श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर
(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली )
(46)
* माँ काली की भक्ति तथा उसकी प्राप्ति के उपाय *
398 बिन टोपा घोडा न चले , शासन बिना न मन।
751 मनवा मन को कर वश में , कर लो राम भजन।।
399 जहाँ नाम आनन्दप्रद , जहाँ हरिपद प्रीत।
751 तहँ न षड्रिपु वैर करे , करे सहाय जनु मीत।।
'घोड़े की आँखों में दोनों ओर से आड़ लगाए बिना घोड़ा क्या कभी आगे बढ़ता है ? रिपुओं को वश में लाये बिना कभी ईश्वर प्राप्त हो सकते हैं ? इसे विचार मार्ग --ज्ञानयोग -कहते हैं। इस रास्ते से भी ईश्वर प्राप्ति होती है। ज्ञानमार्गी कहते हैं , " पहले चित्त शुद्ध होना चाहिए ; पहले साधना चाहिए , तभी ज्ञानलाभ होता है। '
और एक मार्ग है -भक्तिमार्ग। इस मार्ग से भी ईश्वर मिलते हैं। एक बार यदि ईश्वर के चरणकमलों में भक्ति हो जाय , उनका नाम लेने में आनंद आने लगे , तो फिर प्रयत्नपूर्वक इन्द्रिय-संयम करने की आवश्यकता ही कहाँ रह जाती है ? तब तो रिपु अपने आप वश में आ जाते हैं।
अगर किसी को पुत्रशोक हुआ हो तो क्या वह उस दिन किसी से झगड़ सकता है ? --या निमंत्रण में भोजन करने जा सकता है ? क्या उस दिन वह लोगों के सामने गर्व कर सकता है ? -या इन्द्रियसुख भोग सकता है ? जो व्यक्ति भगवत्प्रेम में मग्न हो गया है वह विषयसुख का चिंतन नहीं कर सकता '
401 बालक जैसे पितु पहँ , करहि हठ पुर जोर।
753 हरिदरसन को भगत तस , विनय करत कर जोर।।
एक बार श्रीरामकृष्णदेव ने उपासना के प्रसंग में केशव तथा उनके ब्राह्म अनुयायियों से कहा था - "तुम लोग ईश्वर के ऐश्वर्य के सम्बन्ध में इतना अधिक चर्चा क्यों करते हो ? क्या पुत्र अपने पिता के सम्मुख बैठकर यही सोचा करता है कि मेरे बाबूजी के कितने मकान हैं , कितने घोड़े , कितनी गौएँ हैं , कितने बाग -बगीचे हैं ?
या , पिताजी उसके कितने अपने हैं , वे उसे कितना प्यार करते हैं , यह सोचकर मुग्ध होता है ? बाप अपने बेटे को खाने -पहनने को दे , सुख-चैन में रखे , तो इसमें क्या खास बात है ? हम सभी लोग उनकी संतान हैं , अतएव वे हमारे प्रति इस प्रकार का सहृदय बर्ताव करेंगे ही , इसमें आश्चर्य क्या है ?
इसलिए जो यथार्थ भक्त होता है वह इन सब बातों को न सोचकर उन्हें अपना मान कर उनसे हठ करता है , मान करता है , जोर के साथ उनसे कहता है , 'तुम्हें मेरी प्रार्थना पूरी करनी ही पड़ेगी , मुझे दर्शन देने ही होंगे। ' उनके ऐश्वर्य का इतना अधिक विचार करने से उन्हेंअपने निकट आत्मीय के रूप में नहीं सोचा जा सकता , उन पर जोर नहीं चलाया जा सकता। तब, वे कितने महान हैं , हमसे कितने दूर हैं --इस तरह का भाव आ जाता है। उन्हें खूब अपना मानो तभी तो उन्हें पा सकोगे। "
402 सब तजहि जो दरस हित , प्रभु को अपना जान।
754 हठ धर के ते कह सकहि अस , दरसन दो भगवान।।
किसी एक भाव को पक्का पकड़ कर उसके सहारे ईश्वर को अपना बना लेना होगा। तभी न उनके ऊपर जोर चल सकेगा ? देखो न , पहले-पहल जब नई पहचान होती है तब लोग 'आप आप ' कहा करते हैं ; पर ज्योंही पहचान बढ़ी कि 'तुम तुम ' शुरू हो जाता है। फिर और आप मुँह से नहीं निकलता; और सम्बन्ध जब अधिक घनिष्ठ हो जाता है तो 'तुम ' से भी काम नहीं चलता , तबतो 'तू तू ' आ जाता है।
ईश्वर को अपने से भी अपना बना लेना होगा , तभी तो होगा। जैसे , बदचलन औरत जब पहले -पहल पराये पुरुष से प्रेम करने लगती है तब कितना लुकाती -छिपाती है , कितना डरती - सहमति और लजाती है ; पर जब प्रीत बढ़ उठती है तब यह सब कुछ नहीं रह जाता। तब सीधे उसका हाथ पकड़कर सब के सामने कुल छोड़कर बाहर आ खड़ी होती है।
फिर यदि वह आदमी उसकी भलीभाँति देखभाल न करे , या उसे छोड़ देना चाहे , तो वह उसका गला पकड़कर खोंचते हुए कहती है -- ' तेरे लिए मैंने अपना घरबार छोड़ा और सड़क पर आ गयी , अब तू मुझे खाने को रोटी देगा या नहीं बोल ?
' इसी प्रकार , जिसने भगवान के लिए सबकुछ छोड़ दिया है , उनको अपना बना लिया है , वह उनपर जोर लगाकर कह सकता है , 'तेरे लिए मैंने सब कुछ छोड़ा , अब मुझे दर्शन देगा कि नहीं बोल ! '
397 विषय भोग जस जस घटे , घटे जगत अनुराग।
749 तस तस हरिपद प्रीति बढ़े , बढ़े भक्ति वैराग।।
विषयासक्ति जितनी कम होगी , ईश्वर (माँ काली ) के प्रति भक्ति उतनी ही बढ़ेगी।
400 जस जस साधक बढ़ चलहि , हरि पास हरि ओर।
752 तस तस भाव भगति बढ़े , मन में लेत हिलोर।।
श्रीमती (राधा) जैसे जैसे श्रीकृष्ण के निकट अग्रसर होतीं, वैसे वैसे उन्हें श्रीकृष्ण की देह के सुगन्ध का अनुभव होता। साधक ईश्वर के जितने समीप जाता है , उसमें उतनी ही भाव-भक्ति का उदय होता है। नदी सागर के जितने निकट जाती है , उसमें ज्वार -भाटा उतना ही अधिक दिखाई देने लगता है।
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