श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर
(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली )
(64)
*समाधि के पश्चात् होने वाला विज्ञान*
[The science after samadhi]
477 अज्ञानी बस श्रवण किया , देखा ज्ञानी जान।
926 जो देखा रस पान किया , हुआ उसे विज्ञान।।
'नेति नेति ' करते हुए आत्मा की उपलब्धि करने का नाम ज्ञान है। 'नेति नेति ' विचार करते हुए समाधि-अवस्था प्राप्त होने पर आत्मा की उपलब्धि होती है।
विज्ञान यानि विशेष रूप से जानना। किसी ने दूध के बारे में सुना भर है , किसी ने दूध देखा है और किसी ने दूध पीया है। जिसने केवल सुना है , वह अज्ञानी है ; जिसने देखा है वह ज्ञानी है , जिसने पीया है उसे विज्ञान अर्थात विशेष रूप से ज्ञान हुआ है। ईश्वर के दर्शन प्राप्त होने के पश्चात् उनके साथ परम आत्मीय की तरह वार्तालाप आदि होना -इसी का नाम विज्ञान है।
पहले 'नेति नेति ' विचार करना पड़ता है। ईश्वर पंचभूत नहीं हैं ; इन्द्रियाँ नहीं हैं ; वे सभी तत्वों के अतीत हैं। छत पर चढ़ने के लिए एक एक कर सब सीढ़ियों का त्याग करते हुए जाना होता है। सीढियाँ छत महीन हैं। किन्तु "छत पर जा पहुँचने के बाद दिखाई देता है " कि- जिन ईंट , चूना , सुर्खी आदि वस्तुओं से छत बनी है , उन्हीं से सीढियाँ भी बनी हैं।
'इति इति ' : जो परब्रह्म है , वही यह जीव-जगत बना है , चौबीस तत्व बना है। जो आत्मा है , वही पंचभूत बना है। तुम कहोगे, मिट्टी अगर आत्मा से ही बनी है , तो वह इतनी कड़ी कैसे है ? उनकी इच्छा से (आत्मा की शक्ति या माँ काली की इच्छा से ) सब कुछ सम्भव हो सकता है। क्या रज-वीर्य ^ से हड्डी और मांस का निर्माण नहीं होता है ? समुद्र के झाग से बना पत्थर कितना कड़ा होता है !
(^ डिंब और शुक्राणु या वीर्य से हड्डी और मांस का निर्माण Formation of bone and flesh from Ovum and sperm or semen.)
विज्ञानलाभ होने के बाद संसार में भी रहा जा सकता है। उस समय स्पष्ट अनुभव होता है कि ईश्वर ही जीव-जगत बने हैं , वे संसार से अलग नहीं हैं। ज्ञानलाभ करने के पश्चात् जब रामचन्द्र ने कहा , कि वे संसार संसार में नहीं रहेंगे ! तब दशरथ ने उन्हें समझाने के लिए वसिष्ठ को उनके पास भेज दिया। वसिष्ठ ने कहा , " राम ! यदि संसार ईश्वर से रहित हो , तो तुम उसका त्याग कर सकते हो ! " रामचन्द्र चुप्पी साधे रहे , क्योंकि वे भलीभाँति जानते थे कि ईश्वर को छोड़कर कुछ भी नहीं है।
478 रामकृष्ण कह सिद्ध जन , होवत जग कुल पाँच।
932 स्वप्न मंत्र हठात अरु , कृपा नित्य घर साँच।।
जगत में पाँच प्रकार के सिद्ध पुरुष दिखाई देते हैं - 1/स्वप्नसिद्ध - ये स्वप्न दर्शन प्राप्त कर सिद्ध हो जाते हैं। 2/मंत्रसिद्ध -ये मंत्र जपते हुए सिद्ध हो जाते हैं। 3/अकस्मात सिद्ध -जैसे कोई गरीब आदमी जमीन के नीचे गड़ा खजाना पाकर एकाएक धनवान बन जाता है , उसी प्रकार कई पापी लोग अचानक 'स्वयं को बदल डालकर' * ईश्वरीय राज्य में में पहुँच जाते हैं। इन्हें अकस्मात-सिद्ध कहा जाता है। 4 /कृपासिद्ध -केवल ईश्वर की कृपा से ही जो सिद्ध हो गए , वे कृपासिद्ध कहलाते हैं। जिस प्रकार किसी को जंगल की सफाई करते करते पुराने जल-कुण्ड, किला-मकान आदि मिल जाते हैं , फिर उसे स्वयं कष्ट उठाकर तैयार नहीं करवाना पड़ता , उसी प्रकार कई जन मामूली साधना करते ही सिद्ध हो जाते हैं। 5 / नित्यसिद्ध -ये जन्मतः सिद्ध होते हैं। जैसे लौकी या कुम्हड़े के बेल में पहले फल आते हैं, पीछे फूल। वैसे ही नित्यसिद्ध लोग पहले से सिद्ध होते हैं , बाद में लोकशिक्षा के लिए साधना करते हैं।
[ महामण्डल के 'Be and Make ' युवा प्रशिक्षण शिविर में मनुष्य बनने और बनाने का प्रशिक्षण प्राप्त करके - 'स्वयं को बदल डालकर' ईश्वरीय राज्य में पहुँच जाते हैं ! ]
479 जिनको बोध चैतन्य का , होत चातक समान।
936 कहत सुनत बस हरिकथा , नहि कथा कछु आन।।
किसी किसी का चैतन्य जाग जाता है। परन्तु इसके कुछ लक्षण हैं। ऐसे व्यक्ति को ईश्वरीय प्रसंग छोड़ दूसरा कुछ भी सुनना या बोलना अच्छा नहीं लगता। जैसे चातक पक्षी। सात समुद्र , गंगा , यमुना आदि नदियां ये सभी जल से पूर्ण हैं , परन्तु चातक केवल वृष्टि का ही जल चाहता है। मारे प्यास के छाती फ़टी जा रही है , फिर भी वह दूसरा जल नहीं पीता।
480 नभ में लालिमा कहत जस , सूर्योदय का भान।
937 तस निःस्वार्थ पवित्रता , आगमन श्री भगवान।।
ह्रदय में ईश्वर के आगमन का लक्षण क्या है ? जिस प्रकार उषा की लाली सूर्य के उदित होने की सुचना देती है , उसी प्रकार निःस्वार्थता , पवित्रता तथा सज्जनता ईश्वर के आगमन की सुचना देती है।
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गर्भाधान—संस्कार
दांपत्य-जीवन का सर्वोच्च उद्देश्य है - श्रेष्ठ गुणों वाली, स्वस्थ, ओजस्वी, चरित्रवान और यशस्वी संतान प्राप्त करना। स्त्री-पुरुष की प्राकृतिक संरचना ही ऐसी है की यदि उचित समय पर संभोग किया जाए, तो संतान होना स्वाभाविक ही है, किंतु गुणवान संतान प्राप्त करने के लिए माता-पिता को विचारपूर्वक इस कर्म में प्रवृत्त होना पड़ता है।
श्रेष्ठ संतान की प्राप्ति के लिए विधि-विधान से किया गया संभोग ही गर्भाधान-संस्कार कहा जाता है। इसके लिए माता-पिता को शारीरिक और मानसिक रुप से अपने आपको तैयार करना होता है, क्योंकि आने वाली संतान उनकी ही आत्मा का प्रतिरुप है। इसलिए तो पुत्र को आत्मा और पुत्री को आत्मजा कहा जाता है।
माता-पिता के रज एवं वीर्य के संयोग से संतानोत्पत्ति होती है। यह संयोग ही गर्भाधान कहलाता है। स्त्री और पुरुष के शारीरिक मिलन को गर्भाधान-संस्कार कहा जाता है। गर्भाधान जीव का प्रथम जन्म है, क्योंकि उस समय ही जीव सर्वप्रथम माता के गर्भ में प्रविष्ट होता है, जो पहले से ही पुरुष वीर्य में विद्यमान था। गर्भ में संभोग के पश्चात् वह नारी के रज से मिल कर उसके (नारी के) डिम्ब में प्रविष्ट होता है और विकास प्राप्त करता है।
गर्भस्थापन के बाद अनेक प्रकार के प्राकृतिक दोषों के आक्रमण होते हैं, जिनसे बचने के लिए यह संस्कार किया जाता है। जिससे गर्भ सुरक्षित रहता है। माता-पिता द्वारा खाये अन्न एवं विचारों का भी गर्भस्थ शिशु पर प्रभाव पडता है। माता-पिता के रज-वीर्य के दोषपूर्ण होने का कारण उनका मादक द्र्व्यों का सेवन तथा अशुद्ध खानपान होता है। उनकी दूषित मानसिकता भी वीर्यदोष या रजदोष उत्पन्न करती है। दूषित बीज का वृक्ष दूषित ही होगा। अतः मंत्रशाक्ति से बालक की भावनाओं में परिवर्तन आता है, जिससे वह दिव्य गुणों से संपन्न बनता है। इसलिए गर्भाधान-संस्कार की आवश्यकता होती है।
हिन्दू धर्म संस्कारों में गर्भाधान—संस्कार प्रथम संस्कार है। यहीं से बालक का निर्माण होता है। इसलिये शास्त्र में कहा गया है कि - उत्तम संतान प्राप्त करने के लिए सबसे पहले गर्भाधान-संस्कार करना होता है। पितृ-ऋण उऋण होने के लिए ही संतान-उत्पादनार्थ यह संस्कार किया जाता है। इस संस्कार से बीज तथा गर्भ से सम्बन्धित मलिनता आदि दोष दूर हो जाते हैं। जिससे उत्तम संतान की प्राप्ति होती है।
साभार : https://m.bharatdiscovery.org/india/
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*स्त्री को शक्ति का प्रतीक क्यों कहा जाता है ?*
^ साद्रक्तं ततो मांसं मांसान्मेदः प्रजायते। मेदस्यास्थिः ततो मज्जा मज्जायाः शुक्र संभवः।। अर्थात जो भोजन पचता है, उसका पहले रस बनता है। पाँच दिन तक उसका पाचन होकर रक्त बनता है। पाँच दिन बाद रक्त से मांस, उसमें से 5-5 दिन के अंतर से मेद, मेद से हड्डी, हड्डी से मज्जा और मज्जा से अंत में वीर्य बनता है। पुरुषों में जो धातु बनता है उसे वीर्य कहते हैं, और महिलाओं में जो यह धातु बनती है उसे 'रज' कहते हैं। जिस प्रकार से अच्छी ज़मीन और उत्तम बीज से उत्तम फल देने वाला वृक्ष लगता है, उसी तरह उत्तम और शुद्ध रज वीर्य से उत्तम संतान होती है, दूषित रज वीर्य से दूषित या ख़राब औलाद होती है।
वीर्य और रज दो महाशक्ति हैं। इन दोनों महाशक्तियों का मिलन कोई साधारण घटना नहीं है। इन्हीं के संयोग और मिलन से एक नया जीव उत्पन्न होता है और यह पूरा संसार चलायमान है।
पुरुष का जो sperm या वीर्य है वह चैतन्य शक्ति (power of consciousness) है, जो एकमात्र चेतनता (consciousness) प्रदान करता है। लेकिन जो स्त्रियों में रज है अर्थात Ovum है वह Sperm को या वीर्य को कार्य करने की क्षमता प्रदान करता है। वह उस वीर्य को शक्तिमान बनाता है।
{That which is the sperm or semen of a man (Male) is the Chaitanya Shakti, (That is the power of consciousness, ) which provides the only consciousness, But the woman (female) who has Raj, that is, Ovum, gives the ability to work to the sperm or semen. She makes Him powerful.}
अगर वीर्य आत्मा है तो रज उसका मन, बुद्धि, चित्त एवं अहंकार का निर्माण करता है। उसे शक्तिमान बनाता है। बड़े साधारण रूप से समझिए कि यह वीर्य को आगे की प्रक्रिया के लिए (अर्थात वीर्य से बच्चा बनने की प्रक्रिया) प्रेरित करता है या शक्ति देता है। जैसे कोई व्यक्ति Comma में है। वह जीवित तो है लेकिन जीवित न होकर भी मृतप्राय है। वह अशक्त है चैतन्य होते हुए भी। अब रज का कार्य उस चैतन्यता को शक्ति प्रदान करना है। वीर्य जब बच्चे में convert होगा तो स्त्री का रज या ovum ही इस प्रक्रिया को संचालित करेगा।
अब Mensturation क्या है ? स्त्रियों में प्राकृतिक तौर पर रज या ovum बनने की प्रक्रिया शुरू होती है जैसे पुरुषों में वीर्य बनने की प्रक्रिया। यह Ovum या Egg पूर्ण विकसित होकर किसी वीर्य या sperm के द्वारा Fertilization या मिलन होने की प्रतीक्षा करता है। जब इसे 7 दिन के भीतर कोई वीर्य या Sperm नहीं मिलता है तो यह स्वतः ही क्षरण प्रक्रिया या Degeneration प्रक्रिया में आ जाता है । इस पूरी प्रक्रिया में 3 से 4 या 5 दिन लगते हैं जिसमें रक्त (ध्यान रखिये कि यह सामान्य रक्त नहीं है), तरह तरह के cells, Elements, Minerals, Electrolytes इत्यादि का मिश्रण बाहर निकलता है ।
इस बनने बिगड़ने की प्रक्रिया को पूरे 28 दिन लगते हैं। '14- 14 ' दिन के अंतराल पर जैसे चन्द्रमा बनता बिगड़ता है (शुक्ल पक्ष एवं कृष्ण पक्ष), ठीक उसी तरह। चूँकि रज ही मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार का निर्माण करता है इसीलिए चन्द्रमा को मन का कारक माना जाता है। तो जब स्त्री रजस्वला होती है तो इसका अर्थ है रज जैसी शक्ति का क्षरण प्रारम्भ हो गया है। उस वक़्त स्त्री के शरीर में भी तरह तरह की Problems आती हैं । कोई रजस्वला स्त्री अगर इस दौरान तुलसी के पौधे की सेवा कर दे तो वह मुरझा जाती है। इस दौरान स्त्रियों को कर्मकांड निषेध है लेकिन भगवान का स्मरण , भाव भजन निषेध बिल्कुल नहीं है । सिर्फ यही नहीं हर देश के हर सम्प्रदाय में रजस्वला स्त्री के लिए नियम व निषेध बनाये गए हैं।
केवल मातृ शक्ति ही स्त्रियों का यह रज धारण कर सकती हैं और कोई नहीं। इसीलिए इन्हें शक्ति का प्रतीक बोला जाता है; क्योंकि रज शक्ति धारण करने की क्षमता इन्हीं में है। ये अपना रज भी धारण करती हैं और पुरुषों के शक्ति वीर्य को भी धारण करने की क्षमता रखती हैं। प्रकृति या भगवान ने इनके गर्भाशय , fallopian tube, ovary इत्यादि को इसीलिए बनाया है ताकि ऐसी दो महाशक्तियों को ये धारण कर सकें।
साभार /https://www.breaknlinks.com/hindi/news/343
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