शनिवार, 5 जून 2021

$$$$ श्री रामकृष्ण दोहावली (33) ~ * विवेक-वैराग्यरूपी पंख (अनासक्ति रूपी पंख) के महाबल से - 'निर्गच्छति जगज्जालात् पिंजरादिव केसरी * वैराग्य= समूचे मैदान को चमड़े से मढ़ना असंभव है , अतः पैरों में जूते पहनना ही उचित * Full text of "Shree Ram Krishan Lila Prasang"/https://vivek-jivan.blogspot.com/2013/04/18.html]

श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर 

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(33)

 *आध्यात्मिक जीवन के लिए आवश्यक बातें *

[Essentials for Spiritual Life]   

अनासक्ति (वैराग्य) 

[गृहस्थ को आवश्यकता आधारित दृष्टिकोण  ( need-based approach) 

रखना चाहिये, लेकिन तृष्णा, लालच या अति लोभ  का त्याग करना चाहिये ।]    

293 मन वासना अनन्त है , पावत नहि है अंत। 

547 अस विचार त्यागत सकल , जे गुनी ज्ञानी संत।।

कंटीली झाड़ियों से भरे मैदान पर से नंगे पैर नहीं चला जाता। उस पर से चलने के लिए या तो पूरे मैदान को चमड़े से ढक देना होगा या फिर अपने पैरों में चमड़े के जूते चढ़ाने होंगे। समूचे मैदान को चमड़े से मढ़ना असंभव है , अतः पैरों में जूते पहनना ही उचित है। 

इसी तरह इस वासनापूर्ण संसार में असंख्य कामना-वासनाओं की पीड़ा से छुटकारा पाना हो , तो या  तो सभी वासनाओं की पूर्ति हो जानी चाहिये , या फिर सभी का त्याग हो जाना चाहिए। परन्तु वासनाओं की पूर्ति होना कभी सम्भव नहीं , क्योंकि एक वासना को पूरी करने जाओ तो दूसरी वासना आ खड़ी होती है। इसीलिए ज्ञान-विचार (विवेक-प्रयोग) और संतोष के द्वारा वासनाओं का त्याग करना करना ही उचित है।   

 (560 ~ लेकिन ) जो परमहंस होता है , पूर्ण ज्ञानी होता है , वह मोची -मेहतर की अवस्था से लेकर राजा-महाराजा की अवस्था तक सब कुछ स्वयं भोगकर देख आता है। इसके बिना ठीक-ठीक वैराग्य कैसे आएगा ! 

 [ परमहंस =Lighthouse -a tower containing a beacon light to warn or guide ships at sea. पूर्ण ज्ञानी, या विज्ञानी, नित्य से लीला में -और लीला से नित्य में पहुँचने में सक्षम धैर्यरेता ~ भावी नेता  'would be Leader of the mankind '

विवेक-वैराग्यरूपी पंख * 

299 रेशम कीट सम फँसहहि, मन निज वासना जाल। 

554 विवेक विराग पंख से , काट उड़हि तत्काल।।

रेशम का कीड़ा (silk worm)  जिस प्रकार अपने ही कोश   में आप ही फँस जाता है , उसी प्रकार संसारी जीव भी अपनी ही वासनाओं के जाल में आप अटक जाता है। फिर जैसे उस कीड़े से  तितली (butterfly ) बन जाने पर वह कोश (shell) को चीर कर बाहर उड़ जाती है ; वैसे ही विवेक-वैराग्यरूपी पंख आ जाने पर संसार में आबद्ध जीव भी उसमें से उड़ निकलता है !  

 { स्वामीजी कहते हैं - " भोगस्पृहा (तृष्णा) का त्याग न होने पर , ' वैराग्य ' न आने पर -  क्या कुछ होना सम्भव है ? - वे बच्चे के हाथ के लड्डू तो हैं नहीं जिसे भुलावा देकर छीन कर खा सकते हो ।   जो सभी उपाधियों (कामिनी -कांचन)  से अपनी आसक्ति को त्याग देने के लिये कमर -कसकर प्रस्तुत है, जो सुख, दुःख, भले-बुरे के चंचल प्रवाह में धीर-स्थिर, शान्त तथा दृढ़चित्त रहता है,  वही आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए सचेष्ट है ।   'निर्गच्छति जगज्जालात् पिंजरादिव केसरी'  -  वही अनासक्ति के महाबल से जगत-रूपी जाल को तोड़कर माया की सीमा को लांघ सिंह की तरह बाहर निकल आता है

https://vivek-jivan.blogspot.com/2013/04/18.html]

295 मछली सम जग वासना , रहत होहि मन क्लान्त। 

549 जो छूटे चील मुख से , होवत चहुँ दिग शान्त।।

एक चील को चोंच में एक मछली पकड़े हुए उड़ते देख सैकड़ों कौए और चील उसका पीछा करने लगे। तथा उसे टोंचते और काटते हुए उस मछली को छीनने की कोशिश करने लगे। वह चील जिधर जाता, ये कौए और चील भी चिल्लाते हुए उधर ही जाते।  अंत में परेशान होकर उसने मछली फेंक दी।

 तुरंत ही दूसरी चील ने उसे उठा लिया। देखते ही देखते सभी कौओं और चीलों ने पहली चील को छोड़कर दूसरी का पीछा करना शुरू  किया।

तब पहली चील निश्चिन्त होकर एक पेड़ की डाली पर चुपचाप बैठ गयी। 

उसकी इस शांत और निश्चिन्त अवस्था को देखकर अवधूत ने उसे प्रणाम करते हुए कहा , " तुम मेरी गुरु हो ! तुमने मुझे सिखाया कि संसार की वासनाओं और उपाधियों को छोड़ देने से ही शांति मिल सकती है , वरना महान विपत्तियां झेलनी पड़ती हैं।  

301 मंद वैरागी भजहि हरि , बनत बनत बन जाई। 

558 पावत तीव्र विराग नर , चलहि जग ठुकराई।।

302  जाको तीव्र विराग है , पाने को भगवान। 

558 निजपरिजन तेहि लागहि , काला नाग समान।।

प्रश्न - बद्ध जीव के मन की अवस्था कैसी हो जाये , जिससे उसे मुक्ति मिल सकती है ? 

उत्तर - ईश्वर की कृपा से यदि उसे तीव्र वैराग्य हो जाये तो कामिनी -कांचन से निस्तार हो सकता है। यह तीव्र वैराग्य किसे कहते हैं जानते हो ? ' बनत बनत बनि जाई ' --अर्थात भगवान का नाम लेते रहो , सब हो जायेगा। ' यह मंद वैराग्य के लक्षण हैं । जिसे तीव्र वैराग्य होता है उसके प्राण भगवान के लिए व्याकुल हो उठते हैं , जिस प्रकार माँ के प्राण अपने बच्चे के लिए व्याकुल हो उठते हैं। जिसे तीव्र वैराग्य होता है वह भगवान के सिवा और कुछ नहीं चाहता। संसार उसे कुँए जैसा प्रतीत होता है। उसे डर लगता है कि कहीं मैं डूब न जाऊँ। आत्मीयों को वह काले  नाग के समान देखता है , उनसे दूर भागने को मन होता है और भागता भी है। 'घर-गृहस्थी का बंदोबस्त कर लूँ , फिर ईश्वरचिंतन करूँगा 'ऐसा विचार वह नहीं करता। उसके भीतर बड़ी जिद होती है। 

297 कंचन काम जो काट ले , त्याग मंत्र से झार। 

552 जहर उतर जब धरहि तब , साधन भजन बुखार।।

एक प्रकार की जहरीली मकड़ी होती है ; वह यदि काट ले तो कोई दवा लगाने के पहले मंत्र के सहारे हल्दी का धुआँ देते हुए विष उतारना पड़ता है। उसक बाद ही दूसरी दवाइयों का असर होता है , अन्यथा नहीं। इसी प्रकार जीव को यदि कामिनी कांचन रूपी जहरीली मकड़ी काट ले , तो पहले त्याग रूपी मंत्र से उसका जहर उतारना पड़ता है , उसके बाद ही दूसरी दवाइयाँ - जैसे साधन-भजन में सफलता मिल पाती है।   

304 त्याग बिना नहि ज्ञान नर , तेहि बिनु संशय नाश। 

561 विषय वासना तज मनुवा , भज हरि होहि प्रकाश।।

कामिनी-कांचन का त्याग हुए बिना ज्ञान नहीं होता। त्याग होने पर ही अज्ञान -अविद्या का नाश होता है। कॉन्वेक्स लेंस पर सूर्य की किरणें पड़ने पर उससे कितनी वस्तुएं जल जाती हैं , परन्तु कमरे में जहाँ छाया हो, कॉन्वेक्स लेंस ले जाने पर यह नहीं हो पाता। इसके लिए घर छोड़कर बाहर निकलना पड़ता है।    

300 बिना विवेक विराग के , वृथा शास्त्र कर ज्ञान। 

556 जनु जल लंगर डार नर , खेवहि नाव अजान।।

मन में विवेक-वैराग्य के रहे बिना शास्त्र-ग्रन्थ पढ़ना वृथा है। विवेक-वैराग्य के बिना आध्यात्मिक उन्नति असंभव है।  

303 कीट पतंग प्रकाश को , चींटी जस गुड़ चाह। 

559 तस भक्तन भगवान को , प्रेम करत अथाह।।

भक्तगण भगवान के लिए सबकुछ छोड़ क्यों देते हैं ? पतंगा यदि एक बार प्रकाश को देखले तो फिर अँधेरे में नहीं जाता ; चींटी गुड़ में लिपटकर भले ही प्राण देदे , पर उसे नहीं छोड़ती। इसी प्रकार भक्त भी ईश्वर (सत्य) के लिए प्राणों की बाजी लगा देता है , परन्तु दूसरी कोई चीज नहीं चाहता। 

305 धन यश परिजन प्रिय लगे , सहित सकल संसार। 

563 पर निरखत आनंदमयी , लागहि सब निःसार।।

छोटे बच्चे कमरे में अकेले गुड़िया लेकर निश्चिन्त होकर अपनी ही धुन में खेलते रहते हैं।  परन्तु ज्यों ही वहाँ उनकी माँ आ पहुँचती है कि वे गुड़िया छोड़कर 'माँ माँ ' करते हुए उसकी ओर दौड़ पड़ते हैं। 

इस समय तुम लोग धन , मान , यश आदि की  गुड़िया लेकर संसार में मग्न हो खेल रहे हो , किसी बात की चिंता नहीं है। परन्तु यदि तुम आनंदमयी माँ को एक बार भी देख पाओ तो फिर तुम्हें धन , मान , यश आदि नहीं भायेंगे। तब तुम सब छोड़कर उसी की ओर दौड़ पड़ोगे। 

296 तेल लगे कागज मँह , कुछ भी लिखा न जाय। 

551 तस जिन्हके मन वासना , सत साधन न सुहाय।।

कागज पर यदि तेल लगा हो तो उस पर लिखा नहीं जा सकता ; इसीतरह जीव के मन में यदि कामिनी-कांचन रूपी तेल लग जाये तो उसके द्वारा साधना नहीं हो सकती। परन्तु , फिर जिस प्रकार उस तेल लगे हुए कागज पर खड़िया  रगड़ देने से उस पर लिखा जा सकता है। उसी प्रकार कामिनी -कंचन रूपी तेल लगे मन को त्यागरूपी खड़िये से घिस लिया जाये तो उसके द्वारा साधना की जा सकती है।  

294 भोग वासना दाद सम , कर विचार मन खुद। 

548 जो खुजलावे सुख मिले , छोड़त होवे दुःख।।

दाद को खुजलाते समय तो आराम मालूम होता है पर बाद में असह्य जलन होने लगती है। संसार के भोग भी ऐसे ही हैं - शुरू-शुरू में तो वे बड़े ही सुखप्रद मालूम होते हैं , परन्तु बाद में उनका परिणाम अत्यंत भयंकर और दुःखमय होता है।   

298 विषय वासना लिप्त मन , जनु घट गंदा जल। 

553 फिटकरी विवेक विराग की, पड़त हि होय निर्मल।।

गंदे पानी में यदि तुम एक टुकड़ा फिटकरी डाल दो तो सारा मैल नीचे बैठकर पानी स्वच्छ हो जाता है। विवेकज ज्ञान और वैराग्य मानो फिटकरी (alum) हैं। इन्हीं के द्वारा संसारी मनुष्य की विषयासक्ति दूर होकर वह शुद्ध बनता है। 

306 काम क्रोध मद लोभ सब , जग महँ मगर समान। 

567 हल्दी विवेक विराग की , मल मल कर असनान।। 

सच्चिदानन्द- सागर में डूब जाओ। कामक्रोध -रूपी मगरों से मत डरो ; शरीर पर विवेक-वैराग्य रूपी हल्दी लगाकर डुबकी लगाओ तो ये मगर तुम्हारे पास नहीं फटकेंगे। 

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शिष्य  -  तो फिर ईश्वर सर्वशक्तिमान व्यक्तिविशेष है  -  यह बात कैसे सत्य हो सकती है ?

      स्वामीजी  -  मनरूपी उपाधि को लेकर ही मनुष्य है ।  मन के ही द्वारा मनुष्य को सभी विषय समझना पड़ रहा है ।  परन्तु मन में जो सोचता है वह सीमित होगा ही ।  इसलिए अपने व्यक्तित्व से ईश्वर के व्यक्तित्व की कल्पना करना जीव का स्वतःसिद्ध स्वभाव है, मनुष्य अपने आदर्श को मनुष्य के रूप में ही सोचने में समर्थ है ।

     इस जरामृत्युपूर्ण जगत् में आकर मनुष्य दुःख की ताड़ना से 'हा हतोऽस्मि'  करता है और किसी ऐसे व्यक्ति का आश्रय लेना चाहता है जिस पर निर्भर होकर वह चिन्ता से मुक्त हो सके । परन्तु ऐसा आश्रय है कहाँ ? निराधार सर्वज्ञ आत्मा ही एकमात्र आश्रयस्थल है । 

पहले पहल मनुष्य यह बात जान नहीं सकता । विवेक-वैराग्य आने पर ध्यान-धारणा करते करते धीरे धीरे यह जान जाता है ।  परन्तु कोई भी किसी भी भाव से साधना क्यों न करे,  सभी अपने अनजान में अपने भीतर स्थित ब्रह्मभाव को जगा रहे हैं ।  हाँ, आलम्बन अलग अलग हो सकता है ।  जिसका ईश्वर में व्यक्तिविशेष होने में विश्वास है, उसी उसी भाव को पकड़कर साधन-भजन आदि करना चाहिए । एकान्तिका आने पर उसीसे समय पर ब्रह्मरूपी सिंह उनके भीतर से जाग उठता है। ब्रह्मज्ञान ही जीव का एकमात्र प्राप्तव्य है ।

 परन्तु अनेक पथ - अनेक मत हैं । जीव का पारमार्थिक स्वरूप ब्रह्म होने पर भी मनरूपी उपाधि में अभिमान रहने के कारण, वह तरह तरह के सन्देह, संशय,  सुख, दुख आदि भोगता है, परन्तु अपने स्वरूप की प्राप्ति के लिए आब्रह्मस्तम्ब पर्यन्त सभी गतिशील हैं ।  जब तक  अहंब्रह्मास्मि ~ 'अहं ब्रह्म'  यह तत्त्व प्रत्यक्ष न होगा, तब तक जन्ममृत्यु की गति के पंजे से किसी का छुटकारा नहीं है ।  

मनुष्यजन्म प्राप्त करके मुक्ति की इच्छा प्रबल होने तथा महापुरुष की कृपा प्राप्त होने पर ही मनुष्य की आत्मज्ञान की इच्छा बलवान होती है; नहीं तो काम-कांचन में लिप्त व्यक्तियों की उधर प्रवृत्ति ही नहीं होती ।जिसके मन में स्त्री,  पुत्र,  धन,  मान प्राप्त करने का संकल्प है,  उसके मन में ब्रह्म को जानने की इच्छा कैसे होगी ?  

जो सर्वस्व त्यागने को तैयार है, जो सुख, दुःख, भले-बुरे के चंचल प्रवाह में धीर-स्थिर, शान्त तथा दृढ़चित्त रहता है,  वही आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए सचेष्ट है ।  'निर्गच्छति जगज्जालात् पिंजरादिव केसरी'  - वही वैराग्य के महाबल से जगत-रूपी जाल को तोड़कर माया की सीमा को लांघ सिंह की तरह बाहर निकल आता है ।

शिष्य - महाराज,  क्या संन्यास के बिना ब्रह्मज्ञान नहीं हो सकता ?

स्वामीजी - क्या यह बार बार कहने का है ? वैराग्य न आने पर - त्याग न होने पर - भोगस्पृहा का त्याग न होने पर क्या कुछ होना सम्भव है ? - वे बच्चे के हाथ के लड्डू तो हैं नहीं जिसे भुलावा देकर छीन कर खा सकते हो । अन्तर्वाह्य दोनों प्रकार से संन्यास का अवलम्बन करना चाहिए,  आचार्य शंकर ने भी उपनिषद् के  '*तपसो वाप्यलिंगात्'* - इस अंश की व्याख्या के प्रसंग में कहा है, 'लिंगहीन अर्थात् संन्यास के वाह्य चिन्हों के रूप में गेरूआ वस्त्र, दण्ड, कमण्डलु आदि धारण न करके तपस्या करने पर कष्ट से प्राप्त करने योग्य ब्रह्मतत्त्व प्रत्यक्ष नहीं होता ।' 

Full text of "Shree Ram Krishan Lila Prasang"/

https://archive.org/stream/in.ernet.dli.2015.479649/2015.479649.Shree-Ram_djvu.txt

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