श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर
(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली )
(20)
*साधक जीवन के लिए कुछ सहायक बातें *
(B)
" तीर्थ यात्रा का महत्व "
197 जस वारि अति सहज मिले , झील कुआँ तालाब।
334 तस भगवन तीरथ महँ , प्रगटत सहज प्रभाव।।
यह निश्चित जानो कि जिस स्थान में अनेक युगों से अनेक लोग ईश्वरदर्शन के उद्देश्य से जप-तप , ध्यान-धारणा , प्रार्थना-उपासना आदि करते आये हैं , वहाँ भगवान का विशेष प्रकाश है। उनकी भक्ति के कारण वहाँ ईश्वरीय भाव घनीभूत होकर विद्यमान है। इसलिए ऐसे स्थान में मनुष्य को सहज ही में ईश्वरीय भाव का उद्दीपन तथा ईश्वर के दर्शन होते हैं।
स्मरणातीत काल से असंख्य साधु , भक्त तथा सिद्ध पुरुष इन क्षेत्रों में ईश्वरदर्शन के लिए आते रहे हैं, तथा अन्य सभी वासनाओं को छोड़कर यहाँ उन्होंने प्राणों की व्याकुलता से ईश्वर को पुकारा है। इसी कारण , ईश्वर के सर्वत्र समान रूप से विराजमान होते हुए भी इन स्थानों में उनका विशेष प्रकाश होता है। जैसे , जमीन को खोदने से सभी जगह पानी मिल सकता है , परन्तु जहाँ कुआँ , तालाब या झील हो वहाँ पानी के लिए जमीन खोदना नहीं पड़ता - जब चाहो तब तुरन्त पानी मिल सकता है।
===============
(C)
" सत्संग के लाभ "
क्या ज्ञानलाभ के पश्चात् यज्ञोपवीत रखना ठीक है ? आत्मबोध प्राप्त हो जाने , या आत्मज्ञान प्राप्त कर लेने पर कोई बंधन नहीं रह जाता , सभी बंधन अपने आप गिर पड़ते हैं। 'उस अवस्था' में ब्राह्मण-शूद्र , उच्च-नीच का बोध नहीं रहता , तब यज्ञोपवीत अपनेआप ही गिर पड़ता है। पर जब तक यह भेदज्ञान रहता है , तबतक जबरदस्ती उसे निकाल फेंकना उचित नहीं।
*" बेल के 'गूदा' (आन्तर तत्व) और 'खोपड़ा' (बाह्यरूप) -दोनों का सम्मान करो !" *भारतीय धर्म की उदार भावना के अनुसार वर्णाश्रमधर्म केवल मोक्ष की सिद्धि का ही उपाय नहीं, प्रत्युत ऐहिक सुख तथा उन्नति का भी साधन है। महर्षि कणाद ने धर्म की परिभाषा में अभ्युदय की सिद्धि को भी परिगणित किया है- 'यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धि: स धर्म:' (वैशेषिक सूत्र १। १। २।)। अभ्युदय और निःश्रेयस ये वे दो लक्ष्य हैं जिन्हें प्राप्त करने के लिए मनुष्य अपने जीवन में पुरुषार्थ या प्रयत्न करता हैं। अभ्युदय का अर्थ है लौकिक सम्पदा और भौतिक उन्नति के माध्यम से अधिकाधिक विषयों के उपभोग के द्वारा सुख प्राप्त करना।
विवेक-प्रयोग करने से समझ में आता है कि लौकिक सुख-सम्पदा वास्तव में सुख का आभास मात्र है क्योंकि प्रत्येक उपभोग के गर्भ में दुःख छिपा रहता है। निःश्रेयस का अर्थ है अनात्मबंध से मोक्ष, या देह-मन की गुलामी से मुक्ति (de -Hypnotized) भ्रममुक्ति । इसमें मनुष्य आत्मस्वरूप (सच्चिदानंद स्वरुप) का ज्ञान प्राप्त करता है जो सम्पूर्ण जगत् का अधिष्ठान है।
इस स्वरूपानुभूति में संसारी जीव की समाप्ति और परमानन्द की प्राप्ति होती है। ये दोनों लक्ष्य परस्पर विपरीत धर्मों वाले हैं। अभ्युदय में जीवभाव बना रहता है जबकि ज्ञान में आत्मभाव दृढ़ बनता है। आत्मानुभवी पुरुष अपने आनन्दस्वरूप का अखण्ड अनुभव करता है। भोग अनित्य है और मोक्ष नित्य; एक में संसार का पुनरावर्तन है तो अन्य में अपुनरावृत्ति। तदनुसार भक्त भी दो प्रकार के होते हैं , एक वह जो निस्वार्थ भाव से काम करता है , और दूसरा वह जो अपनी इच्छाओं की पूर्ति करने के कर्म करता है। यम और नियम दोनों प्रकार के भक्तों के लिए उपयोगी हैं, जो इनका अभ्यास करता है, उसे अभ्युदय (लौकिक सुख-सुविधा) और निःश्रेयस (मोक्ष- भ्रम से मुक्ति) दोनों प्राप्त होती है।
अतएव शास्त्र -निषिद्ध कर्मों का त्याग करके यथासम्भव यम-नियम का पालन करते रहना चाहिए, " देह ही देवालय है " इसलिए -सच्चिदानन्द और बाहरी 'खोल' - तकिया और 'रुई' के समा मनुष्य मात्र के " नाम और रूप ", दोनों का सम्मान करो। ...किसी भी जाति या धर्म के मनुष्य के प्रति हल्की भाषा नहीं बोलना चाहिए।
आन्तर तत्व और बाह्यरूप का , भीतरी भाव और बाहरी प्रतीक - दोनों का सम्मान किया करो। धान के भीतर जो चावल होता है उसी से अंकुर पैदा होता है , बाहरी भूसी से नहीं। परन्तु फिर भी सिर्फ चावल बोन से अंकुर नहीं निकलता , फसल के लिए धान ही बोना पड़ता है। सोने का फसल आ जाने के बाद भले ही धान में से भूसी हटाकर सिर्फ चावल का ही उपयोग किया जाता है। इसी प्रकार धर्म के विकसित होने, बने रहने के लिए आचार-विचार , विधि-नियम, आदि आवश्यक हैं। ये मानो कवच -स्वरूप हैं। इस कवच के भीतर सत्व का बीज निहित होता है। जब तक मनुष्य को इनके अन्तर्निहित सत्यवस्तु की प्राप्ति न हो जाये , तब तक उसे इन बाह्य आचार -नियमों [ यम-नियम ] का पालन करते रहना चाहिए।
सीपी के अन्दर बहुमूल्य मोती होता है , सीपी का कोई मूल्य नहीं होता ; परन्तु मोती के पूरी तरह तैयार होते तक सीपी बहुत ही आवश्यक है। मोती मिल जाने के बाद सीपी का महत्व नहीं रहता। जिसे सर्वोच्च सत्य , परमेश्वर की प्राप्ति हो गयी है , उसके लिए फिर बाह्य आचार -नियमों की आवश्यकता नहीं रह जाती। ... तब तो मन तन्मय (बाण की तरह लक्ष्य में तन्मय) होते हुए ईश्वर में विलीन हो जाता है।
... कई बार हमारे सुनने में आता है कि अमुक का बेटा काशी या अन्य किसी तीर्थक्षेत्र में चला गया है। पर कुछ दिन बाद फिर सुनाई देता है कि उसने वहाँ काफी दौड़धूप करके एक नौकरी जुटा ली है, और घरवालों को चिट्ठी लिखी है और पैसा भी भेजा है। तीर्थक्षेत्र में वास करने जाकर कितने ही लोग वहाँ दुकान खोलकर व्यापार -धन्धा करने बैठ जाते हैं।
.... मथुरनाथ विश्वास के साथ पश्चिम पश्चिम के तीर्थों में जाकर मैंने देखा , वहाँ भी वही आम के पेड़ , इमली के पेड़ , वही बाँस के झुरमुट --जैसे यहाँ , वैसे ही वहाँ भी। देखकर मैंने हृदय से कहा - ' अरे हृदु , फिर हमलोग यहाँ क्या देखने आये ? वहाँ जो है , यहाँ भी वही है। सिर्फ मैदानों पर पड़ी विष्ठा देखने से मालूम होता है कि यहाँ के लोगों की पाचनशक्ति वहां के लोगों से अधिक है।
तीर्थयात्रा का महत्व विषय पर बोलते हुए एकबार नवनीदा ने कहा था , " हममें से प्रत्येक के भीतर ' महान ' बनने की सम्भावना अन्तर्निहित है, हम कितने महान हो सकते हैं- इसकी कोई सीमा नहीं है ! किन्तु हमलोग अपने थोड़े से विकास से ही संतुष्ट हो जाते हैं। थोड़ा पढना-लिखना सीख लिया, कोई नौकरी प्राप्त हो गयी, शादी-विवाह करके थोड़ा पारिवारिक सुख लिया, एक दो सन्तान हो गया, फिर जैसे तैसे जीवन कट ही जाता है। भले ही दुःख-कष्ट में जीना पड़े य़ा पीड़ा और यंत्रणा में य़ा हिंसा-अत्याचार-प्रताड़ना में य़ा फिर लोगों को ठग कर ही सही किसी प्रकार गुजर-बसर तो हो ही जाता है।
इसी लिये बंगला में कहावत है- ' अल्प लईया थाकि ताई, जाहा पाई ताहा चाई ना। ' - हम लोग थोड़े को ही लेकर जीवन बिता देते हैं(क्षूद्र अहं को ही अपना यथार्थ स्वरूप समझते हैं.), इसी लिये जितना भी प्राप्त होता है, उसे चाहते नहीं हैं ! इन्हीं में से कोई यदि 'विद्वान्' भी निकल गया (अर्थात उच्च डिग्री धारी होकर भी जीवन की सार्थकता का अर्थ नहीं समझा) तो उसके कुमार्ग में जाकर और भी अधिक भटक जाने की सम्भावना बढ़ जाती है। इसीलिये स्वामी विवेकानन्द द्वारा बताये गए " कर्म का रहस्य " विषय पर चर्चा करते हुए एक सन्यासी ने किसी पत्रिका में स्वामी जी द्वारा कही गयी एक अति सुन्दर कहानी- " जहाँ बावनवाँ वहीँ तिरपनवाँ " का उदहारण दे कर जो समझाया था, उसकी याद बीच-बीच में आ ही जाती है, वह सुन्दर कथा यूँ है -
किसी गाँव में गाँव के बिल्कुल अंतिम छोर पर एक सन्यासी वास करते थे, उनकी वहाँ एक कुटिया थी। और उसी ग्राम में एक डकैत भी रहता था, उस डकैत ने अनेक बार डाका डाला था, डाका डालने के क्रम में अनेकों खून भी किये थे। जब उसकी उम्र कुछ अधिक हुई तो उस डकैत के मन में विचार आया- नहीं, यह सब कार्य - डाका डालना,किसी मनुष्य की हत्या करना आदि ठीक कार्य नहीं है, अब और ऐसा जघन्य कार्य नहीं करूँगा। फिर सोचने लगा, यह कार्य छोड़ देने के बाद रहूँगा कहाँ, कहाँ जाना ठीक होगा ? फिर उसने सोंचा, साधु-संन्यासी (निवृत्ति मार्गी) लोग तो अक्सर परोपकार करने का उपदेश देते हैं, जो लोग किसी संकट में पड़ जाते हैं, उनको आश्रय देते हैं, तो क्यों नहीं साधु महाराज से पूछा जाय ?
वे साधु के पास जा कर बोले- " मैं इस प्रकार का एक दुर्दान्त डकैत हूँ, अनेकों मनुष्यों की हत्या कर चुका हूँ, कई डाके डाले हैं, किन्तु मुझे अब यह सब अच्छा नहीं लगता है। मैं यहाँ आपके आश्रय में रहना चाहता हूँ, मुझे यहाँ रहने देंगे? " साधु बोले- " ठीक है, रह जाओ। " कुछ दिन उनके सत्संग में रहने के बाद, उस डकैत ने पुनः कहा- " मैंने तो अनेकों पाप किये हैं थोड़ा पुण्य संचय करने के लिये तीर्थाटन- स्नान आदि करने की इच्छा हो रही है।"
साधु बोले- " अच्छा यह बताओ कि तीर्थ -स्नान आदि करने से तुम्हारे पाप मिट गये हैं य़ा नहीं - इस बात को तुम समझोगे कैसे ? " उसने सोंचा- ' बिल्कुल ठीक बात है, सचमुच मैं कैसे जान पाउँगा कि मेरे पाप गये हैं य़ा नहीं? साधु बोले- " तुम एक काम करो, सफ़ेद कपड़े का एक छोटा सा टुकड़ा ले आओ। " वह डकैत आधा गज सफ़ेद कपड़ा का टुकड़ा ले आया। साधु बोले- ' वहाँ पर काले स्याही की बोतल रखी हुई है, तुम उसकी थोड़ी स्याही इस सफ़ेद कपड़े पर उड़ेल दो। " डकैत ने वह स्याही कपड़े पर उड़ेल दी।
फिर साधु बोले - " इस कपड़े को तुम अपनी गठरी में रख लो। जब किसी तीर्थ स्थान में जाकर स्नान करोगे तो, स्नान करने के बाद बाहर निकलते ही इस कपड़े को गठरी से बाहर निकाल कर देख लेना - यदि देखो कि कपड़ा तो काला ही है, तो समझ लेना कि तुम्हारा पाप अभी मिटा नहीं है, और जब पाप मिट जायेगा तो देखोगे कि कपड़ा फिर से पहले जैसा सफ़ेद हो गया है! "
अब वह डकैत विभिन्न तीर्थ स्थानों का दर्शन करने के बाद जहाँ-जहाँ स्नान करता, प्रत्येक बार उस कपड़े को बाहर निकाल कर देख लेता, पर उसका कालापन मिटता ही नहीं था- जैसा था वैसा ही बना रहता। वह बहुत उदास मन से वापस लौट रहा था।
वापस लौटते समय रास्ते में एक घना जंगल भी पार करना पड़ता था। जब वह उसी घने जंगल से गुजर रहा था, तो उसे किसी स्त्री की आर्तनाद- ' बचाओ-बचाओ ' की पुकार सुनाई दी। वह उसी आवाज का अनुसरण करता हुआ जब घटना स्थल पर पहुँचा, तो देखा कि एक नव-विवाहिता स्त्री को पकड़ कर, रस्सी के द्वारा कुछ डकैत लोग उसे एक पेंड़ से बांध दिया है, और उसका सब गहना-गुड़िया लूट रहा है।
तीर्थाटन करके वापस लौटते हुए डकैत के मन में हठात धर्मबोध (अद्वैत भाव) जाग उठा - ' नहीं नहीं इस अकेली महिला को तो बचाना ही होगा! ' लूटने वाले डकैत की ही कुल्हाड़ी जमीन पर गिरी हुई थी। उसी कुल्हाड़ी को उठाकर बोला- ' जहाँ बावन वाँ वहीं तिरपन वाँ !' और झट से एक डकैत के माथे पर वार कर दिया। उसका सर फट गया और रक्त-रंजित हो कर वह वहीं गिर पड़ा, उसकी हालत देख कर अन्य सब डकैत भाग गये। तब डकैत ने उस स्त्री का बन्धन खोल दिया, उसका समस्त गहना आदि को एकत्र करके एक पोटली में बांध कर उस लड़की के हाथ में देकर बोला- ' तुम्हारा घर किस गाँव में है, कहाँ रहती हो ?' फिर उसके द्वारा बताये रास्ते तक , उसे छोड़ कर, साधु के पास वापस लौट आया।
जब साधु के पास पहुँचा तो साधु ने पूछा- " क्या समाचार है, बताओ तुम्हारे पाप -टाप मिटे य़ा नहीं ? डकैत बहुत दुखी होकर बोला- " पाप मिटना तो दूर की बात है, और एक और नया खून कर के आ रहा हूँ!" साधु ने पूछा कैसे, क्या हुआ था ? पूरा घटनाक्रम कह सुनाया कि , ' इस- इस प्रकार यह सब हो गया है।' तब साधु महाराज बोले- ' ठीक है, तुम जरा अभी अपनी मोटरी से उस गंदे कपड़े को बाहर निकाल कर देखो तो। ' जब उसने गंदे कपड़े को बाहर निकाला तो देखता है- अब वहाँ थोड़ी भी स्याही नहीं है, पूरा कपड़ा बिल्कुल सफ़ेद हो गया है! हमलोग इस मुहाबरे- ' जहाँ बावनवाँ वहीं तिरपनवाँ ' को अक्सर व्यवहार में लाते हैं।
इस उदहारण के द्वारा सन्यासी महाराज ने कर्म-योग के मूल रहस्य को इस प्रकार समझाया- " यह खून- जो तुमने अभी अभी किया है,एक अबला स्त्री की रक्षा करने के लिये तुमने किया है; वहाँ वह खून करना ही तुम्हारा कर्तव्य था। लेकिन इसके पहले तुमने जितने खून किये थे, उसके पीछे तुम्हारा उद्देश्य उनकी हत्या करके लूट-पाट करना था। और अभी जो खून किया वह किसी के कल्याण के उद्देश्य से किया है! इसलिए हत्या जैसा जघन्य कर्म भी विवेक पूर्वक करने से कर्मयोग बन जाता है ! "
यही धर्म-बोध, इस प्रकार विवेक-पूर्वक कर्म करने की क्षमता - हममे से प्रत्येक के भीतर रहना आवश्यक है! लेकिन ऐसी शिक्षा- हर समय अपने विवेक को जाग्रत रखते हुए कर्म करने की शिक्षा ; अब हमलोगों को कहाँ प्राप्त हो रही है ? आधुनिक साहित्य के नाम पर इन दिनों इन्टरनेट, टीवी, सिनेमा आदि विभिन्न माध्यमों से जो सब प्रचारित किया जा रहा है, समाचार पत्रों में जैसे-जैसे चित्र और सम्वाद निकल रहे हैं इन सब को देख कर ऐसा प्रीत होता है कि, भारत की प्राचीन संस्कृति नष्ट हो चुकी है, और हमलोग यह मान चुके हैं कि अब हम सभी लोगों को यही सब चोरी-भ्रष्टाचार करना ही पड़ेगा ।
पर यह बात सच नहीं है, हमारी सांस्कृतिक विरासत पूरी तरह से नष्ट नहीं हुई है। अब भी जितना कुछ बचा हुआ है, आवश्यकता केवल उस ओर दृष्टि रखने की है। इसीलिये जिन के भीतर थोड़ी सी भी सदबुद्धि है, जिनको थोड़ा भी समाज और देश के कल्याण की चिन्ता है, उनको चाहिये कि अपने इसी प्राचीन धरोहर से इस प्रकार के उच्च भावों को जीवन में धारण करके उनलोगों के समक्ष रख दें जो अभी तरुण अवस्था में हैं। अगर हम ऐसा नहीं करेंगे तो देश बचेगा कैसे?
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें