1.
"निवृत्ति मार्ग" के सप्तऋषियों में से एक ऋषि 'स्वामी विवेकानन्द' द्वारा
"आह्वान करके बुलाये गए"
(Called by invitation)
🔱"प्रवृत्ति मार्ग" के सप्तऋषियों में से एक ऋषि 'नवनीदा' की स्मृति🔱
3 नवम्बर, 2023 को रनेन दा (महामण्डल के वर्तमान अध्यक्ष) ने फोन पर कहा कि इस वर्ष कैम्प में नवनीदा के संस्मरण विषय पर एक पुस्तक प्रकाशित की जाएगी, उनके सानिध्य में रह चुके लोगों के संस्मरण प्रकाशित होंगे। तुम अपने संस्मरण हिन्दी में लिखकर सुदीप (हरिओम प्रेस) से DTP में कम्पोज करके इस महीने के मध्य तक (15 नवम्बर, 2023 तक) मेरे पास भेज दो। मेरे लिये यह काम बहुत कठिन है, उनके इतने अगणित संस्मरण हैं कि क्या लिखूँ और क्या छोड़ दूँ, निर्णय नहीं कर पा रहा हूँ। किन्तु रनेन दा ने 10 नवम्बर को पुनः फोन पर तकादा किया, अब तो उनके आदेश का अनुपालन करना ही है, इसलिए लिखने की कोशिश करता हूँ -
>>1. आदर्श की खोज [12-14 January, 1985 : Search for Ideal] :
श्रीरामकृष्णदेव कहते थे, " बादशाही अमल का सिक्का अंग्रेजी राज में नहीं चलता!" इसलिये भारत की पूर्व प्रधान मंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी को स्वामी विवेकानन्द के जन्मदिवस 12 जनवरी 1984 को 'राष्ट्रीय युवादिवस ' (National Youth Day) घोषित करना पड़ा। लेकिन इस घोषणा के कुछ महीने बाद 1984 में ही इन्दिरा गाँधी की हत्या हो गयी और उनके पुत्र श्री राजीव गाँधी भारत के प्रधान-मंत्री बने तो देश में बहुत दंगा-फसाद का माहौल था। 12 जनवरी 1985 को " दिल्ली रामकृष्ण मिशन आश्रम" में स्वामी विवेकानन्द कि जयंती मनाई जा रही थी, जिसमें स्वामी विवेकानन्द के चित्र पर माल्यार्पण करने तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गाँधी पहुँचे थे। टी.वी. पर उसके Live Telecast को मैं भी देख रहा था। उस वर्ष दुर्गा -पूजा के अवसर पर बेलाटांड़ दुर्गा मण्डप-कलामंदिर में, 'भगतसिंह नाटक' में मैं 'सुकदेव' बना था और राजगुरु-भगतसिंह के साथ देश के लिये फाँसी पर लटकने का अभिनय किया था। लेकिन पूजा के बाद समाज के बुद्दिजीवियों-नेताओं को अपने प्रतिष्ठान के ठीक सामने अवस्थित बेलाटांड़ कलामंदिर दुर्गामण्डप में शराब पीते और जूआ खेलते देखने से हृदय अत्यन्त व्यथित हो रहा था। Live Telecast देखते समय में TV screen पर स्वामी विवेकानन्द की ''Chicago Pose'' वाली छवि के ऊपर दूरदर्शन के कैमरे की नजर, चन्द मिनटों तक मानों ठहर सी गई ....और अचानक ऐसा प्रतीत हुआ मानो स्वामी जी अपनी बड़ी-बड़ी नेत्रों से मुझे ही देख रहे हैं .....और पूछ रहे हों - क्या तुम्हारा कोई कर्तव्य नहीं है ? तब मैं भी युवा था और अपने लिए सही आदर्श का चयन नहीं कर पा रहा था। और कभी फिल्म या स्पोर्ट्स जगत में तो कभी राजनीती के क्षेत्र में आदर्श की खोज कर रहा था। [माँ तारा की कृपा से युवा अवस्था में ही 1985 तक मैं अपने बिजनेस (Tara Plastics :Pipe Manufacturing Industry) में अच्छी तरह से स्थापित हो चुका था।] उनकी आँखों से आँखें मिली! ....और ऐसा लगा कि, फिल्म, स्पोर्ट्स या राजनीती या किसी भी क्षेत्र के नेताओं में सबसे अधिक आकर्षक और ओजपूर्ण 'हीरो' जैसा व्यक्तित्व तो स्वामी विवेकानन्द का ही है! ये ही मेरे आदर्श हैं !
उसके बाद पता नहीं कैसे एक प्रकार के 'जूनून'-दीवानापन ने, एक ऐसे 'तीव्र आवेग' ने मेरे मन को इस प्रकार से आच्छादित कर लिया मानो, मैं स्वामी विवेकानन्द का कृत दास हूँ और मुझे इसी युवा -आदर्श को झुमरीतिलैया और बिहार के युवाओं के बीच स्थापित करना होगा। लेकिन उस समय तक मैं स्वयं स्वामी विवेकानन्द की जीवनी और सन्देश से बिल्कुल अनभिज्ञ था।बहुत खोज करने पर मेरे स्कूल के हिन्दी शिक्षक और RSS के प्रान्तीय प्रमुख श्री रामविलास केवट की सहायता से स्वामी विवेकानन्द की शिकागो पोज वाली छवि प्राप्त हुई, जिसके नीचे English में लिखा हुआ था -" Hindu Monk of India!" स्वामीजी की उसी छवि को अपने चश्मा प्रतिष्ठान (Tara Optical) के चश्मा पहने हीरो-हीरोइन का सारे फोटो को हटाकर मुख्य स्थान पर लगा दिया।
उन दिनों मैं अपने बिजनेस प्रतिष्ठान के ठीक सामने अवस्थित "बेलाटांड़ सार्वजनिक दुर्गापूजा समिति" का सचिव भी था। इसीलिये बेलाटाड़ दुर्गा पूजा समिति के अन्य युवा सदस्यों उत्तम दासपाल एवं राजेन्द्र जायसवाल, श्री केवट जी एवं RSS समर्थक एजुकेशन एस.डी.ओ श्री जगन्नाथ त्रिपाठी के सहयोग से; 14 जनवरी 1985 को मकर-संक्रांति के दिन " विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर' पुस्तकालय नामक 'युवा चरित्र निर्माणकारी संस्था' का दुर्गा मण्डप परिसर के एक कमरे में 'sign board' और 'letter pad' के साथ आविर्भाव हो गया। उसी दिन की बैठक में 5 फरवरी, 1985 को स्वामीजी का जन्मदिन मनाने का निर्णय हुआ।
उस समय तक झुमरीतिलैया में स्वामीजी पर बोलने वाला कोई विद्वान् वक्ता झुमरीतिलैया में उपलब्ध नहीं था। मेरे एक बंगाली मित्र सपन चटर्जी ने प्रस्ताव दिया कि कोलकाता के निकट बेलुड़ मठ स्वामीजी ने स्थापित किया है वहाँ जाने से कोई स्पीकर जरूर मिल जायेगा। मैं तुरंत बेलूड़ मठ गया बिना मंदिर में प्रणाम किये, सीधा कार्यालय गया और वहाँ किसी मुख्य संन्यासी से मिला और विवेकानन्द के जीवन पर भाषण देने के लिए एक हिन्दी स्पीकर भेजने का अनुरोध किया। उन्होंने कहा यहाँ तो हिन्दी स्पीकर दो ही हैं। वे लोग छः महीना पहले बुक हो जाते हैं, यहाँ से उनका साहित्य पोस्टर आदि खरीद लो और पढ़कर तुम स्वयं बोलो। या तुम्हारे घर के निकट राँची या पटना में आश्रम है, जो नजदीक हो वहाँ के सचिव को भाषण देने के लिए बुलाओ।
मैंने सुना कि कोलकाता के 'गोलपार्क ' में भी उनका आश्रम है, लेकिन वहाँ भी कोई हिन्दी वक्ता नहीं मिला, तो मैंने वहीँ से 5000 रूपये का रामकृष्ण-विवेकानन्द साहित्य खरीद कर कार्टून में बंधवा लिया, और रास्ते में पढ़ने के लिए सत्येन्द्रनाथ मजुमदार लिखित - ' विवेकानन्द चरित ' ऊपर रख लिया। ट्रेन कोडरमा स्टेशन पहुँची और पूरी पुस्तक खत्म हो गयी - तब समझ में आया कि "झुमरीतिलैया विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर" का आविर्भाव भी 1985 में मकर-संक्रांति के दिन ही क्यों हुआ ? क्योंकि स्वामीजी का जन्म मकर-संक्राति को हुआ था और उन्होंने ने कहा था - "मैं शरीर छोड़ दूँगा लेकिन काम करना नहीं छोड़ूँगा, सब जगह युवाओं को अनुप्रेरित करता रहूँगा।" (It may be that I shall find it good to get outside of my body—to cast it off like a disused garment. But I shall not cease to work! I shall inspire men everywhere until the world knows it is one with God.)
चूँकि 5 फरवरी आने में ज्यादा समय नहीं था , इसीलिए कोडरमा पहुँचकर सबसे पहले अपने मित्र सपन चटर्जी के प्रेस में कार्ड छपवा लिया कि राँची रामकृष्ण मिशन आश्रम, मोराबादी के सचिव स्वामी शुद्धव्रतानन्द जी महाराज 5 फरवरी के कार्यक्रम में मुख्य अतिथि होंगे, और कोडरमा के डी.सी. विशिष्ठ अतिथि होंगे। कार्ड लेकर राँची मोराबादी आश्रम पहुँचा। ऑफिस में जाने के पहले बाहर के मंदिर में गया तो -माँ काली की मूर्ति की जगह विवेकानन्द के गुरु रामकृष्ण की मूर्ति देखकर, मन में विचार उठा इनलोग ने यहाँ माँ काली का मूर्ति नहीं लगाकर स्वामीजी के गुरु का मूर्ति क्यों लगाया ? मैंने उस समय तक श्री रामकृष्ण लीला प्रसंग पढ़ा ही नहीं था, इसीलिए श्रीरामकृष्ण देव को माँ काली से अलग समझता था। मेरे मन में विचार उठा कि संस्था से थोड़ा सावधान ही रहना चाहिए। उस समय सेक्रेटरी महाराज पटना गए थे। पहले जब एक वरिष्ठ बुद्ध महाराज (स्वामी कृष्णात्मानन्द) से भेंट हुआ वे मुझे अपने साथ डायनिंग हॉल में लेजाकर बहुत प्रेम से नाश्ता करने दिया, तो मैं इंकार करने लगा। उन्होंने मेरा हाथ पकड़ कर अरे खाओ, खाओ -तुम्हारा जात नहीं जायेगा। फिर स्वामी भवहरानन्द जी महाराज से भेंट हुआ, उन्होंने मुझे साइंस का स्टूडेंट समझकर वैज्ञानिक ढंग से समझाया कि जैसे Energy ही Matter बना है, वैसे ब्रह्म ही जगत बन गया है। फिर उन्होंने ने बहुत आश्चर्य से मुझे देखकर कहा - तुम बिना सेक्रेटरी महाराज से पूछे उनका नाम कार्ड पर कैसे छपवा लिया ? बड़े महाराज तो पटना गए हैं -वहाँ से राजगीर जायेंगे। उनके पास आदमी भेजो यदि तुम सही मन से आयोजन किया होगा तो वे आ भी सकते हैं।
मैं काम में जुट गया , उस अवसर पर एजुकेशन एस.डी.ओ श्री जगन्नाथ त्रिपाठी जी के सहयोग से झुमरीतिलैया स्थित सभी सरकारी स्कूलों के छात्र -छात्राओं की सुबह 10 बजे एक अभूतपूर्व शोभा-यात्रा भी निकली थी। जिसमें स्वामी विवेकानन्द की छवि को जीप पर सजाकर रखा गया था, आगे आगे बैण्ड पार्टी देशभक्ति गानों की धुन बजा रही थी। जो सारे शहर का भ्रमण कर के जब लगभग 12 बजे ' बेला-टाँड़ कलामंदिर दुर्गा मंडप ' पहुंच कर एक सभा में परिणत हो गयी थी। और ठीक उसी समय उस सभा को संबोधित करने के लिए ' रांची रामकृष्ण आश्रम के तात्कालिन सचिव परमपूज्य स्वामी शुद्धव्रतानन्द जी महाराज (आनन्द महाराज) एवं ब्रह्मचारी प्रबोध महाराज (वर्तमान में राजकोट आश्रम , गुजरात के सचिव स्वामी निखिलेश्वरानन्द) एवं बिहार के तात्कालीन आइ.जी. रामछबीला सिंह भी पधारे गए। बिहार के आइ.जी के आने की खबर सुनकर स्थानीय पुलिस पूरा सहयोग करने लगी और PWD के रेस्ट हॉउस में उनके ठहरने की व्यवस्था हो गयी। नहीं तो महाराज लोग को ठहराने के लिए पहले 'अग्रसेन भवन धर्मशाला' का इंतजाम किया था।
विवेकानन्द चरित में मैंने पढ़ा था कि स्वामीजी ने कहा है " तुम्हारे पूर्वजों ने निम्न जातियों पर जो अत्याचार किये हैं, उसका पाप तुम्हारे सिर पर है !" उस कार्यक्रम के बाद मैंने सोंचा उन दबे-कुचले लोगों को उन्नत करने के लिए मुझे अवश्य कुछ करना चाहिए। मुझे बिजनेस के काम से तब हर सप्ताह राँची जाना पड़ता था। लौटने से पहले प्रबोध महाराज से मिलने मैं राँची रामकृष्ण मिशन आश्रम अवश्य जाता था, उनके साथ बहुत हार्दिक सम्बन्ध स्थापित हो गया था । प्रबोध महाराज ने निर्देश दिया कि तुम इस प्रोजेक्ट में केवल शिक्षा विभाग पर ध्यान रखना, फिर Bank of India तथा Rotary Club और 'विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर' के समन्वित प्रयास से "करमा हरिजन टोला" के उत्थान के लिए रोड,स्कूल,सामुदायिक भवन, पशुशाला आदि निर्माण का कार्य प्रारम्भ हुआ। इसी बीच विवेकानन्द चरित, श्री श्री माँ सारदा, श्रीरामकृष्ण लीला प्रसंग, और श्रीरामकृष्ण वचनामृत आदि ग्रन्थों को पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
1986 में एक दिन प्रबोध महाराज बोले कि वाइस-प्रेसिडेन्ट महाराज (परम-पूज्य स्वामी भुतेशानन्द जी महाराज) मई महीने में राँची आने वाले हैं तुम उनसे दीक्षा लेने का फॉर्म भर दो। मैंने कहा कि स्वामी जी ने कहा है कि किसी को अपना गुरु बहुत जाँच-परख करने के बाद ही बनाना चाहिये। मैंने आपको जाँच-परख कर देख लिया है; मैं आपसे तो दीक्षा ले सकता हूँ किन्तु उनको तो मैं जानता नहीं हूँ। फिर मन में यह विचार भी आया था कि वैसे किसी बिना-जटाजूट वाले गुरु से दीक्षा लेना ही है , तो प्रेसिडेन्ट से लूंगा, वाइस प्रेसिडेन्ट से क्यों लूँ ? वे बोले दीक्षा देने का अधिकार मिशन में केवल प्रेसिडेन्ट और वाइस प्रेसिडेन्ट को ही होता है। मेरे एक पैगम्बरी जमाने के मित्र (जनार्दन प्रसाद ) ने सुझाव दिया कि " 14 अप्रैल, 1986 को हरिद्वार में कुम्भ मेला होने वाला है, उसमें ऐसे साधु आते हैं जिन्होंने भगवान श्रीकृष्ण को भी देखा है; और अभी तक जीवित हैं ! वहाँ तुमको वैसे ऐसे जटाजूट धारी गुरु मिल सकते हैं।"
मैं 14 अप्रैल 1986 के प्रातः काल में अकेले कुम्भ पहुँच गया। एक संन्यासी की कृपा से " महेन्द्र-मुहूर्त " में मेरा गंगा-स्नान हुआ। बाद में पता चला कि उस दिन भगदड़ में 50 लोग मरे भी थे । उसके बाद हरिद्वार के कनखल रामकृष्ण मिशन आश्रम के ऑफिस में अपना सामान जमा करवा दिया और मेला देखने निकला। (पूरी सम्प्रदाय) के नागा साधुओंके स्नान करते समय उनकी विराट संख्या और वेशभूषा को आश्चार्य-चकित होकर देखा। कुम्भमेला में चलते -चलते 300-500 साल के साधु देवराहा बाबा से भी मिला, (देवरहा बाबा परंम् रामभक्त थे,वे भक्तो को राम मंत्र की दीक्षा दिया करते थे। पूरे जीवन निर्वस्त्र रहने वाले बाबा धरती से 12 फुट उंचे लकड़ी से बने मचान (बॉक्स) में रहते थे। वह नीचे केवल सुबह के समय स्नान करने के लिए आते थे।) उनसे मैंने पूछा था -बिहार के हालात कब तक ठीक हो जायेंगे? लौटते समय सुनसान रास्ते में एक साधु ने मुझसे कहा मेरे पीछे चला आ, फिर मुझसे अवधि भाषा में कहा था - " सबसुख दास से रामसुख दास बनो! सब मैं करिहौं, तुम कछु न करिहों"। अद्भुत-अद्भुत पुरुष साधुओं के साथ माता-स्वरुप स्त्री सन्यासिनियों के दर्शन भी हुए। उस दिन ऐसे- ऐसे अद्भुत दर्शन हुए जो आजीवन मेरे स्मृति पटल पर अंकित रहेंगे। वहाँ एक दिन के लिये मुझे ऐसा अनुभव हुआ, जैसे दुनिया में सब कुछ मोम के गुड़ियों से बना हो! दूसरे दिन सुबह वापस लौट आया और राँची रामकृष्ण आश्रम जाकर दीक्षा का फॉर्म भर दिया और 27 मई, 1987 को वाइस प्रेसिडेन्ट महाराज से राँची रामकृष्ण आश्रम में मेरी दीक्षा हो गयी।
उन दिनों महामण्डल के वरिष्ठ सदस्य और निष्ठावानकर्मी श्री प्रमोद रंजन दास (प्रमोद दा ) राँची आश्रम में नौकरी करते थे। वे मुझसे बहुत प्रेम पूर्वक बातचीत करते थे, और अपने कमरे में ले जाकर कुछ खाने के लिए जरूर देते थे। उन्होंने परामर्श दिया कि यदि तुम स्वामी विवेकानन्द द्वारा दिए गए मनुष्य-निर्माण एवं चरित्र-निर्माण की पद्धति को समझना चाहते हो, तो महामण्डल द्वारा बेल-घड़िया (प० बंगाल) में 25 से 30 दिसम्बर 1987 तक आयोजित होने वाले 'वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर' में अवश्य भाग लो। उनके परामर्श पर 25 दिसम्बर, 1987 को मैं पहली बार अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के वार्षिक प्रशिक्षण-शिविर में भाग लेने बेलघड़िया पहुँचा। मेरे साथ तिलैया मिडिल स्कूल के प्रधान अध्यापक श्रीकृष्ण सिंह, मेरे स्कूल के शिक्षक श्री केवट जी सहित 10 लोगों ने कैम्प का फॉर्म भरा था , किन्तु कोई नहीं जा सके। ट्रेन लेट होने से रात्रि 8 बजे मैं कैम्प साइट पहुँचा। बाहर से ही बोलेन दा का ' वीर सेनापति विवेकानन्द' गीत सुनकर भावविभोर हो गया।
फिर 26 दिसम्बर, 1987 को सुबह संघमन्त्र-स्वदेश मंत्र और महामण्डल ध्वज फहराते समय पूज्य 'C-IN-C नवनीदा' के व्यवहार में अभूतपूर्व अनुशासन और श्रद्धा को देखा तो मुझे लगा मानो वे नेताजी सुभाष हैं, और मेरे सहित बाकि सारे कैम्पर्स उनकी 'आजाद हिन्द फ़ौज' के सैनिक हैं। फिर मनःसंयोग के क्लास में, मैं दादा के बिल्कुल सामने बैठा था, शान्ति पाठ करते समय दादा ने जैसे ही मेरी आँखों में ऑंखें डालकर कहा - " नमो ब्रह्मणे। नमस्ते वायो। त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वादिष्यामि। ऋत वादिष्यामि। सत्यं वादिष्यामि। तन्मामवतु। तद्वक्तारमवतु। अवतु माम्। अवतु वक्तारम्।" इन शब्दों को ‘‘हे वायु! नमस्कार तुम्हें, क्योंकि तुम प्रत्यक्ष ब्रह्म हो।’ सुनते ही मैं फिर उसी प्रकार जगत की परे की दुनिया की अनुभूति करने लगा -जैसी अनुभूति 14 अप्रैल, 1986 कुम्भमेला में दुनिया मोम की गुड़िया जैसी लग रही थी और मैं अपने को भावराज्य में स्वामी विवेकानन्द सच्चा सैनिक समझ रहा था।
>>2. बेलघरिया कैम्प साईट : रामकृष्ण मिशन आश्रम का मन्दिर और टेक्निकल इंस्टिट्यूट का हॉस्टल भी कैम्पस के भीतर ही था। वहाँ एक बहुत बड़ा तालाब है जिसमें शहर के स्त्री-पुरुष अलग-अलग घाटों पर नहाने आते थे, और हॉस्टल के लड़के भी विभिन्न घाटों पर नहाते थे। मुझे वहाँ कुछ ऐसे अद्भुत अनुभव हुए जिनका उल्लेख करना यहाँ उचित प्रतीत नहीं होता है। इतना जरूर कहूँगा कि-बेलघड़िया में 1987 में आयोजित युवा-प्रशिक्षण शिविर में C-IN-C नवनीदा (श्री नवनिहरन मुखोपाध्याय) रूपी माँ सारदा के ह्रदय का साक्षात् दर्शन हुआ और उनकी कृपा से मेरा शरीर नष्ट होने से कैसे बच गया होगा ? यह सब रनेन दा और प्रणव दा जरूर जानते होंगे, परन्तु मेरे बहुत पूछने पर भी अभीतक उन्होंने कुछ नहीं बताया है।
उस समय एन्युअल कैम्प में Life Building, Character Building, Leadership' आदि सभी क्लास नवनीदा अकेले ही लेते थे। उसी शिविर में पहली बार महामण्डल की मासिक द्विभाषी (अंग्रेजी -बंगला) संवाद पत्रिका 'Vivek Jivan ' को देखा, उसका मेम्बर बना तथा अंग्रेजी और बंगला में प्रकाशित समस्त महामण्डल पुस्तिकाओं का दो-दो सेट भी खरीद लाया। कैम्प से लौटने के बाद महामण्डल की कार्य पद्धति 3H विकास के 5 अभ्यास के अनुसार अपना जीवन गठन करने में जुट गया। मेरा स्वाध्याय ज्यादा होने लगा -एक पत्र में स्वामीजी कहते हैं - " रामकृष्ण अवतार की जन्मतिथि से सत्य युग का आरम्भ हुआ है !" (From the date that the Ramakrishna Incarnation was born, has sprung the Satya-Yuga. (Golden Age )! Leadership क्लास में नवनीदा के मुख से पहली बार सुना कि महामण्डल आंदोलन के प्रत्येक नेता का उत्तरदायित्व है कि - वह 'सत्ययुग स्थापन ' करने पद्धति 'Be and Make ' का प्रचार -प्रसार सम्पूर्ण भारत में करे। उनके निर्देशानुसार सत्ययुग स्थापन की पद्धति 'Be and Make ' का प्रचार हिन्दी-भाषी क्षेत्रों में करने के उद्देश्य से पहली बार महामण्डल का- "प्रथम बिहार राज्य स्तरीय युवा प्रशिक्षण शिविर" भी 27, 28, 29 अप्रैल 1988 को झुमरी तिलैया के सी० एच० हाई स्कूल में आयोजित हुआ। जिसमे बिहार के युवाओं को प्रशिक्षण देने के लिये महामण्डल केन्द्रीय समीति के सभी सदस्य (अमियो दा को छोड़कर) बिहार आये थे। और उस शिविर में स्वामी जी की प्रेरणा से अविभाजित बिहार राज्य के विभिन्न जिलों से आये कुल 275 प्रशिक्षनार्थी ने भाग लिया था।
उस शिविर में एक 'Book Stall and Exhibition' भी लगा था। शिविर के प्रथम दिन शिविर प्रारम्भ होने से पहले मैंने देखा कि नवनीदा के साथ रनेन दा (श्री रानेन्द्र मुखर्जी भी पैजामा और हरा साल ओढ़कर) अन्य एक-दो सदस्यों के साथ 'Exhibition' देख रहे थे, उसमें श्री रामविलास केवट (RSS के मेरे हिन्दी शिक्षक) द्वारा प्रदत्त स्वामीजी की शिकागो पोज वाली छवि पर " Hindu Monk of India!" लिखा हुआ देखकर दादा ने कहा - स्वामीजी को "भारत का हिन्दू सन्यासी" का तगमा लगा कर 'Hindu Monk' कहना, उनको कट्टर-हिन्दू वादी नेता के रूप में प्रचारित करना उनको छोटा करना है। सत्ययुग की स्थापना करने वाली स्वामीजी मनुष्य-निर्माण और चरित्रनिर्माणकारी पद्धति " Be and Make " केवल हिन्दुओं के लिए ही नहीं है , यह तो सम्पूर्ण विश्व के लिए हैं, सभी देशों और धर्मों के लोगों के लिए है। दादा यह भी कहते थे कि, देखना भविष्य में एक दिन " Be and Make " ही वैश्विक धर्म (global religion) बन जायेगा। "उसके बाद जब 'झुमरीतिलैया महामण्डल के सदस्यता फॉर्म ' को भरकर सदस्य बनना अनिवार्य कर दिया गया , कि किसी भी पोलिटिकल पार्टी का सदस्य (RSS का सदस्य भी) नहीं बनना है। तब कुछ लोगों ने विवेकानंद ज्ञान मन्दिर को "भाव-प्रचार परिषद" से भी जोड़ने का प्रयास किया था। किन्तु हमलोगों की श्रद्धा नवनीदा और महामण्डल के प्रति अटल थी।
>>3.हिन्दी अनुवाद और प्रकाशन कार्य : 1987 तक उड़ीसा महामण्डल द्वारा हिन्दी भाषा में अनुवादित और प्रकाशित केवल एक-दो छोटी-छोटी पुस्तिकाएँ ही उपलब्ध थी। नवनीदा के द्वारा अंग्रेजी और बंगला में प्रकाशित अधिकांश महामण्डल पुस्तिकाओं का हिन्दी संस्करण उपलब्ध नहीं था। उस समय तक मुझे बंगला-भाषा और और बंगला -वर्णाक्षर की कोई जानकारी नहीं थी। दादा के द्वारा बंगला भाषा में लिखित और 'विवेक-जीवन' में प्रकाशित सम्पादकीय आदि को पढने की बहुत इच्छा होती थी, किन्तु उसे पढ़ने में बिल्कुल असमर्थ था। जब मैं तिलैया में रहने वाले अपने बंगला भाषी मित्रों से उसका हिन्दी अनुवाद करके सुनाने को कहता, तो वे उसको ठीक-ठीक समझा नहीं पाते थे, क्योंकि वे स्वयं स्वामी विवेकानन्द के आदर्शों से अनु-प्राणित नहीं थे, तथा उन्होंने महामण्डल के किसी शिविर में भाग भी नहीं लिया था। तब श्री ठाकुर, श्री माँ और स्वामी विवेकानन्द के जीवन और शिक्षाओं से प्रेम रहने के कारण, मुझे स्वयं बहुत प्रयास करके बंगला-वर्णाक्षर को लिखना -पढ़ना सीखना ही पडा! इस कार्य में झुमरीतिलैया 'बैंक ऑफ़ बड़ौदा' के मैनेजर श्री देवब्रत सरकार' (आगे चलकर यूनियन बैंक के चेयरमैन बने) ने मेरी बहुत सहायता की। और आज भी मुझसे वे बंगला में ही बातचीत करते हैं, नवनीदा भी मुझसे हमेशा बंगला में ही बातचीत करते थे।
>>4. वेदान्त डिण्डिम- "जीवो ब्रह्म नापर" (14 अप्रिल, 1992): दादा पुनर्जन्मवाद में विश्वास करते थे और पुनर्जन्म किसका होता है और क्यों होता है? पूछने पर कहते थे पुनर्जन्म और कर्मवाद का आपस में अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। और बड़े भाग्य से- अर्थात 'श्री ठाकुर-श्री माँ और स्वामी जी' की असीम कृपा से ही, किसी व्यक्ति को इस जन्म में सुकर्म करने; अर्थात महामण्डल के 'Be and Make आंदोलन' से जुड़ने का सौभाग्य प्राप्त होता है ! और किसी व्यक्ति के मन में कुकर्म करने की इच्छा का जन्म होता है; ....और फिर कर्मवाद का सर्किल, ज्ञान प्राप्त होने तक चलता रहता है !
जब 14 अप्रिल, 1992 को जब -मेरी बेटी का कॉलेज वनस्थली (राजस्थान) से जीप से लौटते समय सुबह 6 बजे वाराणसी आने से पहले, रोहनिया में ऊँच नामक स्थान के पुल पर मैं भजन सुन रहा था -" चिदानन्द रूपः शिवोहं- शिवोहं " कि अचानक बिल्कुल सामने यूपी राज्य ट्रांसपोर्ट का एक बस Full Speed में आता दिखा ! -... देखा टक्कर निश्चित है - ड्राइवर को झपकी आ गयी है। उसी समय मन में विचार उठा यदि मैं अविनाशी आत्मा हूँ -तो अभी मरेगा कौन ? अभी मरेगा कौन मिथ्या अहंकार या अपरिवर्तन-शील सत्य या ब्रह्म ? इसी भावी एक्सीडेंट पर मन को एकाग्र करने के बाद, ऐसिडेंट 'Big Bang ' की आवाज और मन का विश्लेषण करते करते, (विवेकज ज्ञान) और वेदांत डिण्डिम - "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या, जीवो ब्रह्म नापरः" की अनुभूति ....... कब व्युत्थान हुआ नहीं पता - लेकिन गाड़ी से बाहर जहाँ फेंका गया था वहां सुबह में RSS का शाखा चल रहा था -परमानन्द की अवस्था से उठने का मन नहीं कर रहा था। RSS के प्रेफ़ेसर शुक्ल वहां से उठाकर मुझे और मेरे ड्राइवर को कबीर-चौरा अस्पताल, बनारस ले गए। जीप बिल्कुल चिपक गयी थी, किन्तु मेरे शरीर पर खरोंच तक नहीं आया था। समझ में आया कि प्रत्याहार-धारणा-ध्यान-निर्विकल्प समाधि हो जाने, या उस खतरनाक सत्य से साक्षात्कार हो जाने से मनुष्य का भ्रम या मिथ्या "कर्ता" पन वाला अहंकार (अज्ञान की गाँठ) नष्ट हो जाता है, केवल 'कारण शरीर' वाला अहं ही बचता है इसी को अलंकारिक भाषा में एथेंस का सत्यार्थी देवकुलिश परम् सत्य को देखने के बाद अँधा हो गया था कहते हैं !
वहाँ से लौटने पर दादा से पूछा - निर्विकल्प समाधि या विवेकज्ञान जन्य - "वेदान्त डिण्डिम - " जीवो ब्रह्म नापरः" की अनुभूति क्या "मुझे " हुई थी ? तो मैं वापस कैसे आ गया ? मुझे तो आने का बिल्कुल मन नहीं कर रहा था। तो यह सोचते ही मन में प्रश्न उठा कहीं मुझे भी 'कौशिक मुनि' का बगुला भष्म वाला अहंकार तो नहीं आ गया है ? तब दादा ने मेरे संशय को यह समझाकर नष्ट किया था कि -'सच्चिदानन्द ' (शाश्वत चैतन्य स्पंदन ) का अनुभव तुम्हें (करण-शरीर या मिथ्या अहं को) नहीं हुआ था, बल्कि आत्मा को ही परमात्मा का अनुभव हुआ था! आत्मा ही प्रेमस्वरूप परमात्मा है, जिसमें द्वैत बुद्धि तो है ही नहीं। इसलिये, माँ भवतारिणी की इच्छा से केवल 'विद्या का अहं' माँ सारदा देवी के मातृ ह्रदय का सर्वव्यापी विराट 'मैं' रखने वाला अवतारी 'मैं' भी तुम नहीं आत्मा ही -दास मैं बना है, तुम हमेशा से साक्षी चैतन्य थे, हो और रहोगे- तत्त्वमसि !
और इस प्रकार बहुत अल्पसमय में ही VIVEK-JIVAN में प्रकाशित, " पूज्य नवनीदा" द्वारा लिखित अंग्रेजी-बंगला सम्पादकीय का मैं हिन्दी अनुवाद करने लगा- रामचन्द्र उसको एडिट करते और अजय पांडेय उस हस्तलेख का फोटोस्टेट कराकर महामण्डल के हिन्दी-भाषी मित्रों में वितरण करने लगे। इसकी उपयोगिता और लोकप्रियता को देखते हुए, 30 दिसंबर 1998 को एक पत्र के द्वारा केन्द्रीय-संस्था "अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल" ने झुमरीतिलैया विवेकानन्द युवा महामण्डल को द्विभाषी पत्रिका VIVEK-JIVAN का हिन्दी संस्करण- ' विवेक-अंजन' के नाम से प्रकाशित करने की अनुमति को प्रदान कर दी।
2.
🔱 महामण्डल पुकार रहा है - युवाओं तुम कहाँ हो? जल्दी उत्तरदायित्व ग्रहण करो !🔱
-Take responsibility !"
"দায় গ্রহণ করো !"
[NB: उत्तर बंगाल के आंचलिक शिविर में दादा ने बंगला में जो भाषण दिया था - "দায় গ্রহণ করো !" (" दाय ग्रहण करो) उसका हिन्दी अनुवाद।'
"निवृत्ति मार्ग" के सप्तऋषियों में से एक ऋषि 'स्वामी विवेकानन्द' द्वारा "आह्वान करके बुलाये गए" (Called by invitation) "प्रवृत्ति मार्ग" के सप्तऋषियों में से एक ऋषि और महामण्डल के C-IN-C 'नवनीदा' की अपनी स्मृति -पटल पर अंकित स्मृति को यहाँ तक देखने और लिखने के बाद, मुझे उत्तर बंगाल के आंचलिक शिविर में दादा ने बंगला में जो " दाय ग्रहण करो " "দায় গ্রহণ করো !" शीर्षक विदाई भाषण (farewell speech) दिया था उसका यूट्यूब संस्करण मिला। उसको सुनकर ऐसा लगा दादा अक्सर पुनर्जन्मवाद आदि जिन बातों के विषय में कहते थे, उसमें सारी बातों का उल्लेख है। अतएव अब उसका हिन्दी अनुवाद भी कर रहा हूँ , ताकि " विवेक-अंजन " पत्रिका के अगले अंक में नवनीदा की स्मृति के साथ यह निबंध भी प्रकाशित हो जाये।
>>5. भद्रं कर्णेभि: शृणुयाम देवा:। भद्रं पश्येमाक्षभिर्य...देव हितं यद आयुः > हम जो देखते, सुनते हैं, उससे हमारा मन बनता है। इसीलिए वेद कहते हैं- यज्ञ केवल अग्नि होम नहीं है। यह धन संपत्ति (और षट्सम्पत्ति) का विकेंद्रीकरण है। तो जो कुछ भी तुम पाओ, उसे सभी के साथ बांटों ! (तो विवेकदर्शन के अभ्यास से जो विवेकज ज्ञान और विवेकज ज्ञान से जिस परम् आनन्द की अनुभूति होती है (वेदान्त डिण्डिम- जीवो ब्रह्म नापरः' की अनुभूति होती है) उस आनन्द को भी सब में बाँटो, अकेले मत भोगो !)
सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि सभी प्रकार के लोगों का सहयोग तथा इस ज्ञानयज्ञ में साथ आकर खड़े हो जाने से, इस बार के उत्तर बंगाल युवा प्रशिक्षण शिविर में, 450 से अधिक लड़के आये हैं। सर्व भारतीय कैम्प के आलावा वर्ष भर में हमलोगों के 100 से अधिक कैम्प आयोजित होते हैं। क्योंकि इस समय देश के 12 राज्यों में महामण्डल के 350 से भी अधिक केंद्र हैं। और -जहाँ कहीं भी केंद्र हो, वहां के प्रत्येक अंचल में एक वार्षिक शिविर होता है , राज्य स्तरीय शिविर होता है,जिला स्तरीय शिविर होता है , स्थानीय शिविर होता है। वहां भी सभी लोगों के सहयोग से बहुत बड़ी संख्या में कैम्पर्स आते हैं, एवं प्रत्येक वर्ष यहाँ सभी का सहयोग प्राप्त होता रहता है, बहुत आनन्द की बात है।
गीता में भी भगवान कहते हैं "परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।"।3.11।।अर्जित पदार्थों का आपस में आदान-प्रदान करने, तथा राष्ट्रीय सकल उत्पाद को सब में समान रूप में नहीं, बल्कि उनकी आवश्यक्तानुसार देवता-बुद्धि से वितरण करने पर मानव-समाज कल्याण के मार्ग पर अग्रसर हो सकेगा , दूसरों को वंचित करके नहीं। इन शब्दों के भीतर हम विश्वमानवता की झंकार सुनते हैं। 'परस्परं भावयन्तः' का अर्थ यह नहीं समझना चाहिये कि दूसरा हमारी सेवा करे तो हम भी उसकी सेवा करेंगे। प्रत्युत यह समझना चाहिये कि दूसरा हमारी सेवा करे या न करे, हमें तो अपने कर्तव्य के द्वारा उसकी सेवा करनी ही है। दूसरा क्या करता है, क्या नहीं करता; हमें सुख देता या दुःख, इन बातों से हमें कोई मतलब नहीं रखना चाहिये। क्योंकि दूसरों के कर्तव्य को देखने वाला स्वयं अपने कर्तव्य से च्युत हो जाता है। परिणामस्वरूप उसका पतन हो जाता है।
निष्कामभाव से केवल कर्तव्य-पालनके विचार से कर्म करने पर मनुष्य मुक्त हो जाता है और सकामभाव से कर्म करने पर मनुष्य बन्धन में पड़ जाता है। यह सिद्धान्त है कि जब तक मनुष्य अपने लिये कर्म करता है, तबतक उसके कर्म की समाप्ति नहीं होती और वह कर्मोंसे बँधता ही जाता है। निःस्वार्थभाव से कर्तव्य-कर्म करने से ही मनुष्य अपनी उन्नति (कल्याण) कर सकता है।तात्पर्य है कि दूसरे का हित करना है--यह हमारा कर्तव्य है और दूसरे का अधिकार है। कृतकृत्य वही होता है, जो अपने लिये कभी कुछ नहीं करता।
शिविर के अंतिम दिन के सायंकालीन सत्र को विदाई सभा कहा जाता है - farewell session. विदाई सभा ! विदाई हमलोग किसको देंगे ? हमलोगों के पास विदाई (Goodbye-अंतिम रूप से राम-राम कह देने) जैसी कोई वस्तु नहीं है। 'अदाय ' (redemption-यानि बंधनमुक्ति) यदि कर सको-तो तुम सभी कैम्पर्स/शिक्षार्थी लोग अदाय करने की चेष्टा जरूर करो, किसीको विदाय (विदाई) मत देना। इसलिए आज विदाय शब्द के अर्थ को बदल कर देखने की चेष्टा की जाये। 'विदाय ' शब्द में -'वि' -माने संस्कृत में विशेष रूप से होता है, और दाय से हुआ यह हमलोगों का दाय है, दायित्व है - यानि जिस कार्य को हम टाल नहीं सकते, we can't avoid, जिसे हमें करना ही पड़ेगा ! [जो ठाकुर ने ,स्वामीजी पर सौंपा था ? जिसे नरेंद्र ने कहा था , मुझसे नहीं होगा -तो ठाकुर ने कहा था -तेरी हड्डी करेगी!] इसलिए जो विधाता की तरफ से भारत के युवाओं पर एक विशेष उत्तरदायित्व सौंपा गया है, उस दायित्व का हमलोग वहन करें।
>>6.पुनर्जन्म (reincarnation) की अवधारणा : वह उत्तरदायित्व क्या है ? कैसे ऐसे हुआ होगा - मैं नहीं बता सकता ; किन्तु पूरी पृथ्वी पर ऐसा कोई देश नहीं, कोई सम्प्रदाय नहीं है, जो पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करता हो। प्रत्येक धर्म में यह बात स्वीकृत है। जानिबिघा कैम्प से लौटते समय रेलवे पुल पर चढ़ने में दादा के कष्ट को देखकर मैंने दादा से कहा था - " एक बार फिर से आप आइयेगा, तो मैं भी आऊंगा ।" एक विदेशी लेखक के द्वारा इस 'पुनर्जन्म की अवधारणा '# के विषय पर पृथ्वी के समस्त धर्मों के मत का विश्लेषण कर एक बहुत प्रकांड ग्रंथ लिखा गया है।
[' डी. एरिक मैक्रांज़ (D. Eric McCranz - 'The Reincarnationist Papers') 2009 में लिखित 'पुनर्जन्म की अवधारणा #नाटक के एक पात्र इवान को उसके सात जन्म तक याद हैं, अपने सभी पिछले जीवन और अनुभवों को याद करते हैं और प्रत्येक नए अवतार में एक-दूसरे को बार-बार पाते हैं। पुनर्जन्मवादी, जिन्हें सामूहिक रूप से कॉग्नोमिना (Cognomina) के नाम से जाना जाता है, लेकिन इस गुप्त समूह का हिस्सा बनने के लिए इवान को पहले यह साबित करना होगा कि वह वास्तव में उनमें से एक है।]
इस पुस्तक में सार रूप से यही लिखा गया है - कि सम्पूर्ण विश्व के मनुष्य पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं, और इस सृष्टि हम सभी लोग, सभी के कल्याण के लिए आये हैं। हम लोगों का जीवन परस्पर कल्याण के लिए मिला है, कोई अकेला नहीं जी सकता है। पुनर्जन्मवाद सभी धर्मों में, सभी देश में है। और जो जीवन हमें मिला है, वह कच्चा raw माटी या कच्चा लोहा जैसा है, जिसको पका कर सुंदर देव मूर्ति गढ़ी जा सकती है। प्रत्येक मनुष्य का जीवन कच्ची मिट्टी के ढेले जैसा है, जैसे मिट्टी को जल से गूँथ कर सुंदर देव -मूर्ति गढ़ी जा सकती है, या किसी नृत्य-शिल्पी की मूर्ति गढ़ी जा सकती है। यह मनुष्य जन्म हमे मिला है, कैसे मिला हम नहीं जानते हैं। हम सभी मनुष्यों पर यह जिम्मेदारी है कि हम अपने जीवन को सुन्दर रूप से गढ़ लें। इसके पहले हमारे कितने जन्म हुए हैं , हम कौन थे यह हम नहीं जानते किन्तु इस जन्म में आकर देखते हैं कि हमलोग बचपन से मनुष्य देह धारण किये हैं, क्रमशः बड़े हो रहे हैं । बड़े होने के लिए सब कुछ दूसरे लोग ही कर देंगे या हमारे लिए कुछ करना जरुरी होगा ? नहीं, सब कुछ दूसरा नहीं कर देगा , मनुष्य को अपने जीवन को गढ़ने की जिम्मेदारी स्वयं उसके ही ऊपर है। इस बात को जो व्यक्ति जितनी जल्दी समझ लेगा, उसका उतना कल्याण होगा।
श्रीरामकृष्ण भी सीखने के लिए बचपन में स्कूल गए थे , जब तक वहाँ जोड़ सिखा रहे थे तब तक तो सीखा, लेकिन जैसे ही घटाव सिखाने लगे - सीखने से मना कर दिया। माँ सारदा ,के लिए स्कूल जाना तो दूर की बात थी , घर पर भी पढ़ने-लिखने का अवसर नहीं था। बहुत दिन के बाद, विवाह के कई वर्षों के बाद कितना कुछ सुनने -दुःख पाने के बाद जब दक्षिणेश्वर पहुंची। तो ठाकुर ने कहा -क्यों ,इतने दिनों बाद आने का सोंचा ? दक्षिणेश्वर आने के बाद ठाकुर के कमरे में, उनके ही बिछौना पर, माँ 8 महीना तक रही हैं। इस आठ महीने के विषय में माँ ने कहा था - " पूरे आठ महीना भर उनको भी नींद नहीं आयी, और मुझे भी नींद नहीं आयी, उन दोनों की समस्त रातें बैठे-हुए ही बीत गयीं ! "
माँ-ठाकुर के जीवन की इसी घटना में मनुष्य-निर्माण या जीवन-गठन का सूत्र विद्यमान है - ईश्वर-तत्व (त्याग) होना क्या है ? मनुष्य कैसा बड़ा हो सकता है, कैसे उन्नत मनुष्य बन सकता है? उसका ह्रदय कैसे विस्तृत (भक्ति से-सरस् ) हो सकता है ? इन सब बातों के बारे में बहुत कुछ कहा जाता है, और बहुत कुछ हम चिंतन करने से समझ भी सकते हैं। किन्तु हम में से इस बात को कितने लोग समझ पाते हैं कि - " सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड में जितने जीव वर्तमान में हैं, अतीत में जितने जीव थे, और भविष्य में जितने जीव होंगे, उन सब जीवों की माँ है -श्री श्री माँ सारदा देवी !! ५.४८ मिंट
स्वामी विवेकानन्द कोलकाता के एक बहुत धनी और विद्वान् परिवार में जन्म ग्रहण किये थे, किन्तु बहुत नटखट थे। खेल-कूद, कुश्ती, तैराकी जीतने स्पोर्ट्स सब में माहिर। जैसा शरीर मजबूत था मन भी उतना ही शक्तिशाली था। होते-होते क्या हुआ ? अंत में ठाकुर के पास चले आये। कैसे कॉलेज में गए , ईश्वर की खोज में रहे सब कुछ बोलना सम्भव नहीं है। प्रथम बार जब आये तो दो -चार बात करके चले गए।
दूसरी बार जब फिर ठाकुर के पास गए तो ,ठाकुर का कमरा लोगों से पूरा भरा हुआ था, नरेन भीतर घुसे। ठाकुर बोले क्यों रे इतने दी बाद आया ? आओ, आओ ! बोल कर, उनको कमरे के बाहर छोटे बरामदे में ले गए और दरवाजे को बंद कर दिया, और हाथ जोड़कर बोले - " मैं जानता हूँ प्रभु, तुम सप्तर्षि -मण्डल के वही पुरातन ऋषि हो- नररूपी नारायण हो। दुर्गति में पड़े मनुष्यों का दुःख करने के लिए, उनके कल्याण की कामना से तुमने दुबारा देह धारण किया है ! "
>>7. ऋषि का अर्थ क्या है ? ऋषियों में भी कौन से ऋषि ? सप्त ऋषि में से एक ऋषि। कौन सप्तर्षि ? छोटे बच्चों के लिए पुस्तक में देखा था 7 तारा मंडल जो उत्तर आकाश में दिख पड़ते हैं , उनमें से एक ऋषि। लेकिन आकाश में जो सप्तर्षि मंडल # -क्रतु, पुल्सत्य, वशिष्ठ-अरुन्धती, आदि सप्तर्षि दिखाई देते हैं , उनमें से कोई एक स्वामीजी नहीं हैं।
सप्तर्षि ऋषि भी दो प्रकार के होते हैं, जो सप्तर्षि उत्तर आकाश में दिख पड़ते हैं- वे लोग भोगमार्ग -से ऋषि हुए हैं। वे लोग वैराग्य-दल के ऋषि नहीं हैं। वैराग्य (त्याग मार्ग) के सप्तर्षि अन्य लोग हैं। ध्रुव की कहानी जो लोग जानते हैं , उन्होंने सुना होगा। ध्रुव एक बालक था। -बड़े ईश्वरभक्त थे। उनकी दो मातायें थीं। ध्रुव राजा के पुत्र थे, राजा उत्तानपाद की दो स्त्रियाँ थीं। एक का नाम था, सूनीति और दूसरी का सूरुचि। आजकल हमलोग रूचि पसंद करते हैं रोचक चीज बहुत, रूचि -स्वादिष्ट-खट्टा-तीखा बहुत पसंद करते हैं। इसको हमलोग अपना कल्चर कहते हैं, शादी-विवाह में चाट काउंटर अलग होता है। तो जो सूरूचि का पुत्र था वो अपने पिता की गोद में बैठ सकता था।
और जो सूनीति थीं - अर्थात जो नीति या उचित, जो न्यायसंगत मार्ग से -नीति मार्ग से चलने वाली थीं और अपने बच्चे को भी वही सिखाती थीं। जब उनका लड़का अपने राजा-पिता की गोदी में बैठने गया , तो उसको भार समझकर पिता की गोद में बैठने नहीं देती थी। एक दिन बालक ध्रुव जब अपने पिता की गोद में बैठने गए तो, उनकी दूसरी माता ने उन्हें गोदी से उतरवा दिया। ध्रुव मन के दुःख से रोते रोते वहाँ से चले गए और जब अपनी माँ के पास सोने गए थे , तब सब बात बताये। मैं भी जब बहुत छोटा था उस समय, रात में जल्दी नहीं सोता था,माँ के पास सोता था मुझे अब भी याद है। तब माँ अक्सर ध्रुव की कहानी सुनाती थी -लगभग रोज ही सुनता था। माँ कहती थी -जब ध्रुव रोते हुए माँ के पास गए तो उसको तुम भगवान की गोदी में बैठना -कहकर पुचकार कर शान्त करते -करते स्वयं सो गयीं। ध्रुव ने देखा कि माँ सो गयी हैं तो वे चुपके से उठा और दरवाजा खोल कर बगीचे में चला गया। ध्रुव ईश्वर को खोजने लगा -भगवान कहाँ मिलेंगे ? कहाँ है ? पुराणों में जो कथा है उसके अनुसार ध्रुव ईश्वर की खोज करते हुए उत्तरी जंगल में चले गए। बहुत दूर जब गए तो देखा कि एक वृक्ष के नीचे जो सात ऋषि बैठकर ध्यान कर रहे थे। वे लोग प्रवृत्ति मार्ग के ऋषि थे। और स्वामीजी थे निवृत्तिमार्ग के ऋषि।
[ " सः भगवान् सृष्ट्वा-इदं जगत्, तस्य च स्थितिं चिकीर्षुः,मरीचि-आदीन्-अग्रे सृष्ट्वा प्रजापतीन्, प्रवृत्ति-लक्षणं धर्मं,ग्राहयामास वेद-उक्तम् । " ततः अन्याण् च सनक-सनन्दन-आदीन् उत्पाद्य, निवृत्ति-लक्षणं धर्मं ज्ञान-वैराग्य-लक्षणं ग्राहयामास । द्विविधः हि वेदोक्तः धर्मः, प्रवृत्ति-लक्षणः/निवृत्ति-लक्षणः च । जगतः स्थिति-कारणं ,प्राणिनां साक्षात्-अभ्युदय-निःश्रेयस-हेतुः/यः सः धर्मः ब्राह्मणाद्यैः वर्णिभिः आश्रमिभिः च श्रेयोर्थिभिः अनुष्ठीयमानः । (श्रीमद्भगवद्गीता-उपोद्घातः)]
श्री शंकराचार्य स्वयं निवृत्ति-मार्ग के ऋषि थे; किन्तु उन्होंने अपने गीता भाष्य के आरंभ में ही सनातन वैदिक धर्म के दो भेद – प्रवृत्ति और निवृत्ति बतलाए हैं।- 'प्रवृत्ति लक्ष्णो योगः ज्ञानं सन्यास लक्षणम्।' इन्हीं दो मार्गों को गीता में संन्यास और कर्मयोग कहा है। अर्थात एक मार्ग यह है कि ज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर सब कर्मों का संन्यास अर्थात त्याग कर दे; और दूसरा यह कि ज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर भी सब कर्मों को न छोड़े, उनको जन्म भर ऐसी युक्ति के साथ करता रहे कि उनके पाप–पुण्य की बाधा न होने पाए। यदि सभी मनुष्यों के उपर एक ही मार्ग को -केवल निवृत्ति मार्ग को अपनाने बाध्यता थोप दी जाये तो वैसा करना ठीक नहीं होगा। मनु महाराज में कहते हैं- 'निवृत्तिस्तु महाफला।' (मनुस्मृतिः५.५६) विवाह करो, थोड़ा खा पहन लो; किन्तु यह सदा स्मरण रहे कि अंत में तीनों ऐषणाओं से अनासक्त होने से सबसे अधिक लाभ होगा।
श्री आद्य शंकराचार्य ने श्रीमद्भगवद्गीता-भाष्य की भूमिका के माध्यम से सनातन वैदिक धर्म की परिभाषा देते हुए यह बताया है कि- " सः भगवान् सृष्ट्वा-इदं जगत्, तस्य च स्थितिं चिकीर्षुः,मरीचि-आदीन्-अग्रे सृष्ट्वा ... “नारायण” नाम से कहे जाने वाले भगवान् विष्णु (ब्रह्म) इस भौतिक जगत (प्रकृति) से परे हैं, उन्ही श्री भगवान् ने इस अखिल चराचर जगत् की रचना करने के उपरान्त इसके सम्यक् परिपालन की इच्छा से, पहले पहले प्रवृत्ति मार्गी मरीच्यादि ऋषियों का निर्माण किया। पहले प्रवृत्ति मार्ग के ऋषियों की रचना की - अर्थात को लोग संसार में रहकर रुपया-पैसा कमाकर भोग करने के बाद ज्ञान लाभ करेंगे।
उसके बाद निवृत्ति मार्ग के सप्तऋषियों का निर्माण किया। जो निवृत्ति मार्ग के ऋषि थे वे लोग बहुत लम्बे समय तक, करोड़ों -करोड़ गायत्री मंत्र का जप किये थे। उसके फल स्वरुप वे लोग ब्रह्मलोक में स्थान प्राप्त किये थे - एक अन्य पुराण में ऐसा मिलता है। निवृत्ति मार्ग -में भोग नहीं त्याग मार्ग के जो सात ऋषि थे उनमें से एक थे स्वामी विवेकानन्द। और उनको ठाकुर ब्रह्मलोक से धरती पर कैसे ले आये थे - इसका वर्णन भी तो लीलाप्रसंग में मिलता है। ठाकुर देव ने स्वयं अपने मुख से कहा था -
" एक दिन देखता हूँ, मन समाधिपथ में ज्योतिर्मय मार्ग से ऊपर उठता जा रहा है। चन्द्र, सूर्य, नक्षत्रादि से भरे हुए भौतिक जगत को सरलता से लाँघकर वह पहलेपहल सूक्ष्म-भाव- जगत में प्रविष्ट हुआ। उस राज्य के उच्च से उच्चतर स्तरों पर वह जितना ही चढ़ने लगा , उतना ही विभिन्न-देवी-देवताओं की भावघन विचित्र मूर्तियों को रास्ते के दोनों ओर देखने लगा। धीरे धीरे वह उस राज्य की चरम सीमा पर आ पहुँचा। वहाँ मैंने देखा , एक ज्योतिर्मय रेखा ने खण्ड और अखण्ड के राज्य को अलग अलग कर दिया है। उस रेखा को लाँघने के बाद मन अखण्ड के राज्य प्रविष्ट होगया !
मैंने देखा, वहाँ पर साकार कुछ भी नहीं है। दिव्य देहधारी देवीदेवतागण भी मानो यहाँ प्रवेश करते भयभीत होकर बहुत दूर नीचे अपना अपना अधिकार चला रहे हैं ! परन्तु दूसरे ही क्षण देखा, दिव्य ज्योतिसम्पन्न सात श्रेष्ठ ऋषि वहाँ पर समाधिस्थ होकर बैठे हैं। मैं समझ गया -कि ज्ञान और पुण्य में, त्याग और प्रेम में इन्होंने, मानवों की कौन कहे , देवीदेवताओं को भी दूर छोड़ दिया है। मैं विस्मित होकर इन ऋषियों की महानता के बारे में सोच ही रहा था कि एकाएक दिख पड़ा - सामने अवस्थित अखण्ड के घर के भेदरहित, अविभाज्य ज्योतिर्मण्डल का एक अंश घनीभूत होकर दिव्य शिशु रूप में परिणत हुआ। उस देवशिशु ने इनमें से एक के पास उतरकर अपनी अपूर्व सुललित बाहुओं से उनके गले को प्रेम के साथ लपेट लिया। इसके बाद वीणाध्वनि से भी सुमधुर वाणी में उन्हें समाधि से जगाने की भरसक चेष्टा करने लगा। ऋषि समाधि से जागकर प्रसन्न मुद्रा से उस अपूर्व बालक को देखने लगे मनो बहुत समय से उनको जानते हों। वह अद्भुत देवशिशु उस समय असीम आनन्द के साथ उनसे कहने लगा - " मैं जा रहा हूँ। तुम्हें भी आना होगा। " उसके इस अनुरोध पर ऋषि ने कुछ कहा तो नहीं , परन्तु उनके प्रेमपूर्ण नेत्रों ने उनके ह्रदय की सम्मति व्यक्त कर दी। बाद में वे पुनः समाधिस्थ हो गए। उस मैंने विस्मय के साथ देखा- उन्हीं के शरीर-मन का एक अंश उज्ज्वल ज्योति के रूप में परिणत होकर विलोममार्ग से धराधाम पर अवतरण कर रहा है। नरेन्द्र को देखते ही मैंने समझ लिया था कि यही वह दैवी पुरुष है। "......
...... स्वामीजी आये। वही हैं विवेकानन्द, जो दूसरी बार जब दक्षिणेश्वर गए तब ठाकुर के द्वारा अर्चित हुए ! स्वामी जी को ठाकुर देव हाथ जोड़ के कहा - आमि जानी प्रभु , तुमि सेई नारायण ! क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि ठाकुर किस दृष्टि से स्वामीजी को देखते थे ? उसको लेकर आये हैं। किस लिए लेकर आये हैं ? -जगत के कल्याण के लिए लेकर आये हैं। लेकिन उस जगत का कल्याण विवेकानन्द के द्वारा कैसे किया जायेगा ? मनुष्य का कल्याण तो परस्पर मिलजुल कर मनुष्य को ही करना पड़ेगा। कोई देव-देवी पृथ्वी पर उतरकर आकर मनुष्य का कल्याण नहीं करते हैं ! ऐसे कोई देव-देवी होते हैं कि नहीं, मैं भी नहीं जानता ; और मुझे जानने की आवश्यकता भी नहीं है। क्योंकि सिर्फ मनुष्य ही मनुष्य का कल्याण कर सकता है।
किन्तु मनुष्य का कल्याण करने में वैसा मनुष्य ही सक्षम होगा जो स्वयं पहले यथार्थ मनुष्य बन गया हो, तो उसीसे जगत का कल्याण हो सकता है। किन्तु यथार्थ मनुष्य बनने और बनाने की प्रक्रिया है , उस पद्धति को सब कोई नहीं जानते हैं। उस पद्धति को सीखने की आवश्यकता है कि - सच्चा मनुष्य बना कैसे जाता है ? स्वामीजी ने बताया था - प्रत्येक मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव हैं - उसका शरीर है, मन है और ह्रदय है। इन्हीं तीनो का - देह, मन और ह्रदय का यदि सुसमन्वित विकास किया जाये तभी मनुष्य को यथार्थ मनुष्य जैसा कहा जा सकता है।
बहुत सदियों पहले की बात है, लगभग दो हजार वर्ष पहले उज्जयनी में एक विख्यात राजवंश था। ईसापूर्व पहली-दूसरी शताब्दी में महाराज गन्धर्वसेन उज्जैन के राजा थे। उनकी दो पत्नियाँ थीं। पहली पत्नी के पुत्र थे भर्तृहरि और दूसरी के पुत्र थे विक्रमादित्य , जिनके नाम पर विक्रमीय संवत प्रचलित हुआ। [आज-दीवाली के एक दिन बाद 13 नवम्बर, 2023 (+57=2080) से विक्रम संवत 2080 शुरू हुआ !] किन्तु अपने युवावस्था में 'राजा कवि' भर्तृहरि ने सुन्दर तरीके से अपना जीवन गठन नहीं किया था । जीवनगठन नहीं होने से चरित्रनिर्माण नहीं हो सका था। किन्तु उस समय के नियमा-नुसार पिता की मृत्यु के उपरान्त पहले बड़े भाई भर्तृहरि को ही राज्यभार मिला। राजा होने के बाद राजर्षि भर्तृहरि के मन में दायित्वबोध (sense of responsibility- राजपथ नहीं कर्तव्यपथ मिला) जग गया !
उनके मन में विचार उठा कि अभी मेरा जो- विद्याबुद्धि है, ज्ञान-विचार या विवेक-प्रयोग शक्ति के अनुसार गठित चरित्र हुआ है, उससे मैं अपने देश का कल्याण नहीं कर सकता। भारतीय गुरु -परम्परा में जीवन के चार उद्देश्य (चार पुरुषार्थ) बताये गए हैं -धर्म,अर्थ, काम तथा मोक्ष। मुझे यह धर्म क्या है - सीखना होगा। राजा कवि भर्तृहरि के मन में विचार उठा कि मुझे ये सब छोड़कर वन में चला जाना चाहिए, और पहले गुरु से धर्म के विषय में कुछ सीखना होगा। बाद में उन्होंने वैराग्य लेकर अपने छोटे भाई विक्रम को राज्य सौंप दिया। (कहते हैं कि भर्तृहरि योगी मछंदरनाथ और गोरखनाथ के समकालीन थे। शायद उन्हीं के निर्देशन में) जंगल में जाकर साधना करने लगे। क्योंकि महाभारत में वेदव्यास कहते है कि - धर्म अर्थात नीति का पालन करने से अर्थ तथा काम की उपलब्धि भी होती है-
ऊर्ध्व बाहुर् विरोमि एष न च कश्चित् श्रुणोति मे।
धर्मात् अर्थश्च कामश्च स धर्म: किं न सेव्यते।।
मैं दोनों हाथ ऊपर उठाकर पुकार-पुकार कर कह रहा हूँ, पर मेरी बात कोई नहीं सुनता। धर्म से मोक्ष तो सिद्ध होता ही है; अर्थ और काम भी सिद्ध होते हैं, तो भी लोग धर्म का सेवन क्यों नहीं करते ?
साधना करते करते भर्तृहरि को परम् सत्य की अनुभूति हुई या ब्रह्मज्ञान हुआ। वे बड़े विद्वान् भी थे, पहले जब वे भोगी थे तब उन्होंने शृंगारशतक की रचना की थी। किन्तु कर्तव्यबोध जागने पर मनुष्य के कल्याण के उद्देश्य, उनको शिक्षित करने उद्देश्य से नीतिशतक और वैराग्य शतक नामक ग्रंथ की रचना की थी। इतना प्राचीन ग्रन्थ और कोई बचा हुआ है या नहीं , कहना मुश्किल होगा। वेद -उपनिषद कितने वर्ष पुराने हैं कोई नहीं बता सकता , किन्तु उनका यह तीन ग्रन्थ लगभग दो हजार वर्ष पुराने तो होंगे ही।
दादा भी बार बार मुझसे पूछते थे बताओ धर्म क्या है ? श्रद्धा क्या है ? विवेक और बुद्धि में क्या अंतर है ? मनुष्य जीवन सार्थक कैसे होता है ? यही बताना तुम्हारा काम होगा ! लेकिन पहले- बनो और बनाओ ! आंदोलन में निष्ठापूर्वक जुड़ जाओ। अलग से कोई साधना नहीं करनी पड़ेगी -ऐसे ही मुक्त हो जाओगे !
पैसा धर्म से भी आता है और अधर्म से भी आता है। धर्म से जो पैसा आएगा, वह सकारात्मक विकास करेगा और भोग का सही संसाधन करवाएगा। और अधर्म से जो पैसा आएगा, वह आदमी को गलत बनाएगा, दूसरी पत्नी, मांस मदिरा, नई से नई गाड़ी खरीद रहे हैं, नया-नया बंगला बना रहे हैं। पैसा हो जाता है, तो आदमी को लगने लगता है कि यह मकान बहुत छोटा है, अधर्म हुआ, तो बहुतों को देखो, जो भगवान ने मकान दिया था, वही टूट रहा है। इसलिए धर्म जीवन के विकास का सही साधन है।
दादा कहते थे (राजर्षि 'Poet King) 'भर्तृहरि' का जीवन जवानी में उतना अच्छा नहीं था। भर्तृहरि ने जवानी में जीवन को खूब देखा, समझा, भोगा। और जो भी नीति तथा स्वधर्म (वर्णाश्रमधर्म) के अनुसार अपने कर्तव्यों का पालन करता हुआ, देखेगा, समझेगा, भोगेगा, वह मुक्त हो जाएगा। कोई ब्यक्ति अन्ततः वैराग्य (अनासक्ति,निवृत्ति अस्तु महाफला के विवेक-विचार) के द्वारा परम् पुरुषार्थ रूप मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। इस प्रकार नीति तथा वैराग्य को यथार्थ रूप से समझकर अपने जीवन में चरितार्थ कर पाने पर इसी जीवन में चारों पुरुषार्थों की उपलब्धि हो जाती है, और जीव का मनुष्य शरीर धारण करना सार्थक हो जाता है। श्रृंगार से (पशु प्रवृत्ति से), होते हुए नीति (वीरभाव) और वैराग्य से होते हुए देव भाव की साधना -निवृत्ति अस्तु महाफला) में पहुँचे राजा-कवि (राजर्षि) भर्तृहरि द्वारा लिखित ग्रन्थ हैं उसमें उपाय कहा गया है कि मनुष्य किस प्रकार यथार्थ मनुष्य बन सकता है। इस दिशा में भर्तृहरि के दोनों ही लघु ग्रन्थ - नीति -शतकम और वैराग्य -शतकम हमारे लिए सही दिशा-निर्देश का कार्य कर सकते हैं।
येषां न विद्या, न तपो न दानं, ज्ञानं न शीलं, न गुणो न धर्मः ।
ते मृत्यु लोके भुवि भारभूता, मनुष्य रूपेण मृगाश्चरन्ति ।।
मनुष्य देह में जन्म तो मिल गया है , लेकिन जिस मनुष्य के पास न विद्या है , न तप है न दान देने की प्रवृत्ति है । उसके पास न ज्ञान है न शील उत्तम चरित्र (आचरण) है , न तो कोई गुण है और न धर्म के प्रति आस्था है ,-ते मृत्यु लोके भुवि भारभूता, वे लोग इस मृत्यु लोक मे पृथ्वी माता पर भार स्वरुप हैं- जिनकी खबरें हमलोग अक्सर पेपर में पढ़ते हैं, माथा घूम जाता हो , ऐसे मनुष्य के रूप मे पशु होकर विचरण करते है। हमलोग पृथ्वी को माता कहते हैं। माँ की गोद में , पीठ पर ऐसे पशु बैठे हुए हैं इसलिए धरती माता बोझ से लद गयी हैं। धरती माँ को हमेशा उन नरपशुओं का भार उठाना पड़ रहा है।
इसलिए जो मनुष्य धरती पर बोझ स्वरुप हो गए है, उन्हीं मनुष्यों का जीवन यदि धरतीमाता के मंगलकारी सेवक के रूप में गढ़ा जा सके, तो पृथ्वी कितनी सुन्दर पृथ्वी बन जाएगी ? हमारा देश कितना सुन्दर बन जायेगा ? यह काम क्या राजनीती के द्वारा होगा ? या दुबारा कई बार इलेक्शन करवा लेने से हो जायेगा ? सरकार बदल देने से भी वैसा कभी नहीं होगा। क्यों ? 'मनुष्य' कहने के योग्य यथार्थ मनुष्य (त्यागी : एक-दो के अलावा मनुष्य पहले तो ये भी नहीं थे) कहीं दिखाई नहीं देते हैं। पवित्रता, ईमानदारी या निःस्वार्थपरता कहीं नहीं दीखता है; > न शीलं, न गुणो न धर्मः । जिनके पास शील नहीं, विद्या नहीं चरित्र के कुछ भी गुण नहीं , धर्मज्ञान नहीं। तो पशुमानवों को देवमानव कैसे बनाएंगे ? [दादा का लास्ट कैम्प जमशेदपुर कैम्प # जब विदा लेते समय दादा ने कहा था -गृहस्थ हो तो क्या हुआ ?- You are not a best -हमेशा याद रखना की तुम एक शिक्षक हो]
क्योंकि यह शिक्षा हमलोगों की प्रचलित शिक्षा-व्यवस्था में नहीं है। क्यों नहीं है ? आइये इस पर विचार करते हैं। प्राचीन काल में इन बातों को अलग से सिखलाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती थी। क्योंकि उस समय हरेक परिवार में, शिक्षित नहीं होने से भी अपनी सन्तान को यथार्थ मनुष्य बनने की शिक्षा, प्रेरणा देते थे। समाज में ऐसे बुजुर्ग रहते थे जो अनपढ़ होकर भी मनुष्य को दिशा देने में समर्थ थे। गाँव में कोई वृद्ध या वृद्धा दादी होती थी जिनसे अच्छे उपदेश गांव भर के सभी लोग पाते थे,केवल उनके घर के लोग ही नहीं। आज वैसा नहीं होता, इसीलिए बाहर से पाठचक्र - शिविर आदि के माध्यम से कुछ प्रयास करना पड़ेगा।
अभी जो हमने सुना धर्मज्ञान नहीं है - तो धर्म किसे कहते हैं ? एक लाख में कोई भी बता दे तो मैं बहुत समझूंगा। अन्य शास्त्रों में भी है , किन्तु महाभारत में धर्म के विषय में बहु अच्छा से कहा गया है -
वेदाहं जाजले धर्मं सरहस्यं सनातनम्।
सर्वभूतहितं मैत्रं पुराणं यं जना विदुः।।
- हे जाजले ! जिस पुराने धर्म को लोग सर्वभूत के लिये हितकर रूप में जानते हैं, मैं उसी सनातन धर्म और उसके रहस्य को जानता हूँ। जो व्यक्ति सर्वभूतों के सुहृत और समस्त जीवों का हित करने में लगे रहते हैं, वास्तव में उन्हीं को धर्मज्ञ कहा जा सकता है। आगे कहते हैं- ठाकुर कहते थे -धर्म किसे कहते हैं ? वे पुराण, महाभारत , रामायण आदि से कहानी कहते थे , लेकिन उसको अपने तरह से बनाकर कहते थे। वे तो बहुत पढ़े नहीं थे , लेकिन वेदान्त कथाओं को अपनी भाषा में कहते थे। इसीलिए आसानी से लोग समझ नहीं पाते थे कि वह कहानी कहाँ से उद्धृत किया गया है ? ठाकुर ने तो कभी पुराण आदि पढ़ा नहीं था , उनके मन में जो विचार आता था कहते थे। एक छोटी कहानी कहते थे -
- " एक गांव के साधक को आध्यात्मिक साधना करने की इच्छा हुई वह जंगल चला गया। घने जंगल में किसी पेड़ के नीचे बैठकर खूब ध्यान-तपस्या करने लगे। उन्होंने सुन रखा था कि ध्यान का अभ्यास करने से धर्मज्ञान प्राप्त हो जाता है। ध्यान करते करते हठात एक कौवा/बगुला उनके माथे पर विष्ठा कर दिया। क्रोध से हठात ऊपर नजर उठाकर देखा ये धृष्टता किसने की ? देखा ऊपर एक कौवा/ बैठा हुआ है, अत्यंत क्रोधित होकर देखते ही जलता हुआ कौवा/बगुला जल कर भष्म हो गया। जलता हुआ कौवा वृक्ष से नीचे गिर गया। ठाकुर के द्वारा कही गयी कहानी है। वह बड़ा साधारण आदमी था, और भिक्षा माँग कर ही खाता था। लेकिन अचानक 'उसको' (उस कौशिक नामक पुरुष-व्यक्ति के अहं को) ब्रह्मज्ञान लाभ हो गया है -यह विचार मन में आते ही उसका अहं बढ़ गया था, इसलिए अपने क्रोध को जस्टिफाई करने लगा । बोला - ना !! अब क्या मेरा तो हो गया ! मैंने ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर लिया, मुझे तो सिद्धि प्राप्त हो गयी है। जब मेरे देखने मात्र से कौवा भष्म हो गया , तब तो ब्रह्मज्ञान से मुझे इतनी शक्ति प्राप्त हो गयी है, कि कोई उसको कहने की बात नहीं है। अब यदि मैं गाँव में भिक्षा माँगने जाऊंगा तो, मुझे दुबारा माँगने की जरूरत ही नहीं होगी , माँगते ही लोग झोली भर देंगे।
जंगल के निकट एक गाँव में गए हैं। सामने जो घर दिखा -वहां घर के सामने खड़ा होकर (आदेश देते हुए) कहा -साधु आया है , भिक्षा लाओ ! अन्दर से कोई उत्तर नहीं आया तब , थोड़ा तेज आवाज में कहा - 'साधु आया है , साधु खड़ा है -भिक्षा लाओ !' तब भी आवाज नहीं आया तप घर के भीतर से स्त्री ने कहा -बाबा, थोड़ा ठहर जाइये , आ रही हूँ। -साधु को क्रोध हो गया। बोले जानती हो , भिक्षा लेने कौन आया है ? मैं कौन हूँ ? अपना काम करते करते स्त्री ने घर के भीतर से ही कहा- " मैं न तो कौवा हूँ, और न बगुला ही हूँ ! " उस साधु को बड़ा आश्चर्य हुआ। अरे घने जंगल में जो घटना घटी थी, उसको ये कैसे जान गयी ? कहती है -कौवा-बगुला नहीं हूँ ! थोड़ा भयभीत होकर चुपचाप खड़ा रहा। थोड़ी देर बाद स्त्री भिक्षा लेकर देने आयी, और बोली, 'बाबा आप नाराज मत होइएगा। मेरे पति काम करके बाहर से आयेथे , उन्हीं की सेवा में थोड़ी देरी हो गयी क्षमा कीजियेगा। साधु बोले नहीं , नहीं माताजी आप भी तो कम ज्ञानी नहीं लग रही हैं। क्योंकि वे जान गए थे कि जो कौआ -बगुला की घटना जान ले वो भी पहुँचा हुआ सिद्ध है, उसके भीतर कोई शक्ति अवश्य है ! साधु कहते हैं , तुम मुझे धर्म-शिक्षा दो ! ठाकुर की कही हुई कहानी है। नहीं ,नहीं महाराज , मैं तो एक साधारण गृहणी हूँ, मैं धर्म भला क्या जानती हूँ। हाँ जो एक स्त्री का जो कर्तव्य होना चाहिए उतना करती हूँ, पति थक कर आये थे उनकी सेवा कर रही थी। मैं क्या धर्म जानु ?
साधु बोले नहीं तुम बताओ मुझे धर्मज्ञान कैसे होगा ? उस स्त्री ने काशी में धर्मव्याध के बारे में सुना है - उनके पास जाइये तो वे आपको धर्म शिक्षा दे सकते हैं। वे चले काशी , पूछते हुए दुकान पर पहुँचे, एक व्यक्ति माँस काटकर बिक्री कर रहा था। ब्याध वो धर्म बताएंगे। लेकिन कुछ कहते उसके पहले ही धर्मव्याध बोले , तुम ठहरो अपना काम समाप्त करने के बाद मैं तुमसे बात करूंगा। बिक्री करने के बाद दुकान को धोये , जिससे मांस काटते हैं -चक्कू-छुरा सफाई किये। फिर कहे मेरे साथ मेरे घर चलो। वहाँ बैठा दिया , बोले मेरे एक वृद्ध पिताजी हैं , उनकी थोड़ी सेवा करूँगा , उसके बाद तुमसे बातचीत करूँगा। सेवा करके आये तब साधु से थोड़ी धर्म की बात कहे। धर्म के बारे में क्या कथा बोले ? वही जो 'सनातन धर्म' श्लोक ऊपर सुना - सर्वभूतहितं मैत्रं पुराणं यं जना विदुः।।' जो प्रत्येक मनुष्य के कल्याण के लिए विचार करता है , उसके लिए जो आवश्यक हो उसका त्याग कर सके। जो अपने कल्याण की अपेक्षा दूसरों के कल्याण को बड़ा समझता हो वही धर्म को जानता है। इस प्रकार कौशिक की धर्म-शिक्षा तो हो गयी।
>> 8. लेकिन हमलोगों की धर्म शिक्षा क्या हो रही है ? हमारी धर्मशिक्षा क्या है ? हमारी धर्म शिक्षा है यही है कि, 'चोरी करना तो सीखना ही होगा' , डण्डी मारने का बहुत उपाय है। हम चाहे जिस काम में भी क्यों न लगे हों , वहीं चोरी कर सकें।
सरकारी नौकरी मुझे भी करनी पड़ी थी, और उसमें बहुत सारी चोरी पकड़नी भी पड़ी थी। यहाँ तक कि रिलीफ-वर्क का काम देखना पड़ा था। रिलीफ वर्क का चलान -बिल आया है , उस पर सरकारी क्रमचारी का सिग्नेचर है , मैं भी सिग्नेचर करता हूँ , बिल भुगतान कर दिया हूँ। बिल आता गया पेमेन्ट भी होता गया। एक बार मन में आया चेक करके देखा जाये बिल भुगतान सही हुआ या नहीं ? मिट्टी काटने का काम हो रहा था , बहुत से स्त्री-पुरुष मजदूर काम कर रहे थे। मेट को जाकर बोला तुम जरा अपना attendence रजिस्टर दिखलाओ तो। हाजरी बही में 30 जन का सिग्नेचर है -काम कर रहे हैं 10-12 जन। ऐसे कई केस देखे। सरकारी रुपया का ओवर पेमेन्ट 3 -4 वर्षों से चल रहा था। उस समय एक सब-डिवीजन एक विभाग का इंचार्ज होकर गया हूँ। हेडक्लर्क ने आकर कहा मैंने इस बिल पर सिग्नेचर कर दिया है आप भी कजिये -क्या है ? यह ट्रांसपोर्ट का बिल है। चावल-गेंहूं दिया जाता है उसका ट्रक का बिल पेमेंट है। मैंने पूछा जरा सरकारी ऑर्डर दिखालिये कि उस पर क्या लिखा है ? कितना ट्रक का ऑर्डर है ? आप गौरमेंट ऑडर्र देख कर क्या कीजियेगा ? आप अभी नया -नया आये हैं क्या ? हाँ , यहाँ नया हूँ , मेरी उम्र भी कम है लेकिन यही मेरा काम है। तब अन्त में ऑर्डर फाइल दिया। उसमे देखा प्रत्येक बिल में जानबूझकर जितना रुपया देना चाहिए था, उससे ज्यादा रुपया पेमेंट किया है। गत तीन वर्ष में कितना पेमेंट हुआ है दिखाओ। सभी बिल फाल्स बिल थे। सरकारी आदेश से अधिक रुपया का पेमेंट किया गया था। तीन साल के पेमेंट का लिस्ट बनाया।
इन सब कार्यों को करने में क्या स्वामी विवेकानन्द पर कोई चर्चा हुई क्या ? मेरी समझ से केवल हम विवेकानन्द की शिक्षा को ही सुन रहे हैं । यह यदि नहीं हो रहा है, तो विवेकानन्द -विवेकानन्द करने का कुछ फायदा नहीं है। मैंने ऐसे बहुत से लोगों को देखा है जो विवेकानन्द -विवेकानंद करते हैं , रामकृष्ण-रामकृष्ण करते हैं लेकिन बहुत अधर्म का काम भी करते हैं। इसलिए हमलोग जो काम करते हैं , उसमें हमारा भीतर और बाहर , मन और मुख में बहुत बार आकाश और पाताल जितना बहुत अन्तर रहता है। sdo को लिस्ट दे दिया कि इस तरह से अधिक पेमेंट हुआ है। उस दिन पहली बार उनसे मिला था , मेरा ऑफिस अन्य जगह था। पहले कभी भेंट भी नहीं था। रिपोर्ट देखकर उन्होंने मुझे बुलवाया। आप यहाँ कब ज्वाइन किये ? एक हफ्ता हुआ है। मैंने रिपोर्ट में सब कुछ लिख दिया है , तीन वर्ष से ओवर पेमेंट हो रहा है। वे बोले कि तब इसके बारे में क्या ऐक्शन लेने की अनुशंषा आप करते हैं ? हमलोगों को तो चार्टर्ड अकाउंट में पहली शिक्षा यही दी जाती है कि सरकारी पैसे को अपना धन समझकर हिसाब रखना चाहिए। तो यदि मेरे पैसे को कोई नष्ट करे तो , उसकी रक्षा करना मेरे लिए आवश्यक होगा। मेरा कर्तव्य तो वही है। सरकारी पैसा नष्ट हो रहा है , मैं इसको देख चूका हूँ। मैं कैसे कहूं कि सब ठीक चल रहा है। तो अब आप क्या करना चाहेंगे ? एक दम सीधी बात है -लिस्ट के अनुसार प्रत्येक पार्टी को चिट्ठी दूंगा की तुम्हारे बिल में इतना एक्सेस अमाउंट का पेमेंट हुआ है , ट्रेजरी में जमाकर के उसका रशीद ऑफिस में दो। तो हो गया ! सारा पेमेंट वापस आ गया।
तुमलोग जहाँ से आये हो , या बहुत से गाँव में पैदल जाना पड़ता है। नाम नहीं लूंगा , अभी रोड बन गया है , बस -मोटर चलता है। लेकिन पहले एक जगह चलंत मार्टिन रेल से उतरने के बाद पैदल चल रहा था। जाते जाते नदी पड़ती थी , नाला को पार करना पड़ता था। पहले बिल्कुल रास्ता नहीं था। एक जगह एक ऐसा नाला था - तुम लोगों से गप कर रहा हूँ। नाला पर जाल बंधा हुआ था, दो बांस से रास्ता रोका हुआ था। मैं पैंट पहना था जाऊंगा कैसे ? एक छोटी सी लड़की मुझको चलते देखकर हंस रही थी। मैं 41 वर्ष तक नौकरी किया हूँ। लेकिन एकदम निष्ठापूर्वक किया हूँ। १७ साल ६ महीना फिशरी में काम किया हूँ। महामण्डल में ४१ वर्ष से हूँ। मैंने देखा है ईमानदारी का मूल्य क्या है ? एक बार मेरी नौकरी जाने वाली थी , एक ऑफिसर ने बुलाया , लोग सोचे आज तो ये गया। कमरे में गया , तो बोले मैंने सुना है कि आप ऑफिस में कुछ काम नहीं करते हैं। जो भी काम मिलता है मैं करता हूँ। बाद में नियम कर दिए कि जितने फाइल पर उनको सिग्नेचर करना पड़ता है सब फाइल पहले मेरे टेबल पर आएगा।
उस समय महामण्डल हो गया था। काम करते करते शाम का ६ बज गया था। मेरे कमरे में लाईट जल रहा था , मैं अपने काम में व्यस्त था। हठात बिजली ऑफ़ हो गया। मैंने पूछा कौन है भाई लाइन कहे काट दिया। देखता हूँ डिरेक्टर हैं। उनका कमरा ठीक मेरे सामने था। उन्होंने देखा कि बल्ब जल रहा है तो काट दिया. मैंने सोचा चपरासी कटा होगा। वे देख कर बोले आप बैठे हैं , उठिये आपको जहाँ जाना है मैं छोड़ दूंगा। लिफ्ट से निचे उतरकर पूछा आप अभी कहाँ जायेंगे ? मैं बोलै इन्टली जाऊंगा , उस समय इंटली में महामण्डल का ऑफिस हुआ था। प्रतिदिन आप मेरे साथ मेरे गाड़ी में जायेंगे। ईमानदारी का मूल्य है !
क्यों बोलता हूँ ? क्योंकि करके देखा है। केवल किताब से नहीं कह रहा हूँ। करने से फल मिलता है। ईमानदारी का मूल्य है। परिश्रम का मूल्य है। प्रत्येक कैम्पर को कहता हूँ, जो विशेष कर सीखने आये हैं ईमानदार होना , परिश्रमी होना , जो करना जरुरी हो वो करना। एवं बेईमानी -भ्रषचार को कभी प्रश्रय मत देना। खुद मत करना न किसी को करने देना। लेकिन उसको लेकर हल्ला -हंगामा करने की जरूरत नहीं है।
क्यों बोलता हूँ ? क्योंकि करके देखा है। केवल किताब से नहीं कह रहा हूँ। करने से फल मिलता है। ईमानदारी का मूल्य है। परिश्रम का मूल्य है। प्रत्येक कैम्पर को कहता हूँ, जो विशेष कर सीखने आये हैं ईमानदार होना , परिश्रमी होना , जो करना जरुरी हो वो करना। एवं बेईमानी -भ्रषचार को कभी प्रश्रय मत देना। खुद मत करना न किसी को करने देना। लेकिन उसको लेकर हल्ला -हंगामा करने की जरूरत नहीं है।
जो व्यक्ति इस धर्म-मार्ग में क्रमशः उपर उठता रहता है, उसका आचरण ( चरित्र ) बिलकुल अन्य प्रकार का हो जाता है। क्योंकि धर्म आचरण में लाने की चीज है, उसको यदि जीवन में नहीं उतारा गया तो वैसे शुष्क ज्ञान का कोई मोल नहीं है। इसीलिये कहा जाता है " धर्मं चर " - धर्म को आचरण के द्वारा प्रकट करो। धर्म के बारे में कहा गया है कि -- "व्यवहृयमानः", "अनुष्ठीयमानः।" अर्थात धर्म व्यवहार की वस्तु है, धर्म तो आचरण में उतारने की चीज है। इसलिए तुम सभी पवित्र जीवन व्यतीत करना, और ठाकुर , माँ, स्वामीजी - जो इसी प्रकार का बिल्कुल पवित्र जीवन यापन करने में समर्थ थे,अतएव उनको भगवान कहा जाए या नहीं -मैं नहीं जानता। किन्तु इतना जानता हूँ कि मनुष्य शरीर के आलावा और कहीं भगवान का आविर्भाव नहीं होता है।
हमलोगों का यह परम् सौभाग्य है कि हम इन तीनों पर श्रद्धा रखते हैं। और थोड़ी श्रद्धा करें तो - उनके आदर्श , उनकी शिक्षा को अपने जीवन में यदि धारण कर लेते हैं तो हमलोगों का जीवन सुंदर होगा। तब अनेक लोगों का जीवन भी सुंदर बनेगा। देश की जो वर्तमान हालत है उसमें परिवर्तन आएगा। उसके बिना कोई बदल नहीं होगा। जो कैम्पर भाई सीखने आये हैं -तुमसे कहता हूँ , तुमलोग इस विशेष उत्तरदायित्व को ग्रहण करो। ताकि जो प्रशिक्षण हमलोग पाते हैं , बार-बार पाएंगे , पुस्तकें हैं - उनको पढ़ो , व्यायाम करो , मनःसंयोग करो। ठाकुर-माँ -स्वामीजी का जीवन पढ़ो। निश्चय ही संसार -परिवार की आवश्यकता हैं , तुमलोगों का भी परिवार है , अर्थ उपार्जन की चेष्टा हमलोग अवश्य करेंगे। लेकिन पवित्रता से धन अर्जित करेंगे। जीवन धारण करो लेकिन तुम्हारा जीवन अपने लिए नहीं हो , दूसरों के लिए हो , समाज के कल्याण के लिए हो। भारतमाता की सेवा के लिए हो। यह संकल्प तुमलोग लो। यहाँ से 'विदाय' लेने के बाद- Take responsibility विशेष उत्तदायित्व ग्रहण करो।
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