श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर
(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली )
(23)
साधक का जीवन पथ
(A)
*धैर्य और सहनशीलता*
220 सहत चोट निहाई बहु , तनिक न विचलित होय।
405 तस सहनशील सहत दुःख , धीरज इक न खोये।।
लुहार के यहाँ जो निहाई होती है उस पर कितने जोरों से हथौड़ों की चोट पर चोट पड़ती जाती है , तथापि निहाई तनिक भी विचलित नहीं होती। इसके द्वारा मनुष्य को धैर्य और सहनशीलता सीखनी चाहिए।
" मैं लेक्चर दे रहा हूँ , तुम लोग सुनो। " इस प्रकार का अहंभाव , गुरुगिरि (आचार्यपन) का अभिमान नहीं रखना चाहिये। अज्ञान अवस्था में ही अहंकार रहता है , ज्ञान होने पर नहीं। जिसमें मिथ्या अहं का अभिमान नहीं , उसी को ज्ञानलाभ होता है। बरसात का पानी नीची जमीन पर ही ठहरता है , ऊँची जगह पर नहीं ठहर पाता।
(B)
नम्रता
221 काग चतुर चालाक पर , मरह हि विष्ठा खाई।
408 रामकृष्ण कह उचित नहीं, नर ज्यादा चतुराई।।
अमृतवाणी -408 : स्वयं को ज्यादा चतुर समझना उचित नहीं। कौआ खुद को कितना चालाक समझता है ! वह कभी फंदे में नहीं फँसता ! भय की तनिक आशंका होते ही उड़ जाता है। कितनी चतुराई से वह खाने की चीजें उड़ा ले जाता है। पर इतना होते हुए भी वह विष्ठा खाकर मरता है। ज्यादा चालाकी करने का यही परिणाम होता है।
जो अहंकार आत्मा की महिमा को प्रकट करता है वह 'अहंकार' नहीं। जो विनय आत्मा के गौरव को नीचे लाती है , वह 'विनय' नहीं ! यथार्थ मनुष्य तो वही है , जो 'मान -होश ' हो --अर्थात जिसमें स्वाभिमान का होश हो। दूसरे लोग तो निरे 'मानुष ' हैं !
नम्रता आसान नहीं
230 कर कर जप तप पाप धुले , प्रगटे सरल स्वभाव।
421 सरल हिय हरि दरस सहज , सहज भगति अरु भाव।।
श्रीरामकृष्ण कहा करते , " अनेक तपस्या , अनेक साधना करने के बाद ही मनुष्य सरल और उदार होता है। सरल हुए बिना ईश्वर की प्राप्ति नहीं होती। सरलहृदय मनुष्य के सम्मुख ईश्वर अपना स्वरुप प्रकट करते हैं।
" परन्तु सरल और सत्यवादी बनने के नाम पर कोई मूर्ख बन बैठे इसलिए श्रीरामकृष्ण सब को सावधान करते हुए कहा करते , " तुम भक्त बनो पर इसका मतलब यह नहीं कि तुम बुद्धू बनो। ( 'ভক্ত হবি, তা ব'লে বোকা হবি কেন?' ঠাকুরের যোগানন্দ স্বামীকে ঐ বিষয়ে উপদেশ.)
अथवा " मन में सदा विवेक-विचार करना चाहिए ---'सत' क्या है और 'असत' क्या है ? नित्य क्या है और अनित्य क्या है ? फिर जो अनित्य है उसे छोड़कर नित्य वस्तु ईश्वर में मन लगाना चाहिए।
सुई में धागा पिरोना हो तो धागे को पहले ऐंठकर नुकीला बनाओ ताकि उसमें रोयें न रहें। तभी वह सुई के छेद से जा सकेगा। मन को ईश्वर में निमग्न करना हो तो दीन -हीन , विनम्र बनो , वासनारूपी रोयें [virus] दूर कर दो।
कई लोग विनम्र-विनयी होने का ढोंग रचते हुए कहते हैं , 'मैं कीट हूँ। ' इस प्रकार स्वयं को हमेशा कीट (अधम) कहते कहते कुछ दिनों बाद मनुष्य वास्तव में ही कीट की तरह दुर्बल बन जाता है। मन में कभी हीनभाव या हताशा नहीं आने देना चाहिए। उन्नति के पथ पर हताशा बड़ा भारी शत्रु है। हताश हो जाने पर धर्मपथ पर अग्रसर नहीं हुआ जा सकता। जिसकी जैसी मती होती है , उसकी वैसी गति होती है।
अमृतवाणी - 1085 : एक आदमी किसी साधु के पास जाकर अत्यन्त दीनभाव दिखाते हुए बोला , " महाराज, मैं बड़ा अधम हूँ , मैं आपकी क्या सेवा करूँ ? " साधु ने उसके मनोभाव को समझते हुए कहा , 'तुम ऐसी कोई वस्तु ले आओ जो तुमसे भी हीन हो।' उस आदमी में सोचा , भला मुझसे हीन वस्तु और क्या हो सकती है ? एक मात्र विष्ठा ही मुझसे हीन होगी। '
ऐसा सोचकर वह मैदान में विष्ठा लाने गया। पर उसके निकट जाते ही विष्ठा बोल उठी , " मुझे मत छुओ ! मैं पहले देवताओं के भोग में चढ़ने वाली सुन्दर मिठाई- 'काजू की बर्फी' थी। पर एक बार तुम्हारे सम्पर्क में आते ही मेरी ऐसी दशा हो गयी है कि मेरे पास आते ही लोग नाक पर कपड़ा लगाकर दूर हट जाते हैं। अब तुम मुझे फिर छूने आये हो ? तुम्हारे स्पर्श से न जाने मेरी और भी क्या दुर्दशा होगी ! " मुझे मत छुओ ! " यह सुनते ही उस आदमी में यथार्थ दीनता का भाव आ गया।
(C)
*सरलता*
228 बालक सम जो सरल अति , पाहि सहज भगवान।
419 विषयी कपटी क्रूर जो, ते हिय प्रगट न ज्ञान।।
जब तक मनुष्य बच्चों जैसा सरल नहीं हो जाता तब तक उसे ज्ञानलाभ नहीं होता। सब दुनियादारी , विषयबुद्धि को भूलकर बालक जैसे नादान बन जाओ , तभी तुम ज्ञान प्राप्त कर सकोगे।
229 बिन कंकड़ जुती जमीन , होवत उपजवान।
420 वैसे ही उपजत सरल मन , भाव भगति अरु ज्ञान।।
सरल होने पर सहज ही ईश्वर की प्राप्ति हो सकती है। मनुष्य अगर सरल हो तो उसे दिए उपदेश शीघ्र सफल होते हैं। जोती हुई जमीन में , यदि कंकड़-पत्थर न हों, तो बीज पड़ते ही पेड़ उग जाता है, और शीघ्रता से बढ़कर फल भी देने लगता है।
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....“यह तन विष की बेलरी” कवि ने ऐसा क्यों कहा है?
उत्तर: इस दोहे में कबीर दास जी ने तन को विष की बेल कहा है, क्योंकि कबीर दास जी के अनुसार यह तन विष की बेल के समान है। क्योंकि इस बेल रूपी तन पर विषय वासनाओं के फल लगते हैं। ये विषय-वासनाओं के फल हैं, काम-क्रोध, मोह, लोभ, अहंकार, राग-द्वेष, ईर्ष्या, लालच आदि फल लगते हैं। इन फलों के सेवन करने से प्राणी हमेशा दुखी ही रहता है और परेशान रहता है। यह विषैले फल है और वह इनकी मोह माया में पढ़कर जन्म-मरण के बंधन से मुक्त नहीं हो पाता और इस संसार के माया जाल में उलझा रहता है। शरीर विषय-वासनाओं के प्रति लगातार आसक्ति रखता है, इसमें सदा सुख-भोगों को मोह बना रहता है। इसलिए विष की बेल की तरह यह सदा ही माया (मिथ्या अहं) से ग्रस्त रहता है।
यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान ।शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान ।।
भावार्थ: कबीर दास जी कहते हैं, कि यह जो शरीर है वह विष से व्याप्त पौधे के सामान है, और एक सच्चा गुरु, अमृत की खान अर्थात उन विष सामान बुराइयों का अंत करने वाला होता हैं। यदि अपना शीश (सर) का दान कर देने के बदले में आपको कोई सच्चा गुरु मिले तो ये सौदा बहुत ही सस्ता है। अर्थात यदि गुरु चरणों में शीश झुकाने से, बुराइयों से छुटकारा पाया जा सकता हैं तो यह बहुत ही सस्ता और सरल मार्ग हैं|
सामान्य शिक्षक एवं ब्रह्मज्ञानी गुरु में अन्तर है। ब्रह्मविद गुरु एक ही ज्ञान रूपी बाण (इष्टदेव का नामज्ञान) के प्रहार से शिष्य के हृदय को भेद देता है। हृदय में छेद होने से उसमें स्थित अहंकार बाहर बह जाता है, या मिथ्या अहंकार विनष्ट हो जाता है; या कच्चा' मैं ' पक्का मैं में रूपान्तरित हो जाता है। तब उसमें से माया एवं विषय-वासना भी समाप्त हो जाती है तथा ज्ञान का आलोक फैलता है, और शिष्य भ्रममुक्त या De-hypnotized हो जाता है । इस तरह एक ही शब्द-ज्ञान रूपी बाण से गुरु अपना व्यापक प्रभाव छोड़ता है।
सतगुरु मिलन के ये सुपरिणाम रहे कि माया (मिथ्या अहं) , अज्ञान (अस्मिता - या गलत पहचान ) एवं अविवेक समाप्त हुए। परमात्मा का ज्ञान मिलने से सांसारिक ताप अर्थात् आधिदैविक, आधिदैहिक एवं आध्यात्मिक तापों से मुक्ति मिली एवं हृदय पूरी तरह परमात्माप्रेम से शीतल हो गया। गुरु एवं परमेश्वर (माँ काली ) से अपनत्व भाव का जागरण हुआ, विषयवासना से मुक्ति मिली और नश्वर संसार के कष्टों से छुटकारा भी मिला। इस तरह गुरु-मिलने से शिष्य का जीवन सब तरह से शीतल एवं आध्यात्मिक आनन्द से व्याप्त हो गया ।
निराकार परमात्मा का साक्षात्कार गुरु की कृपा से ही हो सकता है, वही अज्ञान से आवृत नेत्रों को खोलकर इन्हें अनन्त परमात्मा को देखने की शक्ति प्रदान करता है। संसार की समस्त विद्याएँ प्राप्त करने के लिए गुरु-कृपा आवश्यक है।
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