गुरुवार, 8 फ़रवरी 2024

🔆🙏 चरित्र निर्माण में शिक्षा की भूमिका [(SVHS -4.3)🔆🙏 चरित्र निर्माण में स्वपरामर्श (Autosuggestion):चमत्कार जो आपकी आज्ञा का पालन करेगा। द्वारा संकल्प-ग्रहण की भूमिका]🔆🙏 स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना 🔆🙏 ' शिक्षा : समस्त रोगों का रामबाण ईलाज है "

🔱 स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना 🔱

 खण्ड - 4  

🙏शिक्षा समस्त समस्याओं की रामबाण औषधि है ! 🙏

[Education is the panacea for all problems!]

(SVHS- 4.3)

🔆🙏 चरित्र निर्माण में शिक्षा की भूमिका 🔆🙏 

[चरित्र निर्माण में स्वपरामर्श (Autosuggestion) द्वारा संकल्प-ग्रहण की भूमिका] 

    [1.>>शिक्षा का उद्देश्य इच्छाशक्ति को नियंत्रित कर उसे प्रभावी (effective-असरदार) बनाना है। The aim of education is to control the willpower to make it effective. ]
    श्रीरामकृष्ण की एक प्रसिद्द उक्ति है- "जब तक जीना, तब तक सीखना "('जावत बाँची तावत सीखी ! ' क्योंकि अनुभव ही जगत में सर्वश्रेष्ठ शिक्षक है।) इच्छाशक्ति को प्रभावी (effective) बनाने के लिये उसे नियंत्रित करना ही शिक्षा का लक्ष्य  है। आज हमारे समाज की जो असहनीय परिस्थिति (परस्पर विश्वास की कमी) बन गयी है उसका कारण हमारी शिक्षा है। हमलोगों ने जो शिक्षा पाई है, उसी शिक्षा ने इस वर्तमान परिवेश का निर्माण किया है। अपना सुन्दर चरित्र गठन करके, हमलोग किस प्रकार अपना और दूसरों का कल्याण करने में सक्षम 'मनुष्य' बन सकते हैं, छात्रों को इसी का उपाय बता देना शिक्षा का अभीष्ट है।
[2.>>Another name for morality is unselfishness. #नैतिकता का दूसरा नाम निःस्वार्थपरता है।]
        अतएव पारस्परिक सम्बन्ध और पारस्परिक-श्रद्धा (Interpersonal relationship and mutual respect) इन दोनों विषयों के उपर शिक्षा प्रणाली में विशेष रूप से ध्यान देना आवश्यक है। ये दोनों गुण निःस्वार्थपरता से प्राप्त होते हैं। नैतिकता का दूसरा नाम निःस्वार्थपरता है। स्वार्थ प्रेरित कार्य कभी नैतिक नहीं हो सकता है
     क्योंकि जैसे ही (कोई) व्यक्ति अपने स्वार्थ को प्रश्रय देना चाहेगा, तुरन्त ही प्रतिस्पर्धा का प्रश्न उठ खड़ा होगा।  फलस्वरूप उसकी सम्पूर्ण शक्ति संघर्ष और घृणा में बर्बाद होने लगेगी। इसलिये जो शिक्षा उपरोक्त दोनों विषयों का ध्यान नहीं रखती हो, वह व्यर्थ है। यथार्थ शिक्षा हमें चलने, बोलने, कार्य करने  इत्यादि समस्त हाव-भाव को मानवोचित ढंग से करने के लिए निर्देशित करती है। 
[3.>>व्यावहारिक जीवन के अनुभवों से प्राप्त होने वाली शिक्षा ही चरित्र निर्माण में सहायक होती है। (Education gained from practical life experiences is helpful in building character.)
सही शिक्षा (यानि जीवन अनुभव से प्राप्त शिक्षा) ही चरित्र निर्माण में सहायक होती है। क्योंकि यथार्थ शिक्षा की बुनियाद एक सकारात्मक सोच (Positive thinking) पर आधारित होती है। मन के ऊपर अधिकार रखे बिना हम अपने विचारों को प्रयोजनीय मार्ग (इच्छानुसार क्षेत्र के लीक Rut) में नहीं प्रवाहित कर सकते। मनुष्योचित चरित्र गठित हो जाने के बाद ही कोई व्यक्ति अपने अधिकार और कर्तव्य के प्रति सही रूप में जागरूक हो सकता है। हर समय केवल अपने अधिकार की बात सोंचते रहने से कोई परिवार, समाज या देश सुचारू रूप में नहीं चल सकता। कर्तव्य की परवाह किये बिना किसी को उसका उचित अधिकार मिल भी नहीं सकता। हमारे मानवोचित एवं विवेकपूर्ण कर्तव्य के द्वारा ही समाज में नैतिक-मूल्यों की स्थापना हो सकती है। 
    हमारा पहला कर्तव्य है, दूसरों का सुख, दूसरों के कल्याण के बारे में सोचना। इसी के माध्यम से हम समाज के प्रति जागरूक बनते हैं। समाज के कल्याण के प्रति जागरूक बनने से ही हम अपना अधिकार अर्जित कर सकेंगे। यदि हम काम करने जायेंगे ही नहीं तो वेतन कैसे मिलेगा ? उसी प्रकार यदि हमें कर्तव्य-बोध ही न रहे तो हमें अधिकार क्यों मिलना चाहिये ? कर्तव्यबोध की शिक्षा नहीं मिलने पर चरित्र-निर्माण नहीं हो सकता। यदि हम सचमुच अपने समाज और देश का निर्माण करना अपना दायित्व समझते हैं, तो हममें से प्रत्येक को दूसरों के लिये अपने स्वार्थ का त्याग करना सीखना होगा। सर्वप्रथम स्वयं एक चरित्रवान  मनुष्य बनना पड़ेगा।
[4 .>> मानव कल्याण या समाजसेवा के कई स्तर हैं :गीता के सांख्य योग के अनुसार 3rd 'H हृदय ' का विकास (Development of heart) बाकी के 2H के विकास से  से कैसे भिन्न है (मन और शरीर के विकास से ) से कैसे भिन्न है -यह समझा देना उच्च स्तर की समाज सेवा है। ] 
       मानव कल्याण या समाजसेवा के कई स्तर हैं। न्नहीन को अन्नदान, बेघर लोगों के लिये आवास निर्माण, कर्तव्य-बोध जाग्रत होने के बाद, कर्म करने की पहल से (उद्यम से) मानसिक संपदा से समृद्ध करना आदि । फिर समाज सेवा का उच्चतम स्तर है मनुष्य को उसकी अध्यात्मिक संपदा के प्रति जाग्रत कर देना। यही सबसे बड़ी समाज सेवा है। हमारे पास जो अत्यन्त दुर्लभ पर स्वाभाविक सम्पदा है उसके बारे में कुछ नहीं जानने से उसे व्यर्थ में गवाँना पड़ेगा । जब हम अपनी अध्यात्मिक संपदा को आविष्कृत कर लेंगे तब हम इस बात को भी जान लेंगे कि हम सभी लोगों का अस्तित्व अलग- अलग नहीं है, बल्कि हम सभी लोगो के भीतर एक आन्तरिक एकत्व का सूत्र  विद्यमान है - ऐसी समझ #होते ही हम आध्यात्मिक दृष्टि से एकात्मबोध अर्जित कर लेंगे। [(#"जे जार इष्ट देव सेइ तार आत्मा " काली-कृष्ण एक हैं- की धारणा होते ही हमलोग आध्यात्मिक दृष्टि से एकात्म बोध अर्जित कर लेंगे। ] 
        हमारी शिक्षा का मुख्य उद्देश्य है आध्यात्मिक दृष्टि का जागरण-(ह्रदय का विकास) इससे एक सीढ़ी नीचे उतर कर पहले  अपने मन को  उच्च-भावों से भर लेना होगा।  इसी को मन की शक्ति का विकास या मन को प्रशिक्षित करना कहते हैं। इसके एक सीढ़ी नीचे उतर कर हम लोग शारीरिक व्यायाम और पौष्टिक आहार द्वारा अपने शरीर को हृष्ट-पुष्ट या शक्तिशाली बना सकते हैं। 
[5.>>अच्छी आदतें अच्छे चरित्र का निर्माण क्यों करेंगी?  Why good habits 
will form good character? ভালো অভ্যাসে চরিত্র গঠন হবে কেন ?কোন পরিস্থিতিতে কোন ব্যক্তি যে রকম আচরণ করবে তার অভ্যাস কি ধরনের হয়েছে তার উপর। ] 
   अच्छे अभ्यास से किस प्रकार चरित्र गठन होगा ? कोई व्यक्ति किसी  परिस्थिति विशेष में किस प्रकार का आचरण करेगा यह उसकी पुरानी आदतों (ingrained habits) पर निर्भर करेगा। कोई व्यक्ति निर्जन स्थान में मूल्यवान वस्तु गिरी हुई देखकर नजरें बचाकर उसे अपने अधिकार में लेने की चेष्टा करेगा, दूसरा उसके असली मालिक को वापस करने की चेष्टा करेगा। 
      हमारा मन एक हद तक कैमरे के समान है। जिस वस्तु के सामने कैमरा निर्दिष्ट होगा उसके पर्दे पर सिर्फ उसी वस्तु  का चित्र बनेगा। किन्तु मनुष्य का मन किसी कैमरा की अपेक्षा अधिक उन्नत किस्म का यंत्र है। इसीलिए मन रूपी कैमरे में  शब्द और रूप के आलावा किसी वस्तु के गंध, स्पर्श और स्वाद के छाप भी पड़ जाते हैं। इसी प्रकार पंचेन्द्रियाँ से युक्त हमारा मन रूपी कैमरा हर समय जगत के असंख्य वस्तुओं की छाप हमारे चित्त पर डालता रहता है। मेरे अपने विचार, वाणी और कर्म का जितना गहरा छाप (लकीर) मेरे चित्त पर पड़ेगा , उतना गहरा छाप दूसरों के विचार , कथन और कार्य के द्वारा नहीं पड़ सकता है। एक ही कार्य का बार- बार अभ्यास करने से उन्हीं विचारों, शब्दों और कार्यों के आदतों की लकीरें हमारे चित्त के ऊपर भी पड़ जाती है, तथा ये लकीरें क्रमशः गहरी होती जाती हैं। इस प्रकार हमलोग बैल-गाड़ी में जुते बैलों के समान ही एक ही लकीर पर बार- बार चलते रहते हैं।
       इसीलिये जब हम बार-बार विवेक का प्रयोग करके अपनी (विवेकसम्पन्न) बुद्धि को केवल पवित्र विचारों का संग्रह करने में दक्ष बना लेंगे, तब हमारे चित्त पर केवल सदविचारों की ही लकीरें गहरी पड़ेंगी। फिर हम यदि यही सदअभ्यास दुहराते रहेंगे तो हमारा चरित्र अच्छा बने बिना नहीं रहेगा ! इसलिये स्वयं का और दूसरों का कल्याण के लिए पहले अपना चरित्र अच्छा बनाना होगा। इसके लिये सही शिक्षा प्राप्त कर ('जब तक जीना तब तक सीखना ' जैसे अनुभव से शिक्षा प्राप्त करते हुए) हमें स्वयं अपना चरित्र गठित करना होगा। इसके लिये निरंतर अभ्यास आवश्यक है।   
        इस शिक्षा को ग्रहण करने के लिये बड़े- बड़े विद्यालय भवन  की आवश्यकता नहीं है। घर पर हों या बाहर, दिन-रात अच्छी आदतों को अर्जित करने की शिक्षा प्राप्त करने से जीवन में असफलता नहीं आयेगी। हम स्वयं अपने जीवन को सुन्दर रूप में गढ़ेंगे और अपने देश-वासियों का कल्याण करने की क्षमता अर्जित करके, अपने जीवन को सार्थक बना सकेंगे
  
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>>>गीता अध्याय-2 सांख्य योग: विश्लेषणात्मक ज्ञान का योग (sum of analytical knowledge) :  जीवन के खेल में सफलता का रहस्य : (Secret of success in the game of life:) 
यह सांख्ययोग वास्तव में ज्ञानयोग है। ज्ञानयोग को बुद्धियोग भी कहा जाता है क्योंकि यहाँ पर बुद्धि का अर्थ है संख्या। अत: जिससे आत्मतत्त्व का दर्शन हो वह सांख्ययोग है। आत्मा एवं शरीर दोनों पृथक्-पृथक् हैं फिर भी अज्ञानी जन शरीर को ही आत्मा मान लेते हैं, अत: शरीर के नाश होने से आत्मा के नाश का ज्ञान कर लेते हैं।
साभार https://www.holy-bhagavad-gita.org/chapter/2/hi]
इस अध्याय में अर्जुन कुरुक्षेत्रे -धर्मक्षेत्रे  अपने सम्मुख उत्पन्न स्थिति का सामना करने में स्पष्ट रूप से अपनी असमर्थता को दोहराता है और युद्ध करने के अपने कर्तव्य का पालन करने से मना कर देता है। तत्पश्चात वह औपचारिक रूप से श्रीकृष्ण को अपना आध्यात्मिक गुरु बनाने और जिस स्थिति में वह स्वयं को पाता है, उसका सामना करने के लिए उचित मार्गदर्शन प्रदान करने की प्रार्थना करता है। 
परम प्रभु उससे कहते हैं कि आत्मा, जो शरीर के नष्ट होने पर भी नहीं मरती, के अमरत्व की शिक्षा देकर दिव्य ज्ञान प्रदान करते हैं। आत्मा एक जन्म से दूसरे जन्म में उसी प्रकार से शरीर परिवर्तित करती है जिस प्रकार से मनुष्य पुराने वस्त्र त्याग कर नये वस्त्र धारण करता है। 
इसके पश्चात श्रीकृष्ण सामाजिक दायित्त्वों के विषय की ओर आगे बढ़ते हैं। वे अर्जुन को स्मरण कराते हैं कि धर्म की मर्यादा हेतु योद्धा के रूप में युद्ध लड़ना उसका कर्त्तव्य है। वे स्पष्ट करते हैं कि किसी के द्वारा अपने नैतिक कर्तव्यों का पालन करना एक पुण्य का कार्य है जो स्वर्ग जाने का द्वार खोलेगा किन्तु कर्त्तव्यों से विमुख होने से केवल तिरस्कार और अपयश प्राप्त होगा। 
लौकिक स्तर पर अर्जुन को प्रेरित करने के पश्चात श्रीकृष्ण गहनता के साथ कर्मयोग के ज्ञान पर प्रकाश डालते हैं। वे अर्जुन को फल की आसक्ति के बिना निष्काम कर्म करने की प्रेरणा देते हैं। फल की कामना से रहित कर्म करने के विज्ञान को वे 'बुद्धियोग' या 'बुद्धि का योग' नाम देते हैं। 
>>बुद्धि का प्रयोग (विवेक-प्रयोग) :  मन को कर्मफल की लालसा करने से रोकने के लिए करना चाहिए। इस चेतना के साथ सम्पन्न किए गए कर्म 'बंधनयुक्त कर्मों' से 'बंधन मुक्त कर्मों' में परिवर्तित हो जाते हैं। 
अर्जुन दिव्य चेतना में स्थित मनुष्य के लक्षणों के संबंध में जानना चाहता है। श्रीकृष्ण उसे बताते हैं कि किस प्रकार से दिव्य चेतना में स्थित होकर मनुष्य आसक्ति, भय और क्रोध से मुक्त हो जाता है और सभी परिस्थितियों में उसकी इन्द्रियाँ उसके वश में हो जाती हैं और उसका मन सदा के लिए भगवान की भक्ति में तल्लीन हो जाता है। 
अब वे क्रमानुसार स्पष्ट करते हैं कि किस प्रकार से मानसिक संताप, काम-वासना और लोभ विकसित होता है और किस प्रकार से इनका उन्मूलन किया जा सकता है।

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।

बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्।।

( गीता 2.41 :सांख्य योग ,बुद्धियोग या कर्मयोग?)

[व्यवसाय-आत्मिका-दृढ़ संकल्प; (Business-Spirituality-Determination > one-pointed नुकीली या तीक्ष्ण), बुद्धिः (determination-संकल्प ), एका (single), इह- >here: यहाँ  इस कर्मयोग में), कुरुनन्दन (O joy of the Kurus)। बहुशाखाः (many-branched) हि (indeed), अनन्ताः (endless), च (and) , बुद्धयः (thoughts), अव्यवसायिनाम् (of the irresolute. अनिश्चित या ढुलमुल बुद्धि हानि करने वाली है )

हे कुरुनन्दन ! इस (विषय कर्मयोग के मार्ग ) में निश्चयात्मक बुद्धि एक ही है, अज्ञानी पुरुषों की बुद्धियां (संकल्प) बहुत भेदों वाली और अनन्त होती हैं।।

BG 2.41: हे कुरुवंशी! जो इस मार्ग (कर्म-योग)  का अनुसरण करते हैं, उनकी बुद्धि निश्चयात्मक होती है और उनका एकमात्र लक्ष्य होता है, लेकिन जो मनुष्य संकल्पहीन होते हैं उनकी बुद्धि अनेक शाखाओं मे विभक्त रहती है।

व्याख्या- कामिनी-कांचन में आसक्ति (तीनों ऐषणाओं में आसक्ति) मानसिक क्रिया है। इसका अभिप्राय यह है कि मन बार-बार अपनी आसक्ति के विषयों की ओर भागता है जो किसी व्यक्ति M/F , इन्द्रिय विषय, नाम -यश , शारीरिक सुख और परिस्थितियों इत्यादि में हो सकती है। यदि किसी व्यक्ति (नेता-Bh M/F)  या इन्द्रिय विषय का विचार हमारे मन में बार-बार उठता है तब निश्चय ही यह मन का उसमें आसक्त होने का संकेत है। 
यदि यह मन ही आसक्त हो जाता है तब भगवान इस आसक्ति के विषय के बीच बुद्धि में  (ढुलमुल बुद्धि और दृढ़ संकल्प में) विवेक प्रयोग की बात को क्यों लाना चाहते हैं? क्या आसक्ति का उन्मूलन करने में बुद्धि की (विवेक-सम्पन्न बुद्धि के दृढ़ संकल्प की) कोई भूमिका होती है? 
[$$$ अर्थात क्या पशुमानव से मनुष्य , और मनुष्य से देव मानव (100 Unselfish) बन जाने में "Autosuggestion  दृढ़ संकल्प ग्रहण - या चमत्कार जो आप कर सकते हैं" स्व परामर्श >मैं एक चरित्रवान मनुष्य बनूँगा" की  कोई भूमिका होती है?
हमारे शरीर में सूक्ष्म अंत:करण (जीव +आत्मा) होता है जिसे हम बोलचाल की भाषा में हृदय  (आत्मा) भी कहते हैं। यह मन, बुद्धि और अहंकार से निर्मित होता है। इस सूक्ष्म शरीर में बुद्धि (विवेक-सम्पन्न बुद्धि) मन से श्रेष्ठ है जो निर्णय लेती है जबकि मन में इच्छाएँ उत्पन्न होती है और यह बुद्धि (विवेक-रहित बुद्धि) द्वारा लिए गए निर्णय के अनुसार मोह के विषयों में अनुरक्त हो जाता है। 
उदाहरणार्थ यदि मनुष्य की बुद्धि यह निर्णय करती है कि कामिनी -कांचन और नाम-यश  ही सुख का साधन है तब मन में इन नश्वर वस्तुओं को प्राप्त करने की लालसा उत्पन्न हो जाती है। दूसरे शब्दों में, मन में बुद्धि के बोध (श्रद्धा और विवेक) के अनुसार इच्छाशक्ति (willpower) विकसित होती हैं। उपर्युक्त उदाहरण से हमें यह ज्ञात होता है कि हमारी विवेक-सम्पन्न बुद्धि ही मन को नियंत्रित करने में सक्षम है। इसलिए हमें अपनी बुद्धि को उचित-अनुचित, शाश्वत-नश्वर  ज्ञान के साथ पोषित करना चाहिए।  और उसका प्रयोग (विवेकज-ज्ञान का प्रयोग) मन को उचित दिशा की ओर ले जाने का मार्गदर्शन प्रदान करने में करना चाहिए
 इस प्रकार हम देख सकते हैं की बुद्धियोग (अर्थात सांख्ययोग या कर्मयोग) मन को कर्म फलों से विरक्त रखने का विज्ञान है जो बुद्धि में यह दृढ़ निश्चय विकसित करता है कि सभी कार्य भगवान (आत्मा) के सुख के निमित्त हैं। ऐसी स्थिर बुद्धि वाला मनुष्य एकाग्रता से अपने लक्ष्य पर ध्यान रखता है और निर्बाध गति से धनुष से छोड़े गए बाण के समान अपने मार्ग को पार कर लेता है। 
यदि कोई पुरुष या स्त्री 'Be and Make' C-IN-C परम्परा' में प्रशिक्षण ["Autosuggestion या स्व परामर्श द्वारा दृढ़ संकल्प ग्रहण - या चमत्कार जो आप कर सकते हैं"  >मैं एक चरित्रवान मनुष्य बनूँगा" का प्रशिक्षण] प्राप्त करने के बाद यह संकल्प लेती है-"यदि मेरे मार्ग में लाख बाधाएँ उत्पन्न हो जाएँ और यदि सारा संसार मेरी निंदा करे और यदि मुझे अपने जीवन का भी बलिदान क्यों न करना पड़े तब भी मैं अपनी साधना नहीं छोडूंगा/छोडूंगी। 
"तो छः महीनों की साधना के बाद - साधना  की उच्च अवस्था में यह संकल्प इतना अधिक दृढ़ हो जाता है कि साधक को अपने मार्ग पर चलने से कोई डिगा नहीं सकता किन्तु वे लोग जिनकी बुद्धि अनेक शाखाओं में विभक्त है, अपने मन को विभिन्न दिशाओं की ओर भटकते हुए पाते हैं। वे मन की एकाग्रता को विकसित करने में समर्थ नहीं होते जो भगवान की ओर जाने वाले मार्ग के लिए आवश्यक होती है।
#व्यवसायात्मिका बुद्धि (business intelligence, professional spirit-पेशेवर भावना) अर्थात- वह बुद्धि जो लाभ प्राप्त कराने वाली वाली होती है, जो उन्नति कराती है, वह बुद्धि केवल एक ही होती है। अव्यवसायी बुद्धि अर्थात हानि करने वाली बुद्धि के बहुत से प्रकार हो सकते हैं जो अनन्त  हैं, जो उस सुमार्ग से अलग हैं|
* जब लाभ की बात की जा रही है, तो वर्तमान समय में हम भ्रमित हो सकते हैं क्योंकि आज लाभ को केवल व्यक्तिगत स्वार्थ के पूर्ण करने के रूप से देखा जाता है;  फिर चाहे इसमें दूसरे व्यक्ति का नुकसान ही क्यूँ न हो ? किन्तु भारतीय सभ्यता में शुभ-लाभ कहा जाता है।  जिसका अर्थ है वह लाभ जो सभी के लिए शुभ हो, जिसमे किसी की हानि न छिपि हो।  अतः जो बुद्धि सभी का लाभ कराये उसके नियम कायदे सरल व एक समान होते हैं।  यह बुद्धि हमें परिश्रम तथा संतोष का मार्ग दिखाती है।  जबकि अव्यवसायी बुद्धि हमें अनीति, असंतोष, आलस्य, इर्ष्या आदि न जाने कितनी पथभ्रष्ट करने वाली बाते तथा अशांत रहने का मार्ग ही दिखाएगी|
 इस श्लोक में संक्षेप में सफलता का रहस्य बताया गया है। निश्चयात्मक बुद्धि से कार्य करने पर किसी भी क्षेत्र में निश्चय ही सफलता मिलती है। परन्तु सामान्यत लोग असंख्य इच्छायें करते हैं जो अनेक बार परस्पर विरोधी होती हैं और स्वाभाविक ही उन्हें पूर्ण करने में मन की शक्ति को खोकर थक जाते हैं। इसे ही संकल्प-विकल्प का खेल कहते हैं जो मनुष्य की सफलता के समस्त अवसरों को लूट ले जाता है।
सकाम व्यक्तियों की बुद्धि इस लोक तथा परलोक की अनेक प्रकार की भोग्य वस्तुओं को  (तीन प्रकार की ऐषणाओं को) पाने के लिए दौड़ती रहती है। किन्तु एकमात्र ब्रह्म को अपनी आत्मा-रूप से जानने पर ही परम शान्ति मिलती है। निष्काम कर्म के द्वारा यह बात अच्छी तरह समझ लेने के बाद मन में केवल सद-विचारों (शिव-संकल्प) को उठने देने की निश्चयात्मिका बुद्धि उत्पन्न होती है। अस्थिर चित्त वाले सकाम व्यक्तियों के मन हजारों विषयों में फ़ैल जाते हैं, इस कारण शक्ति का वृथा क्षय हो जाता है। इसलिये हे अर्जुन,' व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन। (गीता 2/41)'

[🔆🙏"शिक्षा का अर्थ है उस पूर्णता को व्यक्त करना जो सब मनुष्यों में पहले से विद्यमान है। और धर्म का अर्थ उस दिव्यता को व्यक्त करना है जो सब मनुष्यों में पहले से विद्यमान है। " -स्वामी विवेकानन्द।
 "शिक्षा क्या है ? क्या वह पुस्तक विद्या है ? नहीं ! क्या वह नाना प्रकार का ज्ञान है ? नहीं , यह भी नहीं। जिस मनःसंयोग के द्वारा इच्छाशक्ति का प्रवाह और विकास वश में लाया जाता है और वह फलदायक होता है , उसे शिक्षा कहते हैं। "]  
🔆🙏दादा कहते थे - नेता को इन तीन बातों की पक्की धारणा रखनी होगी। ->>बुद्धि और विवेक का अंतर क्या है ? धर्म क्या है ?श्रद्धा क्या है?  और मनुष्य जीवन सार्थक कैसे होता है ? जानो और बताओ ! 
[ गीता ३/१०-११ में भगवान स्वयं कहते हैं -परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।।
कोई मनुष्य केवल स्वयं को लेकर, मैं और मेरा को लेकर व्यस्त रहने के लिये धरती पर नहीं आया है। हमलोग सभी के लिये हैं और प्रत्येक व्यक्ति दूसरों का हित करने के लिये है। (परस्परम्  भावयन्तः श्रेयः good? परम् the highest? अवाप्स्यथ shall attain.) प्रजापति ब्रह्मा ने मनुष्यों को समाजबद्ध प्राणी के रूप में सृष्टि करने के बाद कहा था- परस्पर की सहायता एवं मनोभावों के आदान-प्रदान के माध्यम से हम लोग स्वार्थी न बनकर समाजकेन्द्रित, देशकेन्द्रित और विश्वकेन्द्रित होने की शिक्षा प्राप्त करते हैं। पूरे राष्ट्र या विश्व का कल्याण करने के लिये अनेकों चरित्रवान मनुष्यों की सहायता आवश्यक है। बहुत से लोगों के (शरीर-मन-हृदय '3H' ) की शक्ति के एकत्र होने पर महान कार्य सम्पन्न होता है। इस तरह की संघ-शक्ति वैसे पशुओं में भी दिखाई देती है, किन्तु उनकी दलबन्दी केवल आत्मरक्षा के लिये है, परस्पर के हीत के लिए नहीं। ब्रह्मा की व्यवस्था में कोई भौगोलिक सीमा-रेखा नहीं है, इन शब्दों के भीतर हम विश्वमानवता की झंकार सुनते हैं। ]
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>>1 आज हमारे समाज में, संगठन में यहाँ तक कि परिवार में भी जो असहनीय स्थिति पैदा हो गयी है, उसका कारण परस्पर विश्वास की कमी है; जो  हमारी दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली से उत्पन्न हो गयी है। हमलोगों ने जो शिक्षा पाई है, उसी शिक्षा ने इस वर्तमान परिवेश का निर्माण किया है। इसका समाधान स्वामी विवेकानन्द की शिक्षानीति -"Be and Make " है, जो भारत की प्राचीन  गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में आधारित है।  अपना जीवन और चरित्र सुन्दर रूप से  गठन करके हमलोग किस प्रकार अपना और दूसरों का कल्याण करने में सक्षम "मनुष्य " बन सकते हैं। छात्रों को इसी का उपाय बता देना शिक्षा का अभीष्ट है। अर्थात C-IN-C नवनीदा~ C-C दीपक दा  Be and Make परम्परा में प्रशिक्षित और महामण्डल से चपरास प्राप्त "मनुष्य " क्रमशः कैसे बन सकते हैंऔर बना सकते हैं -प्रशिक्षणार्थियों को इसीका उपाय बता देना - स्वामी विवेकानन्द की शिक्षानीति में आधारित महामण्डल के छः दिवसीय -"गुरुगृह वास युवा प्रशिक्षण शिविर" का अभीष्ट है!  अर्थात पशु की अवस्था से, मनुष्य में और मनुष्य से देवमानव- (51 to 100 % निःस्वार्थी-जीवनमुक्त शिक्षक या नेता) के रूप में क्रमशः कैसे विकसित हुआ जाता है -इसीका उपाय बता देना - स्वामी विवेकानन्द की शिक्षानीति में आधारित महामण्डल के छः दिवसीय -"गुरुगृह वास युवा प्रशिक्षण शिविर" का अभीष्ट है !]
>>>5.  अच्छी आदतें अच्छे चरित्र का निर्माण क्यों करेंगी?  Why good habits will form good character? कोई व्यक्ति किसी विशेष परिस्थिति में कैसा व्यवहार करेगा यह उसकी पुसनी आदतों या अन्तर्निहित  प्रवृत्तियों पर निर्भर करता है। [अर्थात अच्छी आदतों का निर्माण करने से अच्छे चरित्र का निर्माण कैसे होगा ? कोई व्यक्ति किसी  परिस्थिति विशेष में किस प्रकार का आचरण करेगा यह उसकी अन्तर्निहित प्रवृत्तियों (inherent tendencies) के  पर निर्भर करेगा।]
(How a person will behave in a particular situation depends on his ingrained habits (inherent tendencies). 3H विकसित करने के 5 अच्छे अभ्यासों से अच्छी आदतें बनेंगी (सर्वमंगल की प्रार्थना, मनःसंयोग, व्यायाम, स्वाध्याय और विवेक-प्रयोग आदि का पुनः-पुनः अभ्यास करने से अच्छी आदत बनेंगी), अच्छी आदतें पुरानी हो जाने से अच्छी प्रवृत्ति, और अच्छी प्रवृत्तियों के कुल समाहार को ही अच्छा चरित्र कहते हैं। विवेकानन्द कहते थे - " हम वो हैं जो हमें हमारी सोच ने बनाया है, इसलिए इस बात का ध्यान रखो कि तुम क्या सोचते हो ? जो तुम सोचते हो, वो बन जाओगे। यदि तुम खुद को कमजोर सोचते हो, तुम कमजोर हो जाओगे, अगर खुद को ताकतवर सोचते हो, तुम ताकतवर हो जाओगे। एक विचार लो। उस विचार को अपना जीवन बना लो, उसके बारे में सोचो उसके सपने देखो, उस विचार को जियो। अपने मस्तिष्क, मांसपेशियों, नसों, शरीर के हर हिस्से को उस विचार में डूब जाने दो और बाकी सभी विचार को किनारे रख दो। यही सफल होने का तरीका है।] 
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[स्वामी विवेकानन्द कहते थे - " मनुष्य जब तक जीता है, तब तक सीखता है, अनुभव ही जगत में सर्वश्रेष्ठ शिक्षक है। "("If" — because you see I cannot be sure of any promise of a Dakshini (southern) Raja. They are not Rajputs. A Rajput would rather die than break his promise.) " However, man learns as he lives, and experience is the greatest teacher in the world." - (Letter dated 11th February 1893. To Shri Alasinga Perumal .From :  SACHCHIDANANDA. Swamiji used to call himself such in those days. C/o Babu Madhusudan Chattopadhyaya Superintending Engineer/ KHARTABAD, HYDERABAD- ] 

युवा आदर्श स्वामी विवेकानन्द, या 22 जनवरी 2024 को उनके इष्ट देव श्री रामलला के अयोध्या राष्ट्र मन्दिर में प्राण-प्रतिष्ठा हो जाने के बाद-  आइये देखते हैं कि 'सीखना' अर्थात शिक्षा/ दीर्घ 'ई ' वाली शिक्षा क्या है ?  -  तैत्तरीय उपनिषद की 'ई' दीर्घ ई वाली शिक्षा क्या है ?  कुछ उच्च जीवन मूल्यों को अपने चारित्रिक गुणों में ढाल लेना ही शिक्षा (शीक्षा) है।  हमारे भीतर जो पूर्णत्व पहले से अन्तर्निहित है, उसे अपने जीवन द्वारा अभिव्यक्त कर लेने का नाम ही है - 'शीक्षा'  अर्थात वह धर्म जिसके मूर्त रूप थे भगवान श्री राम ! इसलिए महर्षि वाल्मीकि (हरिजन/पिछड़ा /दलित /डकैत ?) ने लिखा था  'रामो विग्रहवान् धर्मः' - मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम  धर्म के साक्षात् साकार रूप हैं-   [ब्रह्मत्व, दिव्यत्व, ईश्वरत्व ?] पहले से अन्तर्निहीत है, उसे अभिव्यक्त कर लेने नाम ही है - शिक्षा/धर्म । "  स्वामी विवेकानन्द के अनुसार " Education is the manifestation of the perfection already in man."-अर्थात हमारे भीतर जो पूर्णत्व [ब्रह्मत्व, दिव्यत्व, ईश्वरत्व ?] पहले से अन्तर्निहीत है, उसे अभिव्यक्त कर लेने नाम ही है - शिक्षा/धर्म । " शिक्षा की परिभाषा को अधिक स्पष्ट करते हुए विवेकानन्द आगे कहते हैं -  " शिक्षा उस संयम (आत्मानुशासन) का नाम है , जिसके द्वारा हम इच्छा शक्ति के विकास और प्रवाह को संयमित और एकमुखी (उर्ध्व-मुखी) बनाकर, इस प्रकार अभिव्यक्त कर सकें ताकि वह मनोवांछित परिणाम (प्रयोजनीय अर्थात  विवेक-सम्मत परिणाम ?) देने में समर्थ हो।" शिक्षा का अर्थ है उत्तम चरित्र का अधिकारी मनुष्य बन जाना !" 

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