शुक्रवार, 4 जून 2021

श्री रामकृष्ण दोहावली (14) गुरु (भ्रमर ) का मानसिक सुमिरण (विवेक-दर्शन)/संसारी जीव और साधना ~ सरसों के दानों के भीतर अगर भूत घुस जाये तो उनके द्वारा भूत कैसे उतरे !

                      श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर 

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(14) 

संसारी जीव और साधना 

134 विषय वासना मान यश , खेत के बिल समान। 

216 श्रम कर कर जल सींचहि पर , दिखै न एक भरान।।

किसी किसान ने सारा दिन गन्ने के खेत में पानी सींचने के बाद , जाकर देखा तो खेत में बूँद भर भी पानी नहीं पहुँचा है ; खेत में कुछ बड़े बड़े बिल थे , और सारा पानी उन बिलों से होकर दूसरी ओर बह गया था। 

इसी प्रकार जो व्यक्ति मन में विषय-वासना , मान-यश, सुख-सुविधा की आकांक्षा रखते हुए ईश्वर की उपासना करता है,  वह यदि जीवन भर भी नियमित रूप से साधना [आसन-प्रत्याहार -धारणा  का अभ्यास] करता रहे तो भी अंत में यही देखता है कि उसकी सारी साधना उन वासनारूपी बिलों से बाहर निकल गयी है। और वह महामण्डल से जुड़ने के पहले जैसा था,वैसा ही रह गया है। मन को वशीभूत करने की दिशा में  तनिक भी प्रगति नहीं कर पाया है।

 [जो व्यक्ति यम-नियम का पालन किये बिना, अर्थात  'उभयतो वाहिनी चित्तनदी के प्रवाह पर वैराग्य का फाटक' लगाए बिना ही मनःसंयोग (विवेकदर्शन) का अभ्यास करता रहता है, तो अन्त में वह यही देखता है कि  'विवेकश्रोत' को उद्घाटित करने की दिशा में उसकी तनिक भी प्रगति नहीं हुई है।]  

135 जब तक मन में वासना , विषय रस ओत प्रोत। 

218 तब तक हरि का भजन नहिं , नहिं आनन्द का श्रोत।।

अगर किसी पर भूत का आवेश हो जाये तो सरसों के दानों पर मन्त्र पढ़कर उनसे भूत उतारा जाता है। परन्तु जिन सरसों के दानों के द्वारा भूत उतारना है, उन्हीं सरसों के दानों के भीतर अगर भूत घुस जाये तो उनके द्वारा भूत कैसे उतरे ! जिस मन के द्वारा ध्यान-भजन , भगवद्चिंतन [= विवेक-दर्शन का अभ्यास ] करना है , वही यदि विषय-चिन्ता में लिप्त रहे , तो उस मन के द्वारा भला साधन -भजन [विवेकश्रोत का उद्घाटन] कैसे होगा ?  

136 गीली माचिस जले नहीं , घस लो बारम्बार। 

219 तस विषयी मन भक्ति नहिं , दो उपदेश हजार।।

गीली दियासलाई को तुम कितना भी घीसो , वह नहीं जलती। पर सुखी दियासलाई एक बार घिसते ही तुरन्त जल जाती है। सच्चे भक्त का मन सूखी दियासलाई के समान होता है।  थोड़ा ईश्वर का नाम सुनते ही उसमें प्रेम-भक्ति की ज्योति जल उठती है। 

परन्तु संसारी व्यक्ति का मन गीली दियासलाई की भाँति काम-कांचन की आसक्ति में भीगा होता है , उसे ईश्वर की महिमा कितनी भी सुनाई जाये , उसमें भगवद्भक्ति  (माँ जगदम्बा के अवतार वरिष्ठ की भक्ति) की चिंगारी नहीं सुलगाई जा सकती ! 

137 संसारी दुःख -क्लेश सहे , जदपि योगी समान। 

220 बिरथा सब हरि प्रीत बिना , चाहत धन यश मान।।

संसारी व्यक्ति में ज्ञानी पुरुषों के समान ज्ञान और बुद्धि हो सकती है , वह योगियों की तरह कष्ट-क्लेश सह सकता है , और तपस्वियों की भाँति त्याग कर सकता है ; परन्तु उसके ये सारे श्रम व्यर्थ ही होते हैं। क्योंकि शक्तियाँ गलत दिशा में प्रवाहित होती हैं , वह अपनी सारी शक्ति नामयश और धन कमाने में ही लगा देता है -भगवान के लिए नहीं ! 

[ अर्थात 'अर्थ' और 'काम' (या तीन ऐषणाओं की पूर्ति) में ही लगा देता है , चतुर्थ पुरुषार्थ -  'मोक्ष ' या सत्य (इन्द्रियातीत सत्य) को पाने या de-hypnotized होने के लिए नहीं!] 

138 जस परछाई दिखहि नहिं , मैले दर्पण माहि। 

221 तस अपावन हृदय महँ , प्रभु का दर्शन नाहिं।।

मैले दर्पण में सूर्य का प्रकाश प्रतिबिम्बित नहीं होता , स्वच्छ दर्पण में ही प्रतिबिम्बित होता है। इसलिए " विशुद्ध बनने का प्रयत्न करो।"  

139 जस प्रतिबिम्ब अति उज्ज्वल , स्वच्छ दर्पण माहिं। 

221 तस पावन हिय सहजहि , प्रभु के दरसन पाहिं।। 

               मायामुग्ध, अशुद्ध और अपवित्र हृदयवाले व्यक्ति ईश्वरीय महिमा का प्रकाश नहीं देख पाते , विशुद्ध ह्रदय व्यक्ति ही उसे देख पाते हैं। 

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