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शुक्रवार, 4 जून 2021

श्री रामकृष्ण दोहावली (20 B,C,D):- साधक जीवन के लिए कुछ सहायक बातें (B) " तीर्थ यात्रा का महत्व " (C) " सत्संग के लाभ * (D) " सद्गुरु से प्राप्त 'नाम' के जप का माहात्म्य

श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर 

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(20) 

*साधक जीवन के लिए कुछ सहायक बातें *

(B)

" तीर्थ यात्रा का महत्व "

197 जस वारि अति सहज मिले , झील कुआँ तालाब। 

334 तस भगवन तीरथ महँ , प्रगटत सहज प्रभाव।।

यह निश्चित जानो कि जिस स्थान में अनेक युगों से अनेक लोग ईश्वरदर्शन के उद्देश्य से जप-तप , ध्यान-धारणा , प्रार्थना-उपासना आदि करते आये हैं , वहाँ भगवान का विशेष प्रकाश है। उनकी भक्ति के कारण वहाँ ईश्वरीय भाव घनीभूत होकर विद्यमान है। इसलिए ऐसे स्थान में मनुष्य को सहज ही में ईश्वरीय भाव का उद्दीपन तथा ईश्वर के दर्शन होते हैं। 

  स्मरणातीत काल से असंख्य साधु , भक्त तथा सिद्ध पुरुष इन क्षेत्रों में ईश्वरदर्शन के लिए आते रहे हैं, तथा अन्य सभी वासनाओं को छोड़कर यहाँ उन्होंने प्राणों की व्याकुलता से ईश्वर को पुकारा है। इसी कारण , ईश्वर के सर्वत्र समान रूप से विराजमान होते हुए भी इन स्थानों में उनका विशेष प्रकाश होता है। जैसे , जमीन को खोदने से सभी जगह पानी मिल सकता है , परन्तु जहाँ कुआँ , तालाब या झील हो वहाँ पानी के लिए जमीन खोदना नहीं पड़ता - जब चाहो तब तुरन्त पानी मिल सकता है।  

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(C)

" सत्संग के लाभ " 

198 एक जलावे आग है , तापे जस दस- चार। 
340 तस सन्तन्ह के राह पर , चलत सकल संसार।।

      कोई एक व्यक्ति लकड़ी लाकर आग जलाता है तो दस आदमी उसकी गरमी का लाभ उठाते हैं।  इसी प्रकार जब कोई व्यक्ति कठोर साधना , उग्र तपस्या कर के भगवान को प्राप्त कर लेता है तो उसके सम्पर्क में आकर , उसके उपदेशानुसार चलकर बहुत से लोग ईश्वर की ओर अग्रसर होने लगते हैं। जैसे वकील को देखने से मामले-मुकदमे और कचहरी की ही बातें मन में आती है वैसे ही साधु या भक्त को देखने से ईश्वर और धर्म -सम्बन्धी बातों का ही स्मरण होता है।

199 फूंक फूंक जस जतन कर , आग बुझन नहिं देत। 

342 तस सत संगत साधु के , मन को रखे सचेत।।

गृहस्थ को अपना जीवन कैसे बिताना चाहिये ? जैसे अँगीठी में जलने वाले अंगार को बीच-बीच में फूँककर उकसा देना पड़ता है ताकि वह बुझ पाए ; वैसे ही बीच-बीच में साधुसंग करते हुए मन को सचेत , सतेज बनाये रखना चाहिए। 
                         200 जस लुहार फूँक धौंकनी, भट्ठी बुझन न देत। 

343 तस सत संगत साधु के , मन को रखे सचेत।।

जिस प्रकार लुहार बीच-बीच में धौंकनी चलाकर भट्ठी की आग को बनाये रखता है , उसी प्रकार साधुसंग के द्वारा मन को सचेत बनाये रखना चाहिए।  

201 जस पड़ दावानल में , हरे पेड़ जल जाये।
 
346 तस मन कै सब वासना , साधु संगति पाये।।  

अगर चूल्हे की आग पर गीली लकड़ी भी रख दी जाये , तो आँच लगकर उसके भीतर का पानी सूख जाता है। और लकड़ी जल उठती है। इसी तरह , साधुसंग के प्रभाव से संसारी जीवों के भीतर से कामिनी-कांचन रूपी जल सूखकर उनमें विवेक की अग्नि जल उठती है। 
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(D) 

 " नाम जप का माहात्म्य "

206 जस चिंगारी में पड़त , रुई होवत है राख। 

357 तैसे हरि के नाम से , पाप कटत है लाख।। 

जैसे रुई के पहाड़ में एक छोटी सी चिंगारी पड़ जाने पर वह देखते ही देखते जलकर राख हो जाता है , वैसे ही भक्तिभाव भगवान का नाम -गुण गाने पर पर्वत समान पाप भी नष्ट हो जाता है।

204 तूल न पायो कृष्ण को , मणि मुक्ता अनेक।
 
351 नाम भरोसे तूल सके , तुलसी पत्ता एक।।

नाम क्या कम है ? नाम और नामी अभिन्न हैं ! सत्यभामा ने तुला पर एक ओर श्रीकृष्ण को चढ़ाकर दूसरी ओर स्वर्ण , मणि -माणिक्य आदि रखते हुए उन्हें तौलना चाहा। पर उसका सारा प्रयत्न असफल हुआ। परन्तु जब रुक्मणि ने दूसरे पल्ले पर तुलसीपत्र और कृष्णनाम लिखकर धर दिया तब दोनों पल्लों का भार समान हो गया।  
 
205 मुख में लेवत नाम है , हिय में नहीं अनुराग। 

356 मिले न कृपा राम का , बुझे न भव की आग। 

     'केवल नाम -ग्रहण से ही भगवद-दर्शन हो सकता है ' --ऐसा कहने वाले किसी धर्मप्रचारक से श्रीरामकृष्ण ने कहा था -- " अवश्य ही भगवान के नाम की बड़ी महिमा है , पर अनुराग के बिना क्या होगा ? भगवान को पाने के लिए प्राण व्याकुल होने चाहिए। अगर मैं मुंह से भगवान का नाम लेता रहूं पर मन को कामिनी -कांचन में ही लिप्त रखूं , तो उससे क्या लाभ होगा ? अगर बिच्छू ने काटा हो तो सिर्फ मंत्र पढ़ने से काम नहीं चलता ,कण्डा जलाकर उसका धुआँ भी देना पड़ता है। ... इसलिए नाम भी लिया करो और साथ ही प्रार्थना भी करो कि ईश्वर पर अनुराग हो , और धन , मान , देहसुख आदि अनित्य असार वस्तुओं के प्रति आसक्ति घट जाये। "

202 सदा नाम लेते रहो , प्रभु से कर लो प्रीत। 

350 काम क्रोध मद लोभ से , सहज मिलेगा जीत।।

203 नाम लेत दिन दिन बढ़े , प्रेम भगति अनुराग।
 
350 मिले कृपा आनन्द अरु , बुझे सकल भव आग। 

श्रीरामकृष्ण (एक भक्त से ) -- भक्ति के द्वारा इन्द्रियाँ अपने आप वश में आ जाती हैं , बड़ी सरलता से उनका संयम हो जाता है। ईश्वर के प्रति प्रेम जितना अधिक बढ़ेगा शरीरसुख भोगने की इच्छा उतनी ही घटती जाएगी। जिस दिन घर में सन्तान की मृत्यु हो जाती है उस दिन क्या पतिपत्नी का मन देहसुख की ओर जा सकता है ?
भक्त - पर मैं भगवान से प्रेम करना नहीं जानता। 
श्रीरामकृष्ण - सतत उनका नाम लेते रहो। इससे तुम्हारे भीतर से काम , क्रोध , देहसुख भोगने की वासना आदि सब दूर हो जायेंगे। 
भक्त- पर मुझे भगवान के नाम में रस नहीं मिलता। 
श्रीरामकृष्ण - तब उन्हीं से व्याकुल होकर प्रार्थना करो , जिससे तुम्हें नाम में रूचि हो। वे तुम्हारी प्रार्थना अवश्य सुनेंगे। ....त्वन्नामे अरुचिः, दिबा शर्वरि ' सन्निपात के रोगी को यदि भोजन के प्रति रूचि जाती रहे तो फिर उसके बचने की आशा नहीं रहती ; पर यदि थोड़ी भी रूचि रहे तो बचने की बहुत आशा रहती है। इसलिए नाम में रूचि पैदा करो। भगवान का नाम लेते रहो। दुर्गानम , कृष्णनाम , शिवनाम जो नाम तुम्हें अच्छा लगे वही लिया करो। यदि नाम लेते हुए दिनोंदिन नाम के प्रति अनुराग बढ़ता जाये , उसमें अधिकाधिक आनन्द मिले , तो फिर तुम्हें कोई भय नहीं।  तुम्हारा सन्निपात का विकार जरूर कट जायेगा , उनकी कृपा जरूर होगी। 
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{नारद पांचरात्र * 'रात्र' का अर्थ है- 'ज्ञान'। ग्रन्थ के अनुसार , विषयासक्त जीवों के लिए , द्वैत भाव की भक्ति का अनुसरण करते हुए उच्च स्वर से नाम-संकीर्तन करना सबसे सरल उपाय है। " जाने या अनजाने , भूल से या भ्रम से , किसी भी तरह क्यों न हो , भगवान का नाम लेने से उसका फल अवश्य मिलेगा। कोई नदी पर जाकर स्नान करे तो उसका जैसा स्नान होता है , वैसे ही अगर किसी को पानी में धकेल दिया जाये तो उसका भी स्नान हो जाता है , और कोई सोया हुआ हो और उस पर पानी ढाल दिया जाये तो उसका भी स्नान हो ही जाता है।   जाने- अनजाने , किसी भी रीति से क्यों हो , अगर कोई अमृत कुण्ड में एक बार गिर पड़े तो अमर हो जाता है। इसी प्रकार कोई जानकर या अनजान में या और किसी भी तरह भगवान का नाम क्यों न ले , वह अंत में अमरत्व प्राप्त करता है।  जब श्रीरामकृष्णदेव इहलोक में विद्यमान थे , उस समय बीच-बीच में उनके कुछ शिष्य उनके निकट अपनी तीर्थ- भ्रमण की इच्छा प्रकट किया करते थे।  इस पर अवतारवरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्ण कहा करते -" जिसके यहाँ है (अपने हृदय में ठाकुरदेव है), उसके वहाँ  भी है (तीर्थस्थानों में भी है) , पर जिसके यहाँ नहीं है, उसके वहाँ भी नहीं है। " 
     अथवा " जिसके हृदय में भक्तिभाव है , तीर्थ-स्थानों (जयरामबाटी और कामारपुकुर) में उनका वही भाव और अधिक वर्धित होता है। परन्तु जिसके हृदय में वह भाव नहीं है , [ जो व्यक्ति बेलुड़ मठ केवल घूमने जाता है], उसका वहाँ जाकर भी भला विशेष क्या होनेवला है ?    

क्या ज्ञानलाभ के पश्चात् यज्ञोपवीत रखना ठीक है ? आत्मबोध प्राप्त हो जाने , या आत्मज्ञान प्राप्त कर लेने पर कोई बंधन नहीं रह जाता , सभी बंधन अपने आप गिर पड़ते हैं। 'उस अवस्था' में ब्राह्मण-शूद्र , उच्च-नीच का बोध नहीं रहता , तब यज्ञोपवीत अपनेआप ही गिर पड़ता है। पर जब तक यह भेदज्ञान रहता है , तबतक जबरदस्ती उसे निकाल फेंकना उचित नहीं।  

*" बेल के 'गूदा' (आन्तर तत्व) और 'खोपड़ा' (बाह्यरूप)  -दोनों का सम्मान करो !" *भारतीय धर्म की उदार भावना के अनुसार वर्णाश्रमधर्म केवल मोक्ष की सिद्धि का ही उपाय नहीं, प्रत्युत ऐहिक सुख तथा उन्नति का भी साधन है। महर्षि कणाद ने धर्म की परिभाषा में अभ्युदय की सिद्धि को भी परिगणित किया है- 'यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धि: स धर्म:'  (वैशेषिक सूत्र १। १। २।)। अभ्युदय और निःश्रेयस ये वे दो लक्ष्य हैं जिन्हें प्राप्त करने के लिए मनुष्य अपने जीवन में पुरुषार्थ या प्रयत्न करता हैं। अभ्युदय का अर्थ है लौकिक सम्पदा और भौतिक उन्नति के माध्यम से अधिकाधिक विषयों के उपभोग के द्वारा सुख प्राप्त करना।

    विवेक-प्रयोग करने से समझ में आता है कि लौकिक सुख-सम्पदा  वास्तव में सुख का आभास मात्र है क्योंकि प्रत्येक उपभोग के गर्भ में दुःख छिपा रहता है। निःश्रेयस का अर्थ है अनात्मबंध से मोक्ष, या देह-मन की गुलामी से मुक्ति (de -Hypnotized) भ्रममुक्ति । इसमें मनुष्य आत्मस्वरूप (सच्चिदानंद स्वरुप) का ज्ञान प्राप्त करता है जो सम्पूर्ण जगत् का अधिष्ठान है। 

     इस स्वरूपानुभूति में संसारी जीव की समाप्ति और परमानन्द की प्राप्ति होती है। ये दोनों लक्ष्य परस्पर विपरीत धर्मों वाले हैं। अभ्युदय में जीवभाव बना रहता है जबकि ज्ञान में आत्मभाव दृढ़ बनता है। आत्मानुभवी पुरुष अपने आनन्दस्वरूप का अखण्ड अनुभव करता है। भोग अनित्य है और मोक्ष नित्य; एक में संसार का पुनरावर्तन है तो अन्य में अपुनरावृत्ति। तदनुसार भक्त भी दो प्रकार के होते हैं , एक वह जो निस्वार्थ भाव से काम करता है , और दूसरा  वह जो अपनी इच्छाओं की पूर्ति करने के कर्म करता है।  यम और नियम दोनों प्रकार के भक्तों के लिए उपयोगी हैं, जो इनका अभ्यास करता है, उसे अभ्युदय (लौकिक सुख-सुविधा) और निःश्रेयस (मोक्ष- भ्रम से मुक्ति) दोनों प्राप्त होती है। 

अतएव शास्त्र -निषिद्ध कर्मों का त्याग करके यथासम्भव यम-नियम का पालन करते रहना चाहिए, " देह ही देवालय है " इसलिए -सच्चिदानन्द और बाहरी 'खोल' - तकिया और 'रुई' के समा  मनुष्य मात्र के " नाम और रूप ", दोनों का सम्मान करो।  ...किसी भी जाति या धर्म के मनुष्य के प्रति हल्की भाषा नहीं बोलना चाहिए। 

   आन्तर तत्व और बाह्यरूप का , भीतरी भाव और बाहरी प्रतीक - दोनों का सम्मान किया करो। धान के भीतर जो चावल होता है उसी से अंकुर पैदा होता है , बाहरी भूसी से नहीं। परन्तु फिर भी सिर्फ चावल बोन से अंकुर नहीं निकलता , फसल के लिए धान ही बोना पड़ता है। सोने का फसल आ जाने के बाद भले ही धान में से भूसी हटाकर सिर्फ चावल का ही उपयोग किया जाता है। इसी प्रकार धर्म के विकसित होने,  बने रहने के लिए आचार-विचार , विधि-नियम, आदि आवश्यक हैं। ये मानो कवच -स्वरूप हैं। इस कवच के भीतर सत्व का बीज निहित होता है। जब तक मनुष्य को इनके अन्तर्निहित सत्यवस्तु की प्राप्ति न हो जाये , तब तक उसे इन बाह्य आचार -नियमों [ यम-नियम ] का पालन करते रहना चाहिए। 

              सीपी के अन्दर बहुमूल्य मोती होता है , सीपी का कोई मूल्य नहीं होता ; परन्तु मोती के पूरी तरह तैयार होते तक सीपी बहुत ही आवश्यक है। मोती मिल जाने के बाद सीपी का महत्व नहीं रहता। जिसे सर्वोच्च सत्य , परमेश्वर की प्राप्ति हो गयी है , उसके लिए फिर बाह्य आचार -नियमों की आवश्यकता नहीं रह जाती। ... तब तो मन तन्मय (बाण की तरह लक्ष्य में तन्मय) होते हुए ईश्वर में विलीन हो जाता है।  


 [जैसे (कालीभक्त) श्रीरामकृष्ण को देखने से माँ काली का स्मरण होता है, और ठाकुर-माँ-स्वामीजी के भक्त नवनीदा को देखने से ठाकुर-माँ -स्वामीजी सहित माँ काली की भक्ति का ही स्मरण होता है। ] 

... कई बार हमारे सुनने में आता है कि अमुक का बेटा काशी या अन्य किसी तीर्थक्षेत्र में चला गया है। पर कुछ दिन बाद फिर सुनाई देता है कि उसने वहाँ काफी दौड़धूप करके एक नौकरी जुटा ली है, और घरवालों को चिट्ठी लिखी है और पैसा भी भेजा है। तीर्थक्षेत्र में वास करने जाकर कितने ही लोग वहाँ दुकान खोलकर व्यापार -धन्धा करने बैठ जाते हैं। 

       .... मथुरनाथ विश्वास के साथ पश्चिम पश्चिम के तीर्थों में जाकर मैंने देखा , वहाँ भी वही आम के पेड़ , इमली के पेड़ , वही बाँस के झुरमुट --जैसे यहाँ , वैसे ही वहाँ भी। देखकर मैंने हृदय से कहा - ' अरे हृदु , फिर हमलोग यहाँ क्या देखने आये ? वहाँ जो है , यहाँ भी वही है। सिर्फ मैदानों पर पड़ी विष्ठा देखने से मालूम होता है कि यहाँ के लोगों की पाचनशक्ति वहां के लोगों से अधिक है। 

तीर्थयात्रा का महत्व विषय पर बोलते हुए एकबार नवनीदा ने कहा था , "  हममें से प्रत्येक के भीतर ' महान ' बनने की सम्भावना अन्तर्निहित है, हम कितने महान हो सकते हैं- इसकी कोई सीमा नहीं है ! किन्तु हमलोग अपने थोड़े से विकास से ही संतुष्ट हो जाते हैं।  थोड़ा पढना-लिखना सीख लिया, कोई नौकरी प्राप्त हो गयी, शादी-विवाह करके थोड़ा पारिवारिक सुख लिया, एक दो सन्तान हो गया, फिर जैसे तैसे जीवन कट ही जाता है।  भले ही दुःख-कष्ट में जीना पड़े य़ा  पीड़ा और यंत्रणा में य़ा  हिंसा-अत्याचार-प्रताड़ना में य़ा फिर लोगों को ठग कर ही सही किसी प्रकार गुजर-बसर तो हो ही जाता है।  

इसी लिये बंगला में कहावत है- ' अल्प लईया थाकि ताई, जाहा पाई  ताहा चाई ना। ' - हम लोग थोड़े को ही लेकर जीवन बिता देते हैं(क्षूद्र अहं को ही अपना यथार्थ स्वरूप समझते हैं.), इसी लिये जितना भी प्राप्त होता है, उसे चाहते नहीं हैं ! इन्हीं में से कोई यदि 'विद्वान्' भी निकल गया (अर्थात उच्च डिग्री धारी होकर भी जीवन की सार्थकता का अर्थ नहीं समझा) तो उसके कुमार्ग में जाकर और भी अधिक भटक जाने की सम्भावना बढ़ जाती है। इसीलिये स्वामी विवेकानन्द द्वारा बताये गए " कर्म का रहस्य " विषय पर चर्चा करते हुए एक सन्यासी ने किसी पत्रिका में  स्वामी जी द्वारा कही गयी एक अति सुन्दर कहानी- जहाँ बावनवाँ वहीँ तिरपनवाँ " का उदहारण दे कर जो समझाया था, उसकी याद बीच-बीच में आ ही जाती है, वह सुन्दर कथा यूँ है - 

          किसी गाँव में गाँव के बिल्कुल अंतिम छोर पर एक सन्यासी वास करते थे, उनकी वहाँ एक कुटिया थी। और उसी ग्राम में एक डकैत भी रहता था, उस डकैत ने अनेक बार डाका डाला था, डाका डालने के क्रम में अनेकों खून भी किये थे। जब उसकी उम्र कुछ अधिक हुई तो उस डकैत के मन में विचार आया- नहीं, यह सब कार्य - डाका डालना,किसी मनुष्य की हत्या करना आदि ठीक कार्य नहीं है, अब और ऐसा जघन्य कार्य नहीं करूँगा। फिर सोचने लगा, यह कार्य छोड़ देने के बाद रहूँगा कहाँ, कहाँ जाना ठीक होगा ? फिर उसने सोंचा, साधु-संन्यासी (निवृत्ति मार्गी) लोग तो अक्सर परोपकार करने का उपदेश देते हैं, जो लोग किसी संकट में पड़ जाते हैं, उनको आश्रय देते हैं, तो क्यों नहीं साधु महाराज से पूछा जाय ?

     वे साधु के पास जा कर बोले- " मैं इस प्रकार का एक दुर्दान्त डकैत हूँ, अनेकों मनुष्यों की हत्या कर चुका हूँ, कई डाके डाले हैं, किन्तु मुझे अब यह सब अच्छा नहीं लगता है। मैं यहाँ आपके आश्रय में रहना चाहता हूँ, मुझे यहाँ रहने देंगे? " साधु बोले- " ठीक है, रह जाओ। " कुछ दिन उनके सत्संग में रहने के बाद, उस डकैत ने पुनः कहा- " मैंने तो अनेकों पाप किये हैं थोड़ा पुण्य संचय करने के लिये तीर्थाटन- स्नान आदि करने की इच्छा हो रही है।"

       साधु बोले- " अच्छा यह बताओ कि तीर्थ -स्नान आदि करने से तुम्हारे पाप मिट गये हैं य़ा नहीं - इस बात को तुम समझोगे कैसे ? " उसने सोंचा- ' बिल्कुल ठीक बात है, सचमुच मैं कैसे जान पाउँगा कि मेरे पाप गये हैं य़ा नहीं? साधु बोले- " तुम एक काम करो, सफ़ेद कपड़े का एक छोटा सा टुकड़ा ले आओ। " वह डकैत आधा गज सफ़ेद कपड़ा का टुकड़ा ले आया। साधु बोले- ' वहाँ पर काले स्याही की बोतल रखी हुई है, तुम उसकी थोड़ी स्याही इस सफ़ेद कपड़े पर उड़ेल  दो। " डकैत ने वह स्याही कपड़े पर उड़ेल दी। 

      फिर साधु बोले - " इस कपड़े को तुम अपनी गठरी में रख लो। जब किसी तीर्थ स्थान में जाकर स्नान करोगे तो, स्नान करने के बाद बाहर निकलते ही इस कपड़े को गठरी से बाहर निकाल कर देख लेना - यदि देखो कि कपड़ा तो काला ही है, तो समझ लेना कि तुम्हारा पाप अभी मिटा नहीं है, और जब पाप मिट जायेगा तो देखोगे कि कपड़ा फिर से पहले जैसा सफ़ेद हो गया है! " 

     अब वह डकैत विभिन्न तीर्थ स्थानों का दर्शन करने के बाद जहाँ-जहाँ स्नान करता, प्रत्येक बार उस कपड़े को बाहर निकाल कर देख लेता, पर उसका कालापन मिटता ही नहीं था- जैसा था वैसा ही बना रहता। वह  बहुत उदास मन से वापस लौट रहा था।  

      वापस लौटते समय रास्ते में एक घना जंगल भी पार करना पड़ता था। जब वह उसी घने जंगल से गुजर रहा था, तो उसे किसी स्त्री की आर्तनाद- ' बचाओ-बचाओ ' की पुकार सुनाई दी। वह उसी आवाज का अनुसरण करता हुआ जब घटना स्थल पर पहुँचा, तो देखा कि एक नव-विवाहिता स्त्री को पकड़ कर, रस्सी के द्वारा कुछ डकैत लोग उसे एक पेंड़ से बांध दिया है, और उसका सब गहना-गुड़िया लूट रहा है। 

     तीर्थाटन करके वापस लौटते हुए डकैत के मन में हठात धर्मबोध (अद्वैत भाव) जाग उठा - ' नहीं नहीं इस अकेली महिला को तो बचाना ही होगा! ' लूटने वाले डकैत की ही कुल्हाड़ी जमीन पर गिरी हुई थी।  उसी कुल्हाड़ी को उठाकर बोला- ' जहाँ बावन वाँ वहीं तिरपन वाँ !' और झट से एक डकैत के माथे पर वार कर दिया। उसका सर फट गया और रक्त-रंजित हो कर वह वहीं गिर पड़ा, उसकी हालत देख कर अन्य सब डकैत भाग गये। तब डकैत ने उस स्त्री का बन्धन खोल दिया, उसका समस्त गहना आदि को एकत्र करके एक पोटली में बांध कर उस लड़की के हाथ में देकर बोला- ' तुम्हारा घर किस गाँव में है, कहाँ रहती हो ?' फिर उसके द्वारा बताये रास्ते तक , उसे छोड़ कर, साधु के पास वापस लौट आया।  

      जब साधु के पास पहुँचा तो साधु ने पूछा- " क्या समाचार है, बताओ तुम्हारे पाप -टाप मिटे य़ा नहीं ? डकैत बहुत दुखी होकर बोला- " पाप मिटना तो दूर की बात है, और एक और नया खून कर के आ रहा हूँ!" साधु ने पूछा कैसे, क्या हुआ था ? पूरा घटनाक्रम कह सुनाया कि , ' इस- इस प्रकार यह सब हो गया है।'  तब साधु महाराज बोले- ' ठीक है, तुम जरा अभी अपनी मोटरी से उस गंदे कपड़े को बाहर निकाल कर देखो तो। ' जब उसने गंदे कपड़े को बाहर निकाला तो देखता है- अब वहाँ थोड़ी भी स्याही नहीं है, पूरा कपड़ा बिल्कुल सफ़ेद हो गया है! हमलोग इस मुहाबरे- ' जहाँ बावनवाँ वहीं तिरपनवाँ ' को अक्सर व्यवहार में लाते हैं। 

        इस उदहारण के द्वारा सन्यासी महाराज ने कर्म-योग के मूल रहस्य को इस प्रकार समझाया- " यह खून- जो तुमने अभी अभी किया है,एक अबला स्त्री की रक्षा करने के लिये तुमने किया है; वहाँ वह खून करना ही तुम्हारा कर्तव्य था। लेकिन इसके पहले तुमने जितने खून किये थे, उसके पीछे तुम्हारा उद्देश्य उनकी हत्या करके लूट-पाट करना था। और अभी जो खून किया वह किसी के कल्याण के उद्देश्य से किया है!  इसलिए हत्या जैसा जघन्य कर्म भी विवेक पूर्वक करने से कर्मयोग बन जाता है ! "   

       यही धर्म-बोध, इस प्रकार विवेक-पूर्वक कर्म करने की क्षमता - हममे से प्रत्येक के भीतर रहना आवश्यक है! लेकिन ऐसी शिक्षा- हर समय अपने विवेक को जाग्रत रखते हुए कर्म करने की शिक्षा ; अब हमलोगों को कहाँ प्राप्त हो रही है ? आधुनिक साहित्य के नाम पर इन दिनों  इन्टरनेट, टीवी, सिनेमा आदि विभिन्न माध्यमों से जो सब प्रचारित किया जा रहा है, समाचार पत्रों में जैसे-जैसे चित्र और सम्वाद निकल रहे हैं इन सब को देख कर ऐसा प्रीत होता है कि, भारत की प्राचीन संस्कृति नष्ट हो चुकी है, और हमलोग यह मान चुके हैं कि अब हम सभी लोगों को यही सब चोरी-भ्रष्टाचार करना ही पड़ेगा । 

पर यह बात सच नहीं है, हमारी सांस्कृतिक विरासत पूरी तरह से नष्ट नहीं हुई है।  अब भी जितना कुछ बचा हुआ है, आवश्यकता केवल उस ओर दृष्टि रखने की है। इसीलिये जिन के भीतर थोड़ी सी भी सदबुद्धि है, जिनको थोड़ा भी समाज और देश के कल्याण की चिन्ता है, उनको चाहिये कि अपने इसी प्राचीन धरोहर से इस प्रकार के उच्च भावों को जीवन में धारण करके उनलोगों के समक्ष रख दें जो अभी तरुण अवस्था में हैं। अगर हम ऐसा नहीं करेंगे तो देश बचेगा कैसे?

 [ 'मन ही सब कुछ है'  $$$$$ बुधवार, 23 जनवरी 2013/ (8.मनुष्य का मन) स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [66- 51 A]   
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{ सत्संग का अर्थ है, सत् वस्तु का ज्ञान। परमात्मा की प्राप्ति और प्रभु के प्रति प्रेम उत्पन्न करने तथा बढ़ाने के लिए सत्पुरूषों को श्रद्धा एवं प्रेम से सुनना – यही सत्संग है। जीव की उन्नति सत्संग से ही होती है। सत्संग से उसका स्वभाव परिवर्तित हो जाता है। सत्संग उसे नया जन्म देता है। जैसे, कचरे में चल रही चींटी यदि गुलाब के फूल तक पहुँच जाय तो वह देवताओं के मुकुट तक भी पहुँच जाती है। ऐसे ही महापुरूषों के संग से नीच व्यक्ति भी उत्तम गति को पा लेता है। 
शास्त्र कहते हैं कि - ' मन ही मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण है।'  मन शुद्ध कैसे होता है ? मन शुद्ध होता है विवेक से।  और विवेक कहाँ से मिलता है ? सत्संग के बिना विवेक नहीं होता और भगवान की कृपा के बिना सच्चे संत नहीं मिलते।  तोते की तरह रट-रटकर बोलने वाले तो बहुत मिलते हैं, परंतु उस 'सत्' तत्त्व का अनुभव करने वाले महापुरूष (नवनीदा)  विरले ही मिलते हैं। 
दुर्लभं त्रयमेवैतत्, देवानुग्रहहेतुकम्।

मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं,  महापुरूषसंश्रय:॥

भावार्थ-- यह तीन दुर्लभ हैं और देवताओं की कृपा से ही मिलते हैं - मनुष्य जन्म, मोक्ष की इच्छा और महापुरुषों का साथ॥ आत्मज्ञान को पाने के लिए रामकृपा, सत्संग और सदगुरू की कृपा आवश्यक है। ये तीनों मिल जायें तो हो गया बेड़ा पार।
[12 जनवरी 1985 को साक्षात् स्वामी विवेकानन्द की कृपा करने के बाद , कुछ विरले लोगों को ही 28 वर्षों तक नवनीदा का सत्संग, सानिध्य प्राप्त करने का सौभाग्य मिलता है।] 

बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥
 सतसंगत मुद मंगल मूला। सोई फल सिधि सब साधन फूला॥4॥

 भावार्थ- सत्संग के बिना मनुष्य का विवेक जाग्रत नहीं होता, और श्री रामजी की कृपा के बिना वह सत्संग सहज में मिलता नहीं। संतों की संगति आनंद और कल्याण का मुख्य मार्ग है, सत्संग की सिद्धि (ईश्वर -प्राप्ति) ही फल है और सब साधन तो फूल है।  

संस्कृत शब्द 'सत्संग' का शाब्दिक अर्थ है -सत् अर्थात सत्य, और संग अर्थात संगति; अर्थात (1) "परम सत्य या ईश्वर " की संगति, (2) गुरु की संगति, या (3) व्यक्तियों की ऐसी सभा की संगति जो -- " श्रवण, मनन और निदिध्यासन" करती है। अर्थात  --- गुरुमुख से सत्य सुनती है, सत्य की बात करती है अर्थात 'मनन' के द्वारा गुरुमुख से सुने महावाक्य - "तत्त्वमसि" के  'तत् ' के विषय में अपने doubt को clear करती है। फिर उस 'सत्य' को आत्मसात् करती है ! अर्थात वेदान्त के भ्रमर-कीट न्याय परम्परा के अनुसार निदिध्यासन -अपने इष्टदेव के 'तत्व' ( सच्चिदानन्द) का चिंतन करते करते वही बन जाती है।    
     महामण्डल द्वारा आयोजित सत्संग (पाठचक्र या युवा प्रशिक्षण शिविर ) में  विशिष्ट बात यह है कि, इसमें प्राचीन ग्रंथों (गीता , उपनिषद, योगसूत्र आदि ) के सिद्धान्तों को सरल भाषा में समझने के लिखी गयी महामण्डल पुस्तिकाओं को पढ़ा और सुना जाता है। उसके अर्थ पर चर्चा की जाती है,  फिर उन शब्दों के स्रोत, मानवजाति के मार्गदर्शक नेता स्वामी विवेकानन्द की छवि पर मन को एकाग्र करने की पद्धति (मनःसंयोग) को सीख कर उनके जीवन और उपदेश  को आत्मसात् किया जाता है। अर्थात उनके अर्थ को अपने दैनंदिन जीवन में उतारा जाता है। महामण्डल आन्दोलन के नेता या सत्संग कराने वाले गुरु (चपरास प्राप्त C-IN-C नवनीदा)  - कई बार परंपरागत पूर्वी ज्ञान को आधुनिक मनोविज्ञान की पद्धतियों (Autosuggestion) के साथ मिलाते भी हैं। }

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