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शनिवार, 13 फ़रवरी 2021

$$$ SANATANA DHARMA - (5) - ” एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म " (The One Existence.) (CHAPTER- I 'हिन्दू धर्म के मूलतत्व "

अध्याय -१ 

अद्वैतवाद या एकेश्वरवाद 

(Monotheism)

  वहाँ [THERE is- देश,काल और निमित्त से परे उस इन्द्रियातीत या तुरीय अवस्था में ] एक शाश्वत,अनन्त, चैतन्य या अपरिवर्तनशील अस्तित्व (Changeless Existence), अविभाज्य या पूर्ण (the All) है; जिससे सब कुछ निर्गत होता है , और फिर वह सब (That all या 'पूर्ण') उसी में लौट जाता है।  छान्दोग्य उपनिषद में कहा है - ” एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म "  { छान्दोग्य 6 / 2 / 1 } - "One only, without a second."* जो 'अद्वैत ' है, अर्थात  अपने जैसा केवल एक और अकेला या अनूठा या अनुपम [*अवतारवरिष्ठ श्रीरामकृष्ण देव] है , तथा उस (पूर्ण -the All) में ही वह सब समाहित है , जो कभी (पूर्वकाल में) अस्तित्व में था, इस समय जिसका अस्तित्व है , और जो कुछ भविष्य में हो सकता है ! 

 [ THERE is one Infinite Eternal, Changeless Existence, the All.  From That all comes forth ; to That all returns. "One only, without a second."* That includes within Itself all that ever has been, is, and can be. आचार्य शङ्कर कहते हैं  – 'ॐ 'ब्रह्म एक सत् चिद् निर्मल तथा परमार्थ है । जैसे मिथ्या ज्ञान से सीप रजतरूप में भासती है , वैसे ही सत् , चिद् आनन्द स्वरूप ब्रह्म में  मिथ्या अनादि अज्ञान (माया ) से इस दृश्यमान प्रपञ्चरूप से भासित होता है । जब इसे ” तत्त्वमसि ” , ” अहं ब्रह्मास्मि ” आदि उपनिषद् वाक्यों द्वारा जीवब्रह्मैक्यज्ञान उत्पन्न होता है तब अनादि कारण मिथ्याज्ञान सहित यह समस्त प्रपञ्च निवृत्त हो जाता है।  और यह अपने असली चिन्मय स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जन्म – मरण से रहित होकर मुक्त हो जाता है । यही हमारा सिद्धान्त है । इसमें उपनिषद् प्रमाण है । मैं फिर अपने इस कथन को दुहराता हूँ ” जीवब्रह्मैक्य ” { जीव ब्रह्म एक है } मेरा विषय है । उसमें उपनिषद् वाक्य * प्रमाण हैं ।  * ” एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म { छान्दोग्य 6 / 2 / 1 }, ” सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म ” { तैतरेय 2 / 1 / 1 },” सर्वँ खल्विदं ब्रह्म ” { छान्दोग्य 3 / 14 / 1 },  ”विज्ञानमानन्दं ब्रह्म ” { बृहदारण्यक 3 / 9 / 28 },  ” ब्रह्मविद्ब्रह्मैव भवति ”,  ” ब्रह्मविदाप्नोति परम् “ आदि महावाक्य ही प्रमाण हैं ! "ॐ " ब्रह्म (अवतारवरिष्ठ श्रीरामकृष्ण देव ) ही एक मात्र सत्ता है। उसके अतिरिक्त कोई अन्य दूसरी सत्ता नहीं है। सत्  तथा असत् इसी के रूप हैं। यह सत् और असत् दोनों से परे (स्वामी विवेकानन्द ) भी है। इसके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है। तीनों काल में जो कुछ है और तीनों काल से परे जो कुछ है वह वास्तव में एकमात्र वही ब्रह्म है। ब्रह्माण्ड में जो कुछ है लघु या विशाल, उदात्त अथवा हेय वह केवल ब्रह्म है, केवल ब्रह्म । विश्व भी ब्रह्म है । यह सत्य है, मिथ्या नहीं। श्री अरविन्दोपनिषद् : श्लोक १ : 'ॐ ' एकम् एव अद्वितीयं ब्रह्म। तत् सत्-असत्-रूपं सत्-असत्-अतीतं। तद् बिहाय अन्यत् किञ्चित् न अस्ति। त्रिकाल-घृतं त्रिकाल-अतीतं वा सर्वं तु खलु एकं ब्रह्म। जगत्यां यत् किञ्च अणु वा महत् वा उदारं वा अनुदारं वा तत् ब्रह्म एव ब्रह्म एव। जगत् अपि ब्रह्म तत् सत्यं न मिथ्या॥ एकमेवाद्वितीयं = ला इलाह इल्लल्लाह : अर्थात ईश्वर एक ही है और अद्वितीय है : उपनिषद् और कुरआन एक साथ कह रहे हैं। ब्रह्म या अल्ला के सन्दर्भ में श्रुति के "एकमेव" कथन से अभिप्राय है कि ब्रह्म "एक" ही है | एकम् + एव + अद्वितीयम् ' में जो "एव" कार का प्रयोग हुआ है वह  पूर्ण विश्वास का प्रतीक है जो उन समस्त शंकाओं को निरस्त कर देता है जो ब्रह्म के एक होने पर उठती हैं | इसके पश्चात् "अद्वितीय" पद इस एकत्व के सापेक्षत्व का भी निरसन कर देता है | निरपेक्ष में ही अद्वितीयता संगत है |यह तत्‍व मान लेने से भी, कि परब्रह्म ‘एकमेवाद्वितीयं’ है, यह सिद्ध नहीं होता कि उसके ज्ञान होने का उपाय एक से अधिक न रहे। एक ही अटारी पर चढ़ने के लिये दो ज़ीने, या एक ही गांव को जाने के लिये जिस प्रकार दो मार्ग या अनेक मार्ग भी हो सकते हैं; उसी प्रकार मोक्ष-प्राप्ति के उपायों की या निष्‍ठा की बात है।  ] 

    " उस (पूर्ण -the All) में ही वह सब समाहित है , जो कभी (पूर्वकाल में) अस्तित्व में था, इस समय जिसका अस्तित्व है , और जो कुछ भविष्य में हो सकता है ! जिस प्रकार समुद्र में कोई लहर उठती है , उसी प्रकार उस पूर्ण (एक ) या (the All) में भी जगत (अनेक ) का उदय होता है। फिर जिस प्रकार लहरें समुद्र में ही डूब जाती हैं , वैसे ही यह जगत ब्रह्माण्ड भी उसी पूर्ण में - 'the All ' में डूब जाता है। जिस प्रकार सागर जल है , उसी प्रकार छोटी-बड़ी लहरें भी उस जल की ही अभिव्यक्तियाँ हैं ! उसी प्रकार अपरिवर्तनशील अस्तित्व (जल ) एक है , और जगत उसी असतित्व का रूप या अभिव्यक्ति है। " {छान्दोग्य ६ /२ /१ } 

    सर्वं खल्विदं ब्रह्मम् -( छान्दोग्य उपनिषद ३/१४/१- सामवेद ) " All this verily (is) Brahman** .This is the primary truth of Religion." "सर्वत्र ब्रह्म ही है"  -यह धर्म का प्राथमिक सत्य है। {Brahman** "This"  is the technical name for a universe. अर्थात यह नाम "ब्रह्म " भी सृष्टि (universe या ब्रह्मांड , यह समस्त दृष्टिगोचर जगत )  के लिए एक तकनीकी  नाम है।]  मनुष्य उस एकं सत या पूर्ण 'the All' (ब्रह्म ) को ही कई अलग अलग नामों से पुकारता है। सनातन धर्म में उस पूर्ण का जिससे सबकुछ निर्गत होता है का नाम (The name, जो गुरु से प्राप्त होता है ) ब्रह्म है। अंग्रेजी बोलने वाले लोग ब्रह्म के लिए भी  'ईश्वर '  नाम का उपयोग करते हैं, तथा अर्थ को स्पष्ट करने के लिए, कहते हैं -"ईश्वर, अपने स्वभाव में"--" God, in His own Nature."। 

       हिन्दू लोग कभी-कभी उस पूर्ण (the All) को या ब्रह्म (या आत्मा जिससे सबकुछ निर्गत हुआ है) को निर्गुण ब्रह्म , बिना कोई उपाधि (attributes या विशेषता ) वाला , या निरुपाधिक ब्रह्म (unconditioned Brahman) कहते हैं। इस 'निर्गुण ब्रम्ह ' शब्द का प्रयोग ब्रह्म के अव्यक्त अवस्था को इंगित करने में किया जाता है। जिस समय "पूर्ण " (the All) व्यक्त अवस्था (manifested state) में रहते हैं , उस सोपाधिक अवस्था को इंगित करने के लिए 'सगुण ब्रह्म ' (the Brahman with attributes or the conditioned Brahman) शब्द का प्रयोग; ( Supreme Ishvara with His universe) -उनके ब्रह्माण्ड के साथ परमेश्वर (या परमेश्वरि -काली माँ) के लिए भी किया जाता है।

       बृहदारण्यक उपनिषद् में "the two states of Brahman " ** कहा गया है- " द्वे वाव ब्रह्मणो रूपे मूर्तं चैव अमूर्तं च ।" (बृहदारण्यको - पनिषत् २-३-१) { वस्तुतः ब्रह्मका स्वरूपभूत, उसकी शक्ति, स्वरूप की विचित्रता, शक्तियों की विचित्रता और शक्तियों के प्रकाश की विचित्रता - सभी कुछ ब्रह्मका स्वरूपतः ही अनादि है। वह ब्रह्म स्वरूपतः ही अनादिकाल से विविधस्वरूपसम्पन्न, विविधशक्तिसम्पन्न, विविधशक्ति-प्रकाश-प्रक्रिया-सम्पन्न है। नित्य एक होते हुए ही वह नित्य पृथक सत्ता है- इसी से ब्रह्म तथा ब्रह्म के विष्णु, नारायण, राम, कृष्ण, शिव, दुर्गा, काली माँ आदि सभी स्वरूप माया की उपाधि से प्रतीत होने वाले-छलमात्र नहीं हैं, बल्कि अनादि सत्य तथा नित्य हैं। एक होते हुए ही अनादिकाल से ही ये विविध रूपोंमें अभिव्यक्त हैं- ‘एकोअपि सन् बहुधा यो विभाति।’ *}

          बिना अनुभव हुए (SQ-IQ-EQ के अन्तर को समझे बिना ) इस विषय को केवल तर्क-बुद्धि से समझ लेना बहुत कठिन है (the subject is very difficult)| अतः किसी नौसिखिए (beginner -आरम्भक) लड़के के लिए , अभी केवल इतना समझ लेना पर्याप्त होगा कि "the Saguna Brahman is Brahman revealed not "a second,"-- सगुण ब्रह्म (माँ काली भवतारिणी ) भी केवल प्रकाशित ब्रह्म हैं - "उनसे भिन्न नहीं हैं - " not a second" ब्रह्म और शक्ति अभिन्न हैं ! माँ काली भी ठाकुर ही हैं ! श्री श्री माँ सारदा देवी भी 'existence -consciousness-bliss' सच्चिदानन्द का ही प्रकट (revealed या प्रकाशित) रूप हैं , ठाकुर की शक्ति हैं और उनसे अभिन्न हैं !  He is the self-existent One, the Root and Cause of all beings. "वह"  ही  सभी प्राणियों का आत्म-अस्तित्व, मूल और कारण है  

     उस पूर्ण या ब्रह्म को ही कभी -कभी पुरुषोत्तम (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण देव ), परमात्मा (the Supreme Spirit) या आत्मा भी कहा जाता है। आत्मा के रूप में वही पूर्ण (the All-भगवान ) के दूसरे पक्ष (भक्त-राधाशक्ति ) को प्रकाशित करता है , जिसे मूलप्रकृति (the Root of Matter.-आद्या शक्ति), पदार्थ (Matter-जड़ ) की कारण (Root या मूलरूप या बुनियाद, काली माँ ) के नाम से पुकारा जाता है। प्रकृति या जड़वस्तु (Matter-पदार्थ) उसे कहते हैं जो रूप धारण कर लेता है , इसलिए वह हर प्रकार के शरीरों को विभिन्न प्रकार की आकृति में ढल सकता है। अतः हमलोग जिस किसी वस्तु को स्पर्श कर सकते हैं , स्वाद ले सकते हैं , गंध सूँघ सकते या  देख और सुन सकते हैं, वे सब पदार्थ (Matter) हैं। इसके अलावा अन्य बहुत कुछ ऐसे पदार्थ हैं , जिसका अनुभव करने के लिये हमारी पांचों इन्द्रियाँ अभी तक पर्याप्त रूप से विकसित नहीं हो सकी हैं। " (बृहदारण्यक उपनिषद -2/3/1) 

        रसायनशास्त्री जिसको ठोस, तरल और गैस कहते हैं , वे सभी पदार्थ की ही तीन अवस्थायें हैं। हम अपने चारों ओर - पत्थर, पहाड़ , पेंड़ , जानवर , मनुष्य जो कुछ भी देखते हैं; वे सब पदार्थ (Matter) से ही बने हुए हैं। लेकिन जितने भी नाम-रूप दिखाई देते हैं , वे शत-प्रतिशत जड़-पदार्थ ( 100 %Matter ) नहीं हैं,  अश्रव्य (inaudible-शब्दरहित), अलक्ष्य (invisible-अलख, अदृश्य), गंधरहित, स्वादरहित (किन्तु रसो वै सः ?), अमूर्त (intangible), ईश्वर (पूर्ण) का एक ' अंश ' (a portion of the All)  - "आत्मा" ( the Spirit ) इनमें से प्रत्येक में विद्यमान है ! हमलोग पदार्थ के स्थूल भाग को " शरीरं " (body -Hand) या "कोषः" (sheath-म्यान ,अन्नमयकोष), या एक "उपाधि" (vehicle या वाहन) - है जो अवतीर्ण (embodies) होता है , या यह शरीर (स्थूल और सूक्ष्म दोनों-2H) ही है जो आत्मा (Heart 3rd H) को धारण कर (लक्ष्य तक-परमात्मा ,ब्रह्म) वहन करता है।  

    इस प्रकार अदृश्य -अश्रव्य ईश्वर (आत्मा-अस्ति ,भाति और प्रिय ) प्रत्येक नाम-रूप के भीतर ही हैं ; और यह ईश्वर (आत्मा) की शक्ति है जो प्रत्येक जड़-शरीरों में जीवन प्रदान करती है। यह अजर-अमर-अविनाशी आत्मा ही 'अन्तरस्थ अधिष्ठाता' (Inner Ruler)है, जो प्रत्येक शरीर (या कोष ) में निवास करती है , और ऐसी कोई वस्तु नहीं जो आत्मा से रहित होकर भी जीवित रह सकती हो। किसी भी जड़-शरीर में पूर्ण (The All ) का यह 'अंश:' (Amshah) ही जीवात्मा (a separated Self) , या जीव कहलाता है। 

         " Spirit and Matter " [Pair of antonyms=विपरीतार्थक शब्दों का प्रथम जोड़ा है ] : ऊर्जा (Energy ,शक्ति या 'Spirit' ) और पदार्थ (Matter- *Spelt also कोषः) जिसको संस्कृत में  " कोषः " या म्यान भी कहा जाता है , के बीच कुछ अत्यन्त महत्वपूर्ण भिन्नता (differences -असमनता) है ! पहले हमने सुना था कि " the senses, when completely developed, can perceive Matter " ---जब हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ (मस्तिष्क में स्थित स्नायुकेन्द्र ) पूर्ण रूप से विकसित हो जाती हैं , केवल तभी हमलोग पदार्थों ( Matter या सूक्ष्म-कोषः - मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार आदि ) का अनुभव कर सकते हैं। हम जानते हैं कि आत्मा की शक्ति (Spirit or Energy-ऊर्जा ) निराकार (formless) है, और यह आत्मा प्रत्येक व्यक्ति में तथा सबकुछ में एक और अद्वितीय है ! तथापि पदार्थ या म्यान (कोषः Matter) विभिन्न आकार (form) ग्रहण कर लेता है। हमारी अन्तर्निहित शक्ति (ऊर्जा -Energy) ही आत्मा (divinity-देवत्व) है , जो जीवन (life) है !'It is the Spirit that is life, and that thinks, and feels, and observes, that is the " I " in each of us.' ----अर्थात हममें से प्रत्येक के भीतर एक ' मैं ' बोध (the " I " व्यष्टि अहं ) है  जो सोचती है, अनुभव करती है और समीक्षा (observes) करती है ; वह परिस्थितियों के दबाव को हटाकर (समष्टि अहं) या  माँ जगदम्बा के सर्वव्यापी विराट ' मैं '- बोध में व्यक्त होना या रूपांतरित होना चाह रही है ![स्वामीजी कहते हैं परिस्थितियों के दबाव को हटाकर व्यक्त हो जाना ही जीवन है। ] 

       किन्तु जड़-पिण्ड (Matter- जड़ बनस्पति की अवस्था को प्राप्त मनुष्य) न तो सोच सकते हैं , न  अनुभव करते हैं , और न कोई समीक्षा (observes-आत्मसमीक्षा या विवेक-प्रयोग ) ही कर सकते हैं। क्योंकि आत्मज्ञान के बिना (without self-consciousness)  ये " जड़ं " (Jadam) की अवस्था को प्राप्त हो चुके हैं ! {अष्टावक्र गीता में कहा गया है --"मुक्ताभिमानी मुक्तो हि बद्धो बद्धाभिमान्यपि। किवदन्तीह सत्येयं या मतिः सा गतिर्भवेत्॥१-११॥" अहं मुक्त ही मुक्त है,  बद्ध  सोच  बंध  जाय। यही  कहावत  सत्य है, मति जैसी  गति पाय ॥1-11॥} 'And it has also the tendency to be constantly dividing itself into many forms and to become many.' और हम जानते हैं कि " जड़ं " (Jadam-जड़बुद्धि ) में ही 'to become many' अनेक बन जाने की प्रवृत्ति रहती है ,इसलिए वे स्वयं को लगातार कई अलग-अलग रूपों (पशु -मनुष्य -देवता )में  विभाजित करते रहते हैं। अतः हम कह सकते हैं कि आत्मा और पदार्थ (Spirit and Matter, ऊर्जा और पदार्थ ) एक दूसरे के विपरीत गुण-धर्म वाले होते हैं। 'Spirit is called the knower, the one that knows' --- आत्मा को " ज्ञाता " ( the knower),--- " जो जानता है " कहा जाता है (परमात्मा का ज्ञान आत्मा को होता है ,अहं को नहीं ); while Matter is called the object of knowledge, that which is known. जबकि पदार्थ (Matter या अहं) को ज्ञान की वस्तु - 'object of knowledge'-- "ज्ञेय" कहा जाता है - 'that which is known' जो जो कि ज्ञात या ( जो कि ज्ञातविदित known) हो गया है ! लेकिन (- बृहदारण्यकोपनिषत् २-४-१४)  " ” ” ब्रह्मवेत्ता ब्रह्म ही होता है ”  (मुण्डक॰ ३ । २ । ९) ( ईशावास्योप -७ ) एकत्व देखनेवाले को मोह कहाँ और शोक कहाँ? " विज्ञातारमरे केन विजानीयात् ?ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति ” तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः ”

         अतः मेरा अनुरोध होगा कि सभी विद्यार्थियों को "आत्मा और पदार्थ" ( Spirit and Matter ) की भिन्नता (असमानता, differences) को समझने की चेष्टा करनी चाहिये।आत्मा (अस्ति -भाति -प्रिय) और पदार्थ ( Matter= नाम-रूप) को लेकर भ्रमित नहीं होना चाहिये , अर्थात एक को दूसरा नहीं समझना चाहिये। आत्मा और पदार्थ (ऊर्जा और पदार्थ) वैसे (Spirit  = "विपरीतार्थक शब्दों का प्रथम जोड़ा"The First ) है,जिसके कारण ही इस विश्व-ब्रह्माण्ड का निर्माण हुआ है। pair of opposites

            जिस प्रकार आत्मा   में तीन विशिष्ट गुण (quality या विशिष्ट लक्षण) हैं----Spirit' (सत चित आनन्दम'Sat Chit Anandam, या Existence -Consciousness-Bliss ) उसी प्रकार पदार्थ (Matter) में भी तीन गुण हैं -- (Tamah, Rajah, Sattvam) [तमः , रजः , सत्वं तमः (रजः (mobility=चंचलता ,गतिशीलता , परिवर्तनीयता ), सत्वं (Inertia =जड़त्व , आलस्य, निष्क्रियता), Rhythm=लय-ताल, आवर्तन) या अपने अनुशासन पर चलना।]

         तुम कह सकते हो कि -" कोई पत्थर इसलिए जड़ है , क्योंकि वह स्वयं चल नहीं सकता है।" लेकिन विज्ञान हमें यह बतलाता है कि उस पत्थर का प्रत्येक अणु -परमाणु जिसे हम खुली आँखों से देख भी नहीं सकते , बहुत तेजी से निरंतर  कम्पायमान () हैं और नियमित रूप से एक-दूसरे का चक्कर काट रहे हैं ! vibrating-शाश्वत स्पंदनशीलजड़ता ((Inertia ) पदार्थ को प्रतिरोधक क्षमता और स्थिरता (resistance and stability ) देती है;चंचलता mobility) पदार्थ (शरीर और मन) को सक्रिय या गतिशील रखती हैं। (सत्वं Rhythm) उनकी गति (movements या चलन ) को नियमित बनाता है। 

    वह वैष्णवी -शक्ति (the Divine Power of IshvaraEnergy , शक्तिः या ऊर्जा)  जो पदार्थ (Matter) को आकार (नाम-रूप ) धारण करने पर बाध्य कर देती है , उसको 'माया' अथवा कभी -कभी दैवी-प्रकृतिः (Daivi-prakrtih), भी  कहा जाता है। भगवान श्रीकृष्ण (गीता ७/१४ में) माया * दैवी प्रकृति  को - 'मेरी दिव्य प्रकृति ' (My Divine Prakrti) कहते हैं - " मेरी अन्य उच्चतर प्रकृति -जीवनतत्व,(life-element, प्राण-शक्ति) जिसके द्वारा विश्व-ब्रह्माण्ड कायम है -

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
     मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।7.14।।

(पदच्छेदः - दैवी हि एषा गुणमयी मम माया दुरत्यया माम् एव ये प्रपद्यन्ते मायाम् एतां तरन्ति ते ॥ )

--अर्थात सत्त्व, रज और तम-- इन तीन गुणों वाली यह दैवी त्रिगुणमयी मेरी माया बड़ी ही दुस्तर है। (भोग और संग्रह की इच्छा में घोर आसक्त रहने वाले मनुष्य इस माया से सम्बन्ध-विच्छेद नहीं कर सकते।  अहंकार से युक्त आत्मकेन्द्रित पुरुष के लिए मेरी माया से उत्पन्न मोह को पार कर पाना दुस्तर है।  परन्तु जो मेरी शरण में आते हैं, वे इस माया को पार कर जाते हैं।।  

 { Top Secret : अहंकार से युक्त आत्मकेन्द्रित पुरुष/स्त्री  के लिए किसी स्वामी विवेकानन्द जैसे गुरु/नेता /जीवन्मुक्त शिक्षक (C-IN-C नवनीदा) से मनःसंयोग का प्रशिक्षण प्राप्त किये बिना , ठाकुर देव की माया से उत्पन्न मोह -- Hypnotized अवस्था से, अर्थात " भेंड़त्व के भ्रम " से बाहर निकल पाना दुस्तर है। परन्तु जो मेरी शरण [अर्थात वर्तमान युग के अवतारवरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्ण की शरण ] आते हैं , वे इस माया को पार कर जाते हैं। मेरी शरण से तात्पर्य भगवान् (ठाकुर-देव) के स्वरूप को पहचान कर, पांच आदमी को साथ लेकर "Be and Make वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा " में उनका अनुसरण करना -- तत्स्वरूप बन जाना}   

      छात्र लोग यहाँ  " ईश्वर तथा मूलप्रकृति " का स्मरण उस प्रकार कर सकते हैं, मानो विपरीतार्थक शब्दों की यह महान जोड़ी (great pair of opposites) एक दूसरे आमने -सामने खड़ी हों ; और ईश्वर की दिव्य शक्ति (Witness consciousness) मुलप्रकृति (Reflected consciousness) पर चमक रही हो या 'प्रतिबिंबित' हो रही हो ! तथा उसके तीनों गुणों - ' गुणाः act on each other, so that many forms begin to appear.' को एक दूसरे पर कार्य करने को प्रेरित कर रही हों , ताकि अनेक आकृतियों का (नाम- रूप का) दीखना प्रारम्भ हो जाये। 'This Divine power is Maya, and so Ishvara is called the Lord of Maya .' ईश्वर की यही दिव्य शक्ति (This Divine power--- तीन गुण और दो शक्ति-आवरण और विक्षेप ) माया कहलाती है , और ईश्वर को मायापति ( Lord of Maya) कहा जाता है ! 

          'Even young students must try to remember these names, and what they mean' ----यहाँ तक कि जो छात्र अभी बिल्कुल प्रारंभिक अवस्था में हों उनको भी, इन वैदिक संस्कृत शब्दों के नाम तथा उसके अर्थ को समझने और याद कर लेने की चेष्टा करनी चाहिए। क्योंकि इन तकनीकी संस्कृत शब्दों के मर्म को समझे बिना वे  (भगवद गीता) के उस शिक्षण-परम्परा  [श्रीकृष्ण -अर्जुन वेदांत शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा]  को नहीं समझ सकते हैं, जिसे हर हिंदू लड़के को समझने की कोशिश करनी चाहिए। ऐसा कहना ज्यादा सही होगा कि हमलोग मूल-प्रकृति (Mulaprakrti) शब्द का प्रयोग करने के बजाय अक्सर केवल " प्रकृति " (Prakrti) शब्द का ही प्रयोग करते हैं ; इसके पहले जो उपसर्ग (prefix-उपाधि ) 'मूल' (Root -कारण, जड़ ) लगा हुआ है, उसका प्रयोग आमतौर से छूट जाता है। इसके महत्व को समझाने के लिए भगवान गीता ५/४ में कहते हैं - 

भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च।

अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।।7.4।।

 पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश -- ये पञ्चमहाभूत और मन, बुद्धि तथा अहंकार -- यह आठ प्रकार के भेदोंवाली मेरी 'अपरा' प्रकृति है। हे महाबाहो ! इस अपरा प्रकृति से भिन्न जीवरूप बनी हुई मेरी 'परा' प्रकृति को जान, जिसके द्वारा यह जगत् धारण किया जाता है। आकाश वायु अग्नि जल और पृथ्वी वे पंचमहाभूत तथा मन बुद्धि और अहंकार यह है अष्टधा प्रकृति जो परम सत्य के अज्ञान के कारण उस पर अध्यस्त (कल्पित) है। 

     वैदिक काल के महान् मनीषियों ने जगत् की उत्पत्ति पर सूक्ष्म विचार करके यह बताया है कि यह दृश्यमान जगत् जड़ पदार्थ (प्रकृति) और चेतनतत्त्व (पुरुष) के संयोग से उत्पन्न होता है। उनके अनुसार पुरुष की अध्यक्षता में जड़ प्रकृति से बनी शरीरादि उपाधियाँ चैतन्ययुक्त होकर समस्त व्यवहार करने में सक्षम होती हैं। वह सनातन पूर्ण पुरुष (ठाकुर देव ) ही प्रकृति की जड़ उपाधियों के संयोग से इस नानाविध सृष्टि के रूप में व्यक्त हुआ है। यदि एक बार मनुष्य प्रकृति और पुरुष , जड़ और चेतन का भेद स्पष्ट रूप से समझ ले तो वह यह भी सरलता से समझ सकेगा कि जड़ उपाधियों के साथ आत्मा का तादात्म्य ही उसके सब दुखों का कारण है।  इस मिथ्या तादात्म्य की निवृत्ति होने पर वह स्वयं अपने स्वरूप को पहचान सकता है जो पूर्ण आनन्द-स्वरूप है। 

 ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वाऽमृतमश्नुते। 

अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते।।13.13।। 

"I will declare that which ought to be known, THAT  which being known is immortality  is enjoyed the beginningless supreme Brahman, called neither Being nor Not-Being.

जो ज्ञेय है, उस-(परमात्म-तत्त्व) को मैं अच्छी तरह से कहूँगा, " जिसको" जानकर मनुष्य अमरता का अनुभव कर लेता है। वह (ज्ञेय-तत्त्व) अनादि और परम ब्रह्म है। उसको न सत् कहा जा सकता है और न असत् ही कहा जा सकता है

सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्।

सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति।।13.14।।

"Everywhere That has hands and feet, every-where eyes, heads and mouths ; all hearing, He dwelleth in the world, enveloping all.

 " वे (परमात्मा) सब जगह हाथों और पैरोंवाले, सब जगह नेत्रों, सिरों और मुखों वाले तथा सब जगह कानों वाले हैं। वे संसार में सबको व्याप्त करके स्थित हैं।

सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम्।
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च।।13.15।
" Shining with all sense-faculties, without any sense ; unattached, supporting everything ; and free from qualities, enjoying qualities.

वे (परमात्मा) सम्पूर्ण इन्द्रियों से रहित हैं और सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयों को प्रकाशित करने वाले हैं; आसक्तिरहित हैं और सम्पूर्ण संसार का भरण-पोषण करने वाले हैं; तथा गुणों से रहित हैं और सम्पूर्ण गुणों के भोक्ता हैं।
बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत्।।13.16।।
"Without and within all beings, immovable and also movable ; by a reason of his subtlety indistinguisable at hand far away is THAT.
" वे परमात्मा सम्पूर्ण प्राणियों के बाहर-भीतर परिपूर्ण हैं और चर-अचर प्राणियों के रूपमें भी वे ही हैं एवं दूर-से-दूर तथा नजदीक-से-नजदीक भी वे ही हैं। वे अत्यन्त सूक्ष्म होने से जानने का विषय नहीं हैं।
अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम्।
भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च।।13.17।।
" Not divided amid beings and yet seated distributively. That is to be known as to be supporter of beings ; He devours and He generates
" और वह अविभक्त है, तथापि वह भूतों में विभक्त के समान स्थित है। वह ज्ञेय ब्रह्म भूतमात्र का भर्ता, संहारकर्ता और उत्पत्ति कर्ता है।।
ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम्।।13.18।।
That, the Light of all lights, is said to be beyond darkness ; wisdom, the object of wisdom, by wisdom to be reached, seated in the hearts of all. "
 वह ब्रह्म- (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण देव ) ज्योतियों की भी ज्योति और (अज्ञान) अन्धकार से परे कहा जाता है। वह ज्ञान (चैतन्यस्वरूप) ज्ञेय और ज्ञान के द्वारा जानने योग्य (ज्ञानगम्य) है। वह सभी के हृदय में स्थित है।।

" आसीदिदं तमोभूतं अप्रज्ञातं अलक्षणम् ।
 अप्रतर्क्यं अविज्ञेयं प्रसुप्तं इव सर्वतः | (मनुस्मृति १/५)
" This was in the form of Darkness, unknown  without marks [or homogeneous], unattainable by reasoning, unknowable, wholly, as it were, in sleep. 

(इदम्) यह सब जगत् (तमोभूतम्) सृष्टि के पहले प्रलय में अन्धकार से आवृत्त – आच्छादित था ।  (सर्वतः) सब ओर (प्रसुप्तम् इव) सोया हुआ – सा पड़ा था ।   
ततः स्वयंभूर्भगवानव्यक्तो व्यञ्जयन्निदम् । 
महाभूतादि वृत्तौजाः प्रादुरासीत्तमोनुदः|| मनुस्मृति १/६
 " Then the self-Existent, the Lord, unmanifest, (but) making manifest. This the great elements and the rest appeared with mighty power, Dispeller of Darkness.
…….ततः तब स्वयम्भूः अपने कार्यों को करने में स्वंय समर्थ, किसी दूसरे की सहायता की अपेक्षा न रखने वाला (अव्यक्तः) स्थूल रूप में प्रकट न होने वाला (तमोनुदः) ‘तम’ रूप प्रकृति का प्रेरक – प्रकटावस्था की ओर उन्मुख करने वाला (महाभूतादि वृत्तौजाः) अग्नि, वायु आदि महाभूतों को आदि शब्द से महत् अहंकार आदि को भी (१।१४-१५) उत्पन्न करने की महान! शक्तिवाला (भगवान्) परमात्मा (इदम्) इस समस्त संसार को (व्यंज्जयन्) प्रकटावस्था में लाते हुए ही (प्रादुरासीत्) प्रकट हुआ ।
उस समय (अविज्ञेयम्) न किसी के जानने (अप्रतक्र्यम्) न तर्क में लाने और (अलक्षणम् अप्रज्ञातम्) न प्रसिद्ध चिन्हों से युक्त इन्द्रियों से जानने योग्य था और न होगा । किन्तु वर्तमान में जाना जाता है और प्रसिद्ध चिन्हों से युक्त जानने के योग्य होता और यथावत् उपलब्ध है । 
योऽसावतीन्द्रियग्राह्यः सूक्ष्मोऽव्यक्तः सनातनः । 
सर्वभूतमयोऽचिन्त्यः स एव स्वयं उद्बभौ । मनुस्मृति १/७ 
" Then the self-Existent, the Lord, unmanifest, (but) making manifest. This the great elements and the rest appeared with mighty power, Dispeller of Darkness.{जो मुक्त जीव इन्द्रियों से अलग, सूक्ष्म और सदा निश्चिन्त और सब सृष्टि के प्राण हैं, वे स्वयं ही साकल्पिक शरीरों में प्रविष्ट हुए। यह प्रक्षिप्त श्लोक है और मनु स्मृति का भाग नहीं है .????????http://aryamantavya.in/manusmriti/?adhyay=1&mantra=7/ पूर्व में  सनातन धर्म के ग्रन्थों को नष्ट करने , और वोटबैंक के तुष्टिकरण के उद्देश्य से अपने संविधान को प्रचारित करने के लि वामपंथियों-सुभाषिनी अली, पूर्व सांसद  (? कांग्रेसियों ) के द्वारा यह मिएलावट की गई निचे लिंक में एक विडियो है उससे आप आसानी से समझ पायेगे की मिलावट क्यों हुई कैसे हुई ?  श्लोक का अर्थ पढ़ने से ही पता चलता है कि यह श्लोक मिलावटी है ।  राम मंदिर के भूमि पूजन के अवसर पर आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत ने निम्नांकित श्लोक का पाठ किया–" एतद् देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः. स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः ll139ll"  {2.20} ---" उस देश में जन्मे एक प्रथम जन्मे हुए (अर्थात ब्राह्मण) से, पृथ्वी पर तमाम मनुष्य अपने क्रमबद्ध कर्तव्य को सीखे। } 
अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च।।10.20।।
" I, O ' Gudakesha, am the Self, seated in the heart of all beings ; I am the beginning, the middle, and also the end of all beings.10 /20
हे गुडाकेश (निद्राजित्) ! मैं समस्त भूतों के हृदय में स्थित सब की आत्मा हूँ तथा सम्पूर्ण भूतों का आदि, मध्य और अन्त भी मैं ही हूँ।।
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते।।15.16।।
 " There are two Purushas in this world, the destructible and the indestructible ; the destructible is all beings, the unchanging is called the indestructible.
इस संसार में क्षर (नाशवान्) और अक्षर (अविनाशी) -- ये दो प्रकार के पुरुष हैं। सम्पूर्ण प्राणियों के शरीर नाशवान् और कूटस्थ (जीवात्मा) अविनाशी कहा जाता है। 
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः।।15.17।।
" The highest Purusha is verily another, declared as the Supreme Self ; He who pervading all, sustaineth the three worlds, the indestructible Ishvara.
उत्तम पुरुष तो अन्य ही है, जो परमात्मा नाम से कहा गया है। वही अविनाशी ईश्वर तीनों लोकों में प्रविष्ट होकर सब का भरण-पोषण करता है।
यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः।।15.18।।
"  Since I excel the destructible, and am more excellent also than the indestructible, in the world and in the Veda I am proclaimed Prushottama. "
मैं क्षर से अतीत हूँ और अक्षर से भी उत्तम हूँ, इसलिये लोक में और वेद में पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध हूँ।

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।।15.7।।

" A portion of: Mine own Self, transformed in the world of life into an immortal Spirit, draweth round itself the senses, of which the mind is the sixth, veiled in matter. 
इस जीव लोक में मेरा ही एक सनातन अंश जीव बना है। वह प्रकृति में स्थित हुआ (देहत्याग के समय) पाँचो इन्द्रियों तथा मन को अपनी ओर खींच लेता है अर्थात् उन्हें एकत्रित कर लेता है।।
समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्। 
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति।।13.28।।
" Seated equally in all beings, the suprieme lshvara, unperishing within the perishing ; he who thus seeih, he seeth. 
जो पुरुष समस्त नश्वर भूतों में अनश्वर परमेश्वर को समभाव से स्थित देखता है, वही (वास्तव में) देखता है।।
यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा।।13.31।।
 " When he preceiveth the diversified exsistence of beings as rooted in One and spreading forth from It, then he reacheth Brahman.
यह पुरुष जब भूतों के पृथक् भावों को एक (परमात्मा) में स्थित देखता है तथा उस (परमात्मा) से ही यह विस्तार हुआ जानता है, तब वह ब्रह्म को प्राप्त होता है।।
यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः।
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत।।13.34।।
"As the one sun illuminate the whole earth so the Lord of the field, illuminate the whole field, O Bharata."
हे भारत ! जिस प्रकार एक ही सूर्य इस सम्पूर्ण लोक को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार एक ही क्षेत्री (क्षेत्रज्ञ) सम्पूर्ण क्षेत्र को प्रकाशित करता है।।
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च।
   अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।।7.4।।
"Earth, Water, Fire, Air, Other, Mind and Reason also and Egoism these are the eight- fold divisions of my Prakrti. This the inferior.
 पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश -- ये पञ्चमहाभूत और मन, बुद्धि तथा अहंकार -- यह आठ प्रकार के भेदों वाली मेरी 'अपरा' प्रकृति है। हे महाबाहो ! इस अपरा प्रकृति से भिन्न जीवरूप बनी हुई मेरी 'परा' प्रकृति को जान, जिसके द्वारा यह जगत् धारण किया जाता है।
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्।।7.5।।
" Know my other Prakrti, the higher, the life-element, mighty-armed, by which the universe is upheld." 
हे महाबाहो ! यह अपरा प्रकृति है। इससे भिन्न मेरी जीवरूपी पराप्रकृति को जानो, जिससे यह जगत् धारण किया जाता है।।
सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसंभवाः।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम्।।14.5।।
"Sattva, Rajas, Tamas, these are the Gunas, born of Prakriti ; they bind fast in the body, great-armed one, the indestructible dweller in the body."
हे महाबाहो ! सत्त्व, रज और तम ये प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुण देही आत्मा को देह के साथ बांध देते हैं।।

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