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Friday, June 4, 2021

*Death and Rebirth*श्री रामकृष्ण दोहावली (4) " मृत्यु तथा पुनर्जन्म " / गीता [ श्लोक ८ / २४ -२५ ] " अंतमति - सोगति" /पुनरावृत्ति के मार्ग को पितृयाण (पितरों का मार्ग) कहते हैं।बद्धजीव मृत्यु के समय में भी संसार की ही बातें करते हैं। यदि जीवन भर ईश्वर-चिन्तन का अभ्यास किया जाय तो 'अन्त समय' * में भी मन में ईश्वर का ही विचार आएगा।

 श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित-श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(4) 

 *मृत्यु  तथा पुनर्जन्म * 

30 जीवन भर जो हरि भजे , करे हरि का ध्यान। 

44 अंत समय सुमिरत सहज , जानहु तेहि महान।।

जो संसार में आसक्त बद्धजीव हैं , वे मृत्यु के समय भी संसार की ही बातें करते हैं। ईश्वर में भक्ति -विश्वास नहीं है , इसीलिये तो जीव को इतना कर्मभोग भोगना पड़ता है। जिससे देह त्यागते समय मन में ईश्वर का चिंतन चले , इसके लिए पहले से ही उपाय करना चाहिए। वह उपाय है अभ्यास योग। यदि जीवन भर ईश्वर-चिन्तन का अभ्यास किया जाय तो 'अन्त समय' * में भी मन में ईश्वर का ही विचार आएगा। 

31 मरन समय जस सोच करे , पावे तस पुनि देह। 

45 भज मनवा नित नाथ को , हो जा मुक्त विदेह।।

         ठीक मृत्यु के क्षण मनुष्य जो कुछ सोचता है , उसी के अनुसार उसका अगला जन्म होता है। इसीलिए साधना की अत्यन्त आवश्यकता है। निरन्तर अभ्यास करते हुए जब मन सब तरह की सांसारिक चिन्ताओं से मुक्त हो जाता है , तो उसमें सब समय केवल ईश्वर का ही चिन्तन होने लगता है ; फिर मृत्यु के समय भी वह नहीं छूटता। 

{भरत मुनि की आसक्ति मृगशावक में थी, अतः उन्हें अगला जन्म मृगशावक का ही मिला। उस जन्म में भी उन्हें विगत जन्म स्मृत था। " अंतमति - सोगति"  अर्थात मृत्यु के समय जिसकी जैसी बुद्धि होती है, जिसकी जैसी भावना होती है, उसी के अनुरूप उसे अगले जन्म की प्राप्ति होती है। परन्तु देहांत के समय ,अपनी इच्छा -अनुसार बात नहीं हो सकती , देव -गति से जो जिसे प्राप्त हो जाये , सो सही। इसीलिए कहा गया है कि मृत्यु काल में परमात्मा का स्मरण करना चाहिए।}  

32 कच्ची हांडी चाक चढ़े , पुनि पुनि बार हिं बार। 

46 तस ज्ञान के रहत नर , जनम मरण बहु बार।।

अगर कच्ची मिट्टी की हाँड़ी फूट जाय तो कुम्हार उस मिट्टी से फिर नई हाँड़ी बना सकता है। किन्तु लाल पकी हुई हाँड़ी फूट जाने पर ऐसा नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार , अज्ञान -अवस्था में मृत्यु होने से मनुष्य को फिर जन्म लेना पड़ता है। किन्तु ज्ञानाग्नि में अच्छी तरह पक जाने के बाद यदि मृत्यु हो तो उसका पुनर्जन्म नहीं होता। 

33 उबले धान उगे नहीं , कर लो जतन हजार। 

47 सिद्ध योगी तस फिरत नहि , तजत देह संसार।।

सिद्ध (भुना हुआ ) धान बोने से अंकुर नहीं निकलता , असिद्ध (बिना भुने ) धान से ही अंकुर आते हैं। इसी प्रकार 'सिद्ध ' होकर मरने से मनुष्य को फिर जन्म नहीं लेना पड़ता। परन्तु यदि ' असिद्ध ' अवस्था में मरे तो उसे बार बार जन्म लेना पड़ता है।   

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{ **अंतमति - सोगति : विद्या का सूत्र यह है – सा विद्या या विमुक्तये, जो मुक्त करे वह विद्या है। शास्त्रों में प्रकाश-मार्ग से ब्रह्म-प्राप्ति ,सायुज्य-मुक्ति बताई गई है तथा धूम्र -मार्ग से पुनर्जन्म प्राप्त होता है।  गीता [ श्लोक ८ / २४ -२५ ] पुनरावृत्ति के मार्ग को पितृयाण (पितरों का मार्ग) कहते हैं। 

हमारे सभी पूर्वज, हमारे वंश/खानदान के सभी मृत व्यक्ति पितरों * कि श्रेणी में आते हैं। ऋग्वेद में भी दिवंगत पूर्वजों के लिए पितर ** शब्द प्रयोग हुआ है। ये आत्माएं मृत्यु के बाद 1 से लेकर 100 वर्ष तक मृत्यु और पुनर्जन्म की मध्य की स्थिति में रहती हैं।  हमारे पूर्वगत तीन पूर्वज -पिता, पितामह, प्रपितामह। पितृलोक के श्रेष्ठ पितरों को न्यायदात्री समिति का सदस्य माना जाता है। धर्मशास्त्रों के अनुसार पितरों का निवास चंद्रमा के उर्ध्वभाग में माना गया है।  इसका अधिष्ठाता देवता है चन्द्रमा जो जड़ पदार्थ जगत् का प्रतीक है। 

जो लोग उपासनारहित पुण्य कर्मों को जिनमें समाज सेवा तथा यज्ञयागादि कर्म सम्मिलित हैं करते हैं वे मरणोपरान्त पितृलोक को प्राप्त होते हैं जिसे प्रचलित भाषा में स्वर्ग कहते हैं। पुण्यकर्मों के फलस्वरूप प्राप्त इस स्वर्गलोक में विषयोपभोग करने पर जब पुण्यकर्म क्षीण हो जाते हैं तब इन स्वर्ग के निवासियों को अपनी अवशिष्ट वासनाओं के अनुसार उचित शरीर को धारण करने के लिए पुनः संसार में आना पड़ता है।  

 श्रीविष्णुपुराण (१-१९-४१) में कहा गया है -

" तत्कर्म यन्न बन्धाय सा विद्या या विमुक्तये। 

आयासायापरं कर्म विद्यऽन्या शिल्पनैपुणम्॥ 

अर्थात  कर्म वह है जो बंधन में न डाले - विद्या वह है जो मुक्त कर दे। अन्य कर्म (स्वार्थपूर्ण कर्म ) केवल श्रम मात्र हैं - और अन्य विद्याएँ केवल यांत्रिक निपुणता हैं।  जो मुक्ति का कारण बनती है वही सच्ची विद्या है । शेष कर्म तो बंधन का ही कारण बन जाते हैं जिनके करने से प्राय चिन्ता और कष्ट ही प्राप्त होते हैं। 

इसीलिए ऋग्वेद में देवी सरस्वती से प्रार्थना की गयी है -- "हे  देवी सरस्वती ! हमें लक्ष्मी दें। हे देवी लक्ष्मी! हमारी विद्या बढ़े। **"  द्वे वाव ब्रह्मणो रूपे मूर्तं चैवामूर्तं च मर्त्यं चामृतं च स्थितं च यच्च सच्च त्यच्च ॥ १ ॥ (बृहदारण्यकोपनिषत् २-३-१) 

अर्थ-  'द्वे वाव  ब्रह्मणः रूपे ' ब्रह्म के दो स्वरूप होते हैं – पंच भूतों के दो ही रूप हैं। ( मूर्तं च अमूर्तं  च) मूर्त- मतलब -स्थूल  और सूक्ष्म।  (मर्त्यं च अमृतम् च) मरने वाला व न मरने वाला (स्थितम् च यत् च) ठहरा हुआ और चलने वाला (सत् च त्यत् च) व्यक्त और अव्यक्त।

 व्याख्या- 'ब्रह्म' शब्द अनेकार्थक है। 'ब्रह्म' शब्द यहाँ पंचभूत समुदाय के लिए प्रयुक्त हुआ है।  पंचभूत समुदाय के दो रूप हैं एक मूर्त , दूसरा अमूर्त -दोनों के विशेषण इस प्रकार हैं- (१) मूर्त -मरने वाला, ठहरा हुआ और व्यक्त अमूर्त -न मरने वाला, चलने वाला और अव्यक्त।

 "हरि ॐ" शब्द रूप दोनों स्वरूपों की स्मृति है "हरि" सगुन रूप विष्णु हैं तो "ॐ" निराकार ब्रह्म हैं।  "ॐ तत्सत्"  शब्द परमात्मा की ओर किया गया एक निर्देश है।  इस शब्द का प्रयोग गीता के हरेक अध्याय के अंत में किया गया है, जैसे  " ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादेऽर्जुनविषादयोगो नाम प्रथमोऽध्याय: ।। 1 ।। इस शब्द का विशेष प्रयोग भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के सत्रहवें अध्याय के २३ वें श्लोक में किया है - ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः। गीता  १७:२३।। 

सृष्टि के आरम्भ से  'ऊँ, तत् सत्' ऐसा यह ब्रह्म का त्रिविध निर्देश (नाम) कहा गया है; उसी से आदिकाल में (पुरा) ब्राहम्ण, वेद और यज्ञ निर्मित हुए हैं।। [ Verily, there are two forms of Brahman: gross and subtle, mortal and immortal, limited and unlimited, definite and indefinite.] इसका भावार्थ है :-  सृष्टि के आरम्भ से ब्रह्म को उच्चारण के रूप में  तीन प्रकार का ...., "ॐ" (परम-ब्रह्म), "तत्‌" (वह), "सत्‌" (शाश्वत) इस प्रकार से निर्दिष्ट किया जाता है।  ॐ तत्सत् द्वारा निर्दिष्ट ब्रह्म से ही समस्त वर्ण, धर्म, वेद और यज्ञ उत्पन्न हुए हैं। अध्यस्त सृष्टि का कारण उसका अधिष्ठान ही होता है।  ' ॐ '  शब्द उस आत्मतत्त्व का प्रतीक है जो अजन्मा, अविनाशी, सर्व उपाधियों के अतीत और शरीरादि उपाधियों का अधिष्ठान है। किसी व्यक्ति को निर्देश (तत् = वह) करने के लिये उसका नाम कहते हैं।  'तत् ' शब्द परब्रह्म का सूचक है। उपनिषदों के प्रसिद्ध महावाक्य 'तत्त्वमसि ' में तत् उस परम सत्य को इंगित करता है,  जो सम्पूर्ण विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और लय का स्थान है। अर्थात् जगत्कारण ब्रह्म तत् शब्द के द्वारा इंगित किया गया है। सत् का अर्थ त्रिकाल अबाधित सत्ता। यह सत्स्वरूप सर्वत्र व्याप्त है। इस प्रकार, ॐ  तत्सत् इन तीन शब्दों के द्वारा विश्वातीत , विश्वकारण और विश्व व्यापक परमात्मा का स्मरण करना ही उसके साथ तादात्म्य करना है। ईश्वर स्मरण से हमारे कर्म शुद्ध हो जाते हैं। इसीलिए ब्राह्मणों द्वारा इन तीनों शब्दों का प्रयोग यज्ञ करते समय  वैदिक मन्त्रों का उच्चारण करके ब्रह्म को संतुष्ट करने के लिये किया जाता है। 

हम सबके कर्म ऊपर से देखने पर एक समान प्रतीत हो सकते हैं,  तथापि एक व्यक्ति को प्राप्त फल दूसरे से भिन्न होता है। ॐ के अर्थ को समझकर कर्म करने का फल , जो नहीं समझता उससे भिन्न होगा। अनात्म उपाधियों से तादात्म्य को त्यागने से ही हम अपने परमात्म स्वरूप में स्थित हो सकते हैं।  जिस मात्रा में हमारे कर्म निस्वार्थ होंगे उसी मात्रा में प्राप्त पुरस्कार भी शुद्ध होगा। अहंकार के नाश के लिए साधक को अपनी आध्यात्मिक प्रतिष्ठा का बोध होना आवश्यक है।  [ अनात्म उपाधियों M/F के नाम-रूप से तादात्म्य को त्यागने से (मिथ्या अहं में आसक्ति त्यागने से)  ही हम अपने व्यष्टि अहं को माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट 'मैं '- बोध में रूपांतरित कर सकते हैं, अर्थात  परमात्म स्वरूप में स्थित रह सकते हैं।

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