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शुक्रवार, 4 जून 2021

श्री रामकृष्ण दोहावली (25) * स्त्रियों के प्रति मनोभाव * देवीमाहात्म्यम् * (देवी का महात्म्य~Glory of the Goddess)

 श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर 

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(25)

* स्त्रियों के प्रति मनोभाव * 

244 जो चाहत हरि दरस नर , आद्या शक्ति मनाहु। 

441 बिन माया किरपा सुनो , हरि दरस नहि काहु।।

245 आद्याशक्ति के भीतर , विद्या अविद्या दोउ। 

441 इक छोरही इक बाँधती , छूटत नर कोउ कोउ।।

          यदि तुम भगवत्कृपा प्राप्त करना चाहते हो तो पहले आद्याशक्ति-स्वरूपिणी महामाया को प्रसन्न करो। उन्होंने ही समस्त संसार को मुग्ध कर रखा है। वे ही सृष्टि, स्थिति और प्रलय का खेल खेल रही हैं। उन्होंने सब के ऊपर अज्ञान का परदा डाल रखा है, सब को अज्ञानी बना रखा है। जब तक वे द्वार पर से न हट जाएँ तब तक कोई जीव भीतर प्रवेश नहीं कर सकता।  बाहर पड़े रहकर हमें केवल बाहरी बस्तुएं (सापेक्षिक सत्य -परिवर्तनशील देह-मन ) ही दिखाई देती हैं , नित्य सच्चिदानन्द पुरुष के दर्शन नहीं हो पाते। 

       शक्ति ही जगत का मूल आधार है। इस आद्यशक्ति के भीतर विद्या और अविद्या दोनों हैं। अविद्या से कामिनी-कांचन उत्पन्न होते हैं , वह जीव को मोहमुग्ध [Hypnotized ] करती है और बंधन में डालती है। (अर्थात सम्मोहित सिंहशावक अपने को भेंड़ समझने लगता है !) विद्या से भक्ति, दया , ज्ञान और प्रेम की उत्पत्ति होती है ; वह जीव को ईश्वर की ओर ले जाती है।

       इस अविद्या को प्रसन्न करना होगा। इसीलिए शक्तिपूजा की व्यवस्था है।  उसे प्रसन्न करने के लिए नाना भावों से पूजा की जाती है। जैसे दासीभाव , वीरभाव और सन्तानभाव। शक्तिसाधना कोई दिल्लगी नहीं। इसमें बड़ी विकट और कठिन साधनायें हैं। मैं दो साल तक जगन्माता की दासी और सखी के भाव से रहा। परन्तु मेरा तो सन्तान भाव है, मेरे लिए सभी स्त्रियों का स्तन अपनी माता के स्तन की तरह है। 

        स्त्रियां शक्ति की एक-एक मूर्ति हैं। पश्चिम की ओर (राजपुताना में) विवाह के समय दूल्हे के हाथ में तलवार रहता  है। और बंगाल में सरौता। इसका अर्थ है , उस शक्तिस्वरूपिणी कन्या की सहायता से वर मायापाश को काट सकेगा।  वह वीरभाव है। मैंने वीरभाव की साधना नहीं की। मेरा संतान भाव है। 

{ श्रीरामकृष्ण वचनामृत ( 9 सितंबर, 1883): तान्त्रिक साधक अचलानंद-प्रसंग में श्री श्री ठाकुर ने  'स्त्रियों के प्रति मनोभाव' का उल्लेख करते हुए कहा था~ 'मेरा सन्तान-भाव है।'

243 दासी भाव सुंदर सहज , सन्तान भाव अति शुद्ध। 

440 वीरभाव भयपूर्ण कठिन , जितहि कोउ इक युद्ध।।

प्रश्न - महाराज , तंत्र- मतानुसार स्त्री को साथ लेकर जो साधना का विधान है , उसके बारे में आपकी क्या राय है ? 

उत्तर - वे मार्ग सुरक्षित नहीं हैं। वे अत्यन्त कठिन हैं , उसमें प्रायः पतन हुआ करता है।  तन्त्रमत के अनुसार तीन प्रकार की साधनायें हैं - वीरभाव , दासीभाव और सन्तान भाव। जगन्माता के प्रति इन तीन भावों में किसी एक भाव को आरोपित कर साधना की जा सकती है। मेरा भाव मातृभाव है। दासीभाव भी अच्छा है। वीरभाव की साधना बहुत कठिन और भयपूर्ण है। सन्तानभाव अत्यन्त शुद्ध भाव है।

{श्री नवनीदा ने अपनी आत्मकथा 'जीवन नदी के हर मोड़ पर' में तंत्रविद्या (अपरा विद्या या  Physics) के 'राधा यंत्र' का उल्लेख करते हुए लिखा है -  मेरी प्रमातामही जगन्मोहिनी देवी एक असाधारण आध्यात्मिक शक्ति-सम्पन्ना एक साध्वी थीं।  तन्त्र शास्त्र के अनुसार किसी तंत्र-साधक की माँ ही यदि उसकी गुरु हों तो माँ से प्राप्त होने वाली विद्या सर्वश्रेष्ठ स्तर की 'तंत्र विद्या' होती है। मेरे पितामह की गुरु उनकी माँ ही थीं, तथा उन्होंने पितामह से कई प्रकार की साधनाएँ करवाईं थीं ! यहाँ तक की बहुत सी तान्त्रिक साधनाएँ भी करवाईं थीं,  -- "मेरे घर वाले तालाब के सामने वाले बेल के पेंड़ के नीचे जो शिव हैं, उनकी प्रतिष्ठा भी उन्होंने ने ही किया था। ऊपर वाले पूजा-घर में माँ काली की प्रतिष्ठा भी उन्होंने ने ही किया था। पितामह को बेल के पेंड़ के नीचे प्रतिष्ठित शिव के निकट बिठाकर ऊपर से  निर्देश देते हुए उन्होंने तन्त्र की बहुत सारी साधनाएँ करवाईं थीं। एक विशेष साधना का प्रशिक्षण देते समय ऊपर से (खिड़की पर खड़ी होकर) बोल रही हैं- " राधा-यन्त्र एंके आगे पूजो करे निये एई तन्त्रेर साधनाटी करो ! " अर्थात पहले राधायन्त्र की पूजा कर लो तत्पश्चात शिवजी के पास तन्त्र की साधना करो! राधा यंत्र की पूजा कर लेने के बाद तंत्र-साधना का निर्देश दे रही हैं।" ('जीवन नदी के हर मोड़ पर' पृष्ठ -51)   

"জগন্মোহিনী দেবী আমার প্রমাতামহী তিনি সাধ্বী মহিলা ছিলেন , অসাধারন আধ্যাত্মিক শক্তিসম্পন্না। এবং ঘটনাক্রমে তন্ত্রে শ্রেষ্ঠ স্তরের কথায় বলেছেন -মা যদি গুরু হন।  আমার পিতামহের গুরু ছিলেন তিনি এবং তাঁকে নানান রকম সাধনা করিয়েছিলেন। এমন কি তন্ত্রের বহু সাধনা করিয়েছিলেন। বেলতলায় পুকুরের সামনে যেখানে বিল্বমূলে শিব আছেন , সেই শিবের প্রতিষ্ঠা তিনি করেছেন। মা কালীর প্রতিষ্ঠা তিনি উপরে ঠাকুর ঘরে করেছেন। এবং উপর থেকে (জানলা থেকে দাঁড়িয়ে) নির্দেশ দিয়ে বেলতলায় শিবের কাছে তন্ত্রের বহু সাধনা করিয়েছেন। একটি সাধনা করতে বসে উপর থেকে বলছেন,  "রাধা যন্ত্র" এঁকে আগে পুজো করে নিয়ে ঐ তন্ত্রের সাধনটি করো। " এরকম ছিল , অদ্ভুত। " ~  ("জীবন নদীর বাঁকে বাঁকে" -পেজ-৩৬)

https://vivek-jivan.blogspot.com/2010/05/blog-post_4.html}

*स्त्रियों के प्रति मनोभाव * 

241 सब नारी को जानिए , जग जननी का अंश। 

435 लखिये मातु समान तेहि , कह रामकृष्ण निःशंस।।

नारी मात्र ही भगवती जगज्जननी का अंश है। अतः सभी को स्त्रियों की ओर मातृदृष्टि से देखना चाहिये।  

('निःशंस'-अर्थात निर्विवादरूप से 'indisputably'. 

*देवीमाहात्म्यम्* 

(देवी का महात्म्य -Glory of the Goddess) 'शाक्त' लोगों का एक धार्मिक ग्रन्थ है जिसमें 700 श्लोक होने के कारण इसे 'दुर्गा सप्तशती' भी कहते हैं। दुर्गा सप्तशती के प्रथम अध्याय में 'सुरथ' नाम के राजा और 'समाधि' नामक वैश्य के प्रसंग का उल्लेख करते हुए, 'परा विद्या' ('विद्या' -'Meta Physics'  'मेटा' का अर्थ है 'परे' - अर्थात पंचेन्द्रियों की पहुँच से परे 'परम् सत्य') और 'अपरा विद्या' ('अविद्या' - Physics- इन्द्रियों के द्वारा अवलोकन योग्य सापेक्षिक ज्ञान) --दोनों के महत्व को बहुत खूबसूरती से समझाया गया है।

  सुरथ राजा शत्रुओं से पराजित होकर भागा था। उसका राज्य शत्रुओं के हाथ में चला गया था। अब उसमें उसका कोई स्वत्व नहीं रहा था तो भी उसे अपने सम्बन्धियों और हाथी-घोड़ों की स्मृति सताती थी। इसी प्रकार समाधि नामक वैश्य को भी उसके पुत्रादि ने घर से निकाल दिया था तो भी उसे घर और घरवालों को ही स्मृति बनी रहती थी। उन्होंने एक मुनिवर - 'मेधा ऋषि' के पास जाकर इस अनभिमत चिन्ता का कारण पूछा, कि विवेकशून्य पुरुष की भाँति, मुझमें और इस वैश्य में भी यह मूढ़ता, क्यों दिखायी देती है ? 

{Devimahatmyam (Mahatmya of the Goddess) is a Shakta religious text which is also known as 'Durga Saptashati' due to its 700 verses. In the first chapter of Durga Saptashati, mentioning the context of a king named Suratha and a Vaishya named Samadhi,  The importance of - ' Para Vidya ('Meta Physics', 'meta' means 'beyond' - knowledge beyond the reach of the senses.) and The importance of Apara Vidya (Physics- sense-observable knowledge) both ~  'Vidya'  and 'Avidya'  has been explained very beautifully.

 The king Surath was defeated by the enemies and ran away. His kingdom had gone into the hands of the enemies. Now he had no ownership in it, yet he used to torment the memory of her relatives and elephants and horses. Similarly, a Vaishya named Samadhi was also thrown out of the house by his son and daughter-in-law, yet he used to keep the memory of the house and the family members only. He went to a sage - 'Medha Rishi' with the  Vaishya and asked the reason for this unprincipled concern, why does this stupidity appear in me and in this Vaishya, like a man without reason?} 

दुर्गा सप्तशती के प्रथम अध्याय में सुरथ नामक राजा और समाधि नामक वैश्य का प्रसंग का उल्लेख करते हुए परा विद्या (Meta Physics, 'मेटा' का अर्थ 'से परे की'- इन्द्रियातीत या इन्द्रियों की पहुँच से बाहर का ज्ञान।) और अपरा विद्या (Physics- इन्द्रियगोचर ज्ञान) दोनों की महत्ता को बहुत सुंदर ढंग से समझाया गया है-  सुरथ राजा शत्रुओं से पराजित होकर भागा था। उसका राज्य शत्रुओं के हाथ में चला गया था। अब उसमें उसका कोई स्वत्व नहीं रहा था तो भी उसे अपने सम्बन्धियों और हाथी-घोड़ों की स्मृति सताती थी। इसी प्रकार समाधि नामक वैश्य को भी उसके पुत्र- पुत्रवधु आदि ने घर से निकाल दिया था, तो भी उसे घर और घरवालों को ही स्मृति बनी रहती थी। उन्होंने एक मुनिवर के पास जाकर इस अनभिमत चिन्ता का कारण पूछा, कि विवेकशून्य पुरुष की भाँति, मुझमें और इस वैश्य में भी यह मूढ़ता, क्यों दिखायी देती है ? तब मेधा मुनि ने कहा-

महामाया हरेश्‍चैषा तया सम्मोह्यते जगत्।

ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा॥५५॥

जगदीश्वर भगवान विष्णु की, योगनिद्रारूपा, जो भगवती महामाया हैं, उन्हीं से यह जगत मोहित हो रहा है। भगवती देवी से ही – मोह के बंधन और बंधनो से मुक्ति, दोनों बातें होती हैं। इसलिए तुम  भगवती शक्ति का समाश्रयण करो; क्योंकि-

बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति।

तया विसृज्यते विश्‍वं जगदेतच्चराचरम्॥५६॥ 

वे भगवती महामाया देवी,ज्ञानियों के भी चित्त को,बलपूर्वक खींचकर,मोह में डाल देती हैं। वे ही इस संपूर्ण चराचर जगत की, सृष्टि करती हैं, तथा वे ही प्रसन्न होने पर,मनुष्यों को मुक्ति के लिये,वरदान देती हैं। 

मुनि आगे कहते हैं, क्योंकि वह माँ काली सर्वात्मिका है- 

‘या देवी सर्वभूतेषु भ्रान्तिरूपेण संस्थिता’ 

‘या देवी सर्वभूतेषु विद्यारूपेण संस्थिता’ 

इसलिए अपने से विमुख लोगों के लिये भ्रान्ति या (Hypnotize या सम्मोहित करने वाली ~ अविद्या शक्ति (Phyasics ) रूप से  प्रकट होती है। और वही माँ अपने भक्तों के लिये  काली परम कल्याणी विद्या देवी (श्रीश्री माँ सारदादेवी या Metaphysics) रूप से प्रकट होती है।

      वे भगवती महामाया देवी, ज्ञानियों के भी चित्त को,बलपूर्वक खींचकर,मोह में डाल देती हैं। वे ही इस संपूर्ण चराचर जगत की,सृष्टि करती हैं, तथा- " सैषा प्रसन्ना वरदा नृणां भवति मुक्तये।" वे ही प्रसन्न होने पर, मनुष्यों को मुक्ति के लिये,वरदान देती हैं।

सा विद्या परमा मुक्तेर्हेतुभूता सनातनी। 

संसारबन्धहेतुश्च सैव सर्वेश्वरेश्वरी॥ 

मूल प्रकृति भगवती राजराजेश्वरी महात्रिपुरसुन्दरी ही सनातनी परा विद्या (ब्रह्मविद्या या  अध्यात्म विद्या) हैं । परा विद्या संसार-बन्धन और मोक्ष की हेतुभूता सनातनी देवी तथा सम्पूर्ण ईश्वरों की भी अधीश्वरी हैं॥ (दुर्गा सप्तशती)

 अतः इसका तात्पर्य यह है कि पहले माँ जगदम्बा की उपासना -भक्ति करके अपनी सात्त्विक वृत्तियों को जागृत करो। भगवान के नाम का  जप करो, प्रभु का गुणगान करो और राजस-तामस वृत्तियों को त्याग करों ऐसा करते-करते पीछे परब्रह्म परमात्माकाराकारिता वृत्ति हो जायगी। 

श्री नवनीदा ने अपनी आत्मकथा 'जीवन नदी के हर मोड़ पर' में खड़दह का इतिहास बतलाने के क्रम में 'शाक्त' मत के " प्राणतोषिनी- तंत्र " का उल्लेख करते हुए लिखा है कि - 

नित्यानन्द प्रभु {Nityananda (Bangla: শ্রী নিত্যানন্দ) (b 1474 CE), a Vaishnava saint, is famous as a primary religious figure within the Gaudiya Vaishnava tradition of Bengal. Chaitanya Mahaprabhu's friend & disciple.}को खड़दह निवासी कामदेव पण्डित ही खड़दह ले गये थे, एवं बाद में उनके ही वंशज कामेश्वर मुखोपाध्याय के साथ नित्यानन्द प्रभु की परपौत्री त्रिपुर सुंदरी का शुभ परिणय घटित हुआ था। 

पूर्व में खड़दह में शिव के प्राचीन 26 मन्दिर थे वे आज भी हैं। आस-पास में किसी अन्य स्थान में भी इतने शिव मन्दिर हैं, इसकी जानकारी मुझे नहीं है। पुराने जमाने में ' शाक्त ' लोग ही खड़दह में अधिक थे, एवं यहाँ ' तंत्र ' का यथेष्ट प्रभाव भी था। 

अनेक प्रसिद्ध तंत्रों में से एक प्रसिद्ध तंत्र है- प्राणतोषिनी- तंत्र। इस तंत्र-मत के संस्थापक खड़दह के प्राणकृष्ण विश्वास और भाटपाड़ा के रामतोषण भट्टाचार्य थे। इन दोनों ने मिल कर इस तंत्र मत की रचना की थी, इसीलिये इसका नाम " प्राणतोषिनी- तंत्र " हुआ था। इसीलिये खड़दा में पहले से ही शैव भाव, शक्ति भाव और तान्त्रिक भाव का ही यथेस्ट प्रभाव था। किन्तु नित्यानन्द के खड़दह में आने के बाद वहाँ पर वैष्णव भाव भी सम्मिलित हो गया।  इन सब के सम्बन्ध में अपने  पितामह से मैंने कितनी ही कहानियाँ  सुनी हैं। [' जीवन नदी के हर मोड़ पर' (पृष्ठ- 29)] 

" খড়দহ নিবাসী কামদেব পন্ডিতই নিত্যানন্দকে খড়দহে লইয়া গিয়াছিলেন এবং পরে তদ্ বংশীয় কামেশ্বর মুখোপাধ্যায়ের সহিত নিত্যানন্দের প্রপৌত্রীর ত্রিপুরসুন্দরীর শুভ পরিণয় ঘটিয়াছিল। "  খড়দায় ২৬ শিবের মন্দির ছিল , যা এখনও রয়েছে। কাছাকাছি এরকম এত শিবের মন্দির কোথাও আছে বলে জানা নেই। খড়দায়  শাক্তরাই বেশি ছিলেন , পূর্বকালে। এবং তন্ত্রেরও প্রভাব ছিল। "প্রাণতোষিণী" তন্ত্র , অনেক তন্ত্রের মধ্যে প্রসিদ্ধ তন্ত্র , সেটা হচ্ছে খড়দার প্রাণকৃষ্ণ বিশ্বাস আর ভাটপাড়ার রামতোষন ভট্টাচার্য - এই দু'জন মিলে রচনা করেছেন বলে নাম হয়েছে 'প্রাণতোষিণী তন্ত্র। ' কাজেই শৈব ভাব আর শক্তি ভাব , তান্ত্রিক ভাব এটা খড়দায় যথেষ্ট ছিল। নিত্যানন্দ খড়দায় আসলে বৈষ্ণব ভাবও সেখানে এসে মিলিত হল। এইগুলো নিয়ে ছেলেবেলায় পিতামহের কাছে গল্প শুনেছি। (জীবন নদীর বাঁকে বাঁকে,'  পৃষ্ঠ -২২) 

*स्त्रियों के प्रति मनोभाव * 

242 नारी मुख नहि देखिये , देखिये पैरन ओर। 

438 जननी सम तेहि जानिए , ब्याये न काम कठोर।।

प्रश्न -काम पर किस तरह विजय प्राप्त की जाय ? 

उत्तर - सभी स्त्रियों को अपनी माता की तरह देखो। कभी स्त्रियों के चेहरे की ओर नजर न डालो। सदा उनके पैरों की ही ओर दृष्टि रखो। ऐसा करने पर कोई कुभाव नहीं आ पायेगा

[ श्रीरामकृष्ण वचनामृत (3 अगस्त, 1884) ]

{देह (Matter-पंचभूत) धारण किया  है तब शक्ति (Energy) को मानना अनिवार्य}   

श्रीरामकृष्ण फिर कमरे के भीतर आये । हाजरा से नरेन्द्र की बात कह रहे हैं।

हाजरा - नरेन्द्र फिर मुकदमे में पड़ गया है ।

श्रीरामकृष्ण - शक्ति नहीं मानता । देह धारण करके शक्ति को मानना चाहिए।

{"He doesn't believe in Sakti , the Divine Mother. If one  assumes a human body, one must recognize Her." 

শ্রীরামকৃষ্ণ — শক্তি মানে না। দেহধারণ করলে শক্তি মানতে হয়। }

हाजरा - नरेन्द्र कहता है, मैं मानूँगा तो फिर सभी लोग मानने लगेंगे, इसीलिए मैं नहीं मान सकता।

श्रीरामकृष्ण - इतना बढ़ना अच्छा नहीं । अब तो शक्ति के ही इलाके में आया है । जज साहब भी जब गवाही देते हैं, तब उन्हें अपनी कुर्सी से नीचे उतर कर गवाहियों के कटघरे (witness-box) में  जाकर खड़ा होना पड़ता है ।

{HAZRA: "Narendra says: 'If I believed in Sakti, all would follow me. Therefore I cannot.'

MASTER: "But it is not good for him to go to the extreme of denying the Divine Mother. He is now under Sakti's jurisdiction. Even a judge, while giving evidence in a case, comes down and stands in the witness-box.

“অত দূর ভাল নয়। এখন শক্তিরই এলাকায় এসেছে। জজসাহেব পর্যন্ত যখন সাক্ষী দেয়, তাঁকে সাক্ষীর বাক্সে নেমে এসে দাঁড়াতে হয়।”}

श्रीरामकृष्ण मास्टर से कह रहे हैं- "क्या तुमसे नरेन्द्र की भेंट नहीं हुई ?"

मास्टर - जी नहीं, इधर नहीं हुई ।

श्रीरामकृष्ण - एक बार मिलना और गाड़ी पर बिठाकर ले आना । (हाजरा से) अच्छा यहाँ उसका क्या सम्बन्ध है ?

{(To Hazra) "Well, what is his relation to this [meaning himself]?"

(হাজরার প্রতি) — “আচ্ছা, এখানকার সঙ্গে কি তার সম্বন্ধ?”}

हाजरा - आपसे उसे सहायता मिलेगी ।

{HAZRA: "He expects help from you." আপনার সাহায্য পাবে।} 

हाजरा - कोन्नगर से नवाई चैतन्य आये हुए हैं । परन्तु संसारी (गृहस्थ) होकर लाल धोती पहनना !

श्रीरामकृष्ण - क्या कहूँ ! मैं देखता हूँ, ये सब मनुष्य-रूप ईश्वर ने स्वयं धारण किये हैं, इसी कारण किसी को कुछ कह नहीं सकता ।

{"শ্রীরামকৃষ্ণ কি বলব! আর আমি দেখি ঈশ্বর নিজেই এই-সব মানুষরূপ ধারণ করে রয়েছেন। তখন কারুকে কিছু বলতে পারি না।  

"What shall I say? I clearly see that it is God Himself who has assumed all these human forms. Therefore I cannot take anybody to task .}

'देह (Matter-पंचभूत) धारण करने पर शक्ति (Energy-जगत्जननीको मानना ही पड़ता है!' ऐसी एक अद्भुत घटना का उल्लेख करते हुए श्री नवनीदा ने अपनी आत्मकथा 'जीवन नदी के हर मोड़ पर' के पृष्ठ -52 पर लिखा है -  

" पितामह के जीवन का सब कुछ अद्भुत था।  जिस समय वे आन्दुल स्कूल में हेडमास्टर के पद पर कार्यरत थे,  उस समय भी वहाँ पर कई आश्चर्य-जनक घटनाएँ घटती रहतीं थीं,  जिसके विषय बहुत कम लोग ही जान पाते थे। रात्रि के समय न जाने कहाँ कहाँ से आकर कुछ तान्त्रिक लोग वहाँ पर बैठकें करते थे।  तन्त्र को लेकर बहुत सी चर्चाएँ होती रहती थीं। तान्त्रिक धर्म-चक्र बैठकें भी होतीं थी। एक दिन  अत्यन्त ही आश्चर्य पूर्ण घटना घटी थी। इस घटना को हमने पितामह के मुख से सुना था , जब वे किसी को इस घटना के विषय में बता रहे थे। ..... 

वह विशेष घटना इस प्रकार थी - ' पितामह एक दिन काफी रात बीत जाने के बाद  आन्दुल स्कूल से बाहर निकले। उस समय आन्दुल-मौड़ी भी एक नीरा गाँव जैसा ही था। अधिकांश क्षेत्र वन-जंगल से भरपूर था। किनारे-किनारे सरस्वती नदी प्रवाहित होती थी। हमलोगों भी सरस्वती नदी के किनारे-किनारे होकर ही स्कूल आते-जाते थे। बहरहाल उस दिन घनी रात  में पैदल चलते-चलते पितामह कितनी दूर निकल आये, और कहाँ पहुँच गये हैं यह उन्हें बिल्कुल भी पता नही चला। हठात एक जगह पर एक ' शव '(मुर्दा) पड़ा हुआ दिखाई देता है !

      उसी शव के ऊपर बैठ कर वे उस घनी रात्रि में ' शव-साधना ' करते हैं। किन्तु शव-साधना करने के बाद उनके मन में यह विचार उठा कि, अभी तुरन्त ही अपने गुरु के पास जाना होगा ! अर्थात उसी समय उनको अपनी माँ  के पास खड़दह जाना  होगा। साथ ही साथ उनके मन में यह भावना भी उठी  कि, " घर में घुसते ही बस एक बार ' माँ ' कह कर पुकारूँगा, और माँ यदि मेरी पुकार सुनते ही सामने नहीं दिखाई दी य़ा उनका कोई उत्तर न आया तो- यह शरीर और बचेगा नहीं - वहीं गिर कर नष्ट हो जायेगा !"

इस प्रकार आन्दुल स्कूल से निकल कर पैदल ही चलते हुए, खड़दह- जा पहुँचे! घर में प्रवेश करते ही, सीधा प्रवेश किया जा सकता है, किन्तु सामने ही एक छोटा दीवार जैसा उठा हुआ है, अभी भी वैसा ही है, इसीलिये बाहर से भीतर का पूरा हिस्सा देखा नहीं जा सकता है।  वे घर के भीतर प्रवेश कर बाहर के दरवाजे से पूजा का दालान पारकर जब घर में प्रविष्ट हुए तो एक बार ' माँ ' कह कर पुकारा।  आवाज देते ही देखते हैं कि माँ  वहाँ खड़ी हैं तथा हाथ में एक कटा हुआ ताजा  डाभ (पानी वाला नारियल) लिए हुए हैं , जिसका मुख अपने हाथ से ढँक रखा है, और उन्हें देखते ही बोलती हैं - " लो,  मेरे बेटे, इसे पी लो "! वे इस प्रकार खड़ी थीं मानो उनकी ही प्रतीक्षा कर रही हों। आश्चर्य होता है कि वे कैसे एक डाभ को काटकर हाथ में लिए हुए खड़ी हैं !

 मेरे पितामह की गुरु और अपनी माँ यह कैसे जान गयीं कि उनका पुत्र आ रहा है , तथा माँ कहकर एक बार आवाज लगाने के पश्चात यदि मैं उसे नहीं दिखाई पड़ी, तो उसका प्राणान्त हो जायेगा ? एवं पितामह किस प्रकार आन्दुल से पैदल चल कर इतनी दूर खड़दह आ रहे हैं , तथा आज रात्री में उन्होंने 'शव-साधना किया है , इस घटना को वे कैसे जान गईं ?  तथा 'माँ' की पुकार सुनते ही, किस प्रकार उनकी माँ ने सामने आकर उनको डाभ पकड़ा दिया ?  यह सब सुनकर आश्चर्य होता है।  इन बातों की कल्पना करना भी कठिन है। किन्तु यह सब सचमुच घटित हुआ है !" ('जीवन नदी के हर मोड़ पर' के पृष्ठ -52)

" তিনি যখন স্কুলে ,ঐ আন্দুল স্কুলে যখন রয়েছেন তখনও সেখানেও আশ্চর্য আশ্চর্য ঘটনা ঘটতো , সে বিষয়ে অনেকেরই জানা ছিল না। কিছ তান্ত্রিক কোথা থেকে কথা থেকে এসে সেখানে বসতেন , রাত্রে। বহু তন্ত্র আলোচনা চলত। চক্র বসতো। একদিনের ঘটনা , অতিআশ্চর্য়। আমরা তাঁর মুখেই , কখনও কখনও কারুকে বলছেন শুনেছি। ..... এক দিন ঐ আন্দুল স্কুল থেকে বেরিয়ে বহু রাত্রে , তখন আন্দুল মৌড়িও কিন্তু খুবই গ্রাম ছিল , একেবারে  বন-জঙ্গল, সরস্বতী নদী বয়ে গেছে , সরস্বতীর ধার দিয়ে আমরা স্কুল যেতুম -আসতুম , সেও মনে আছে। 

      তিনি কোথায় যেতে যেতে , যেতে যেতে কোন জায়গায় জানা যায় না, হঠাৎ একটি শব দেখতে পান , এক জায়গায় রয়েছে। শবের উপর বসে তিনি শব সাধনা সে রাত্রেই করেছিলেন এবং শব সাধনা করে তাঁর মনে হয়েছিল যে , এক্ষুনি গুরুর কাছে যেতে হবে, মানে তাঁর মাতৃদেবী কাছে , খড়দায়। কি করে গেসলেন -জানা যায় না। আন্দুল স্কুল থেকে বেরিয়ে তিনি হেঁটে খড়দায় গিয়ে হাজির হলেন এবং তাঁর মনে হচ্ছিল , " বাড়িতে ঢুকেই 'মা ' বলে একবার ডাকবো , আর মা যদি সঙ্গে সঙ্গে সাড়া না দেন বা না দেখা দেন , তাহলে এ শরীর আর থাকবে না , পড়ে যাবে। " 

বাড়িতে ঢুকতেই , এখনো যেমন আছে , সোজা ঢোকা যায় বটে , কিন্তু সামনেই একটা ছোট পাঁচিল মতন তোলা আছে , ভেতরটা সবটা (উঠোনটা) দেখা যায় না বাইরে থেকে। উনি ঢুকে বাইরের দরজা দিয়ে পুজোর দালান পেরিয়ে যখন ঢুকছেন , তখন একবার 'মা ' বলে ডাকলেন। একবার 'মা ' বলে ডাকতেই দেখলেন , মা দাঁড়িয়ে রয়েছেন , এবং একটি ডাব কাটা , মুখটা ঢাকা দিয়ে হাতে ধরে আছেন। বললেন , " না বাবা , এটা খা। " কি করে তাঁর শব সাধনা রাত্রে হল , মা কি করে জানলেন , কি করে খড়দায় হেঁটে গিয়ে হাজির হলেন , এবং মা বলে একবার ডাকলে না সাড়া দিলে শরীর পড়ে যাবে যেখানে ভাবছেন , মা কি করে একটি ডাব মুখটা পরিষ্কার করে ঢাকা দিয়ে দাঁড়িয়ে আছেন। যেই 'মা ' বললেন আর হাতে ডাবটি ধরিয়ে দিলেন - ভাবা যায় না , কিন্তু হল। (জীবন নদীর বাঁকে বাঁকে,'  পৃষ্ঠ -৩৬-৩৭)          

{भौतिक जगत के जिस ज्ञान को आजकल 'विज्ञान' (Physics) कहते हैं उसी को उपनिषद में अपरा विद्या के नाम से कहा गया है। अपरा विद्या जो निम्न केटि की विद्या मानी गई है, सगुण ज्ञान (इन्द्रियगोचर ज्ञान) से सम्बन्ध रखती है। इससे परम् सत्य (इन्द्रियातीत सत्य) या 'मोक्ष ' नहीं प्राप्त किया जा सकता। मोक्ष प्राप्त करने का एकमात्र साधन पराविद्या है। इसी को आत्मविद्या या ब्रह्मविद्या भी कहते हैं।

अपरा विद्या (Physics) के द्वारा भौतिकवाद (Materialism) का पूरा ज्ञान मिलता है।  भौतिकवाद का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किये बिना (अध्यात्म विद्या- Meta Physics) को जानना असम्भव है। अभ्युदय और भौतिकता, अविद्या (सकाम कर्म) के पर्याय हैं। इसी प्रकार निःश्रेयस और आध्यात्मिकता विद्या (निष्काम कर्म) के पर्याय हैं। जीवन की अविद्याग्रसत अवस्था से मुक्ति पाने के लिए एवं अपने स्वरुप (सिंह -शावक की अवस्था) का साक्षात्कार करने के लिए परा विद्या-शक्ति के दो अंग हैं। यदि अपरा विद्या (Physics-अभ्युदय) प्रथम सोपान है, तो परा विद्या (Metaphysics-निःश्रेयस) द्वितीय सोपान है। 

    साधन चतुष्टय से प्रारंभ करके, मुमुक्षु श्रवण, मनन एवं निधिध्यासन, इन त्रिविध मानसिक क्रियाओं का क्रमिक नियमन करता है। वह "तत्वमसि" वाक्य का श्रवण करने के बाद, मनन की प्रक्रिया से गुजरते हुए, ध्यान या समाधि अवस्था में प्रवेश कर जाता है, जहाँ उसे "मैं ही ब्रह्म हूँ" का बोध हो उठता है। यही ज्ञान परा विद्या कहलाता है। ईशोपनिषद् में उपलब्ध एक मंत्र का अंतिम वाक्यांश निम्नलिखित है :

विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह ।

अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते॥

इसका शाब्दिक अर्थ यह है- जो अविद्या (Physics-अभ्युदय ) और विद्या (Meta Physics-निःश्रेयस)  -इन दोनों को ही एक साथ जानता है, वह अविद्या से मृत्यु को पार करके विद्या से अमृतत्त्व (देवतात्मभाव = देवत्व) प्राप्त कर लेता है।

जीवन को सार्थक करने के लिए अपराविद्या और परा विद्या दोनों का सुसामांजस्य पूर्ण ज्ञान होना अनिवार्य है। इसीलिये गीता 2.41 में भगवान श्रीकृष्ण ने भी अर्जुन को निश्चय स्वभाव वाली व्यवसायात्मिका बुद्धि धारण करने के लिए कहा है - 'व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।' हे कुरुनन्दन ! हे अर्जुन , इस (निष्काम कर्म-Be and Make ) में निश्चयात्मक बुद्धि एक ही है, अज्ञानी पुरुषों की बुद्धियां (संकल्प) बहुत भेदों वाली और अनन्त होती हैं।

 [O scion (वंशज) of the Kuru dynasty, in this there is a single, one-pointed conviction. The thoughts of the irresolute ones have many branches indeed, and are innumerable.} 

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* काली ने ही कृष्ण का स्वरूप धारण किया हैं * 

 [श्रीरामकृष्ण वचनामृत (3 अगस्त, 1884) ] 

मणि - "देखिये महाराज मुझे एक प्रश्न पूछना है, शास्त्रों में 'अवतार ' के विषय में दो तरह से क्यों कहा गया है ? एक पुराण के मत में श्रीकृष्ण चिदात्मा हैं और श्रीराधा चित्शक्ति । एक दूसरे पुराण में श्रीकृष्ण को ही काली और आद्याशक्ति कहा है ।

{{M: Sir, I have a question to ask. There are two opinions in the scriptures. According to one Purana, Krishna is Chidatma, the Absolute, and Radha is Chitsakti, Its Divine Power; but according to another, Krishna Himself is Kali, the Primordial Energy.

"মণি — আজ্ঞা, শাস্ত্রে দুরকম বলেছে। এক পুরাণের মতে কৃষ্ণকে চিদাত্মা, রাধাকে চিচ্ছক্তি বলেছে। আর এক পুরাণে কৃষ্ণই কালী — আদ্যাশক্তি বলেছে।}

श्रीरामकृष्ण - देवी पुराण के मत से काली ने ही कृष्ण का स्वरूप धारण किया है ।

{"This second view is held in the Devi Purana. According to it, Kali Herself has become Krishna. But what difference does it make? God is infinite, and infinite are the ways to reach Him

."শ্রীরামকৃষ্ণ — দেবীপুরাণের মত। এ-মতে কালীই কৃষ্ণ হয়েছেন।}

“तो इससे क्या हुआ ? वे अनन्त हैं और उनके मार्ग भी अनन्त हैं ।”

ठाकुर के मुख से यह बात सुनकर मणि अवाक् हो गए और कुछ देर चुप रहे। फिर बोले -

मणि - अब मैं समझा, आप जैसा कहते हैं, छत पर चढ़ना ही इष्ट है, चाहे जिस तरह चढ़ सको - जीने से या बाँस लगाकर अथवा रस्सी पकड़कर ।

श्रीरामकृष्ण - यह जिसने समझा है, उस पर ईश्वर की दया है । ईश्वर की कृपा हुए बिना कभी संशय दूर नहीं होता ।

"बात यह है कि किसी तरह 'उन पर' (अवतार वरिष्ठ पर ) भक्ति होनी चाहिए, प्यार होना चाहिए। अनेक खबरों से काम क्या है ? एक रास्ते से चलते चलते अगर उन पर प्यार हो जाय तो काम बन गया । प्यार के होने से ही उन्हें आदमी पाता है। इसके बाद अगर जरूरत होगी तो वे समझा देंगे – सब रास्तों की खबर बतला देंगे । ईश्वर पर प्यार होने ही से काम हुआ - तरह तरह के विचारों की क्या आवश्यकता है ?

आम खाने के लिए आये हो आम खाओ, कितनी डालियाँ हैं, कितने पत्ते हैं, इन सब के हिसाब से क्या मतलब ? हनुमान का भाव चाहिए – 'मैं वार, तिथि, नक्षत्र, यह सब कुछ नहीं जानता, मैं तो बस श्रीरामचन्द्रजी का स्मरण किया करता हूँ ।"

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ऐसी ही एक अद्भुत घटना 'देवी पुराण के मत से काली ने ही कृष्ण का स्वरूप धारण किया है!' का उल्लेख करते हुए श्री नवनीदा ने अपनी आत्मकथा 'जीवन नदी के हर मोड़ पर' (के पृष्ठ -29,30) में लिखा है - 

" खड़दह  में पहले से ही शैव भाव, शाक्त भाव और तान्त्रिक भाव का ही यथेष्ट प्रभाव था। किन्तु नित्यानन्द के खड़दह में आने के बाद वहाँ पर वैष्णव भाव भी सम्मिलित हो गया।  इन सब के सम्बन्ध में अपने  पितामह से मैंने कितनी ही कहानियाँ  सुनी हैं। जब मैं बच्चा था तो पितामह मुझे बहुत से क़िस्से- कहानियाँ सुनाया करते थे, उन  कहानियों को सुनकर कभी कभी मन में उनपर अविश्वास भी उत्पन्न होता था। सोचता था, क्या ये सभी कहानियाँ सच्ची हैं ? उनमें से एक कहानी है --

           कृष्णनगर राजा के राज्य में एक अत्यन्त ही धार्मिक परिवार था। उसमें दो भाई अपने -अपने परिवार के साथ रहते थे तथा दोनों ही भले व्यक्ति थे। दोनों ईश्वर के बड़े भक्त थे तथा अपने-अपने इष्टदेव की पूजा अपने-अपने मन्दिरों में किया करते थे। उनमे से एक भाई वैष्णव था तो दूसरा भाई शाक्त था। 

          पहले के ज़माने में घर बनाने की एक शैली यह थी कि मुख्य प्रवेश द्वार से प्रवेश करते ही बीच में आंगन पड़ता था तथा दोनों और कमरे रहते थे। उसी प्रकार का घर इन दोनों भाइयों का भी था। एक भाई के घर में काली प्रतिष्ठित थीं तो दूसरे के घर में गोपाल प्रतिष्ठित थे। 

       संयोग से उनके आँगन में एक आम का एक पौधा उग आया, जब वह थोड़ा बड़ा हो गया उसमे ढेर सारे मंजर लगे। किन्तु, सारे के सारे मंजर झड़ गए केवल एक ही आम का टिकोला बचा। धीरे-धीरे वह टिकोला बड़ा होने लगा। प्रतिदिन सुबह दोनों भाई देखा करते थे कि आम कितना बड़ा हुआ। इधर , बड़ा भाई सोचता है जब आम बड़ा हो जायेगा,पक जायेगा तो इसे तोड़ कर माँ  को खिलाऊँगा। उधर छोटा भाई सोचता है कि इसे गोपाल को खिलाऊँगा।  

    रोज प्रातः काल उठने के बाद दोनों कि नजर आम पर ही रहती थी। एक दिन सुबह में उठ कर दोनों भाइयों ने देखा कि आम तो है ही नहीं। कहाँ गया आम ? क्या हुआ ? दोनों का मन  खिन्न हो गया। बड़ा भाई पछताता कि माँ को नहीं खिला सका, छोटा सोचता गोपाल को न खिला सका। फिर काफी उधेड़-बुन के बाद दोनों एक दूसरे से पूछते हैं- क्या तूने आम को देखा है? फिर दोनों ही जवाब देते हैं नहीं, मैंने तो नहीं देखा। 

     तब बड़े भाई ने कहा चलो तो जरा पूजा के कमरे में चलकर देखते हैं। जब दोनों पूजा के कमरे में पहुँचते हैं तो वहाँ का दृश्य देखकर अवाक् रह जाते हैं ! माँ काली, स्वयं अपनी गोद में बिठाकर गोपाल को वह आम खिला रही हैं। अद्भुत घटना है। जब मैंने बचपन यह घटना सुनी तो लगा कि मुझे बहलाने के लिये पितामह ने यह मनगढ़न्त कहानी सुनाई होगी। 

     किन्तु बड़ा होने पर इसी ऐतिहासिक घटना का वर्णन मैंने बंगला विश्वकोष में भी पढ़ा। पहले मेरे मन में संदेह होता था कि बड़े-बुजुर्ग तो अक्सर कथा कहानियाँ सुनाते ही रहते हैं।  जैसे वे यह भी कहा करते थे कि प्रभु ईशा मसीह भारतवर्ष में आये थे। अब यह सच है या नहीं, प्रमाण के साथ नहीं कहा जा सकता। किन्तु उनके द्वारा कथित इस घटना का उल्लेख भी मैंने बाद कहीं न कहीं पढ़ा या सुना अवश्य ही है। 

      बहरहाल सच चाहे जो भी हो मेरे पितामह और उनके बड़े भाई अक्सर आपसी बातचीत के क्रम में कहते थे तंत्रशास्त्रमें कहा गया है -" कलौ काली कलौ कृष्णः कलौ गोपाल कालिका" कलिकाल (कलयुग)  में काली हैं, कलिकाल में गोपाल हैं, और फिर कलिकाल में अर्थात कलयुग में गोपाल-काली दोनों अभिन्न भी हैं!

      पितामह के अग्रज (यतीश चन्द्र ) भी वैसे ही थे, वे संस्कृत के उद्भट विद्वान् थे- उनको ' विद्यार्नव' की उपाधि भी मिली हुई थी।  एक दिन पितामह के मुख से यह श्लोक सुन कर उनके बड़े भाई कहते हैं, यहाँ 'गोपालकालीका' का प्रयोग उचित नहीं लगता, क्योंकि गोपाल और काली  दो हैं, इसीलिये द्विवचन होगा तथा व्याकरण की दृष्टि से 'गोपाल कालिके ' होना चाहिए। 

     इसपर छोटे भाई कहते हैं - " ना, ता हबे ना, दादा; गोपाल आर काली एखाने तो आलादा नन, काजेई द्विवचन ना हये एकवचनई भाल।" - नहीं, भैया वैसा क्यों होगा ? क्योंकि यहाँ पर तो गोपाल और काली भिन्न नहीं हैं इसलिए , यहाँ द्विवचन न होकर एकवचन का ही प्रयोग करना उचित होगा। " 

" শৈব ভাব আর শক্তি ভাব , তান্ত্রিক ভাব এটা খড়দায় যথেষ্ট ছিল। নিত্যানন্দ খড়দায় বৈষ্ণব ভাবও মিলিত হল। এইগুলো নিয়ে ছেলেবেলায় পিতামহের কাছে গল্প শুনেছি। ছেলেবেলায় যে সব শুনতুম মাঝে মাঝে অবিশ্বাস হোত। মনে হত এইসব বলছেন , এই গল্প কি সত্যি হয়?

 কৃষ্ণনগরের যে রাজা ছিলেন তাঁর ওখানে একটি পরিবারে দুই ভাই খুবই ভালো। তারা দু'জনেই কিন্তু খুব ভক্ত এবং যার যার মন্দিরে পূজা করেন। কিন্তু এক জন বৈষ্ণব , একজন শাক্ত। 

আগেকার দিনে যেমন হোত , মাঝখানে উঠান , এদিকে ঘর , ঐদিকে ঘর - এরকম ভাবে দুটি ঘরে দুই ভাই থাকতেন। তা একজনের ঘরে কালী প্রতিষ্ঠিত , একজনের ঘরে গোপাল প্রতিষ্ঠিত। তাঁদের উঠোনটাতে মাটিতে একটি আমগাছ হয়েছে। আমগাছটি একটু বড় হয়েছে। একবার সেখানে একটি আম শেষ অবধি রয়েছে। বড় ভাই ভাবেন আমটি আর একটু বড় হলেই , একটু পাক ধরলেই , তুলে মাকে দেব। আর ছোট ভাই ভাবেন , আমটি আর একটু বড় হলে পাক ধরলেই গোপালকে দেব।  

রোজই দেখেন। একদিন সকালে উঠে দুজনেই দেখেন আমটা নেই। দুই ভায়ের খুব মন খারাপ, আমটা কি হল ! এ বলে মাকে দেওয়া হল না , ও বলে গোপালকে দেওয়া হল না। তখন দুজনেই বলেন , হ্যাঁ রে দেখেছিস , দুজনেই বলেন , না দেখিনি। তখন বড় ভাই বললেন , চল তো ঠাকুর ঘরে গিয়ে দেখি। ঠাকুর ঘরে গিয়ে দেখলেন , মা কালী গোপালকে কোলে নিয়ে সে আমটি খাওয়াচ্ছেন।   

ভেবেছিলাম গল্প বানিয়ে বলছেন। বাংলা " বিশ্বকোষে " এই কাহিনীটি আছে , পরে পড়েছি। আমি এইরকম আরো মিলিয়ে মিলিয়ে দেখেছি। আমার এরকম সন্দেহ হত যে , ওঁরা বলেন নানান রকম। যেমন ঐ যীশু খ্রীষ্টের ভারতবর্ষ আসা সম্বন্ধে। যাই হোক , এই যে পিতামহ এবং তাঁর জ্যেষ্ঠ দু'ভাই কথা বলতে বলতে বলছেন --পিতামহ বলছেন , " কলৌ কালী কলৌ  কৃষণঃ কলৌ গোপাল কালিকা। " কলিকালে কালী আছেন , কলিকালে গোপাল আছেন আর কলিকালে গোপাল-কালী একও আছেন। পিতামহের অগ্রজ বলছেন , তিনিও তো ঐ রকম (যতীশ চন্দ্র) বিদ্যাৰ্ণৱ তাঁর উপাধি। তিনিও সংস্কৃত পন্ডিত। তা উনি বলছেন , বড় ভাই বলছেন , " গোপালকালিকা তো হওয়া উচিত নয়। 'গোপালকলিকে ' হবে , দ্বিবচন হবে ; গোপাল আর কালী দুই তো। " তখন ছোট ভাই বলছেন " না , তা হবে না , দাদা ; গোপাল আর কালী এখানে তো আলাদা নন , কাজেই দ্বিবচন না হয়ে একবচনই ভাল। " - (জীবন নদীর বাঁকে বাঁকে - পেজ -২২-২৩ )   

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[परिच्छेद 52 , श्रीरामकृष्ण वचनामृत ( 9 सितंबर,1883)]  

 *स्त्रियों के प्रति मनोभाव*  

(तान्त्रिक साधना और श्रीरामकृष्ण का सन्तान-भाव) 

 आज रविवार है,भादो की शुक्ला सप्तमी, बातचीत हो रही है, इसी समय कुछ बंगाली सज्जन कमरे में आए और श्रीरामकृष्ण को प्रणाम करके उन्होंने आसन ग्रहण किया । उनमें एक व्यक्ति श्रीरामकृष्ण के पहले के परिचित हैं । ये लोग तन्त्र के मत से साधना करते हैं – पंच-मकार साधन। श्रीरामकृष्ण अन्तर्यामी हैं, उनका सम्पूर्ण भाव समझ गए । उनमें एक आदमी धर्म के नाम से पापाचरण भी करता है, यह बात श्रीरामकृष्ण सुन चुके हैं । उसने किसी बड़े आदमी के भाई की विधवा के साथ अवैध प्रेम कर लिया है और धर्म का नाम लेकर उसके साथ पंच-मकार की साधना करता है, यह भी श्रीरामकृष्ण सुन चुके हैं ।

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - अचलानन्द कहाँ है ? उस दिन कालीकिंकर आया था – और एक जन था। (मास्टर आदि से) अचलानन्द और उसके शिष्यों का और ही भाव (वीरभाव) है । मेरा सन्तान-भाव है । आए हुए बाबू लोग चुपचाप बैठे हुए हैं, कुछ बोलते नहीं ।

श्रीरामकृष्ण-मेरा सन्तान-भाव है । अचलानन्द यहाँ आकर कभी कभी रहता था । खूब शराब पीता था । मेरा सन्तान-भाव है, यह सुनकर अन्त में उसने हठ पकड़ा । कहने लगा- ‘स्त्री को लेकर वीरभाव की साधना तुम क्यों नहीं मानोगे ? शिव की रेख भी नहीं मानोगे ? स्वयं शिवजी ने तन्त्र लिखा है । उसमें सब भावों की साधना है, वीरभाव की भी है ।’

मैंने कहा, ‘मैं क्या जानूँ जी ! मुझे वह सब अच्छा नहीं लगता – मेरा सन्तान-भाव है ।’ आगन्तुक सज्जन चुप हैं, कुछ बात नहीं निकल ही है ।

“अचलानन्द **अपने बच्चों की खबर नहीं लेता था । मुझसे कहता था, ‘बच्चों को ईश्वर देखेंगे – यह सब ईश्वर की इच्छा है ।’ मैं सुनकर चुप हो जाता था । बात यह है कि लड़कों की देखरेख कौन करे ? लड़के-बाले, घर-द्वार सब छोड़ दिया यह कहीं रुपये कमाने का साधन नहीं बन बैठे, क्योंकि, लोग सोचेंगे, इसने तो सब कुछ त्याग कर दिया है, और इस तरह बहुतसा धन देने लगेंगे।

“मुकदमा जीतूँगा, खूब धन होगा, मुकदमा जिता दूँगा, जायदाद दिला दूँगा, क्या इसीलिए साधना है ? ये सब बड़ी ही नीच प्रकृति की बातें हैं ।’ 

“रुपये से भोजन-पान होता है, रहने की जगह होती है, देवताओं की सेवा होती है, साधुओं का सत्कार होता है, सामने कोई गरीब आ गया तो उसका उपकार हो जाता है, ये सब रुपये के सदुपयोग हैं । रुपये ऐश्वर्य का भोग करने के लिए नहीं हैं, न देहसुख के लिए हैं, न लोकसम्मान के लिए ।

“विभूतियों के लिए लोग तन्त्र के मत्त से पंच-मकार की साधना करते हैं । परन्तु उनकी बुद्धि कितनी हीन है ! कृष्ण ने अर्जुन से कहा है – भाई ! अष्टसिद्धियों में किसी एक के रहने पर तुम्हारी शक्ति तो थोड़ी बढ़ सकती है, परन्तु तुम मुझे न पाओगे । विभूति के रहते माया दूर नहीं होती । माया से फिर अहंकार होता है । कैसी हीन बुद्धि है, घृणास्पद स्थान से तीन घूँट कारणवारि (शराब) पीकर लाभ क्या हुआ? – मुकदमा जीतना ।”

 "कृष्ण के विरह से विकल होकर यशोदा राधिका के पास गयी । उनका कष्ट देखकर राधिका उनसे अपने स्वरूप में मिली और कहा, 'श्रीकृष्ण चिदात्मा हैं और मैं चित्शक्ति । माँ, तुम मेरे पास वर माँगो ।' यशोदा ने कहा, 'माँ ! मुझे ब्रह्मज्ञान नहीं चाहिए, बस यही वरदान दो कि गोपाल के रूप के सदा दर्शन होते रहें, कृष्ण भक्तों का सदा संग मिलता रहे । भक्तों की मैं सेवा करूँ और उनके नाम-गुणों का कीर्तन करूँ ।'}

[अचलानन्द तीर्थावधुत ** वीर भाव के तान्त्रिक साधक थे । उनका नाम पहले  रामकुमार, दूसरे मतानुसार - राजकुमार था। उनका घर  हुगली जिले के कोतरंग में था । ठाकुर से उनकी पहली मुलाकात दक्षिणेश्वर में हुई थी। कभी-कभी वह दक्षिणेश्वर में आकर रहते थे; और पंचवटी में अपने शिष्यों के साथ कभी-कभी साधना में भी बैठते थे। वे करणवारी का पान करके स्त्रियों के साथ वीरभाव की साधना करते थे। इस वीरभाव की साधना को लेकर  ठाकुर के साथ उनकी बहस हुआ करती थी। ठाकुर उनके वीरभाव की साधना का समर्थन नहीं करते थे।  ठाकुर कहते थे - उनके लिए सभी स्त्रियाँ माँ जगदम्बा के विभिन्न रूप हैं। अचलानंद शादीशुदा थे - पत्नी का एक बेटा था, लेकिन वे उनका कोई ध्यान नहीं रखते थे। वे कहा करते  - भगवान उनको देखेंगे। किन्तु वे नाम- यश और धन (लोकेषणा और वित्तेषणा ) के प्रति आसक्त थे। कालीकिंकर भी - एक तांत्रिक साधक थे ।

 অচলানন্দ তীর্থাবধূত — তান্ত্রিক বীরভাবের সাধক। পূর্বনাম রামকুমার, মতান্তরে — রাজকুমার। বাড়ি হুগলী জেলার কোতরং। ঠাকুরের সহিত তাঁহার প্রথম সাক্ষাৎ দক্ষিণেশ্বরে। মাঝে মাঝে তিনি দক্ষিণেশ্বরে আসিয়া বাস করিতেন। কখনো কখনো সশিষ্য পঞ্চবটীতে সাধনায় বসিতেন। কারণবারি পান করিয়া স্ত্রীলোকসহ বীরভাবের সাধনা করিতেন। এই বীরভাবের সাধনা বিষয়ে ঠাকুরের সহিত তাঁহার বিতর্ক হইত। ঠাকুর তাঁহার বীরভাবের সাধনা সমর্থন করিতেন না। ঠাকুর বলিতেন — সব স্ত্রীলোক-ই তাঁহার নিকট মায়ের বিভিন্ন রূপ। অচলানন্দ বিবাহ করিয়াছিলেন — স্ত্রী পুত্র ছিল, কিন্তু তাহাদের খবর রাখিতেন না। বলিতেন — ঈশ্বর দেখিবেন। কিন্তু নাম, যশ, অর্থের প্রতি তাঁহার আকর্ষণ ছিল।साभार/https://www.ramakrishnavivekananda.info/kathamrita/unicodekathamrita/63_a_people_1202_1276.html]

* काली ने ही कृष्ण का (श्रीरामकृष्ण का) स्वरूप  धारण किया हैं* 

  श्रीनवनीदा अपनी आत्मकथा 'जीवन नदी के हर मोड़ पर' में अपने घर में में आयोजित होने वाली कालीपूजा का उल्लेख करते हुए लिखते हैं - "  हमारे यहाँ या दक्षिणेश्वर कालीमन्दिर में , सभी जगह वर्ष में तीन बार विशेष कालीपूजा का अनुष्ठान होता है। ज्येष्ठ महीने में जो विशेष पूजा होती है , उसको 'फलहरिणी कालीपूजा ' कहते हैं , कार्तिक महीने में जो पूजा होती है उसे 'दीपान्विता कालीपूजा ' कहते हैं ; जिसमें आलोक सज्जा  (दीपक का प्रकाश ) आदि की जाती है तथा हमारे घर में माघ के महीने में बहुत दिनों से 'रटन्ती काली पूजा ** ' होती आ रही है। { इस दिन देवी काली को दयालु माता के रूप में पूजा जाता है। रटन्ती का अर्थ है प्रिय। यह दिव्य ('सन्तान भाव') भक्तों के लिए एक विशेष अवसर माना जाता है। } इस पूजा को पहले ज्येष्ठ पितामह करते थे , फिर पितामह ने किया।  उसके बाद जब पितामह की आयु बहुत अधिक हो गयी तो यह पूजा मुझे करनी पड़ी।  ( पेज 36 ) .....       

                "दूसरी घटना जो याद आती है, वह है घर में होने वाले पूजा-पाठ में भाग लेना तथा समूचे कार्यक्रम को ध्यान पूर्वक देखना - सुनना  मुझे बहुत पसन्द था। पूजा घर में पितामह जिस चौकी पर माँ काली की पूजा करते थे, उसी चौकी के एक छोर पर गोपाल की मूर्ति भी रखी  हुई है। ये वही गोपाल हैं जो एक साधु की छाती से बन्धे हुए पूरे भारतवर्ष का भ्रमण कर लिया है, और जिसे वे साधु बाद में मेरी प्रमातामही (पितामह की माँ)  को सौंप  कर चले गये थे! अपने पितामह को कालीपूजा करते देख कर मुझमे इन्ही ' गोपाल ' के प्रति झुकाव उत्पन्न हो गया था। पितामह जब काली-पूजा कर रहे होते तो मैं जिद पकड़ लेता कि मैं भी गोपाल की पूजा करूँगा! और मैं इस बात के लिये भी जिद करता था कि, माँ काली के लिये जो  भोग बनेगा,  वैसा ही गोपाल लिये भी बनाकर देना होगा !

माँ काली की पूजा के बीच में पितामह कुछ देर तक 'चण्डी पाठ' ( दुर्गा सप्तशती या देवीमाहात्म्य का पाठ ) भी किया करते थे। मेरे पास भी अपनी एक  छोटी- सी 'चण्डी ' थी जो मात्र  दो इंच चौड़ी थी,  मैं गोपाल के सामने उसी चंडी का पाठ किया करता था। पितामह , माँ काली के सामने बैठ कर चंडी का पाठ करते थे , और मैं गोपाल के सामने बैठकर चंडी का पाठ करता था।   जितना और जो कुछ भोग माँ काली के लिये बनेगा, उतना ही भोग गोपाल को भी देना होगा, यही मेरी जिद थी।  

हमलोगों के घर में ऐसी प्रथा थी कि काली पूजा में केवल घर के लोग ही  शामिल होते थे, उसमें बाहर के लोग उपस्थित नहीं रहते थे, और जितना भी भोग बनता था, वह समस्त भोग ही भगवान को निवेदित कर दिया जाता था। जिस प्रकार परात में या थाली में सजाकर भोग दिया जाता है, वैसी प्रथा हमारे यहाँ नहीं थी।  

हमारे यहाँ की परम्परा के अनुसार जिस पीतल की हाँडी में खिचड़ी बनाता था , उसे पूरा का पूरा दो आदमी उठाकर पूजाघर में रख आते थे।  पूरियाँ छान ली जातीं , तो समस्त पूरियों को एक बेंत की बड़ी सी टोकरी में भर कर भगवान के सामने रख दिया जाता था। अन्य कोई  पकवान जैसे सब्जी-भाजी य़ा पायस (खीर) जो कुछ भी भोग बनाया जाता था, वह पूरा का पूरा  ही  भगवान को अर्पित कर दिया जाता था। 

और मेरी जिद के अनुसार, निकट में ही स्थापित गोपाल के लिये भी एक छोटी सी हाँडी में खिचड़ी, एक छोटी सी कटोरी में पायस, छोटी सी तस्तरी में अन्य सब्जी- भाजी, छोटी सी एक बेंत की टोकरी में पूड़ियाँ- ये सब कुछ रखना ही पड़ता था। 

एक बार काली पूजा के समय गोपाल को- बेंत की  छोटी टोकरी में भरकर पूरियाँ नहीं दी गईं।  मैंने माँ से पूछा- ' गोपाल की पूड़ियाँ कहाँ हैं?' - शायद उस समय नजदीक में कोई टोकरी नहीं होगी , य़ा शायद उसमे अन्य कोई सामग्री भर कर रख दी गयी हो। इसलिए  मुझे बहलाने के लिये माँ ने कहा तुम वह सब मत सोंचो, गोपाल स्वयं माँ काली की टोकरी से पूड़ी निकाल कर खा लेंगे।" मै यह सुनकर संतुष्ट हो गया।  

रात्रि में पूजा हुई| पूजा के बाद घर के सभी सदस्यों ने प्रसाद ग्रहण किया और सोने चले गये। माँ काली के पूजा के कमरे के सामने वाले एक कमरे में ही पितामह रहा करते थे।  प्रातः काल नींद से उठते ही वे पूजा के कमरे का दरवाजा खोल देते, तथा भगवान  के कमरे में जा कर प्रणाम करने के पश्चात  ही कहीं जाते थे ।

 पूजा  पूजा के बाद, जब हम लोग उनको प्रणाम करते, तब वे हम लोगों के पीठ पर हाथ रख कर प्रेम-जतलाते हुए स्पर्श करते थे, य़ा जब  बहुत छोटे थे तो वे हमें  गोद में बिठा  लेते थे। हम लोग उनके इसी स्नेहिल- स्पर्श,  प्रेम पूर्ण स्पर्श प्राप्त करने की प्रतीक्षा में रहते थे। बहरहाल  वह पूजा का दिन हम लोगों  के लिये बड़े आनन्द का दिन होता था।

अगली सुबह जब पूजा घर का दरवाजा खोला गया तो वहाँ का  दृश्य देखकर सभी  आश्चर्य चकित रह गये।  आश्चर्य से स्तंभित हो कर, पितामह ने  वहीं से खड़े खड़े  माँ को आवाज दी  - " बोउमा, एइदिके एशो , देखे जाउ ! " 

वहाँ जाने पर देखा गया कि, जिस बड़ी टोकरी में माँ काली को भोग दिया गया था , उसमें से घर के सदस्यों को खिलाने के लिए थोड़ा-थोड़ा प्रसाद निकाल लिया गया था और शेष को वहीँ वैसा ही छोड़ दिया गया था ,  यही हमारे घर की रीति थी।  

किन्तु उस दिन वहाँ जाने पर देखा गया कि माँ काली की उतनी बड़ी बेंत की टोकरी में जितनी भी पूड़ियाँ कल  बची हुई थीं, वे सब की सब लगभग समाप्त हो गयीं थीं, और उस टोकरी में पूड़ी के एक-आध टुकड़े ही पड़े हुए हैं।  और पूड़ियों के छोटे-छोटे टुकड़े उस टोकरी से शुरू होकर गोपाल की चौकी तक कतार में बिछे हुए थे!

माँ जाकर देखी, तो आश्चर्य से आवाक रह गयीं! हम सभी  को पुकारा ।  हम सब ने  भी पूजा के कमरे में जो दृश्य देखा  तो उसे देखकर  चकित रह  गये! यह अघटन  मैंने अपनी आँखों से घटते  देखा है, इसीलिये इसको तो मैं अस्वीकार नहीं कर सकता!  इसीलिये कहना पड़ता है - " आज भी अघटन घटित होता है !! "   (पृष्ठ (69 -70) 

" অন্য যা মনে পড়ে , বাড়িতে যে সব পুজো -টুজো হোত সে সব দেখা , সে সব শোনা। যখন পিতামহ কালীপুজো করতেন তখন আমার ঝোঁক ছিল , কালী পূজার ওখানে , যে গোপাল আছেন , যিনি সাধুরে বুকে বাঁধা ছিলেন , ভারতবর্ষ ঘুরে এসেছিলেন , সেই গোপালও ছিলেন সেই চৌকির একপাশে। আমি তখন বায়না ধরতুম , পিতামহ কালীপূজা করলে , আমি গোপালের পুজো করবো। আরও বায়না ছিল মা কালীকে যেমন যেমন ভোগ দেওয়া হবে গোপালকেও তেমন তেমন দিতে হবে। 

পিতামহ মা কালীর পুজোর সময় মাঝখানে চণ্ডীপাঠ খানিকক্ষন করতেন। আমার কাছেও একটা ছোট চণ্ডী , দু ইঞ্চি চওড়া চণ্ডী - আমি গোপালের কাছে সেই চণ্ডী পাঠ করতুম। পিতামহ চণ্ডীপাঠ করতেন মা কালীর কাছে , আমি গোপালের কাছে। 

যেমন ভোগ দেওয়া হত মা কালীকে তেমন গোপালকে ভোগ দিতে হবে। আমাদের বাড়ীতে রীতিই ছিল , আমাদের তো ঐ কালী পূজার সময় অন্য বহিরাগত ব্যক্তিরা প্রায় থাকতেন না কখনই , বাড়ীর লোকেরাই থাকতেন । যা ভোগ রান্না হোত সমস্ত ভোগটা নিবেদন হয়ে যেত। ঐ থালায় করে ভোগ সাজিয়ে নয়। এত বড় পেতলের হাঁড়িতে খিচুড়ি হল , সেই সমস্ত হাঁড়িটা দুজনে নিয়ে গিয়ে রাখা হল। লুচি ভাজা হল , বেতের এক বড় ধামায় ভর্তি করে লুচি রাখা হল। অন্য যা তরকারি হল , পায়েস ইত্যাদি সমস্ত যতটা রান্না হয়েছে সমস্তটাই ঠাকুরকে দেওয়া হত। আমার বায়না অনুসারে পাশে গোপালের জন্য ছোট একটা হাঁড়িতে খিচুড়ি , ছোট একটা জায়গাতে অন্য তরকারি , ছোট একটি চুবড়িতে লুচি -এসব দিতে হবে। একবার কালী পুজোর সময় গোপালের চুবড়িতে করে লুচীটা দেওয়া হয় নি। মাকে বললুম , গোপালের লুচি কোথায় ? মা বললেন , চুবড়ি বোধ হয় তখন একটা পায় নি হাতের মাথায় হয়তো অন্য কোন জোগাড়ে ভর্তি ছিল ; মা ভোলাবার জন্য বললেন , " তুমি ওটা ভেবো না , গোপাল ঐ মা কালীর ঝুড়ি থেকে খেয়ে নেবেন। " তা আমি সন্তুষ্ট হলুম।  

রাত্রে পুজো হল। পুজোর পরে সকলে প্রসাদ পেয়েছে , শুয়ে পড়েছে। পিতামহ থাকতেন মা কালীর ঘরের সামনেই একটি ঘরে। সকালবেলা ঘুম থেকে ওঠেই ঠাকুর ঘরের শিকল খুলতেন। খুলে ঠাকুর ঘরে প্রণাম করে তারপর যেতেন। আর সেই দিন আমাদের আনন্দের ছিল। পুজোর পরে তাঁকে প্রণাম করতুম এবং আমাদের একটু গায়ে হাত দিয়ে আদর করতেন বা কখনও কখনও খুব ছোট অবস্থায় কোলে নিতেন। সেই একবার স্পর্শ , শরীরের স্পর্শ। সেই প্রতীক্ষায় আমরা থাকতাম। সকালবেলা দরজা খুলে তিনি যা দেখলেন ঠাকুর ঘরে , দেখে বিস্মিত হয়ে গেলেন। বিস্মিত হয়ে স্তম্ভিত হয়ে দাঁড়িয়ে থেকে মাকে ডাকলেন। 'বৌমা , এদিকে এসো , দেখে যাও। '  

গিয়ে দেখা গেল , মা কালীর এত বড় ঝুড়ি , তা থেকে বাড়ীর লোককে দেবার জন্য খিচুড়ি -টিচুড়ি সবই একটু একটু তুলে নেওয়া হয়েছে। বাকীটা সব যেমন দেওয়া ছিল তেমনই থাকত, রীতিই তাই ছিল। গিয়ে দেখা গেল , মা কালীর এত বড় বেতের ঝুড়িতে যে লুচি ছিল প্রায় সব শেষ , এক-আধখানা লুচির টুকরো পড়ে আছে। আর লুচির টুকরো সেই ঝুড়ি থেকে গোপালের চৌকি পর্যন্ত ছড়িয়ে আছে। মা গিয়ে দেখে স্তম্ভিত। আমাদের সব ডাকল। আমরা গিয়ে দেখে অবাক হয়ে গেলুম। এ তো চোখে দেখেছি , অস্বীকার তো করতে পারি না। কাজেই বলতে হয় - " অঘটন আজও ঘটে। " (জীবন নদীর বাঁকে বাঁকে - পেজ -৪৭-৪৮)   

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आद्यशक्ति (दैवी माया) के भीतर विद्या और अविद्या दोनों है  :   उपनिषदों में माया को ब्रह्म की शक्ति के रूप में चित्रित किया गया है। अविद्या शब्द का प्रयोग माया के अर्थ में होता है। भ्रम एवं अज्ञान भी इसके पर्याय है। यह चेतनता की स्थिति तो हो सकती है, लेकिन इसमें जिस वस्तु का ज्ञान होता है, वह मिथ्या होती है। अविद्या के कारण ही हम एक अद्वैत ब्रह्म के स्थान पर नाम-रूप से परिपूर्ण जगत् का दर्शन करते हैं। शुक्ति में रजत का आभास या रस्सी में साँप का भ्रम उत्पन्न होने पर हम अधिष्ठान के मूल रूप का नहीं देख पाते। भारतीय धर्मों में 'अविद्या' का अर्थ है- अज्ञान, गलत धारणा। 

 माया की  दो शक्तियां हैं - आवरण और विक्षेप।   वह अधिष्ठान के वास्तविक रूप को ढँक देती है। द्वितीय, विक्षेप कर देती है, अर्थात् उसपर दूसरी वस्तु का आरोप कर देती है। इसीलिए अविद्या को "भावरूप" कहा गया है, क्योंकि वह अपनी विक्षेप शक्ति के कारण अद्वैत ब्रह्म के स्थान पर नानात्व को आभासित करती है। यदि माया सर्वदेशीय भ्रम का कारण है तो अविद्या व्यक्तिगत भ्रम का करण है। दूसरे शब्दों में समष्टि रूप में अविद्या,  माया है और  व्यष्टि रूप में माया 'अविद्या ' है।

 अविद्या ही बंधन का कारण है, क्योंकि इसी के प्रभाव से अहंकार की उत्पत्ति होती है। ​इसी प्रकार माया या अविद्या आत्मा में अनात्म वस्तु का आरोप करती है।  संसार के सारा आचार व्यवहार एवं संबंध अविद्याग्रस्त संसार में ही संभव है। अत: संसार व्यवहार रूप से ही सत्य है, परमार्थत: वह मिथ्या है, माया है। अनिर्वचनीय ख्याति के अनुसार अविद्या न तो सत् है और न असत्। वह सद्सद्विलक्षण है। अविद्या को अनादि तत्व माना गया है। 

 असांसारिक जीव अहंकार रूपी अविद्या से ग्रस्त होने के कारण जगत् को सत्य मान लेता है और अपने वास्तविक रूप, ब्रह्म या आत्मा का अनुभव नहीं कर पाता। एक सत्य को अनेक रूपों में देखना एवं मैं, तू, तेरा, मेरा, यह, वह, इत्यादि का भ्रम उसे अविद्या के कारण होता है। 

वास्तविकता एवं भ्रम को ठीक ठीक जानना, वेदान्त में ज्ञान कहा गया है। फलत: ब्रह्म और अविद्या का ज्ञान ही विद्या कहा जाता है। अद्वैत वेदान्त में ज्ञान ही मोक्ष का साधन माना गया है, अतएव विद्या इस साधन का एक अनिवार्य अंग है। विद्या का मूल अर्थ है, सत्य का ज्ञान, परमार्थ तत्व का ज्ञान या आत्मज्ञान।  वेदांत में परमार्थ तत्व या सत्य मात्र ब्रह्म को स्वीकार किया गया है। ब्रह्म एव आत्मा में कोई अंतर नहीं है। यह आत्मा ही ब्रह्म है। अस्तु, विद्या को विशिष्ट रूप से आत्मविद्या या ब्रह्मविद्या भी कह सकते हैं

मुण्डक उपनिषद में कथा आती है कि शौनक ने जब अंगिरस ऋषि से पूछा, – "कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति" (महोदय, वह क्या है जिसके विज्ञात होने पर सब कुछ विज्ञात हो जाता है?), तो उन्होने उत्तर दिया- " द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद्ब्रह्मविदो वदन्ति परा चैवापरा च ।" ॥ १।१।४॥ तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति अथ परा यया तदक्षरमधिग्म्यते॥१।१।५ ॥

 {*Physics and Meta Physics : अपरा विद्या और परा विद्या (अध्यात्म विद्या) Apara Vidya and Para Vidya (Spiritual Science)*/ मुण्डक उपनिषद (1/1/4) के अनुसार विद्या दो प्रकार की होती है-(1) परा विद्या (श्रेष्ठ ज्ञान, Metaphysics) जिसके द्वारा अविनाशी ब्रह्मतत्व का ज्ञान प्राप्त होता है (सा परा, यदा तदक्षरमधिगम्यते),(2) अपरा विद्या (निम्न श्रेणी का ज्ञान, (Physics) के अंतर्गत वेद तथा वेदांगों के ज्ञान की गणना की जाती है। द्वे विद्ये वेदितव्ये -दो प्रकार की विद्याएँ होतीं हैं जिन्हें ब्रह्मविदों ने बताया है, परा विद्या और दूसरी विद्या अपरा विद्या (Physics) है अपरा विद्या के द्वारा अपरा प्रकृति (Nature) का पूर्ण रहस्यमय ज्ञान प्राप्त होता है। अपरा प्रकृति को ही भौतिक प्रकृति (Material Nature) कहा जाता है। प्रकृति (Nature) का सम्पूर्ण रहस्य जाने बिना 'परा प्रकृति' (Superior Nature) और 'परब्रह्म' को जानना असम्भव है। अपरा विद्या (Physics) में अपरा प्रकृति (Nature) का वर्णन, बिन्दु विस्फोट सिद्धांत (Big Bang Theory), कृष्ण विवर सिद्धान्त(Black Hole Theory), गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त(Theory of gravity), सृष्टि तथा प्रलय(Creation and Destruction), प्रकृति के द्वारा सृष्टि वर्णन (Creation from Nature),  प्रकृति के तीन गुण सत्त्व-रज-तम की सृष्टि, काल (समय)-कर्म-स्वभाव की सृष्टि महत्तत्व (cosmic intellect), अहंकार (cosmic ego), मन (cosmic mind), इन्द्रियाँ (senses), पंच तन्मात्रा (five subtle elements), पाँच महाभूत (five gross elements) पृथ्वी-जल-अग्नि-वायु- आकाश की सृष्टि, प्रकृति के सभी तत्त्वों द्वारा विराट ब्रह्माण्ड (Universe) की सृष्टि का विस्तार से वर्णन है।  अंतरिक्ष, चौदह लोक, ध्रुव तारा (Pole Star), सप्तर्षि मण्डल, शिशुमार चक्र(Spiral galaxy), परमेष्ठी मण्डल आकाश गंगा (Milky Way), सभी नक्षत्र (constelletions),  सूर्यलोक, चन्द्रलोक, सभी ग्रहों (Planets), सौर मण्डल (solar system), खगोल एवं भूगोल, पृथ्वीलोक का विस्तार से वर्णन किया हुआ है॥ अपरा विद्या के लिये ज्ञान के अनेक ग्रंथ हैं, जैसे चारों वेद - ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद, छ: वेदांग, पुराण,व्याकरणं, निरुक्तं, छन्द, ज्योतिष दर्शन आदि - ये अपरा विद्या हैं। [साभार  Sharad Upadhyay /http://sharadvedanta.blogspot.com/2018/08/blog-post.html]}

और परा विद्या (Metaphysics) वह है जिसके द्वारा वह 'अक्षर' (नष्ट न होने वाला) जाना जाता है।  परा विद्या से तात्पर्य स्वयं को जानने (आत्मज्ञान) या परम सत्य को जानने से है। उपनिषदों में इसे उच्चतर स्थान दिया गया है। वेदान्त कहता है कि जो आत्मज्ञान पा लेते हैं  वे मुक्त  हो जाते हैं और ब्रह्म पद को प्राप्त होते हैं। वेदान्त साधना करते हुए निर्विकल्प समाधि के द्वारा परब्रह्म एवम् परा प्रकृति का एकत्व का अनुभव एवं साक्षात्कार होता है तभी परा विद्या में पूर्ण सिद्धि प्राप्त होती है। 
परा विद्या के द्वारा साधक को जीव और ब्रह्म की एकता का अनुभव होता है, सर्वत्र ब्रह्मदृष्टि प्राप्त होती है, परम पुरुष (पुरुषोत्तम Supreme Person) और परा प्रकृति (Superior Nature) में कोई भेद नहीं है दोनों एक ही है, अभेद हैं ऐसा सत्य ज्ञान प्राप्त होता है।  साधक गुणातीत हो जाता है, स्थितप्रज्ञ हो जाता है। [अर्थात जो  पुरुष  जिससे सब कुछ निकला है , स्थित है और जिसमें लीन हो जाता है उस आत्मा या 'ब्रह्म' को जान लेता है ,वह  ब्रह्मविद मुक्त  ('भेंड़त्व के भ्रम से , भ्रममुक्त -dehypnotized) हो जाता है , उसे अपने यथार्थ स्वरूप (सिंह -शावक) की  स्मृति  हो जाती हैं।] 
   वेदान्त दर्शन के प्रस्थानत्रयी के अन्तर्गत ब्रह्मसूत्र एवं श्रीमद भगवद् गीता का विशेष महत्व है इसीलिए श्रीमद भगवद् गीता को ''ब्रह्मविद्या योगशास्त्र'' कहा गया है। श्रीमद भगवद् गीता और ब्रह्मसूत्र में सनातन परब्रह्म और परा प्रकृति का विस्तार से वर्णन है, सनातन ब्रह्म को प्राप्त करने तथा मोक्ष (ब्रह्मनिर्वाण) प्राप्त करने के सनातन मार्ग का वर्णन है। 
 अध्यात्मविद्या या आत्मबोध प्राप्त करने  (विवेकज ज्ञान - षट्चक्र भेदन) की विद्या  का प्रशिक्षण देने में समर्थ गुरुओं/ नेताओं (Leaders) की महिमा इतनी अधिक है कि भगवान् श्रीकृष्ण ने श्रीमद भगवद् गीता के दशम अध्याय विभूतियोग में श्लोक न .32 में परा विद्या का वर्णन करते हुए कहते हैं
सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन।
अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम्।।10.32।। 
 हे अर्जुन ! सृष्टियों का आदि, अन्त और मध्य भी मैं ही हूँ। यहाँ वे सम्पूर्ण सृष्टि के अधिष्ठान के रूप में स्वयं का परिचय करा रहे हैं। कोई भी पदार्थ अपने मूल उपादान स्वरूप का त्याग करके नहीं रह सकता। स्वर्ण के बिना आभूषण,  समुद्र के बिना तरंग और मिट्टी के बिना घट का अस्तित्व सिद्ध नहीं हो सकता। समस्त नाम और रूपों में उनके उपादान कारण का होना अपरिहार्य है। उपर्युक्त कथन के द्वारा भगवान् अपने सर्वभूतात्म भाव की दृष्टि से कहते हैं कि वे सृष्टियों के आदि, मध्य और अवसान हैं। विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और लय ये सब उनमें ही होते हैं।
  ' अध्यात्म विद्या विद्यानां वाद: प्रवदतामहम्' ~  अर्थात् समस्त विद्याओं में जो कि मोक्ष देने वाली होने के कारण प्रधान है वह ''अध्यात्म विद्या विद्यानाम्'' (परा विद्या या Meta Physics) मैं हूँ।

जिस विद्या (मनःसंयोग या विवेक-दर्शन का अभ्यास) से मनुष्य का परम् कल्याण (भ्रममुक्त-DeHypnotized) हो जाता है, वह अध्यात्म-विद्या ही पराविद्या कहलाती है।  हे अर्जुन, विद्याओं में  या  सभी तरह के विज्ञानों में (among all sciences) मैं अध्यात्म-विद्या अर्थात हृदय में विद्यमान 'शरीरी' (माँ काली के अवतार) पर मन को एकाग्र करने की विद्या मैं हूँ ! और बिना किसी पक्षपात के केवल तत्त्वनिर्णय के लिये आपस में जो शास्त्रार्थ (विचार-विनिमय आदि) किया जाता है उसको वाद कहते हैं। और तत्त्वनिर्णय के लिये किया जाने शास्त्र-सम्मत वाद 'logic' या तर्क मैं हूँ। 
और विवाद करने वालों में (अर्थात् विवाद के प्रकारों में) मैं वाद हूँ।  श्रीशंकराचार्य के अनुसार यहाँ प्रयुक्त प्रवदताम् (विवाद करने वालों में) शब्द से तात्पर्य विवाद के प्रकारों से है, व्यक्तियों से नहीं। जीवन के सभी क्षेत्रों में विवाद के तीन प्रकार हैं जल्प, वितण्डा और वाद। जल्प में एक व्यक्ति प्रमाण और तर्क के द्वारा अपने पक्ष की स्थापना तथा विरोधी पक्ष का छल आदि प्रकारों से खण्डन करता है। जब कोई एक व्यक्ति अपने पक्ष को स्थापित करता है, और अन्य व्यक्ति छल आदि से केवल उसका खण्डन ही करता रहता है।  परन्तु अपना कोई पक्ष स्थापित नहीं करता,  तब उसे वितण्डा कहते हैं। गुरु शिष्य के मध्य अथवा अन्यों के मध्य तत्त्व-निर्णय के लिए जो युक्ति-युक्त विवाद होता है उसे वाद कहते हैं। शंका समाधान करने के समय बोले जाने वाले वाक्यों में जो अर्थ निर्णय का हेतु होने से प्रधान है वह वाद 'logic' नामक वाक्य मैं हूँ।

दूसरी सांसारिक कितनी ही विद्याएँ  पढ़ लेने पर भी पढ़ना बाकी ही रहता है।  परन्तु इस अध्यात्मविद्या के प्राप्त होने पर पढ़ना अर्थात् जानना बाकी नहीं रहता। इसलिये भगवान ने  इसको अपनी विभूति बताया है। 
  परा विद्या को ही ''अध्यात्म विद्या, ब्रह्मविद्या तथा परा विज्ञान (Meta Physics) '' कहा गया है।  इसके द्वारा मूल प्रकृति एवं परब्रह्म का पूर्ण ज्ञान होता है, इसी लिए इसे ''ब्रह्म-विद्या'' भी कहा जाता है। जिस ज्ञानस्वरूप (चित्स्वरूप) के बिना अन्य वस्तुओं के ज्ञान कदापि संभव नहीं हो सकते।  उस चैतन्य स्वरूप का ज्ञान सब ज्ञानों का राजा होना उपयुक्त ही है। सूर्य प्रकाश में ही समस्त वस्तुयें प्रकाशित होती हैं। वस्तुओं पर सूर्य-प्रकाश के परावर्तित होने से ही वे दर्शन के योग्य बन जाती हैं। स्वाभाविक ही, भौतिक वस्तुओं के दर्शन में सूर्य सब नेत्रों का नेत्र है। उसी प्रकार  सब विद्याओं में अध्यात्मविद्या को राजविद्या या सर्वविद्या-प्रतिष्ठा कहा गया है। 
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्।।7.4 -- 7.5।।  
  पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश -- ये पञ्चमहाभूत और मन, बुद्धि तथा अहंकार -- यह आठ प्रकारके भेदोंवाली मेरी अपरा प्रकृति है। हे महाबाहो ! इस 'अपरा' प्रकृति से भिन्न मेरी जीव -रूपा बनी हुुई मेरी 'परा प्रकृति' (Superior Nature) को जान, जिसके द्वारा यह जगत् धारण किया जाता है। अष्टधा प्रकृति अपरा जड़ है। 
उसे बताने के पश्चात् उससे भिन्न अपनी परा प्रकृति को भगवान् बताते हैं। वह परा प्रकृति जीवरूप अर्थात् चेतन रूप है जिसके कारण ही शरीर मन और बुद्धि अपनेअपने कार्य इस प्रकार करते हैं मानो वे स्वयं ही चेतन हों। इस चेतन की विद्यमानता में ही उपाधियाँ अपना व्यापार कर सकती हैं अन्यथा नहीं। चैतन्य के बिना हमें न बाह्य स्थूल जगत् का और न आन्तरिक सूक्ष्म विचार रूप जगत् का ही अनुभव और ज्ञान हो सकता है। वही जगत् को धारण किये हुए है। उसके अभाव में हमारी दशा एक पाषाण के समान हो जायेगी जिसमें न चेननता है और न बुद्धिमत्ता।
भगवान् के इस कथन को- कि 'परा प्रकृति जगत् का आधार है' इस तथ्य को  भौतिक विज्ञान की दृष्टि से विचार करके भी सिद्ध किया जा सकता है। हम अपने घर में रहते हैं जिसका आधार है भूमि। उस भूमि भाग का आधार है शहर, शहर का राष्ट्र और राष्ट्र का आधार विश्व है।  विश्व घिरा हुआ है समुद्र के जल से जिसकी स्थिति वायुमण्डल पर निर्भर करती है। यह वायु-मण्डल तो सौर-मण्डल अथवा ग्रह -मण्डल का एक भाग है। सम्पूर्ण विश्व आकाश में स्थित है।  और आकाश स्थित है मन में  स्थित आकाश की कल्पना पर। मन का आधार है बुद्धि का निर्णय। और क्योंकि बुद्धि वृत्तियों का ज्ञान चैतन्य के कारण ही संभव है इसलिए यह चैतन्य ही सम्पूर्ण जगत् का आधार सिद्ध होता है।  वही चेतन  जगत् का अधिष्ठान है। दर्शनशास्त्र में जगत् का अर्थ केवल इन्द्रियगोचर जगत् ही नहीं वरन् मन तथा बुद्धि के द्वारा अनुभूयमान जगत् भी उस शब्द की परिभाषा मे समाविष्ट है। इस प्रकार बाह्य विषय भावनाएं और विचार ये सब जगत् ही हैं। यह सम्पूर्ण जगत् चेतनस्वरूप परा प्रकृति के द्वारा धारण किया जाता है।
अध्यात्म विद्या सम्बन्धी अन्य ग्रन्थों में ब्रह्मसूत्र (वेदान्त दर्शन)  विशेष रूप से परा विद्या का स्वरूप है। ब्रह्ममीमांसा (वेदान्त सूत्र) के द्वारा ही परब्रह्म एवं परा प्रकृति का पूर्ण ज्ञान प्राप्त होता है॥ वेदान्त में ब्रह्म के बारे में विस्तार से मीमांसा की गयी है इसीलिए वेदान्त को ''ब्रह्मसूत्र या ब्रह्ममीमांसा'' कहा गया है। 
अपरा विद्या (Physics) के द्वारा भौतिकवाद (Materialism) का पूरा ज्ञान मिलता है।  भौतिकवाद का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किये बिना अध्यात्म (Spirituality) को जानना असम्भव है। अपरा विद्या (Physics) का सम्पूर्ण ज्ञान  प्राप्त किये बिना परा विद्या (अध्यात्म विद्या- Meta Physics) को जानना असम्भव है। 

भौतिक जगत के जिस ज्ञान को आजकल 'विज्ञान' (Physics) कहते हैं उसी को उपनिषद में अपराविद्या के नाम से कहा गया है। अपरा विद्या जो निम्न केटि की विद्या मानी गई है, सगुण ज्ञान (इन्द्रियगोचर ज्ञान) से सम्बन्ध रखती है। इससे परम् सत्य (इन्द्रियातीत सत्य) या 'मोक्ष ' नहीं प्राप्त किया जा सकता। मोक्ष प्राप्त करने का एकमात्र साधन पराविद्या है। इसी को आत्मविद्या या ब्रह्मविद्या भी कहते हैं।

 अभ्युदय और भौतिकता, अविद्या (सकाम कर्म) के पर्याय हैं। इसी प्रकार निःश्रेयस और आध्यात्मिकता विद्या (निष्काम कर्म) के पर्याय हैं। जीवन की अविद्याग्रसत अवस्था (Hypnotized अवस्था , भेंड़त्व की अवस्था) से मुक्ति पाने के लिए एवं अपने स्वरुप (सिंह -शावक की अवस्था) का साक्षात्कार करने के लिए परा विद्या-शक्ति के दो अंग हैं। यदि अपरा विद्या (Physics) प्रथम सोपान है, तो परा विद्या (Metaphysics) द्वितीय सोपान है। 

    साधन चतुष्टय से प्रारंभ करके, मुमुक्षु श्रवण, मनन एवं निधिध्यासन, इन त्रिविध मानसिक क्रियाओं का क्रमिक नियमन करता है। वह "तत्वमसि" वाक्य का श्रवण करने के बाद, मनन की प्रक्रिया से गुजरते हुए, ध्यान या समाधि अवस्था में प्रवेश कर जाता है, जहाँ उसे "मैं ही ब्रह्म हूँ" का बोध हो उठता है। यही ज्ञान परा विद्या कहलाता है। ईशोपनिषद् में उपलब्ध एक मंत्र का अंतिम वाक्यांश निम्नलिखित है :

विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह ।

अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते॥

इसका शाब्दिक अर्थ यह है- जो विद्या और अविद्या-इन दोनों को ही एक साथ जानता है, वह अविद्या से मृत्यु को पार करके विद्या से अमृतत्त्व (देवतात्मभाव = देवत्व) प्राप्त कर लेता है। उस समय ~~ 

 * ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा॥* 

(योगसूत्र -१.४८)

शब्दार्थ- तत्र= उस समय (योगी की); प्रज्ञा= बुद्धि; ऋतम्भरा= ऋतम्भरा होती है। भावार्थ- निर्विचार समाधि में प्रज्ञा ऋतम्भरा से सम्पूरित होती है।  महर्षि पतंजलि अपने योग सूत्रों में योग साधना की जिन उपलब्धियों की चर्चा करते हैं, उनमें यह उपलब्धि विशेष है। 

प्रज्ञा या बौद्धिक चेतना हमारे जीवन रथ की संचालक है। इसकी अवस्था ही जीवन की दिशा का निर्धारण करती है। सामान्य क्रम में बुद्धि सन्देह, भ्रम की वजह से चंचल रहती है। इस चंचलता की वजह से ही इसकी निर्णय क्षमता एवं विश्लेषण क्षमता पर असर पड़ता है। बौद्धिक दिशाभ्रम के कारणों में पूर्वाग्रहों, स्वार्थपरता एवं हठधर्मिता का भारी हाथ रहता है। इनके कारण बुद्धि में वह समझदारी नहीं पनप पाती, जिसकी आवश्यकता है।

लेकिन 'तत्र' - उस (अध्यात्म-प्रसाद अर्थात विवेकस्रोत उद्घाटित होने से) से बुद्धि ऋतम्भरा होती है। इसका अर्थ है सत्यज्ञान को धारण करने वाली प्रज्ञा। वस्तुतः रजस् और तमस् ही आवरणकारक मल है। बुद्धि को ढँकने वाला है। निर्विकल्प समाधि हो जाने पर साधक को आध्यात्मिक प्रसाद प्राप्त हो जाता है और इस प्रकाश के प्राप्त हो जाने के बाद उसमें ऋतम्भरा प्रज्ञा (विवेक-स्रोत उद्घाटित होने विवेकज-ज्ञान) का उदय होता है। अर्थात एक साथ सभी अर्थों को ग्रहण करने वाला स्पष्ट प्रज्ञाप्रकाश होता है। ऋतम्भरा प्रज्ञा सत्य को धारण करती है। वह सर्वथा मिथ्याज्ञान रहित होती है। और उसी समाधि से प्रज्ञाजन्य संस्कार उत्पन्न होते हैं अन्य संस्कार नहीं उत्पन्न होते।

निश्चय स्वभाव वाली व्यवसायात्मिका बुद्धि (ऋतम्भरा प्रज्ञा) और विवेक-रहित बुद्धि *

जिस प्रकार विद्या दो प्रकार की होती है - 'शिक्षा और शीक्षा (तैत्तिरीय उ०)' उसी प्रकार प्रज्ञा (बुद्धि) दो प्रकार की होती है: 

1.निष्काम कर्मयोगी की निश्चय स्वभाव वाली व्यवसायात्मिका बुद्धि ( विवेक-युक्त बुद्धि one-pointed conviction=ऋतम्भरा  प्रज्ञा

2. सकाम मनुष्यों (the irresolute ones) की अनिश्चित, ढुलमुल स्वभाववाली विवेक-रहित बुद्धि । अव्यवसायी वे होते हैं, जिनके भीतर सकामभाव होता है, जो भोग और संग्रहमें आसक्त होते हैं।  

भगवान् श्रीकृष्ण ने श्रीभगवद् गीता के द्वितीय अध्याय सांख्य योग में श्लोक न. 41 से 44 तक ''निश्चय स्वभाव वाली व्यवसायात्मिका बुद्धि '' के बारे में  विस्तार से वर्णन किया है। 

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।

बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोSव्यवसायिनाम्॥ (गीता- 2.41)

हे कुरुनन्दन ! इस (निष्काम कर्म योग) में निश्चयात्मक बुद्धि एक ही है, अज्ञानी पुरुषों की बुद्धियां (संकल्प) बहुत भेदों वाली और अनन्त होती हैं।।

 O scion (वंशज) of the Kuru dynasty, in this there is a single, one-pointed conviction. The thoughts of the irresolute ones have many branches indeed, and are innumerable.

निष्काम कर्मयोग [Be and Make आन्दोलन] के साधन से आत्मसाक्षात्कार की सर्वोच्च उपलब्धि केवल इसलिये सम्भव है कि, इसमें साधक की व्यवसायित्मिका निश्चय स्वभाव वाली बुद्धि (निश्चयात्मिका बुद्धि - 'मैं एक चरित्रवान मनुष्य बनूंगा ') एक ही होती है। इसलिए वह दृढ़ निश्चय और एकाग्र चित्त से इसका अभ्यास करता है। लेकिन अव्यवसायिनाम् - अर्थात विवेकहीन सकाम कर्म करने वाले मनुष्यों की बुद्धियाँ (तीनो ऐषणाओं से अनुप्रेरित होने के कारण) निश्चय ही बहुत भेदों वाली और अनन्त होती हैं । (जैसे, पुत्र-प्राप्ति करनी है-- यह एक बुद्धि हुई और पुत्र-प्राप्ति के लिये किसी औषध का सेवन करें, किसी मन्त्र का जप करें, कोई अनुष्ठान करें, किसी सन्त का आशीर्वाद लें आदि उपाय उस बुद्धि की अनन्त शाखाएँ हुईँ। ऐसे ही धन-प्राप्ति करनी है--यह एक बुद्धि हुई और धन-प्राप्ति के लिये व्यापार करें, नौकरी करें, चोरी करें, डाका डालें, धोखा दें, ठगाई करें, या नाम-यश पद-प्रतिष्ठा पाने के लिए संगठन में गुटबाजी करें ; आदि उस बुद्धि की अनन्त शाखाएँ हुईँ। ऐसे पुरुषों की बुद्धि में 'मनुष्य' बनने (ब्रह्मविद या चरित्रवान मनुष्य बनने) का निश्चय नहीं होता। इसलिए उनका व्यक्तित्व विखरा हुआ रहता है। और इस कारण एकाग्र चित्त होकर वे किसी भी क्षेत्र में सतत् कार्य नहीं कर सकते जिसका एक मात्र परिणाम उन्हें मिलता है विनाशकारी असफलता।

यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चित:।

वेदवादरता: पार्थ नान्यदस्तीति वादिन:॥ (गीता-2.42)

कामात्मान: स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्।

क्रियाविशेषबहुलां भौगैश्वर्यगतिं प्रति॥ (गीता-2.43)

भौगैश्वर्यप्रसक्तानाम् तयापहृतचेतसाम्।

व्यवसायात्मिका बुद्धि: समाधौ न विधीयते॥ (गीता-2.44)

(क्रान्तिकारी 'नेता') भगवान श्रीकृष्ण 5000 साल पहले ही वेदों के कर्मकाण्ड को  'पुष्पिता वाणी' बतलाते हुए कहते हैं,  हे अर्जुन ! उस 'पुष्पिता वाणी' से जिनका चित्त हर लिया गया है, अर्थात् स्वर्ग में बड़ा भारी सुख है,  दिव्य नन्दनवन है, अप्सराएँ हैं , अमृत है ऐसी वाणी से जिनका चित्त उन भोगों की तरफ खिंच गया है। ऐसे भोग और ऐश्वर्य  में  आसक्ति रखने वाले पुरुषों के अन्तःकरण में निश्चयात्मक् बुद्धि, जो मनुष्य जन्म का असली ध्येय है जिसके लिये मनुष्य शरीर मिला है, उस परमात्मा को ही प्राप्त करना है- (अर्थात ब्रह्मविद या चरित्रवान मनुष्य बनना और बनाना है)  ऐसी व्यवसायात्मिका बुद्धि , उन लोगों में नहीं होती।  इसलिए वे ध्यान का अभ्यास (मनःसंयोग या विवेकदर्शन का अभ्यास) करने योग्य‌ नही होते। भगवान् के स्वरूप में समाधि नहीं लगा पाते, इनकी बुद्धि भगवान की भक्ति में दृढ़ निश्चय नहीं कर पाती।।  गीता 2. 42-43-44।।

 भगवान् ने गीता के द्वितीय अध्याय सांख्य योग में श्लोक न.55 से 58 तक, श्लोक न.61 तथा श्लोक न.68 से 72 तक '' ब्रह्मविद या चरित्रवान मनुष्य अथवा परमात्मा को प्राप्त हुए सिद्ध योगी का क्या लक्षण है ? वह (स्थित प्रज्ञ) स्थिर बुद्धि पुरुष कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है? '' के बारे में विस्तार से वर्णन किया है॥

निश्चयात्मिका बुद्धि रखने वाले ब्रह्मविद या चरित्रवान मनुष्य अथवा परमात्मा को प्राप्त हुए सिद्ध योगी (स्थित प्रज्ञ) के लक्षण (गीता 2,55 से 59 तक, तथा श्लोक न.68 से 72 तक)  :- 

प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान्।

              आत्मन्येवात्मना तुष्ट: स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥ (गीता-2.55)

हे अर्जुन ! जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित (दृढ़ संकल्प -मैं एक चरित्रवान मनुष्य बनूंगा के आलावा ) सम्पूर्ण कामनाओं को भली भाँति त्याग देता है और आत्मा से आत्मा में ही सन्तुष्ट रहता है, उस काल में स्थित प्रज्ञ कहा जाता है ।

प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान्।

आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।2.55।।

।।2.55।। श्री भगवान् ने कहा -- हे पार्थ,  जिस समय पुरुष मन में स्थित सब भोग -कामनाओं को त्याग देता है और आत्मा से ही आत्मा में सन्तुष्ट रहता है;  उस समय वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है।।

जो मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग करके स्पृहारहित, ममतारहित और अहंकाररहित होकर आचरण करता है, वह शान्तिको प्राप्त होता है। अज्ञान दशा में मनुष्य स्वयं को परिच्छिन्न अहंकार के रूप में जानता है। इसलिये विषयोपभोग की स्पृहा अपनी भावनाओं एवं विचारों के साथ आसक्ति स्वाभाविक होती है। दूसरी पंक्ति में यह बताया गया है कि ज्ञानी पुरुष अपने आनन्दस्वरूप में सन्तुष्ट रहता है। अज्ञान के नष्ट होने पर यह अहंकार अपने शुद्ध अनन्त स्वरूप में विलीन हो जाता है, (व्यष्टि अहं माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट 'मैं'-बोध में रूपांतरित हो जाता है) और स्थितप्रज्ञ पुरुष आत्मा द्वारा आत्मा में ही सन्तुष्ट रहता है। सब कामनायें समाप्त हो जाती हैं क्योंकि वह 'ब्रह्मविद' स्वयं आनन्दस्वरूप बनकर स्थित हो जाता है। 

दु:खेष्वनुद्विग्नमना:  सुखेषु विगतस्पृह:।

                 वीतराग भयक्रोध: स्थितधीर्मुनिरुच्यते॥ (गीता-2.56)

दु:खों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता, सुखों की प्राप्ति में जो सर्वथा नि:स्पृह है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं, ऐसा मुनि स्थिर बुद्धि कहा जाता है ।।56।।

य: सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।

                नाभिनन्दति न द्वैष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥ (गीता-2.57)

जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ उस शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है उसकी बुद्धि स्थिर है ।।57।।

यदा संहरते चायं कूर्मोंSगानीव सर्वश:।

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ (गीता-2.58)

जैसे कछुआ अपने सब अंगों को समेट लेता है, वैसे ही जिसने अपनी सब इन्द्रियाँ को हटा लिया है, उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है ।।58।।

तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्पर:।

वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥ (गीता-2.61)

इसलिये साधक को चाहिये कि वह उन सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके समाहित चित्त हुआ मेरे परायण होकर ध्यान में बैठे, क्योंकि जिस पुरुष की इन्द्रियाँ वश में होती हैं, उसी की बुद्धि स्थिर हो जाती है ।।61।।

तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वश ।

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥ (गीता-2.68)

इसलिये हे महाबाहो ! जिस पुरुष की इन्द्रियाँ के विषयों से सब प्रकार निग्रह की हुई हैं, उसी की बुद्धि स्थिर है ।।68।।

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ।

यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुने :॥(गीता-2.69)

सम्पूर्ण प्राणियों के लिये जो रात्रि के समान है, उस नित्य ज्ञानस्वरूप परमानन्द की प्राप्ति में स्थितप्रज्ञ योगी जागता है और जिस नाशवान् सांसारिक सुख की प्राप्ति में सब प्राणी जागते हैं, परमात्मा के तत्त्व को जानने वाले मुनि के लिये वह रात्रि के समान है ।।69।।

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठम्

समुद्रमाप: प्रविशन्ति  यद्वत्।

तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे

स शान्तिमाप्नोति न कामकामी॥ (गीता-2.70)

जैसे नाना नदियों के जल सब ओर से परिपूर्ण, अचल प्रतिष्ठा वाले, समुद्र में उसको विचलित न करते हुए ही समा जाते हैं, वैसे ही सब भोग जिस स्थितप्रज्ञ पुरुष में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किये बिना ही समा जाते हैं, वही पुरुष शान्ति को प्राप्त होता है, भोगों को चाहने वाला नहीं ।।70।।

विहाय कामान्य: सर्वान् पुमांश्चरति नि:स्पृह:।

निर्ममो निरहंकार: स शान्तिमधिगच्छति ॥ (गीता-2.71)

जो पुरुष सम्पूर्ण कामनाओं को त्यागकर ममतारहित, अहंकार रहित और स्पृहारहित हुआ विचरता है, वही शान्ति को प्राप्त होता है अर्थात् वह शान्ति को प्राप्त है ।।71।।

 सब इच्छाओं के त्याग का अर्थ है अहंकार का त्याग। अहंकार रहित अवस्था निष्क्रिय अर्थहीन शून्य नहीं है। जहाँ भ्रान्तिजनित अहंकार समाप्त हुआ वहीं पर पूर्ण ज्ञानस्वरूप आत्मा प्रकाशित होता है। अपने हृदय में स्थित आत्मा को पहचानने का ही अर्थ है उसी समय सर्वत्र व्याप्त नित्य ब्रह्म को पहचानना। अहंकार के नष्ट होने पर नित्य चैतन्य आत्मा का अनुभव उससे भिन्न रहकर नहीं होता वरन् उसके साथ एकत्व का अनुभव ही होता है। अतः इस साक्षात्कार को ब्राह्मी स्थिति कहा गया है।

संन्यास का अर्थ है त्याग। अतः अहंकार और स्वार्थ को पूर्णरूप से परित्याग करके, (गृहस्थ होकर भी)  वैराग्य का जीवन जीना वास्तविक संन्यास है।  जिससे वह साधक सतत अपने पूर्ण दिव्य स्वरूप की अनुभूति में रह सकता है। जीवन से पलायन करने अथवा गेरुये वस्त्र धारण करने को संन्यास समझने की जो गलत धारणा समाज में फैल गई है उसनेे उपनिषदों के महान् तत्त्वज्ञान पर एक अमिट सा धब्बा लगा दिया है। वास्तव में हिन्दू धर्म केवल उसी को संन्यासी/ या सद्गृहस्थ  स्वीकार करता है जिसने विवेक-प्रयोग  द्वारा अहंकार और स्वार्थ को त्याग कर स्फूर्तिमय जीवन जीना सीखा है। ऐसा ब्रह्मवित् स्थितप्रज्ञ पुरुष निर्वाण (शान्ति) को प्राप्त करता है जहाँ संसार के सब दुखों की आत्यन्तिक निवृत्ति होती है। संक्षेप में ब्रह्मवित् ज्ञानी पुरुष ब्रह्म ही बन जाता है।

एषा ब्राह्मी स्थिति: पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।

स्थित्वास्यामन्तकालेSपि  ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥ (गीता-2.72)

हे पार्थ ! यह ब्रह्म को प्राप्त पुरुष (ब्रह्मविद,स्थित प्रज्ञ या चरित्रवान मनुष्य) की स्थिति है, इसको प्राप्त होकर योगी फिर कभी मोहित (Hypnotized) नहीं होता और अन्त काल में भी इस ब्राह्मी स्थिति में स्थित होकर ब्रह्मनिर्वाण (अर्थात ब्रह्म या परम् सत्य के साथ एकत्व) को प्राप्त होता है ।।72।।

आत्मानुभवी पुरुष के आन्तरिक और बाह्य जीवन का वर्णन कर भेड़ की खाल में छिपे भालुओं के समान पाखण्डी गुरुओं/नेताओं से भिन्न सच्चे गुरु/नेता (स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित नेता (C-IN-C) नवनीदा को पहचानने में गीता हमारी सहायता करती है। 
(भगवान श्रीरामकृष्ण की भक्ति करने का तात्पर्य है - "विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर 'Be and Make ' शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" में प्रशिक्षित 'मनुष्य' (स्थित प्रज्ञ, चरित्रवान या ब्रह्मविद मनुष्य) बनने और बनाने में दृढ़ निश्चय रखना।)] तंत्र-विद्या (राज-योग) के कठिन साधन सामान्य गृहस्थों के लिए तलवार की धार पर चलने के समान हैं । उसके लिए साधक में पुरुषार्थ, साहस, दृढ़ता, निर्भयता और धैर्य पर्याप्त होना चाहिए, सर्वोपरि किसी जीवनमुक्त गुरु की कृपा होनी चाहिए। 

जीवनमुक्त शिक्षकों (नेताओं-Leaders ) का निर्माण करने के लिए ही 1967 में महामण्डल को  आविर्भूत होना पड़ा है !  क्योंकि 'Be and Make ' लीडरशिप ट्रेनिंग ट्रेडिशन में (निवृत्ति मार्गी) स्वामी विवेकानन्द के जैसे ब्रह्मविद (100 % निःस्वार्थी, चरित्रवान मनुष्य) के साँचे में    (प्रवृत्ति मार्गी ) कैप्टन सेवियर को ढाल कर आधुनिक युग के राजा जनक (C-IN-C नवनीदा) जैसे राजर्षियों का निर्माण (राजा + ऋषि, अर्थात राजा  होकर भी ब्रह्मवेत्ता और 100 % निःस्वार्थी मनुष्यों का निर्माण )  कारखानों में नहीं हो सकता ! यह केवल 'गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा' प्रशिक्षित शिक्षकों द्वारा दी जाने वाली  शिक्षा  (प्रशिक्षण)  के माध्यम से ही सम्भव है।

 दादा ने अपने पितामह द्वारा 'श्रीराधा यंत्र' द्वारा तंत्रमार्ग की उपासना के गुरु रूप में उनकी माता श्रीमती जगन्मोहिनी देवी (শ্রীমতি জগন্মোহিনী দেবী) द्वारा प्रदान करने की घटना का उल्लेख अपनी पुस्तक 'जीवन नदी के हर मोड़ पर ' के पृष्ठ -51,52 (জীবন নদীর বাঁকে বাঁকে -36,37) पर किया है। करते हुए  कहते थे; इसीलिए उस गुरु -शिष्य परम्परा को  तैत्तरीय उपनिषद की 'शीक्षा वल्ली ' में -'श' में दीर्घ 'इकार' लगाकर 'शीक्षा' कहा  गया है । 

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"सत्यमेव जयते " (सत्यं एव जयते) :  भारत का राष्ट्रीय आदर्श वाक्य है। इसका अर्थ है : सत्य ही जीतता है / सत्य की ही जीत होती है। यह भारत के राष्ट्रीय प्रतीक के नीचे देवनागरी लिपि में अंकित है। 'सत्यमेव जयते' मूलतः मुण्डक-उपनिषद का सर्वज्ञात मंत्र 3.1.6 है। पूर्ण मंत्र इस प्रकार है:

सत्यमेव जयते नानृतं सत्येन पन्था विततो देवयानः।

येनाक्रमंत्यृषयो ह्याप्तकामो यत्र तत्सत्यस्य परमं निधानम्॥

अंततः सत्य की ही जय होती है न कि असत्य की। यही वह मार्ग है जिससे होकर आप्तकाम (जिनकी कामनाएं पूर्ण हो चुकी हों) ऋषीगण जीवन के चरम लक्ष्य को प्राप्त करते हैं।

'सत्यमेव जयते' को राष्ट्रपटल पर लाने और उसका प्रचार करने में मदन मोहन मालवीय (विशेषतः कांग्रेस के सभापति के रूप में उनके द्वितीय कार्यकाल (१९१८) में) की महत्वपूर्ण भूमिका रही।

{KA 4.60: Ei pañcabaṭite bostām. Kāle unmād holām!—tāo gelo! Kāla-i brahma. Jini kāler sohit raman koren, tini-i Kālī—ādyāśakti! Aṭalke ṭaliye den.... Cidātmā ār cit-śakti. Cidātmā puruṣ, citśakti prakṛti. Cidātma Śrīkṛṣṇa, citśakti Śrīrādhā. Bhakta ei citśaktir ek ekṭi rūp.

Translation: I used to sit in this Panchavati. In time I became mad!—even that stage passed! Time (kāla) itself is Brahman. One who sports with Time is Kālī, the Primal Power! She moves the Unmovable. . . . There is Consciousness-self and Consciousness-power. Consciousness-self is the puruṣa and consciousness-power is prakṛti. Śrī Kṛṣṇa is the consciousness-self and Śrī Rādhā is consciousnesspower. The devotee is one form of this consciousness-power.

KC, 181: I used to sit in this Panchavati. In time I became mad! O what happened! Kālī is brahman. She who has sex with Śiva is Kālī, the Primordial Power! She arouses the Unmoving .... There is the Self of Consciousness and the Power of Consciousness. The Self of Consciousness is a man, the Power of Consciousness is a woman. The Self of Consciousness is Kṛṣṇa, the Power of Consciousness is Rādhā. The devotee is a particular form of this Power of Consciousness (KA 4.60).

Note especially how Kāla is Brahman has been changed to "Kālī" is Brahman. It is puzzling how "Śiva" enters into Kālī's Child's translation. There is no mention of Śiva in the Bengali. Puruṣa and prakṛti are ontological principles derived from Saṁkhya philosophy and have no sexual identity. Kālī's Child, however, finds it expedient to translate these terms as "man" and "woman."“The Self of Consciousness is a man, the Power of Consciousness is a woman.”Interpreting Ramakrishna, Kali's Child ( Jeffrey John Kripal (born 1962) Revisited/The Authors : ​Indian-born Swami Tyagananda and American-born Pravrajika Vrajaprana .} 

          इसीलिए परा विद्या स्वरूपा 'श्री लक्ष्मी तथा श्री ललिता' का एक नाम तो 'श्री विद्या' ही है। श्री विद्या देवी ललिता त्रिपुरसुन्दरी से सम्बन्धित तन्त्र विद्या का हिन्दू सम्प्रदाय है। ललितासहस्रनाम में इनके एक सहस्र नामों का वर्णन है। ललितासहस्रनाम में श्रीविद्या के संकल्पनाओं का वर्णन है। श्रीविद्या सम्प्रदाय आत्मानुभूति के साथ-साथ भौतिक समृद्धि को भी जीवन के लक्ष्य के रूप में स्वीकार करता है। इसके भाष्य में शंकराचार्य कहते हैं -'अध्यात्मविद्या विद्यानां मोक्षार्थत्वात् प्रधानं अस्मिइसके भाष्य में शंकराचार्य कहते हैं -'अध्यात्मविद्या विद्यानां मोक्षार्थत्वात् प्रधानं अस्मि'-'It is the chief among all knowledges, because it leads to mokSha'  समस्त विद्याओं में  मोक्ष देने वाली (de-hypnotized करने में सक्षम) होने के कारण प्रधान है, वह अध्यात्मविद्या  (मनःसंयोग की प्रशिक्षण-प्रणाली) मैं हूँ। 

*Common Era (CE) and Before Common Era (BCE)* 

CE is an abbreviation for Common Era. BCE is short for Before Common Era. The Common Era begins with year 1 in the Gregorian calendar. Instead of AD and BC,CE and BCE are used in exactly the same way as the traditional abbreviations AD and BC. 

AD is short for Anno Domini, Latin for year of the Lord. BC is an abbreviation of Before Christ. Because AD and BC hold religious (Christian) connotations, many prefer to use the more modern and neutral CE and BCE to indicate if a year is before or after year 1.

According to the international standard for calendar dates, ISO 8601, both systems are acceptable.

चिच्छायापत्ति, चित्-छायापत्ति या चैतन्याध्यास : -  विषयों के साथ साक्षात् सम्बन्ध बुद्धि का है, पुरुष का नहीं। लेकिन यह बुद्धि पुरुष के प्रकाश से प्रकाशित होती है। बुद्धिगत इस पौरुष प्रकाश को ‘चित्-छाया का पतन’ कहा जाता है। चित् -रूप पुरुष चूंकि प्रतिसंचारशून्य है – निर्विकार है, अतः ‘छाया’ शब्द प्रयुक्त होता है; कभी-कभी प्रतिबिम्ब शब्द भी प्रयुक्त होता है। चिदावेश आदि शब्दों से भी अभिहित होता है। 

'चिदात्मा द्रष्टा, दर्शन तथा दृश्य आदि भावों से रहित है, निर्दोष है, तथा प्रलयकाल के समुद्र की तरह परिपूर्ण है।' वह जो भीतर साक्षी है, मन से मुक्त, शून्य हो गया, वह जो चिदात्मा है, वहां कोई भेद नहीं है। दर्शन, दृश्य, ये सारे भाव वहां खो गए हैं। न वहां कोई देखने वाला है, न कुछ दिखाई पड़ने वाला है। वहां सब द्वंद्व खो गया है। वहां सिर्फ एक चैतन्य का विस्तार है। उस विस्तार के लिए तुलना बड़ी मीठी दी है। कहा है, प्रलयकाल के समुद्र की तरह परिपूर्ण।

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 "कृतार्थता की आकांक्षा और भागवत"

[साभार http://lalitnibandha1.blogspot.com/2006/09/10.html/
https://sansthanam.blogspot.com/2015/04/bhagwat-puran_96.h]

बहुत नामी, ज्ञानी-ध्यानी,  तख्त-ताजधारी व्यक्ति सफल,समृद्ध और प्रतिष्ठित भी हो सकता है, पर वह कृतार्थ भी हो चुका है ,ऐसा नहीं कहा जा सकता। सामान्य की बात दें जाने दें, स्वयं महर्षि वेदव्यास भी  महाभारत जैसा महान काव्य लिख कर भी कृतार्थ नहीं हो सके थे ।  वे अपनी अकृतार्थता को कुछ-कुछ महसूस करते हुए कहते हैं –
 भारत व्यापदेशेन ह्याम्नार्थश्च दर्शितः।
दृश्यते यत्र धर्मादि स्त्री शूद्रादिभिरप्युत।।
तथापि वत में दैह्यों ह्यात्मा चैवात्मना विभुः।
असम्पन्न इवाभांति ब्रह्मवर्चस्य सत्तमः।। - भागवत (1-4-29,30)
  महाभारत के बहाने मैंने वेदों के अर्थों को खोल दिया ,ताकि साधारण मनुष्य --- स्त्री,शुद्र आदि भी उसका लाभ ले सकें। अपने धर्म-कर्म का ज्ञान प्राप्त कर सकें। यद्यपि मैं ब्रह्मतेज से सम्पन्न एवं समर्थ हूँ तथापि मेरा हृदय अपूर्ण काम-सा जान पड़ता है। व्यास जी अकृतकाम खिन्न हो बैठे थे, तभी नारद जी वहाँ पधारे। कुशल-क्षेम और आतिथ्य ग्रहण करने के बाद कुशल वैद्य की तरह नाड़ी टटोले बिना चेहरे को पढ़कर ही नारद ने व्यास की अकृतार्थता को पहचान लिया ।  और मानों उनके समग्र ज्ञान की खान महाभारत पर व्यंग्य मुस्कान चस्पा करते हुए वे बोले –
पराशर्य महाभाग श्वतः कच्चिदात्मना।
परितुष्यति शरीर आत्मा मानस एव वा।।
जिज्ञासितं सुसम्पन्नमपि ते महदभुतम्।
कृतवान भारतं यस्त्व सर्वार्थपरिबृहितम्।।
जिज्ञासितमधीतं च यत्तदब्रह्म सनातनम्। --भागवत (1-5-2,3 ,4)
 महाराज व्यास जी। धर्मादि सभी पुषार्थों से परिपूर्ण महाभारत रचकर आप अपने कर्म एवं चिंतन से संतुष्ट हैं न? सनातन ब्रह्म तत्व को आपने जान ही लिया है, फिर भी आप अकृतार्थ नर के समान अपने विषय में शोक क्यों कर रहे हैं ? 
अस्त्येव में सर्वमिदं त्वयोक्तं
तथापि नात्मा परितुष्यते में।
तन्मूलमव्यक्तमगाथ बोधं
पृच्छामहे त्वssमश्वात्मभूतम्।। - भागवत (1-5-5)
व्यास जी ने स्वीकृति के स्वर में कहा – नारद जी। सच में परब्रह्म और शब्दब्रह्म को जान लेने के बाद कहीं कोई कमी रह गई है, जिससे मेरा परितोष अधूरा है। कृपया आप ही इस अधूरेपन का कारण बतायें।  
वस्तुतः महाभारत में सब कुछ होते हुए भी वह नहीं है, जो कृतिकार औस उससे साक्षात्कार करने वाले पाठक-श्रोता को कृतार्थ कर सके। माना कि उसमें धर्म, दर्शन, इतिहास वेद की व्याख्या सब कुछ है, परन्तु वह जो प्रभाव छोड़ता है, उसमें सब कुछ दब सा जाता है। 
 और उभरकर आती है मृत्यु की त्रासदी, ध्वंस की पीड़ा, मानवी नियति की विडंबना, करुण गाथा। व्यास मुनि जिन मूल्यों को सम्प्रेषित करना चाहते थे, अपने जिन बोधों से संसार को संस्कारित करना चाहते थे, सब हो नहीं पाया, घात-प्रतिघात, दंभ-द्वेष और काल की निर्ममता की गाथा बनकर ही महाभारत रह गया। आज भी महाभारत को लोग न पढ़ना पसंद करते हैं न घर में रखना। यह अकृतार्थता का सबसे बड़ा सबूत है
लोग उसी युद्ध की गाथा सुनना पसंद करते हैं, जो गाथा श्रेय-प्रेय विवेक को बढ़ावा देती हो, भाई-भाई के द्वन्द्व और छल-छद्म की नहीं। इन्हीं सब कारणों से महाभारत और व्यास दोनों उतने लोक- स्वीकृत नहीं हो सके जितना वाल्मीकि और उनकी रामयण, तुलसी और उनका  ‘रामचरित मानस।’ महर्षि व्यास देव ने यदि श्रीमद भागवत की रचना नहीं की होती तो संभवतः और अलोकप्रिय तथा अकृतार्थ रह जाते। 
बहस की जा सकती है कि महाभारत में भी तो श्री कृष्ण हैं ही। उनके बिना महाभारत कैसा? रामायण या मानस में श्री राम हैं, तो महाभारत में श्री कृष्ण, फिर व्यास को कृतार्थता क्यों नहीं मिली ? कृतार्थ होने के लिए क्या यह जरूरी है कि श्री भगवान के 'नाम-रूप', 'लीला-धाम ' की चर्चा और अर्चा अवश्य की जाए ? 
बहस तर्क आश्रित होती है और तर्क का कोई अन्त नहीं। नारद जी साफ-साफ व्यास देव जी से कहते हैं कि आपने भगवान के निर्मल यश का गान प्रायः नहीं किया है। मेरी ऐसी मान्यता है कि जिससे भगवान संतुष्ट नहीं होते , वह शास्त्र और ज्ञान अधूरा है। 
     आपने वासुदेव की महिमा का वैसा वर्णन नहीं किया है जैसा धर्म आदि पुरुषार्थों का। जिस वाणी से श्रीकृष्ण का गुणगान नहीं होता वह कौओं के उच्छिष्ट अन्न फेंकने के स्थान जैसा अपावन होता है, वहाँ हंस नहीं जाते तदवायसं तीर्थमुशन्ति मानसा न यत्र हंसा निरमुन्त्यशिक्क्ष्याः।। (भागवत 1-5, श्लोक 8-9-10) सन्त तुलसीदास जी भी प्रकारन्तर से इसी बात का समर्थन करते हैं –

कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना। सिर धुनि गिरा लगत पछिताना॥
हृदय सिंधु मति सीप समाना। स्वाति सारदा कहहिं सुजाना॥4॥

-संसारी मनुष्यों का गुणगान करने से सरस्वतीजी सिर धुनकर पछताने लगती हैं (कि मैं क्यों इसके बुलाने पर आई)। बुद्धिमान लोग हृदय को समुद्र, बुद्धि को सीप और सरस्वती को स्वाति नक्षत्र के समान कहते हैं॥4॥

   यहाँ फिर बहस को बढ़ाई जा सकती थी कि श्री भगवान (अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्णदेव) का गुणगान ही क्या वाणी की धन्यता केलिए जरूरी है ? फिर सदियों से इतने काव्य क्यों लिखे जा रहे हैं ? तो फिर, कुरान, पुराण, बाइबिल लिखे जाने के बाद शेष की जरूरत ही नही थी।
        बात ऐसी नहीं है। दरअसल श्री भगवान के गुणों के बखान और यश के कीर्तन से तात्पर्य मनुष्य के ही उन मूल्यों और कर्मों का कीर्तन करना है, जो लोक-परलोक को साधने के लिए जरूरी है
      सत्य, शील, सौन्दर्य और शक्ति के पर्याय का नाम है- अवतार वरिष्ठ भगवान श्री रामकृष्ण परमहंस देव । परोपकार, दया, विद्या -दान आदि धर्म के समस्त मान मूल्यों का आचरण भगवान के चारित्रिक गुणों का गान है। मनुष्य को चरित्रवान मनुष्य बनाने, या  'यथार्थ मनुष्य ' बनाने के लिए, अथवा उसे बेहतर दशा -दिशा प्रदान करने, एवं उसे नर से नारायण बनाने के लिए स्वयं नारायण ही विविध रूपों में अवतरित होते रहते हैं, वरना, क्या जरूरत है उस अनादि अनन्त अजन्मा को यहाँ अवतरित होने की। 
[मनुष्य को बेहतर दशा -दिशा प्रदान करने के लिए , उसे चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने, या 'Be and Make'  का प्रशिक्षण देने के लिये, अथवा उसे  नर से नारायण बनाने के लिए;  स्वयं नारायण ही विविध रूपों में अवतरित होते रहते हैं।  वरना, क्या जरूरत है उस अनादि अनन्त अजन्मा श्रीरामकृष्ण को अपने साथ निवृत्तिमार्ग के सप्तर्षियों में से एक स्वामी विवेकानन्द को अपने साथ लेकर  यहाँ अवतरित होने की ? ]  
वस्तुतः प्रत्येक के भीतर बसे ठाकुरदेव (सच्चिदानन्द) जिस शास्त्र या रचना विधान से प्रसन्न नहीं होते, वह अधूरा है। जिस समाज-संस्कार आन्दोलन या ज्ञान के द्वारा लोक-संग्रह या लोक मंगल की श्रीवृद्धि नहीं होती, वह कृतार्थता नहीं दे सकती।
 महाभारत की नियति ऐसी ही रही। युधिष्ठिर जीतकर भी हारे हुए लगते हैं और भीष्म इच्छा मृत्यु का वर पाकर भी अभिशप्त। शर शय्या पर महीनों सोते रहने के लिए शापग्रस्त/ द्रोणाचार्य का गुरुत्व ग्लानि में डूबा हुआ है। 
 व्यास इतना महान ग्रंथ -'महाभारत' रचकर भी अकृतार्थ हैं, क्योंकि यह रचना लोगों को रच नहीं सकी। युधिष्ठिर जैसे धर्म धुरीण स्वर्ग में पहुँचकर भी अपने भाइयों को दुःख से हाय-हाय करते देख अड़ गए कि उसे भाइयों के साथ नरक में रहना पसंद है, पर यहाँ नहीं। ये सब अकृतार्थता के सबूत हैं। शून्यता के प्रमाण हैं।
       वहीँ सन्त तुलसीदास और महर्षि वाल्मीकि  कृतार्थता के तत्व को लेकर मानस और रामायण की रचना करते हैं। सन्त तुलसीदास जी  उन तत्वों को छोड़ते चलते हैं जो वास्तव होकर भी लोक-मंगल  के लिए मूल्वान नहीं होते। कृतार्थ करने के योग्य नहीं होते। सीता निर्वासन के प्रसंग को तुलसी पूरी तरह छाँट देते हैं, क्योंकि वह प्रसंग लोक को अब भी सालता है, करुणा को भी करुणा से भर देता है। 
महाभारत -कथा में भाई-भाई के बीच बैर मरणोपरान्त भी शमित हो पाया। राज्य की खातिर बंधुता को नष्ट करता है, जबकि मानस या रामायण पितृ आज्ञा और भ्रातृत्व-प्रेम की खातिर राज्य का त्याग करना सिखाता है। बड़ी से बड़ी कुर्बानी देना सिखाता है। जहाँ प्रेम ही प्रेम हो वहाँ ईर्ष्या-द्वेष, संघर्ष , दंभ-अहंकार, लोभ-मोह जैसे अशांत करने वाले भाव कैसे टिक सकते हैं। 
         यहाँ दया, उदारता, परोपकार, दान, धर्म, नियम-संयम जैसे दैवी गुणों का गान है – मनुष्य को 'ईश्वर' (100 % निःस्वार्थपरता) में उन्नत करने के लिए है। श्रीरामचरित मानस भ्रातृ प्रेम को केन्द्रस्थ भाव मानता है, यही कारण है कि ’मानस’ की चौपाई मंत्र बन गई और महाभारत के श्लोक पुण्यश्लोक नहीं बन पाये।
       भागवत में महाभारत की तरह रिक्तता, खीझ, त्रास, करुणा और धर्म का उलझाव नहीं है। द्रौपदी धर्मवृंद सभासदों से सवाल करती है कि जब मेरे पति युधिष्ठिर मुझे दांव पर चढ़ाने से पूर्व अपने को ही हार चुके थे, फिर मुझे दांव पर कैसे चढ़ा सकते थे ? और यदि एक हारे हुए जुआरी के द्वारा मैं दांव पर चढ़ा भी दी गई, तो क्या मैं दुर्योधन की दासी बन गई ? धर्म धुरंधर भीष्म ‘धर्म की गति बड़ी सूक्ष्म है’ कहकर उलझा सा जवाब देकर चुप हो गये। ज्ञानवृंद द्रोण चुप्पी साध गये। धर्मावतार युधिष्ठिर का वाक बंद हो गया और भरी सभा में – अपने ही लोगों के सामने अपनों के ही द्वारा ऐसी अपमानित होती रही, जिसका घाव आज तक हरा है, भरा नहीं है। नारी जाति आज भी द्रौपदी के अपमान से चीख पड़ती है। 
अनेक घटनाएँ, जिनकी याद भूल से भी आ जाती है तो मानवता काँप और कचोट उठती है, महाभारत से कृतार्थता पाने का सवाल ही नहीं उठता। विदुर जी मैत्रेय ऋषि से कहते हैं – “हे ऋषि। व्यास जी के मुख से ऊँच-नीच वर्णों के धर्म कई बार सुन चुके हैं किन्तु अब श्रीकृष्ण कथा रूपी अमृत प्रवाह को छोड़कर अन्य स्वल्प सुखदायक धर्मों से मेरा मन ऊब गया है।” –

[श्रीरामकृष्ण की जीवनी और कथा रूपी अमृत प्रवाह को छोड़कर अन्य स्वल्प सुखदायक धर्मों से मेरा मन ऊब गया है।”]
परावेषां भगवन् व्रतानि श्रुतानि मे व्यसमुखादभीक्षण्।
अतृप्नुमः क्षुल्लसुखावहानां तेषामृते कृष्णकथामृतौदात्।।
- (भागवत 3/5/10)
विनम्रता के अनुपात से अनुप्रेरित व्यास ने प्रभु से कहा था – “हे जगत के गुरुदेव। आप अरूप हैं, फिर भी ध्यान के द्वारा मैंने महाभारत आदि ग्रंथ में आपकी बहुशः रूपकी कल्पना की है, रूप में बाँधने की कोशिश की है।  आप अनिर्वचनीय हैं, व्याख्याओं द्वारा आपके रूप को समझ सकना संभव नहीं, फिर भी वचन बाँधने का प्रयास किया है। आप सर्वत्र व्याप्त हैं, तथापि तीर्थयात्रा विधान से आपके उस व्यापकत्व को मैंने खंडित किया है, सीमित किया है। अतः हे जगदीश। मेरी बुद्धिगत विकलता के तीन अपराध – अरूप की रूप कल्पना, अनिर्वचनीय का स्तुतिनिर्वचन और व्यापी का स्थान विशेष में निर्देश – क्षमा करें।” –
रूपं रूपविवर्जितस्यभवतो ध्यानेन यत्कल्पितम्।
स्तुत्या निर्वचनीयता खिलगुरोदूरीकृतायन्मया।।
व्यापित्वं च निराकृतं भगवते यततीर्थयात्रादिना।
क्षन्तव्यं जगदीश, तदविकलता दोष त्रयं मत्कृतम्।।
वस्तुतः विनम्रतावश स्वीकारे गए ये दोष, दोष नहीं, गुण हैं। अरूप को रूप देकर जन-जन में रमाया गया है। जिनका ध्यान योगी भी नहीं साध पाते उन्हें ब्रज रेणु-धेनु के बीच रमाकर सर्वसुलभ बनाया गया है। तीर्थयात्रा को भगवत प्राप्ति यात्राबताकर जन-जन को जोड़ने तथा भूमा बनानेकी कोशिश की गई है। दरअसल भागवत कथा के द्वारा कृष्ण के गुण व लीलाओं का गान वाणी की धन्यता है। अक्रूरजी स्वीकारते हैं कि “जब अखिल पाप विनाशक कृष्ण मंगलमय गुण, कर्म और जन्म की लीलाओं से युक्त होकर वाणी उनका गान करती है, तब उस गान से संसार में जीवन में स्फूर्ति होने लगती है, शोभा का संचार होता है। जिस वाणी से प्रभु का कीर्तन नहीं होता वह मुर्दा वाणी है, व्यर्थ है।” –
यस्याखलामीवहभिः सुमङगलैर्वाचेवि मिश्रा कर्मजन्माभिःय़
प्रणन्ति शुम्भन्ति पुनन्ति पै जगद् यास्तद्विरक्ताः भव भोगना मताः।
(-भागवत 10-38-12)

इसीलिए भागवत में उन भावों का महर्षि व्यास ने परित्याग कर दिया है, जो उन्हें महाभारत में थका चुके थे, आकुल कर चुके थे। कृष्ण जैसे को भी कपट और क्रूरता के लिए विवश होना पड़ा था। विदुर की उपेक्षा और भीष्म की अनसुनी कर दी गई थी। वे इसमें कौरवों के युद्धोन्माद और पांडवों की युद्धोन्माद में शामिल होने की विवशता के वर्णन से बचते हैं और त्रासद घटनाओं का उल्लेख भर करते हुए आगे बढ़ जाते हैं। भागवत में वे भक्ति भाव में सबको सराबोर करना चाहते हैं। कृतकृत्य होना चाहते हैं। भागवत की शरुआत में ही वे भक्ति को परमधर्म मानते हैं और वासुदेव में सब का वास-समाहार –
वासुदेव परा वेदा वासुदेव परामखाः।
वासुदव परा योगा वासुदेव परा क्रियाः।
(- भागवत 1-1-6,14,15,28)
व्यथा कथा के भवजाल में फँसने के बजाय व्यासजी की अकृतार्थता अपनी कृतार्थता के लिए वासुदेव-कथा-रीति को ही अपनी गति बनाती है, और भटकाव से बचने के लिए भागवत रचना के दस प्रस्थान बिन्दु निर्धारित करती है –
अत्र सर्गो विसर्गश्च स्थानं पोषणमूतयः।
मन्वन्तरेशानकथा निरोधो मुक्तिराश्रयः।।
ऐसा सोचना भूल है कि व्यासदेव महाभारत कथा से आकुल-व्याकुल होकर भागवत-कथा में पलायन कर गये। पलायन तो इस देश ने कभी सीखा ही नहीं। न प्रेम जीवन के संघर्ष से पलायन है, भक्ति। 
          भक्ति तो वह शक्ति है जो व्यक्ति को टूटने से बचाती है, धरती को बैकुंठ बनाती है, जीवन जीने में रस प्रदान करती है। भगवान कृष्ण की रणछोर उपाधि पलायन नहीं, अपितु पैंतरा बदलकर दुष्ट दलन और सज्जन रक्षण के एक उपाय का पर्याय है। सब धर्मों-प्रपंचों का पूर्णविराम है भक्ति। अतः इसी भक्ति को भागवत के केन्द्र में प्रतिष्ठित कर व्यास स्व और पर को कृतकृत्यतो छकककर परोसते हैं। राधा-माधव गोपिकाओं में डूबते-डूबते हैं। माधव यदि रसमय विग्रह हैं तो सोलह हजार गोपिकाओं की राशिभूत पीड़ा की पर्याय राधा मिठासमय प्राण रासेश्वरी –

" सोलह सहस पीर तर एकै
राधा कहिए सोई। "
राधा रासेश्वरी की आह्लादिनी शक्ति है। महाभाव रूपा। आद्या प्रकृति। नित्य लीला सहचरी। आह्लाद महाभाव से भावित प्रेम परिपूर्ण लीला का काव्य भागवत, जो विद्वानों और श्रोताओं को एक साथ आह्लादित करता है, राधा-माधव भाव से भावित करता है, सच में कृतार्थता का काव्य है। यहाँ कर्म है तो समर्पण लिये, वैराग्य है तो अनुराग लिये, वध है तो उद्धार के लिए – वध किया ही जाता है लोक उद्धार के लिए। 
आकुल करने वाली कथा का संदर्भ देकर लीन करने वाली कथा-लीला का गायन है। यहां कुरुक्षेत्र और द्वारका का उतना महत्व नहीं है, जितना ब्रज रेणु-धेनु गोपी-ग्वाल का है। रसराज श्रृंगार से सिक्त माधुर्य गुण से मधुमय सख्यभाव का यह काव्य किसे कृतकृत्य नहीं करता ? ज्ञान यहाँ गदगद हो जाता है
 विश्वास न हो तो उद्धव जी से पूछ लीजिए, थोड़ी देर के लिए गोपी-ग्वाल बनकर देख लीजिए। बारह स्कन्धों में रचित भागवत का दशम स्कन्ध जो कृतार्थता का मूल स्रोत है, पूरे भागवत के एक तिहाई से भी ज्यादा भाग में फैला हुआ है। भागवत का सार है। जैसे तुलसी हृदयस्पर्शी प्रसंगों का, तल्लीन करने वाली लीलाओं का रम-जमकर वर्णन करते हैं वैसे ही व्यासदेव दशम स्कन्ध की लीलाओं में लीन से हो गये हैं। लीला वर्णन करते-करते लीलामय हो गये हैं।
इस दशम स्कन्ध को रचते-रचते व्यास देव स्वयं रच गये हैं। श्रद्धालु सुनते-सुनते गदगद हो जाते हैं। इस स्कन्ध की वाणी धन्य हो जाती है। प्रकृतजन अपने ही भावों का गुणगान कृष्ण लीला गान को मानकर तृप्त हो जाते हैं। यहाँ मैं ‘हम’ में समा जाता है, स्वार्थ परमार्थ (100 % निःस्वार्थपरता) के लिए समर्पित हो जाता है। 

 प्रीति की रीति है – रमणीय में रम जाने के लिए। राधा भाव है – माधव बन जाने के लिए। भक्ति भाव है – सभी धर्मों से ऊपर, कुल कानि जाति-पांति की बड़ाई से बड़ा साझा भाव। रास है, जिसमें रास बिहारी का निवास है (रसौ वे सः) जहाँ रासेश्वर स्वयं बंशी बजाते, नाचते हैं और भक्त के साथ-साथ भक्ति भी नाच उठती है। वहाँ कृत-कृत्यता दूर कैसे रह सकती। ये तो ऐसे भाव हैं जो दूर खड़े को भी पास खींच लेते हैं, रमा लेते हैं, समा लेते हैं

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