ही कर सकते है, आदमी नहीं ।

GIRISH: "This too, sir, is possible only for God, not for man."

গিরিশ — মহাশয়, এ-কাজও ঈশ্বরই পারেন, মানুষ পারে না।

    [ ( 22 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-123]

[एक-दो दिवसीय निर्जनवास में प्रथम दिन अवतार और जीव का एकत्व 

दादा का दशावतार स्त्रोत्र, दूसरे दिन भक्ति योग-रामकृष्ण स्तुति ]  

[Science के सिद्धान्त- या चार महावाक्य ?]  

[সায়েন্স — না মহাপুরুষের বাক্য? ]

🔱🙏Formless vs Personal Form of God🔱🙏   

🙏शरीर की रचना करने वाली माँ साकार ईश्वर, मन की रचना करने वाले पिता निराकार🙏

['द्वे वाव ब्रह्मणों रूपे मूर्तं चैवामूर्तं च ' - (बृहदारण्यकोपनिषद २. ३.१.) 

"हरि ॐ" शब्द रूप दोनों स्वरूपों (तत् सत्) की स्मृति है 

"हरि" सगुन रूप विष्णु हैं तो "ॐ" निराकार ब्रह्म हैं।

ईशान (डाक्टर से) - आप अवतार क्यों नहीं मानते ? अभी तो आपने कहा, जिन्होंने नाना रूपों की सृष्टि की है वे साकार हैं, जिन्होंने मन की सृष्टि की है वे निराकार हैं । अभी अभी तो आपने कहा, ईश्वर के लिए सब कुछ सम्भव है ।

ISHAN (to the doctor): "Why don't you believe in the Incarnation of God? Just now you said that God has form since He has created all these forms, and that God is formless since He has created the mind, which is without form. A moment ago you said that everything is possible for God.

ঈশান (ডাক্তারের প্রতি) — আপনি অবতার মানছেন না কেন? এই বললেন, যিনি আকার করেছেন তিনি সাকার, যিনি মন করেছেন তিনি নিরাকার। এই আপনি বললেন, ঈশ্বরের কাণ্ড হতে পারে।

    [ ( 22 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-123]

🙏21वीं सदी में 'Science' भी दशावतार स्त्रोत्र और भक्ति योग पर विश्वास करेगा🙏

[रोज नई खबर सुनने की आदि दुनिया -वचनामृत को सुसमाचार मानेगी !]  

श्रीरामकृष्ण (हँसते हुए) - ईश्वर अवतार ले सकते हैं, यह बात इनके Science (विज्ञान) में नहीं जो है, फिर भला कैसे विश्वास हो ? (सब हँसते हैं)

MASTER (laughing): "It is not mentioned in his 'science' that God can take human form; so how can he believe it? (All laugh.)

শ্রীরামকৃষ্ণ (হাসিতে হাসিতে) — ঈশ্বর অবতার হতে পারেন, এ-কথা যে ওঁর সায়েন্স-এ (ইংরাজী বিজ্ঞানশাস্ত্রে) নাই! তবে কেমন করে বিশ্বাস হয়? (সকলের হাস্য)

"एक कहानी सुनो । किसी ने आकर कहा, ‘अरे, उस टोले में मैं देखकर आ रहा हूँ - अमुक का घर धँसकर बैठ गया है ।’ जिससे उसने यह बात कही, वह अंग्रेजी पढ़ा हुआ था । उसने कहा, 'ठहरो, जरा अखबार देख लूँ ।' अखबार उलटकर उसने देखा, वहाँ कहीं कुछ न था । तब उसने कहा, 'चलो जी, तुम्हारी बात का हमें विश्वास नहीं । कहाँ, घर के धँसकर बैठ जाने की बात अखबार में तो नहीं लिखी है ? यह सब झूठ खबर है !' (सब हँसे)

"Listen to a story. A man said to his friend, 'I have just seen a house fall down with a terrific crash.' Now, the friend to whom he told this had received an English education. He said: 'Just a minute. Let me look it up in the newspaper.' He read the paper but could not find the news of a house falling down with a crash. Thereupon he said to his friend: 'Well, I don't believe you. It isn't in the paper; so it is all false.'" (All laugh.)

“একটা গল্প শোন — একজন এসে বললে, ওহে! ও-পাড়ায় দেখে এলুম অমুকের বাড়ি হুড়মুড় করে ভেঙে পড়ে গেছে। যাকে ও-কথা বললে, সে ইংরাজী লেখা-পড়া জানে। সে বললে দাঁড়াও, একবার খপরের কাগজখানা দেখি। খপরের কাগজ পড়ে দেখে যে, বাড়ি ভাঙার কথা কিছুই নাই। তখন সে ব্যক্তি বললে, ওহে তোমার কথায় আমি বিশ্বাস করি না। কই, বাড়ি ভাঙার কথা তো খপরের কাগজে লেখা নাই। ও-সব মিছে কথা।” (সকলের হাস্য)

    [ ( 22 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-123]

🔱🙏अहंकार रहित सादगी और ईश्वर के अवतार या सगुण ब्रह्म वरिष्ठ में आस्था🔱🙏

[Simplicity without arrogance and Faith in God]

[সরলতা ও ঈশ্বরে বিশ্বাস ]

गिरीश (डाक्टर से) - आपको कृष्ण को तो अवतार मानना ही होगा । आपको मैं उन्हें आदमी नहीं मानने दूँगा । कहिये, Demon or God (शैतान है या ईश्वर) ?

GIRISH (to the doctor): "You must admit that Krishna is God. I will not let you look on Him as a mere man. You must admit that He is either God or a demon."

গিরিশ (ডাক্তারের প্রতি) — আপনার শ্রীকৃষ্ণকে ঈশ্বর মানতে হবে। আপনাকে মানুষ মানতে দেব না। বলতে হবে Demon or God (হয় শয়তান, নয় ঈশ্বর)।

श्रीरामकृष्ण - सरल (अहंकारशून्य) हुए बिना जल्दी किसी को ईश्वर पर विश्वास नहीं होता, विषय -बुद्धि से ईश्वर बहुत दूर हैं । विषय-बुद्धि के रहते अनेक प्रकार के संशय आकर उपस्थित हो जाते हैं । और अनेक तरह के अहंकार आ जाते हैं, पाण्डित्य का अहंकार, धन का अहंकार, आदि आदि । परन्तु ये (डाक्टर) सरल हैं

MASTER: "Unless a man is guileless (genuinely simple) , he cannot so easily have faith in God. God is far, far away from the mind steeped in worldliness. Worldly intelligence creates many doubts and many forms of pride — pride in learning, wealth, and the rest. (Pointing to the doctor) But he is guileless.

শ্রীরামকৃষ্ণ — সরল না হলে ঈশ্বরে চট করে বিশ্বাস হয় না। বিষয়বুদ্ধি থেকে ঈশ্বর অনেক দূর। বিষয়বুদ্ধি থাকলে নানা সংশয় উপস্থিত হয়, আর নানারকম অহংকার এসে পড়ে — পাণ্ডিত্যের অহংকার, ধনের অহংকার — এই সব। ইনি (ডাক্তার) কিন্তু সরল।

    [ ( 22 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-123]

🔱🙏आत्मविश्वास जितना बढ़ेगा, उतना ही ज्ञान बढ़ेगा।🔱🙏

Knowledge is reciprocal to self-confidence

ज्ञान आत्मविश्वास का समानुपातिक है

knowledge is proportional to confidence

 'जतो आत्मविश्वास,ततो ज्ञान'  

"যত আত্মবিশ্বাস, তত জ্ঞান"

गिरीश (डाक्टर से) - महाशय, आप क्या कहते हैं ? टेढ़ों को क्या कभी ज्ञान हो सकता है ?

গিরিশ (ডাক্তারের প্রতি) — মহাশয়! কি বলেন? কুরুটের কি জ্ঞান হয়?

डाक्टर - राम कहो, ऐसा भी कभी हो सकता है ?

श्रीरामकृष्ण - केशव सेन कितना सरल था । एक दिन वहाँ (दक्षिणेश्वर कालीमन्दिर) गया था । अतिथिशाला देखकर दिन के चार बजे उसने पूछा, 'क्यों जी, अतिथि और कंगालों को कब भोजन दिया जायगा ?' विश्वास जितना बढ़ेगा, ज्ञान भी उतना ही बढ़ता जायगा । जो गौ चुन-चुनकर घास चरती है उसकी दूध की धार खूब नहीं फूटती, और जो गौ लता-पता, घास-फूस, चोकर-भूसा आदि सब कुछ पेट में भर लेती है, उसकी धार नहीं टूटती – घर्र-घर्र खूब दूध देती है ! (सब हँसते है)

"How genuinely simple Keshab Sen was! One day he visited the Kali temple at Dakshineswar. At about four in the afternoon, he went around to the guest house, where the poor are fed, and asked when the beggars would be provided. He didn't know that it was too late in the day to feed the poor. As a man's faith increases, so does his knowledge of God. The cow that discriminates too much about food gives milk in dribblets. But the cow that gulps down everything — herbs, leaves, grass, husks, straw — gives milk in torrents. (All laugh.)

শ্রীরামকৃষ্ণ — কেশব সেন কি সরল ছিল! একদিন ওখানে (রাসমণির কালীবাড়িতে) গিছিল। অতিথিশালা দেখে বেলা চারটের সময় বলে, হাঁগা অতিথি-কাঙালদের কখন খাওয়া হবে?“বিশ্বাস যত বাড়বে, জ্ঞানও তত বাড়বে। যে গরু বেছে বেছে খায় সে ছিড়িক ছিড়িক করে দুধ দেয়। যে গরু শাকপাতা, খোসা, ভুষি, যা দাও, গবগব করে খায়, সে গরু হুড়হুড় করে দুধ দেয়। (সকলের হাস্য)

"बालक की तरह जब तक विश्वास नहीं होता, तब तक ईश्वर नहीं मिलते । माता ने कह दिया है - वह (उषा दा?) तेरा दादा है, बस बालक को सोलहों आने विश्वास हो गया कि वह मेरा दादा है । माता ने कह दिया – उस कमरे में 'हौआ' रहता है, बालक सोलहों आने विश्वास करता है कि सचमुच उस कमरे में 'हौआ' रहता है । इस तरह बालक-जैसा विश्वास देखकर ही ईश्वर को दया उत्पन्न होती है । संसार-बुद्धि [Worldly intelligence-अहं बुद्धि] से वे नहीं मिलते ।"

"God cannot be realized without childlike faith. The mother says to her child, pointing to a boy, "He is your elder brother.' And the child at once believes that the boy is one hundred per cent his brother. Again, the mother says that a bogy man lives in a certain room, and the child believes one hundred per cent that the bogy man lives in the room. God bestows His grace on the devotee who has this faith of a child. God cannot be realized by the mind (अहं-बुद्धि) steeped in worldliness."

“বালকের মতো বিশ্বাস না হলে ঈশ্বরকে পাওয়া যায় না। মা বলেছেন, ‘ও তোর দাদা’ বালকের অমনি বিশ্বাস যে, ও আমার ষোল আনা দাদা। মা বলেছেন, ‘জুজু আছে।’ ষোল আনা বিশ্বাস যে, ও-ঘরে জুজু আছে। এইরূপ বালকের ন্যায় বিশ্বাস দেখলে ঈশ্বরের দয়া হয়। সংসার বুদ্ধিতে ঈশ্বরকে পাওয়া যায় না।”

डाक्टर (भक्तों से) - जो कुछ सामने आया वही खाकर गौ का दूध बनना अच्छी बात नहीं । मेरे एक गौ थी, उसके आगे इसी तरह सब कुछ डाल दिया जाता था । अन्त में मैं सख्त बीमार हो गया । तब सोचा कि इसका कारण क्या है । बड़ी ढूँढ़-तलाश के बाद पता चला कि गौ कितनी ही ऐसी-वैसी चीजें खा गयी थी । तब बड़ी आफत हुई, मुझे लखनऊ जाना पड़ा । अन्त तक बारह हजार रुपयों पर पानी फिर गया ! (सब लोग बड़े जोर से हँसे)

DOCTOR (to the devotees): "It is not right, however, to make the cow yield milk by feeding her all sorts of things. One of my cows was fed that way. I drank its milk and the result was that I became seriously ill. At first I was at a loss to know the cause. After much inquiry I found out that the cow had been given the wrong things to eat. I was in a great fix. I had to go to Lucknow for a change to get rid of the illness. I spent twelve thousand rupees. (Roars of laughter.)

ডাক্তার (ভক্তদের প্রতি) — গরুর কিন্তু যা তা খেয়ে দুধ হওয়া ভাল নয়। আমার একটা গরুকে ওইরকম যা তা খেতে দিত। শেষে আমার ভারী ব্যারাম। তখন ভাবলুম, এর কারণ কি? অনেক অনুসন্ধান করে টের পেলুম, গরু খুদ ও আরও কি কি খেয়েছিল। তখন মহা মুশকিল! লখনউ যেতে হল। শেষে বার হাজার টাকা খরচ! (সকলের হো-হো করিয়া হাস্য)

    [ ( 22 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-123]

🔱🙏कार्य और कारण का सम्बन्ध 🔱🙏

[बच्चे की कुकुर खाँसी का सम्बन्ध -गधी के दूध से , जो भींग गयी थी !]   

डॉक्टर सरकार - "किससे क्या हो जाता है, कुछ कहा नहीं जाता । पाकापाड़ा के बाबुओं के यहाँ सात साल की एक लड़की बीमार पड़ी । उसे कुकुर खाँसी (Whooping Cough) आती थी । में देखने के लिए गया । बीमारी के कारण का पता मुझे किसी तरह नहीं मिल रहा था । अन्त में पता चला, वह गधी भीग गयी थी जिसका दूध वह लड़की पीती थी ।" (सब हँसते हैं)

"It is very difficult always to find out the precise relationship between cause and effect. A child of seven months, in a wealthy family, had an attack of whooping-cough. I was called in for consultation. Even after much effort I could not find out the cause of the illness. At last I learnt that the child had been given the milk of an ass that had been drenched in the rain." (All laugh.)

“কিসে কি হয় বলা যায় না। পাকপাড়ার বাবুদের বাড়িতে সাত মাসের মেয়ের অসুখ করেছিল — ঘুঙরী কাশি (Whooping Cough) — আমি দেখতে গিছিলাম। কিছুতেই অসুখের কারণ ঠিক করতে পারি নাই। শেষে জানতে পারলুম, গাধা ভিজেছিল, যে গাধার দুধ সে মেয়েটি খেত।” (সকলের হাস্য)

श्रीरामकृष्ण - कहते क्या हो ? इमली के पेड़ के नीचे से मेरी गाड़ी निकल गयी थी, इससे मेरा हाजमा बिगड़ गया था ! (सब हँसे)

MASTER (to the devotees): "How strange'. It is like saying that a man has an acid stomach because he passed, in his coach, under a tamarind tree." (All laugh.)

শ্রীরামকৃষ্ণ — কি বল গো! তেঁতুলতলায় আমার গাড়ি গিছিল, তাই আমার অম্বল হয়েছে! (ডাক্তার ও সকলের হাস্য)

डाक्टर (हँसते हँसते) - जहाज के कप्तान को बड़े जोर से सिर दर्द हो रहा था । तब डाक्टरों ने सलाह करके जहाज को दवा (ब्लिस्टर) लगा दी । (सब हँसते हैं)

DOCTOR (with a smile): Let me tell you another. The captain of a ship had a bad headache. After consultation, the doctors on board had a blister applied to the side of the boat." (All laugh.)

ডাক্তার (হাসিতে হাসিতে) — জাহাজের ক্যাপ্তেনের বড় মাথা ধরেছিল। তা ডাক্তারেরা পরামর্শ করে জাহজের গায়ে বেলেস্তারা (blister) লাগিয়ে দিল। (সকলের হাস্য)

    [ ( 22 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-123]

*साधु संग की आवश्यकता तथा इन्द्रिय-विषय के भोग-सुखों का त्याग*

[निर्जनवास-गुरुगृहवास (कैम्प) की सदैव आवश्यकता है] 

[সাধুসঙ্গ ও ভোগবিলাস ত্যাগ ]

श्रीरामकृष्ण (डाक्टर से) - साधु संग की सदैव आवश्यकता है । रोग लगा ही हुआ है । साधुओं के उपदेश के अनुसार काम करना चाहिए । केवल सुनने से क्या होगा ? दवा का सेवन करना होगा और भोजन का भी परहेज रखना होगा । उस समय पथ्य आवश्यक है ।

MASTER (to the doctor): "For the seekers of God the constant company of holy men is necessary. The disease of worldly people has become chronic, as it were. They should carry out the instruction of holy men. What will they gain by merely listening to their advice? They must not only take the prescribed medicine, but also follow a strict diet. Diet is important."

শ্রীরামকৃষ্ণ (ডাক্তারের প্রতি) — সাধুসঙ্গ সর্বদাই দরকার। রোগ লেগেই আছে। সাধুরা যা বলেন, সেইরূপ করতে হয়। শুধু শুনলে কি হবে? ঔষধ খেতে হবে, আবার আহারের কটকেনা করতে হবে। পথ্যের দরকার

डाक्टर - पथ्य से ही बीमारी अच्छी होती है ।

DOCTOR: "Yes, it is the diet. more than anything else, that causes the cure."

ডাক্তার — পথ্যতেই সারে।

श्रीरामकृष्ण - वैद्य तीन तरह के होते हैं, उत्तम, मध्यम और अधम । जो वैद्य नाड़ी देखकर, 'दवा खाते रहना' कहकर चला जाता है, वह अधम वैद्य है, - रोगी ने दवा का सेवन किया या नहीं, इसकी खबर वह नहीं रखता । और जो वैद्य रोगी को दवा खाने के लिए बहुत तरह से समझाता है, मीठी बातों द्वारा कहता है – ‘अजी, दवा नहीं खाओगे तो भला अच्छे कैसे होगे ? भलेमानस, मैं खुद दवा पीसकर देता हूँ, लो खाओ’ वह मध्यम वैद्य है । जो वैद्य रोगी को किसी तरह दवा न खाते देखकर छाती पर घुटना रखकर जबरदस्ती दवा खिलाता है, वह उत्तम वैद्य है ।

MASTER: "There arc three classes of physicians: superior, mediocre, and inferior. The interior physician feels the patient's pulse, merely asks him to take medicine, and then goes away. He doesn't bother to find out whether the patient has followed his directions. The mediocre physician gently tries to persuade the patient to take the medicine. He says: 'Look here. How can you get well without medicine? Take the medicine, my dear. I am preparing it with my own hands.' But the superior physician follows a different method. If he finds the patient stubbornly refusing to swallow the medicine, he presses the patient's chest with his knee and forces the medicine down his throat."

শ্রীরামকৃষ্ণ — বৈদ্য তিনপ্রকার — উত্তম বৈদ্য, মধ্যম বৈদ্য, অধম বৈদ্য। যে বৈদ্য এসে নাড়ী টিপে ‘ঔষধ খেও হে’ এই কথা বলে চলে যায়, সে অধম বৈদ্য — রোগী খেলে কিনা, এ-খবর সে লয় না। আর যে বৈদ্য রোগীকে ঔষধ খেতে অনেক করে বুঝায়, মিষ্ট কথাতে বলে। ‘ওহে ঔষধ না খেলে কেমন করে ভাল হবে? লক্ষ্মীটি খাও, আমি নিজে ঔষধ মেড়ে দিচ্ছি খাও’, সে মধ্যম বৈদ্য। আর যে বৈদ্য রোগী কোন মতে খেলে না দেখে, বুকে হাঁটু দিয়ে জোর করে ঔষধ খাইয়ে দেয়, সে উত্তম বৈদ্য।

    [ ( 22 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-123]

🔱🙏होम्योपैथी डॉक्टर का इलाज ऑनलाइन सम्भव नहीं 🔱🙏

डाक्टर - दवा ऐसी भी होती है जिससे छाती पर घुटना रखने की जरूरत नहीं होती, जैसे होमियोपैथिक

DOCTOR: "There is a form of treatment that does not require the physician to press the patient's chest with his knee. For instance, homeopathy."

ডাক্তার — আবার এমন ঔষধ আছে, যাতে বুকে হাঁটু দিতে হয় না। যেমন হোমিওপ্যাথিক।

श्रीरामकृष्ण - उत्तम वैद्य अगर छाती पर घुटना रख भी दे तो कोई भय की बात नहीं । "वैद्य की तरह आचार्य भी तीन प्रकार के हैं । जो धर्मोपदेश देकर शिष्यों की फिर कोई खबर नहीं लेते, वे अधम आचार्य हैं । जो शिष्य के कल्याण के लिए बार बार उसे समझाते हैं, जिससे वह उपदेशों की धारणा कर सके, बहुत कुछ निवेदन और प्रार्थना करते हैं, प्यार दिखलाते हैं, वे मध्यम आचार्य हैं । और शिष्यों को किसी तरह अपनी बात न मानते हुए देखकर कोई कोई आचार्य जबरदस्ती उनसे काम लेते हैं, वे उत्तम श्रेणी के आचार्य हैं ।

[उत्तम श्रेणी के होम्योपैथी डॉक्टर यदि छाती पर घुटना रखकर बेलेघाटा,झारखण्ड का ऑनलाइन इलाज करे तो भय नहीं।]

MASTER: "There is no fear if a good physician presses the patient's chest with his knee. Like the physicians, there are three classes of religious teachers. The inferior teacher is content with merely giving spiritual instruction; he doesn't bother about the student after that. The mediocre teacher explains the teaching again and again for the good of the student, that he may assimilate it; he persuades the student through love and kindness to follow it. But the superior teacher uses force, if necessary, on the stubborn student.

শ্রীরামকৃষ্ণ — উত্তম বৈদ্য বুকে হাঁটু দিলে কোন ভয় নাই। “বৈদ্যের মতো আচার্যও তিনপ্রকার। যিনি ধর্ম উপদেশ দিয়ে শিষ্যদের আর কোন খবর লন না, তিনি অধম আচার্য। যিনি শিষ্যদের মঙ্গলের জন্য তাদের বারবার বুঝান, যাতে উপদেশগুলি ধারণা করতে পারে, অনেক অনুনয় বিনয় করেন, ভালবাসা দেখান — তিনি মধ্যম আচার্য। আর যখন শিষ্যেরা কোনও মতে শুনছে না দেখে, কোনও আচার্য জোর পর্যন্ত করেন, তাঁকে বলি উত্তম আচার্য।”

    [ ( 22 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-123]

🔱🙏स्त्री और संन्यास - संन्यास के सख्त नियम🔱🙏

[Woman and Sannyas — Strict Rules of Sannyas]

[স্ত্রীলোক ও সন্ন্যাসী — সন্ন্যাসীর কঠিন নিয়ম ]

(डाक्टर से) "संन्यासी के लिए आवश्यक है कामिनी और कांचन का त्याग करना । संन्यासी को स्त्रियों का चित्र भी न देखना चाहिए । स्त्री कैसी है, जानते हो ? - जैसा इमली का अचार । उसकी याद ही से लार टपक पड़ती है । उसे सामने नहीं लाना पड़ता ।

(To the doctor) "The renunciation of 'woman and gold' is meant for the sannyasi. He must not look even at the picture of a woman. Do you know what a woman is to a man? She is like a spiced pickle. The very thought of a pickle brings water to the tongue; it doesn't have to be brought near the tongue.

(ডাক্তারের প্রতি) — “সন্ন্যাসীর পক্ষে কামিনী-কাঞ্চনত্যাগ। স্ত্রীলোকের পট পর্যন্ত সন্ন্যাসী দেখবে না। স্ত্রীলোক কিরূপ জান? যেমন আচার তেঁতুল। মনে করলে, মুখে জল সরে। আচার তেঁতুল সম্মুখে আনতে হয় না।

"परन्तु यह आप (प्रवृत्ति मार्गी -गृहस्थों के लिए ?)  लोगों के लिए नहीं - यह संन्यासियों के लिए है । आप लोग जहाँ तक हो सके, स्त्री के साथ अनासक्त होकर रहिये - कभी कभी निर्जन में ईश्वर का ध्यान किया कीजिये । यहाँ वे(स्त्रियाँ) न रहें । ईश्वर पर विश्वास (अहं-रहित होने पर आत्मविश्वास बढ़ेगा)   और भक्ति होने पर, बहुत कुछ अनासक्त होकर रह सकोगे । दो-एक बच्चे हो जाने पर स्त्री और पुरुष में भाई-बहन जैसा व्यवहार रहना चाहिए, और ईश्वर से प्रार्थना करते रहना चाहिए जिससे इन्द्रिय-सुख की ओर मन न जाय- लड़के-बच्चे और न हों ।"

"But this renunciation is not meant for householders like you. It is meant only for Sannyasis. You may live among women, as far as possible in a spirit of detachment. Now and then you must retire into solitude and think of God. Women must not be allowed there. You can lead an unattached life to a great extent if you have faith in God and love for Him. After the birth of one or two children, a married couple should live as a brother and sister. They should then constantly pray to God that their minds may not run after sense pleasures anymore and that they may not have any more children."

“কিন্তু এ-কথা আপনাদের পক্ষে নয়, — এ সন্নাসীর পক্ষে। আপনারা যতদূর পার স্ত্রীলোকের সঙ্গে অনাসক্ত হয়ে থাকবে। মাঝে মাঝে নির্জনে গিয়ে ঈশ্বরচিন্তা করবে। সেখানে যেন ওরা কেউ না থাকে। ঈশ্বরেতে বিশ্বাস ভক্তি এলে, অনেকটা অনাসক্ত হয়ে থাকতে পারবে। দুই-একটি ছেলে হলে স্ত্রী-পুরুষ দুইজনে ভাই-বোনের মতো থাকবে, আর ঈশ্বরকে সর্বদা প্রার্থনা করবে, যাতে ইন্দ্রিয় সুখেতে মন না যায়, — ছেলেপুলে আর না হয়।”

[ ( 22 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-123]

अवतार वरिष्ठ की भक्ति से कर्तव्य समाप्त ? 

गिरीश (सहास्य, डाक्टर से) - आप तीन-चार घण्टे से यहाँ हैं रोगियों की चिकित्सा के लिए न जाइयेगा ?

GIRISH (to the doctor, with a smile): "You have already spent three or four hours here. What about your patients?"

গিরিশ (সহাস্যে, ডাক্তারের প্রতি) — আপনি এখানে তিন-চার ঘণ্টা রয়েছেন; কই, রোগীদের চিকিৎসা করতে যাবেন না?

डाक्टर - कहाँ रही डाक्टरी और कहाँ रहे रोगी ! ऐसे परमहंस से पाला पड़ा है कि मेरा तो सर्वस्व ही स्वाहा हुआ ! (सब हँसे)

DOCTOR: "Well, my practice and patients! I shall lose everything on account of your Paramahamsa!" (All laugh.)

ডাক্তার — আর ডাক্তারী আর রোগী! যে পরমহংস হয়েছে, আমার সব গেল! (সকলের হাস্য)

श्रीरामकृष्ण - देखो, कर्मनाशा नाम की (अर्थात कर्तव्यों का नाश करने वाली)  एक नदी है । उस नदी में डुबकी लगाना एक महाविपत्ति है । इससे कर्मों का नाश हो जाता है । फिर वह मनुष्य कोई काम नहीं कर सकता । (डाक्टर आदि सब हँसते हैं)

MASTER: "There is a river called the 'Karmanasa'. (Literally, "destroyer of duties.") It is very dangerous to dive into that river. If a man plunges into its waters he cannot perform any more action. It puts an end to his duties." (All laugh.)

শ্রীরামকৃষ্ণ — দেখ কর্মনাশা বলে একটি নদী আছে। সে নদীতে ডুব দেওয়া এক মহাবিপদ। কর্মনাশ হয়ে যায় — সে ব্যক্তি আর কোন কর্ম করতে পারে না। (ডাক্তার ও সকলের হাস্য)

डाक्टर (मास्टर, गिरीश तथा दूसरे भक्तों से) - मित्रो, तुम मुझे अपने में से ही एक समझो - यह बात मैं डाक्टर की हैसियत से नहीं कह रहा है; परन्तु यदि तुम मुझे अपना समझो तो मैं तुम्हारा ही हूँ ।

DOCTOR (to Girish, M., and the other devotees): "My friends, consider me as one of you. I am not saying this as a physician. But if you think of me as your own, then I am yours."

ডাক্তার (মাস্টার, গিরিশ ও অন্যান্য ভক্তদের প্রতি) — দেখ, আমি তোমাদেরই রইলুম। ব্যারামের জন্য যদি মনে কর, তাহলে নয়। তবে আপনার লোক বলে যদি মনে কর, তাহলে আমি তোমাদের।

श्रीरामकृष्ण (डाक्टर से) - एक है अहेतुकी भक्ति । यह अगर हो तो बहुत अच्छा है । यह अहेतुकी भक्ति प्रह्लाद में थी । उस तरह का भक्त कहता है, 'हे ईश्वर, मैं धन-मान, देह-सुख, यह कुछ नहीं चाहता । ऐसा करो कि तुम्हारे पादपद्यों में मेरी शुद्धा भक्ति हो ।'

MASTER (to the doctor): "There is such a thing as love for love's sake. It is very good if one can grow such love. Prahlada loved God for the sake of love. A devotee like Prahlada says: 'O God, I do not want wealth, fame, creature comforts, or any such thing. Please grant me the boon that I may have a genuine love for Thy Lotus Feet.'"

শ্রীরামকৃষ্ণ (ডাক্তারের প্রতি) — একটি আছে অহৈতুকী ভক্তি। এটি যদি হয়, তাহলে খুব ভাল। প্রহ্লাদের অহৈতুকী ভক্তি ছিল। সেরূপ ভক্ত বলে, হে ঈশ্বর! আমি ধন, মান, দেহসুখ, এ-সব কিছুই চাই না। এই কর যেন তোমার পাদপদ্মে আমার শুদ্ধাভক্তি হয়।

डाक्टर – हाँ, कालीतले में लोगों को प्रणाम करते हुए मैंने देखा है; उनके भीतर कामना ही कामना रहती है - कहीं मेरी नौकरी लगा दो, कहीं मेरा रोग अच्छा कर दो, यही सब ।

DOCTOR: "You are right, sir. I have seen people bowing down before the image of Kali. They seek worldly objects from the Goddess, such as a job, the healing of disease, and so forth.

ডাক্তার — হাঁ, কালীতলায় লোকে প্রণাম করে থাকে দেখেছি; ভিতরে কেবল কামনা — আমার চাকরি করে দাও, আমার রোগ ভাল করে দাও, — এই সব।

(श्रीरामकृष्ण से) "आपको जो बीमारी है, इससे लोगों से बातचीत करना बन्द कर देना होगा । हाँ, जब मैं जाऊँ, तब मेरे साथ बातचीत अवश्य कीजिये !" (सब हँसते हैं)

(To the Master) "The illness you are suffering from does not permit the patient to talk with people. But my case is an exception. You may talk with me when I am here." (All laugh.)

(শ্রীরামকৃষ্ণের প্রতি) — “যে অসুখ তোমার হয়েছে, লোকেদের সঙ্গে কথা কওয়া হবে না। তবে আমি যখন আসব, কেবল আমার সঙ্গে কথা কইবে।” (সকলের হাস্য)

श्रीरामकृष्ण - यह बीमारी अच्छी कर दो; उनका नाम-गुण-कीर्तन नहीं कर पाता हूँ ।

MASTER: "Please cure my illness. I cannot chant the name and glories of God."

শ্রীরামকৃষ্ণ — এই অসুখটা ভাল করে দাও। তাঁর নামগুণ করতে পাই না।

डाक्टर - ध्यान करने ही से उद्देश्य पूरा होता है ।

DOCTOR: "Meditation is enough."

ডাক্তার — ধ্যান করলেই হল।

श्रीरामकृष्ण - यह कैसी बात ? मैं एक ही ढर्रे पर क्यों चलूँ ? मैं कभी पूजा करता हूँ, कभी जप, कभी ध्यान, कभी उनका नाम लिया करता हूँ और कभी उनके गुण गा-गाकर नाचता हूँ ।

MASTER: "What do you mean? Why should I lead a monotonous life? I enjoy my fish in a variety of dishes: curried fish, fried fish, pickled fish, and so forth! Sometimes I worship God with rituals, sometimes I repeat His name, sometimes I meditate on Him, sometimes I sing His name and glories, sometimes I dance in His name."

শ্রীরামকৃষ্ণ — সে কি কথা! আমি একঘেয়ে কেন হব? আমি পাঁচরকম করে মাছ খাই। কখন ঝোলে, কখন ঝালে অম্বলে, কখন বা ভাজায়। আমি কখন পূজা, কখন জপ, কখন বা ধ্যান, কখন বা তাঁর নামগুণগান করি, কখন তাঁর নাম করে নাচি।

डाक्टर - मैं भी एक ढर्रे का आदमी नहीं हूँ ।

DOCTOR: "Neither am I monotonous."

ডাক্তার — আমিও একঘেয়ে নই।

     [ ( 22 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-123]

ईश्वर के अवतार में विश्वास होना और उनकी शरण में जाना दोनों आवश्यक हैं !   

[অবতার না মানিলে কি দোষ আছে? ]

श्रीरामकृष्ण - तुम्हारा लड़का, अमृत, अवतार नहीं मानता । परन्तु इसमें कोई दोष नहीं । ईश्वर को निराकार मानकर अगर उनमें विश्वास रहे तो भी वे मिलते हैं । और साकार मानकर अगर उनमें विश्वास हो तो भी वे मिलते हैं । उनमें विश्वास का रहना और उनकी शरण में जाना ये दोनों बातें आवश्यक हैं । आदमी तो अज्ञानी है, उससे भूल हो जाती है ।

MASTER: "Your son Amrita does not believe in the Incarnation of God. What is the harm in that? One realizes God even if one believes Him to be formless. One also realizes God if one believes that God has form. Two things are necessary for the realization of God: faith and self-surrender. Man is ignorant by nature. Errors are natural to him. 

শ্রীরামকৃষ্ণ — তোমার ছেলে অমৃত — অবতার মানে না। তাতে দোষ কি? ঈশ্বরকে নিরাকার বলে বিশ্বাস থাকলেও তাঁকে পাওয়া যায়। আবার সাকার বলে বিশ্বাস থাকলেও তাঁকে পাওয়া যায়। তাঁতে বিশ্বাস থাকা আর শরণাগত হওয়া। এই দুটি দরকার। মানুষ তো অজ্ঞান, ভুল হতেই পারে। 

एक सेर भर के लोटे में क्या कभी चार सेर दूध समा सकता है ? परन्तु चाहे जिस मार्ग में रहो, व्याकुल होकर उन्हें पुकारना चाहिए । वे अन्तर्यामी हैं - अन्तर की पुकार वे सुनेंगे ही । व्याकुल होकर चाहे साकारवादी के मार्ग से जाओ, चाहे निराकारवादी के मार्ग से, उन्हें ही पाओगे ।

Can a one-seer pot hold four seers of milk? Whatever path you may follow, you must pray to God with a restless heart. He is the Ruler of the soul within. He will surely listen to your prayer if it is sincere. Whether you follow the ideal of the Personal God or that of the Impersonal Truth, you will realize God alone, provided you are restless for Him. A cake with icing tastes sweet whether you eat it straight or sidewise.

একসের ঘটিতে কি চারসের দুধ ধরে? তবে যে পথেই থাকো, ব্যাকুল হয়ে তাঁকে ডাকা চাই। তিনি তো অন্তর্যামী — সে আন্তরিক ডাক শুনবেনই শুনবেন। ব্যাকুল হয়ে সাকারবাদীর পথেই যাও, আর নিরাকারবাদীর পথেই যাও, তাঁকেই (ঈশ্বরকেই) পাবে।

"मिश्री की रोटी चाहे सीधी तरह से खाओ या टेढ़ी करके, मीठी जरूर लगेगी । तुम्हारा लड़का अमृत बड़ा अच्छा है ।"

A cake with icing tastes sweet whether you eat it straight or sidewise.

“মিছরির রুটি সিধে করেই খাও, আর আড় করেই খাও; মিষ্ট লাগবে। তোমার ছেলে অমৃতটি বেশ।”

डाक्टर - वह आपका ही चेला है ।

DOCTOR: "He is your disciple."

ডাক্তার — সে তোমার চেলা।

श्रीरामकृष्ण (हँसकर) - कोई साला मेरा चेला-वेला नहीं है । मैं खुद सब का चेला हूँ । सब ईश्वर के बच्चे हैं, ईश्वर के दास हैं - मैं भी ईश्वर का बच्चा हूँ, ईश्वर का दास हूँ । "चन्दा मामा सब का मामा है ।" (सब हँसते हैं)

MASTER (with a smile): "There is not a fellow under the sun who is my disciple. On the contrary, I am everybody's disciple. All are the children of God. All are His servants. I too am a child of God. I too am His servant. 'Uncle Moon' is every child's uncle!"

শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে, ডাক্তারের প্রতি) — আমার কোন শালা চেলা নাই। আমিই সকলের চেলা! সকলেই ঈশ্বরের ছেলে, সকলেই ঈশ্বরের দাস — আমিও ঈশ্বরের ছেলে; আমিও ঈশ্বরের দাস।“চাঁদা মামা সকলেরই মামা।” (সভাস্থ সকলের আনন্দ ও হাস্য।)

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द्वे वाव ब्रह्मणों रूपे मूर्तं चैवामूर्तं च 

(बृहदारण्यकोपनिषद २. ३.१.) 

प्रश्न :परमात्मा  निराकार है नाम ,रूप ,गुण ,आकार की सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता। ब्रह्म तो नाम रूप गुणों से न्यारा है , तब क्या यह माना  जाय कि कृष्ण ,राम ,शिव आदि भगवान् नहीं हो सकतें हैं क्योंकि ये तो रूपाकार लिए हैं। 

उत्तर : एक ही परमसत्ता है जो सर्वशक्तिमान परमात्मा कहाता है। उसी ने यह नाम रूपात्मक अनेकरूपा  सृष्टि रची है। जब परमात्मा अनन्त रूपाकारों में इस संसार की रचना कर सकता है तब क्या अपनी स्वयं की  रूपाकृति नहीं गढ़ सकता ?और यदि हम कहें कि वह ऐसा नहीं कर सकता फिर हमें यह भी मानना पड़ेगा कि वह बाकी सब काम कर सकता है लेकिन अपनी रूपाकृति नहीं रच सकता यानी तब उसकी एक शक्ति कम हो जाएगी वह सर्वशक्तिमान नहीं रह जाएगा। लेकिन यदि हम ऐसा मानते ही हैं कि नहीं वह सर्वशक्तिमान तो है फिर यह भी मान लेना पड़ेगा वह स्वयं भी किसी रूप प्रगट हो सकता है। 

"God is formless and All-pervading, but He also manifests in a personal form ."

In the Vedic tradition, we are fortunate that we have descriptions of the personal forms of God, such as Shree Krishan, Shree Ram, Lord Shiv, Lord Vishnu, etc.

सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा॥

अगुन अरूप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई॥

बालकाण्ड (रामचरित मानस ) 

भावार्थ-

सगुण और निर्गुण में कुछ भी भेद नहीं है - मुनि, पुराण, पंडित और वेद सभी ऐसा कहते हैं। जो निर्गुण, अरूप (निराकार), अलख (अव्यक्त) और अजन्मा है, वही भक्तों के प्रेमवश सगुण हो जाता है।

क हरि अनंत हरि कथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥

रामचंद्र के चरित सुहाए। कलप कोटि लगि जाहिं न गाए॥

।।बालकाण्ड।।

श्री हरि विष्णु अनंत हैं उनका कोई पार नहीं पा सकता और इसी प्रकार उनकी कथा भी अनंत है। सब संत लोग उसे बहुत प्रकार से सुनते और सुनाते हैं। श्री रामचन्द्रजी के सुंदर चरित्र करोड़ों कल्पों में भी गाए नहीं जा सकते।

यह प्रसंग मैं कहा भवानी। हरिमायाँ मोहहिं मुनि ग्यानी॥

प्रभु कौतुकी प्रनत हितकारी। सेवत सुलभ सकल दुखहारी॥

शिवजी कहते हैं कि हे पार्वती! मैंने यह बताने के लिए इस प्रसंग को कहा कि ज्ञानी मुनि भी भगवान की माया से मोहित हो जाते हैंप्रभु कौतुकी व लीलामय हैं और शरणागत का हित करने वाले हैं। वे सेवा करने में बहुत सुलभ और सब दुःखों के हरने वाले हैं।

सुर नर मुनि कोउ नाहिं जेहि न मोह माया प्रबल।

अस बिचारि मन माहिं भजिअ महामाया पतिहि॥

देवता, मनुष्य और मुनियों में ऐसा कोई नहीं है, जिसे भगवान की महान बलवती माया मोहित न कर दे। मन में ऐसा विचारकर उस महामाया के स्वामी श्री रामजी का भजन करते रहना चाहिए।

लेकिन साथ ही साथ परमात्मा निराकार (अरूप ) है। ब्रह्म है। वह सब जगह मौजूद है सारी सृष्टि में व्यापक है। उसके इस सर्वव्यापकत्व को बनाए रखने के लिए उसका निर्गुण या निराकार होना भी ज़रूरी है। 

 जीवात्मा भी इन दो स्वरूपों में प्रकट है। आत्मा निराकार है तथा गोचर शरीर भी धारण करता है, एक नहीं अनेक बार। फिर परमात्मा तो सर्व आत्माओं  का स्वामी है वह क्यों नहीं ऐसा कर सकता ? इसीलिए वेद परमात्मा के दोनों स्वरूपों की पुष्टि करते हैं :-  द्वे वाव ब्रह्मणों रूपे मूर्तं चैवामूर्तं च (बृहदारण्यकोपनिषद २. ३.१.)

>>>अवतार तथा जीव :प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है ! लेकिन अन्तःप्रकृति =अहंकार,(मन) बाह्य प्रकृति =शरीर (इन्द्रिय) दोनों पर संयम नहीं होने के कारण विश्वास नहीं होता। अहंकार चूर्ण होने से ही परमात्मा के दोनों रूपों पर विश्वास होता है !  (बिबू विश्वास कहते थे - तुमको ठाकुर -माँ-स्वामीजी से प्रेम कैसे हुआ ? तुमको तो कोई आर्थिक कष्ट नहीं है ?कई जन्मों के बाद ?..... ) "हरि ॐ" शब्द रूप दोनों स्वरूपों की स्मृति है "हरि" सगुन रूप विष्णु हैं तो "ॐ" निराकार ब्रह्म हैं। ॐ शान्ति ! 

हरि ॐ तत्सत् (हरि ॐ तत्सत्)

हरि ॐ तत्सत् हरि ॐ तत्सत्, हरि ॐ तत्सत् हरि ॐ तत्सत्।

महामन्त्र है तू जपा कर इसी को, महामन्त्र है तू जपा कर इसी को।।

हरि ॐ तत्सत् हरि ॐ तत्सत्, हरि ॐ तत्सत् हरि ॐ तत्सत्।


दुष्टों ने लोहे का खम्भा रचा था, तो निर्दोष प्रह्लाद क्यों कर बचा था।

विनय एक स्वर से करी थी उसी ने।।

हरि ॐ तत्सत् हरि ॐ तत्सत्, हरि ॐ तत्सत् हरि ॐ तत्सत्।

महामन्त्र है तू जपा कर इसी को, महामन्त्र है तू जपा कर इसी को।।


सभा में खड़ी द्रौपदी रो रही थी, लज्जा के आँसुओं से मुख धो रही थी।

बढ़ा चीर उसमें यही रंग रंगा था।।

हरि ॐ तत्सत् हरि ॐ तत्सत्, हरि ॐ तत्सत् हरि ॐ तत्सत्।

महामन्त्र है तू जपा कर इसी को, महामन्त्र है तू जपा कर इसी को।।


लगी आग लंका में हलचल मचा था, तो घर फिर विभीषण का कैसे बचा था।

लिखा था यही मन्त्र कुटिया में उसके।।

हरि ॐ तत्सत् हरि ॐ तत्सत्, हरि ॐ तत्सत् हरि ॐ तत्सत्।

महामन्त्र है तू जपा कर इसी को, महामन्त्र है तू जपा कर इसी को।।


हलाहल का मीरा ने प्याला पिया था, तो विष से वो अमृत कैसे हुआ था।

दीवानी भी मीरा इसी नाम की थी।।

हरि ॐ तत्सत् हरि ॐ तत्सत्, हरि ॐ तत्सत् हरि ॐ तत्सत्।

महामन्त्र है तू जपा कर इसी को, महामन्त्र है तू जपा कर इसी को।।


कहो नाथ शबरी के घर कैसे आये, आये तो फिर बेर जूठे क्यों खाये।

जबाँ में यही था हृदय में यही था।।

हरि ॐ तत्सत् हरि ॐ तत्सत्, हरि ॐ तत्सत् हरि ॐ तत्सत्।

महामन्त्र है तू जपा कर इसी को, महामन्त्र है तू जपा कर इसी को।।


हरि ॐ की एक माला बनाकर, जपो रात दिन अपने चित्त को लगाकर।

करो साधना हर समय तुम इसी की।।

हरि ॐ तत्सत् हरि ॐ तत्सत्, हरि ॐ तत्सत् हरि ॐ तत्सत्।

महामन्त्र है तू जपा कर इसी को, महामन्त्र है तू जपा कर इसी को।।


महर्षि वाल्मीकि द्वारा लिखित "योग वशिष्ठ"  में कहा गया है ~  देहाद्यभिमानरहितः पुमान् पञ्जरात्केसरी सिंह इव जगज्जालान्निर्गच्छति।।"

येन केनचिद् आच्छन्नो येन केनचिद् आशितः ।

यत्र क्वचन शायी च स सम्राड् इव राजते ॥६।१२२।१॥

अब वह जीवन मुक्त योगी, चाहे वह किसी भी तरह से कपड़े पहने, और चाहे वह कितना भी अच्छा या खराब खाना खाए, और गुरुपूर्णिमा 4.7.2023 की मध्य रात्रि में १२ से ३ बजे तक गुजरात के गवर्नमेंट कॉलेज में सड़क पर तकिये पर अथवा तौलिया पर  जहां कहीं पर भी अपना सिर रखकर सोये या लेटा रहे;  हर परिस्थिति में वह ब्रह्मविद (समाधि से लौटा आत्मज्ञानी) पूर्ण आनन्द परम् शान्ति की अवस्था में इस प्रकार विश्राम लेता है - मानो वही विश्व का सबसे महान  सम्राट हो।

वर्णधर्माश्रमाचारशास्त्रयन्त्रणयोज्झितः ।

निर्गच्छति जगज्जालात्पञ्जरादिव केसरी ॥

(6.122.2)  

[वर्ण-धर्म, आश्रम, आचार-शास्त्र-यन्त्रणया उज्झितः । निर्गच्छति जगज्.जालात् पञ्जराद् इव केसरी ॥६।१२२।२॥

 वर्णधर्माश्रमाचारशास्त्रयन्त्रणया वर्णा ब्राह्मणादयः। Varnas :  Brahmins and others are governed by varna, dharma, asrama, customs and scriptures.

 आश्रमाः ब्रह्मचर्यादयः। Ashrams, such as celibacy. (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास आदि आश्रमों के लिए बने शास्त्रीय नियमों के बंधनों से) 

" वर्णधर्माणामाश्रमाचाराणां च यानि शास्त्राणि बोधकानि तेषां या यन्त्रणा नियमरूपा मर्यादा तया उज्झितो;  देहाद्यभिमानरहितः पुमान् पञ्जरात्केसरी सिंह इव जगज्जालान्निर्गच्छति।।"

A man without pride in body and other things comes out of the cage like a lion, and a lion out of the net of the world.

वह जीवनमुक्त योगी (living liberated yogi- ज्ञानी- ब्रह्म विद, नेता, पैगम्बर) जिसने इस आत्म-ज्ञान को प्राप्त कर लिया है, 'शास्त्र की शक्ति' से (battery- गीता,उपनिषद ब्रह्मसूत्र रूपी तोपखाना या दमदमा साहब की शक्ति से) वह अपनी जाति और पंथ के लिए बनी व्यवस्था के सभी बंधनों और अपने ऑर्डर के (Order- कोटि, प्रवृत्ति या निवृत्ति मार्ग के लिए बनी अलग-अलग नियमों और शास्त्रीय आदेशों और निषेधों से परे हो जाता है) संस्कारों और प्रतिबंधों को तोड़ देता है; और समाज के जाल से (लोग क्या कहेंगे ? के जाल से) उसी प्रकार मुक्त हो जाता है, जैसे शेर अपने पिंजड़े को तोड़ देता है (-अर्थात सिंह-शावक जब भेंड़ की तरह घास खाना छोड़ देता है), और हर जगह (M/F मित्र-शत्रु के बीच) बेलगाम घूमता है। 

देहाद्यभिमानरहितः पुमान् पञ्जरात्केसरी सिंह इव जगज्जालान्निर्गच्छति।। A man without pride in his body and other things comes out of the cage like a lion and a lion out of the net of the world. He breaks down all the bonds of his caste and creed and the rites and restraints of his order; by the battery of the sastra; and roves freed from the snare of society, as a lion breaking loose from his cage, and roaming rampant everywhere.

[" ज्ञान होने पर मनुष्य अवाक् हो जाता है, आँखें मुँद जाती है और आँसू बह चलते हैं। तब भक्ति की आवश्यकता होती है" ---क्योंकि जो साकार रूप से (मित्र-शत्रु, Bn-Ap-Bh , आदि के रूप में ) दिख रहे हैं, वे सभी निराकार ब्रह्म (नित्य -ठाकुर, माँ, स्वामीजी की लीला हैं । तुम्हारे अपने जीवन में जो कुछ घटित हो रहा है, उसके (मन में पहले ही दिख पड़ने से भी) 'तत्काल प्रतिक्रिया' मत करो और सभी घटनाओं का 'साक्षी' बने रहो -और माँ से कहके निश्चिन्त हो जाओ !! 'दासोअहं'--के भाव से जो कुछ करना अनिवार्य लगे वही करो, इसमें ही तुम्हारा कल्याण है! 22 -23 का Trading ~ PL दासभाव से (पंचानन भाव से ) देखो, मालिक भाव से या पार्टनर भाव से नहीं।]

" मन रे ! परस हरि के चरण, सुलभ सीतल कमल कोमल, त्रिविधा ज्वाला हरण। " 

मनोपदेश ।

(श्री रज्जबवाणी पद ~राग कान्हड़ा - गायन समय : रात्रि १२ से ३/ त्रिताल)

सन्त श्री रज्जब निम्न पद  में अपने मन को ही उपदेश कर रहे हैं, और कह रहे है  -

अरे मन करि रे सूक्षम त्याग,

सदगुरु शब्द समझि उर अंतरि, मेल्हि मनोरथ माग ॥ टेक ॥

अर्थात  अरे मन ! सूक्ष्म पाशविक संस्कारों को त्याग दे ! (अर्थात कामिनी-कांचन में आसक्ति, काम, क्रोध, लोभ, मद , मात्सर्य आदि दुर्गुणों को , मन में छुपा शत्रु समझकर उन शत्रुओं को) त्याग दे !)  और सदगुरु के शब्दों को [ 'रामो -कृष्णो', से अवतार वरिष्ठ को] हृदय में समझकर मनोरथों का मार्ग छोड़ दे

आन अनेक चिंत तजि चेतन, परम पुरुष सौं लाग ।

सकल ज्ञान गुण समझ सयाने, थांभि दशों दिशि बाग ॥१॥

अन्य अनेकों का चिंतन त्यागकर (घर-परिवार-शत्रु-मित्र का चिंतन त्यागकर)  परम पुरुष चेतन प्रभु (अवतार वरिष्ठ,नेता वरिष्ठ, या C-IN-C नवनीदा)  के चिंतन में लग । हे चतुर ! संपूर्ण दैवी गुण (चरित्र के 24 गुणों को अभिव्यक्त कर, और 12 दोषों को निकाल दे) और ज्ञान (अहंब्रह्मास्मि)  के प्रभाव को समझ कर दशों दिशाओं में भ्रमण करने की प्रवृति रूप बागडोरि  (मन रूपी लगाम) को रोक अर्थात भ्रमण करना छोड़ ।

स्वर्ग, पताल जंजाल छाड़ि मन, तोरि (तोड़ि) जगत सों ताग ।

अकलि अनंत विलोकि विचार हु, विविध वासना दाग ॥२॥

अरे मन ! स्वर्ग, पाताल आदि रूप जगत-जाल को त्याग दे । जगत् से संबन्ध करना रूप धागा तोड़ दे । नाना प्रकार की भोगवासनाओं को जलाकर, बुद्धि द्वारा विचार करके (नित्य-लीला विवेक करके) अनन्त ब्रह्म का साक्षात्कार कर ।

स्वप्ने की संपति करि संग्रह, सब समझेगा जाग ।

जन रज्जब जगदीश भजनकर, जे शिर मोटे भाग ॥३॥६॥

जैसे प्राणी स्वप्न में धन राशि संग्रह करके प्रसन्न होता है किंतु जागने पर उसे मिथ्या समझता है, वैसे ही ज्ञान जाग्रत में आयेगा तब (जब माँ की कृपा से समाधि से लौटकर पुनः शरीर में व्युत्थान होगा) तू भी सब को मिथ्या समझेगा । यदि अपने भाग्य को विशाल बनाना चाहता है, तो जगदीश्वर का भजन कर ।

[राग दरबारी कान्हड़ा यह धारणा प्रचिलित है कि यह राग तानसेन द्वारा बनाया हुआ राग है। यह राग शांत और गम्भीर वातावरण पैदा करता है।

 साभार @@@http://www.tanarang.com/hindi/darbari_kanada_hindi.htm

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