अध्याय -१
अद्वैतवाद या एकेश्वरवाद
(Monotheism)
वहाँ [THERE is- देश,काल और निमित्त से परे उस इन्द्रियातीत या तुरीय अवस्था में ] एक शाश्वत,अनन्त, चैतन्य या अपरिवर्तनशील अस्तित्व (Changeless Existence), अविभाज्य या पूर्ण (the All) है; जिससे सब कुछ निर्गत होता है , और फिर वह सब (That all या 'पूर्ण') उसी में लौट जाता है। छान्दोग्य उपनिषद में कहा है - ” एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म " { छान्दोग्य 6 / 2 / 1 } - "One only, without a second."* जो 'अद्वैत ' है, अर्थात अपने जैसा केवल एक और अकेला या अनूठा या अनुपम [*अवतारवरिष्ठ श्रीरामकृष्ण देव] है , तथा उस (पूर्ण -the All) में ही वह सब समाहित है , जो कभी (पूर्वकाल में) अस्तित्व में था, इस समय जिसका अस्तित्व है , और जो कुछ भविष्य में हो सकता है !
[ THERE is one Infinite Eternal, Changeless Existence, the All. From That all comes forth ; to That all returns. "One only, without a second."* That includes within Itself all that ever has been, is, and can be. आचार्य शङ्कर कहते हैं – 'ॐ 'ब्रह्म एक सत् चिद् निर्मल तथा परमार्थ है । जैसे मिथ्या ज्ञान से सीप रजतरूप में भासती है , वैसे ही सत् , चिद् आनन्द स्वरूप ब्रह्म में मिथ्या अनादि अज्ञान (माया ) से इस दृश्यमान प्रपञ्चरूप से भासित होता है । जब इसे ” तत्त्वमसि ” , ” अहं ब्रह्मास्मि ” आदि उपनिषद् वाक्यों द्वारा जीवब्रह्मैक्यज्ञान उत्पन्न होता है तब अनादि कारण मिथ्याज्ञान सहित यह समस्त प्रपञ्च निवृत्त हो जाता है। और यह अपने असली चिन्मय स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जन्म – मरण से रहित होकर मुक्त हो जाता है । यही हमारा सिद्धान्त है । इसमें उपनिषद् प्रमाण है । मैं फिर अपने इस कथन को दुहराता हूँ ” जीवब्रह्मैक्य ” { जीव ब्रह्म एक है } मेरा विषय है । उसमें उपनिषद् वाक्य * प्रमाण हैं । * ” एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म { छान्दोग्य 6 / 2 / 1 }, ” सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म ” { तैतरेय 2 / 1 / 1 },” सर्वँ खल्विदं ब्रह्म ” { छान्दोग्य 3 / 14 / 1 }, ”विज्ञानमानन्दं ब्रह्म ” { बृहदारण्यक 3 / 9 / 28 }, ” ब्रह्मविद्ब्रह्मैव भवति ”, ” ब्रह्मविदाप्नोति परम् “ आदि महावाक्य ही प्रमाण हैं ! "ॐ " ब्रह्म (अवतारवरिष्ठ श्रीरामकृष्ण देव ) ही एक मात्र सत्ता है। उसके अतिरिक्त कोई अन्य दूसरी सत्ता नहीं है। सत् तथा असत् इसी के रूप हैं। यह सत् और असत् दोनों से परे (स्वामी विवेकानन्द ) भी है। इसके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है। तीनों काल में जो कुछ है और तीनों काल से परे जो कुछ है वह वास्तव में एकमात्र वही ब्रह्म है। ब्रह्माण्ड में जो कुछ है लघु या विशाल, उदात्त अथवा हेय वह केवल ब्रह्म है, केवल ब्रह्म । विश्व भी ब्रह्म है । यह सत्य है, मिथ्या नहीं। श्री अरविन्दोपनिषद् : श्लोक १ : 'ॐ ' एकम् एव अद्वितीयं ब्रह्म। तत् सत्-असत्-रूपं सत्-असत्-अतीतं। तद् बिहाय अन्यत् किञ्चित् न अस्ति। त्रिकाल-घृतं त्रिकाल-अतीतं वा सर्वं तु खलु एकं ब्रह्म। जगत्यां यत् किञ्च अणु वा महत् वा उदारं वा अनुदारं वा तत् ब्रह्म एव ब्रह्म एव। जगत् अपि ब्रह्म तत् सत्यं न मिथ्या॥ एकमेवाद्वितीयं = ला इलाह इल्लल्लाह : अर्थात ईश्वर एक ही है और अद्वितीय है : उपनिषद् और कुरआन एक साथ कह रहे हैं। ब्रह्म या अल्ला के सन्दर्भ में श्रुति के "एकमेव" कथन से अभिप्राय है कि ब्रह्म "एक" ही है | एकम् + एव + अद्वितीयम् ' में जो "एव" कार का प्रयोग हुआ है वह पूर्ण विश्वास का प्रतीक है जो उन समस्त शंकाओं को निरस्त कर देता है जो ब्रह्म के एक होने पर उठती हैं | इसके पश्चात् "अद्वितीय" पद इस एकत्व के सापेक्षत्व का भी निरसन कर देता है | निरपेक्ष में ही अद्वितीयता संगत है |यह तत्व मान लेने से भी, कि परब्रह्म ‘एकमेवाद्वितीयं’ है, यह सिद्ध नहीं होता कि उसके ज्ञान होने का उपाय एक से अधिक न रहे। एक ही अटारी पर चढ़ने के लिये दो ज़ीने, या एक ही गांव को जाने के लिये जिस प्रकार दो मार्ग या अनेक मार्ग भी हो सकते हैं; उसी प्रकार मोक्ष-प्राप्ति के उपायों की या निष्ठा की बात है। ]
" उस (पूर्ण -the All) में ही वह सब समाहित है , जो कभी (पूर्वकाल में) अस्तित्व में था, इस समय जिसका अस्तित्व है , और जो कुछ भविष्य में हो सकता है ! जिस प्रकार समुद्र में कोई लहर उठती है , उसी प्रकार उस पूर्ण (एक ) या (the All) में भी जगत (अनेक ) का उदय होता है। फिर जिस प्रकार लहरें समुद्र में ही डूब जाती हैं , वैसे ही यह जगत ब्रह्माण्ड भी उसी पूर्ण में - 'the All ' में डूब जाता है। जिस प्रकार सागर जल है , उसी प्रकार छोटी-बड़ी लहरें भी उस जल की ही अभिव्यक्तियाँ हैं ! उसी प्रकार अपरिवर्तनशील अस्तित्व (जल ) एक है , और जगत उसी असतित्व का रूप या अभिव्यक्ति है। " {छान्दोग्य ६ /२ /१ }
सर्वं खल्विदं ब्रह्मम् -( छान्दोग्य उपनिषद ३/१४/१- सामवेद ) " All this verily (is) Brahman** .This is the primary truth of Religion." "सर्वत्र ब्रह्म ही है" -यह धर्म का प्राथमिक सत्य है। {Brahman** "This" is the technical name for a universe. अर्थात यह नाम "ब्रह्म " भी सृष्टि (universe या ब्रह्मांड , यह समस्त दृष्टिगोचर जगत ) के लिए एक तकनीकी नाम है।] मनुष्य उस एकं सत या पूर्ण 'the All' (ब्रह्म ) को ही कई अलग अलग नामों से पुकारता है। सनातन धर्म में उस पूर्ण का जिससे सबकुछ निर्गत होता है का नाम (The name, जो गुरु से प्राप्त होता है ) ब्रह्म है। अंग्रेजी बोलने वाले लोग ब्रह्म के लिए भी 'ईश्वर ' नाम का उपयोग करते हैं, तथा अर्थ को स्पष्ट करने के लिए, कहते हैं -"ईश्वर, अपने स्वभाव में"--" God, in His own Nature."।
हिन्दू लोग कभी-कभी उस पूर्ण (the All) को या ब्रह्म (या आत्मा जिससे सबकुछ निर्गत हुआ है) को निर्गुण ब्रह्म , बिना कोई उपाधि (attributes या विशेषता ) वाला , या निरुपाधिक ब्रह्म (unconditioned Brahman) कहते हैं। इस 'निर्गुण ब्रम्ह ' शब्द का प्रयोग ब्रह्म के अव्यक्त अवस्था को इंगित करने में किया जाता है। जिस समय "पूर्ण " (the All) व्यक्त अवस्था (manifested state) में रहते हैं , उस सोपाधिक अवस्था को इंगित करने के लिए 'सगुण ब्रह्म ' (the Brahman with attributes or the conditioned Brahman) शब्द का प्रयोग; ( Supreme Ishvara with His universe) -उनके ब्रह्माण्ड के साथ परमेश्वर (या परमेश्वरि -काली माँ) के लिए भी किया जाता है।
बृहदारण्यक उपनिषद् में "the two states of Brahman " ** कहा गया है- " द्वे वाव ब्रह्मणो रूपे मूर्तं चैव अमूर्तं च ।" (बृहदारण्यको - पनिषत् २-३-१) { वस्तुतः ब्रह्मका स्वरूपभूत, उसकी शक्ति, स्वरूप की विचित्रता, शक्तियों की विचित्रता और शक्तियों के प्रकाश की विचित्रता - सभी कुछ ब्रह्मका स्वरूपतः ही अनादि है। वह ब्रह्म स्वरूपतः ही अनादिकाल से विविधस्वरूपसम्पन्न, विविधशक्तिसम्पन्न, विविधशक्ति-प्रकाश-प्रक्रिया-सम्पन्न है। नित्य एक होते हुए ही वह नित्य पृथक सत्ता है- इसी से ब्रह्म तथा ब्रह्म के विष्णु, नारायण, राम, कृष्ण, शिव, दुर्गा, काली माँ आदि सभी स्वरूप माया की उपाधि से प्रतीत होने वाले-छलमात्र नहीं हैं, बल्कि अनादि सत्य तथा नित्य हैं। एक होते हुए ही अनादिकाल से ही ये विविध रूपोंमें अभिव्यक्त हैं- ‘एकोअपि सन् बहुधा यो विभाति।’ *}
बिना अनुभव हुए (SQ-IQ-EQ के अन्तर को समझे बिना ) इस विषय को केवल तर्क-बुद्धि से समझ लेना बहुत कठिन है (the subject is very difficult)| अतः किसी नौसिखिए (beginner -आरम्भक) लड़के के लिए , अभी केवल इतना समझ लेना पर्याप्त होगा कि "the Saguna Brahman is Brahman revealed not "a second,"-- सगुण ब्रह्म (माँ काली भवतारिणी ) भी केवल प्रकाशित ब्रह्म हैं - "उनसे भिन्न नहीं हैं - " not a second" ब्रह्म और शक्ति अभिन्न हैं ! माँ काली भी ठाकुर ही हैं ! श्री श्री माँ सारदा देवी भी 'existence -consciousness-bliss' सच्चिदानन्द का ही प्रकट (revealed या प्रकाशित) रूप हैं , ठाकुर की शक्ति हैं और उनसे अभिन्न हैं ! He is the self-existent One, the Root and Cause of all beings. "वह" ही सभी प्राणियों का आत्म-अस्तित्व, मूल और कारण है।
उस पूर्ण या ब्रह्म को ही कभी -कभी पुरुषोत्तम (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण देव ), परमात्मा (the Supreme Spirit) या आत्मा भी कहा जाता है। आत्मा के रूप में वही पूर्ण (the All-भगवान ) के दूसरे पक्ष (भक्त-राधाशक्ति ) को प्रकाशित करता है , जिसे मूलप्रकृति (the Root of Matter.-आद्या शक्ति), पदार्थ (Matter-जड़ ) की कारण (Root या मूलरूप या बुनियाद, काली माँ ) के नाम से पुकारा जाता है। प्रकृति या जड़वस्तु (Matter-पदार्थ) उसे कहते हैं जो रूप धारण कर लेता है , इसलिए वह हर प्रकार के शरीरों को विभिन्न प्रकार की आकृति में ढल सकता है। अतः हमलोग जिस किसी वस्तु को स्पर्श कर सकते हैं , स्वाद ले सकते हैं , गंध सूँघ सकते या देख और सुन सकते हैं, वे सब पदार्थ (Matter) हैं। इसके अलावा अन्य बहुत कुछ ऐसे पदार्थ हैं , जिसका अनुभव करने के लिये हमारी पांचों इन्द्रियाँ अभी तक पर्याप्त रूप से विकसित नहीं हो सकी हैं। " (बृहदारण्यक उपनिषद -2/3/1)
रसायनशास्त्री जिसको ठोस, तरल और गैस कहते हैं , वे सभी पदार्थ की ही तीन अवस्थायें हैं। हम अपने चारों ओर - पत्थर, पहाड़ , पेंड़ , जानवर , मनुष्य जो कुछ भी देखते हैं; वे सब पदार्थ (Matter) से ही बने हुए हैं। लेकिन जितने भी नाम-रूप दिखाई देते हैं , वे शत-प्रतिशत जड़-पदार्थ ( 100 %Matter ) नहीं हैं, अश्रव्य (inaudible-शब्दरहित), अलक्ष्य (invisible-अलख, अदृश्य), गंधरहित, स्वादरहित (किन्तु रसो वै सः ?), अमूर्त (intangible), ईश्वर (पूर्ण) का एक ' अंश ' (a portion of the All) - "आत्मा" ( the Spirit ) इनमें से प्रत्येक में विद्यमान है ! हमलोग पदार्थ के स्थूल भाग को " शरीरं " (body -Hand) या "कोषः" (sheath-म्यान ,अन्नमयकोष), या एक "उपाधि" (vehicle या वाहन) - है जो अवतीर्ण (embodies) होता है , या यह शरीर (स्थूल और सूक्ष्म दोनों-2H) ही है जो आत्मा (Heart 3rd H) को धारण कर (लक्ष्य तक-परमात्मा ,ब्रह्म) वहन करता है।
इस प्रकार अदृश्य -अश्रव्य ईश्वर (आत्मा-अस्ति ,भाति और प्रिय ) प्रत्येक नाम-रूप के भीतर ही हैं ; और यह ईश्वर (आत्मा) की शक्ति है जो प्रत्येक जड़-शरीरों में जीवन प्रदान करती है। यह अजर-अमर-अविनाशी आत्मा ही 'अन्तरस्थ अधिष्ठाता' (Inner Ruler)है, जो प्रत्येक शरीर (या कोष ) में निवास करती है , और ऐसी कोई वस्तु नहीं जो आत्मा से रहित होकर भी जीवित रह सकती हो। किसी भी जड़-शरीर में पूर्ण (The All ) का यह 'अंश:' (Amshah) ही जीवात्मा (a separated Self) , या जीव कहलाता है।
" Spirit and Matter " [Pair of antonyms=विपरीतार्थक शब्दों का प्रथम जोड़ा है ] : ऊर्जा (Energy ,शक्ति या 'Spirit' ) और पदार्थ (Matter- *Spelt also कोषः) जिसको संस्कृत में " कोषः " या म्यान भी कहा जाता है , के बीच कुछ अत्यन्त महत्वपूर्ण भिन्नता (differences -असमनता) है ! पहले हमने सुना था कि " the senses, when completely developed, can perceive Matter " ---जब हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ (मस्तिष्क में स्थित स्नायुकेन्द्र ) पूर्ण रूप से विकसित हो जाती हैं , केवल तभी हमलोग पदार्थों ( Matter या सूक्ष्म-कोषः - मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार आदि ) का अनुभव कर सकते हैं। हम जानते हैं कि आत्मा की शक्ति (Spirit or Energy-ऊर्जा ) निराकार (formless) है, और यह आत्मा प्रत्येक व्यक्ति में तथा सबकुछ में एक और अद्वितीय है ! तथापि पदार्थ या म्यान (कोषः Matter) विभिन्न आकार (form) ग्रहण कर लेता है। हमारी अन्तर्निहित शक्ति (ऊर्जा -Energy) ही आत्मा (divinity-देवत्व) है , जो जीवन (life) है !'It is the Spirit that is life, and that thinks, and feels, and observes, that is the " I " in each of us.' ----अर्थात हममें से प्रत्येक के भीतर एक ' मैं ' बोध (the " I " व्यष्टि अहं ) है जो सोचती है, अनुभव करती है और समीक्षा (observes) करती है ; वह परिस्थितियों के दबाव को हटाकर (समष्टि अहं) या माँ जगदम्बा के सर्वव्यापी विराट ' मैं '- बोध में व्यक्त होना या रूपांतरित होना चाह रही है ![स्वामीजी कहते हैं परिस्थितियों के दबाव को हटाकर व्यक्त हो जाना ही जीवन है। ]
किन्तु जड़-पिण्ड (Matter- जड़ बनस्पति की अवस्था को प्राप्त मनुष्य) न तो सोच सकते हैं , न अनुभव करते हैं , और न कोई समीक्षा (observes-आत्मसमीक्षा या विवेक-प्रयोग ) ही कर सकते हैं। क्योंकि आत्मज्ञान के बिना (without self-consciousness) ये " जड़ं " (Jadam) की अवस्था को प्राप्त हो चुके हैं ! {अष्टावक्र गीता में कहा गया है --"मुक्ताभिमानी मुक्तो हि बद्धो बद्धाभिमान्यपि। किवदन्तीह सत्येयं या मतिः सा गतिर्भवेत्॥१-११॥" अहं मुक्त ही मुक्त है, बद्ध सोच बंध जाय। यही कहावत सत्य है, मति जैसी गति पाय ॥1-11॥} 'And it has also the tendency to be constantly dividing itself into many forms and to become many.' और हम जानते हैं कि