मंगलवार, 30 मई 2023

🔱🙏परिच्छेद~119 [ ( 9 अगस्त 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-119] 🔱🙏

 *परिच्छेद- ११९.*

*श्रीरामकृष्ण के आध्यात्मिक अनुभव*

(१)

[ ( 9 अगस्त, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-119] 

🔱🙏द्विज तथा द्विज के पिताजी । मातृऋण तथा पितृऋण🔱🙏

[দ্বিজ, দ্বিজের পিতা ও ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ — মাতৃঋণ ও পিতৃঋণ ]

श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर मन्दिर में अपने उसी कमरे में राखाल, मास्टर आदि भक्तों के साथ बैठे हुए हैं । दिन के ३-४ बजे का समय होगा ।

SRI RAMAKRISHNA was sitting in his room at Dakshineswar. Rakhal, M., Dwija and his father, and other devotees were present. It was about four o'clock in the afternoon.

শ্রীরামকৃষ্ণ দক্ষিণেশ্বর-মন্দিরে সেই পূর্বপরিচিত ঘরে রাখাল, মাস্টার প্রভৃতি ভক্তসঙ্গে বসিয়া আছেন। বেলা তিনটা-চারিটা। দশ-বারো দিন হইল, ২৮শে জুলাই মঙ্গলবার, তিনি কলিকাতায় শ্রীযুক্ত নন্দলাল বসুর বাটীতে ঠাকুরদের ছবি দেখিতে আসিয়া বলরাম প্রভৃতি অন্যানা ভক্তদের বাড়ি শুভাগমন করিয়াছিলেন।

[ ( 9 अगस्त, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-119] 

🙏प्रभु श्रीरामकृष्ण अपने अनुयायियों को "ज्ञानि भक्त" के रूप में देखना चाहते हैं🙏  

श्रीरामकृष्ण के गले की बीमारी की जड़ जमने लगी है । तथापि दिन भर वे भक्तों की मंगलकामना करते रहते हैं । किस तरह वे संसार में बद्ध न हो, किस तरह उनमें ज्ञान और भक्ति हों - ईश्वर की प्राप्ति हो, इसी की चिन्ता किया करते हैं । 

Sri Ramakrishna was not well. It was the beginning of the illness subsequently diagnosed as the fatal cancer. But this did not disturb the serenity of his mind. Day and night he had only one thought, and that was the spiritual welfare of his disciples. He was guiding them toward the attainment of God. 

He encouraged them constantly to cultivate knowledge and devotion and warned them of the snares of "woman and gold". He was completely indifferent to his own illness and devoted himself whole-heartedly to the fulfilment of his earthly mission.

ঠাকুরের গলার অসুখের সূত্রপাত হইয়াছে। তথাপি সমস্ত দিন কেবল ভক্তদের মঙ্গলচিন্তা করিতেছেন — কিসে তাহারা সংসারে বদ্ধ না হয়, — কিসে তাহাদের জ্ঞান-ভক্তিলাভ হয়; — ঈশ্বরলাভ হয়।

श्रीयुत राखाल वृन्दावन से आकर कुछ दिन घर पर थे । आजकल वे श्रीरामकृष्ण के पास रहते हैं । लाटू, हरीश और रामलाल भी श्रीरामकृष्ण के पास रहते हैं ।

After returning from Vrindavan Rakhal had spent a few days at home. Now he was staying with the Master. Latu, Harish, and Ramlal were also staying at the temple garden.

শ্রীযুক্ত রাখাল বৃন্দাবন হইতে আসিয়া কিছুদিন বাড়িতে ছিলেন। আজকাল তিনি, লাটু, হরিশ ও রামলাল ঠাকুরের কাছে আছেন।

श्रीमाताजी (श्रीरामकृष्ण की धर्मपत्नी) भी कई महीने हुए श्रीरामकृष्ण की सेवा के लिए देश से आयी हुई हैं । नौबतखाने में रहती हैं । शोकातुरा ब्राह्मणी कई रोज से उनके पास रहती है

শ্রীশ্রীমা কয়েকমাস হইল, ঠাকুরের সেবার্থ দেশ হইতে শুভাগমন করিয়াছেন। তিনি নবতে আছেন। ‘শোকাতুরা ব্রাহ্মণী’ আসিয়া কয়েকদিন তাঁহার কাছে আছেন।

द्विज की उम्र सोलह साल की होगी । उनकी माता के निधन के बाद उनके पिता ने दूसरा विवाह कर लिया है । द्विज मास्टर के साथ प्राय: श्रीरामकृष्ण के पास आया करते हैं । परन्तु उनके पिता को इससे बड़ा असन्तोष है ।

Dwija was about sixteen years old. After the death of his mother, his father had married a second time. Dwija often accompanied M. to Dakshineswar; but his father did not approve of it.

দ্বিজর বয়স ষোল বছর হইবে। তাঁহার মাতার পরলোকপ্রাপ্তির পর পিতা দ্বিতীয় সংসার করিয়াছেন। দ্বিজ — মাস্টারের সহিত প্রায় ঠাকুরের কাছে আসেন, — কিন্তু তাঁহার পিতা তাহাতে বড় অসন্তুষ্ট।

श्रीरामकृष्ण के पास द्विज, द्विज के पिता और भाई, मास्टर आदि बैठे हुए हैं । आज ९ अगस्त है, १८८५ ।

ঠাকুরের কাছে দ্বিজ, দ্বিজর পিতা ও ভাইরা, মাস্টার প্রভৃতি বসিয়া আছেন। আজ ৯ই অগস্ট, ১৮৮৫ খ্রী: (২৫শে শ্রাবণ, ১২৯২, রবিবার, কৃষ্ণা চতুর্দশী)।

द्विज के पिता श्रीरामकृष्ण के दर्शन के लिए आयेंगे, यह बात उन्होंने बहुत दिन पहले ही कही थी। आज इसीलिए आये भी हैं । वे कलकत्ते के किसी विदेशी बनिये के ऑफिस के मैनेजर हैं ।

Dwija's father had for a long time been speaking of visiting Sri Ramakrishna. Today he had come to Dakshineswar. He was the manager of a business firm in Calcutta and had passed his examination in law.

দ্বিজর পিতা অনেকদিন ধরিয়া ঠাকুরকে দর্শন করিতে আসিবেন বলিয়াছিলেন। তাই আজ আসিয়াছেন। কলিকাতায় সওদাগরী অফিসের তিনি একজন কর্মচারী — ম্যানেজার। হিন্দু কলেজে ডি. এল. রিচার্ডসনের কাছে পড়িয়াছিলেন ও হাইকোর্টের ওকালতি পাস করিয়াছিলেন।

[ ( 9 अगस्त, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-119] 

🔱🙏चैतन्य (आध्यात्मिक चेतना) प्राप्त करके संसार में रहो 🔱🙏

[होश में आने के बाद (आत्मबोध-आत्मश्रद्धा और विवेक जाग्रत होने के बाद) संसार में रहो !] 

চৈতন্য লাভের পর সংসারে গিয়ে থাক।

[One should  live in the world after attaining spiritual consciousness.]

श्रीरामकृष्ण (द्विज के पिता से) - आपका लड़का यहाँ आता है, इससे आप कुछ और न सोचियेगा। 

MASTER (to Dwija's father): "Please don't mind your children's coming here.

শ্রীরামকৃষ্ণ (দ্বিজর পিতার প্রতি) — আপনার ছেলেরা এখানে আসে, তাতে কিছু মনে করবে না।

"मैं तो कहता हूँ, चैतन्य प्राप्त करके संसार में रहो । बड़ी मेहनत के बाद अगर कोई सोना पा ले, तो वह उसे चाहे मिट्टी में गाड़ रखे, सन्दूक में बन्द कर रखे, अथवा पानी में रखे, सोने का इससे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं ।

"I ask people to live in the world after the awakening of their spiritual consciousness. After extracting gold through hard labour, a man may keep it under earth or in a box or under water. The gold is not affected.

“আমি বলি, চৈতন্যলাভের পর সংসারে গিয়ে থাক। অনেক পরিশ্রম করে যদি কেউ সোনা পায়, সে মাটির ভিতর রাখতে পারে — বাক্সের ভিতরও রাখতে পারে, জলের ভিতরও রাখতে পারে — সোনার কিছু হয় না।

"मैं कहता हूँ, अनासक्त होकर संसार करो । हाथों में तेल लगाकर कटहल काटो, तो हाथ में दूध न चिपकेगा ।

"I ask people to live in the world in a spirit of detachment. If you break the jack-fruit after rubbing oil on your hands, its sticky juice will not smear them.

“অমি বলি, অনাসক্ত হয়ে সংসার কর। হাতে তেল মেখে কাঁঠাল ভাঙ্গ — তাহলে হাতে আঠা লাগবে না।

[ ( 9 अगस्त, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-119] 

🔱🙏कच्चे 'मैं' को संसार में रखने पर मन मलिन हो जाता है 🔱🙏 

[मोहजनित मल लाग बिबिध बिधि कोटिहु जतन न जाई। 

जनम जनम अभ्यास-निरत चित, अधिक अधिक लपटाई ॥ 

-विनय पत्रिका, सन्त तुलसीसाद  ]

"कच्चे 'मैं' को संसार में रखने पर मन मलिन हो जाता है । ज्ञानलाभ करके संसार में रहना चाहिए।

'If the 'unripe' mind dwells in the world, the mind gets soiled. One should first attain knowledge and then live in the world.

“কাঁচা মনকে সংসারে রাখতে গেলে মন মলিন হয়ে যায়। জ্ঞানলাভ কর তবে সংসারে থাকতে হয়।

"पानी में दूध को डाल रखने पर दूध नष्ट हो जाता है । परन्तु उसी का मक्खन निकालकर पानी में डालने पर फिर कोई झंझट नहीं रह जाती ।"

"If you put milk in water the milk is spoiled. But this will not happen if butter, churned from the milk, is put in water."

“শুধু জলে দুধ রাখলে দুধ নষ্ট হয়ে যায়। মাখন তুলে জলের উপর রাখলে আর কোন গোল থাকে না।”

द्विज के पिता - जी हाँ ।

DWIJA'S FATHER: "That is true, sir."

দ্বিজর পিতা — আজ্ঞা, হাঁ।

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - आप जो इन्हें डाँटते हैं, इसका मतलब मैं समझता हूँ । आप इन्हें डरवाते हैं । ब्रह्मचारी ने साँप से कहा, 'तू तो बड़ा मूर्ख है ! मैंने तुझे बस काटने ही के लिए मना किया था, फुफकारने के लिए नहीं । तूने अगर फुफकारा होता तो तेरे शत्रु तुझे मार न सकते ।' इसी तरह आप जो लड़कों को डाँटते हैं, वह केवल फुफकारना ही है । (द्विज के पिता हँस रहे हैं)

MASTER (smiling): "I know why you scold your children. You only threaten them. The brahmachari said to the snake: 'You are a fool indeed! I forbade you to bite but not to hiss. Your enemies would not have beaten you, if only you had hissed at them.' Your scolding of the children is really a hissing. (Dwija's father smiles.)

শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — আপনি যে এদের বকেন-টকেন, তার মানে বুঝেছি। অপনি ভয় দেখান। ব্রহ্মচারী সাপকে বললে, ‘তুই তো বড় বোকা! তোকে কামড়াতেই আমি বারণ করেছিলাম। তোকে ফোঁস করতে বারণ করি নাই! তুই যদি ফোঁস করতিস তাহলে তোর শত্রুরা তোকে মারতে পারত না।’ আপনি ছেলেদের বকেন-ঝকেন, — সে কেবল ফোঁস করেন।[দ্বিজর পিতা হাসিতেছেন]।

 "लड़के का अच्छा होना (ठाकुर का भक्त होना) पिता के पुण्य के लक्षण हैं । अगर कुएँ का पानी अच्छा निकला तो वह कुएँ के मालिक के पुण्य का चिह्न है ।

"A good son is an indication of his father's spiritual nature. If good water comes out when a reservoir is dug, it only indicates the virtue of the owner.

“ভাল ছেলে হওয়া পিতার পুণ্যের চিহ্ন। যদি পুষ্করিণীতে ভাল জল হয় — সেটি পুষ্করিণীর মালিকের পুণ্যের চিহ্ন।

"बच्चे को आत्मज (स्वयं का पुनर्जन्म-'the self reborn') कहते हैं, तुममें और बच्चे में कोई भेद नहीं है। एक रूप से बच्चा तुम ही हुए हो। एक रूप से तुम विषयी हो, ऑफिस का काम करते हो, संसार का भोग करते हो, एक दूसरे रूप से तुम्हीं भक्त हुए हो - अपने सन्तान के रूप से। मैंने सुना था , तुम घोर विषयी हो। परन्तु बात ऐसी तो नहीं है। (सहास्य) यह सब तो तुम जानते ही हो। परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि शायद तुम बहुत अधिक सतर्क (circumspect) हो, इसीलिए मैं जो कुछ कहता हूँ, उस पर तुम सिर हिला-हिलाकर अपनी राय देते हो। (द्विज के पिता मुसकराते हैं)  

"A son is called Atmaja, 'the self reborn'. There is no difference between you and your son. In one way you yourself are reborn as vour son. In one sense you are a worldly person, working in a business office and enjoying worldly life; in another sense you are a devotee of God, in the form of your son. I heard that you were a very worldly person; but now I find it isn't so. (Smiling) You know all this. I understand that you are very circumspect. Perhaps that is why you are nodding your assent to what I am saying, (Dwija's father smiles.)

“ছেলেকে আত্মজ বলে। তুমি আর তোমার ছেলে কিছু তফাত নয়। তুমি একরূপে ছেলে হয়েছ। একরূপে তুমি বিষয়ী, আফিসের কাজ করছ, সংসারে ভোগ করছ; — আর একরূপে তুমিই ভক্ত হয়েছ — তোমার সন্তানরূপে। শুনেছিলাম, আপনি খুব ঘোর বিষয়ী। তা তো নয়! (সহাস্যে) এ-সব তো আপনি জানেন। তবে আপনি নাকি আটপিটে, এতেও হুঁ দিয়ে যাচ্ছেন। [দ্বিজর পিতা ঈষৎ হাসিতেছেন।]

" यहाँ आने पर तुम क्या हो, यह ये लोग समझ सकेंगे। पिता का स्थान कितना ऊँचा है ! माता-पिता को धोखा देकर जो धर्म करना चाहता है उसे क्या खाक हो सकता है ? 

"If your children visit this place, they will be able to know what you really are. How precious one's father is! If a person deceives his father and mother in order to seek religion, he gets only worthless trash.

“এখানে এলে, আপনি কি বস্তু তা এরা জানতে পারবে। বাপ কত বড় বস্তু! বাপ-মাকে ফাঁকি দিয়ে যে ধর্ম করবে, তার ছাই হবে!”

[ ( 9 अगस्त, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-119] 

🙏'सांसारिक कर्तव्यों को पूरा करो और साथ ही अपने मन को ईश्वर में लगाओ🙏 

 [Fulfil your worldly duties  and at the same time fix your mind on God.]

(সংসারও কর, আবার ভগবানেতেও মন রাখ।)

(वृंदावन तीर्थ यात्रा के समय श्री रामकृष्ण के मन में अपनी माता जी चिन्ता हुई थी)

आदमी के बहुत से ऋण हैं , पितृऋण, देवऋण, ऋषिऋण ; इसके अतिरिक्त मातृऋण भी है। फिर स्त्री के ऋण का भी उल्लेख है - इसे भी मानना चाहिये। अगर वह सती है तो पति को अपनी मृत्यु के बाद उसके भरण-पोषण के लिए व्यवस्था कर जानी चाहिए। 

"A man is born with several debts: debts to his father, the devas, and the rishis. Besides, there is his debt to his mother. He also has a debt to his wife. She must be supported. If the wife is chaste, the husband must provide for her after his death.

“মানুষের অনেকগুলি ঋণ আছে। পিতৃঋণ, দেবঋণ, ঋষিঋণ। এছাড়া আবার মাতৃঋণ আছে। আবার পরিবারের সম্বন্ধেও ঋণ আছে — প্রতিপালন করতে হবে। সতী হলে, মরবার পরও তার জন্য কিছু সংস্থান করে যেতে হয়।

" मैं अपनी माँ के कारण वृन्दावन में न रह सका। ज्योंही याद आया कि माँ दक्षिणेश्वर के कालीमंदिर में है, फिर वृन्दावन में मन न लगा।     

"I could not live at Vrindavan on account of my mother. When I remembered that my mother was living in the temple garden here at Dakshineswar, I could not feel peaceful at Vrindavan.

“আমি মার জন্য বৃন্দাবনে থাকতে পারলাম না। যাই মনে পড়ল মা দক্ষিণেশ্বরে কালীবাড়িতে আছেন, অমনি আর বৃন্দাবনেও মন টিকল না।

"मैं इन लोगों से कहता हूँ, संसार भी करो और ईश्वर में भी मन रखो। संसार छोड़ने के लिए मैं नहीं कहता, यह करो और वह भी करो। "     

"I ask people to live in the world and at the same time fix their minds on God. I don't ask them to give up the world. I say, 'Fulfil your worldly duties and also think of God.'

“আমি এদের বলি, সংসারও কর, আবার ভগবানেতেও মন রাখ। — সংসার ছাড়তে বলি না; — এও কর, ও-ও কর।”

पिता -मैं उससे यही कहता हूँ कि वह लिखना पढ़ना भी करे, आपके यहाँ आने से मैं मनाही तो नहीं करता। परन्तु लड़कों के साथ हँसी -मजाक में समय नष्ट न किया करे - 

DWIJA'S FATHER: "I tell my children that they should attend to their studies. I don't forbid them to come to you, but I don't want them to waste time in frivolities with the youngsters."

পিতা — আমি বলি, পড়াশুনা তো চাই, — আপনার এখানে আসতে বারণ করি না। তবে ছেলেদের সঙ্গে ইয়ারকি দিয়ে সময় না কাটে।

[ ( 9 अगस्त, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-119] 

🔱🙏प्रत्येक मनुष्य अपनी जन्मजात प्रवृत्तियों (संस्कारों) को प्रकट करता है🔱🙏

(Everyone unfolds his inborn tendencies)

(যার যা (সংস্কার) আছে তাই হবে।)

"Life is the unfoldment and development of a being under the circumstances tending to press it down." Vivekananda  

श्रीरामकृष्ण -इसमें अवश्य ही संस्कार था। इसके दूसरे भाइयों में वह बात न होकर इसी में यह क्यों पैदा हुई ? " जबरदस्ती क्या तुम मना कर सकोगे ? जिसमें जो कुछ है , वह होकर ही रहेगा। "

MASTER (referring to Dwija): "This boy must have been born with some good tendencies. Why are the two other brothers different from him? Why is he alone spiritually minded? Will you be able to compel him not to visit this place? Sooner or later everyone unfolds his inborn tendencies."

শ্রীরামকৃষ্ণ — এর (দ্বিজর) অবশ্য সংস্কার ছিল। এ দুই ভায়ের হল না কেন? আর এরই বা হল কেন?“জোর করে আপনি কি বারণ করতে পারবেন? যার যা (সংস্কার) আছে তাই হবে।”

पिता -हाँ , यह तो है। 

DWIJA'S FATHER: "Yes, that is true."

পিতা — হাঁ, তা বটে।

श्री रामकृष्ण द्विज के पिता पास चटाई पर आकर बैठे। बातचीत करते हुए एक बार उनकी देह पर हाथ लगा रहे हैं। 

Sri Ramakrishna came down from the couch and sat on the floor beside Dwija's father. While talking with him he touched him now and then.

ঠাকুর মেঝেতে দ্বিজর পিতার কাছে আসিয়া মাদুরের উপর বসিয়াছেন। কথা কহিতে কহিতে এক-একবার তাঁহার গায়ে হাত দিতেছেন।

सन्ध्या हो आयी। श्रीरामकृष्ण मास्टर आदि से कह रहे हैं , ' इन्हें सब देवता दिखा ले आओ- अच्छा रहता तो मैं भी साथ चलता। ' लड़कों को सन्देश देने के लिए कहा। द्विज के पिता से कह रहे हैं - ' ये कुछ जलपान करेंगे, मुख मीठा करना प्रथागत अल्पाहार (customary ablutions) है। ' द्विज के पिता देवालय देखकर बगीचे में जरा टहल रहे हैं।

It was nearly evening. Sri Ramakrishna asked M. and the others to show Dwija's father the temples. He said to them, "I should have accompanied him myself if I were well." He asked someone to give sweets to the young men and said to Dwija's father: "Let the children have a little refreshment, It is customary." Dwija's father visited the temples and the images and took a stroll in the garden.

সন্ধ্যা আগতপ্রায়। ঠাকুর মাস্টার প্রভৃতিকে বলিতেছেন, “এদের সব ঠাকুর দেখিয়ে আনো — আমি ভাল থাকলে সঙ্গে যেতাম।”ছেলেদের সন্দেশ দিতে বলিলেন। দ্বিজর পিতাকে বলিলেন, “এরা একটু খাবে; মিষ্টমুখ করতে হয়।”দ্বিজর বাবা দেবালয় ও ঠাকুরদের দর্শন করিয়া বাগানে একটু বেড়াইতেছেন।

 श्रीरामकृष्ण अपने कमरे के दक्षिण-पूर्ववाले बरामदे में भूपेन , द्विज और मास्टर आदि के साथ आनंद-पूर्वक वार्तालाप कर रहे हैं। कौतुक करते हुए भूपेन और मास्टर की पीठ में मीठी चपत मार रहे हैं। द्विज से हँसते हुए कह रहे हैं , 'कैसा कहा मैंने तेरे बाप से ? " 

Sri Ramakrishna engaged happily in conversation with Bhupen, Dwija, M., and others on the southeast porch of his room. He playfully slapped Bhupen and M. on the back. He said to Dwija with a laugh, "How I talked to your father!"

ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ নিজের ঘরে দক্ষিণ-পূর্ব বারান্দায় ভূপেন, দ্বিজ, মাস্টার প্রভৃতির সহিত আনন্দে কথা কহিতেছেন। ক্রীড়াচ্ছলে ভূপেন ও মাস্টারের পিঠে চাপড় মারিলেন। দ্বিজকে সহাস্যে বলিতেছেন, “তোর বাপকে কেমন বললাম।”

सन्ध्या के बाद द्विज के पिता श्रीरामकृष्ण के कमरे में फिर आये। कुछ देर में विदा होने वाले हैं। द्विज के पिता को गर्मी लग रही है। श्रीरामकृष्ण अपने हाथों से पंखा झल रहे हैं। द्विज के पिता बिदा हुए। श्रीरामकृष्ण उठकर खड़े हो गए।   

Dwija's father returned to Sri Ramakrishna's room after dusk. He intended to leave shortly. He was feeling hot. Sri Ramakrishna fanned him himself. In a few minutes the father took leave of the Master. Sri Ramakrishna stood up to bid him farewell.

সন্ধ্যার পর দ্বিজর পিতা আবার ঠাকুরের ঘরে আসিলেন। কিয়ৎক্ষণ পরেই বিদায় লইবেন। দ্বিজের পিতার গরম বোধ হইয়াছে — ঠাকুর নিজে হাতে করিয়া পাখা দিতেছেন।পিতা বিদায় লইলেন — ঠাকুর নিজে উঠিয়া দাঁড়াইলেন।

(२)

[(9अगस्त, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-119] 

*समाधि के प्रकार*

Types of Samadhi

(সমাধির প্রকারভেদ)

*केदार दूध देखेछे ना खेयेछे ?* 

🔱🙏ऐसो को उदार जग माहीं ? केदार ने केवल दूध देखा ही है या पिया भी है ?🔱🙏

रात के आठ बजे हैं । श्रीरामकृष्ण महिमाचरण से बातचीत कर रहे हैं । कमरे में राखाल, मास्टर और महिमाचरण के दो-एक मित्र बैठे हैं । महिमाचरण (जिनके घर में नवनी दा का जन्म हुआ था) आज रात को यहीं रहेंगे

It was eight o'clock. Sri Ramakrishna was talking to Mahimacharan. Rakhal, M., and one or two companions of Mahimacharan were in the room. Mahimacharan was going to spend the night at the temple garden.

রাত্রি আটটা হইয়াছে। ঠাকুর মহিমাচরণের সহিত কথা কহিতেছেন। ঘরে রাখাল, মাস্টার, মহিমাচরনের দু-একটি সঙ্গী, — আছেন। মহিমাচরণ আজ রাত্রে থাকিবেন।

श्रीरामकृष्ण - अच्छा, केदार को कैसा देख रहे हो ? - उसने दूध देखा ही है या पिया भी है ?

MASTER (to Mahima): "Well, how do you find Kedar? Has he only seen milk, or has he drunk it too?"

শ্রীরামকৃষ্ণ — আচ্ছা, কেদারকে কেমন দেখছো? — দুধ দেখেছে না খেয়েছে?

महिमा - हाँ, वे परमानन्द का आनंद ले रहे हैं ।" (आनन्द पा रहे हैं ।)

MAHIMA: "Yes, he is enjoying bliss."

মহিমা — হাঁ, আনন্দ ভোগ করছেন।

श्रीरामकृष्ण - और नृत्यगोपाल ?

MASTER: "Nityagopal?"

শ্রীরামকৃষ্ণ — নিত্যগোপাল?

महिमा - सुन्दर अच्छी अवस्था है, वह मन की उच्चावस्था में है।

MAHIMA: "Very good. He is in a lofty state of mind."

মহিমা — খুব! — বেশ অবস্থা।

श्रीरामकृष्ण - हाँ, अच्छा गिरीश घोष कैसा हुआ है ?

MASTER: "Yes. Well, what about Girish Ghosh?"

শ্রীরামকৃষ্ণ — হাঁ। আচ্ছা, গিরিশ ঘোষ কেমন হয়েছে?

महिमा - अच्छा हुआ है, परन्तु लड़कों का दर्जा और है ।

(महिमा: " उसका भी 3'H' अच्छी तरह से विकसित हुआ है। किन्तु वह प्रवृत्ति (भोग) से होकर निवृत्ति (त्याग) में पहुँचा है, इसलिए वह आपके त्यागी युवा शिष्यों की श्रेणी से भिन्न श्रेणी का नेता है।"] 

MAHIMA: "He too has developed nicely. But he belongs to another class."

মহিমা — বেশ হয়েছে। কিন্তু ওদের থাক আলাদা।

श्रीरामकृष्ण - और नरेन्द्र ?

MASTER: "And Narendra?"

শ্রীরামকৃষ্ণ — নরেন্দ্র?

महिमा - मैं पन्द्रह साल पहले जैसा था, यह वैसा ही है ।

MAHIMA: "He is now in the state I was in fifteen years ago."

মহিমা — আমি পনর বৎসর আগে যা ছিলুম এ তাই।

श्रीरामकृष्ण - और छोटा नरेन्द्र ? कैसा सरल है !

MASTER: "The younger Naren? How guileless he is!"

শ্রীরামকৃষ্ণ — ছোট নরেন? কেমন সরল?

महिमा - जी हाँ, खूब सरल (भोला) है ।

MAHIMA: "Yes, quite guileless."

মহিমা — হাঁ, খুব সরল।

[(9अगस्त, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-119] 

🙏महामण्डल आन्दोलन में निष्ठापूर्वक लगे हुए कर्मी को कोई साधना नहीं करनी होगी 🙏 

श्रीरामकृष्ण - तुमने ठीक कहा है । (सोचते हुए) और कौन है ?"जो सब लड़के यहाँ आ रहे हैं, उन्हें बस दो बातों को जानने से ही हुआ । ऐसा होने से फिर अधिक साधन-भजन न करना होगा । पहली बात - मैं कौन हूँ, दूसरी - वे कौन हैं । इन लड़कों में बहुतेरे अन्तरंग हैं ।

MASTER: "You are right. (Reflecting a little) Let me see who else. It will be sufficient for the youngsters who come here if they know only two things. If they know these, they will not have to practise much discipline and austerity. First, who I am, and second, who they are. Many of the youngsters belong to the inner circle.

শ্রীরামকৃষ্ণ — ঠিক বলেছ। (চিন্তা করতে করতে) আর কে আছে?“যে সব ছোকরা এখানে আসছে, তাদের — দুটি জিনিস জানলেই হল। তাহলে আর বেশি সাধন-ভজন করতে হবে না। প্রথম, আমি কে — তারপর, ওরা কে। ছোকরারা অনেকেই অন্তরঙ্গ।

[(9अगस्त, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-119] 

🔱🙏भगवान श्रीरामकृष्ण की भविष्यवाणी-जो अन्तरंग हैं, उनकी मुक्ति न होगी 🔱🙏 

"जो अन्तरंग हैं, उनकी मुक्ति न होगी । वायव्य दिशा में (उत्तर-पश्चिम दिशा में -गुजरात में?) एक बार और (मुझे) देह धारण करना होगा ।

"Those belonging to the inner circle will not attain liberation. I shall have to assume a human body again, in a northwesterly direction.

“যারা অন্তরঙ্গ, তাদের মুক্তি হবে না। বায়ুকোণে আর-একবার (আমার) দেহ হবে।

[(9अगस्त, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-119] 

🔱🙏3'K's - कामिनी, कांचन और कीर्ति में आसक्त लोग नेता नहीं बन सकते🔱🙏 

"बच्चों को देखकर मेरे प्राण शीतल हो जाते हैं । और जो लोग बच्चे पैदा कर रहे हैं, मुकदमा और मामलेबाजी कर रहे हैं, उन्हें देखकर कैसे आनन्द हो सकता है ? शुद्ध आत्मा को बिना देखे रहूँ कैसे ?"

"I feel peace of mind when I see the youngsters. How can I feel joy at the sight of those who have begotten children and are engaged in lawsuits and are involved in 'woman and gold'? How could I live without seeing pure-souled persons?"

“ছোকরাদের দেখে আমার প্রাণ শীতল হয়। আর যারা ছেলে করেছে, মামলা মোকদ্দমা করে বেড়াচ্ছে — কামিনী-কাঞ্চন নিয়ে রয়েছে — তাদের দেখলে কেমন করে আনন্দ হবে? শুদ্ধ-আত্মা না দেখলে কেমন করে থাকি!”

महिमाचरण शास्त्रों से श्लोकों की आवृत्ति करके सुना रहे हैं, और तन्त्रों से भूचरी, खेचरी और शाम्भवी, कितनी ही मुद्राओं की बातें कह रहे हैं ।

Mahimacharan recited some texts from the scriptures. He also described various mystic rites of the Tantra.

মহিমাচরণ শাস্ত্র হইতে শ্লোক আবৃত্তি করিয়া শুনাইতেছেন — আর তন্ত্রোক্ত ভূচরী খেচরী শাম্ভবী প্রভৃতি নানা মুদ্রার কথা বলিতেছেন।

[(9अगस्त, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-119] 

🔱🙏ठाकुरदेव की पांच प्रकार की समाधि - छह चक्र - योग - कुंडलिनी🔱🙏

[Thakur's Five Types of Samadhi — Six Chakras — Yoga — Kundalini ]

[ঠাকুরের পাঁচপ্রকার সমাধি — ষট্‌চক্রভেদ — যোগতত্ত্ব — কুণ্ডলিনী ]

श्रीरामकृष्ण - अच्छा, समाधि के बाद मेरी आत्मा महाकाश में पक्षी की तरह उड़ती हुई घूमती है, ऐसी बात कोई कोई कहते हैं ।

MASTER: "Well, some say that my soul, going into samadhi, flies about like a bird in the Mahakasa, the Infinite Space.

শ্রীরামকৃষ্ণ — আচ্ছা, আমার আত্মা সমাধির পর মহাকাশে পাখির মতো উড়ে বেড়ায়, এইরকম কেউ কেউ বলে।

"हृषीकेश का साधु आया था । उसने कहा, 'समाधियाँ पाँच प्रकार की होती हैं, - देखता हूँ तुम्हें तो सभी समाधियाँ होती हैं । पिपीलिकावत् (ant), मीनवत् (fish), कपिवत् (monkey), पक्षीवत् (bird), तिर्यग्वत् ( serpent)।’

[इन समाधियों में साधक को पाँच प्रकार की आध्यात्मिक धाराओं (spiritual currents) की अनुभूति होती है।]    

"Once a sadhu of Hrishikesh came here. He said to me: There are five kinds of samadhi. I find you have experienced them all. In these samadhis one feels the sensation of the Spiritual Current to be like the movement of an ant, a fish, a monkey, a bird, or a serpent.'

“कभी वायु चढ़कर चींटी की तरह सुरसुराया करती है ।  कभी समाधि-अवस्था में भाव समुद्र के भीतर आत्मारूपी मीन आनन्द से क्रीड़ा करता है ।

"Sometimes the Spiritual Current rises through the spine, crawling like an ant. "Sometimes, in samadhi, the soul swims joyfully in the ocean of divine ecstasy, like a fish.

“কখনও বায়ু উঠে পিঁপড়ের মতো শিড়শিড় করে — কখনও সমাধি অবস্থায় ভাব-সমুদ্রের ভিতর আত্মা-মীন আনন্দে খেলা করে!

“कभी करवट बदलकर पड़ा हुआ है, देखा, महावायु बन्दर की तरह मुझे ठेलकर आनन्द करती है । मैं चुपचाप पड़ा रहता हूँ । वही वायु एकाएक बन्दर की तरह उछलकर सहस्त्रार में चढ़ जाती है । इसीलिए तो मैं उछलकर खड़ा हो जाता हूँ ।

"Sometimes, when I lie down on my side, I feel the Spiritual Current pushing me like a monkey and playing with me joyfully. I remain still. That Current, like a monkey, suddenly with one jump reaches the Sahasrara. That is why you see me jump up with a start.

“কখনও পাশ ফিরে রয়েছি, মহাবায়ু, বানরের ন্যায় আমায় ঠেলে — আমোদ করে। আমি চুপ করে থাকি। সেই বায়ু হঠাৎ বানরের ন্যায় লাখ দিয়ে সহস্রারে উঠে যায়! তাই তো তিড়িং করে লাফিয়ে উঠি।

"फिर कभी पक्षी की तरह इस डाल से उस डाल पर, उस डाल से इस डाल पर महावायु चढ़ती रहती है । जिस डाल पर बैठती है वह स्थान आग की तरह जान पड़ता है । कभी मूलाधार से स्वाधिष्ठान, स्वाधिष्ठान से हृदय, और इस तरह क्रमश: सिर में चढ़ती है ।

"Sometimes, again, the Spiritual Current rises like a bird hopping from one branch to another. The place where it rests feels like fire. It may hop from Muladhara to Svadhisthana, from Svadhisthana to the heart, and thus gradually to the head.

“আবার কখনও পাখির মতো এ-ডাল থেকে ও-ডাল, ও-ডাল থেকে এ-ডাল, — মহাবায়ু উঠতে থাকে! সে ডালে বসে, সে স্থান আগুনের মতো বোধ হয়। হয়তো মূলাধার থেকে স্বাধিষ্ঠান, স্বাধিষ্ঠান থেকে হৃদয়, এইরূপ ক্রমে মাথায় উঠে।

"कभी महावायु की तिर्यक्-गति होती है - टेढ़ी-मेढ़ी चाल । उसी तरह चलकर अन्त में जब सिर में आती है तब समाधि होती है ।

"Sometimes the Spiritual Current moves up like a snake. Going in a zigzag way, at last it reaches the head and I go into samadhi.

“কখনও বা মহাবায়ু তির্যক গতিতে চলে — এঁকে বেঁকে! ওইরূপ চলে চলে শেষে মাথায় এলে সমাধি হয়।”

[(9अगस्त, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-119] 

🔱🙏पूर्ववृत्त -ठाकुर को 22 वर्ष की आयु में प्रथम भावावेश (1858) में हुआ🔱🙏

[भावावेश, विक्षिप्तता -या विवेकज ज्ञान ?]  

[Antecedent — First insanity in year 22/23 1858, Shatchakra Bhed ]

[পূর্বকথা — ২২/২৩ বছরে প্রথম উন্মাদ ১৮৫৮ খ্রী: — ষট্‌চক্র ভেদ ]

"कुण्डलिनी के जागृत हुए बिना चैतन्य (विवेकज ज्ञान?नहीं होता ।

"A man's spiritual consciousness is not awakened unless his Kundalini is aroused.

“কুলকুণ্ডলিনী না জাগলে চৈতন্য হয় না।

[सिंह शावक का भेंड़त्व (सम्मोहन-Hypnotization, स्वयं को केवल शरीर-मन वाला पुतला समझने का भ्रम) कुण्डलिनी जाग्रत हुए बिना दूर नहीं होता। ] 

"कुण्डलिनी मूलाधार में रहती है । चैतन्य होने पर वह सुषुम्ना नाड़ी के भीतर से स्वाधिष्ठान, मणिपुर, इन सब का भेद करके अन्त में मस्तक में पहुँचती है, इसे ही महावायु की गति कहते हैं। अन्त में समाधि होती है ।

"The Kundalini dwells in the Muladhara. When it is aroused, it passes along the Sushumna nerve, goes through the centres of Svadhisthana, Manipura, and so on, and at last reaches the head. This is called the movement of the Mahavayu, the Spiritual Current. It culminates in samadhi.

“মূলাধারে কুলকুণ্ডলিনী। চৈতন্য হলে তিনি সুষুম্না নাড়ীর মধ্য দিয়ে স্বাধিষ্ঠান, মণিপুর এই সব চক্র ভেদ করে, শেষে শিরিমধ্যে গিয়ে পড়েন। এরই নাম মহাবায়ুর গতি — তবেই শেষে সমাধি হয়।

"केवल पुस्तक पढ़ने से चैतन्य नहीं होता । उन्हें पुकारना चाहिए । व्याकुल होने पर  कुलकुण्डलिनी जागृत होती है सुनकर या किताबें पढ़कर जो ज्ञान होता है उससे क्या होगा ?

 [(स्वामी जी ने पकड़ा 12 जनवरी 1985 से, गुरु खोज 14-4-1986 हरिद्वार कुम्भ मेला,27-5 1987 दीक्षा, 26-12-1987 शाम्भवी दीक्षा, Accident- संयोग -आकस्मिक घटना बनारस, ऊँच, कबीर चौरा अस्पताल  14-4 - 1992 तक व्याकुल रहने से ?  कुलकुण्डलिनी जागृत होती है ।)] 

"One's spiritual consciousness is not awakened by the mere reading of books. One should also pray to God. The Kundalini is aroused if the aspirant feels restless for God. To talk of Knowledge from mere study and hearsay! What will that accomplish?

“শুধু পুঁথি পড়লে চৈতন্য হয় না — তাঁকে ডাকতে হয়। ব্যাকুল হলে তবে কুলকুণ্ডলিনী জাগেন। শুনে, বই পড়ে জ্ঞানের কথা! — তাতে কি হবে!

"जब यह अवस्था हुई, उससे ठीक पहले मुझे दिखलाया गया । किस तरह कुलकुण्डलिनी शक्ति के जागृत होने पर क्रमशः सब पद्म खिलने लगे, और फिर समाधि हुई । यही बड़ी गुप्त बात है । मैंने देखा बिलकुल मेरी तरह का २२-२३ साल का एक युवक सुषुम्ना नाड़ी के भीतर जाकर, जिव्हा के द्वारा योनिरूप पद्मों के साथ रमण कर रहा है । पहले गुह्य, लिंग और नाभि - चतुर्दल, षड्दल और दशदल पद्म, पहले ये सब अधोमुख थे, फिर वे ऊर्ध्वमुख हो गये

"Just before my attaining this state of mind, it had been revealed to me how the Kundalini is aroused, how the lotuses of the different centres blossom forth, and how all this culminates in samadhi. This is a very secret experience. I saw a boy twenty-two or twenty-three years old, exactly resembling me, enter the Sushumna nerve and commune with the lotuses, touching them with his tongue. He began with the centre at the anus and passed through the centres at the sexual organ, navel, and so on. The different lotuses of those centres — four-petalled, six-petalled, ten-petalled, and so forth — had been drooping. At his touch they stood erect.

“এই অবস্থা যখন হল, তার ঠিক আগে আমায় দেখিয়ে দিলে — কিরূপ কুলকুণ্ডলিনীশক্তি জাগরণ হয়ে, ক্রমে ক্রমে সব পদ্মগুলি ফুটে যেতে লাগল, আর সমাধি হল। এ অতি গুহ্যকথা। দেখলাম, ঠিক আমার মতন বাইশ-তেইশ বছরের ছোকরা, সুষুম্না নাড়ির ভিতর দিয়ে যোনিরূপ পদ্মের সঙ্গে রমণ করছে! প্রথমে গুহ্য, লিঙ্গ, নাভি। চতুর্দল, ষড়দল, দশদল পদ্ম সব অধোমুখ হয়েছিল — ঊর্ধ্বমুখ হল।

“जब वह हृदय में आया, मुझे खूब याद है, जीभ से रमण करने के बाद द्वादशलदल अधोमुख पद्म ऊर्ध्वमुख होकर खिल गया, फिर कण्ठ में षोड़षदल और कपाल में द्विदल पद्म के खुलने के बाद सिर में सहस्रदल पद्म प्रस्फुटित हो गया । तभी से मेरी यह अवस्था है ।"

"When he reached the heart — I distinctly remember it — and communed with the lotus there, touching it with his tongue, the twelve-petalled lotus, which was hanging head down, stood erect and opened its petals. Then he came to the sixteen-petalled lotus in the throat and the two-petalled lotus in the forehead. And last of all, the thousand-petalled lotus in the head blossomed. Since then I have been in this state."

“হৃদয়ে যখন এল — বেশ মনে পড়ছে — জিহ্বা দিয়ে রমণ করবার পর দ্বাদশদল অধোমুখ পদ্ম ঊর্ধ্বমুখ হল, — আর প্রস্ফুটিত হল! তারপর কণ্ঠে ষোড়শদল, আর কপালে দ্বিদল। শেষে সহস্রদল পদ্ম প্রস্ফুটিত হল! সেই অবধি আমার এই অবস্থা।”

*(३)

*श्रीरामकृष्ण के आध्यात्मिक अनुभव*

 ठाकुरदेव मात्र सिद्धपुरुष थे या अवतार हैं ?

ঠাকুর সিদ্ধপুরুষ না অবতার?

[(9अगस्त, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-119] 

🙏माँ काली ने पहले श्री राकृष्ण की उँगलियाँ चटका दीं, फिर वेद-पुराण-तंत्र समझाया🙏     

श्रीरामकृष्ण यह बात (कुलकुण्डलिनी शक्ति के जागृत होने की बात) कहते हुए उतरकर महिमाचरण के पास जमीन पर बैठे । पास मास्टर हैं, तथा दो-एक भक्त और । कमरे में राखाल भी हैं ।

Saying this (about the awakening of Kulkundalini Shakti) Sri Ramakrishna came down to the floor and sat near Mahimacharan, M, and a few other devotees were near him. Rakhal also was in the room.

ঠাকুর এই কথা বলিতে বলিতে নামিয়া আসিয়া মেঝেতে মহিমাচরণের নিকট বসিলেন। কাছে মাস্টার ও আরও দু-একটি ভক্ত। ঘরে রাখালও আছেন।

श्रीरामकृष्ण (महिमा से) - आपसे कहने की इच्छा बहुत दिनों से थी, पर कह नहीं सका, आज कहने की इच्छा हो रही है ।

MASTER (to Mahima): "For a long time I have wanted to tell you my spiritual experiences, but I could not. I feel like telling you today.

শ্রীরামকৃষ্ণ (মহিমার প্রতি) — আপনাকে অনেকদিন বলবার ইচ্ছা ছিল পারি নাই — আজ বলতে ইচ্ছা হচ্ছে।

"मेरी जो अवस्था आप बतलाते हैं, साधना करने ही से ऐसा नहीं हुआ करता । इसमें (मुझमें) कुछ विशेषता है ।

"You say that by mere sadhana one can attain a state of mind like mine. But it is not so. There is something special here [referring to himself]."

“আমার যা অবস্থা — আপনি বলেন, সাধন করলেই ওরকম হয়, তা নয়। এতে (আমাতে) কিছু বিশেষ আছে।”

(राखाल, श्री 'म' तथा अन्य लोग यह सुनने के लिए उत्सुक हो गए कि श्रीरामकृष्ण आगे क्या कहने जा रहे हैं।)

Rakhal, M., and the others became eager to hear what the Master was going to say.

মাস্টার, রাখাল প্রভৃতি ভক্তেরা অবাক্‌ হইয়া ঠাকুর কি বলিবেন উৎসুক হইয়া শুনিতেছেন।

श्रीरामकृष्ण : "ईश्वर ने मुझसे बातचीत की ! - केवल दर्शन ही नहीं, बातचीत की ! बट के नीचे मैंने देखा, गंगाजी के भीतर से निकलकर कितनी हँसी - कितना मजाक किया । हँसी ही हँसी में मेरी उँगली मरोड़ दी गयी ! फिर बातचीत हुई, वे (भगवान्) बोले !

[श्रीरामकृष्ण के स्वमुख से बंगला में कथित वचन  - " कथा कोयछे ! -शुधु दर्शन नय - कथा कोयछे ! बटतलाये देखलाम , गंगार भीतर थेके उठे एसे -तारपर कत हांसी ! खेलार छले आंगुल मटकान होलो। तारपोर कथा। -कथा कोयेछे !]   

MASTER: "God talked to me. It was not merely His vision. Yes, He talked to me. Under the banyan tree, I saw Him coming from the Ganges. Then we laughed so much! By way of playing with me, He cracked my fingers. Then He talked. Yes, He talked to me.

শ্রীরামকৃষ্ণ — কথা কয়েছে! — শুধু দর্শন নয় — কথা কয়েছে। বটতলায় দেখলাম, গঙ্গার ভিতর থেকে উঠে এসে — তারপর কত হাসি! খেলার ছলে আঙ্গুল মটকান হল। তারপর কথা। — কথা কয়েছে!

"तीन दिन लगातार मैं रोया, उन्होंने वेदों, पुराणों और तन्त्रों में क्या है, सब दिखला दिया !

"For three days I wept continuously. And He revealed to me what is in the Vedas, the Puranas, the Tantras, and the other scriptures.

“তিনদিন করে কেঁদেছি, আর বেদ পুরাণ তন্ত্র — এ-সব শাস্ত্রে কি আছে — (তিনি) সব দেখিয়ে দিয়েছেন।

[(9अगस्त, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-119] 

🙏माया के कारण सच्चिदानन्द (The Absolute या पूर्ण) को कोई देख नहीं सकता🙏

(जगत से ब्रह्म तक पहुँचने के मार्ग की बाधाएँ हैं-कामिनी, कांचन, कीर्ति में आसक्ति)      

"महामाया की माया क्या है, यह भी एक दिन दिखला दिया । कमरे के भीतर छोटी सी ज्योति क्रमश: बढ़ने लगी और संसार को आच्छन्न करने लगी ।

"One day He showed me the 'Maya of Mahamaya'. A small light inside a room began to grow, and at last, it enveloped the whole universe.

“মহামায়ার মায়া যে কি, তা একদিন দেখালে। ঘরের ভিতর ছোট জ্যোতিঃ ক্রমে ক্রমে বাড়তে লাগল! আর জগৎকে ঢেকে ফেলতে লাগল!

"फिर उन्होंने दिखलाया - मानो बहुत बड़ा तालाब काई से भरा हुआ है । हवा से काई कुछ हट गयी और पानी जरा दीख पड़ा, परन्तु देखते ही देखते चारों ओर से नाचती हुई काई फिर आ गयी और पानी को ढक लिया । दिखलाया, वह जल सच्चिदानन्द है और काई माया माया के कारण सच्चिदानन्द को कोई देख नहीं सकता । अगर कोई एक बार देखता भी है तो पल भर के लिए, फिर माया उसे ढक लेती है

"Further, He revealed to me a huge reservoir of water covered with green scum. The wind moved a little of the scum and immediately the water became visible; but in the twinkling of an eye, scum from all sides came dancing in and again covered the water. He revealed to me that the water was like Satchidananda, and the scum like Maya. On account of Maya, Satchidananda is not seen. Though now and then one may get a glimpse of It, again Maya covers It.

“আবার দেখালে, — যেন মস্ত দীঘি, পানায় ঢাকা! হাওয়াতে পানা একটু সরে গেল, — অমনি জল দেখা গেল। কিন্তু দেখতে দেখতে চার দিককার পানা নাচতে নাচতে এসে, আবার ঢেকে ফেললে! দেখালে, ওই জল, যেন সচ্চিদানন্দ, আর পানা যেন মায়া। মায়ার দরুন সচ্চিদানন্দকে দেখা যায় না, — যদিও এক-একবার চকিতের ন্যায় দেখা যায়, তো আবার মায়াতে ঢেকে ফেলে।

"किस तरह का आदमी यहाँ आ रहा है, उसके आने से पहले ही वे मुझे दिखा देते हैं । बट के नीचे से बकुल के पेड़ तक उन्होंने चैतन्यदेव के संकीर्तन का दल दिखलाया । उसमें मैंने बलराम को देखा था - नहीं तो भला मिश्री और यह सब मुझे कौन देता ? और इन्हें (मास्टर को) भी देखा था ।

"God reveals the nature of the devotees to me before they arrive. I saw Chaitanya's party singing and dancing near the Panchavati, between the banyan tree and the bakul-tree. I noticed Balaram there. If it weren't for him, who would there be to supply me with sugar candy and such things? (Pointing to M.) And I saw him too.

“কিরূপ লোক (ভক্ত) এখানে আসবে, আসবার আগে দেখিয়ে দেয়। বটতলা থেকে বকুলতলা পর্যন্ত চৈতন্যদেবের সংকীর্তনের দল দেখালে। তাতে বলরামকে দেখলাম — না হলে মিছরি এ-সব দেবে কে! আর এঁকে দেখেছিলাম।”

[(9अगस्त, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-119] 

 🙏मुलाकात होने पहले ही केशव सेन को मोर की तरह पंख फैलाये देखा 🙏 

और उनके ब्रह्म-समाज में हरिनाम और माँ जगदम्बा का नाम प्रवेश

[শ্রীরামকৃষ্ণ, কেশব সেন ও তাঁহার সমাজে হরিণাম ও মায়ের নাম প্রবেশ ]

"केशव सेन से मुलाकात होने के पहले उसे मैंने देखा ! समाधि-अवस्था में मैंने देखा केशव सेन और उसके दल को । कमरे में ठसाठस भरे हुए आदमी मेरे सामने बैठे हुए थे । केशव को मैंने देखा, उन लोगों में मोर की तरह अपने पंख फैलाये बैठा हुआ था । पंख अर्थात् दल-बल । केशव के सिर में, देखा, एक लाल मणि थी । वह रजोगुण का लक्षण है

"I had seen Keshab before I actually met him — I had seen him and his party in my samadhi. In front of me sat a roomful of men. Keshab looked like a peacock sitting with its tail spread out. The tail meant his followers. I saw a red gem on Keshab's head. That indicated his rajas.

“কেশব সেনের সঙ্গে দেখা হবার আগে, তাকে দেখলাম! সমাধি অবস্থায় দেখলাম, কেশব সেন আর তার দল। একঘর লোক আমার সামনে বসে রয়েছে! কেশবকে দেখাচ্ছে, যেন একটি ময়ূর তার পাখা বিস্তার করে বসে রয়েছে! পাখা অর্থাৎ দল বল। কেশবের মাথায় দেখলাম লালমণি। ওটি রজোগুণের চিহ্ন। 

केशव अपने चेलों से कह रहा था - 'ये (श्रीरामकृष्ण) क्या कह रहे हैं, तुम लोग सुनो ।' माँ से मैंने कहा, 'माँ, इन लोगों का अंग्रेजी मत है (अर्थात ब्रह्मसमाज के लोग मूर्तिपूजा के विरोधी हैं, माँ काली पर विश्वास नहीं करते), इनसे मैं क्यों बात करूँ?’ फिर 'माँ ने समझाया, कलिकाल में ऐसा ही होता है।' तब यहाँ से (मेरे पास से) वे लोग हरिनाम तथा माता का नाम ले गये । इसीलिए माता (माँ काली) ने विजय को केशव के दल से अलग कर लिया । परन्तु विजय (विजय कृष्ण गोस्वामी) आदि-समाज में सम्मिलित नहीं हुआ।

 He said to his disciples, 'Please listen to what he [meaning the Master] is saying.' I said to the Divine Mother: 'Mother, these people hold the views of "Englishmen". Why should I talk to them?' Then the Mother explained to me that it would be like this in the Kaliyuga." Keshab and his followers got from here [meaning himself] the names of Hari and the Divine Mother. That is why the Divine Mother took Vijay away from Keshab's party. But Vijay did not join the Adi Samaj. (A sect of the Brahmo Samaj.)

কেশব শিষ্যদের বলছে — ‘ইনি কি বলছেন, তোমরা সব শোনো’। মাকে বললাম, মা এদের ইংরাজী মত, — এদের বলা কেন। তারপর মা বুঝিয়ে দিলে যে, কলিতে এরকম হবে। তখন এখান থেকে হরিণাম আর মায়ের নাম ওরা নিয়ে গেল। তাই মা কেশবের দল থেকে বিজয়কে নিলে। কিন্তু আদি সমাজে গেল না।

(अपने को दिखाकर) “इसके भीतर कोई एक हैं । गोपाल सेन^* नाम का एक लड़का आया करता था, बहुत दिन हो गये । इसके भीतर जो हैं, उन्होंने गोपाल की छाती पर पैर रख दिया । वह भावावेश में कहने लगा, 'अभी तुम्हें देर है; परन्तु मैं संसारी आदमियों के बीच में नहीं रह सकता ।' - फिर 'अब जाता हूँ' कहकर वह घर चला गया । बाद में मैंने सुना, उसने देह छोड़ दी है । जान पड़ता है, वही नित्यगोपाल है !

(Pointing to himself) "There must be something special here. Long ago a young man named Gopal Sen used to visit me. He who dwells in me placed His foot on Gopal's chest. Gopal said in an ecstatic mood: 'You will have to wait here a long time. I cannot live anymore with worldly people.' He took leave of me. Afterward, I heard that he was dead. Perhaps he was born as Nityagopal.

(নিজেকে দেখাইয়া) “এর (আমার) ভিতর একটা কিছু আছে। গোপাল সেন বলে একটি ছেলে আসত — অনেকদিন হল। এর ভিতর যিনি আছেন গোপালের বুকে পা দিলে। সে ভাবে বলতে লাগল, তোমার এখন দেরি আছে। আমি ঐহিকদের সঙ্গে থাকতে পারছি না, — তারপর ‘জাই’ বলে বাড়ি চলে গেল। তারপর শুনলাম দেহত্যাগ করেছে। সেই বোধ হয় নিত্যগোপাল

[गोपाल सेन — बराहनगर निवासी एक ईश्वरभक्त युवा था।  दक्षिणेश्वर में ठाकुर देव  के साथ उसकी पहली मुलकात 1864 ई. में हुई थी। वे दक्षिणेश्वर में ठाकुर देव के दर्शन करने के लिए अक्सर जाते रहते थे, तथा ईश्वरीय भाव में आविष्ट हो जाते थे। एक बार ठाकुर देव ने उन्हें इसी अवस्था में उसका स्पर्श अपने चरणों से किया था। जीवनमुक्त अवस्था में (de-Hypnotized अवस्था) में सांसारिक जीवन (या कामिनी-कांचन में आसक्त जीवन) को विष के समान समझकर उसने आत्महत्या करके शरीर त्याग दिया था। 'गोपाल सेन' द्वारा आत्महत्या किये जाने की खबर को सुनकर ठाकुर देव ने कहा था, " ईश्वर (माँ काली) का दर्शन करने के बाद यदि कोई अपनी इच्छा से शरीर को त्याग देता है, तो उसको आत्महत्या नहीं कहते हैं!" (क्योंकि ठाकुर के गुरु तोतापुरी जी भी, एकबार माँ काली की इच्छा के बिना अपनी इच्छा से अपना शरीर त्यागने चले तो वे गंगा पार कर गए लेकिन डूबने लायक पानी नहीं मिला और वे अपना शरीर त्याग नहीं सके थे!)      

গোপাল সেন — বরাহনগরবাসী ভগবৎভক্ত যুবক। ঠাকুরের সহিত প্রথম দর্শন ১৮৬৪ খ্রীষ্টাব্দে দক্ষিণেশ্বরে। তিনি দক্ষিণেশ্বরে ঠাকুরের কাছে যা তায়াত করিতেন এবং ঈশ্বরীয় ভাবে আবিষ্ট হইতেন। ভাবাবস্থায় ইঁহাকে ঠাকুর স্পর্শ করিয়াছিলেন। জীবনমুক্ত অবস্থায় সংসার বিষবৎ মনে হওয়ায় আত্মহত্যা করিয়া দেহত্যাগ করেন। গোপাল সেনের আত্মহত্যার সংবাদে ঠাকুর বলিয়াছিলেন যে, ঈশ্বর দর্শন করিবার পর যদি কেউ স্বেচ্ছায় শরীর ত্যাগ করে, তবে তাহাকে আত্মহত্যা বলে না।]

"सब बड़े आश्चर्यपूर्ण दर्शन हुए हैं । अखण्ड सच्चिदानन्द-दर्शन भी हो चुका है । उसके भीतर मैंने देखा है, बीच में घेरा लगाकर उसके दो हिस्से कर दिये गये हैं । एक हिस्से में केदार, चुन्नी तथा अन्य साकारवादी भक्त हैं; घेरे के दूसरी ओर खूब लाल सुर्खी की ढेरी की तरह प्रकाश है, उसके बीच में समाधिमग्न नरेन्द्र (स्वामी विवेकानन्द) बैठा हुआ है ।

"I have had many amazing visions. I had a vision of the Indivisible Satchidananda. Inside It I saw two groups with a fence between them. On one side were Kedar, Chuni, and other devotees who believe in the Personal God. On the other side was a luminous space like a heap of red brick dust. Inside it was seated Narendra immersed in samadhi. 

“আশ্চর্য দর্শন সব হয়েছে। অখণ্ড সচ্চিদানন্দদর্শন। তার ভিতর দেখছি, মাঝে বেড়া দেওয়া দুই তাক। একধারে কেদার চুনি, আর আর অনেক সাকারবাদী ভক্ত। বেড়ার আর-একধারে টকটকে লাল সুরকির কাঁড়ির মতো জ্যোতিঃ। তারমধ্যে বসে নরেন্দ্র। — সমাধিস্থ!

"ध्यानस्थ देखकर मैंने पुकारा – नरेन्द्र !', उसने जरा आँख खोली । मैं समझ गया, वही एक रूप में, सिमला (कलकत्ता) में, कायस्थ के यहाँ पैदा होकर रह रहा है । तब मैंने कहा, ‘माँ, उसे माया में बाँध लो, नहीं तो समाधि में वह देह छोड़ देगा ।' केदार साकारवादी है, उसने झाँककर देखा, उसे रोमांच हो आया और वह भागा ।

Seeing him absorbed in meditation, I called aloud, 'Oh, Narendra!' He opened his eyes a little. I came to realize that he had been born, in another form, in Simla (The section of Calcutta in which Narendra was born.) in a Kayastha family. At once I said to the Divine Mother, 'Mother, entangle him in Maya; otherwise, he will give up his body in samadhi.' Kedar, a believer in the Personal God, peeped in and ran away with a shudder.

“ধ্যানস্থ দেখে বললুম, ‘ও নরেনদ্র!’ একটু চোখ চাইলে — বুঝলুম ওই একরূপে সিমলেতে কায়েতের ছেলে হয়ে আছে। — তখন বললাম, ‘মা। ওকে মায়ায় বদ্ধ কর। — তা না হলে সমাধিস্থ হয়ে দেহত্যাগ করবে।’ — কেদার সাকারবাদী, উঁকি মেরে দেখে শিউরে উঠে পালাল।

यही सोचता हूँ, इस शरीर के भीतर माँ स्वयं हैं, भक्तों को लेकर लीला कर रही हैं । जब पहले-पहल यह अवस्था हुई, तब ज्योति से देह दमका करती थी । छाती लाल हो जाती थी । तब मैंने कहा, 'माँ, बाहर प्रकाशित न होओ - भीतर समा जाओ ।’ इसीलिए अब यह देह मलिन हो रही है।

"Therefore I feel that it is the Divine Mother Herself who dwells in this body and plays with the devotees. When I first had my exalted state of mind, my body would radiate light. My chest was always flushed. Then I said to the Divine Mother: 'Mother, do not reveal Thyself outwardly. Please go inside.' That is why my complexion is so dull now. 

“তাই ভাবি এর (নিজের) ভিতর মা স্বয়ং ভক্ত হয়ে লীলা করছেন। যখন প্রথম এই অবস্থা হল, তখন জ্যোতিঃতে দেহ জ্বল জ্বল করত। বুক লাল হয়ে যেত! তখন বললুম, ‘মা, বাইরে প্রকাশ হয়ো না, ঢুকে যাও!’ তাই এখন এই হীন দেহ।

"नहीं तो आदमी जला डालते । आदमियों की भीड़ लग जाती अगर वैसी ज्योतिर्मय देह बनी रहती। अब बाहर प्रकाश नहीं है । इससे तमाशबीन भाग जाते हैं - जो शुद्ध भक्त हैं, वे ही रहेंगे । यह बीमारी क्यों हुई, इसका अर्थ यही है । जिनकी भक्ति सकाम है, वे बीमारी देखकर भाग जायेंगे ।

If my body were still luminous, people would have tormented me; a crowd would always have thronged here. Now there is no outer manifestation. That keeps weeds away. Only genuine devotees will remain with me now. Do you know why I have this illness? It has the same significance. Those whose devotion to me has a selfish motive behind it will run away at the sight of my illness.

“তা না হলে লোকে জ্বালাতন করত। লোকের ভিড় লেগে যেত — সেরূপ জ্যোতির্ময় দেহ থাকলে। এখন বাহিরে প্রকাশ নাই। এতে আগাছা পালায় — যারা শুদ্ধভক্ত তারাই কেবল থাকবে। এই ব্যারাম হয়েছে কেন? — এর মানে ওই। যাদের সকাম ভক্তি, তারা ব্যারাম অবস্থা দেখলে চলে যাবে

"मेरी एक इच्छा थी । मैंने माँ से कहा था - 'माँ, मैं भक्तों का राजा होऊँगा ।’

"I cherished a desire. I said to the Mother, 'O Mother, I shall be the king of the devotees.'

“সাধ ছিল — মাকে বলেছিলাম, মা, ভক্তের রাজা হব!

"फिर मेरे मन में यह बात उठी कि हृदय से जो ईश्वर को पुकारेगा, उसे यहाँ आना होगा - आना ही होगा । देखो, वही हो रहा है, वे ही सब लोग आते हैं ।

"Again, this thought arose in my mind: 'He who sincerely prays to God will certainly come here. He must.' You see, that is what is happening now. Only people of that kind come.

“আবার মনে উঠল, ‘যে আন্তরিক ঈশ্বরকে ডাকবে তার এখানে আসতেই হবে! আসতেই হবে! দেখো, তাই হচ্ছে — সেই সম লোকই আসছে।

[(9अगस्त, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-119] 

"आमार बाप गयाते स्वप्ने देखे छिलेन, रघुवीर बोलछेन - 'आमि तोमार छेले होबो। '    

🙏 बिशुनपद मन्दिर गया में मेरे पिता से 'रघुवीर' ने स्वप्न में कहा था-

 'मैं तुम्हारे पुत्र के रूप में जन्म लूँगा !'🙏 

"इसके भीतर कौन हैं, यह मेरे माता -पिता जानते थे । पिताजी ने गया में स्वप्न देखा था । स्वप्न में आकर 'रघुवीर' ('रघु' के वीर वंशज- भगवान श्रीराम) ने कहा था, 'मैं तुम्हारे पुत्र के रूप में जन्म लूँगा।"

"My parents knew who dwells inside this body. Father had a dream at Gaya. In that dream 'Raghuvir' (The brave descendants of Raghu - Lord Shri Ram:प्रभु श्री राम) said to him, 'I shall be born as your son.'

“এর ভিতরে কে আছেন, আমার বাপেরা জানত। বাপ গয়াতে স্বপ্নে দেখেছিলেন, — রঘুবীর বলছেন, ‘আমি তোমার ছেলে হব।’

[Letter of Swami Vivekananda To Swami Brahmananda, from ALMORA, dated 20th May, 1898." MY DEAR RAKHAL,....  For the present buy a plot of ground for Ramlal in the name of Raghuvir (The family deity of Shri Ramakrishna’s birthplace, Kamarpukur, Ramlal being his nephew.) after careful consideration. . . . Holy Mother will be the Sebâit (worshipper-in-charge); after her will come Ramlal, and Shibu will succeed them as Sebait; or make any other arrangement that seems best."]

[(9अगस्त, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-119] 

🔱🙏भारत के राष्टीय आदर्श -'त्याग और सेवा' को श्रीरामकृष्ण ने पुनर्प्रतिष्ठित किया🔱🙏

 [कुँवरसिंह कहता था, 'समाधि के बाद लौटा हुआ आदमी कभी मैंने नहीं देखा - 

तुम नानक हो।]  

"इसके भीतर वे ही हैं । कामिनी और कांचन का त्याग ! यह क्या मेरा कर्म है ? स्त्री-सम्भोग स्वप्न में भी नहीं हुआ

"God alone dwells inside this body. Such renunciation of 'woman and gold'! Could I have accomplished that myself? I have never enjoyed a woman, even in a dream.

“এর ভিতরে তিনিই আছেন। কামিনী-কাঞ্চনত্যাগ! একি আমার কর্ম। স্ত্রীসম্ভোগ স্বপনেও হলো না।

"नागे ने वेदान्त का उपदेश दिया । तीन ही दिन में समाधि हो गयी । माधवीलता के नीचे उस समाधि-अवस्था को देखकर उसने कहा - 'अरे ! ये क्या है रे !’ फिर उसने समझा था, इसके भीतर कौन हैं । तब उसने मुझसे कहा, 'मुझे तुम छोड़ दो ।' यह बात सुनकर मेरी भावावस्था हो गयी । उसी अवस्था में मैंने कहा, 'वेदान्त का बोध हुए बिना तुम यहाँ से नहीं जा सकते ।

"Nangta instructed me in Vedanta. In three days I went into samadhi. At the sight of my samadhi under the madhavi vine, he was quite taken aback and exclaimed, 'Ah! What is this?' Then he came to know who resides in this body. He said to me, 'Please let me go.' At these words of Totapuri, I went into an ecstatic mood and said, You cannot go till I realize the Truth of Vedanta.'

“ন্যাংটা বেদান্তের উপদেশ দিলে। তিনদিনেই সমাধি। মাধবীতলায় ওই সমাধি অবস্থা দেখে সে হতবুদ্ধি হয়ে বলছে, ‘আরে এ কেয়া রে!’ পরে সে বুঝতে পারলে — এর ভিতরে কে আছে। তখন আমায় বলে, ‘তুমি আমায় ছেড়ে দাও!’ ও-কথা শুনে আমার ভাবাবস্থা হয়ে গেল; — আমি সেই অবস্থায় বললাম, ‘বেদান্ত বোধ না হলে তোমার যাবার জো নাই।’

 "तब मैं दिन-रात उसी के पास रहता था । केवल वेदान्त की चर्चा होती थी । ब्राह्मणी (श्रीरामकृष्ण की तन्त्र-साधना की आचार्या) कहती थी, 'बच्चा, वेदान्त पर ध्यान न दो, इससे भक्ति की हानि होती है ।’

"Day and night I lived with him. We talked only Vedanta. The Brahmani used to say to me: 'Don't listen to Vedanta. It will injure your devotion to God.'

“তখন রাতদিন তার কাছে! কেবল বেদান্ত! বামনী বলত, ‘বাবা, বেদান্ত শুনো না! — ওতে ভক্তির হানি হবে।’

"माँ से मैंने कहा, ‘माँ, इस देह की रक्षा किस तरह होगी ? - और साधुओं तथा भक्तों को लेकर भी किस तरह रह सकूँगा ? - एक बड़ा आदमी ला दो ।' इसीलिए मथूरबाबू ने चौदह वर्ष तक सेवा की ।

"I said to the Divine Mother: 'Mother, please get me a rich man. If You don't, how shall I be able to protect this body? How shall I be able to keep the sadhus and devotees, near me?' That is why Mathur Babu provided for my needs for fourteen years.

“মাকে যাই বললাম, ‘মা, এ-দেহ রক্ষা কেমন করে হবে, আর সাধুভক্ত লয়ে কেমন করে থাকব! — একটা বড় মানুষ জুটিয়ে দাও!’ তাই সেজোবাবু চৌদ্দ বৎসর ধরে সেবা করলে!

"इसके भीतर जो हैं, वे पहले से ही बतला देते हैं, किस श्रेणी का भक्त आनेवाला है । ज्योंही देखता हूँ गौरांग का रूप सामने आया कि समझ जाता हूँ, कोई गौरांग-भक्त (विजय कृष्ण ?) आ रहा है । अगर कोई शाक्त आता है तो शक्तिरूप - कालीरूप दीख पड़ता है

"He who dwells in me tells me beforehand what particular class of devotees will come to me. When I have a vision of Gauranga, I know that devotees of Gauranga are coming. When I have a vision of Kali, the Saktas come.

“এর ভিতর যিনি আছে, আগে থাকতে জানিয়ে দেয়, কোন্‌ থাকের ভক্ত আসবে। যাই দেখি গৌরাঙ্গরূপ সামনে এসেছেন, অমনি বুঝতে পারি গৌরভক্ত আসছে। যদি শাক্ত আসে, তাহলে শক্তিরূপ, — কালীরূপ — দর্শন হয়।

"कोठी की छत पर से आरती के समय में चिल्लाया करता था, 'अरे, तुम सब लोग कहाँ हो ? - आओ ! देखो, अब क्रम क्रम से सब आ गये हैं ।

"At the time of the evening service I used to cry out from the roof of the kuthi, weeping: 'Oh, where are you all? Come to me!' You see, they are all gathering here, one by one.

“কুঠির উপর থেকে আরতির সময় চেঁচাতাম, “ওরে, তোরা কে কোথায় আছিস আয়।’ দেখো, এখন সব ক্রমে ক্রমে এসে জুটেছে!

"इसके भीतर वे खुद हैं - स्वयं ही मानो इन सब भक्तों को लेकर काम कर रहे हैं ।

"God Himself dwells in this body. It is He who, of His own accord, is working with these devotees.

“এর ভিতর তিনি নিজে রয়েছেন — যেন নিজে থেকে এই সব ভক্ত লয়ে কাজ করছেন।

“एक-एक भक्त की अवस्था कितने आश्चर्य की है ! छोटा नरेन्द्र - इसे कुम्भक आप ही आप होता है और फिर समाधि भी ! एक-एक बार कभी-कभी ढाई घण्टे तक ! कभी और देर तक ! - कैसे आश्चर्य की बात है !

"What a wonderful state of mind some of the devotees have! The younger Naren gets kumbhaka without any effort, and samadhi too. Sometimes he stays in an ecstatic mood for two and a half hours; sometimes even more. How wonderful!

“এক-একজনের ভক্তের অবস্থা কি আশ্চর্য! ছোট নরেন — এর কুম্ভক আপনি হয়। আবার সমাধি! এক-একবার কখন কখন আড়াই ঘন্টা! কখনও বেশি! কি আশ্চর্য!

"यहाँ सब तरह की साधनाएँ हो चुकी हैं - ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग । उम्र बढ़ाने के लिए हठयोग भी किया जा चुका है ।

"I have practiced all kinds of sadhana: jnana yoga, karma yoga, and bhakti yoga. I have even gone through the exercises of Hatha yoga to increase longevity.

“সবরকম সাধন এখানে হয় গেছে — জ্ঞানযোগ, ভক্তিযোগ, কর্মযোগ। হঠযোগ পর্যন্ত — আয়ু বাড়াবার জন্য!

 इस शरीर के भीतर कोई और (ईश्वर) वास कर रहा है, नहीं तो समाधि के बाद फिर मैं भक्तों के साथ कैसे रह सकता तथा ईश्वर-प्रेम का आनन्द कैसे उठा सकता ? कुँवरसिंह कहता था, 'समाधि के बाद लौटा हुआ आदमी कभी मैंने नहीं देखा - तुम नानक हो ।

There is another Person dwelling in this body. Otherwise, after attaining samadhi, how could I live with the devotees and enjoy the love of God? Koar Singh used to say to me: 'I have never before seen a person who has returned from the plane of samadhi. You are none other than Nanak.'

 এর ভিতর একজন আছে। তা না হলে সমাধির পর ভক্তি-ভক্ত লয়ে কেমন করে আছি। কোয়ার সিং বলত, ‘সমাধির পর ফিরে আসা লোক দেখি নাই। — তুমিই নানক’।

[>> सिक्ख हवलदार कुँवर सिंहश्री रामकृष्ण का विशेष प्रिय एक नानकपंथी सिक्ख भक्त थे । वह 'कालीबाड़ी' दक्षिणेश्वर काली-मन्दिर  के उत्तरी किनारे पर स्थित सरकारी बारूदखाना (Government Ammunition) में सिक्ख सैनिकों के जत्थे का हवलदार थे। सिक्ख हवलदार कुँवर सिंह श्री रामकृष्ण को 'गुरु नानक देव' के रूप में पूजते थे और अक्सर ठाकुरदेव का पवित्र सानिध्य प्राप्त करने के लिए उनके पास आते रहते थे। ठाकुर देव का भी उनके प्रति विशेष स्नेह था। कुँवर सिंह जब कभी 'साधु भोजन' का आयोजन करते , तो उसमें ठाकुर को भी आमन्त्रित करते थे, और ठाकुर देव भी उनके निमंत्रण को सहर्ष स्वीकार करते थे। ..... श्री गुरुनानक देव का जीवन और सन्देश पढ़कर स्वामी विवेकानन्द द्वारा अपने गुरु श्री रामकृष्ण देव के प्रति  कथित "वाह गुरु जी का खालसा वाह गुरु जी की फतेह।" का मर्म समझ में आ गया कि -खालसा सिख का अर्थ है--'संन्यासी और गृहस्थ एक साथ।' रहना घर में और ऐसे रहना जैसे घर में नहीं हो। रहना घर में और ऐसे रहना जैसे हिमालय पर हो। करना दूकान, लेकिन याद ईश्वर की रखना। गिनना रुपए, नाम उसका लेनानिश्चित ही  सिक्ख होना तो बड़ा कठिन कार्य है। गृहस्थ होना आसान है। संन्यासी होना भी आसान है, छोड़ दो, भाग जाओ जंगल। सिक्ख होना कठिन है। 

 [(9अगस्त, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-119] 

🔱🙏कामिनी-कांचन के बीच रहते हुए भी निरन्तर-समाधि और भाव🔱🙏 

[क्या अब भी हमलोग समझे कि स्वामी जी ठाकुर को अवतार वरिष्ठ क्यों कहते थे ?] 

"चारों ओर संसारी आदमी हैं - चारों ओर कामिनी-कांचन - इस तरह की परिस्थिति के भीतर यह अवस्था है ! - समाधि और भाव लगे ही रहते हैं । इसी पर प्रताप ने (ब्राह्मसमाज के प्रतापचन्द्र मुजुमदार) - कुक साहब जब आया था - जहाज में मेरी अवस्था देखकर कहा, 'बाप रे ! जैसे भूत लगा ही रहता हो !’ "

"I live in the midst of worldly people; on all sides, I see 'woman and gold'. Nevertheless, this is the state of my mind: unceasing samadhi and bhava. That is the reason Pratap1 said, at the sight of my ecstatic mood: 'Good heavens! It is as if he were possessed by a ghost!'"

“চারিদিকে ঐহিক লোক — চারদিকে কামিনী-কাঞ্চন — এতোর ভিতর থেকে এমন অবস্থা! — সমাধি, ভাব, লেগেই রয়েছে। তাই প্রতাপ (ব্রাহ্মসমাজের শ্রীপ্রতাপচন্দ্র মজুমদার) — কুক্‌ সাহেব যখন এসেছিল, জাহাজে আমার অবস্থা (সমাধি-অবস্থা) দেখে বললে, ‘বাবা! যেন ভূতে পেয়ে রয়েছে’।”

राखाल, मास्टर आदि अवाक् होकर (मानो मदहोशी में) ये सब बातें सुन रहे हैं ।

Rakhal, M., and the others were speechless as they drank in this account of Sri Ramakrishna's unique experiences.

রাখাল, মাস্টার প্রভৃতি অবাক্‌ হইয়া ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণের শ্রীমুখ হইতে এই সকল আশ্চর্য কথা শুনিতেছেন।

 क्या महिमाचरण ने श्रीरामकृष्ण के इस इशारे को समझा ? इन सब बातों को सुनकर भी वे कह रहे हैं - 'जी, आपके प्रारब्ध के कारण यह सब हुआ है ।’  श्रीरामकृष्ण उनकी बात पर अपनी सम्मति देते हुए कह रहे हैं - 'हाँ, प्रारब्ध - जैसे बाबू के बहुत से बैठकखाने हों, यहाँ भी उनका एक बैठकखाना है । भक्त उनका बैठकखाना है ।’

But did Mahimacharan understand the import of these words? Even after hearing them, he said to the Master, "These things have happened to you on account of your meritorious actions in your past births." Mahima still thought that Sri Ramakrishna was a sadhu or a devotee of God. The Master nodded assent to Mahima's words and said: "Yes, the result of past actions. God is like an aristocrat who has many mansions. Here [referring to himself] is one of His drawing rooms. The bhakta is God's drawing room."

মহিমাচরণ কি ঠাকুরের ইঙ্গিত বুঝিলেন? এই সমস্ত কথা শুনিয়াও তিনি বলিতেছেন, “আজ্ঞা, আপনার প্রারব্ধবশতঃ এরূপ সব হয়েছে।” তাঁহার মনের ভাব, — ঠাকুর একটি সাধু বা ভক্ত। ঠাকুর তাঁহার কথায় সায় দিয়া বলিতেছেন, “হাঁ, প্রাক্তন! যেন বাবুর অনেক বাড়ি আছে — এখানে একটা বৈঠকখানা। ভক্ত তাঁর বৈঠকখানা।”

[100 नंबर काशीपुर रोड निवासी 'महिमाचरण जी' जिनके मकान में नवनीदा का जन्म हुआ था उनका मनोभाव यह है कि 'श्रीरामकृष्ण माँ काली के अवतार नहीं केवल एक साधु या भक्त हैं । अर्थात महिमाचरण जी को ठाकुर द्वारा कथित -" कुँवरसिंह कहता था, 'समाधि के बाद लौटा हुआ आदमी कभी मैंने नहीं देखा - तुम नानक हो " का मर्म समझ में नहीं  आया। इसीलिए उन्होंने ठाकुर देव से कहा "आपके पिछले जन्मों में आपके पुण्य कार्यों के कारण ये चीजें आपके साथ हुई हैं।"  (जैसे महामण्डल के कुछ पुराने लोग भी नवनीदा के कथन "पूर्वजन्म में वे कैप्टन सेवियर थे" के मर्म को नहीं समझने के कारण -उन्हें अवतार या ईश्वरकोटि या समाधि से लौटने में समर्थ नेता नहीं, सिर्फ साधु या भक्त समझते है ???]

(४)

*स्वप्न-दर्शन*

 [(9अगस्त, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-119] 

🔱🙏महिमाचरण द्वारा निर्मित 'ब्रह्म चक्र' (The Cycle of Creation)🔱🙏

रात के नौ बजे हैं । श्रीरामकृष्ण छोटे तखत पर बैठे हुए हैं । महिमाचरण की इच्छा है - श्रीरामकृष्ण की उपस्थिति में वे ब्रह्मचक्र की रचना कमरे में करें । [Tantric concept of the creation and evolution of the universe. ब्रह्मांड या जगत के निर्माण और क्रमिक -विकास की तांत्रिक अवधारणा को नक्शे के रूप जमीन पर दिखायें।] राखाल, मास्टर, किशोरी तथा और दो-एक भक्तों को साथ लेकर जमीन पर उन्होंने चक्र बनाया । सब लोगों से उन्होंने ध्यान करने के लिए कहा ।

It was nine o'clock in the evening. Sri Ramakrishna was sitting on the small couch. It was Mahimacharan's desire to form a Brahmachakra [A mystic circle prescribed in Tantra. [Tantric conception of creation and evolution of the cosmos.] in the presence of the Master. Mahima formed a circle, on the floor, with Rakhal, M., Kishori, and one or two other devotees. He asked them all to meditate. 

রাত নয়টা হইল। ঠাকুর ছোট খাটটিতে বসিয়া আছেন। মহিমাচরণের সাধ — ঘরে ঠাকুর থাকিবেন — ব্রহ্মচক্র রচনা করিবেন। তিনি রাখাল, মাস্টার, কিশোরী ও আর দু-একটি ভক্তকে লইয়া মেঝেতে চক্র করিলেন। সকলকে ধ্যান করিতে বলিলেন।

राखाल को भावावस्था (ecstatic state) हो गयी । श्रीरामकृष्ण उतरकर उनकी छाती में हाथ लगाकर माता का नाम लेने लगे । राखाल का भाव संवरण हो गया । 

Rakhal went into an ecstatic state. The Master came down from the couch and placed his hand on Rakhal's chest, repeating the name of the Divine Mother. Rakhal regained consciousness of the outer world.

রাখালের ভাবাবস্থা হয়েছে। ঠাকুর নামিয়া আসিয়া তাঁহার বুকে হাত দিয়া মার নাম করিতে লাগিলেন। রাখালের ভাব সম্বরণ হইল।

 [(10 अगस्त, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-119] 

🔱🙏तोतापुरी का उपदेश- 'मध्यरात्रि की निस्तब्धता में अनाहत शब्द सुन पड़ता है'🔱🙏   

रात के एक बजे का समय होगा । आज कृष्णपक्ष की चतुर्दशी (रटन्ती कालीपूजा ?) है । चारों ओर घोर अन्धकार है । दो-एक भक्त गंगा के तट पर अकेले टहल रहे हैं । श्रीरामकृष्ण उठे । वे बाहर आये । भक्तों से कहा, "नागा कहा करता था, ‘इस समय - गम्भीर रात्रि की इस निस्तब्धता में - अनाहत शब्द सुन पड़ता है ।’"

It was one o'clock in the morning, the fourteenth day of the dark fortnight of the moon. There was intense darkness everywhere. One or two devotees were pacing the concrete embankment of the Ganges. Sri Ramakrishna was up. He came out and said to the devotees, "Nangta told me that at this time, about midnight, one hears the Anahata sound."

রাত একটা হইবে। আজ কৃষ্ণপক্ষের চতুর্দশী তিথি, চতুর্দিকে নিবিড় অন্ধকার। দু-একটি ভক্ত গঙ্গার পোস্তার উপর একাকী বেড়াইতেছেন। ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ একবার উঠিয়াছেন। তিনিও বাহিরে আসিলেন ও ভক্তদের বলিতেছেন, ন্যাংটা বলত, ‘এই সময়ে — এই গভীর রাত্রে — অনাহত শব্দ শোনা যায়।

रात के पिछले पहर में महिमाचरण और मास्टर श्रीरामकृष्ण के कमरे में जमीन पर ही लेट गये कैम्पखाट पर राखाल थे ।

In the early hours of the morning Mahimacharan and M. lay down on the floor of the Master's room. Rakhal slept on a camp cot. 

শেষরাত্রে মহিমাচরণ ও মাস্টার ঠাকুরের ঘরেই মেঝেতে শুইয়া আছেন। রাখালও ক্যাম্প খাটে শুইয়াছেন।

श्रीरामकृष्ण पाँच वर्ष के बच्चे की तरह दिगम्बर होकर कभी कभी कमरे के भीतर टहल रहे हैं ।

Now and then Sri Ramakrishna paced up and down the room with his clothes off, like a five-year-old child.

ঠাকুর পাঁচ বছরের ছেলের ন্যায় দিগম্বর হইয়া মাঝে মাঝে ঘরের মধ্যে পাদচারণ করিতেছেন।

 [(10 अगस्त, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-119] 

🔱🙏'क्या सपने में दर्शन कम है?🔱🙏

(सोमवार, 10 अगस्त) सबेरा हुआ । श्रीरामकृष्ण माता का नाम ले रहे हैं । पश्चिम के गोल बरामदे में जाकर उन्होंने गंगादर्शन किया । कमरे के भीतर जितने देव-देवियों के चित्र थे, सब के पास जा-जाकर प्रणाम किया । भक्तगण शय्या से उठकर प्रणाम आदि करके, प्रातः क्रिया करने के लिए गये ।

It was dawn. The Master was chanting the name of the Divine Mother. He went to the porch west of his room and looked at the Ganges; then he stopped in front of the pictures of different gods and goddesses in the room and bowed to them. The devotees left their beds, saluted Sri Ramakrishna, and went out.

প্রত্যূষ (১০ই অগস্ট) হইল। ঠাকুর মার নাম করিতেছেন। পশ্চিমের বারান্দায় গিয়া গঙ্গাদর্শন করিলেন। ঘরের মধ্যস্থিত দেবদেবীর যত পট ছিল, কাছে গিয়া নমস্কার করিলেন। ভক্তেরা শয্যা হইতে উঠিয়া প্রণামাদি করিয়া প্রাতঃকৃত্য করিতে গেলেন।

श्रीरामकृष्ण पंचवटी में एक भक्त के साथ बातचीत कर रहे हैं । उन्होंने स्वप्न में चैतन्यदेव (नवनीदा) को देखा था ।

The Master was talking to a devotee in the Panchavati. The latter had dreamt of Chaitanyadeva.

ঠাকুর পঞ্চবটীতে একটি ভক্তসঙ্গে কথা কহিতেছেন। তিনি স্বপ্নে চৈতন্যদেবকে দর্শন করিয়াছিলেন।

श्रीरामकृष्ण (भावावेश में) – आहा ! आहा !

MASTER (in an ecstatic mood): "Ah me! Ah me!"

শ্রীরামকৃষ্ণ (ভাবাবিষ্ট হইয়া) — আহা! আহা!

भक्त - जी स्वप्न में - ।

DEVOTEE: "But, sir, it was only a dream."

ভক্ত — আজ্ঞা, ও স্বপনে।

श्रीरामकृष्ण - स्वप्न क्या कम है ?.... श्रीरामकृष्ण की आँखों में आँसू आ गये । स्वर गद्गद है ।

MASTER: "Is a dream a small thing?"..... The Master's voice was choked. His eyes were filled with tears.

শ্রীরামকৃষ্ণ — স্বপন কি কম!.... ঠাকুরের চক্ষে হল। গদগদ স্বর!

 [(10 अगस्त, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-119] 

🔱🙏आजकल नरेंद्र को भी ईश्वर के दिव्य रूपों का दर्शन होता है🔱🙏 

जागृत अवस्था में  एक भक्त के दर्शन की बात सुनकर कह रहे हैं, 'इसमें आश्चर्य क्या है ? आजकल नरेन्द्र भी ईश्वरी रूप देखता है ।'

Sri Ramakrishna was told of a devotee who had divine visions even while he was awake. The Master said: "I am not surprised. Narendra, too, sees forms of God nowadays."

একজন ভক্তের জাগরণ অবস্থায় দর্শন-কথা শুনিয়া বলিতেছেন — “তা আশ্চর্য কি! আজকাল নরেন্দ্রও ঈশ্বরীয় রূপ দেখে!”

[1986 में हरिद्वार कुम्भ मेला के अनुभव सुनने पर दादा ने कहा था - स्वामीजी कहते थे कोई चमत्कार नहीं होता, जो तुमने देखा वो सत्य था। ] 

प्रात: क्रिया समाप्त करके महिमाचरण ठाकुर-मन्दिर के उत्तर-पश्चिम ओर के शिवमन्दिर में जाकर निर्जन में वेद-मन्त्रों का उच्चारण कर रहे हैं

Mahimacharan went to one of the Siva temples to the west of the courtyard and chanted hymns from the Vedas. He was alone.

মহিমাচরণ প্রাতঃকৃত্য সমাপন করিয়া, ঠাকুরবাড়ির প্রাঙ্গণের পশ্চিম দিকের শিবের মন্দিরে গিয়া, নির্জনে বেদমন্তর উচ্চারণ করিতেছেন।

दिन के आठ बजे का समय है । मणि गंगा नहाकर श्रीरामकृष्ण के पास आये । सन्तप्त ब्राह्मणी भी श्रीरामकृष्ण के दर्शन करने के लिए आयी है ।

It was eight o'clock in the morning. M. bathed in the Ganges and came to Sri Ramakrishna. The brahmani who was grief-stricken on account of her daughter's death also entered the room.

বেলা আটটা হইয়াছে। মণি গঙ্গাস্নান করিয়া ঠাকুরের কাছে আসিলেন। শোকাতুরা ব্রাহ্মণীও দর্শন করিতে আসিয়াছেন।

श्रीरामकृष्ण (ब्राह्मणी से) - इन्हें (मास्टर को) कुछ प्रसाद देना, पूड़ी-मिठाई - ताक पर रखा है ।

The Master asked the brahmani to give M. some prasad to eat.

শ্রীরামকৃষ্ণ (ব্রাহ্মণীর প্রতি) — এঁকে কিছু প্রসাদ খেতে দাও তো গা, লুচি-টুচি। তাকের উপর আছে।

ब्राह्मणी - पहले आप पाइये । फिर वे भी पा लेंगे ।

BRAHMANI: "Please eat something yourself first; then he will eat."

ব্রাহ্মণী — আপনি আগে খান। তারপর উনি প্রসাদ পাবেন।

श्रीरामकृष्ण - तुम पहले जगन्नाथजी का भात (प्रसाद-चावल) खाओ, फिर प्रसाद पाना ।

MASTER (to M.): "Take some prasad of Jagannath first and then eat."

শ্রীরামকৃষ্ণ — তুমি আগে জগন্নাথের আটকে দাও, তারপর প্রসাদ।

प्रसाद पाकर मणि शिवमन्दिर में शिवदर्शन करके श्रीरामकृष्ण के पास लौट आये । और प्रणाम करके विदा हो रहे हैं ।

After eating the prasad, M. went to the Siva temples and saluted the Deity. Then he returned to the Master's room and saluted him. He was ready to go to Calcutta.

প্রসাদ পাইয়া মণি শিবমন্দিরে শিবদর্শন করিয়া ঠাকুরের কাছে আবার আসিলেন ও প্রণাম করিয়া বিদায় গ্রহণ করিতেছেন।

श्रीरामकृष्ण - (सस्नेह) - तुम चलो । तुम्हें काम पर जाना है ।

MASTER (tenderly): "Go home safely. You have to attend to your duties."

শ্রীরামকৃষ্ণ (সস্নেহে) — তুমি এসো। আবার কাজে যেতে হবে।

(५)

 [(मंगलवार, 11 अगस्त, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-119] 

*मौनधारी श्रीरामकृष्ण और माया का दर्शन*

মৌনাবলম্বী শ্রীরামকৃষ্ণ ও মায়াদর্শন

श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर मन्दिर में प्रात: आठ बजे से दिन के तीन बजे तक मौन व्रत धारण किये हुए हैं । आज मंगलवार है, ११ अगस्त १८८५ ई. । कल अमावस्या थी ।

Sri Ramakrishna was in his room at the temple garden. He had been observing silence since eight o'clock in the morning. 

ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ দক্ষিণেশ্বর — মন্দিরে সকাল ৮টা হইতে বেলা ৩টা পর্যন্ত মৌন অবলম্বন করিয়া রহিয়াছেন। আজ মঙ্গলবার ১১ই অগস্ট, ১৮৮৫ খ্রীষ্টাব্দ; (২৭শে শ্রাবণ, ১২৯২, শুক্লা প্রতিপদ)। গতকল্য সোমবার অমাবস্যা গিয়াছে।

श्रीरामकृष्ण कुछ अस्वस्थ हैं । क्या उन्होंने जान लिया है कि शीघ्र ही वे इस धाम को छोड़ जायेंगे? क्या इसीलिए मौन धारण किये हुए हैं ? उन्हें बात न करते देख श्री माँ रो रही हैं । राखाल और लाटू रो रहे हैं । बागबाजार की ब्राह्मणी भी इस समय आयी थी । वह भी रो रही है । भक्तगण बीच बीच में पूछ रहे हैं, "क्या आप हमेशा के लिए चुप रहेंगे ?"

 Did he know the fatal nature of his illness? At his silence, the Holy Mother wept. Rakhal and Latu also wept. The brahmani widow from Baghbazar arrived. She too was weeping at this strange mood of the Master. Now and then the devotees asked him whether he would remain silent for good. The Master answered them in the negative, by a sign.

শ্রীরামকৃষ্ণের অসুখের সঞ্চার হইয়াছে। তিনি কি জানিতে পারিয়াছেন যে, শীঘ্র তিনি ইহলোক পরিত্যাগ করিবেন? জগন্মাতার ক্রোড়ে আবার গিয়া বসিবেন? তাই কি মৌনাবলম্বন করিয়া রহিয়াছেন? তিনি কথা কহিতেছেন না দেখিয়া শ্রীশ্রীমা কাঁদিতেছিলেন। রাখাল ও লাটু কাঁদিতেছেন। বাগবাজারের ব্রাহ্মণীও এই সময় আসিয়াছিলেন, তিনিও কাঁদিতেছেন। ভক্তেরা মাঝে মাঝে জিজ্ঞাসা করিতেছেন, আপনি কি বরাবর চুপ করিয়া থাকিবেন?

श्रीरामकृष्ण इशारे से कह रहे हैं, 'नहीं ।' नारायण आये हैं - दिन के तीन बजे के समय ।श्रीरामकृष्ण नारायण से कह रहे हैं, "माँ तेरा कल्याण करेंगी ।"

At three o'clock in the afternoon Narayan arrived. Sri Ramakrishna said to him, "The Divine Mother will bless you."

শ্রীরামকৃষ্ণ ইঙ্গিত করিয়া বলিতেছেন, ‘না’। নারাণ আসিয়াছিলেন, বেলা ৩টার সময়, ঠাকুর নারায়ণকে বলিতেছেন, “মা তোর ভাল করবে।”

नारायण ने आनन्द के साथ भक्तों को समाचार दिया । श्रीरामकृष्ण ने अब बात की है । राखाल आदि भक्तों की छाती पर से मानो एक पत्थर उतर गया । वे सभी श्रीरामकृष्ण के पास आकर बैठे।

Narayan told the other devotees that the Master had spoken to him. A heavy weight was lifted from their breasts. They all came into the Master's room and sat on the floor.

নারাণ আনন্দে ভক্তদের সংবাদ দিলেন, ‘ঠাকুর এইবার কথা কহিয়াছেন।’ রাখালাদি ভক্তদের বুক থেকে যেন একখানি পাথর নামিয়া গেল। তাঁহারা সকলে ঠাকুরের কাছে আসিয়া বসিলেন।

 [(मंगलवार, 11 अगस्त, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-119] 

🙏सात घंटे के मौन व्रत में माँ ने दिखाया कि सृष्टि-खेल का कानून उन्होंने ने बनाया है🙏   

श्रीरामकृष्ण (राखाल आदि भक्तों के प्रति) - माँ दिखा रही थीं कि सभी माया है । वे ही सत्य हैं और शेष सभी माया का ऐश्वर्य है ।

MASTER (to the devotees): "The Mother showed me that all this is verily maya. She alone is, real, and all else is the splendor of Her maya.

শ্রীরামকৃষ্ণ (রাখালাদি ভক্তদের প্রতি) — ‘মা’ দেখিয়ে দিচ্ছিলেন যে, সবই মায়া! তিনি সত্য, আর যা কিছু সব মায়ার ঐশ্বর্য।

"और एक बात देखी, भक्तों में से किसका कितना हुआ है ।"

"Another thing was revealed to me. I found out how far the different devotees have progressed."

“আর একটি দেখলুম, ভক্তদের কার কতটা হয়েছে।”

नारायण आदि भक्त - अच्छा, किसका कितना हुआ है ?

DEVOTEES: "Please tell us about it."

নারাণাদি ভক্ত — আচ্ছা কার কতদূর হয়েছে?

श्रीरामकृष्ण - इन सभी को देखा - नित्यगोपाल  [नित्यगोपाल बसु - ज्ञानानन्द अवधूत, (1855 - 1911)  - श्री रामकृष्ण के एक उत्कट भक्त। रामचंद्र और मनमोहन मित्रा के चचेरे भाई। तुलसीचरण दत्ता (बाद में स्वामी निर्मलानंद) नित्यगोपाल के भगिना थे।], राखाल, नारायण, पूर्ण, महिमा चक्रवर्ती आदि ।

MASTER: "I came to know about all these devotees: Nityagopal, Rakhal, Narayan, Purna, Mahima Chakravarty, and the others."

শ্রীরামকৃষ্ণ — এদের সব দেখলাম — নিত্যগোপাল, রাখাল, নারাণ, পূর্ণ, মহিমা চক্রবর্তী প্রভৃতি।

(६)

🔱🙏16 अगस्त,1885:श्रीरामकृष्ण वचनामृत-119🔱🙏

 [(9 अगस्त से 16 अगस्त,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-119] 

*श्रीरामकृष्ण गिरीश, शशधर पण्डित आदि भक्तों के साथ*

श्रीरामकृष्ण की बीमारी का समाचार कलकत्ते के भक्तों को प्राप्त हुआ, उन्होंने सोचा कि शायद वह उनके गले में एक प्रकार का घाव मात्र है । रविवार, १६ अगस्त । अनेक भक्त उनके दर्शन के लिए आये हैं - गिरीश, राम, नित्यगोपाल, महिमा चक्रवर्ती, किशोरी (गुप्त), पण्डित शशधर तर्कचूड़ामणि आदि ।

The news of Sri Ramakrishna's illness had been reported to the" devotees in Calcutta. They thought it was just a sore in his throat. Many devotees arrived at Dakshineswar to visit him. Among them were Girish, Ram, Nityagopal, Mahima, Kishori, and Pundit Shashadhar.

ঠাকুরের অসুখ সংবাদ কলিকাতার ভক্তেরা জানিতে পারিলেন। আলজিভে অসুখ হইয়াছে সকলে বলিতেছেন। রবিবার, ১৬ই অগস্ট, ১৮৮৫ খ্রীষ্টাব্দ; (১লা ভাদ্র, ১২৯২)। শুক্লা ষষ্ঠী। অনেক ভক্ত তাঁহাকে দর্শন করিতে আসিয়াছেন — গিরিশ, রাম, নিত্যগোপাল, মহিমা চক্রবর্তী, কিশোরী (গুপ্ত), পণ্ডিত শশধর তর্কচুড়ামণি প্রভৃতি।

[किशोरी मोहन गुप्त :(1859 - 1931)] कलकत्ता में जन्मे "श्रीरामकृष्ण वचनामृत" के लेखक श्री 'म' के छोटे भाई, और श्रीरामकृष्ण देव के एक गृहस्थ भक्त थे। उनका निवास स्थान 13 नंबर,  गुरुप्रसाद चौधरी लेन, कलकत्ता-6 था। ठाकुर देव से दक्षिणेश्वर में उनकी पहली मुलाकात (1882-83) के दौरान हुई थी । ठाकुर देव के प्रति अपने विशेष स्नेह के कारण वे नियमित रूप से दक्षिणेश्वर जाते रहते थे, और जब भी अवसर मिलता उनकी सेवा में उपस्थित रहते थे। वे एक अच्छे गायक थे, उनके गले की आवाज मधुर थी। ठाकुर देव भी उनके गाने को पसन्द करते थे। वे ब्रह्म समाज के साथ से घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए थे। उन्होंने कलकत्ता के दर्जीपाड़ा के डॉ. विश्वनाथ गुप्ता की पुत्री राधारानी से विवाह किया था । किशोरी के मन में आजीवन ठाकुर के प्रति सम्मान की भावना रही थी। अपने जीवन के अंतिम वर्षों में वे अपने कलकत्ता के मकान में अकेले रहते थे, और तपस्या में लीन रहते थे। और उसी स्थान में उन्होंने अपने शरीर त्याग किया था। ]

श्रीरामकृष्ण पहले जैसे ही आनन्दमय हैं तथा भक्तों के साथ वार्तालाप कर रहे हैं ।

Sri Ramakrishna was in his usual happy mood. He was talking to the devotees.

ঠাকুর পূর্বের ন্যায় আনন্দময়, ভক্তদের সঙ্গে কথা কহিতেছেন।

श्रीरामकृष्ण - रोग की बात माँ से कह नहीं सकता, कहने में लाज लगती है ।

MASTER: "I cannot tell the Mother about my illness. I feel ashamed to talk of it."

শ্রীরামকৃষ্ণ — রোগের কথা মাকে বলতে পারি না। বলতে লজ্জা হয়।

गिरीश - मेरे नारायण अच्छा करेंगे ।

GIRISH: "God will cure you."

গিরিশ — আমার নারায়ণ ভাল করবেন।

राम - ठीक हो जायेगा ।

RAM: "Yes, you will be all right."

রাম — ভাল হয়ে যাবে।

श्रीरामकृष्ण (हँसते हुए) - हाँ यही आशीर्वाद दो । (सभी की हँसी)

MASTER (smiling): "Yes, give me your blessing." (All laugh.)

শ্রীরামকৃষ্ণ — (সহাস্যে) — হাঁ, ওই আশীর্বাদ কর। (সকলের হাস্য)

गिरीश आजकल नये नये आ रहे हैं । श्रीरामकृष्ण उनसे कह रहे हैं, “तुम्हें अनेक झमेलों में रहना होता है, तुम्हें अनेक काम रहते हैं । तुम और तीन बार आओ ।" अब शशधर के साथ बातचीत कर रहे हैं ।

Girish was a recent visitor to Dakshineswar. The Master said to him: "You have so many duties to perform. You have to face so many troubles. Come here only three times more.

গিরিশ নূতন নূতন আসিতেছেন, ঠাকুর তাঁহাকে বলিতেছেন, “তোমার অনেক গোলের ভিতর থাকতে হয়, অনেক কাজ; তুমি আর তিনবার এসো।” এইবার শশধরের সঙ্গে কথা কহিতেছেন।

🔱🙏16 अगस्त,1885:श्रीरामकृष्ण वचनामृत-119🔱🙏

*शासाधर पंडित को उपदेश - ब्रह्म और आद्या-शक्ति अविभाज्य हैं*

🔱🙏महाशय, क्या मैं आपकी आग लाने के योग्य हूँ 🔱🙏

'Sir, am I fit to carry your fire?'

'স্যার, আমি কি আপনার আগুন বহন করার উপযুক্ত?'

श्रीरामकृष्ण (शशधर के प्रति) - तुम हमें आद्या- शक्ति (The Primal Power/Energy) के विषय में कुछ बताओ ।

(To Shashadhar) "Please tell us something about the Adyasakti."

শ্রীরামকৃষ্ণ (শশধরের প্রতি) — তুমি আদ্যাশক্তির কথা কিছু বল।

शशधर - मैं क्या जानता हूँ ?

SHASHADHAR: "What do I know, sir?"

শশধর — আমি কি জানি।

श्रीरामकृष्ण (हँसते हुए) - एक आदमी एक व्यक्ति की बहुत भक्ति करता था । उसने उस भक्त से तम्बाकू भर लाने के लिए कहा । इस पर भक्त ने विनम्रतापूर्वक कहा, 'क्या मैं आपकी आग लाने के योग्य हूँ?' फिर आग भी नहीं लाया ! (सभी हँसे)

MASTER (smiling): "A certain man had great respect for another man. The second man asked him to bring him a little fire for his tobacco. He answered humbly, 'Sir, am I fit to carry your fire?' He didn't bring the fire." (All laugh.)

শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — একজনকে একটি লোক খুব ভক্তি করে। সেই ভক্তকে তামাক সাজার আগুন আনতে বললে; তা সে বললে, আমি কি আপনার আগুন আনবার যোগ্য? আর আগুন আনলেও না! (সকলের হাস্য)

[(16 अगस्त,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-119 ]

 'सांख्य और वेदान्त का अद्भुत समन्वय'  

*ब्रह्म और जगत* 

[The Absolute and  Manifestation-निरपेक्ष और अभिव्यक्ति]

*পরম এবং প্রকাশ*

*प्रारंभिक ऊर्जा (आद्या शक्ति) ही भौतिक जगत की निर्माता हैं*

"The Primal Energy is the creator of Material World

*আদ্যা শক্তি হল বস্তুজগতের স্রষ্টা* 

*तिनि (आद्या शक्ति)'ई जीव-जगत सृष्टि करेछेन, आबार तिनि'ई जीवजगत होये रयेछेन*  

{मकड़ी (Spider) की तरह ही आद्या शक्ति (Primal Energy) में भी  स्वयं को भौतिक जगत में रूपांतरित करने की क्षमता होती है !

Just Like the Spider, Primal Energy has the power to transform itself into Material World. 

ঠিক মাকড়সার মতো, প্রাথমিক শক্তিরও নিজেকে বস্তুগত জগতে রূপান্তরিত করার ক্ষমতা রয়েছে।}    

शशधर - जी, वे ही निमित्त कारण (instrumental cause) हैं, वे ही उपादान कारण (material cause) हैं । उन्होंने ही जीव और जगत् को पैदा किया, और फिर वे ही जीव तथा जगत् बने हुए हैं, जैसे मकड़ी ने स्वयं जाला तैयार किया (निमित्त-कारण) और उस जाले को अपने ही अन्दर से निकाला (उपादान-कारण) ।

SHASHADHAR: "The Primal Power alone is both the instrumental and the material cause of the universe. It is She who has created the universe and its living beings; further, She Herself has become all these. To give an example: the spider, as the instrumental cause, makes the web and, as the material cause, brings the web out of its own body."

শশধর — আজ্ঞা, তিনি (আদ্যাশক্তি)'ই নিমিত্ত কারণ, তিনিই উপাদান কারণ। তিনিই জীব জগৎ সৃষ্টি করেছেন, আবার তিনিই জীবজগৎ হয়ে রয়েছেন; যেমন মাকড়সা, নিজে জাল তৈয়ার করলে (নিমিত্ত কারণ); আর সেই জাল নিজের ভিতর থেকে বার করলে (উপাদান কারণ)।

श्रीरामकृष्ण - फिर यह भी है कि जो पुरुष हैं, वे ही प्रकृति हैं; जो ब्रह्म हैं, वे ही शक्ति हैं । जिस समय निष्क्रिय हैं, सृष्टि, स्थिति, प्रलय नहीं कर रहे हैं, उस समय उन्हें हम ब्रह्म कहते हैं, पुरुष कहते हैं । और जब वे उन सब कामों को करते हैं, उस समय उन्हें शक्ति कहते हैं, प्रकृति कहते हैं । परन्तु जो ब्रह्म हैं, वे ही शक्ति हैं । जो पुरुष हैं, वे ही प्रकृति बने हुए हैं ।जल स्थिर रहने पर भी जल है और हिलने पर भी जल है साँप टेढ़ा-मेढ़ा होकर चलने पर भी साँप है और फिर चुपचाप कुण्डलाकार रहने पर भी साँप है ।

MASTER: "It is also stated that He who is Purusha is also Prakriti; He who is Brahman is also Sakti. He is called Purusha or Brahman when He is inactive, that is to say when He ceases to create, preserve, or destroy; and He is called Sakti or Prakriti when He engages in those activities. But He who is Brahman is none other than Sakti; He who is Purusha has verily become Prakriti. Water is water whether it moves or is still. A snake is a snake whether it wriggles along or stays still and coiled up.

শ্রীরামকৃষ্ণ — আর আছে যিনিই পুরুষ তিনিই প্রকৃতি, যিনিই ব্রহ্ম তিনিই শক্তি। যখন নিষ্ক্রিয়, সৃষ্টি স্থিতি প্রলয় করছেন না, তখন তাঁকে ব্রহ্ম বলি, পুরুষ বলি; আর যখন ওই সব কাজ করেন তখন তাঁকে শক্তি বলি, প্রকৃতি বলি। কিন্তু যিনিই ব্রহ্ম তিনিই শক্তি, যিনিই পুরুষ তিনিই প্রকৃতি হয়ে রয়েছেন। জল স্থির থাকলেও জল, আর হেললে দুললেও জলসাপ এঁকে বেঁকে চললেও সাপ; আবার চুপ করে কুণ্ডলি পাকিয়ে থাকলেও সাপ


[(16 अगस्त,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-119 ]

🔱🙏*भोग और कर्म*🔱🙏

"ब्रह्म क्या है ? यह मुख से नहीं कहा जा सकता, मुख बन्द हो जाता है । कीर्तनिया लोग कीर्तन के प्रारम्भ में गाते हैं, ‘मेरे निताई मतवाले हाथी (Mad elephant) जैसा नृत्य करते है' गाते -गाते जब वे भावविभोर हो जाते हैं, तब कीर्तनीये पूरे वाक्य का उच्चारण भी नहीं कर पाते;  केवल कहते हैं 'हाथी-हाथी।' फिर 'हाथी-हाथी' कहते कहते केवल 'हा-हा' कहते हैं, और अन्त में वह भी नहीं कह सकते - बिल्कुल बाह्यज्ञान शून्य हो जाते हैं।"

"What Brahman is cannot be described. Speech stops there. In the kirtan the singers at first sing: 'My Nitai dances like a mata hati.' (Mad elephant.) As they become more and more ecstatic, they can hardly utter the whole sentence. They sing only: 'Hati! Hati!' As their mood deepens they sing only: 'Ha! Ha!' At last they cannot sing even that; they become completely unconscious."

“ব্রহ্ম কি তা মুখে বলা যায় না, মুখ বন্ধ হয়ে যায়। নিতাই আমার মাতা হাতি! নিতাই আমার মাতা হাতি! এই কথা বলতে বলতে শেষে আর কিছুই বলতে পারে না; কেবল বলে হাতি! আবার হাতি হাতি বলতে বলতে ‘হা’। শেষে তাও বলতে পারে না! বাহ্যশূন্য।”

ऐसा कहते कहते श्रीरामकृष्ण समाधिमग्न (transfixed ) हो गये । खड़े-खड़े ही समाधिमग्न ! समाधि-भंग होने के थोड़ी देर बाद कह रहे हैं – “ 'क्षर' व 'अक्षर' से परे क्या है मुँह से कहा नहीं जाता ।"

As the Master spoke these words, he himself became transfixed in samadhi. He was standing. Regaining consciousness of the world, he said, "That which is beyond both kshara and akshara cannot be described."

এই কথা বলিতে বলিতে ঠাকুর সমাধিস্থ! দাঁড়িয়ে দাঁড়িয়েই সমাধিস্থ।সমাধিভঙ্গের পর কিয়ৎকাল পরে বলিতেছেন, ‘ক্ষর’ ‘অক্ষরের’ পারে কি আছে মুখে বলা যায় না।

सभी चुप हैं; श्रीरामकृष्ण फिर कह रहे हैं, "जब तक कुछ भोग बाकी रहता है या कर्म बाकी है तब तक समाधि नहीं होती ।

[भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्।

व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते।।गीता 2.44।।

उससे जिनका चित्त हर लिया गया है, ऐसे भोग और एश्र्वर्य‌ मॆ आसक्ति रखने वाले पुरुषों के अन्तकरण मे निश्चयात्मक् बुद्धि (शाश्वत-मिथ्या विवेक)  नही हॊती, इसीलिए वे समाधि में जाने के  योग्य‌ नही होते।]

The devotees sat in silence. MASTER: "You cannot go into samadhi as long as your worldly experiences are not finished, or as long as you have duties to perform.

সকলে চুপ করিয়া আছেন, ঠাকুর আবার বলিতেছেন, “যতক্ষণ কিছু ভোগ বাকি থাকে কি কর্ম বাকি থাকে, ততক্ষণ সমাধি হয় না।১

(शशधर के प्रति) "इस समय ईश्वर तुमसे कर्म करा रहे हैं, व्याख्यान देना आदि । अब तुम्हें वही सब करना होगा ।" कर्म समाप्त हो जाने पर ही तुम्हे शान्ति प्राप्त होगी । घरवाली घर का काम-काज समाप्त करके जब नहाने जाती है तो फिर बुलाने पर भी नहीं लौटती ।”

(To Shashadhar) "God is now making you perform such duties as delivering lectures. You must do these things now. You will have peace when your duties are finished. After completing her household duties, the mistress of the family goes for her bath. She will not come back then even if you shout after her."

(শশধরের প্রতি) — “এখন ঈশ্বর তোমায় কর্ম করাচ্ছেন, লেকচার দেওয়া ইত্যাদি; এখন তোমায় ওই সব করতে হবে।“কর্মটুকু শেষ হয় গেলে আর না। গৃহিণী বাড়ির কাজকর্ম সব সেরে নাইতে গেলে ডাকাডাকি করলেও আর ফেরে না।”

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>>सवैया- (साभार @https://www.cbsetuts.com/ncert-solutions-class-12-hindi-core-kaavy-bhaag-kavitaavalee-uttar-kaand-se-lakshman-moochchh-aur-raam-ka-vilaap/)

सन्त तुलसी दास जी को यह सवैया लिखने की ज़रूरत क्यों पड़ी?

" धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूतु कहौ, जोलहा कहौ कोऊ।

काहू की बेटीसों बेटा न ब्याहब, काहू की जाति बिगार न सोऊ॥

तुलसी सरनाम (=प्रसिद्ध) गुलामु है राम को, जाको रुचै सो कहै कछु ओऊ।

मांगि कै खैबो, मसीत को सोइबो, लैबोको एकु न दैबको दोऊ॥"

--तुलसीदास  (कवितावली के उत्तर कांड से उद्धृत)

अर्थ -इन पंक्तियों में सन्त कवि तुलसी ने भक्त की गहनता और सघनता में उपजे भक्त-हृदय के आत्मविश्वास का सजीव चित्रण किया है। उनके समय में कुछ लोग (ईर्ष्यालु लोग) उनके बारे में विभिन्न प्रकार की बातें करते थे । इसी को स्पष्ट करते हुए  वे कहते हैं कि चाहे कोई मुझे धूर्त कहता है,कोई अवधूत या जोगी कहता है, कोई कोई मुझे राजपूत कहता है, तो कोई मुझे जुलाहा भी कहता है। जिसको जो कहना है कहे, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता है। राजपूत या जुलाहा कहे, किंतु मैं किसी की बेटी से अपने बेटे का विवाह नहीं करने वाला और न किसी की जाति बिगाड़ने वाला हूँ। मैं तो राम के गुलाम के रूप में प्रसिद्द हूं; और यही मेरी सबसे बड़ी पहचान है। इसलिए जिसे जो अच्छा लगे, वही कहे। मैं तो केवल अपने प्रभु राम का गुलाम हूँ। मैं (दो रोटी) माँगकर खा सकता हूँ, तथा (एक लंगोटी पहन कर) मंदिर-मस्जिद कहीं भी सो सकता हूँ, किंतु मुझे किसी से कुछ लेना-देना नहीं है। मैं तो सब प्रकार से भगवान राम को समर्पित हूँ। 

सवैया की व्याख्या :बाहर से हमें तुलसीदास सीधे-सादे, सरल, निरीह और बड़े विनम्र व्यक्ति लगते हैं, पर उन्हें भीतर से "रामभक्त होने का स्वाभिमान" इतना है कि वे दुनिया की क्षुद्र बातों से प्रभावित नहीं होते हैं।  क्योंकि ईश्वर को पूर्णत: समर्पित व्यक्ति जाति, धर्म, खानदान आदि की मान्यताओं से ऊपर उठ जाता है। उसकी सबसे बड़ी पहचान ईश्वर (ठाकुर, माँ , स्वामीजी) का समर्पित भक्त होना होती है। (अर्थात स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा  में प्रशिक्षित और चपरास प्राप्त नेता 'C-IN-C, नवनीदा द्वारा स्थापित -'Be and Make ' मनुष्य बनो और बनाओ महामण्डल आन्दोलन का एक समर्पित कर्मी होना होती है।)  तुलसी दास जी अपने विषय में किये जाने वाले मिथ्या लांछनों से क्यों विचलित नहीं होते, इस बात को उपरोक्त सवैया में स्पष्ट किया है। अपने-अपने स्वाभाव के अनुसार लोग (गांगुली, मजूमदार, मिस अय्यर, किड्जी सिंह आदि जैसे अनगिनत ईर्ष्यालु लोग) उनके बारे में तरह -तरह की बातें करते हैं। लेकिन लोग उसके बारे में कितनी भी क्षुद्र बातें क्यों न कहें, भक्ति और आत्मविश्वास के कारण उस समर्पित कर्मी (दादा का भक्त) को उन क्षुद्र बातों का तिरस्कार करने की शक्ति मिल जाती है। इस प्रकार वह (महामण्डल आंदोलन का समर्पित कार्यकर्ता) एक सच्चा धार्मिक और सच्चा भक्त, एक सच्चा मनुष्य बन जाता है। "काहू की बेटीसों बेटा न ब्याहब, काहू की जाति बिगार न सोऊ॥" इस पंक्ति पर ध्यान दिया जाए, तो इससे सामाजिक अर्थ में यह परिवर्तन आता है कि उस समय समाज में दूसरी जातियों में विवाह (अन्तर्जातीय विवाह) हुआ करते थे। लेकिन उन्हें अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता था। यदि किसी का बेटा अन्य जाति की बेटी से विवाह कर लेता था, तो उसे जाति बिगाड़ने वाला समझा जाता था। अतः लड़की तथा लड़के के माता-पिता चाहते थे कि उनकी संतान का विवाह उन्हीं की जाति में हो। इससे यह भी समझ में आता है कि सच्ची धार्मिकता और भक्ति सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक भेदभाव को नहीं मानती है। 

कवि तुलसी लिखित यह सवैया क्या स्वामी विवेकानन्द के प्रसिद्द गीत -' मैं गुलाम तेरा' की याद नहीं दिलाती ?


 सन्तकवि तुलसी दास का  जीवन परिचय- गोस्वामी तुलसीदास का जन्म बाँदा जिले के राजापुर गाँव में सन 1532 में हुआ था। कुछ लोग इनका जन्म-स्थान सोरों मानते हैं। इनका बचपन कष्ट में बीता। बचपन में ही इन्हें माता-पिता का वियोग सहना पड़ा। गुरु नरहरिदास की कृपा से इनको रामभक्ति का मार्ग मिला। इनका विवाह रत्नावली नामक युवती से हुआ। कहते हैं कि रत्नावली की फटकार से ही वे वैरागी बनकर रामभक्ति में लीन हो गए थे। विरक्त होकर ये काशी, चित्रकूट, अयोध्या आदि तीर्थों पर भ्रमण करते रहे। इनका निधन काशी में सन 1623 में हुआ।

रचनाएँ- गोस्वामी तुलसीदास की रचनाएँ निम्नलिखित हैं- रामचरितमानस, कवितावली, रामलला नहछु, गीतावली, दोहावली, विनयपत्रिका, रामाज्ञा-प्रश्न, कृष्ण गीतावली, पार्वती–मंगल, जानकी-मंगल, हनुमान बाहुक, वैराग्य संदीपनी। इनमें से ‘रामचरितमानस’ एक महाकाव्य है। ‘कवितावली’ में रामकथा कवित्त व सवैया छंदों में रचित है। ‘विनयपत्रिका’ में स्तुति के गेय पद हैं।

काव्यगत विशेषताएँ- गोस्वामी तुलसीदास रामभक्ति शाखा के सर्वोपरि कवि हैं। ये लोकमंगल की साधना के कवि के रूप में प्रतिष्ठित हैं। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यही है कि शास्त्रीय भाषा (संस्कृत) में सर्जन-क्षमता होने के बावजूद इन्होंने लोकभाषा (अवधी व ब्रजभाषा) को साहित्य की रचना का माध्यम बनाया। तुलसीदास में जीवन व जगत की व्यापक अनुभूति और मार्मिक प्रसंगों की अचूक समझ है। यह विशेषता उन्हें महाकवि बनाती है। ‘रामचरितमानस’ में प्रकृति व जीवन के विविध भावपूर्ण चित्र हैं, जिसके कारण यह हिंदी का अद्वतीय महाकाव्य बनकर उभरा है। इसकी लोकप्रियता का कारण लोक-संवेदना और समाज की नैतिक बनावट की समझ है। इनके सीता-राम ईश्वर की अपेक्षा तुलसी के देशकाल के आदशों के अनुरूप मानवीय धरातल पर पुनः सृष्ट चरित्र हैं

भाषा-शैली- गोस्वामी तुलसीदास अपने समय में हिंदी-क्षेत्र में प्रचलित सारे भावात्मक तथा काव्यभाषायी तत्वों का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनमें भाव-विचार, काव्यरूप, छंद तथा काव्यभाषा की बहुल समृद्ध मिलती है। ये अवधी तथा ब्रजभाषा की संस्कृति कथाओं में सीताराम और राधाकृष्ण की कथाओं को साधिकार अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाते हैं। उपमा अलंकार के क्षेत्र में जो प्रयोग-वैशिष्ट्य कालिदास की पहचान है, वही पहचान सांगरूपक के क्षेत्र में तुलसीदास की है। एक बानगी देखें - 

किसबी, किसान-कुल, बनिक, भिखारी,भाट,

चाकर, चपला नट, चोर, चार, चेटकी।

पेटको पढ़त, गुन गुढ़त, चढ़त गिरी,

अटत गहन-गन अहन अखेटकी।।


ऊँचे-नीचे करम, धरम-अधरम करि,

पेट ही की पचित, बोचत बेटा-बेटकी।।

‘तुलसी ‘ बुझाई एक राम घनस्याम ही तें,

आग बड़वागितें बड़ी हैं आग पेटकी।।

शब्दार्थ- किसबी-धंधा। कुल- परिवार। बनिक- व्यापारी। भाट- चारण, प्रशंसा करने वाला। चाकर- घरेलू नौकर। चपल- चंचल नट । चार- गुप्तचर, दूत। चटकी- बाजीगर। गुनगढ़त- विभिन्न कलाएँ व विधाएँ सीखना। अटत- घूमता। अखटकी- शिकार करना। गहन गन- घना जंगल। अहन- दिन। करम-कार्य। अधरम- पाप। बुझाड़- बुझाना, शांत करना। घनश्याम- काला बादल। बड़वागितें- समुद्र की आग से। आग येट की- भूख।

व्याख्या -इस कवित्त में कवि ने तत्कालीन सामाजिक व आर्थिक दुरावस्था का यथार्थपरक चित्रण किया है। तुलसीदास कहते हैं कि इस संसार में मजदूर, किसान-वर्ग, व्यापारी, भिखारी, चारण, नौकर, चंचल नट, चोर, दूत, बाजीगर आदि पेट भरने के लिए अनेक काम करते हैं। कोई पढ़ता है, कोई अनेक तरह की कलाएँ सीखता है, कोई पर्वत पर चढ़ता है तो कोई दिन भर गहन जंगल में शिकार की खोज में भटकता है। पेट भरने के लिए लोग छोटे-बड़े कार्य करते हैं, किन्तु  धर्म-अधर्म का विचार नहीं करते। पेट के लिए वे अपने बेटा-बेटी को भी बेचने को विवश हैं। तुलसीदास कहते हैं कि अब ऐसी आग भगवान राम रूपी बादल से ही बुझ सकती है, क्योंकि पेट की आग तो समुद्र की आग से भी भयंकर है

खेते न किसान को, भिखारी को न भीख, बलि,

बनिक को बनिज, न चाकर को चाकरी

जीविका बिहीन लोग सीद्यमान सोच बस,

कहैं एक एकन सों ‘ कहाँ जाई, का करी ?’

बेदहूँ पुरान कही, लोकहूँ बिलोकिअत,

साँकरे स सबैं पै, राम ! रावरें कृपा करी।

दारिद-दसानन दबाई दुनी, दीनबंधु !

दुरित-दहन देखि तुलसी हहा करी। 

शब्दार्थ-बलि- दान-दक्षिणा। बनिक- व्यापारी। बनिज- व्यापार। चाकर- घरेलू नौकर। चाकरी- नौकरी। जीविका बिहीन- रोजगार से रहित। सदयमान-दुखी। सोच- चिंता। बस- वश में। एक एकन सों- आपस में। का करी- क्या करें। बेदहूँ- वेद। पुरान- पुराण। लोकहूँ- लोक में भी। बिलोकिअत- देखते हैं। साँकरे- संकट। रावरें- आपने। दारिद- गरीबी। दसानन- रावण। दबाढ़- दबाया। दुनी- संसार। दीनबंधु- दुखियों पर कृपा करने वाला। दुरित- पाप। दहन-जलाने वाला, नाश करने वाला। हहा करी-दुखी हुआ।

व्याख्या- इस कवित्त में कवि ने तत्कालीन सामाजिक व आर्थिक दुरावस्था का यथार्थपरक चित्रण किया है। तुलसीदास कहते हैं कि अकाल की भयानक स्थिति है। इस समय किसानों की खेती नष्ट हो गई है। उन्हें खेती से कुछ नहीं मिल पा रहा है। कोई भीख माँगकर निर्वाह करना चाहे तो भीख भी नहीं मिलती। कोई बलि का भोजन भी नहीं देता। व्यापारी को व्यापार का साधन नहीं मिलता। नौकर को नौकरी नहीं मिलती। इस प्रकार चारों तरफ बेरोजगारी है। आजीविका के साधन न रहने से लोग दुखी हैं तथा चिंता में डूबे हैं। वे एक-दूसरे से पूछते हैं-कहाँ जाएँ? क्या करें? वेदों-पुराणों में ऐसा कहा गया है और लोक में ऐसा देखा गया है कि जब-जब भी संकट उपस्थित हुआ, तब-तब राम ने सब पर कृपा की है। हे दीनबंधु! इस समय दरिद्रतारूपी रावण ने समूचे संसार को त्रस्त कर रखा है अर्थात सभी गरीबी से पीड़ित हैं। आप तो पापों का नाश करने वाले हो। चारों तरफ हाय-हाय मची हुई है।

पेट की आग का शमन ईश्वर (राम) भक्ति का मेघ ही कर सकता है-तुलसी का यह काव्य-सत्य कुछ हद तक इस समय का भी युग-सत्य हो सकता है किंतु यदि आज व्यक्ति इष्ट -निष्ठा भाव और मेहनत से काम करे तो उसकी सभी समस्याओं का समाधान हो जाता है। इष्टनिष्ठा और पुरुषार्थ-दोनों मिलकर ही मनुष्य के पेट की आग का शमन कर सकते हैं। दोनों में एक भी पक्ष असंतुलित होने पर वांछित फल नहीं मिलता। अत: इष्ट-भक्ति और पुरुषार्थ दोनों की महत्ता हर युग में रही है और आगे भी रहेगी।

तुलसीदास अपने युग के स्रष्टा एवं द्रष्टा थे। उन्होंने अपने युग की प्रत्येक स्थिति को गहराई से देखा एवं अनुभव किया था। लोगों के पास चूँकि धन की कमी थी इसलिए वे धन के लिए सभी प्रकार के अनैतिक कार्य करने लग गए थे। उन्होंने अपने बेटा-बेटी तक बेचने शुरू कर दिए ताकि कुछ पैसे मिल सकें। पेट की आग बुझाने के लिए हर अधर्मी और नीचा कार्य करने के लिए तैयार रहते थे। जब किसान के पास खेती न हो और व्यापारी के पास व्यापार न हो तो ऐसा होना स्वाभाविक है।

सुत बित नारि भवन परिवारा। होहिं जाहिं जग बारह बारा।।

अस बिचारि जिय जागहु ताता। मिलइ न जगत सहोदर भ्राता।।

जथा पंख बिनु खग अति दीना। मनि बिनु फनि करिबर कर हीना।।

अस मम जिवन बंधु बिनु तोही। जों जड़ दैव जिआर्वे मोही।।

जैहउँ अवध कवन मुहुँ लाई। नारि हेतु प्रिय भाड़ गवाई।।

बरु अपजस सहतेउँ जग माहीं। नारि हानि बुसेष छति नहीं।।

प्रसंग- प्रस्तुत काव्यांश कवितावली से  संकलित ‘लक्ष्मण-मूच्छी और राम का विलाप’ प्रसंग से उद्धृत है। यह प्रसंग रामचरितमानस के लंकाकांड से लिया गया है। इसके रचयिता तुलसीदास हैं। इस प्रसंग में लक्ष्मण-मूच्छा पर राम के विलाप का वर्णन है।

व्याख्या- श्रीराम व्याकुल होकर कहते हैं कि संसार में पुत्र, धन, स्त्री, भवन और परिवार बार-बार मिल जाते हैं और नष्ट हो जाते हैं, किंतु संसार में सगा भाई दुबारा नहीं मिलता। यह विचार करके, हे तात, तुम जाग जाओ। हे लक्ष्मण! जिस प्रकार पंख के बिना पक्षी, मणि के बिना साँप, सँड़ के बिना हाथी अत्यंत दीन-हीन हो जाते हैं, उसी प्रकार तुम्हारे बिना मेरा जीवन व्यर्थ है। हे भाई! तुम्हारे बिना यदि भाग्य मुझे जीवित रखेगा तो मेरा जीवन भी पंखविहीन पक्षी, मणि विहीन साँप और सँड़ विहीन हाथी के समान हो जाएगा। राम चिंता करते हैं कि वे कौन-सा मुँह लेकर अयोध्या जाएँगे? लोग कहेंगे कि पत्नी के लिए प्रिय भाई को खो दिया। मैं पत्नी के खोने का अपयश सहन कर लेता, क्योंकि नारी की हानि विशेष नहीं होती।

राम कौशल्या के पुत्र थे और लक्ष्मण सुमित्रा के। इस प्रकार वे परस्पर सहोदर (एक ही माँ के पेट से जन्मे) नहीं थे। फिर, राम ने उन्हें लक्ष्य करके ऐसा क्यों कहा—‘मिलह न जगत सहोदर भ्राता’?  राम अपनी माताओं में कोई अंतर नहीं समझते थे। राम और लक्ष्मण भले ही एक माँ से पैदा नहीं हुए थे, परंतु वे सबसे ज्यादा एक-दूसरे के साथ रहे।  लक्ष्मण सदैव परछाई की तरह राम के साथ रहते थे। उनके जैसा त्याग सहोदर भाई भी नहीं कर सकता था। इसी कारण राम ने कहा कि लक्ष्मण जैसा सहोदर भाई संसार में दूसरा नहीं मिल सकता

विष्णु भगवान के अवतार भगवान श्री राम का मनुष्य के समान व्याकुल होना और राम, लक्ष्मण  का यह परस्पर भ्रातृ-प्रेम हमारे लिए प्रेरणा का स्रोत है।भगवान श्री राम के अनुसार संसार के सब सुख भाई पर न्यौछावर किए जा सकते हैं। भाई के अभाव में जीवन व्यर्थ है और भाई जैसा कोई हो ही नहीं सकता। आज के युग में यह सीख अनेक सामाजिक कष्टों से मुक्त करवा सकती है।

>>अवधूत शब्द का रोचक रहस्य -(साभार @https://www.madhuribajpai.com/2020/11)

 अवधूत एक परमदशा है। अब जिसको दूसरे की जरूरत न रही। वधू से मतलब दूसरा। जीवन मे किसी को पत्नी की जरूरत है, किसी को मकान की जरूरत है,किसी को दूकान की जरूरत है, किसी को मित्र की जरूरत है,किसी को बेटे की, बेटी की, कोई न कोई जरूरत बनी ही रहती है। इतना ही काफी नहीं किसी को धन की, किसी को पद की,किसी को नाम-यश की भी जरूरत भी होती है। जब तक दूसरे की जरूरत है,तब तक आप अवधू नहीं हैं। अब जो ‘पर’ से मुक्त हो गया, जिसको दूसरे की जरूरत बिल्कुल भी न रही, जो अकेला ही काफी है,जो अपने में ही पूरा है ।  

   अभी तक आपने जाना होगा कि व्यक्ति पहले गृहस्थ होता है,फिर गृहस्थ से संन्यस्त बनता है,और एक दिन ऐंसा भी घटित होता है कि फिर संन्यस्त के भी पार हो जाता है। तो अवधूत अवस्था को उपलब्ध होता है। अवधूत अवस्था को प्राप्त दो सम्प्रदाय हैं :- पहला शैव, दूसरा वैष्णव। शैव अवधूत वे हैं जो कठोर साधना में जीवन व्यतीत करते हैं। इस सम्प्रदाय में विशेष रूप से विचित्र अवधूत के रूप में गुरु गोरख नाथ जी को जाना जाता है। वैष्णव अवधूत वे हैं जो  प्रमुख रूप से गृहस्थ  रहकर भी सन्यस्त हो सकते हैं। जिनके मन की अवस्था कुछ  ऐंसी है कि आप जहां हो, वहीं। जैसे हो वैसे ही । ठीक उसी दशा में आपके भीतर रूपांतरण हो जाए। क्योंकि रूपांतरण मनःस्थिति का है–परिस्थिति का नहीं। अर्थात सन्यासी और गृहस्थी एक साथ जरा भी भेद नहीं । 

प्रभु श्री रामकृष्ण भी इस विधि से सहमत हैं। त्याग अर्थात संसार छोड़ना, संसार में रहने से बड़ी बात है। लेकिन संसार में रहना और संसार को छोड़कर रहना, संसार छोड़ने से भी कीमती बात है। तो भगवान श्री रामकृष्ण कहते हैंः अवधूत से भी ऊपर एक दशा है । और वह दशा है–जल में कमलवत ;  संसार में होकर भी संसार को अपने में न होने देना। ठाकुर उसके पक्षपाती है। आगे वे कहते हैं कि संसार से मुक्त होने से भी बड़ी बात है, संसार में रहते हुए मुक्त होना। वह ठाकुर देव (विवेकानन्द)  का जगत  और ब्रह्म  के बीच का जोड़ है । जगत  और ब्रह्म के बीच का समन्वय है। तो एक बात तो निश्चित है कि संसारी से बेहतर है त्यागीलेकिन त्यागी से भी बेहतर है वह, जो संसार में है और संन्यस्त है

इस तरह शैव और वैष्णव दोंनो ही सम्प्रदाय में यह उपयोगी रहस्य है जो हमारे जीवन को बदल सकता है। चाहे शेव की तरह अवधूत हो कोई या फिर वैष्णव की तरह से यह अवधूत शब्द की रचना ईश्वर के निकट में रहने की अवस्था है। इतने निकट की उसी में हम जीने लगें। हर सांस में ईश्वर ही वस जाए। ऐंसा है अवधूत का रहस्य

>>>Brahma Cakra: The Cycle of Creation/ (ब्रह्म चक्र: सृष्टि चक्र का तांत्रिक सिद्धान्त ) साभार @/https://www.anandamarga.org/articles/brahmacakra/] 

सभी धर्मों में लोगों ने किसी न किसी रूप में विश्व की उत्पत्ति की व्याख्या करने का प्रयास किया है। तंत्र मार्ग  में सृजन का एक सिद्धांत पाया जा सकता है जो न केवल आधुनिक विज्ञान के वर्तमान विचारों के अनुरूप है, बल्कि कई ब्रह्माण्ड संबंधी प्रश्नों के उत्तर खोजने के लिए,  जो अभी तक अनसुलझे हैं, उनकी खोज में वैज्ञानिकों का मार्गदर्शन करने के लिए भी काम कर सकता है । 

       सृष्टि-चक्र का तांत्रिक सिद्धांत, वैज्ञानिक होने के साथ-साथ पूर्णतया आध्यात्मिक भी है। यह आश्चर्य की बात है  कि सौर मण्डल के तारे कैसे अपनी कक्षाओं (orbits) में सटीक रूप से चलते हैं ? अमीबा से मानव तक विभिन्न जीवित प्राणियों की गहनता और सुंदरता और गहन बुद्धि और व्यवस्था के अन्य साक्ष्य ब्रह्मांड के निर्माण और विकास की तांत्रिक अवधारणा द्वारा ब्रह्मांड की उपेक्षा नहीं की जाती है। बल्कि, तंत्र मार्ग ब्रह्माण्ड विज्ञान अनंत चेतना को देखकर शुरू होता है जो हर चीज का स्रोत है। यह चेतना (शाश्वत चैतन्य स्पंदन-the infinite consciousness) ही सृष्टि की प्रथम कारण मानी जाती है, और इसे ब्रह्म के नाम से जाना जाता है। इस प्रकार सृष्टि का वह चक्र जिसमें 'ब्रह्म' खुद को इस प्रकट ब्रह्मांड (व्यक्त जगत) के रूप में रूपान्तरित (transform) करते बदलते हैं, ब्रह्मचक्र के रूप में जाना जाता है।

ब्रह्मचक्र




ब्रह्मचक्र

[Tantric conception of creation and development of the cosmos.] 

(आनन्द मार्ग के आचार्य वेदप्रज्ञानानन्द अवधूत द्वारा निर्मित) 

ब्रह्मा का अर्थ है "वह इकाई जो महान है और दूसरों को महान बनाने की क्षमता रखती है।" हमलोग ऐसा कह सकते हैं कि ," Brahman is made of consciousness and energy. "ब्रह्म चेतना और ऊर्जा से बना है।" संस्कृत में चेतना (consciousness)  को पुरुष और ऊर्जा (energy) को प्रकृति कहा जाता है। चेतना (शाश्वत चैतन्य-the infinite consciousness) का दूसरा नाम शिव (Shiva) है, और ऊर्जा को शक्ति (shakti) भी कहा जा सकता है। यद्यपि हम कह सकते हैं कि ब्रह्म चेतना और ऊर्जा का सम्मिश्रण है, लेकिन इस बात को निश्चित रूप से जान लेना चाहिए कि 'ब्रह्म'  एक विलक्षण (Brahman is a singular entity.) इकाई है। इसके दो “भाग” कागज के एक टुकड़े के दो पहलू की तरह हैं – इन्हें कभी अलग नहीं किया जा सकता। अर्थात ब्रह्म और शक्ति (श्रीरामकृष्ण देव और माँ श्री सारदा देवी) अभेद्य हैं , यानि अग्नि और उसकी दाहिका शक्ति की तरह ही ब्रह्मांडीय ऊर्जा (cosmic energy- माँ काली ) से ब्रह्माण्डीय चेतना या ब्रह्म (cosmic Consciousness) को कभी स्वतंत्र रूप से अलग नहीं किया जा सकता।  

Brahma means “the Entity which is great and has the capacity to make others great.”ब्रह्म का अर्थ है "वह इकाई (मार्गदर्शक नेता, विष्णुसहस्रनाम में भगवान विष्णु का एक नाम है नेता, माँ जगदम्बा- ठाकुर, माँ , स्वामीजी या   C-IN-C नवनीदा) जो स्वयं महान हैं और दूसरों को भी महान बनाने की क्षमता रखते है।" ब्रह्म चेतना और ऊर्जा से बना है। संस्कृत में चेतना को पुरुष और ऊर्जा को प्रकृति कहा जाता है। (चेतना का दूसरा नाम शिव है, और ऊर्जा को शक्ति भी कहा जा सकता है)। यद्यपि हम कह सकते हैं कि ब्रह्म चेतना और ऊर्जा का सम्मिश्रण है, इस बात पर जोर दिया जाना चाहिए कि ब्रह्म एक विलक्षण इकाई है। इसके दो “भाग” कागज के एक टुकड़े के दो पहलू की तरह हैं – इन्हें कभी अलग नहीं किया जा सकता। ब्रह्मांडीय ऊर्जा से चेतना कभी भी स्वतंत्र रूप से अस्तित्व में नहीं रहती है।


[ ( 23 मई , 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-115]/

ब्रह्म और जगत :🔱ईश्वरकोटि और जीवकोटि🔱/ 

श्रीरामकृष्ण - कोई ऊपर चढ़कर फिर उतर नहीं सकता, और कोई (जन्मजात नेता) ऊपर चढ़कर नीचे उतरकर घूम-फिर सकता है ।

MASTER: "Some people climb the (Transcend) seven floors of a building [Time, Space and Causation] and cannot get down; but some climb up and then, at will, visit the lower floors.

শ্রীরামকৃষ্ণ — কেউ সাততলার উপরে উঠে আর নামতে পারে না, আবার কেউ উঠে নিচে আনাগোনা করতে পারে।] 

"उद्धव ने गोपियों से कहा था, तुम जिन्हें अपना कृष्ण बना रही हो वे सर्वभूतों में हैं, वे ही जीव-जगत् हुए हैं ।

["Uddhava said to the gopis: 'He whom you address as your Krishna dwells in all beings. It is He alone who has become the universe and its living beings.'

“উদ্ধব গোপীদের বলেছিলেন, তোমরা যাকে কৃষ্ণ বলছ, তিনি সর্বভূতে আছেন, তিনিই জীবজগৎ হয়ে রয়েছেন।

“इसीलिए कहता हूँ, क्या आँखें बन्द करने से ही ध्यान होता है और आँखे खोलने से कुछ नहीं ?"

"Therefore I say, does a man meditate on God only when his eyes are closed? Doesn't he see anything of God when his eyes are open?"

“তাই বলি চোখ বুজলেই ধ্যান, চোখ খুললে আর কিছু নাই?”

[>>>>रटन्ती काली पूजा और पथिक -प्रेमिक संवाद : शंकराचार्य यह भी कहते हैं कि शक्ति के पलक बन्द करते ही समस्त ब्रह्माण्ड प्रलय से नष्ट हो जाता है तथा उनके पलक खोलते ही ब्रह्माण्ड पुनः अस्तित्व में आ जाता है-‘‘निमेषोन्मेषाभ्यां प्रलयमुदयं याति जगती’’] 

>>> श्री गुरु नानक देव का जीवन और सन्देश  :  श्री नानक देव को प्रभु में असीम प्रेम था क्योंकि यह पुण्यात्मा युगों-युगों से  पवित्र भगवान (काल) की  ब्रह्म -भक्ति करते हुए आ रहे थे। सत्ययुग में यही नानक जी राजा अम्ब्रीष थे तथा  विष्णु जी को अपना इष्ट मानकर ब्रह्म-भक्ति किया करते थे। त्रेता युग में श्री नानक जी ही राजर्षि जनक विदेही बने थे;  जो सीता जी (वैदेही) के पिता कहलाए। उस समय सुखदेव ऋषि जो महर्षि वेदव्यास के पुत्र थे जो अपनी सिद्धि से आकाश में उड़ जाते थे। परन्तु गुरु से उपदेश नहीं ले रखा था। जब सुखदेव विष्णुलोक के स्वर्ग में गए तो गुरु न होने के कारण वापिस आना पड़ा। विष्णु जी के आदेश से राजा जनक को गुरु बनाया तब स्वर्ग में स्थान प्राप्त हुआ। फिर कलियुग में यही राजा जनक की आत्मा एक हिन्दु परिवार में श्री कालुराम मेहता (खत्री) के घर उत्पन्न हुए तथा श्री नानक नाम रखा गया।

श्री गुरु नानक देव का जन्म विक्रमी संवत् 1526 (सन् 1469) कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा को हिन्दू परिवार में श्री कालु राम मेहता (खत्री) के घर माता श्रीमती तृप्ता देवी की पवित्र कोख (गर्भ) से पश्चिमी पाकिस्त्तान के जिला लाहौर के तलवंडी नामक गाँव में हुआ। गुरु नानक देव जी दस सिक्ख गुरुओं में से पहले और सिक्ख धर्म के संस्थापक थे। 

 गुरु नानक जी का जन्मदिन (कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा) को  दुनिया भर में 'गुरु नानक गुरुपर्व' और प्रकाश उत्सव के रूप में मनाया जाता है। वे सिख जनो के प्यारे गुरु भी हैं, सुलक्खनी देेेवी के प्रिय पति तथा पुत्र श्रीचंद, पुत्र लख़्मी चन्द के प्रिय पिता के रूप में सदग्रहथ भी हैं एवं जप सिद्ध योगी भी हैं, अर्थात गुरु नानक देव जी संन्यासी और गृहस्थ दोनों एक साथ हैं

निश्चित ही  सिख (शिष्य) होना तो बड़ा कठिन कार्य है। गृहस्थ होना आसान है। संन्यासी होना भी आसान है, छोड़ दो, भाग जाओ जंगल। सिक्ख होना कठिन है। क्योंकि सिक्ख का अर्थ है--'संन्यासी और गृहस्थ एक साथ।' रहना घर में और ऐसे रहना जैसे घर में नहीं हो। रहना घर में और ऐसे रहना जैसे हिमालय पर हो। करना दूकान, लेकिन याद ईश्वर की रखना। गिनना रुपए, नाम उसका लेना

#गुरु नानक देव जी के गुरु कौन थे? नानक जी का संक्षिप्त रूप यथार्थ परिचय‘‘नानक जी तथा परमेश्वर कबीर जी की ज्ञान चर्चा’’

श्री नानक जी ने फारसी, पंजाबी, संस्कृत भाषा पढ़ी हुई थी। वे श्रीमद् भगवत गीता को श्री बृजलाल पांडे से पढ़ा करते थे। श्री नानक देव जी के श्री चन्द तथा लखमी चन्द नामक दो लड़के थे। श्री नानक जी अपनी बहन नानकी की ससुराल शहर सुल्तानपुर में अपने बहनोई श्री जयराम जी की कहने से सुल्तान पुर के नवाब के यहाँ मोदी खाने की नौकरी किया करते थे। बाबा नानक देव जी प्रातःकाल प्रतिदिन सुल्तानपुर के पास बह रही बेई दरिया में स्नान करने जाया करते थे तथा घण्टों प्रभु चिन्तन में बैठे रहते थे। एक दिन एक जिन्दा फकीर बेई दरिया पर मिले तथा नानक जी से कहा कि आप बहुत अच्छे प्रभु भक्त नजर आते हो। कृपया मुझे भी भक्ति मार्ग बताने की कृपा करें। मैं बहुत भटक लिया हूँ। मेरा संशय समाप्त नहीं हो पाया है। लोगों ने पूछा आप किस से बात कर रहे थे ? नानक जी ने कहा यह काशी में रहता है, नीच जाति का जुलाहा (धाणक) कबीर था। बेतुकी बातें कर रहा था। कह रहा था कि कृष्ण जी तो काल के चक्र में है तथा मुझे भी कह रहा था कि आपकी साधना ठीक नहीं है। 

कुछ समय के उपरान्त जिन्दा फकीर रूप में कबीर जी ने पुनः उसी बेई नदी के किनारे पहुँच कर श्री नानक जी को राम-राम कहा। उस समय श्री नानक जी कपड़े उतार कर स्नान के लिए तैयार थे। जिन्दा महात्मा केवल श्री नानक जी को दिखाई दे रहे थे अन्य को नहीं। श्री नानक जी से वार्ता करने लगे। कबीर जी ने कहा कि आप मेरी बात पर विश्वास करो। एक पूर्ण परमात्मा है तथा उसका सतलोक स्थान है जहाँ की भक्ति करने से जीव सदा के लिए जन्म-मरण से छूट सकता है। उस स्थान तथा उस परमात्मा की प्राप्ति की साधना का केवल मुझे ही पता है अन्य को नहीं तथा गीता अध्याय न. 18 के श्लोक न. 62 में कहा गया है -

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।

तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्।।18.62।। 

।।18.62।। हे भारत ! तुम सम्पूर्ण भाव से उसी (ईश्वर- अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण, माँ सारदा और स्वामी विवेकानन्द) की शरण में जाओ।  फिर उस ईश्वर के अनुग्रह से ,उसके प्रसाद से,  तुम परम शान्ति अर्थात् उपरति को और शाश्वत स्थान को अर्थात् मुझ विष्णु के परम नित्यधाम को  प्राप्त करोगे।

ईशावास्योपनिषद् के प्रथम मन्त्र का भावार्थ यह है कि यह सम्पूर्ण जगत् ईश्वर से व्याप्त है। इसलिए नामरूपों के भेद से दृष्टि हटाकर अनन्त परमात्मा का आनन्दानुभव करो, और किसी के धन का लोभ मत करो।  गीतादर्शन का सारतत्त्व भी यही है कि अहंकार का त्याग करके अपने कर्त्तव्य करो। आत्मा और अनात्मा (देह -मन)  के मिथ्या सम्बन्ध से ही कर्तृत्वाभिमानी जीव की उत्पत्ति होती है। यह जीव ही संसार के दुखों को भोगता रहता है। अतः  इससे अपनी मुक्ति के लिए अहंकार का परित्याग करना चाहिए। यहाँ प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि अहंकार का त्याग कैसे करें इसके उत्तर में ईश्वरार्पण की भावना का वर्णन किया गया है। 

 पूर्वश्लोक में ही ईश्वर के स्वरूप को दर्शाया गया है। इसलिए, अब, भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं-  तुम उसी हृदयस्थ ईश्वर की शरण में जाओ। शरण में जाने का अर्थ है अभिमान एवं फलासक्ति का त्याग करके,  कर्माध्यक्ष, कर्मफल दाता ईश्वर (ठाकुर-माँ -स्वामी जी,....  नवनीदा) का सतत स्मरण करते हुए (Be and Make) कर्म करना। इसके फलस्वरूप चित्त की शुद्धि प्राप्त होगी , जो आत्मज्ञान में सहायक होगी।

 आत्मज्ञान की दृष्टि से शरण का अर्थ होगा समस्त अनात्म उपाधियों के तादात्म्य को त्यागकर आत्मस्वरूप ईश्वर के साथ एकत्व का अनुभव करना। यह शरणागति अपने सम्पूर्ण व्यक्तित्व के साथ ही हो सकती है (सर्वभावेन)? अधूरे हृदय से नहीं। राधा, हनुमान और प्रह्लाद जैसे भक्त इसके उदाहरण हैं। चित्त की शुद्धि और आत्मानुभूति ही ईश्वर की कृपा अथवा प्रसाद है। जिस मात्रा में अनात्मा के साथ हमारा तादात्म्य निवृत्त होगा;  उसी मात्रा में हमें ईश्वर का यह प्रसाद प्राप्त होगा।

भारत भरतवंश में जन्म लेने के कारण अर्जुन का नाम भारत था। शब्द व्युत्पत्ति के अनुसार इसका अर्थ है वह पुरुष जो 'भा ' अर्थात् प्रकाश (ज्ञान) में रत है। आध्यात्मिक ज्ञान के प्रकाश में रमने वाले ऋषियों के कारण ही यह देश भारत कहा गया है। अध्याय 15 श्लोक 3- 4 में भी उस परमात्मा तथा स्थान के विषय में वर्णन है- 

न रूपमस्येह तथोपलभ्यते,

नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा।

अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल,

मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा।।15.3।।

।।15.3।। इस (संसार वृक्ष) का स्वरूप जैसा कहा गया है वैसा यहाँ उपलब्ध नहीं होता है, क्योंकि इसका न आदि है और न अंत और न प्रतिष्ठा ही है। इस अति दृढ़ मूल वाले अश्वत्थ वृक्ष को दृढ़ असङ्ग शस्त्र से काटकर ...৷৷৷৷।।

यह जो वर्णन किया हुआ संसारवृक्ष (जगत)  है --, इसका स्वरूप जैसा यहाँ वर्णन किया गया है, वैसा उपलब्ध नहीं होता।  क्योंकि यह स्वप्न की वस्तु,  मृगतृष्णा के जल और माया रचित गन्धर्व-नगर के समान होने से, देखते-देखते नष्ट होने वाला है। इसी कारण इस जगत का  अन्त अर्थात् अन्तिमावस्था अवसान या समाप्ति भी नहीं है। तथा इसका आदि भी नहीं है, अर्थात् यहाँ से आरम्भ होकर यह संसार चला है, ऐसा किसी से नहीं जाना जा सकता और इसकी संप्रतिष्ठा-स्थिति भी नहीं है।  यानी आदि और अन्त के बीच की अवस्था भी किसीको उपलब्ध नहीं होती। 

इस उपर्युक्त सुविरूढमूल यानी जिसकी मूलें - जड़ें अत्यन्त दृढ़ हो गयी हैं -- भली प्रकार संगठित हो चुकी हैं।  ऐसे संसार-रूप अश्वत्थ को असङ्ग-शस्त्र से छेदन करके यानी पुत्रैषणा,  वित्तैषणा और लोकैषणा  आदि से उपराम हो जाना ही असङ्ग है  ऐसे असङ्गशस्त्र से जो कि परमात्मा के सम्मुख होना रूप निश्चय से दृढ़ किया हुआ है और बारंबार विवेकाभ्यास रूप पत्थर पर घिसकर पैना किया हुआ है, इस संसार-वृक्ष (जगत) को बीजसहित उखाड़कर।

ततः पदं तत्परिमार्गितव्य,

यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।

तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये,

यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी।।15.4।।

पदच्छेदः-ततः पदं तत् परिमार्गितव्यं यस्मिन् गताः न निवर्तन्ति भूयः,  तम् एव च आद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी ॥ ४ ॥

अन्वयःअस्य रूपम् इह न उपलभ्यते तथा न अन्तः न च आदिः न च सम्प्रतिष्ठा । सुविरूढमूलम् एनम् अश्वत्थं दृढेन असङ्गशस्त्रेण छित्त्वा, ततः यतः पुराणी प्रवृत्तिः प्रसृता तम् एव च आद्यं पुरुषं प्रपद्ये इति मत्वा यस्मिन् गताः भूयः न निवर्तन्ति तत् पदं परिमार्गितव्यम् ।

शब्दार्थः-सम्प्रतिष्ठा = स्थितिः (मध्यः),सुविरूढमूलम् = सुदृढमूलम्,असशस्त्रेण = वैराग्यायुधेन, छित्त्वा = द्विधा कृत्वा, पदम् = स्थानम्,परिमार्गितव्यम् = अन्वेष्टव्यम्, पुराणी = प्राचीना, प्रवृत्तिः = संसारप्रवृत्तिः, प्रसृता = प्रवृत्ता, आद्यम् = प्रथमम्, पुरुषम् = परमपुरुषम्, प्रपद्ये = प्राप्नोमि ।

उसके पश्चात् उस परम वैष्णवपद को खोजना चाहिये अर्थात् जानना चाहिये कि जिस पद में पहुँचे हुए पुरुष, फिर संसारमें नहीं लौटते।  -- पुनर्जन्म ग्रहण नहीं करते। ( उस पद को ) कैसे खोजना चाहिये ?  इस भाव से अर्थात् उसके शरणागत होकर खोजना चाहिये। वह पुरुष कौन है ?  सो बतलाते हैं --सो कहते हैं -- "मैं उसी आदि पुरुष की शरण हूँ, जिससे यह पुरातन प्रवृत्ति प्रसृत हुई है"। जिस पुरुष से बाजीगर की माया के समान इस मायारचित संसारवृक्ष की सनातन प्रवृत्ति विस्तार को प्राप्त हुई है -- प्रकट हुई है। मैं उसी माँ जगदम्बा की शरण हूँ ! 

कहीं ऐसा न हो कि कोई विद्यार्थी इस रूपक ' ऊर्ध्वमूलं अधोशाखा' के वास्तविक अभिप्राय को न समझकर उसे कोई लौकिक वृक्ष ही समझ लें !  गीताचार्य भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि जैसा वर्णन किया गया है, वैसा वृक्ष यहाँ उपलब्ध नहीं होता। पूर्व श्लोक में वर्णित अश्वत्थ वृक्ष इस व्यक्त हुए सम्पूर्ण जगत् का प्रतीक है। 

 सूक्ष्म चैतन्य आत्मा विविध रूपों और विभिन्न स्तरों पर विविधत व्यक्त होता है जैसे शरीर, मन और बुद्धि में क्रमश विषय, भावनाओं और विचारों के प्रकाशक के रूप में और कारण शरीर में वह अज्ञान को प्रकाशित करता है।  आत्मअज्ञान या वासनाओं को ही कारण शरीर 'causal body' कहते हैं। ये समस्त उपाधियाँ तथा उनके अनुभव अपनी सम्पूर्णता में अश्वत्थवृक्ष के द्वारा निर्देशित किये गये हैं। 

कोई भी पुरुष इस संसार वृक्ष का आदि, या अन्त,  या प्रतिष्ठा नहीं देख सकता। यह वृक्ष परम सत्य के अज्ञान से उत्पन्न होता है। जब तक वासनाओं का प्रभाव बना रहता है तब तक इसका अस्तित्व भी रहता है ; किन्तु आत्मा के अपरोक्ष ज्ञान से यह समूल नष्ट हो जाता है। बहुसंख्यक लोगों द्वारा इन आध्यात्मिक आशयों को न देखा जाता है और न पहचाना या समझा ही जाता है। इस संसार (जगत) वृक्ष को काटने का एकमात्र शस्त्र है असंग अर्थात् वैराग्य। 

भौतिक जगत् जड़, अचेतन है। इसके द्वारा जो (सुख-दुःख)अनुभव प्राप्त किया जाता है,  वह चैतन्य के सम्बन्ध के कारण ही संभव होता है। जब तक कार के पहियों  का सम्बन्ध मशीन से बना रहता है तब तक उनमें गति रहती है। यदि प्रवाहित होने वाली शक्ति को रोक दिया जाये तो वे चक्र स्वत ही गतिशून्य स्थिति में आ जायेंगे।  इसी प्रकार यदि हम अपना ध्यान शरीर, मन और बुद्धि से निवृत्त करें, तो तादात्म्य के अभाव में विषय भावनाओं तथा विचारों का ग्रहण स्वत अवरुद्ध हो जायेगा। तादात्म्य की निवृत्ति को ही वैराग्य कहते हैं। यहाँ उसे असंग शस्त्र कहा गया है। भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हैं कि उसको इस असंगशस्त्र के द्वारा संसारवृक्ष को काटना चाहिये। 

हमारी वर्तमान स्थिति की दृष्टि से उपर्युक्त अवस्था का अर्थ है शून्य, जहाँ न कोई विषय हैं और न भावनाएं हैं न कोई विचार ही हैं। अत हम ऐसे उपदेश को सहसा स्वीकार नहीं करेंगे। भगवान् हमारी मनोदशा को समझते हुये उसी क्रम में कहते हैं,  तत्पश्चात् उस पद का अन्वेषण करना चाहिये जिसे प्राप्त हुये पुरुष पुन लौटते नहीं हैं। उपर्युक्त सम्पूर्ण विवेचन का निष्कर्ष यह निकलता है कि निदिध्यासन के अभ्यास के शान्त क्षणों में साधक को अपना ध्यान जगत् एवं उपाधियों से निवृत्त कर उस ऊर्ध्वमूल परमात्मा के चिन्तन में लगाना चाहिये, जहाँ से इस जगत की पुरातन प्रवृत्ति प्रसृत हुई है। यदि इस उपदेश को केवल यहीं तक छोड़ दिया गया होता, तो अधिक से अधिक वह एक सुन्दर काव्यात्मक कल्पना ही बन कर रह जाता। 

आध्यात्मिक मूल्यों को अपने व्यावहारिक जीवन में जीने की कला सिखाने वाली निर्देशिका के रूप में, गीता को यह भी बताना आवश्यक था कि किस प्रकार एक साधक इस उपदेश का पालन कर सकता है ? इनका एक व्यावहारिक उपाय है- 'प्रार्थना'।  जिसका निर्देश इस श्लोक के अन्त में इन शब्दों में किया है -  'मैं उस आदि पुरुष की शरण हूँ जहाँ से यह पुरातन प्रवृत्ति प्रसृत हुई है।' यह श्लोक दर्शाता है कि जब हमारी बहिर्मुखी प्रवृत्ति बहुत कुछ मात्रा में क्षीण हो जाती है,  तब हमें अपनी बुद्धि को सजगतापूर्वक संसार के आदिस्रोत सच्चिदानन्द परमात्मा में भक्ति और समर्पण के भाव के साथ समाहित करने का प्रयत्न करना चाहिये। इस आदि पुरुष का स्वरूप तथा उसके अनुभव के उपाय को बताना इस अध्याय का विषय है। 

पूर्ण परमात्मा गुप्त है उसकी शरण में जाने से उसी की कृपा से तू (शाश्वतम्) अविनाशी अर्थात् सत्य (स्थानम्) लोक को प्राप्त होगा। गीता ज्ञान दाता प्रभु भी कह रहा है कि मैं भी उसी आदि पुरुष परमेश्वर नारायण की शरण में हूँ। 

श्री नानक जी ने कहा कि मैं आपकी एक परीक्षा लेना चाहता हूँ। मैं इस दरिया में छिपुंगा और आप मुझे ढूंढ़ना। यदि आप मुझे ढूंढ दोगे तो मैं आपकी बात पर विश्वास कर लूँगा। यह कह कर श्री नानक जी ने बेई नदी में डुबकी लगाई तथा मछली का रूप धारण कर लिया। जिन्दा फकीर (कबीर पूर्ण परमेश्वर -माँ काली या अकाल पुरुख) ने उस मछली को पकड़ कर जिधर से पानी आ रहा था उस ओर लगभग तीन किलो मीटर दूर ले गए तथा श्री नानक जी बना दिया। 

    इस प्रक्रिया में तीन दिन लग गए। नानक जी की आत्मा को साहेब कबीर जी (माँ काली या महाकाल) ने वापस शरीर में प्रवेश कर दिया। तीसरे दिन श्री नानक जी होश में आऐ। उधर श्री जयराम जी ने (जो श्री नानक जी का बहनोई था) श्री नानक जी को दरिया में डूबा जान कर दूर तक गोताखोरों से तथा जाल डलवा कर खोज करवाई। परन्तु कोशिश निष्फल रही और मान लिया कि श्री नानक जी दरिया के अथाह वेग में बह कर मिट्टी के नीचे दब गए। तीसरे दिन जब नानक जी उसी नदी के किनारे सुबह-सुबह दिखाई दिए तो बहुत व्यक्ति एकत्रित हो गए, बहन नानकी तथा बहनोई श्री जयराम भी दौड़े गए, खुशी का ठिकाना नहीं रहा तथा घर ले आए।

(प्रमाण श्री गुरु ग्रन्थ साहेब सीरी रागु महला पहला, घर 4 पृष्ठ 25) –

तू दरीया दाना बीना, मैं मछली कैसे अन्त लहा।

जह-जह देखा तह-तह तू है, तुझसे निकस फूट मरा।

न जाना मेऊ न जाना जाली।

जा दुःख लागै ता तुझै समाली।1।रहाऊ।। 

नानक जी ने कहा कि मैं मछली बन गया था, आपने कैसे ढूंढ लिया ? हे परमेश्वर! आप तो दरिया के अंदर सूक्ष्म से भी सूक्ष्म वस्तु को जानने वाले हो। मुझे तो जाल डालने वाले (जाली) ने भी नहीं जाना तथा गोताखोर (मेऊ) ने भी नहीं जाना अर्थात् नहीं जान सका। 

श्री नानक जी अपनी नौकरी पर चले गए। मोदी खाने का दरवाजा खोल दिया तथा कहा जिसको जितना चाहिए, ले जाओ। पूरा खजाना लुटा कर शमशान घाट पर बैठ गए। जब नवाब को पता चला कि श्री नानक खजाना समाप्त करके शमशान घाट पर बैठा है। तब नवाब ने श्री जयराम की उपस्थिति में खजाने का हिसाब करवाया तो सात सौ साठ रूपये अधिक मिले। 

नवाब ने क्षमा याचना की तथा कहा कि नानक जी आप सात सौ साठ रूपये जो आपके सरकार की ओर अधिक हैं ले लो तथा फिर नौकरी पर आ जाओ। तब श्री नानक जी ने कहा कि अब सच्ची सरकार की नौकरी करूँगा। उस पूर्ण परमात्मा के आदेशानुसार अपना जीवन सफल करूँगा। वह पूर्ण परमात्मा है जो मुझे बेई नदी पर मिला था

नवाब ने पूछा, वह पूर्ण परमात्मा कहाँ रहता है, तथा यह आदेश आपको कब हुआ? श्री नानक जी ने कहा वह सच्चखण्ड में रहता हे। बेई नदी के किनारे से मुझे स्वयं आकर वही पूर्ण परमात्मा सचखण्ड (सत्यलोक) लेकर गया था। वह इस पृथ्वी पर भी आकार में आया हुआ है। उसकी खोज करके अपना आत्म कल्याण करवाऊँगा। उस दिन के बाद श्री नानक जी घर त्याग कर पूर्ण परमात्मा की खोज पृथ्वी पर करने के लिए चल पड़े। 

श्री नानक जी सतनाम तथा वाहिगुरु की रटना लगाते हुए बनारस पहुँचे। इसीलिए अब पवित्र सिक्ख समाज के श्रद्धालु केवल 'सत्यनाम श्री वाहिगुरु' कहते रहते हैं। सत्यनाम क्या है तथा वाहिगुरु कौन है यह मालूम नहीं है। जबकि सत्यनाम (सच्चानाम) गुरु ग्रन्थ साहेब में लिखा है, जो अन्य मंत्र है। 

[साभार/https://www.facebook.com/290143301858448/photos/guru-nanak-dev-ji-ke-guru-kon-] 

>>>जपुजी का रहस्य (mistry of japuji) : नानक जब तीन दिन के लिए खो गएदी में तो कहानी है कि वे प्रकट हुए परमात्मा के द्वार में। ईश्वर का उन्हें अनुभव हुआ। जाना आंखों के सामने प्यारे को, जिसके लिए पुकारते थे। जिसके लिए गीत गाते थे, जो उनके हृदय की धड़कन-धड़कन में प्यास बना था। उसे सामने पाया। तृप्त हुए। और परमात्मा ने उन्हें कहा, अब तू जा। और जो मैंने तुझे दिया है, वह लोगों को बांट। जपुजी उनकी पहली भेंट है--परमात्मा से लौट कर। 

जपुजी की उपरोक्त तो कहानी है। इसके प्रतीकों को भी समझ लीजिये।  प्रथम, यह कि जब तक हम न खो जाएं, अर्थात जब तक बूँद सागर से मिलकर एक न हो जाये , या जब तक हमारा (मिथ्या) अहंकार न खो जाए। तब तक परमात्मा  से (माँ जगदम्बा के मातृ ह्रदय के सर्वव्यापी विराट 'मैं ' से)  कोई साक्षात्कार न होगा। नदी में खोओ कि पहाड़ में, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। लेकिन आप का अहंकार नहीं बचना चाहिए। आपका अहंकार खो जाना ही उसका होना है। आपका अहंकार ही आपकी और ईश्वर की मैत्री में अड़चन है। आप (अहं)  ही दीवाल हो। तो यह जो नदी में खो जाने की कहानी है--आपको भी ऐंसे ही खो जाना पड़ेगा। आपको भी डूब जाना पड़ेगा। तीन दिन लगते हैं। 

            इसलिए आपको जानकर हैरानी होगी कि, जब आदमी मर जाता है, तो तीसरा मनाते हैं। तीसरा हम इसलिए मनाते हैं कि मरने की घटना पूरी होने में तीन दिन लग जाते हैं। उतना समय जरूरी है। अहंकार मरता है, एकदम से नहीं। कम से कम समय तीन दिन लेता है। इसलिए कहानी में तीन दिन हैं, कि नानक तीन दिन नदी में खोए रहे। अहंकार पूरा गल गया, सम्पूर्ण रुप से मर गया। और पास-पड़ोस, मित्रों, प्रियजनों, परिवार के लोगों को तो अहंकार ही दिखाई पड़ता है, तुम्हारी आत्मा तो दिखाई पड़ती नहीं, इसलिए उन्होंने तो समझा कि नानक मर ही गए। 

      जब भी कोई संन्यासी होता है, घर के लोग समझ लेते हैं, मर गया। जब कोई इन्द्रियातीत सत्य या  ईश्वर की खोज में जाता है, घर के लोग मान लेते हैं, खत्म हुआ। क्योंकि अब यह वही तो न रहा। टूट गई पुरानी श्रंखला। अतीत मिटा, अब नया हुआ। बीच में तीन दिन की खाई है। इसलिए तीन दिन का प्रतीक है।

 तीन दिन बाद नानक जी लौट आए। जो भी खोता है वह लौट आता है, लेकिन हमेशा नया हो कर लौटता है। जो भी जाता है उस मार्ग पर, वापस आता है। लेकिन जब मार्ग पर जा रहा था तब वह प्यासा था, निश्चित ही आता है तब दानी हो कर आता है। जाता था तब तो भिखारी था, आता है तब सम्राट हो कर आता है। जो भी परमात्मा में लीन होता है, जाते समय भिक्षापात्र होता है, लौटते समय अपरंपार संपदा होती है बांटने को। जपुजी पहली भेंट है

       ईश्वर के सामने प्रकट होना, अपने प्यारे को पा लेना, इन्हें आप बिलकुल ही प्रतीकात्मक मानना, भाषागत रूप से सच मत समझ लेना। क्योंकि कहीं कोई परमात्मा बैठा हुआ नहीं है, जिसके सामने आप प्रकट हो जाओगे। लेकिन यह सब कहने की बात है, तो और कुछ कहने का उपाय भी नहीं है। जब आप मिटते हो तो जो भी आंख के सामने होता है वही परमात्मा है। परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है; परमात्मा निराकार शक्ति है। (जो साकार रूप भी ले सकता है!!) आप उसके सामने कैसे हो सकोगे? जहां आप देखोगे, वहीं वह है। जो आप देखोगे, वही वह है। जिस दिन आंख खुलेगी, सभी वह है। बस आप मिट जाओ, आंख खुल जाए।

        अहंकार आपकी आंख में पड़ी हुई कंकड़ी है। उसके हटते ही परमात्मा प्रकट हो जाता है। लेकिन ईश्वर प्रकट ही था, परन्तु आप तो मौजूद न थे। नानक जी मिटे, परमात्मा प्रकट हो गया। जैसे ही परमात्मा प्रकट हो जाता है, आप भी परमात्मा हो गए। क्योंकि उसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। अब तो नानक जी लौटे, तो परमात्मा (ब्रह्म)  हो कर लौटे। फिर उन्होंने जो भी कहा है, एक-एक शब्द बहुमूल्य है। फिर उस एक-एक शब्द को हम कोई भी कीमत दें तो भी कीमत छोटी पड़ेगी। फिर एक-एक शब्द वेद-वचन हैं।

अब हम जपुजी को समझने की कोशिश करें। " इक ओंकार सतनाम, करता पुरखु निरभउ निरवैर। अकाल मूरति अजूनी सैभं गुरु प्रसादि।। नानक कहते हैं, "इक ओंकार सतनाम। "             यह सत्  (सत) शब्द भी समझ लेने जैसा है। संस्कृत में दो शब्द हैं। एक सत् और एक सत्य। 'सत्' का अर्थ होता है अस्तित्व। और सत्य का अर्थ होता है- truth। दोनों में बड़ा अंतर है। दोनों की मूल धातु तो एक है। सच, सत्य, सत, सब की मूल धातु एक है। लेकिन थोड़ा सा अंतर है,उस अंतर को समझ लेना आवश्यक हैं। हमेशा ध्यान रखिये सत्य तो दार्शनिक की खोज है। इसलिए तो वह खोजता है कि सत्य क्या है? what is truth ? जैसे, 2 और 2 मिल कर 4 होते हैं, यह सत्य है। कि 2 और 2 मिल कर 5 नहीं होते। 2 और 2 मिल कर तीन नहीं होते। 2 और 2 मिल कर 4 होते हैं,यह तो गणित का सूत्र सत्य है, लेकिन 'सत् ' नहीं है। क्योंकि यह मनुष्य का ही हिसाब है। दो और दो मिल कर चार होते हैं, यह मनुष्य की ही खोज है। यह सत्य तो है, सत् नहीं है।

         निश्चित ही आप कभी रात को सपना देखते होंगे,सपना सत तो है, सत्य नहीं है। यह बात सत्य है कि सपना है तो, नहीं तो आप देखोगे कैसे? होना तो है, लेकिन आप यह नहीं कह सकते कि सत्य है। क्योंकि जैसे ही आप उठे , सुबह तो आप पाते हो कि न होने के बराबर है। लेकिन हुआ बिल्कुल सपना घटा तो है।

        तो एक बात पक्की हो जाएगी कि दुनिया में ऐसी घटनाएं हैं, जो सत्य हैं और सत् नहीं। और ऐसी भी घटनाएं हैं, जो सत् तो हैं लेकिन सत्य नहीं। गणित सत्य है, सत् नहीं। गणित का एक निष्कर्ष सत्य हो सकता है, सत् नहीं। सपना है, सपना सत् (अस्तित्व) है, सत्य नहीं

सत् और सत्य में अंतर ???

         बडी महत्वपूर्ण बात तो यह है कि परमात्मा (माँ जगदम्बा) दोनों है--सत् भी, सत्य भी। और इसलिए न तो उसे गणित से पाया जा सकता,और न विज्ञान से उसे  पाया जा सकता, क्योंकि विज्ञान खोजता है सत्य को।  और न ही उसे काव्य, कला, arts से पाया जा सकता है, क्योंकि कला खोजती है 'सत्' को। ईश्वर दोनों है, सत्+सत्य। इसलिए न तो कला उसे पूरा खोज सकती है और न विज्ञान। दोनों अधूरे हैं। इसीलिए आध्यात्मिक जगत की खोज दोनों से पृथक है। आध्यात्मिक जगत उसकी खोज में है, जो दोनों है, एक साथ है।

          तो जब नानक कहते हैं, 'एक ओंकार सतनाम'  तो इस सत् में दोनों हैं--सत्य और सत् उस परम अस्तित्व का नाम-- एक 'ॐ' जो गणित की तरह सच है, और जो काव्य की तरह भी सत है, जो स्वप्न की तरह मधुर, और गणित की तरह ठीक-ठीक सही है,जो हृदय की भावना की तरह भी है, और मस्तिष्क की प्रतीति की भांति भी है।

        ध्यान दीजियेगा,जहां मस्तिष्क (Head) और हृदय (Heart) मिलते हैं, वहीं धर्म शुरू होता है। अगर मस्तिष्क अकेला रहे, और हृदय को दबा दे, तो विज्ञान पैदा होता है। अगर हृदय अकेला रहे, मस्तिष्क को हटा दे, तो कल्पना का जगत, काव्य, संगीत, चित्र, कला पैदा होती है। और अगर मस्तिष्क और हृदय दोनों मिल जाएं, दोनों का संयोग हो जाए, तो हम ओंकार (ॐ) में प्रवेश करते हैं। धार्मिक (आध्यात्मिक) व्यक्ति वैज्ञानिक से बड़ा वैज्ञानिक, कलाकार से बड़ा कलाकार है, क्योंकि उसकी खोज संयुक्त की है। क्या आप जानते हैं विज्ञान और कला द्वंद्व है??। लेकिन धर्म समन्वय है

समाधि से लौटने के बाद उन्होंने जो पहला शब्द बोला है , वह है-- 'इक ओंकार सतनाम।' सच तो यह है कि पूरा सिक्ख धर्म इन तीन शब्दों में समाप्त हो जाता है। इसके आगे तो आपको समझाने की कोशिश है, अन्यथा बात पूरी हो ही गयी। 'कर्ता पुरुष' --वह बनाने वाला है।' 

      लेकिन ध्यान रखना, जो उसने बनाया है वह उससे अलग नहीं है। बनाने वाला, बनायी हुई, रचना में छिपा है। कर्ता कृत्य में छिपा है। स्रष्टा सृष्टि में लीन है।  इसलिए तो नानक जी ने गृहस्थ को और संन्यासी को अलग नहीं किया। क्योंकि यदि सृष्टि से अगर कर्ता परमेश्वर अलग है, तो फिर आपको सृष्टि के काम-धंधे से अलग हो जाना चाहिए। जब आपको कर्ता पुुरुष को खोजना है तो कृत्य से दूर हो जाना चाहिए, कर्म से दूर हो जाना चाहिए। फिर बाजार है, दूकान है, काम-धंधा है, आपको उससे अलग हो जाना चाहिए। 

       लेकिन श्रीनानक जी आखिर तक अलग नहीं हुए। यात्राओं पर जाते थे। और जब भी वापस लौटते तो फिर अपनी खेती-बाड़ी में लग जाते। फिर उठा लेते हल-बक्खर। पूरे जीवन, जब भी वापस लौटते घर, तब अपना कामधाम शुरू कर देते। जिस गांव में वे आखिर में बस गए थे, उस गांव का नाम उन्होंने करतारपुर रख लिया था--कर्ता का गांव

         अगर ईश्वर कर्ता है, तो आप यह मत समझना कि वह दूर हो गया है कृत्य से। एक आदमी मूर्ति बनाता है। जब मूर्ति बन जाती है तो मूर्तिकार अलग हो जाता है, मूर्ति अलग हो जाती है। दो हो गए। मूर्तिकार के मरने से मूर्ति नहीं मरेगी। मूर्तिकार मर जाए, मूर्ति रहेगी। मूर्ति के टूटने से मूर्तिकार नहीं मरेगा। मूर्ति टूट जाए, मूर्तिकार बचेगा। दोनों अलग हो गए। ईश्वर और उसकी सृष्टि में ऐसा फासला (द्वैत) नहीं है

>>>ब्रह्म और जगत: फिर परमात्मा (ब्रह्म) और उसकी सृष्टि (जगत-manifestation)  में कैसा संबंध है?

       वह सम्बन्ध ऐसा है जैसे नर्तक का। एक आदमी नाच रहा है, तो नृत्य है, लेकिन क्या आप नृत्य को और नृत्यकार को अलग कर सकोगे? नृत्यकार घर चला जाए, नृत्य आपके पास छोड़ जा सकेगा? नृत्यकार मरेगा, नृत्य मर जाएगा। नृत्य रुकेगा, फिर वह आदमी नर्तक न रहा। दोनों संयुक्त हैं। इसलिए हिन्दू संस्कृति ने बड़े प्राचीन समय से, परमात्मा को नर्तक की दृष्टि से देखा--नटराज । क्योंकि नटराज के प्रतीक में नर्तक और नृत्य अलग नहीं होते।

         कवि भी कविता बनाए तो कविता से अलग हो जाता है। मूर्तिकार मूर्ति बनाए, मूर्ति से अलग हो जाता है। मां बेटे को जन्म दे, जन्म देते ही अलग हो जाती है। पिता बेटे से अलग है। लेकिन ईश्वर सृष्टि से अलग नहीं है। सृष्टि में समाया हुआ है। अगर ठीक-ठीक, कहें तो कहना होगा, वह जो स्रष्टा है, वही सृष्टि है। और भी अगर ठीक कहना हो तो, स्रष्टा सृजन की प्रक्रिया है। वह स्वयं सृजन है

          इसलिए नानक जी कहते हैं, कुछ छोड़ कर कहीं भागना नहीं है। जहां , जिस अवस्था में 'तुम' हो, वहीं 'वह' छिपा है। इसलिए नानक ने एक अनूठे धर्म को जन्म दिया है, जिसमें गृहस्थ और संन्यासी एक है। और वही आदमी अपने को सिक्ख कहने का हकदार है, जो गृहस्थ होते हुए संन्यासी हो। संन्यासी होते हुए गृहस्थ हो

          निश्चित ही अब सिक्ख होना तो बड़ा कठिन कार्य है। गृहस्थ होना आसान है। संन्यासी होना भी आसान है, छोड़ दो, भाग जाओ जंगल। सिक्ख होना कठिन है। क्योंकि सिक्ख का अर्थ है--संन्यासी, गृहस्थ एक साथ। रहना घर में और ऐसे रहना जैसे नहीं हो। रहना घर में और ऐसे रहना जैसे हिमालय पर हो। करना दूकान, लेकिन याद ईश्वर की रखना। गिनना रुपए, नाम उसका लेना

        श्री  नानक देव को जो पहली झलक मिली परमात्मा की, जिसको कहानी में  कहें...तो इस बेई नदी में तीन दिन डूब कर जो घटना घटी, वह समाधि की है।  उसके बाद तो वे परम पुरुष हो गए। पर उसके पहले अनेक छोटी-छोटी झलकें मिली।

>>>'इक ओंकार सतनाम।' - करता पुरखु निरभउ निरवैर।अकाल मूरति अजूनी सैभं गुरु प्रसादि।।

         जिसके मन में यह छा गया, उसे कैसा भय? परमात्मा को भय नहीं हो सकता। किसका भय होगा? वही है अकेला। उससे अन्यथा कोई भी नहीं है।'अकाल' अर्थात भय से रहित, वैर से रहित, कालातीत, अकाल मूरति।' कालातीत मूर्ति है। समय के पार है।

        इसे (कालातीत मूर्ति) थोड़ा समझ लीजिये। समय का अर्थ ही होता है परिवर्तन। अगर कोई चीज परिवर्तित न हो तो आपको समय का पता ही न चलेगा। घड़ी में भी समय का पता चलता है क्योंकि कांटा घूमता है। अगर कांटा न घूमे तो समय का पता न चलेगा। चीजें बदल रही हैं। सूरज उगा, दोपहर हो गई, सांझ हो गई। बच्चा था, जवान हो गया, जवान था, बूढ़ा हो गया, स्वस्थ है, बीमार हो गया, बीमार था, स्वस्थ हो गया। गरीब था, अमीर हो गया, अमीर,गरीब हो गया, परिवर्तन है। सब चीजें बदल रही हैं। नदी बही जाती है। इस परिवर्तन में ही समय है। समय का अर्थ ही होता है, दो परिवर्तन के बीच का फासला

>>>एक विचार जरूर कीजिये- सभी सिद्धियाँ या विभूतियाँ ईश्वर-भक्ति प्राप्त करने में बाधक हैं इस बात की प्रतिष्ठापना, संयम के अनुष्ठान से विविध ऐश्वर्य की प्राप्ति, विवेक से उत्पन्न ज्ञान का प्रादुर्भाव एवं उसका परिणाम आदि विषयों पर इस पाद में प्रकाश डाला गया है।

क्षणतत्क्रमयोः संयमाद्विवेकजं ज्ञानम् ॥ विभूति पाद, 52॥

 क्षण-तत्-क्रमयो:, संयमात् , विवेकजं, ज्ञानम् ‌॥

वर्तमान क्षण पर संयम साधने से क्षण विलीन हो जाता है, और आने वाला क्षण परम तत्व के बोध से जन्मे ज्ञान को लेकर आता है। (-ओशो)  

यदि तुम समय की प्रक्रिया पर, उस क्षण पर जो है, उस क्षण पर जो चला गया, उस क्षण पर जो आने वाला है, अपनी समाधि चेतना को ले आओ, यदि तुम अपनी समाधि ले आओ, अचानक परम तत्व का ज्ञान हो जाता है। क्योंकि जिस क्षण तुम समाधि के साथ देखते हो—वर्तमान, भविष्य और भूत का विभेद खो जाता है, वे विलय हो जाते हैं। उनमें विभाजन झूठा है। अचानक तुम शाश्वत के प्रति बोधपूर्ण हो जाते हो तब समय समकालिकता है। कुछ भी जा नहीं रहा है, कुछ भी भीतर नहीं आ रहा है, सब कुछ है, मात्र है

क्षण- समय की सबसे छोटी इकाई को क्षण कहते हैं, तत्क्रमयो: - क्षण एवं क्षण की निरंतरता में, संयमात् - संयम करने से, विवेकजं – विवेकज (विवेक से उत्पन्न) ज्ञानम् - ज्ञान की प्राप्ति होती है। अर्थात क्षण एवं क्षण कि निरंतरता में संयम (मनःसंयोग) करने से योगी को विवेकज ज्ञान की प्राप्ति होती है । (By making samyama on moment and it's sequence, one gains discriminative knowledge.)

तारकं सर्वविषयं सर्वथाविषयम् अक्रमं चेति विवेकजं ज्ञानम् ॥ ३.५४॥ तारकं, सर्व-विषयं, सर्वथा-विषयम् , अक्रमं, च-इति,विवेकजं, ज्ञानम् ॥

अन्वय : तारकं - स्वयं की प्रतिभा अर्थात योग्यता, साधना से उत्पन्न होने वाला ज्ञान, सर्वविषयं - सभी ज्ञेय तत्त्वों को जानने वाला, सर्वथा - सदा अर्थात भूतकाल, वर्तमान काल व भविष्य काल में, विषयम् - सभी विषयों को जानने वाला,च - और, अक्रमम् - बिना क्रम के, इति - ऐसा या इस प्रकार का, विवेकजं - विवेक से उत्पन्न, ज्ञानम् - ज्ञान कहलाता है ।

अर्थात - जो यथार्थ के बोध से उत्पन्न उच्चतम ज्ञान (सियाराम मय जगत.....), सारी वस्तुओं और प्रक्रियाओं के भूत, भविष्य और वर्तमान से संबंधित समस्त विषयों की तत्क्षण पहचान के परे है, और यह वैश्विक प्रक्रिया (देश-काल -निमित्त) का अतिक्रमण कर लेता है, उसे तारकज्ञान कहते हैं। (ओशो) 

उपरोक्त सूत्र की व्याख्या करते हुए स्वामी जी कहते हैं कि - तारक का अर्थ है -- जो संसार से तारण करता है। सारी प्रकृति की सूक्ष्म और स्थूल सर्वविध अवस्थाएं इस ज्ञान की ग्राह्य हैं । इस ज्ञान में किसी प्रकार का क्रम नहीं है । यह सारी वस्तुओं को क्षण भर में एक साथ ग्रहण कर लेता है ।

विवेकजं ज्ञानम् - विवेक से उत्पन्न ज्ञान (सियाराम मय जगत.....) पारलौकिक, व्यापक, वस्तु की सभी अवस्थाओं से संबंधित और तात्कालिक होता है।

योगी के स्वयं के योग साधना से प्राप्त (और माँ जगदम्बा की कृपा से) सामर्थ्य से उत्पन्न होने वाला, जो सभी पदार्थों के विषयों को उनके सभी कालों भूत, वर्तमान व भविष्य को जानने वाला होता है और यह सब बिना किसी क्रम अर्थात विभाग के ही पैदा होने वाला ज्ञान होता है । ऐसे ज्ञान को विवेकज या विवेक से उत्पन्न ज्ञान कहा जाता है ।

Knowledge of discernment is transcendent, comprehensive, concerned with all states of things and instantaneous.

लेकिन यह अंतिम चमत्कार है, इसके उपरांत सिर्फ कैवल्य, मुक्ति है। जब समय खो जाता है, सब कुछ खो जाता है—क्योंकि इच्छा, महत्वाकांक्षा, प्रेरणा का सारा संसार वहां है, क्योंकि हमारे पास समय ही गलत अवधारणा है। समय निर्मित किया गया है; समय एक प्रक्रिया की भांति—इच्छा का प्रक्षेपण है- भूत, वर्तमान, के रूप में—इच्छाओं द्वारा निर्मित किया गया है। 

पूरब के संत महर्षि पतंजलि की श्रेष्ठतम अंतर्दृष्टियों में से एक बात यही है कि प्रक्रिया के रूप में समय वास्तव में इच्छा का प्रक्षेपण है। क्योंकि तुम किसी चीज की इच्छा रखते हो, तुम भविष्य निर्मित करते हो। और क्योंकि तुम आसक्त होते हो, तुम अतीत निर्मित करते हो। क्योंकि तुम उसे नहीं छोड़ सकते जो अब तुम्हारे सामने नहीं रहा, और तुम इससे चिपके रहना चाहते हो, तुम स्मृति निर्मित करते हो। और क्योंकि वह जो अभी नहीं आया तुम इसकी अपने निजी ढंग से अपेक्षा करते हो, तुम भविष्य निर्मित करते हो। भविष्य और अतीत मन की अवस्थाएं हैं, समय के भाग नहीं हैं। समय शाश्वत है। यह बंटा हुआ नहीं है। यह एक है, समग्र है।

" सत्वपुरुषयोः शुद्धिसाम्ये कैवल्यमिति " ।। 3. 56 ।। 

अर्थात - जब सत्व (बुद्धि ) और पुरुष - इन दोनों की समान भाव से शुद्धि हो जाती है , तब कैवल्य की प्राप्ति होती है ।

उपरोक्त सूत्र की व्याख्या करते हुए स्वामी जी कहते हैं कि - कैवल्य ही हमारा लक्ष्य है ; इस लक्ष्य स्थल पर पहुंचने पर आत्मा जान लेती है कि वह सर्वदा ही अकेली थी , उसे सुखी करने के लिए अन्य किसी की भी आवश्यकता  न थी । जब तक अपने तो सुखी करने के लिए हमें अन्य किसी की आव -श्यकता होती है , तब तक हम गुलाम हैं । जब पुरुष जान लेता है कि वह मुक्त स्वभाव है और उसको पूर्ण करने के लिए अन्य किसी की भी जरूरत नहीं है।  जब वह यह जान लेता है कि यह प्रकृति क्षणिक है , इसकी कोई आवश्यकता नहीं है , तभी मुक्ति की प्राप्ति होती है , तभी यह कैवल्य प्राप्त होता है । जब आत्मा जान लेती है कि जगत के छोटे से छोटे परमाणु से लेकर देवता तक किसी पर उसके निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं है , तब आत्मा की उस अवस्था को कैवल्य और पूर्णता कहते हैं । जब शुद्धि और अशुद्धि दोनों से मिला हुआ सत्व अर्थात बुद्धि पुरुष के समान शुद्ध हो जाती है , तब यह कैवल्य प्राप्त हो जाता है , तब वह बुद्धि केवल निर्गुण, पवित्रस्वरूप पुरुष को प्रतिबिंबित करती है ।]

       अगर आज सुबह आप उठो और सांझ तक कुछ भी घटना न घटे, कोई परिवर्तन न हो। सूरज खड़ा रहे, जहां था। आपकी उम्र उतनी ही बनी रहे जितनी थी। घड़ी का कांटा न हिले, वृक्ष बूढ़े न हों, पत्ते कुम्हलाएं न। सब ठहर जाए। तो आपको समय का कैसे पता चलेगा? समय होगा ही नहीं।

        आपके लिए समय का पता चलता है, क्योंकि आप परिवर्तन से घिरे हो। ईश्वर के लिए कोई समय नहीं, क्योंकि वह सनातन है, शाश्वत है, सदा है। उसके लिए कुछ भी परिवर्तित नहीं हो रहा है। उसके लिए सब ठहरा हुआ है। परिवर्तन अंधी आंख का अनुभव है। परिवर्तन ऐसे है क्योंकि हमें पूरा नहीं दिखाई पड़ रहा है। अगर हमें पूरा दिखाई पड़ जाए तो हमारा परिवर्तन समाप्त हो जाएगा। परिवर्तन के समाप्त होते ही समय खो जाता है। समय परिवर्तन को नापने का माध्यम है। परमात्मा के लिए सब वैसा का वैसा है। कुछ बदलता नहीं। सब ठहरा हुआ है। 

>>>'कालातीत, अकाल मूरति, अयोनि, स्वयंभू।'

         ईश्वर किसी योनि से पैदा नहीं होता। परमात्मा का न कोई पिता है न कोई मां। और जो भी योनि से पैदा होता है, वह परिवर्तन की दुनिया में प्रवेश कर जाता है। आपको भी अपने भीतर उसी को खोजना है, जो अयोनिज है। यह शरीर तो पैदा हुआ है, मरेगा। यह शरीर तो दो शरीरों के जोड़ से बना है, बिखरेगा। जब वे दो शरीर ही बिखर गए तो यह शरीर कैसे बचेगा जो उनसे मिल कर बना है? लेकिन इसके भीतर अयोनिज भी है, जो गर्भ में आया, जो गर्भ के पहले था, और जो अभी छोड़ दें। तो शरीर मुरदे की भांति पड़ा रह जाएगा। इस शरीर के भीतर कालातीत ने  प्रवेश किया है। अकाल पुरुष इस शरीर के भीतर भी मौजूद है। यह शरीर जैसे उसका सिर्फ वस्त्र मात्र है

बिना गुरु मुख से नाम श्रवण किये ,  सोच-सोच कर उसे कभी किसी ने पाया नहीं। सोच-सोच कर ही तो हमने उसे गंवाया है। जितना हम सोचते हैं उतने ही तो विचारों में हम खो जाते हैं। परमात्मा कोई विचार नहीं है। वह कोई तर्क की निष्पत्ति नहीं है। वह कोई मस्तिष्क का निष्कर्ष नहीं है। परमात्मा तो सत्य है। आपको सोचने का सवाल नहीं, देखना है। सोचने से क्या होगा? सोचने में तो और भटक जाओगे। आंख खोलनी है।

        और अगर आंखें अहं के विचारों से भरी हैं, तो आपकी आंखें अंधी रहेंगी। आंख निर्विचार चाहिए, तभी दर्शन उपलब्ध होता है। जिसको झेन फकीर कहते हैं, नो माइंड। जिसको कबीर कहते हैं, उन्मनी दशा। जिसको बुद्ध कहते हैं, चित्त का खो जाना। जिसको पतंजलि ने कहा है, निर्विकल्प समाधि। सब विकल्प और विचार जहां खो गए, वही नानक जी कह रहे हैं।

        लेकिन आप जब स्वयं इसे अपने भीतर पाओगे तभी आप श्रीमान नानक जी की वाणी समझ पाओगे। आपको अपने भीतर उस सच्चिदानन्द को खोजना है, जो न तो परिवर्तित होता है, न बदलता है। 

      अगर आपने कभी थोड़ा भी आंख बंद कर के बैठने का अभ्यास (मनःसंयोग) किया है, तो आपको एक बात खयाल में आयी होगी कि भीतर कोई उम्र नहीं है। आप 42 साल के हो कि 72 साल के, भीतर कुछ पता नहीं चलेगा। आप जब पांच साल के थे, तब भी आंख बंद करते तो भीतर आप अपने को वैसा ही पाते, जैसा आप 50 साल के हो कर पाओगे। जैसे भीतर के लिए समय बीता ही नहीं। आंख बंद कर के भीतर देखो,आप पाओगे वहां कुछ बदलता ही नहीं

       और यह अनबदला (unchanged, eternal, सनातन साक्षी-चैतन्य) जो भीतर  है, यह किसी योनि से पैदा नहीं हुआ है। आप मां-बाप से आए हो, उनसे पैदा नहीं हुए हो। वे आपके आने के मार्ग हैं, लेकिन वे आपके जन्मदाता नहीं हैं। आप उनसे गुजरे हो, क्योंकि आपके शरीर को बनाने की व्यवस्था उनके भीतर थी।  लेकिन जिस (सनातन साक्षी) ने उस शरीर के भीतर प्रविष्ट किया है, वह पार से आया है। अपने भीतर जिस दिन आप अयोनिज को पाओगे, उसी दिन आप समझोगे कि ईश्वर की कोई योनि नहीं है। हो भी नहीं सकती। क्योंकि परमात्मा का अर्थ है, समष्टि। यह पूर्ण पूरा का पूरा किससे पैदा होगा? पूरे के पार कुछ बचता ही नहीं, जो इसकी मां और पिता बन सके।

         इसलिए अयोनि है, स्वयंभू है, अपने आप है। स्वयंभू का अर्थ है, अपने आप है। कोई सहारा नहीं है। किसी कारण से नहीं है। कोई आधार नहीं है। अपना ही आधार है। आप भी जिस दिन अपने भीतर इस बात की थोड़ी सी झलक पाओगे उसी दिन मुक्त होना प्रारम्भ हो जाएगा ।

वह- 'सनातन साक्षी'  गुरु की कृपा से ही प्राप्त होता है।'

आदि सचु जुगादि सचु।

है भी सचु नानक होसी भी सचु।।

        'वह आदि में सत्य है, युगों के आरंभ में सत्य है, अभी सत्य है। नानक जी कहते हैं, वह सदा सत्य है। भविष्य में भी सत्य है।'

         सत्य, असत्य और मिथ्या की यही परिभाषा है। असत्य वह जो कभी नहीं था, अब है, और कभी फिर नहीं हो जाएगा। असत्य का अर्थ है दो छोरों पर जो नहीं, और बीच में है, सपना...(मिथ्या) सुबह जब आप उठे , तब खो गया, रात आप जब सोए तब नहीं था। इसलिए तो सुबह आप कहते हो सपना झूठा था, सच नहीं,क्योंकि सांझ नहीं था, सुबह फिर नहीं है। आपका यह शरीर एक दिन नहीं था। एक दिन फिर नहीं हो जाएगा। यह शरीर झूठा (मिथ्या) है

        क्रोध आया,एक क्षण पहले नहीं था, और घड़ी भर बाद फिर चला जाएगा। यह क्रोध सपना है, यह सच नहीं है। जो सदा है, वही सत्य है। और अगर आप इस धारणा को गहरे ले जाओ तो आपके जीवन में रूपांतरण हो जाएगा। उससे बहुत ज्यादा ग्रसित (आसक्त)  मत होना जो बदलता है। आप उसी की तलाश करना जो अबदला है; सदा स्थायी और थिर है।

>>>कौन है आपके भीतर जो कभी नहीं बदलता?

       उसको ही खोजो। जरूर वह आपके भीतर है। क्योंकि सब बदलाहट उसी पर होती है। जैसे गाड़ी का चाक चलता है। तो एक कील (axle) पर चलता है, जो ठहरी रहती है। चाक चलता रहता है, कील ठहरी रहती है। आप कील को बीच से काट दो (अलग कर लो), चाक फौरन गिर जाएगा। जो परिवर्तन हो रहा है वह भी शाश्वत के ऊपर हो रहा है। आत्मा रूपी  कील (axle) ठहरी हुई है, शरीर का चक्र घूम रहा है। जैसे ही कील अलग हुई, चाक गिर जाता है

नानक कहते हैं--

आदि सचु जुगादि सचु। है भी सचु नानक होसी भी सचु।।

          वही सत्य है। वही एक; क्योंकि वह पहले भी था, अभी भी है, कल भी होगा, सदा रहेगा। और शेष सब सपना है। यह एक वचन अगर तुम्हारे मन में गहरा बैठ जाए...जब क्रोध आए, तब दोहराना अपने मन में--'आदि सचु जुगादि सचु। है भी सचु नानक होसी भी सचु।।

       घृणा आए, लोभ आए, दोहराना। और ध्यान रखना कि जो अभी नहीं था, अभी हुआ, सपना है। खो जाएगा। इसमें ज्यादा ग्रसित होने की जरूरत नहीं है। साक्षीभाव रखना। धीरे-धीरे आप पाओगे कि व्यर्थ (अहं) अपने आप गिरने लगा, क्योंकि आपके उससे संबंध टूट गए और सार्थक का जन्म होने लगा। शाश्वत उठने लगा, संसार खोने लगा

सोचे सोचि न होवई जे सोची लख बार।

चुपै चुप न होवई जे लाइ रहा लिवतार।

भुखिया भुख न उतरी जे बंना पुरीआं भार।

सहस सियाणपा लख होहि, त इक न चले नालि।

किव सचियारा होइए, किव कूड़ै तुटै पालि।

हुकमि रजाई चलणा नानक लिखिआ नालि।

'सोच-सोच कर भी हम उसे सोच नहीं सकते, यद्यपि हम लाखों बार सोचते रहें। चुप होने से भी उस मौन को उपलब्ध नहीं हुआ जा सकता, यद्यपि हम लगातार ध्यान में रह सकते हैं।'यह बड़ा कीमती, बहुमूल्य सूत्र है। नानक का सब सार।

क्यों? सोच-सोच कर उसे पाया नहीं जा सकता। चेष्टा कर-कर के मौन साधा नहीं जा सकता, क्यों? 

       क्योंकि जितनी आप चेष्टा करोगे, उतना ही आप पाओगे, मौन असंभव हो जाता है। कुछ चीजें हैं, जो चेष्टा से नहीं घटतीं। जैसे नींद नहीं आती किसी को, तो कितनी ही चेष्टा करे नींद नहीं आएगी। सच तो यह है जितनी चेष्टा करेगा उतनी नींद मुश्किल हो जाएगी, क्योंकि नींद का अर्थ ही यह है कि आप सब चेष्टा छोड़ दो, तभी आएगी। आप कोशिश जारी रखोगे, कोशिश आपको जगाए रखेगी। जागने से कहीं नींद आयी है भला ? कोई उपाय नींद लाने का नहीं। क्योंकि नींद आती तब है, जब आप निरुपाय हो जाते हो। जब आप कोई उपाय नहीं करते हो। पड़े हो बिस्तर पर निरुपाय, तभी नींद आ जाती है। आप अपने को जबर्दस्ती कैसे मौन करोगे? आप बैठ सकते हो। शरीर को साध सकते हो पत्थर की मूर्ति की तरह, भीतर मन उबलता रहेगा

 शांति का एक ही गुर है। और अगर यह सूत्र आपको ठीक से समझ में आ जाए, तो भारत सहित सम्पूर्ण पूर्व की सारी खोज समझ में आ सकती है। पूरब की सारी खोज यह है, लाओत्से से ले कर नानक तक, कि जो हो रहा है उसे स्वीकार कर लो। 

        इसका पुराना नाम -प्रारब्ध या भाग्य है। वह शब्द बिगड़ गया। सब शब्द बहुत दिन उपयोग करने से बिगड़ जाते हैं। क्योंकि गलत लोग उपयोग करते हैं, गलत अर्थ जुड़ जाते हैं। अब तो किसी की निंदा करनी हो तो कह दो कि भाग्यवादी है। लेकिन भाग्य...यही तो अर्थ है भाग्य का। नानक कहते हैं, "हुकमि रजाई चलणा नानक लिखिआ नालि।"

         जो लिखा है वह होगा। जो उसने लिख रखा है वही होगा। अपनी तरफ से कुछ भी करने का उपाय नहीं है। कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। फिर चिंता किसको? फिर बोझ किसको? जब आप बदलना ही नहीं चाहते कुछ, जब आप उससे राजी हो, उसकी मर्जी में राजी हो, जब आपकी अपनी कोई मर्जी नहीं, तब कैसी बेचैनी । तब कैसा विचार। तब सब हलका हो जाता है। पंख लग जाते हैं। आप उड़ सकते हो उस आकाश में, जिस आकाश का नाम है--इक ओंकार सतनाम। नानक जी की एक ही विधि है। और वह विधि है,ईश्वर की मर्जी। वह जैसा करवाए। वह जैसा रखे

इसे एक कहानी से समझते हैं

         ऐसा हुआ कि बल्ख का एक नवाब था, इब्राहीम। उसने बाजार में एक गुलाम खरीदा। गुलाम बड़ा स्वस्थ, तेजस्वी था। इब्राहीम उसे घर लाया। इब्राहीम उसके प्रेम में ही पड़ गया। आदमी बड़ा प्रभावशाली था। इब्राहीम ने पूछा कि तू कैसे रहना पसंद करेगा? तो उस गुलाम ने मुस्कुरा कर कहा, मालिक की जो मर्जी। मेरा कैसा, मेरे होने का क्या अर्थ? आप जैसा रखेंगे वैसा रहूंगा। इब्राहीम ने पूछा, तू क्या पहनना, खाना पसंद करता है? उसने कहा, मेरी क्या पसंद? मालिक जैसा पहनाए, पहनूंगा। मालिक जो खिलाए, खाऊंगा। इब्राहीम ने पूछा कि तेरा नाम क्या है? हम क्या नाम ले कर तुझे पुकारें? उसने कहा, मालिक की जो मर्जी। मेरा क्या नाम? दास का कोई नाम होता है? जो नाम आप दे दें।

       कहते हैं, इब्राहीम के जीवन में क्रांति घट गई। उठ कर उसने पैर छुए इस गुलाम के और कहा कि तूने मुझे राज बता दिया जिसकी मैं तलाश में था। अब यही मेरा और मेरे मालिक का नाता। तू मेरा गुरु है। तब से इब्राहीम शांत हो गया। जो बहुत दिनों के ध्यान से न हुआ था, जो बहुत दिन नमाज पढ़ने से न हुआ था, वह इस गुलाम के सूत्र से मिल गया।

आइये अब एक प्रयोग कीजिये : हुकमि रजाई चलणा नानक लिखिआ नालि।

         जैसा ईश्वर रखे,  वैसे रहो। अपनी तरफ से आप बहुत कोशिश करके भी देख लिया, क्या हुआ? आप वैसे के वैसे हो। जैसा उसने भेजा था उससे विकृत भला हो गए हो, उससे सुकृत नहीं हुए हो। जैसे आए थे बचपन में भोले-भाले, उतना भी नहीं बचा हाथ में। स्लेट गंदी हो गई है, आपने सब लिख डाला। पाया क्या है? सिवाय दुख, तनाव, संताप के क्या आपके हाथ लगा है? थोड़े दिन नानक जी की सुन कर देखो भला । छोड़ दो उस पर, 

      इसलिए तो नानक जी कहते हैं, न जप, न तप, न ध्यान, न धारणा। एक ही साधना है,उसकी मर्जी। जैसे ही आपको खयाल आएगा उसकी मर्जी का, आप पाओगे भीतर सब हलका हो जाता है। एक गहन शांति, एक वर्षा होने लगती है भीतर, जहां कोई तनाव नहीं, कोई चिंता नहीं।

आगे इस लेख का संक्षिप्त रूप से निष्कर्ष  समझते हैं :

      नानक जी ने एक अनूठे धर्म को जन्म दिया है, जिसमें गृहस्थ (प्रवृत्ति मार्ग के अधिकारी)  और संन्यासी (निवृत्ति मार्ग के अधिकारी) एक हैं। और वही आदमी अपने को सिक्ख  कहने का हकदार है, जो गृहस्थ होते हुए संन्यासी हो, संन्यासी होते हुए गृहस्थ हो। 

     सिक्ख होना बड़ा कठिन है। गृहस्थ होना आसान है। संन्यासी होना आसान है, छोड़कर चले जाओ जंगल में। सिख होना कठिन है क्योंकि सिख का अर्थ है- संन्यासी, गृहस्थ एक साथ। रहना घर में और ऐसे रहना जैसे नहीं हो। रहना घर में और ऐसे रहना जैसे हिमालय में हो। करना दुकान, लेकिन याद परमात्मा की रखना। गिनना रुपए, नाम उसका लेना। 

       नानक को ईश्वर की जो पहली झलक मिली, जिसको स्टोरी में  कहें, वह मिली एक दुकान पर, जहां वे तराजू से गेहूं और अनाज तौल रहे थे। अनाज तौल कर किसी को दे रहे थे। तराजू में भरते और डालते। कहते-एक, दो, तीन...दस, ग्यारह, बारह... फिर पहुंचे वे 'तेरा'। पंजाबी में तेरह का जो रूप है, वह 'तेरा'। उन्हें याद आ गई परमात्मा की।

       'तेरा', की -धुन बन गई। फिर वे तौलते गए, लेकिन संख्या तेरा से आगे न बढ़ी। भरते, तराजू में डालते और कहते 'तेरा'। भरते, तराजू में डालते और कहते तेरा। क्योंकि आखिरी पड़ावआ गया। तेरा से आगे कोई संख्या है? मंजिल आ गई। 'तेरा' पर सब समाप्त हो गया। लोगों को लगा कि नानक जी की सामान्य दुनियादार नहीं। लोगों ने रोकना भी चाहा, लेकिन वे तो किसी और लोक में हैं। वे तो कहे जाते हैं 'तेरा'। डाले जाते हैं, तराजू से तौले जाते हैं, और तेरा से आगे नहीं बढ़ते। तेरा से आगे बढ़ने की जगह ही कहाँ है। दो ही तो पड़ाव हैं, या तो 'मैं' या 'तू'। मैं से शुरुआत है, तू पर समाप्ति है। 

    नानक संसार (जगत) के विरोध में नहीं हैं। नानक संसार के प्रेम में हैं, क्योंकि वे कहते हैं कि संसार (जगत) और उसका बनाने वाला (ब्रह्म) दो नहीं। आप इसे भी प्रेम करो,आप इसी में उसको प्रेम करो। आप इसी में उसको खोजो। 

          नानक जी जब युवा हुए, तब घर के लोगों ने कहा, शादी कर लो। उन्होंने 'नहीं' न कहा। सोचते तो रहे होंगे घर के लोग कि यह नहीं कहेगा। बचपन से ही इसके ढंग अलग थे। नानक जी के पिता तो परेशान ही रहे। उनको कभी समझ में न आया कि क्या मामला है। भजन में, कीर्तन में, साधु-संगत में...। नानक के पिता ने भेजा था बेटे को सामान खरीदने दूसरे गांव। बीस रुपए दिए थे। पिता ने चलते वक्त कहा था, सस्ती चीज खरीद लाना और इस गांव में आकर महंगी बेच देना। यही धंधे का गुर है। दूसरे गांव में सस्ते में खरीदना, यहां आकर महंगे में बेच देना। यहां जो चीज सस्ती हो खरीदना, दूसरे गांव में महंगे में बेचना। वही लाभ का रास्ता है। तो कोई ऐसी चीज खरीदकर लाना, जिसमें लाभ हो। 

सामान तो खरीदा, लेकिन रास्ते में साधु मिल गए, वे भूखे थे। नानक लौटते थे खरीदकर, मिल गई साधुओं की एक जमात। वे साधु पाँच दिन से भूखे थे। नानक ने पूछा,भूखे बैठो हो। उठो, कुछ करो। जाते क्यों नहीं गांव में? उन्होंने कहा, यही हमारा व्रत है। जब उसकी मर्जी होगी वह देगा। तो हम आनंदित हैं। भूख से कोई अंतर नहीं पड़ता। 

        तो नानक ने सोचा कि इससे ज्यादा लाभ की बात क्या होगी कि इन परम साधुओं को यह भोजन बाँट दिया जाए जो मैं खरीद लाया हूँ बाहर गांव से? पिता ने यही तो कहा था कि कुछ काम लाभ का करो। 

          उन्होंने वह सब सामान साधुओं में बाँट दिया। साथी था साथ में, उसका नाम बाला (मर्दाना ?) था। उसने कहा क्या करते हो, दिमाग खराब हुआ है। नानक जी ने कहा, यही तो कहा था, पिता ने कुछ लाभ का काम करना। इससे ज्यादा लाभ क्या होगा? बांट कर वे बड़े प्रसन्न घर लौटे।  पिता ने कहा भी कि ऐसे तो व्यापार नष्ट हो जाएगा। और नानक जी ने कहा, 'आप नहीं सोचते कि इससे ज्यादा लाभ की और क्या बात होगी? लाभ कमा कर लौटा हूं।' लेकिन यह लाभ किसी को दिखाई नहीं पड़ता था। नानक के पिता कालू मेहता को तो बिलकुल दिखाई नहीं पड़ता था। उनको तो लगता था, लड़का बिगड़ गया। साधु संगत में बिगड़ा। होश में नहीं है। सोचा कि शायद स्त्री से बांध देने से राहत मिल जाएगी। 

अक्सर लोग ऐसा सोचते हैं। सोचने का कारण है क्योंकि संन्यासी स्त्री को छोड़कर भागते हैं तो अगर किसी को गृहस्थ बनाना हो, तो स्त्री से बाँध दो। पर नानक जी पर यह तरकीब काम न आई क्योंकि यह आदमी किसी चीज के विरोध में न था। पिता ने कहा, 'शादी कर लो।'          नानक ने कहा, 'अच्छा'। शादी हो गई, लेकिन उनके ढंग में कोई फर्क नहीं पड़ा। बच्चे हो गए, लेकिन उनके ढंग में कोई फर्क न पड़ा। इस आदमी को बिगाड़ने का उपाय ही न था, क्योंकि संसार और परमात्मा में उन्हें कोई भेद न था। 

     आप बिगाड़ोगे कैसे? जो आदमी धन छोड़कर संन्यासी हो गया, उसे बिगाड़ सकते हो- धन दे दो। जो आदमी स्त्री छोड़कर संन्यासी हो गया, एक सुंदर स्त्री उसके पास पहुंचा दो, बिगाड़ सकते हो। लेकिन जो कुछ छोड़कर ही नहीं गया, उसको आप कैसे बिगाड़ोगे। उसके पतन का कोई रास्ता नहीं है। इसीलिए नानक जी का पतन नहीं किया जा सकता।यही नानक जी की शान है । "वाह गुरु जी का खालसा वाह गुरु जी की फतेह।

['साभार /https://www.madhuribajpai.com/2020/11/guru-nanak-jayanti-prkash-parv.html]

>>>किसे कहा गया था खालसा?

ये वो समय था, जब औरंगजेब का अत्याचार लगातार ही बढ़ता जा रहा था और देश भर के हिन्दू सहित कश्मीरी पंडित आतंकित थे। वाराणसी, उदयपुर और मथुरा सहित हिन्दुओं की श्रद्धा वाले कई क्षेत्रों में औरंगजेब की फ़ौज मंदिरों को ध्वस्त किए जा रही थी। सन 1669 में तो हद ही हो गई जब हिन्दुओं को नदी किनारे मृतकों का अंतिम-संस्कार तक करने से रोक दिया गया। शाही आदेश और जोर-जबरदस्ती, दोनों के जरिए हिन्दुओं पर प्रहार हो रहे थे।

जम्मू-कश्मीर में शेर अफगान नामक आक्रांता कश्मीरी पंडितों का नामोनिशान मिटा देना चाहता था और औरंगजेब को उसका संरक्षण प्राप्त था। ऐसे कठिन समय में कश्मीरी पंडितों का एक प्रतिनिधिमंडल गुरु तेग बहादुर के पास पहुँचा और उन्हें अपनी समस्या बताई। औरंगजेब के अत्याचार और क्रूरता की दास्तान सुनाई तो वो काफी दुःखी हो उठे।मुगल बादशाह औरंगजेब के इस्लामी शरिया शासन के दौरान अपने पिता गुरु तेग बहादुर के सिर काटे जाने के बाद गुरु गोबिंद सिंह ने खालसा पंथ की स्थापना की थी। गुरु गोबिंद सिंह ने खालसा को एक योद्धा के रूप में स्थापित किया, जिसका कर्तव्य था कि वह किसी भी प्रकार के धार्मिक उत्पीड़न से निर्दोषों की रक्षा करें।  गुरु गोविंद सिंह के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण कार्य 'खालसा निर्माण' का है। 14 अप्रैल 1699 ई. को बैशाखी के दिन उन्होंने आनन्दपुर में अपने शिष्यों का एक विशाल सम्मेलन किया।   "बैशाखी के उस ऐतिहासिक अवसर पर हजारों शिष्यों के समुदाय के सामने हाथ में नंगी तलवार लेकर गुरु जी ने प्रश्न किया— “है कोई ऐसा जो धर्म के लिए अपने प्राण दे सके ?" यह सुनते ही सन्नाटा छा गया। उन्होंने अपनी बात दुबारा कही, सन्नाटा और गहरा हो गया। जब बड़ी तीखी आवाज में उन्होंने तीसरी बार अपनी बात दोहराई तो लाहौर के एक खत्री दयाराम ने अपने स्थान पर खड़े होकर कहा—“मैं प्रस्तुत हूं।' वे उसे साथ के खेमे में ले गये। लोगों ने 'खटाक' की तेज आवाज सुनी। खून से सनी हुई तलवार लेकर वे बाहर आये और अधिक गम्भीरता से बोले 'कोई और शिष्य है जो धर्म के लिए अपने-आपको प्रस्तुत कर सके ? इस पर हस्तिनापुर के एक जाट धर्मदास ने अपने-आपको प्रस्तुत किया। वे उसे भी साथ के खेमे में ले गये लोगों ने उसी तरह 'खटाक' की तीखी आवाज सुनी। इसी प्रकार तीन और व्यक्तियों ने अपने आपको बलिदान के लिए प्रस्तुत किया। एक था द्वारका का एक धोबी मोहकमचन्द, दूसरा था जगन्नाथ पुरी का एक कहार हिम्मत राय और तीसरा था बीदर का एक नाई साहबचंद । यह एक परीक्षा थी। इस परीक्षा में देश के विभिन्न भागों से आए हुए ये पांच अति साधारण व्यक्ति पूरी तरह सफल हुए थे।

"गुरु गोविंद सिंह ने इन पांचों निडर शिष्यों को सुंदर कपड़े पहनाए और इन्हें 'पंज प्यारे' कहकर संबोधित किया।गुरु गोबिंद सिंह ने फिर एक लोहे के कटोरे में पानी और चीनी मिलाया, जिसे उन्होंने अमृत ("अमृत") कहा, तैयार करने के लिए गुरबानी का पाठ करते हुए इसे दोधारी तलवार से हिलाया। इसके बाद उन्होंने इसे पंज प्यारे को दिया , साथ ही आदि ग्रंथ के पाठ के साथ, इस प्रकार एक खालसा - एक योद्धा समुदाय के 'खंडा की पाहुल' (बपतिस्मा समारोह) की स्थापना की।  इस दिन उन्होंने सर्वप्रथम पाँच प्यारों को अमृतपान करवा कर खालसा बनाया तथा तत्पश्चात् उन पाँच प्यारों के हाथों से स्वयं भी अमृतपान किया। इसके बाद गुरु जी पांचों सिखों को लेकर सभा में आए। सभा में आए हजारों लोग उन्हें देखकर हैरान रह गए। सभी को आश्चर्य हुआ कि ये लोग जिंदा कैसे हैं। गुरु गोविंद सिंह ने कहा, 'यह शकुन बड़ा शुभ है और खालसा की विजय निश्चित है।' 

गुरु गोविंद सिंह ने इन पांच शिष्यों को विशेष दीक्षा दी। "गुरु गोबिंद सिंह जी" का खालसा के प्रति गहरा सम्मान था, और कहा कि सच्चे गुरु और संगत ( पंथ) के बीच कोई अंतर नहीं है।  उनकी परंपरा आधुनिक समय में बनी हुई है, आरंभिक सिखों को खालसा सिख कहा जाता है, जबकि जो लोग बपतिस्मा नहीं लेते हैं उन्हें सहजधारी सिख कहा जाता है।उन्होंने इसे 'वाहेगुरु का खालसा' कहा था।  " खालसा ", अरबी शब्द "खालिस" से लिया गया है जिसका अर्थ है "शुद्ध होना, स्पष्ट होना, मुक्त होना, ईमानदार होना, सच्चा होना, सीधा होना, ठोस होना। खालसा शब्द श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में संत कबीर की वाणी में केवल एक बार आता है। इसमें लिखा है, “कहू कबीर जब भाये खालसा प्रेम भगत जिह जानी”, जिसका अर्थ है, “कबीर कहते हैं कि वे लोग जो परमात्मा के प्रेम और भक्ति को जानते हैं, वे सबसे शुद्ध हैं।” इसी दिन खालसे के नाम के पीछे "सिंह" लग गया। दीक्षा लेने पर, एक खालसा सिख को सिंह (पुरुष) का अर्थ " शेर " और कौर (महिला) का अर्थ "राजकुमारी" दिया जाता है। गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा की पंचककार  परंपरा की शुरुआत की, केश : बिना काटे बाल।कंघा : लकड़ी का कंघा। कड़ा : कलाई पर पहना जाने वाला लोहे या स्टील का कड़ा। किरपान : एक तलवार। कच्छा : छोटी जांघिया।सिख पंथ में वाहेगुरु परब्रह्म के लिए कहा जाता है। इस प्रकार गुरु गोबिंद सिंह ने अपने पूर्व की नौ पीढ़ियों के सिख समुदाय को 'खालसा' में परिवर्तित किया।

सिखों को हर समय ईश्वर का सुमिरण करना चाहिये और अपने आध्यात्मिक एवं लौकिक दायित्वों के बीच संतुलन बनाए रखते हुए सदाचारी एवं सत्यनिष्ठ जीवन जीने का अभ्यास करना चाहिये।पंजाबी भाषा में 'सिख' शब्द का अर्थ 'शिष्य' होता है। सिख ईश्वर के वे शिष्य हैं जो दस सिख गुरुओं के लेखन और शिक्षाओं का पालन करते हैं।सिख एक ईश्वर में विश्वास करते हैं। उनका मानना ​​है कि उन्हें अपने प्रत्येक काम में ईश्वर को याद करना चाहिये। इसे सिमरन (सुमिरण) कहा जाता है। सिख अपने पंथ को गुरुमत (गुरु का मार्ग- The Way of the Guru) कहते हैं। सिख परंपरा के अनुसार, सिख धर्म की स्थापना गुरु नानक (1469-1539) द्वारा की गई थी और बाद में नौ अन्य गुरुओं ने इसका नेतृत्व किया।सिख मानते हैं कि सभी 10 मानव गुरुओं में एक ही आत्मा का वास था। 10वें गुरु गोबिंद सिंह (1666-1708) की मृत्यु के बाद अनंत गुरु की आत्मा ने स्वयं को सिख धर्म के पवित्र ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब (जिसे आदि ग्रंथ भी कहा जाता है) में स्थानांतरित कर लिया और इसके उपरांत गुरु ग्रंथ साहिब को ही एकमात्र गुरु माना गया।  गुरु अर्जुन देव ने अमृतसर को सिखों की राजधानी के रूप में स्थापित किया और सिख पवित्र लेखों की पहली प्रमाणिक पुस्तक के रूप में आदि ग्रंथ का संकलन किया। तीन कर्त्तव्य जिनका पालन सिखों द्वारा किया जाना चाहिये - प्रार्थना, कृत्य या कार्य और दान।

नाम जपना: हमेशा ईश्वर का सुमिरन करना।

कीरत करना: ईमानदारी से आजीविका अर्जित करना। चूँकि ईश्वर सत्य है, एक सिख ईमानदारी से जीवन जीना चाहता है। इसका अर्थ केवल अपराध से दूर रहना नहीं है बल्कि जुए, भीख, शराब व तंबाकू उद्योग में काम करने से भी बचना है।

वंड छकना: शाब्दिक रूप से इसका अर्थ है दूसरों के साथ अपनी कमाई साझा करना अर्थात् दूसरों को दान देना और उनकी देखभाल करना।

निश्चित ही  खालसा सिक्ख होना तो बड़ा कठिन कार्य है। गृहस्थ होना आसान है। संन्यासी होना भी आसान है, छोड़ दो, भाग जाओ जंगल। सिक्ख होना कठिन है। क्योंकि सिक्ख का अर्थ है--'संन्यासी और गृहस्थ एक साथ।' रहना घर में और ऐसे रहना जैसे घर में नहीं हो। रहना घर में और ऐसे रहना जैसे हिमालय पर हो। करना दूकान, लेकिन याद ईश्वर की रखना। गिनना रुपए, नाम उसका लेना।" 

उन्हीं के शब्दों में "जो सत्य की ज्योति को सदैव प्रज्ज्वलित रखता है, एक ईश्वर के अतिरिक्त और किसी को नहीं मानता, उसी में उसका पूर्ण प्रेम और विश्वास है और भूलकर भी मृत व्यक्तियों की समाधियों दरगाहों पर नहीं जाता। ईश्वर के निश्छल प्रेम में ही उसका तीर्थ, दान, दया, तप और संयम समाहित है, इस प्रकार जिसके हृदय में पूर्ण ज्योति का प्रकाश है, वह पवित्र व्यक्ति की 'खालसा' है। 

>>रघुवीर : रघु अयोध्या के प्रसिद्ध इक्ष्वाकुवंशीय राजा थे जिनके नाम पर रघुवंश की रचना हुई। ये दिलीप के पुत्र (रघुवंश, २) थे। अपने कुल में ये सर्वश्रेष्ठ गिने जाते हैं ; जिसके फलस्वरूप मर्यादापुरुषोत्तम श्री रामचंद्र जी भी अपने को रघुवंशी कहने में परम गर्व अनुभव करते हैं। सारा सूर्यवंश इन्हीं के कारण रघुवंश कहलाने लगा। इन्हीं के नाम पर रामचंद्र को राघव, रघुवर, रघुराज, रघुनाथ, रघुवीर आदि कहा जाता है।

जब पिता के अश्वमेघ यज्ञ के अश्व की रक्षा का भार रघु को मिला और घोड़े को इंद्र चुरा ले गए।  तो रघु ने इंद्र से घोर युद्ध करके उन्हें परास्त कर दिया। रघु जब स्वयं गद्दी पर बैठे तो अपने पूरे राज्य में शांति स्थापित करके द्विग्विजय करने निकले। चारों दिशाओं में अपना प्रभुत्व स्थापित कर रघु ने अतुल धनराशि एकत्र की। अपने गुरु विश्वामित्र  को गुरुदक्षिणा के लिए कौत्स मुनि द्वारा धन माँगने पर रघु ने कुबेर पर चढ़ाई कर चौदह करोड़ स्वर्णमुद्रा प्राप्त की थी। फिर इन्होंने विश्वजित् नामक दूसरा महायज्ञ किया जिसमें अपनी सारी संपत्ति ब्राह्मणों को दान दे दी

[>>>Time and Understanding: समय और समझ एक साथ मिलना दुर्लभ है:  

दुर्लभं त्रयमेवैतत् देवानुग्रहहेतुकम्।

मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरूषसंश्रय:॥

यह तीन दुर्लभ हैं और देवताओं। की कृपा से ही मिलते हैं – मनुष्य जन्म, मोक्ष की इच्छा और (जीवनमुक्त नवनीदा तुल्य) महापुरुषों का साथ॥"

समय और समझ एक साथ बहुत विरले पुरुष को ही मिलता है,अधिकांश लोगों को समझ आने तक समय निकल जाता है। " 

Only a very rare man gets time and understanding together, time passes till most people understand. 

व्याख्या : यह उद्धरण व्यक्ति के जीवन में समय और बुद्धि के महत्व पर प्रकाश डालता है। लेखक का कहना है कि बहुत कम भाग्यशाली लोगों को एक ही समय (युवा अवस्था में ही)  समय और बुद्धि मिलती है।  क्योंकि जब तक लोगों के पास समय (यौवन) होता है तो उनके पास बुद्धिमानी से काम करने की (3H विकास के 5 अभ्यास करने या चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने की)  बुद्धि नहीं होती है ; और जब उन्हें बुद्धि मिलती है तो उनके पास कुछ भी करने के लिए (चरित्र-निर्माण करने के लिए) का कोई समय (उम्र) नहीं बचता है ।  

>>>क्रिकेट में बल्लेबाजी करने का दूसरा मौका :  क्रिकेट कई दिनों तक खेला जाने वाला खेल है, जिसके दौरान प्रत्येक पक्ष बारी-बारी से बल्लेबाजी करता है, जबकि दूसरा गेंदबाज़ी करता है। ऐसे प्रत्येक संयोजन (combination) को "पारी" (innings-प्रभुत्व की अवधि) कहा जाता है।

'5-दिवसीय टेस्ट मैच' में प्रत्येक पक्ष को बल्लेबाजी करने के लिए दो चालें (अवसर)  मिलती हैं, इसलिए कुल 4 बार बल्लेबाजी करने के लिए प्रत्येक पक्ष के पास 2 पारियां होती हैं।

जीवन के खेल में हारजीत : सामरिक दृष्टि से (tactically) दूसरी पारी पहले से भिन्न होती  है; क्योंकि उस समय खिलाड़ी अधिक थके हुए होते हैं। विकेट-बॉल (wicket-छोटा फाटक और बॉल) विकृत हो चुका होता है, और दोनों पक्ष एक-दूसरे की खेल शैली से (playing styles) से भी परिचित हो चुके होते हैं।

उसी प्रकार 'पहली पारी' तो शून्य स्थिति (zero position) से अधिक से अधिक रन बनाने के उद्देश्य से खेली गयी थी, जबकि 'दूसरी पाली' की शुरुआत में ही दोनों पक्षों की सापेक्ष स्थिति (relative position) ठीक-ठीक ज्ञात हो जाती है। और दूसरी पारी में सामरिक दृष्टि से खेल का उद्देश्य विजयी होना (या ड्रॉ करना बराबरी पर छोड़ना) हो जाता है। 

दूसरी पारी उस टीम के लिए एक संभावना भी प्रस्तुत कर सकती है जिसने अब तक खेल के एक पहलू में (बल्लेबाजी या गेंदबाजी में) खराब प्रदर्शन किया है,लेकिन दूसरी पाली में अधिक सतर्क और कुशल बल्लेबाजी, या अधिक आक्रामक गेंदबाजी, या बेहतर प्लेसमेंट द्वारा बाउण्ड्री लाइन पर चौका -छक्का रोक कर क्षतिपूर्ति का "दूसरा मौका"- A “second chance” भी प्रदान करती है। 

यह शब्द A “second chance” - अर्थात "दूसरा मौका" - 'मनःसंयोग' आदि 3H विकास के 5 अभ्यास से जीवन के खेल में हारजीत को तय करने के लिए और अधिक विचारशील दृष्टिकोण के उन सभी अर्थों के साथ आम उपयोग में आ गया है।]

The term has passed into common usage with all those connotations of a “second chance” and a more thoughtful approach.

>>>Cricket is a game played over several days, during which each side takes turns with the bat, while the other bowls. Each such combination is called an “innings”. 

In a 5-day match each side gets two goes with the bat, so each side has 2 innings, for a total of 4.

The second innings is tactically different from the first,  because people are more tired, the wicket has deteriorated, and the two sides have become familiar with the playing styles of each other.

Similarly, the first innings was played with the objective of scoring as many runs as possible from a zero position whereas at the start of the second, the relative position of the two sides is precisely known, and the objective becomes one of winning (or drawing) the match from that tactical position.

The second innings can also present a possibility for a team that has done poorly in one aspect of the game so far to redeem themselves by more cautious or skillful batting, more aggressive bowling, or better placement in the field. A “second chance”

The term has passed into common usage with all those connotations of a “second chance” and a more thoughtful approach.


>>>##सिद्ध संत विजय कृष्ण गोस्वामी : विजय कृष्ण गोस्वामी  कहा करते थे, “पैसा एक घातक विष है! इसे कभी भी घर में संचय न करें। पैसा कमाएं और जरूरत के हिसाब से खर्च करें। अगर कुछ बचा रह जाए तो उसे भगवान का अमानत पैसा समझो। यदि प्रभु किसी को (किसी को अभावग्रस्त या अत्यंत संकट में) भेजता है तो उसे तुरंत दूर कर दें। जो अमीर बनना चाहते हैं उनके लिए बात अलग है, लेकिन जो आध्यात्मिकता की तलाश में हैं, उनके लिए बस इतना ही काफी है कि वे किसी तरह दिन काट सकें। विजय कृष्ण गोस्वामी  को पूरी के लोग 'जटिया बाबा ' के नाम से जानते थे। इस  अभूतपूर्व मान्यता ने कुछ स्थानीय लोगों और एक या दो आश्रमों के प्रमुखों को ईर्ष्या से भर दिया। इन ईर्ष्यालु लोगों ने गोस्वामी प्रभु को मारने की योजना बनाई। उन्होंने एक व्यक्ति को महाप्रसाद (लड्डू) की मीठी गेंद के साथ घटक विष के साथ भेजा, जिसने इसे गोस्वामी प्रभु को सौंप दिया। उस समय उनके साथ कोई अटेंडेंट नहीं था। सर्वज्ञ गोस्वामी प्रभु मीठी गेंद को छूने पर तुरंत जान गए कि इसमें जहर है। यह भी उनके लिए अनजान नहीं था कि उन्हें ज़हरीले लड्डू खाकर अपनी नश्वर देह त्यागनी पड़ी थी, क्योंकि यह पूर्वनिर्धारित था। इस समय उस हत्यारे ने कहा, '' शास्त्रों के अनुसार महाप्रसाद ग्रहण करते ही ग्रहण कर लेना चाहिए।'' यह सुनकर उसने विषयुक्त महाप्रसाद खा लिया।  जहर खाने के ठीक एक महीने बाद, उन्होंने 58 साल की उम्र में जून, 1899 ई। (22 वें ज्येष्ठ, 1306 बंगाली कैलेंडर, रात 9.20 बजे) के महीने में जगन्नाथ धाम में अपने शाश्वत निवास में प्रवेश किया। तब सभी ने अपनी माँ स्वर्णमयी देवी की बातों पर विश्वास किया। “बिजॉय जगन्नाथ धाम से आया है। इसलिए वह एक बार पुरी जाने के बाद वापस नहीं लौटेगा।इसके बाद उनके शिष्यों ने उनके नश्वर शरीर को पुरी धाम में नरेंद्र सरोबर से सटी भूमि में दफन कर दिया। बाद में वहां एक सुंदर मंदिर बनाया गया, जिसे 'जटियाबाबा समाधि- मंदिर' के रूप में जाना जाता है और तीर्थ यात्रा के लिए एक प्रसिद्ध स्थान के रूप में जाना जाता है।

गोस्वामी प्रभु कहा करते थे कि श्री वृन्दावन अलौकिक धाम है। इस स्थान के रजो (वृंदावन की रेत की धूल को श्रीकृष्ण की उपस्थिति माना जाता है) प्राप्त करने के लिए लगातार वैष्णव महात्मा जो अब अपने नश्वर शरीर में नहीं हैं, यहां रहने के लिए पेड़ों और लताओं का शरीर धारण करते हैं। इसलिए यहां पेड़ काटना महापाप माना जाता है। उन्होंने अपने शिष्यों से कहा कि यदि वे इस स्थान के महत्व का अनुभव करना चाहते हैं, तो उन्हें बिना किसी रुकावट के निम्नलिखित नियमों का पालन करना चाहिए। "इस धाम में व्यक्ति को चाहिए:

1. ईर्ष्या -द्वेष  और परनिन्दा  का त्याग करें,

2. दूसरों को जहर की तरह बोलने से बचें,

3. अनावश्यक रूप से समय बर्बाद न करें,

4. पहले भगवान को भोग लगाए बिना भोजन न करें,

5. हर समय साधना में संलग्न रहें .

माता-पिता की धर्म परायणता का प्रभाव बाल्यावस्था से विजय कृष्ण पर पड़ा। श्री विजय कृष्ण की शिक्षा दिव्य एवं समयानुकूल थी। अध्ययन के इन्हीं दिनों में एक दिन उन्होंने 'देववाणी' (अकाशवाणी) सुनी - #'परलोक की चिन्ता करो। इसके बाद वे #सत्य की खोज के लिए अत्यधिक व्यग्र हो गये। अठारह वर्ष की आयु में उनका विवाह श्रीमती योगमाया देवी से हुआ और उन्होंने शांतिपुर में अपनी शिक्षा भी पूरी की। इसके बाद उन्होंने उच्च शिक्षा के लिए कोलकाता के संस्कृत कॉलेज में प्रवेश लिया। उस दौरान पश्चिमी सभ्यता बंगाल के लोगों को काफी प्रभावित कर रही थी। ब्रह्म समाज नामक एक सुधार आंदोलन का गठन किया गया और वह इसमें शामिल हो गए और वास्तव में उनके सबसे अच्छे और सबसे शक्तिशाली प्रचारकों में से एक थे। उस समय बंगाल में #ब्रह्म समाज का जोरशोर था आप भी इसी समाज से जुड़ गये। एक जमाना था जब गोस्वामी जी कट्टर ब्रह्म समाजी थे। सम्पूर्ण बंगाल उन्हें ब्रहम समाज के सचिव (नेता) के रूप में जानता था। वे अपने उपदेश में बहुत लीन हो गए, लेकिन ब्रह्म समाज भक्ति के बारे में नहीं, बल्कि अद्वैत-वाद के बारे में प्रचार कर रहा था। विजय कृष्ण धीरे-धीरे अपने प्रिय श्यामसुन्दर के बारे में सब कुछ भूल गए। क्या आपको लगता है कि श्यामसुन्दर विजय कृष्ण को भूल जायेंगे? हाहा, नहीं! ब्रह्म समाज के आदर्श वाक्य के अनुसार मन, वचन और कर्म से सत्य की ही खोज करनी चाहिए।  एक बार पंजाब के एक प्रान्त में प्रवचन करते समय वे काम-वासना से बहुत व्याकुल हो उठे; खुद से खफा होकर उसने रावी के पानी में डूबकर आत्महत्या करने का फैसला किया । वह दुर्भाग्यपूर्ण रात जब गोसाईजी अपना जीवन समाप्त करने वाले थे, ऐसा माना जाता है कि एक महात्मा चमत्कारिक ढंग से उनके सामने प्रकट हुए। महात्मा ने उन्हें यह कहकर सांत्वना दी कि केवल दार्शनिक अनुमान, और तर्क से ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती। ईश्वर-प्राप्त गुरु की कृपा से ही ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है । महात्मा _साथ ही गोसाईजी को यह कहकर आश्वस्त किया कि उनके गुरु पूर्वनिर्धारित हैं और समय आने पर स्वयं को प्रकट करेंगे। इस प्रकार प्रोत्साहित होकर, गोसाईजी ने अपने दिव्य पूर्वनिर्धारित गुरु की खोज शुरू कर दी ।

लेकिन बिजॉयकृष्ण को पता चला कि यह ब्रह्म समाज के भीतर से संभव नहीं था। ब्रह्म समाज ने गुरु द्वारा दीक्षा और मूर्ति पूजा की अवधारणा को स्वीकार नहीं किया। लेकिन महात्माओं के साथ अपने संपर्क के बाद उन्होंने ईश्वर के रूप में अस्तित्व में विश्वास विकसित किया। उनका इस सत्य पर गहरा विश्वास हो गया था कि सद्गुरु के दीक्षा के बिना ईश्वर की प्राप्ति संभव नहीं है। महात्मा बिजॉयकृष्ण की आध्यात्मिक प्रगति में विभिन्न तरीकों से मदद कर रहे थे। लेकिन वे उसे मंत्र से दीक्षित नहीं कर सके। उन्होंने कहा, "आपके सद्गुरु पूर्वनिर्धारित हैं। नियत समय में आप निश्चित रूप से दीक्षित होंगे। इसके बाद बिजयकृष्ण सद्गुरु के लिए अत्यधिक तड़प के साथ विभिन्न स्थानों पर (1986 कुम्भमेला गए गुरु खोजने ? ) घूमने लगे।

 इसके बाद से उन्हें ब्रह्म समाज में मन, कर्म और बचन द्वारा सत्य का अनुसरण करना असंभव प्रतीत हुआ और इसके पश्चात् उन्होंने #महान सिद्ध संतों, #महात्माओं के साथ सत्संग लाभ किया।  इसके बाद उन्होंने विभिन्न समुदायों के महापुरुषों के साथ जुड़ना और बातचीत करना शुरू कर दिया। उनमें दक्षिणेश्वर के श्री रामकृष्ण परमहंस, नबद्वीप के सिद्ध वैष्णव श्री चैतन्य दास बाबाजी, कालना (बर्धमान जिले) के महान महात्मा श्री भगवान दासजी, काशी धाम के श्री तैलंगस्वामी, गया के श्री गोम्भीरनाथजी उल्लेखनीय थे। 

 आगे चलकर उन्होंने ब्रह्म समाज को छोड़ कर  पूर्ण योगी व भक्त का जीवन जिया। #श्री रामकृष्ण परमहंस, #काशी के जीवंत शिव श्री तैलंग स्वामी, #महायोगी गंभीरनाथ जी, #सिद्ध वैष्णव श्री चैतन्यदास जी आदि महापुरुषों से उन्हें पुनः ईश्वर के साकार अस्तित्व पर विश्वास हो गया और सद्गुरु की खोज में निकल पड़े। वे श्री रामकृष्ण परमहंस के संपर्क में आए थे, लेकिन उनके शिष्य नहीं थे।

एक दिन उन्हें पुन:दैवी निर्देश मिला - "किसी प्रकार के बंधन में रहने से धर्म लाभ नहीं होगा" । 

केशव चंद्र सेन के साथ बढ़ती असहमति के कारण विजय कृष्ण गोस्वामी को मारने की साजिश रची गई थी, लेकिन वह सौभाग्य (अप्रत्यसीता भावे) से बच गए थे। जब वे कूच बिहार में थे तो उन्होंने एक दिव्य वाणी सुनी जो कह रही थी: "अब किसी भी संगठन में मत रहो - संगठित धर्म के भीतर आध्यात्मिक जीवन नहीं हो सकता!" (गण्डीर भीतरे थकिले धर्म होय ना) सद्गुरु की खोज के क्रम में वे बिहार प्रांत के गया की आकाशगंगा पहाड़ी पर पहुंचे और रघुवरदासजी के आश्रम में गए। महात्मा रघुवरदास बाबाजी हनुमानजी के उपासक थे। उनके प्रेमपूर्ण व्यवहार से आकर्षित होकर वे अपने आश्रम में ही रहने लगे और अपना समय साधना में व्यतीत करने लगे। एक दिन कुछ चरवाहे  उनके पास आए और पहाड़ी की चोटी पर एक महात्मा के आने की सूचना दी। यह सुनकर और महात्मा से मिलने की इच्छा के साथ, वह दिव्य श्रद्धा और आनंद से भरे हृदय के साथ उस स्थान पर पहुँचे। महात्मा ने बिजॉयकृष्ण को अपनी गोद में बिठा लिया और अपना परिचय देते हुए कहा, "मैं आपको दीक्षा देने के लिए हिमालय के मानस सरोवर से नीचे आया हूँ।" तब बिजॉयकृष्ण ने उससे पूछा, “मानस सरोवर यहाँ से बहुत दूर है। आप इस स्थान पर कैसे पहुँच सकते हैं?” तब महात्मा ने समझाया, “योगियों के लिए यह कोई कठिन कार्य नहीं है। भौतिक शरीर के पांच तत्व पृथ्वी के पांच तत्वों के साथ मिश्रित हैं और यह संभव है, केवल चेतन आत्मा की सहायता से, किसी भी स्थान की यात्रा करने और भौतिक शरीर को फिर से बनाने के लिए। यह सब कहने के बाद उन्होंने एक शक्ति-गर्भित मंत्र से विजयकृष्ण को दीक्षा दी। मंत्र सुनते ही बिजयकृष्ण के शरीर में आठ पवित्र लक्षण प्रकट हो गए। अपने गुरुदेव को प्रणाम करने के तुरंत बाद शिष्य बेहोश हो गया। होश में आने पर उसने देखा कि उसके गुरुदेव अन्तर्धान  हो गए हैं। किसी तरह वे रघुवरदासजी के आश्रम में उतरे और समाधि में चले गए। इस अवधि के दौरान रघुवरदास बाबाजी ने अपने शरीर की देखभाल की और उसकी रक्षा की। इस प्रकार वह लगातार ग्यारह दिनों तक समाधि की अवस्था में रहा। एक दिन गुरुदेव उनके सामने प्रकट हुए और बोले, “प्रिय वत्स ! पारिवारिक जीवन का त्याग कभी न करना । प्राचीन काल के महान संतों की तरह, अपने त्याग के जीवन को जीवों के कल्याण के लिए लगाएं। आने वाले कुछ और समय के लिए आपको अभी भी ब्रह्म समाज में रहना होगा, बाद में ब्रह्म समाज का बंधन अपने आप टूट जाएगा। अपने गुरुदेव के निर्देशानुसार, विजयकृष्ण कोलकाता में ब्रह्म समाज में लौट आए। वे दक्षिणेश्वर में श्री रामकृष्ण परमहंस देव से मिलने गए। उसे देखते ही श्री रामकृष्ण देव ने कहा, “बिजोय, क्या तुमने अपना ठिकाना निश्चित  कर लिया है? देखो, दो साधु घूमते-घूमते एक नगर में आए। उनमें से एक बाजार, भवन, दुकानों को आश्चर्य से देख रहा था। इस समय वह दूसरे साधु से मिले जिन्होंने उनसे पूछा, "आप चीजों को आश्चर्य से देख रहे हैं। लेकिन तुम्हारा सामान कहाँ है?” पहले वाले ने उत्तर दिया, "मैंने अपना ठिकाना बना लिया है, अपना सामान वहीं रख दिया है, ताला लगा दिया है और अब शहर के विभिन्न रंगों को देखने जा रहा हूँ।" इसलिए मैं आपसे पूछ रहा हूं, क्या आपने अपना आश्रय बनाया है? (गुरु आदि को देखते हुए)। देखिए बिजॉय का फव्वारा अभी तक बंद था, अब खुल गया है। जो काम ईश्वर करवाता है, वही करता है। (बिजॉय से) "अब समय आ गया। अब आप कहते हैं, “प्रिय मन, अब वह समय है जब आप और मैं अकेले देख सकेंगे; कोई और नहीं होगा। अपने आप को भगवान के सामने समर्पित करके शर्म, डर और सब कुछ त्याग दें। ऐसे भाव त्याग दो कि मैं हरि के नाम पर नाचूंगा तो लोग क्या कहेंगे - ऐसे सब विचार त्याग दो। प्रेमी होना तो दूर की बात है। श्री चैतन्य देव ने दिव्य प्रेम विकसित किया था। जब कोई भगवान के लिए प्यार विकसित करता है, तो उसे सांसारिक जीवन के लिए कोई प्यार नहीं रह जाता है, अकेले अपने सबसे प्यारे शरीर को छोड़ दें," यह कहकर श्री रामकृष्ण ने गाना शुरू किया -" ऐसा दिन कब आयेगा, हरि जप करते-करते मैं आँसू बहा दूँगा और संसार से मोह छूट जायगा ? तन आनंद से पुलकित हो जायेगा?—श्री श्री रामकृष्ण कथामृत/ उन्होंने ब्रह्म की साकार और निराकार दोनों अवस्थाओं को सत्य मान लिया। इसीलिए ब्रह्म समाज के सदस्य उनके निष्पक्ष और गैर-सांप्रदायिक दृष्टिकोण को स्वीकार करने में असमर्थ थे। जब उन्होंने नाम संकीर्तन के दौरान उनकी समाधि अवस्था देखी तो ब्रह्म समाज के सदस्यों ने अपनी अज्ञानता के कारण उनका उपहास करना शुरू कर दिया। इसीलिए उन्होंने ढाका के पास गंदरिया नामक जंगल में एक आश्रम की स्थापना की। इस अवधि के दौरान उन्होंने 'आकाश वृत्ति'  (अर्थात् कमाने, भीख मांगने या उधार लेने का कोई प्रयास नहीं करने के लिए, पूरी तरह से भगवान की दया पर निर्भर रहने के लिए) किया था। जो कुछ भी बिना मांगे ही मिल जाता था, उसे वे भिक्षा के रूप में स्वीकार कर लेते थे। उनके साथ उनकी पत्नी जोगमाया देवी, बेटा जोगजीवन और दो बेटियां भी थीं। कुछ साधु जो मोक्ष के साधक थे और कुछ गृहस्थ, उनके नियमित साथी थे। इन सभी लोगों के रहने और खाने की व्यवस्था आश्रम द्वारा की जाती थी। लेकिन आश्रम के पास स्थायी आय का कोई साधन नहीं था। साधकों को अपना जीवन पूरी तरह से ईश्वर पर आश्रित होकर व्यतीत करना पड़ता था। विजय कृष्ण गोस्वामी से प्रेरित होकर उनके शिष्य देशनायक बिपिन चंद्र पाल, डॉन सोसाइटी के संस्थापक सतीश चंद्र मुखोपाध्याय, बरीशाल के आभूषण अश्विनी कुमार दत्ता, मनोरंजन गुहा ठाकुरता और अन्य ने देश की आजादी के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया।


 जो कुछ भी बिना मांगे ही मिल जाता था, उसे वे भिक्षा के रूप में स्वीकार कर लेते थे। आश्रम में उनके आगमन के बाद गोस्वामीप्रभु ने भगवान के दर्शन किए और सर्वोच्च आध्यात्मिक स्थिति प्राप्त की। उनका दिव्य शरीर अद्भुत दिव्य प्रकाश से दमकता रहता था। धीरे-धीरे गोस्वामी प्रभु की ख्याति एक सिद्ध महात्मा के रूप में चारों ओर फैल गई। विभिन्न समुदायों के लोग दीक्षा लेने उनके पास आने लगे। दीक्षा की पात्रता के संबंध में वे कहा करते थे, "यह दीक्षा नितांत अकारण है और ईश्वर की कृपा है।" वे अपने गुरुदेव के सीधे आदेश के तहत किसी को भी ईश्वर की कृपा से दीक्षा देते थे।

“गोस्वामी प्रभु जिस आम के पेड़ के नीचे बैठते थे, उसके पत्तों से शहद टपकता था। कभी-कभी उसके उलझे बालों से भी मधु टपकने लगता था। आश्रम परिसर में दिव्य सुगंध व्याप्त हो गई। उनकी प्रार्थना कुटिया के एक बिल में एक जहरीला सांप रहता था। इसे अक्सर दूध पिलाया जाता था। रात्रि में जब वह समाधि में रहता तो कभी-कभी वह सर्प बिल से निकलकर उसकी जटाओं पर चढ़कर वहीं ठहर जाता। इस संबंध में एक शिष्य के प्रश्न का उत्तर देते हुए गोस्वामी प्रभु ने कहा, "जब प्राणायाम रीढ़ की हड्डी (सुषुम्ना) के केंद्रीय तंत्रिका के माध्यम से सुचारू रूप से जारी रहता है तो यह एक सुखद ध्वनि उत्पन्न करता है। सांप इस आवाज को सुनना पसंद करते हैं। इस दौरान सांप जहां भी होता है वहां से यह आवाज सुन सकता है। यह इस ध्वनि से आकर्षित होता है। धीरे-धीरे इस ध्वनि को पकड़ने की कोशिश में यह सिर पर चढ़ जाती है। यह अपना फन नाक के पास या माथे के ऊपर फैलाकर चुपचाप आवाज सुनता है। कभी-कभी यह उस ध्वनि में अपनी सीटी मिलाकर आनंद लेता है। भगवान महादेव की गर्दन और सिर पर जो सांप आप देखते हैं, वह असामान्य नहीं है। यदि इसी प्रकार की साधना की जाए तो आपके सिर पर भी सांप चढ़ जाएंगे । ये सांप कभी नुकसान नहीं पहुंचाते हैं। इसके विपरीत उनसे पर्याप्त सहायता प्राप्त की जा सकती है। ये काटते नहीं बल्कि सीटी बजाते रहते हैं। जैसे ही प्राणायाम बंद होता है, वे चले जाते हैं।

             जब वे #गया (बोधगया) के #आकाशगंगा पहाड़ पर पहुंचे तब वहां सौभाग्यवश #मानसरोवर वासी श्री मत् स्वामी ब्रह्मानंद परमहंस ने #आकाश मार्ग से #अलौकिक रूप से प्रकट होकर गोस्वामी जी को #दीक्षा प्रदान की।  और आप #कठोर तप में लग गए।      विजय कृष्ण गोस्वामी जी के गुरु का नाम ब्रहमानन्द स्वामी था। नानकपंथी यानि पंजाबी थे। अधिकतर वे मान सरोवर में रहते है कभी-कभी शिष्यों से मिलने चले आते है। साधना के दौरान #श्री चैतन्य महाप्रभु की कृपा से दिव्य भगवत प्रेम प्राप्त किया। #दीक्षा के संबंध में इनका कहना था-'यह संपूर्ण भगवान् का दान है, जिन्हें भगवत् निर्देश प्राप्त हो केवल वे ही दीक्षा दे सकते है।' 

 इनके द्वारा प्रदर्शित मार्ग "अजपा साधन" है। सद्गुरु प्रत्यक्ष निर्देश देकर जिन्हें आदेश दें वही #शक्ति संचार(शक्तिपात) से यह साधन दे सकता है। आप भारत के प्रथम #राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद के दादा गुरु थे। क्रमशः

                       ##योगी सच्चिदानन्द/ साभार/https://www.facebook.com/1347502942058759/posts/1590002381142146/

>>>मेरुदंड सुषुम्ना नाड़ी का मार्ग है । सुषुम्ना नाड़ी मूलाधार चक्र से मेरुदंड होकर चलती हुई आज्ञाचक्र केन्द्र-विन्दु में आती है और वहाँ केन्द्रित होक एकविन्दुता प्राप्त करती है । इसीलिए इस आज्ञाचक्रकेन्द्रविन्दु को ' सुषुम्न - विन्दु ' कहते हैं । 

बायें नथुने और दायें नथुने से चलनेवाली साँस को शास्त्रीय भाषा में क्रमशः बायाँ स्वर और दायाँ स्वर कहते हैं। इड़ा नाड़ी को चन्द्र नाड़ी और पिंगला को सूर्य नाड़ी भी कहते हैं । सुषुम्ना नाड़ी ब्रह्मनाड़ी भी कही गयी है ।   हम देखते हैं कि कभी बायाँ स्वर चलता है , तो कभी दायाँ स्वर और कभी बायाँ दायाँ- दोनों स्वर चलता है।  इडायां चन्द्रः चरति । पिंगलायां रविः । तमोरूपः चन्द्रः । रजोरूपो रविः ॥ ( शांडिल्योपनिषद् )  इड़ा नाड़ी तमोगुणी , पिंगला नाड़ी रजोगुणी और सुषुम्ना नाड़ी सतोगुणी है । ' पिंगला नाड़ी ' का अर्थ है- पीली नाड़ी । पीला रंग रजोगुण का प्रतीक है । 

>>(पिण्ड) शरीर जब अधिक शीतल हो जाता है , तब वह शरीर निष्क्रिय हो जाता है और जब उसमें गर्मी आ जाती है , तब वह सक्रिय हो उठता है । निष्क्रियता तमोगुण का लक्षण है और सक्रियता रजोगुण का । इड़ा नाड़ी तमोगुणी है और पिंगला नाड़ी रजोगुणी । चन्द्र शीतल होता है और सूर्य उष्ण। शांडिल्योपनिषद् में कहा गया है कि इड़ा नाड़ी में चन्द्रमा विचरता है और पिंगला नाड़ी में सूर्य।  

सुषुम्ना तु परे लीना विरजा ( रजस् - रहित , सात्त्विकीब्रह्मरूपिणी । (योगशिखोपनिषद्।)  ' ज्ञानसंकलिनी तंत्र ' में इड़ा नाड़ी को गंगा और पिंगला को यमुना कहा गया है ; देखें- ' इडा भगवती गंगा पिंगला यमुना नदी । इडा पिंगलयोर्मध्ये सुषुम्ना च सरस्वती ॥ '   ऋग्वेद में भी इड़ा नाड़ी सित सरित् ( उजली नदी - गंगा ) और पिंगला नाड़ी को असित सरित् ( काली नदी - यमुना ) कहा गया है । हम जानते हैं कि पिंगला नाड़ी सूर्य भी कहलाती है, और यह पुराण  प्रसिद्ध है कि 'यमुना' सूर्य की संतान ( पुत्री ) है  इसलिए पौराणिक कथा की दृष्टि से पिंगला नाड़ी की उपमा 'यमुना' से ही देना उचित है ।   इड़ा नाड़ी ( चन्द्र नाड़ी ) तमोगुणी होती है और पिंगला नाड़ी ( सूर्य नाड़ी ) रजोगुणी । तमोगुण की अपेक्षा रजोगुण कुछ अच्छा होता है और इसी प्रकार यमुना की अपेक्षा गंगा विशेष पवित्र मानी जाती है । इसीलिए रजोगुणी पिंगला नाड़ी को संतों ने ' गंगा ' और तमोगुणी इड़ा नाड़ी को ' यमुना ' कहना ठीक समझा । तमोगुण का रंग काला माना जाता है और यमुना भी श्यामवर्णा है । इस दृष्टि से भी तमोगुणी इड़ा नाड़ी को ' यमुना ' कहना उचित ही है । जब पिंगला नाड़ी को एक बार ' यमुना ' कह दिया गया , तब इड़ा नाड़ी को 'गंगा ' कहना ही पड़ेगा और तब फिर इड़ा और पिंगला नाड़ियों के बीच की सुषुम्ना नाड़ी को ' सरस्वती ' ही कहने के लिए बाध्य होना पड़ेगा । ' दाहिने गंगा बायें यमुना , मध्य सरस्वती धारा । ( संत गरीब दास जी )"दहिने सूर चन्द्रमा बायें , तिनके बीच छिपाना है । ( संत कबीर साहब )

>>>पिण्ड में छह चक्र हैं : "Cycle of Hatha yoga"  पिण्ड के कुछ मुख्य मुख्य स्थान हैं ; जैसे - गुदा , लिंग , नाभि , हृदय , कंठ और दोनों भौंहों का मध्यस्थान । इन छहो स्थानों पर सुषुम्ना नाड़ी के आश्रित छह पद्मों ( कमलों ) की अवस्थिति बतलायी गयी है । ये पद्म ही चक्र कहलाते हैं । चक्र ' का अर्थ चक्कर , घुमाव , फेरा या उलझन भी होता है ; जैसे मायाबद्ध जीव आवागमन के चक्र में पड़ा रहता है । छह पद्मों में कुंडलिनी शक्ति चक्कर खाकर फँसी हुई है , इसी कारण से ये छह पद्म ' चक्र ' कहलाते हैं ।.....  ( देखें ' रामचरित - मानस - सार सटीक ' , उत्तरकांड , चौपाई ७०७ के अर्थ की टिप्पणी ) अँगरेजी में पद्मों अथवा चक्रों को ' प्लेक्सस ' ( Plexus ) कहते हैं । हठयोगशास्त्र के अनुसार इन चक्रों के नाम क्रमश : ये हैं मूलाधार , स्वाधिष्ठान , मणिपूरक , अनाहत , विशुद्ध और आज्ञाचक्र |मूलाधार गुदा में , स्वाधिष्ठान लिंग में , मणिपूरक नाभिदेश में , अनाहत हृदय में , विशुद्ध चक्र कंठ में और आज्ञाचक्र मस्तक में स्वीकार है।  "मूल चक्र में राम है , स्वाद चक्र में राम । नाभि कमल में राम है , हृदय कमल में राम ॥ कंठकमल में राम है , त्रिकुटी कमल में राम । सहस कमलदल राम है , सुन बस्ती सब ठाम ॥ ( संत गरीब दासजी ) हठयोग सर्वसाधारण के लिए उपयुक्त नहीं है । यदि इसकी क्रिया ठीक - ठीक नहीं की जाए , तो लाभ के बदले हानि भी हो सकती है ; परन्तु राजयोग में ऐसी बात नहीं है । राजयोग सबके लिए सुगम और आपदा रहित है । ∆

गीता सातवाँ अध्याय : " ज्ञान-विज्ञान योग " 

ज्ञान शब्द यहाँ परोक्ष अनुभूति और विज्ञान शब्द अपरोक्षानुभूति का सूचक है। अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण देव ने कहा है - " पढ़ने की अपेक्षा सुनना अच्छा है, और 'सुनने' की अपेक्षा 'देखना' अच्छा है !(अर्थात ईश्वरकोटि या अवतार -नेता वरिष्ठ C-IN-C नवनी दा को देखना, यानि उनके सानिध्य में रहना अच्छा है।) देखने से सब सन्देह चला जाता है। शास्त्रों में तो बहुत सी बातें हैं, ईश्वर का साक्षात्कार न होने से , उनके चरणों में भक्ति न होने से और चित्तशुद्धि न होने से सब वृथा है। गुरुमुख से सुनंने पर अवतार वरिष्ठ की धारणा अधिक होती है, और शास्त्रों का असार भाग सोचना नहीं पड़ता। [अवतार वरिष्ठ का 'रामो कृष्णो ' नाम-जपने की पद्धति को श्रीगुरुदेव के मुख से या साधुमुख से अर्थात मनःसंयोग को " विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर Be and Make ' वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित और जीवनमुक्त का चपरास प्राप्त शिक्षक नेता-वरिष्ठ नवनीदा के मुख से मनःसंयोग -पद्धति को सुनने पर शास्त्रों का असार भाग सोचना नहीं पड़ता।]  ब्रह्म (रामोकृष्णो) को शब्द और अर्थ से जानने का नाम ज्ञान है, और ब्रह्म को (ठाकुर-माँ-स्वामीजी -.... नवनीदा को माँ आनन्दमयी की कृपा से) विशेष रूप से जानकर उसमें  निरन्तर विलास करना, ब्रह्मानन्द में डूबा रहना विज्ञान है। " लकड़ी में निश्चित आग है, इसको जानने वाला ज्ञानी है। किन्तु लकड़ी जलाकर रसोई पकाना और खाना तथा पूर्ण परितृप्त हो जाना , जिसको होता है, उसका नाम विज्ञानी है। " 

" विज्ञानी के 8 पाश खुल जाते हैं,ज्ञानरूपी खड्ग के द्वारा 'उन्हें' (24 तत्व + एक = पच्चीस दलवाले फूल  'प्रेममय' को  एक ही वार से ?) काट डालने पर फिर कुछ नहीं रह जाता । तब अपना 'मैं' भी बाजीगर का तमाशा हो जाता है। काम-क्रोध आदि का आकार मात्र रहता है। विज्ञानी सदा ईश्वर (ब्रह्म) का दर्शन करता है , इसीसे ऐसा रेलपेल (आवेश में आ जाने वाला) भाव है। वह ऑंखें खोलकर भी देखते हैं- [कि भगवान ही मनुष्य बने हैं , अब प्रत्येक मनुष्य को भगवान (100 % निःस्वार्थपर) होना है !)]। कभी नित्य में और कभी लीला में रहते हैं , फिर कभी लीला से नित्य में जाते हैं। विज्ञानी (अर्थात ज्ञानी भक्त) ईश्वर के आनन्द का विशेष रूप से उपभोग करते हैं। किसी ने दूध का नाम सुना है, किसी ने देखा है और किसी ने पिया है। विज्ञानी ने दूध पिया है और पीकर आनन्द -लाभ किया है और हृष्टपुष्ट भी हुए हैं। ...... ब्रह्मज्ञान के अनन्तर (अर्थात निर्विकल्प समाधि से पुनः शरीर में लौटने में समर्थ ईश्वरकोटि मनुष्य -नवनीदा ) के भीतर ईश्वर (माँ आनन्दमयी) लोकशिक्षा के लिए कुछ 'मैं ' छोड़ रखती हैं। नारद आदि आचार्य विज्ञानी थे। जो लोग केवल ज्ञानी हैं, वे भयभीत रहते हैं , किन्तु विज्ञानी को किसी से (मृत्यु से भी) भय नहीं रहता। क्योंकि उन्होंने साकार और निराकार दोनों का साक्षात्कार किया है , ईश्वर के साथ वार्तालाप भी किया है। ईश्वर के आनंद का पूर्ण उपभोग किया है। "

" साधारण मनुष्य या साधक ज्ञानी तक हो सकता है , विज्ञान की अवस्था में नहीं पहुँच सकता केवल ईश्वर-कोटि अथवा आधिकारिक पुरुष जैसे नारद , सुकदेव , बुद्ध, आचार्य शंकर , विवेकानन्द , नवनी दा आदी; वे विज्ञानी की अवस्था में पहुँच सकते हैं और बाद में माँ आनंदमयी (के अवतार) की विशेष इच्छा से जीवन-भूमि में उतर आते हैं , केवल लोक-कल्याण के लिए।"                 

चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन।

आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ।।7.16।।

।।7.16।। हे भरत वंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन ! उत्तम कर्म करने वाले मनुष्य (सुकृतिन:) आर्त (रोगादि से पीड़ित), जिज्ञासु (मुमुक्षु), अर्थार्थी (इस लोक और परलोक के अर्थ कामी)और ज्ञानी ऐसे चार प्रकार के लोग मुझे भजते हैं।।

समस्त पदार्थ (matter) एवं ऊर्जा (energy) का स्रोत आत्मा (spirit) ही होने के कारण जड़ पदार्थों में यदि क्रिया होते दिखाई दे तो उसका प्रेरक स्रोत भी आत्मा (spirit) ही होना चाहिए। इस्टीम इंजन (steam engine) का प्रत्येक भाग लोहे का बना होता है और फिर भी यदि उसमें रेल के डिब्बों को खींचने की सार्मथ्य होती है तो निश्चय ही उस सार्मथ्य का स्रोत लोहे से भिन्न होना चाहिए। ठीक इसी प्रकार समस्त मनुष्य शरीर (Hand) और मन (Head) के माध्यम से जो सार्मथ्य प्रकट करते हैं वह आत्मचैतन्य (Spirit-Heart, ह्रदय में विराजित आत्मा) के कारण ही संभव होता है।

योगी हो या भोगी दोनों को कार्य करने के लिए आत्मचैतन्य  (Spirit-Heart ) का ही आह्वान करना पड़ता है। चाहे वे पीड़ा और कष्ट के समय सान्त्वना की कामना करें या विषय उपभोगों की इच्छा करें , इन सबके लिए आत्मा की चेतनता आवश्यक होती है। एक विशेष दशा मे कार्य करने के लिए आत्मा का आह्वान करना ही भजन या प्रार्थना है। प्रार्थना विधि में भक्त स्वयं को ईश्वर के चरणों में समर्पित करके ईश्वर के अनुग्रह की कामना करता है। 

इसको समझने के लिए हम विद्युत् का दृष्टान्त ले सकते हैं। विद्युत् पंखा हीटर रेडियो आदि स्वयं कुछ कार्य नहीं कर सकते। विद्युत् शक्ति के इनमें प्रवाहित होने पर ये अपनेअपने कार्य के द्वारा समाज की सेवा कर पाते हैं। यही विद्युत् शक्ति का आह्वान है। स्पष्ट है कि सभी यन्त्रों के लिए विद्युत् आवश्यक है लेकिन उसका उपयोग किस यन्त्र के लिए करना है वह हमारी इच्छा पर निर्भर करता है। शीत ऋतु के दिनों में पंखा चलाकर हमें और अधिक कष्ट उठाना पड़े तो उसका दोष विद्युत् को नहीं दिया जा सकता और न ही उसे क्रूर कहा जा सकता है। विखण्डित मन में जब चैतन्य व्यक्त होता है तो मन के अवगुणों के लिए आत्मा को दोष नहीं दिया जा सकता। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि एक मात्र आत्मा (Spirit) ही चैतन्य स्वरूप है। भगवान् यहाँ कहते हैं कि पापी हो या पुण्यात्मा मूढ़ हो या बुद्धिमान आलसी हो या क्रियाशील भीरु हो या साहसी सब मुझे ही भजते हैं और मैं उन सबके हृदय में व्यक्त होता हूँ। शरीर (Hand) और मन (Head)  से कार्य करने के लिए सभी मनुष्यों को जाने या अनजाने मेरा (ह्रदय में विद्यमान Spirit का ) आह्वान करना पड़ता है

*क्षणभंगुर सुख (अल्प सुख) में आसक्त रहना ही दुःख का कारण है*    

>>>*ओशो; गीता दर्शन* मनोविज्ञान इस समय बहुत व्यस्त है कि  हर आदमी जो हो सकता है, वह नहीं हो पा रहा है। वह कहीं और लगा दिया गया है। 'प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है' लेकिन उसकी अभिव्यक्ति में तारतम्य होता है  -- इस महावाक्य पर विश्वास नहीं करने के कारण ही यह  जगत इतना दुखी मालूम पड़ रहा है।  इसका बहुत बुनियादी कारण जो है, वह डिसप्लेसमेंट है। बाप को एक सनक सवार है कि लड़के को इंजीनियर होना चाहिए, तो इंजीनियर होना चाहिए। अब बाप की सनक से लड़के का क्या लेना-देना ! होना था तो बाप को हो जाना चाहिए था। लेकिन बाप को सनक सवार है, बेटे को इंजीनियर होना चाहिए। फिर बाप भी क्या कर सकता है, उसे कुछ भी तो पता नहीं है। सब अस्तव्यस्त है। किसी को भी पता भी तो नहीं है कि वह क्या हो सकता है ! धक्के हैं, बिलकुल एक्सिडेंटल है जैसे सब, सांयोगिक है। 

इसलिए आज सारी दुनिया में मनोवैज्ञानिक इस बात के लिए आतुर हैं कि प्रत्येक बच्चे की पोटेंशियलिटी की खोज ही मनुष्यता के लिए मार्ग बन सकती है। लेकिन भूल निरंतर हो जाती है। वह निरंतर भूल यह हो जाती है कि हम प्रत्येक सत्य को जनरलाइज कर देते हैं; उसको सामान्य नियम बना देते हैं। कोई सत्य व्यक्त जगत में सामान्य नियम नहीं है। अव्यक्त जगत की बात छोड़ें, व्यक्त जगत में, मैनिफेस्टेड जगत में सभी (सापेक्षिक) सत्य सशर्त (देश-काल -निमित्त के आधीन हैं), उनके पीछे शर्त है।

कृष्ण का युद्ध से कोई लेना-देना ही नहीं है।  कृष्ण एक मनोवैज्ञानिक सत्य कह रहे हैं। वे कह रहे हैं अर्जुन से, यह तेरा नक्शा है, यह तेरा बिल्ट-इन-प्रोसेस है। तू यह हो सकता है। इससे अन्यथा होने की चेष्टा में सिवाय अपयश, असफलता, आत्मघात के और कुछ भी नहीं है।

कृष्ण का युद्ध से कोई लेना-देना ही नहीं है।  कृष्ण एक मनोवैज्ञानिक सत्य कह रहे हैं। वे कह रहे हैं अर्जुन से, यह तेरी पोटेंशियलिटी है , तेरा नक्शा है, यह तेरा बिल्ट-इन-प्रोसेस है। अर्जुन तू भी यह हो सकता है - 'ब्रह्म को जानकर ब्रह्म'  हो सकता है। इससे अन्यथा होने की चेष्टा में सिवाय अपयश, असफलता, आत्मघात के और कुछ भी नहीं है

रवींद्रनाथ टैगोर के घर 'जोड़ासांको भवन ' में एक किताब रखी है। बड़ा परिवार था, बहुत बच्चे थे, सौ लोग थे घर में। हर बच्चे के जन्मदिन पर उस किताब में उस बच्चे के संबंध में घर के सब बड़े-बूढ़े भविष्यवाणियां लिखते थे। उस किताब में रवींद्रनाथ के सारे भाई-बहन--काफी थे, दर्जनभर - सबके संबंध में बहुत अच्छी बातें लिखी हैं। रवींद्रनाथ के संबंध में किसी ने अच्छी बात नहीं लिखी है। रवींद्रनाथ की मां ने खुद लिखा है कि रवि से हमें कोई आशा नहीं है। सब लड़के बड़े होनहार हैं; कोई प्रथम आता है, कोई गोल्ड मेडल लाता है, कोई युनिवर्सिटी में चमकता है। यह लड़का बिलकुल गैर-चमक का है। लेकिन आज आप नाम भी नहीं बता सकते कि रवींद्रनाथ के उन सब चमकदार भाइयों के नाम क्या हैं! वे अचानक कहीं खो गए।

>>>पारमिता शतपथी  त्रिपाठी  की कविता "साड़ी" (संग्रह 'तुम और शब्द') 

साढ़े पांच मीटर की मर्यादा से मैंने खुद को लपेट लिया है- 

और अपनी गरिमा में खुद उलझ रही हूं,

याद नहीं कभी ये मर्यादा,

किसी से हाथ पसार कर मांगी थी। 

या जबरन खींच लाई थी…या किसी की लाल आंखों का इशारा था!... 

परमिता सत्पथी-साढ़े पांच मीटर की मर्यादा

>>> सोलन से यूनान के सम्राट ने पूछा- सोलन तुम देखो मेरे महल को ! मेरे साम्राज्य को ! मेरी धन—संपदा को ! और सोलन प्रशंसा करो कि आप जैसा सुखी और कोई भी नहीं है। लेकिन सोलन ने कहा, झूठ मैं न कह सकूंगा।  क्षणभंगुर को मैं सुख नहीं कह सकता। और जो शाश्वत नहीं है, उसमें सुख हो भी नहीं सकता। सम्राट, यह सब दुख है। बड़ा चमकदार है, लेकिन दुख है। तुम इसे सुख समझे हो, तो तुम मूढ़ हो। सम्राट ने कहा प्रशंसा नहीं की तो फाँसी होगी। सोलन बोलै-  मृत्यु में कुछ हर्जा नहीं है, क्योंकि मरना मुझे होगा ही; किस निमित्त मरता हूं यह गौण है। तुमने मारा, कि बीमारी ने मारा, कि अपने आप मरा, यह सब गौण है। मौत निश्चित है। झूठ मैं न कहूंगा। सम्राट ! तुम भूल में हो। गोली मार दी गई।

फिर दस वर्षों बाद, यह सम्राट पराजित हुआ। विजेता ने इसे अपने महल के सामने एक खंभे पर बांधा। जब वह खंभे पर लटका था और गोली मारे जाने को थी, तब उसे अचानक सोलन की याद आई। ठीक दस वर्ष पहले ऐसा ही सोलन खंभे पर लटका था ! तब उसे उसके शब्द भीसुनाई पड़े, कि जो शाश्वत नहीं, वह सुख नहीं। जो क्षणभंगुर है, उसका कोई मूल्य नहीं। यह चमकदार दुख है सम्राट !विजेता सम्राट सुनकर चकित हुआ; कौन सोलन ? किसके वचन सही ? और इस मरते सम्राट के होंठों पर मुस्कुराहट कैसी ? उसने सारी खोज—बीन करवाई, तब यह पूरी कथा पता चली। वह जो हमें सुख जैसा मालूम होता है, वह सुख नहीं है। और वह जो हमें सुख जैसा मालूम होता है, उसके लिए हम सबको दुख देते हैं। (ओशो – गीता दर्शन)

>>>तंत्रोक्त मुद्रा की साधना:  क्या मुद्रा की साधना द्वारा मनुष्य शारीरिक और मानसिक शक्तियों की वृद्धि करके अपने आध्यात्मिक उद्देश्य की पूर्ति कर सकता है?https://www.facebook.com/IndianMeditation/photos/a.1899196543647465/2331489167084865/?type=3]

तंत्र-शास्त्र : भारतवर्ष की बहुत प्राचीन साधन-प्रणाली है । इसकी विशेषता यह बतलाई गई है कि इसमें आरम्भ ही से कठिन साधनाओं और कठोर तपस्याओं का विधान नहीं है, वरन् वह मनुष्य के भोग की तरह झुके हुए मन को उसी मार्ग पर चलाते हुए धीरे-धीरे त्याग की ओर प्रवृत्त करता है । इस दृष्टि से तंत्र को ऐसा साधन माना गया कि जिसका आश्रय लेकर साधारण श्रेणी के व्यक्ति भी आध्यात्मिक मार्ग में अग्रसर हो सकते हैं । तंत्र मार्ग में कुण्डलिनी शक्ति की बड़ी महिमा बतलाई गई है । इसके जागृत होने से षटचक्र भेद हो जाते हैं और प्राणवायु सहज ही में सुषुम्ना से बहने लगती है इससे चित्त स्थिर हो जाता है और मोक्ष मार्ग खुल जाता है ।

 -साधना काल में साधक को अपनी मन स्थिति को वशवर्ती और स्थिर बनाये रखने के लिये यथाविधि  यम, नियम, आसन,  प्रत्याहार और धारणा आदि का भी अभ्यास करना आवश्यक होता है। 

परमात्मा ने जैसे ब्रह्माण्ड की रचना की । ठीक उसी आकार में मनुष्य शरीर की रचना की । योग स्थितियों के साक्षात्कार और प्राप्ति के लिये की गयी क्रिया अवस्था को मुद्रा कहते हैं । मुद्रा और दूसरे योगासनों के बारे में बताने वाला सबसे पुराना ग्रंथ ‘घेरण्ड संहिता‘ है। हठयोग पर आधारित इस ग्रंथ को महर्षि घेरण्ड ने लिखा था। 

योग में मुद्राओं को आसन और प्राणायाम से भी बढ़कर माना जाता है। बंध, क्रिया और मुद्रा में आसन और प्राणायाम दोनों का ही कार्य होता है। आसन से शरीर की हडि्डयाँ लचीली और मजबूत होती है जबकि मुद्राओं से शारीरिक और मानसिक शक्तियों का विकास होता है।

-बन्ध का अर्थ है ताला लगाना, बन्द करना, रोक देना। बन्ध के अभ्यास में, शरीर के विशेष क्षेत्र में ऊर्जा प्रवाह को रोक दिया जाता है। जब बंध खुल जाता है तो ऊर्जा शरीर में अधिक वेग से वर्धित दबाव के साथ प्रवाहित होती है।

उनमनी मुद्रा : द्रष्टि को भौंहों के मध्य टिकाना । सर्वसाक्षी मुद्रा : स्वयं को, तथा परमात्मा को सबमें देखना ।  दो मुद्राओं को विशेष रूप से कुंडलिनी जागरण में उपयोगी माना गया है;– शाम्भवी मुद्रा, खेचरी मुद्रा। शाम्भवी मुद्रा : जीवों में संकल्प से प्रवेश कर उनके अन्तःकरण का अनुभव करना। शाम्भवी मुद्रा पूरी तरह से तभी सिद्ध हो सकती है जब आपकी आंखें खुली हों, पर वे किसी भी चीज को न देख रही हो। ऐसा समझें की आप किसी धुन में जी रहे है।आपको खयाल होगा कि कभी-कभी आप कहीं भी देख रहें होते हैं, लेकिन आपका ध्यान कहीं ओर रहता है। खेचरी मुद्रा : जीभ को उलटकर ब्रह्मरन्ध्र तक पहुँचाकर स्थिर करना । इस मुद्रा में चित्त एवं जिह्वा दोनों ही आकाश की ओर केंद्रित किए जाते हैं जिसके कारण इसका नाम 'खेचरी' पड़ा है (ख = आकाश, चरी = चरना, ले जाना, विचरण करना) खेचरी मुद्रा में जीभ को उलटकर ब्रह्मरन्ध्र ( तालु ) और काग तक बारबार छुआकर पहुँचाकर सिद्ध की जाती है । यह मुद्रा हनुमान जी को सिद्ध थी । जिससे उन्हें उङने, छोटा बङा शरीर आदि बना लेने की कई सिद्धियां प्राप्त थीं। ]

पतंजलि योग सूत्र के अनुसार - " क्षणतत्क्रमयोः संयमाद्विवेकजं ज्ञानम्।।‘विभूतिपाद’3.52।। शब्दार्थ :- क्षण ( छोटे से छोटे समय अर्थात पल  ) तत्क्रमयो: ( उसके क्रम अर्थात विभाग में ) संयमात् ( संयम करने से ) विवेकजं ( विवेक से उत्पन्न ) ज्ञानम् ( ज्ञान की उत्पत्ति होती है)। ‘वर्तमान क्षण पर संयम साधने से क्षण विलीन हो जाता है, और आने वाला क्षण परम तत्व के बोध से जन्मे ज्ञान को लेकर आता है।’

 जैसे ही किसी वस्तु की उत्पत्ति होती है तो वह हमें नई लगती है । जैसे – कोई कपड़ा या अन्य कोई वस्तु । लेकिन वह नया पदार्थ प्रत्येक क्षण पुराना होता जाता है । एक लम्बे समय के बाद अर्थात निरन्तर क्षणों के क्रम के बीतने से वह वस्तु नष्ट हो जाती है । यह सब पलों का खेल होता है । क्षणों का प्रभाव उन्हीं पदार्थों पर होता है जिनकी उत्पत्ति ( जो पैदा होते हैं ) होती है । क्षण का प्रभाव आत्मा और परमात्मा पर नहीं होता । जब योगी इन क्षणों ( पलों ) के क्रम ( विभाग ) में संयम कर लेता है तो उसे विवेक ज्ञान की प्राप्ति होती है । विवेक ज्ञान को समझने के लिए हमें पहले विवेक को समझना चाहिए । विवेक का अर्थ है उचित और अनुचित, सत्य, असत्य और मिथ्या में भेद करना । इसे दूसरे शब्दों में इस प्रकार से समझा जा सकता है कि वह जानकारी या वह ज्ञान जो हमें सही व गलत और सच और झूठ के बीच का अन्तर समझाए वह विवेक होता है । योगी द्वारा क्षण के क्रम में संयम करने से विवेक से उत्पन्न हुए ज्ञान की प्राप्ति होती है । जिसे वास्तविक ज्ञान कहा जाता है ।

यदि तुम समय की प्रक्रिया पर, उस क्षण पर जो है, उस क्षण पर जो चला गया, उस क्षण पर जो आने वाला है, अपनी समाधि चेतना को ले आओ, अचानक परम तत्व का ज्ञान हो जाता है। क्योंकि जिस क्षण तुम समाधि के साथ देखते हो—वर्तमान, भविष्य और भूत का विभेद खो जाता है, वे विलय हो जाते हैं। उनमें विभाजन झूठा है। अचानक तुम शाश्वत के प्रति बोधपूर्ण हो जाते हो तिब समय समकालिकता है। कुछ भी जा नहीं रहा है, कुछ भी भीतर नहीं आ रहा है, सब कुछ है, मात्र है। यदि तुम समय को , समाधि कीआंखों से देख सको,समय तिरोहित हो जाता है। लेकिन यह अंतिम चमत्कार है, इसके उपरांत सिर्फ कैवल्य,मुक्ति है।जब समय खो जाता है, सब कुछ खो जाता है—क्योंकि इच्छा, महत्वाकांक्षा, प्रेरणा का सारा संसार वहां है, क्योंकि हमारे पास समय ही गलत अवधारणा है। समय निर्मित किया गया है; समय एक प्रक्रिया की भांति—भूत, वर्तमान, के रूप में—इच्छाओं द्वारा निर्मित किया गया है।

समय वास्तव में इच्छा का प्रक्षेपण है। क्योंकि तुम किसी चीज की इच्छा रखते हो, तुम भविष्य निर्मित करते हो। और क्योंकि तुम आसक्त होते हो, तुम अतीत निर्मित करते हो। क्योंकि तुम उसे नहीं छोड़ सकते जो अब तुम्हारे सामने नहीं रहा, और तुम इससे चिपके रहना चाहते हो, तुम स्मृति निर्मित करते हो। और क्योंकि वह जो अभी नहीं आया तुम इसकी अपने निजी ढंग से अपेक्षा करते हो, तुम भविष्य निर्मित करते हो। भविष्य और अतीत मन की अवस्थाएं हैं, समय के भाग नहीं हैं। समय शाश्वत है। यह बंटा हुआ नहीं है। यह एक है, समग्र है।

आत्म-साक्षात्कार का अर्थ है .. ''अहंकार का संपूर्ण तिरोहित हो जाना''। और अहंकार के साथ , हर चीज तिरोहित हो जाती है। 

कर्पूरगौरं करुणावतारं संसारसारम् भुजगेन्द्रहारम् । 

सदावसन्तं हृदयारविन्दे भवं भवानीसहितं नमामि ॥

अर्थात : कर्पूर के समान चमकीले गौर वर्णवाले, करुणा के साक्षात् अवतार, इस असार संसार के एकमात्र सार, गले में भुजंग की माला डाले, भगवान शंकर जो माता भवानी के साथ भक्तों के हृदय कमलों में सदा सर्वदा बसे रहते हैं...हम उन देवाधिदेव की वंदना करते हैं। साभार/https://www.facebook.com/gyanamrit.770/photos/a.1084264595007845/1560595230708110/?type=3&locale=hi_IN]