श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर
(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली )
(10)
*नेतृत्व का उद्गम और नेतृत्व की अवधारणा *
[The Origin and Concept of Leadership]
98 जो चाहत प्रचार करन , कर तू साक्षात्कार।
168 जब देवहिं चपरास हरि , होवहि खूब प्रचार।।
99 कर साधन पा ज्ञान अरु , पा हरि का चपरास।
168 तब धरहि उपदेश जग , प्रचार अनायास।।
हे प्रचारक (Leader) , क्या तुम्हें बिल्ला (badge of Leadership) मिला है ? राजा का मोहर मारा हुआ बिल्ला जिसको मिलता है , भले ही वह एक सामान्य प्यादा हो - उसका कहना लोग भय और श्रद्धा के साथ सुनते हैं। वह व्यक्ति अपना बिल्ला दिखाकर बड़ा दंगा तक रोक सकता है। हे प्रचारक , तुम पहले भगवान का साक्षात्कार कर उनकी प्रेरणा और आदेश प्राप्त कर लो , बिल्ला पा लो। बिना बिल्ला (badge of 'C-IN-C') मिले यदि तुम सारा जीवन भी प्रचार करते रहो, तो उससे कुछ न होगा, तुम्हारा सारा श्रम व्यर्थ होगा।
" लोकशिक्षा देना बड़ा कठिन है। यदि ईश्वर का साक्षात्कार हो और वे आदेश दें , तो यह संभव हो सकता है। नारद ,शुकदेव आदि को आदेश हुआ था , शंकराचार्य को आदेश हुआ था। आदेश न मिलने से तुम्हारी बात कौन सुनेगा ?
... परन्तु आदेश मिला है यह केवल मन में सोच लेने से नहीं चलता। ईश्वर सचमुच ही दर्शन देते हैं और बातचीत करते हैं ! इसी अवस्था में आदेश प्राप्त हो सकता है। इस प्रकार आदेशप्राप्त व्यक्ति की बातों में कितना जोर होता है ! पर्वत भी टल जाता है। सिर्फ लेक्चर से क्या होगा ? लोग कुछ दिन सुनेंगे , फिर भूल जायेंगे ; उसके अनुसार चलेंगे नहीं।
" उस ओर हालदरपुकुर नाम का एक तालाब है। कुछ लोग उसके किनारे रोज सवेरे दिशा-मैदान किया करते थे। जो लोग सबेरे स्नानादि के लिए आते वे यह देखकर उनके नाम से खूब चिल्लाते , खूब कोसते। पर दूसरे दिन फिर वही हाल। दिशा-मैदान करना बंद नहीं होता था। तब लोगों ने कम्पनी को यह शिकायत भेजी। कम्पनी वालों ने एक चपरासी को भेजा। जब उस चपरासी ने ढोल पीटकर एक कागज चिपका दिया - 'यहाँ शौच करना दण्डनीय अपराध है ' --तब सब बंद हो गया।)
" लोकशिक्षा देना हो तो चपरास चाहिए। नहीं तो वह हास्यास्पद बात हो जाती है। खुद को तो मिली नहीं , दूसरों को देने चला। एक अँधा दूसरे अंधे को राह बताते हुए ले चला है। (हास्य) इससे हित होने के बजाय विपरीत ही होता है। ईश्वरलाभ होने पर अन्तर्दृष्टि प्राप्त होती है। उसी समय किसे कौन सा रोग है , यह समझ में आ जाता है , योग्य उपदेश भी दिया जा सकता है।
" आदेश न मिलने पर 'मैं लोगों को शिक्षा दे रहा हूँ ' -इस प्रकार का अहंकार होता है। अहंकार होता है अज्ञान के कारण , अज्ञान से ऐसा लगता है कि मैं कर्ता हूँ। ईश्वर ही कर्ता हैं , ईश्वर ही सबकुछ कर रहे हैं, मैं कुछ नहीं कर रहा हूँ - यह बोध जिसको हो गया , वह मनुष्य तो जीवन्मुक्त ही हो गया ! 'मैं कर्ता (गुरु /नेता) हूँ ' --इस बोध के कारण ही इतना दुःख , इतनी अशांति (groupism, गुटबंदी) पैदा होती है।
गीता 11 /43 में 'गुरुर्गरीयान्' का तात्पर्य : "सच्चिदानन्द ही सब के गुरु हैं" अर्जुन श्रीकृष्ण के प्रति भावावेश के कारण अवरुद्ध कण्ठ से, अत्यादर के साथ कहता है कि - " पितासि लोकस्य चराचरस्य , त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान्। " कि मनुष्यमात्र को व्यवहार और परमार्थ में जहाँ-कहीं भी गुरुजनों से शिक्षा मिलती है, उन शिक्षा देने वाले गुरुओं के भी महान् गुरु आप ही हैं। अर्थात् शिक्षा, ज्ञान और नेतृत्व का उद्गम-स्थान मात्र आप ही हैं।
[जब आपके समान भी कोई दूसरा नहीं है , तब आपसे भी अधिक वजनदार (weightier- weighty) गुरु कौन है ? श्रीरामकृष्ण वचनामृत प्रसंग : गुरुगिरि और ब्राह्मसमाज। केशवचन्द्र सेन के साथ : 27 अक्टूबर 1882]
106 फूल खिलहि पराग हित , आवे मधुप हजार।
181 तस ज्ञानी के ज्ञान को , बिन न्योते संसार।।
फूल के पूरी तरह खिल जाने पर उसकी सुगन्ध से मधुमक्खियाँ अपने आप खींची चली आती हैं। कहीं मिठाई रखी हो तो वहाँ चीटियाँ आप ही चली आती हैं। इसके लिए उन्हें आमंत्रण नहीं देना पड़ता। इसी प्रकार जब साधक पूर्ण , सिद्ध हो जाता है , तो उसके चरित्र की मधुर सुगन्ध चारों ओर फ़ैल जाती है और सत्यप्राप्ति की स्पृहा रखनेवाले व्यक्ति अपने आप उसकी ओर आकर्षित होते हैं। उसे उपदेश सुनाने के लिए श्रोता की तलाश नहीं करनी पड़ती।
{ जो जिज्ञासु युवा परमसत्य (ईश्वर) को प्राप्त करने की स्पृहा रखते हैं, वे अपने आप "स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त 'Be and Make " शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा - में प्रशिक्षित और महामण्डल के (C-IN-C होने का) चपरास प्राप्त नेता (नवनीदा) की ओर आकर्षित होते हैं ! इसीलिए महामण्डल द्वारा आयोजित वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में प्रशिक्षणार्थियों की तलाश नहीं करनी पड़ती। दोहा नंबर 108 -स्वामीजी भावधारा से मेल नहीं खाती। }
107 बिन आदेश प्रचार में , प्रेरक शक्ति न होय।
182 सुन श्रोता पछतावहि , आप वृथा श्रम खोय।।
कहीं मिठाई के कण भी पड़े हों तो चीटियाँ वहाँ अपने आप आ जुटती हैं। तुम स्वयं मिश्री बनने का प्रयत्न करो, अर्थात भगवद-बोध का माधुर्य प्राप्त करने की चेष्टा करो , फिर तुम्हारे निकट भक्तगण चीटियों की तरह आप ही चले आएंगे।
अगर तुम ईश्वरीय आदेश बिना पाये प्रचार करने लगो तो तुम्हारे प्रचार में प्रेरणा शक्ति नहीं होगी , उसे कोई नहीं सुनेगा। भक्ति , ज्ञान या अन्य किसी भी साधन के द्वारा पहले ईश्वरलाभ कर लेना चाहिये। फिर यदि ईश्वर का आदेश मिले तो चाहे जितना प्रचार किया जा सकता है। इससे ईश्वरीय शक्ति और सामर्थ्य प्राप्त होती है और तभी ठीक -ठीक प्रचार कार्य हो सकता है।
109 कमी पड़त नहीं ज्ञान की, देवहि जब भगवान।
185 ठेलत ज्ञान की राशि है , धान की ढेर समान।।
जब किसी बड़े व्यापारी की आढ़त में अनाज तौला जाता है , तो तौलनेवाला बिना रुके तौलता ही जाता है , और एक व्यक्ति उसके आगे अनाज की ढेरी सतत ढकेलता जाता है , ताकि कहीं कम न पड़े। परन्तु छोटी दुकान का अनाज देखते देखते ही देखते खत्म हो जाता है। इसी प्रकार , अपने भक्तों को भगवान स्वयं सतत स्फूर्ति देते रहते हैं , उसमें नये -नये भाव प्रेरित करते रहते हैं , इसलिए उसके भावों में कभी कमी नहीं पड़ती। किन्तु जो केवल किताबी ज्ञान के भरोसे रहते हैं , उनके भाव छोटी दुकान के रसद के समान देखते ही देखते खत्म हो जाते हैं।
103 जिसने हरि को देख लिया , किया हरि से बात।
177 उपदेशक ठीक ठीक वही , कहहि सटिक सब बात।।
दुनिया में ऐसे बहुत से लोग हैं जिन्होंने बर्फ के बारे में सिर्फ सुना है , बर्फ को आँखों से देखा नहीं है ; इसी प्रकार ऐसे अनेक धर्मप्रचारक हैं जिन्होंने ईशवरीय -तत्व के बारे शास्त्र में पढ़ा भर है , अपने जीवन में अनुभव नहीं किया। फिर ऐसे भी कई लोग हैं , जिन्होंने बर्फ देखी तो है पर चखी नहीं ; इसी प्रकार ऐसे अनेक प्रचारक हैं जिन्हें ईश्वर की महिमा का दूर से थोड़ा सा आभास तो मिला है , परन्तु उनके यथार्थ स्वरुप का बोध नहीं हुआ है। जिसने बर्फ खाई हो वही बर्फ के गुणधर्म ठीक-ठीक बता सकता है ! इसी तरह जिसने शान्त , दास्य , सख्य, मधुर आदि विभिन्न सम्बन्धों के द्वारा ईश्वर के विभिन्न भावों को प्राप्त किया है , जो उनमें विलीन होकर एक हो गया है, वही उनके गुणों का यथार्थ रूप से वर्णन कर सकता है।
* यथार्थ नेता (Leader या आचार्य) कौन है *
102 उपदेशक तेहि जानिए , जिन्हको हुआ ज्ञान।
176 जिन्हको हरि दरसन हुआ , दूर सकल अज्ञान।।
ठीक-ठीक आचार्य वही है जिसे सम्यक ज्ञान का आलोक ~ (गुरु एक मात्र सच्चिदानन्द हैं!) मिला है।
104 भरी गगरिया चुप रहे , खाली करे आवाज।
179 अज्ञानी तस वाद करे , ज्ञानी रहे निर्वाक।।
घड़ा अगर पानी से भरा हो तो आवाज नहीं करता। ब्रह्मज्ञान हो जाने पर मनुष्य चुप हो जाता है , ज्यादा नहीं बोलता। यदि कहो कि नारदादि का तो ऐसा नहीं था ; तो कहा जा सकता है कि हाँ , नारद , शुकदेव आदि ने समाधि के पश्चात जीव के प्रति प्रेम और करुणा से प्रेरित हो उस भूमि से कुछ सीढियाँ नीचे उतर आकर लोकशिक्षा दी थी।
105 एक साधत है मौन सदा , पावत ब्रह्मानन्द।
180 दूजा लुटाये और को अमृतमय आनंद।।
सिद्ध पुरुष दो श्रेणियों के होते हैं। एक प्रकार के सिद्ध ज्ञानलाभ करने के बाद चुप हो जाते हैं और दूसरे की चिंता न कर स्वयं ही आनन्द का उपभोग करते हैं , और दूसरे ऐसे होते हैं जिन्हें ज्ञानप्राप्ति का आनंद अकेले ही लूटने में मजा नहीं आता , वे सबको जोर से पुकारते हुए कहते हैं , " आओ , आओ , मेरे साथ तुम भी आनन्द लूटो ! "
100 भगवद पद हिय प्रेम नहीं , नहीं विवेक विराग।
169 पोथी पढ़ भाषण करे , पावे जग उपहास।।
कोई भी व्यक्ति भगवत्प्रेम की गहराई में डूबना नहीं चाहता -कोई इतना धीरज नहीं रखता। विवेक-वैराग्य की साधना की किसी को परवाह तक नहीं है। दो -चार किताबें पढ़ते ही सभी भाषण देने और प्रचार करने में भिड़ जाते हैं। कितना आश्चर्य है ! लोकशिक्षा देना कितना कठिन काम है ! जिसने ईश्वर का साक्षात्कार कर उनसे आदेश पाया है , वही लोकशिक्षा दे सकता है।
101 जस मन्दिर में देव नहीं , शंख फूके हजार।
173 तस होय विवेक-विराग नहीं , उपदेशहि संसार।।
पहले हृदयमन्दिर में भगवान को प्रतिष्ठित कर लो, उनके दर्शन कर लो ; बाद में इच्छा हो तो लेक्चर देना। संसार (कामिनी -कांचन) में आसक्ति के रहते और विवेक-वैराग्य के न रहते सिर्फ 'ब्रह्म ब्रह्म ' कहने से क्या होने वाला है ? मंदिर में देवता तो हैं नहीं , व्यर्थ शंख फूँकने से क्या होगा ?
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